संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे जैसों पर कार्रवाई क्यों नहीं

नई दिल्ली। भीमा कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में वामपंथी रुझानों वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की देश भर से हुई गिरफ़्तारियों के बाद एक अहम सवाल खड़ा हुआ है. सवाल ये है कि इसी मामले में प्रमुख अभियुक्त संभाजी भिडे के ख़िलाफ़ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई है.

1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के अगले ही दिन अनीता सावले नाम की महिला ने इस सिलसिले में पिंपरी पुलिस स्टेशन में शिक़ायत दर्ज कराई थी. इस शिक़ायत में संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे को अभियुक्त बनाया गया था. शिक़ायत दर्ज किए जाने के साढ़े तीन महीने बाद 14 मार्च को मिलिंद एकबोटे को गिरफ़्तार किया गया. हालांकि अगले महीने ही अप्रैल में उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. लेकिन संभाजी भिडे को इस मामले में अब तक गिरफ़्तार नहीं किया गया है.

पुलिस की अनदेखी के बाद शिकायतकर्ता अनीता ने बॉम्बे हाईकोर्ट में संभाजी भिड़े की गिरफ़्तारी के लिए याचिका भी डाली थी. याचिका जून में दायर की गई थी, लेकिन उस पर सुनवाई अब तक शुरू नहीं हुई है.

हालांकि संभाजी भिडे को लेकर भाजपा सरकार किस तरह रक्षात्मक है, इसका सबूत इससे मिलता है कि भिडे को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने मार्च, 2018 में महाराष्ट्र विधानसभा में बयान दिया था कि भीमा कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में संभाजी भिडे के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला है.

इस मुद्दे को लेकर बीबीसी में प्रकाशित खबर में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज पीबी सावंत ने कहा है कि, “यह पुलिस के ऊपर निर्भर करता है कि किसी को गिरफ़्तार किया जाए या नहीं.

जस्टिस सावंत का कहना है कि हिंदुत्व के समर्थक चाहे जैसे भी आपराधिक काम करें उन्हें इस सरकार के रहते कोई सज़ा नहीं मिलेगी,उन्हें सरकार से सुरक्षा मिली है. सावंत संभाजी भिड़े और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दोस्ती की ओर भी इशारा करते हैं.

इस मामले में सरकार द्वारा पक्षपात करने की बात को इस बात से भी बल मिल रहा है कि भीमा-कोरेगांव हिंसा के बाद संभाजी भिडे पर मामला दर्ज होने के बाद फरवरी में पीएम मोदी ने एक वीडियो ट्वीट किया था, जिसमें दोनों एक मंच साझा करते नजर आए थे. जाहिर है कि देश का प्रधानमंत्री खुद जिस व्यक्ति के साथ वीडियो साझा कर रहा हो, उसे गिरफ्तार करने की हिम्मत आखिर कौन पुलिस अधिकारी करेगा.

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क्या 2019 में भाजपा की ओर से खेलेंगे शिवपाल यादव

मुलायम सिंह यादव की बनाई समाजवादी पार्टी में बिखराव शुरू हो गया है. उनके छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने सपा से नाता तोड़कर समाजवादी सेक्यूलर मोर्चा बनाने की घोषणा कर दी है. शिवपाल यादव ने यह घोषणा 29 अगस्त को की. उनका कहना था कि वे पिछले डेढ़ साल से इंतजार कर रहे थे कि मौजूदा पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव उन्हें उनके क़द के मुताबिक कोई ज़िम्मेदारी सौंपेंगे. लेकिन जब अखिलेश ने अपने चाचा की सुध लेने में कोई रुचि नहीं दिखाई तो शिवपाल सिंह ने सपा छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना ली है.

शुरुआती तौर पर जो दिख रहा है, उसके मुताबिक शिवपाल का इरादा अखिलेश से नाराज़ सभी नेताओं को एक मंच पर लाना है. 2016 के अंत में अखिलेश यादव ने शिवपाल को न सिर्फ मंत्रिमंडल से हटा दिया बल्कि पार्टी से भी निष्कासित कर दिया था. लेकिन फिर मुलायम सिंह के दखल के बाद अखिलेश यादव ने उन्हें वापस पार्टी में तो ले लिया लेकिन उन्हें हाशिये पर रखा. इसके बाद से ही शिवपाल अखिलेश से नाराज चल रहे थे. जिसके बाद शिवपाल द्वारा नया मोर्चा बनाने की बात सामने आई है. हालांकि शिवपाल सिंह यादव के सपा और संभावित महागठबंधन के सामने खड़े होने के पीछे भाजपा का हाथ माना जा रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले कुछ महीनों में शिवपाल यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कई बार मिले हैं. तो वहीं सपा से निष्कासित राज्यसभा सांसद अमर सिंह ने मंगलवार को लखनऊ में मीडिया से शिवपाल और बीजेपी के वरिष्ठ नेता के बीच मीटिंग फिक्स करवाने की बात कही थी, हालांकि शिवपाल उस बैठक में नहीं पहुंचे थे. यानी शिवपाल के फैसले के पीछे जिन लोगों का हाथ है उनमें अमर सिंह और योगी आदित्यनाथ नाम होने से इंकार नहीं किया जा सकता. दरअसल भाजपा के खिलाफ देश भर में जिस तरह का माहौल बन गया है, उससे साफ है कि भाजपा के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी ज्यादा है. उत्तर प्रदेश में जिस तरह महागठबंधन बन गया है उससे भाजपा खासी परेशान है. लिहाजा अमित शाह और मोदी चुनौती वाले हर राज्य में चुनाव को त्रिकोणीय या बहुकोणीय बनाने के पक्षधर हैं, ताकि विपक्षी वोटों को बांटकर भाजपा के जीत को सुनिश्चित किया जा सके. यही वह तरीक़ा है जिससे एंटी-इनकमबेंसी के चलते कम होने वाली सीटों की भरपाई हो सकती है. एनडीए के पास आज 333 सीटें हैं. यानी बहुमत से 60 सीटें ज्यादा. अगर 2019 के चुनाव में वह बहुमत से कुछ दूर रह जाती है तो उसे उम्मीद है कि उसे नए सहयोगी मिलने में दिक़्क़त नहीं होगी. यह भारतीय जनता पार्टी का ‘डिमॉलिशन स्क्वॉड’ है. फ़िलहाल इसने उत्तर प्रदेश में शिवपाल यादव के रूप में अपना काम करना शुरु कर दिया है.

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आतंकियों ने दी मोदी सरकार को सीधी चुनौती

नई दिल्ली। आतंकवादियों ने केंद्र की भाजपा सरकार को सीधी चुनौती दी है. जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी जहां पहले स्थानीय नागरिकों और सेना को निशाना बनाते रहे हैं तो अब उन्होंने पुलिसकर्मियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है. पुलिस और सरकार को सीधी चुनौती देते हुए आतंकवादियों ने पुलिसकर्मियों के परिजनों को अगवा कर लिया है. अगवा किए गए सभी लोग पुलिस के परिवार के सदस्य हैं.

पुलिस सभी को ढूंढने के लिए बड़े पैमाने पर सर्च ऑपरेशन चला रही है. आतंकियों द्वारा पिछले 24 घंटे में कुल नौ लोगों को अगवा किया गया. अगवा किए गए जिन लोगों के नाम सामने आए हैं, उसमें-

आतंकवादियों,भाजपा,केंद्र भाजपा, 1. जुबैर अहमद भट्ट, पुलिसकर्मी मोहम्मद मकबूल भट्ट के बेटे 2. आरिफ अहमद, एसएचओ नाजिर अहमद के भाई 3. फैज़ान अहमद, पुलिसकर्मी बशीर अहमद के बेटे 4. सुमैर अहमद, पुलिसकर्मी अब्दुल सलाम के बेटे 5. गौहर अहमद, डीएसपी एज़ाज के भाई 6. डीएसपी मोहम्मद शाहिद का भतीजा अगवा 7. पुलवामा से एक पुलिसवाले के भाई को अगवा किया गया 8. पुलिसवाले के बेटे को काकापोरा से 9. त्राल से भी एक पुलिसवाले के बेटे को अगवा किया गया 10वां नाम सामने नहीं आया है. एक तरफ आतंकियों ने दस लोगों को अगवा किया है तो दूसरी तरफ सुरक्षाकर्मियों ने दस आतंकियों की हिटलिस्ट भी जारी कर दी. इनमें घाटी के टॉप आतंकी शामिल हैं.

आतंकवादियों ने इस घटना को तब अंजाम दिया जब एनआईए ने वांछित आंतकवादी सैयद सलाउद्दीन के दूसरे बेटे को गिरफ्तार किया है. राष्‍ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने गुरुवार सुबह श्रीनगर से हिज्बुल मुजाहिद्दीन के चीफ सैयद सलाउद्दीन के बेटे सैयद शकील अहमद को उसके घर से गिरफ्तार किया. ये गिरफ्तारी आतंकी फंडिंग के मामले में की गई.

यह पहली बार है जब आतंकियों ने सीधे तौर पर पुलिस और सरकार को चुनौती दे दी है. देखना है कि सरकार और सेना आतंकियों से कैसे निपटती है और उन्हें कैसे मुंहतोड़ जवाब देती है.

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दलितों का दमन और मौत की मार्केटिंग

दलित शौर्य और ब्राह्मणवादी पेशवाओं की शर्मनाक पराजय का प्रतीक बन चुके भीमा कोरेगांव की 200वीं वर्षगांठ पर इकट्ठा हुए दलितों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषांगिक संगठनों द्वारा हमला करने के पश्चात भी पीछे न हटने वाले दलित कार्यकर्ताओं में खौफ पैदा करने के लिए केन्द्र सरकार ने पुलिसिया दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया है. साथ ही साथ प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश का तार भीमा कोरेगांव में हुए शान्तिपूर्ण आन्दोलन से जोड़कर प्रधानमंत्री स्वयं अपनी मौत की मार्केटिंग करना चाहते हैं और इसी आधार पर वे 2019 के चुनाव को जीतना चाहते हैं. चुनावी वर्ष 2019 जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे इनकी योजनाओं की कलई खुलती जा रही है. नोटबन्दी और जीएसटी से भारतीय अर्थव्यवस्था चैपट हो चुकी है. नोटबन्दी के पश्चात् लगभग दो महीने तक हजारों फैक्ट्रियाँ पूर्णतः बन्द थीं जिससे लगभग 10 से 15 करोड़ दैनिक मजदूर बेरोजगार हो गये थे. इनके सामने रोजी-रोटी का संकट आज भी खड़ा है. कल्याणकारी योजनाओं जैसे विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन बन्द करने के कारण दूसरे पर आश्रित बुजुर्गों और महिलाओं की स्थिति दयनीय हो चुकी है.
स्वच्छ भारत अभियान की शौचालय योजना, उज्जवला योजना, राशन को आधार कार्ड से जोड़ने की योजना जैसी कई योजनाओं की कलई खुल चुकी है और इसका प्रतिकूल प्रभाव समाज में अन्तिम पायदान पर स्थित व्यक्तियों पर पड़ा है. इसीलिए प्रधानमंत्री सैनिकों की शहादत की मार्केटिंग करते-करते स्वयं अपनी शहादत की मार्केटिंग करने लगे हैं और उसका आरोप दलित आन्दोलन पर लगाना चाह रहे हैं. दलित आदिवासियों के अधिकारों के लिए वैधानिक और वैचारिक संघर्ष करने वाले लेखकों, पत्रकारों, वकीलों को एक तथाकथित पत्र, जो पुलिस न्यायालय में भी प्रस्तुत नहीं कर रही हैं, के आधार पर छापेमारी के द्वारा गिरफ्तार करना न केवल लोकतंत्र की हत्या है, बल्कि ‘कानून के राज’ की भी हत्या है. इसके साथ ही साथ संघ परिवार की पाठशाला में प्रशिक्षित तथाकथित बुद्धिजीवियों, टी.वी. ऐंकरों, पत्रकारों की आक्रामक बहस भी दलितों को डराने, धमकाने की रणनीति का ही हिस्सा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की घोषित परियोजना भारत को ‘लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य’ जिसकी घोषणा संविधान की उद्देशिका में की गयी है, से बदलकर ‘ब्राह्मणवादी राष्ट्र-राज्य’ के रूप में स्थापित करने की है. संघ के इस उद्देश्य में बाधा वैज्ञानिक ढंग से सोचने-समझने वाले बुद्धिजीवी, दलितों-आदिवासियों के दमन उत्पीड़न के विरुद्ध वैधानिक व वैचारिक लड़ाई लड़ने सामाजिक कार्यकर्ता हैं. इन कार्यकर्ताओं पर पुलिसिया दमन की कार्यवाही के माध्यम से संघ परिवार दलितों और आदिवासियों में खौफ पैदा करना चाहता है क्योंकि दलित आन्दोलन न केवल वैचारिक, सांस्कृतिक स्तर पर इनको चुनौती दे रहा है बल्कि चुनावी राजनीति के स्तर पर भी चुनौती दे रहा है. इसलिए  संघ के हिन्दू राष्ट्र-राज्य की परियोजना में सबसे बड़ी बाधा यदि कोई है तो वह दलित आन्दोलन है. अन्य बड़ी बाधाओं जैसे अल्पसंख्यकों को संघ परिवार आतंकवादी तथा आदिवासियों को नक्सली घोषित कर चुका है.
वास्तव में दलितों से निपटने के लिए इनके पास कोई रास्ता नहीं है. इसलिए कई तरह के हथकंडे अपना रहे हैं. केन्द्र में सत्तारूढ़ होते ही इन्होंने सबसे पहले सामाजिक तथा सांस्थानिक दमन का रास्ता अपनाया. उच्च शिक्षा में छात्रवृत्ति रोकना दलितों के दमन के लिए उठाया गया कदम था. परिणामस्वरूप दलित समाज ने रोहित वेमुला जैसे प्रतिभाशाली नौजवान को खो दिया. उच्च शिक्षा में बहुत सारे दलित नौजवानों का दमन आज भी जारी है. गुजरात में दलितों को नंगा कर पीटना तथा वीडियो वायरल करने की घटना सामाजिक दमन है. इन घटनाओं के विरोध में जब चन्द्रशेखर ‘रावण’ जैसे नौजवान आवाज उठाते हैं तो उन्हें रासुका जैसे धाराओं में जेल में बन्द कर दिया जाता है, जो राजनीतिक दमन है. और अब इन आवाज उठाने वाले नौजवानों के अधिकारों के लिए वैधानिक और वैचारिक संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, वकीलों, कवियों को छापा मार कर पकड़ना राजसत्ता का अन्तिम हथियार पुलिसिया दमन है. स्पष्ट है कि संघ परिवार द्वारा संचालित केन्द्र सरकार दलित दमन का हर हथकंडा अपना रही है और स्वयं मोदी जी अपनी हत्या की साजिश का तार दलित आन्दोलन से जोड़ रहे हैं. बाबासाहब के दिखाये गये रास्ते पर चलने वाला दलित आन्दोलन संघ की साजिश को सफल नहीं होने देगा.
डा. अलख निरंजन
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पुलिस ने पूछा घर में फुले-आम्बेडकर की तस्वीरें, देवताओं की क्यों नहीं

भीमा-कोरेगांव मामले में पुलिस ने जिन पांच एक्टिविस्टों को गिरफ्तार किया है, उनमें दलित समाज से आने वाले एक्टिविस्ट वरवर राव भी शामिल हैं. वरवर राव एक वामपंथी रुझानों वाले कवि, पत्रकार और एक्टविस्ट हैं. वरवर राव की गिरफ्तारी के मामले में उनकी दोनों बेटियों के घर की भी तलाशी ली गई. इस दौरान उनकी बेटियों से जिस तरह के सवाल पूछे गए, वह पुलिस पर सवाल खड़े करती है.

बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक वरवर राव की बेटी से पूछताछ के दौरान पुलिस ने कई आपत्तिजनक और गैर जरूरी सवाल पूछे. उनकी बेटी से पूछा गया कि-

“आपके पिता दलित हैं, इसलिए वो किसी परंपरा का पालन नहीं करते हैं. लेकिन आपने कोई गहना या सिंदूर क्यों नहीं लगाया है? आपने एक पारंपरिक गृहिणी की तरह कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? क्या बेटी को भी पिता की तरह होना ज़रूरी है?”

वरवर राव के दामाद के. सत्यनारायण से पूछा गया कि ”आपके घर में इतनी किताबें क्यों है? क्या ये आप सारी किताबें पढ़ते हैं? आप इतनी किताबें क्यों पढ़ते हैं? आप मार्क्स और माओ के बारे में किताबें क्यों पढ़ते हैं? आपके घर में फ़ुले और आंबेडकर की तस्वीरें हैं लेकिन देवी-देवताओं की क्यों नहीं?”

के. सत्यनारायण ने बाद में पुलिस के सवालों पर प्रतिक्रिया देते हुए आरोप लगाया कि पुलिस ने उनकी पत्नी से ‘अपमानजनक और मूर्खतापूर्ण सवाल’ पूछे.

पुलिस की छापेमारी को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और इसे गैर कानूनी बताया जा रहा है. वरवर राव के भांजे एन वेणुगोपाल ने आरोप लगाया है कि पुणे पुलिस ने उनके मामा राव के खिलाफ गिरफ्तारी और तलाशी वारंट पेश नहीं किया. वेणुगोपाल ने बुधवार को कहा, ‘पूरी कार्रवाई के अंत में उन्होंने एक पंचनामा दिया लेकिन ये बहुत ही अनुचित और अवैध दस्तावेज़ है.’ उन्होंने दावा किया कि सात पृष्ठों की पंचनामा रिपोर्ट मराठी में लिखी है.

उन्होंने कहा- ‘कानून में पहली चीज़ तो ये है कि अगर किसी भी घर में कोई जब्ती की जाती है इसका विवरण उस भाषा में देना चाहिए जिसे उस घर में रहने वाले लोग समझ सकते हों. इसलिए ये सात पृष्ठों का दस्तावेज़ अवैध है. यहां तक कि अंक भी मराठी में लिखे हुए हैं. इसलिए कोई नहीं जानता कि उसमें क्या है.’ उन्होंने आशंका जाहिर किया कि पुलिस इसमें अपने मुताबिक फेर-बदल कर सकती है. बताते चलें कि भीमा-कोरेगांव मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने तेलुगू कवि वरवर राव के अलावा वेरनान गोंसाल्विज, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और सुधा भारद्वाज को गिरफ्तार किया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इन्हें जेल में रखने की बजाय 6 सितंबर तक घर में ही नजरबंद रखने का आदेश दिया है.

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राहुल गांधी के गढ़ में बाबासाहेब का अपमान

प्रतीकात्मक

भारत देश के सभी नागरिको को तो गर्व करना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ में केवल दो महामानवों की मूर्तियां लगी हैं और दोनों की दोनों भारतीय महान हस्तियों की हैं, एक भगवान बुद्ध और दूसरी विश्व नेता बाबा साहब अम्बेडकर की. लेकिन अफसोस कि बाबा साहब को मृत्यु के 62 वर्षों बाद अपने ही देश में बार-बार अपमानित होना पड़ रहा है. बाबा साहब की प्रतिमा विश्व के कई देशों में लगी हैं, किन्तु उनकी प्रतिमा तोड़ने की खबर कहीं से आती है तो सिर्फ और सिर्फ उनके अपने देश भारत से. ताजा मामला देश की राजनीति की सुर्खियों में रहने वाले उत्तर प्रदेश के चर्चित जिले अमेठी का है. यहां तिलोई तहसील के शिवरतनगंज थाना स्थित जियापुर, मौजा-जिजौली में बाबासाहेब की प्रतिमा को तोड़े जाने की खबर है. बीते 26 अगस्त की रात को अराजक तत्वों द्वारा डॉक्टर अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ दी गई. दूसरी सुबह लोग अम्बेडकर प्रतिमा टूटी देख भड़क उठे. सूचना पर पहुंची पुलिस ने कठोर कार्रवाई का भरोसा देकर लोगों को समझा बुझाकर शांत कराया. स्थानीय पुलिस उक्त मामले की मीडिया से दबाने व पूरे मामले पर पर्दा डालने में जुटी रही. मूर्ति स्थापित करने वाली महिला जब मूर्ति तोड़े जाने की शिकायत करने चौकी प्रभारी इन्हौना के पास गई तो प्रभारी ने तहरीर लेने से मना कर दिया. लेकिन जब केवला देवी व उसके परिवार के डटे रहने और मामला अमेठी के पुलिस अधीक्षक तक पहुंचने के बाद ग्राम प्रधान सहित आधा दर्जन लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया. आरोप है कि जहां अम्बेडकर की प्रतिमा स्थापित थी. बीते रविवार को मौके का फायदा उठाकर प्रतिमा को क्षतिग्रस्त करके माहौल बिगाड़ने की कोशिश की गई. डॉ.अंबेडकर की प्रतिमा को तीन खंडों में तोड़कर स्थापित स्थान से कुछ दूरी पर फेंक दिया गया. जिसके बाद बवाल बढ़ गया.

केवला देवी की तहरीर पर आधा दर्जन लोगों के खिलाफ प्रतिमा तोड़ने वाली धाराओं 295,147 व SC ST एक्ट की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है. लेकिन बाबासाहेब की प्रतिमा का बार-बार टूटने से समाज के भीतर भी बहुत कुछ टूट रहा है.

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राहुल गांधी के साथ कांग्रेस कोर ग्रुप की आज बैठक, राफेल पर तेज होगा हमला

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नई दिल्ली। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी शुक्रवार को कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जा रहे हैं. यात्रा पर निकलने से पहले राहुल आज कांग्रेस के कोर ग्रुप के नेताओं के साथ बैठक कर रहे हैं. राफेल डील के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने का आक्रमक मंत्र देंगे. आज दोपहर में कांग्रेस कार्यकर्ता पीएम आवास का घेराव कर सकते हैं.

मानसरोवर की यात्रा पर निकलने से पहले राहुल गांधी आगामी एक महीने यानी 30 सितंबर तक होने वाले पार्टी के पूरे कार्यक्रमों का कोर कमेटी से तथ्यों समेत ब्योरा लेंगे.

कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी भी आज राहुल गांधी के साथ मुलाकात करेंगे. पिछले दिनों राहुल के विदेश दौरे पर रहने के दौरान कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन से चल रही सरकार में तालमेल की कमी नजर आई थी.

राफेल के मुद्दे पर कांग्रेस के तेवर सख्त हैं. राहुल गांधी से लेकर पूरी पार्टी मोदी सरकार को इस मुद्दे पर घेरने में जुटी है. बता दें कि लोकसभा चुनाव और कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने राफेल मुद्दे को जोरशोर से उछाल रही है.

राहुल गांधी अपनी चुनावी रैलियों में पिछले काफी दिनों से राफेल मुद्दे को बार-बार उठा रहे हैं. राहुल गांधी खुद संसद में भी राफेल मसले को उठा चुके हैं, जिस पर रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण को सफाई देनी पड़ी थी. हालांकि रक्षामंत्री की सफाई से कांग्रेस संतुष्ट नहीं हुई. कांग्रेस ने सीतारमण पर संसद में राफेल मामले पर झूठ बोलने का आरोप लगाया था. क्या हैं कांग्रेस के आरोप?

कांग्रेस का दावा है कि यूपीए सरकार ने जिस विमान की डील की थी, उसी विमान को मोदी सरकार तीन गुना कीमत में खरीद रही है. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि इस नई डील में किसी भी तरह की टेक्नोलॉजी के ट्रांसफर की बात नहीं हुई है. पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी के मुताबिक यूपीए सरकार की डील के अनुसार, 126 में से 18 एयरक्राफ्ट ही फ्रांस में बनने थे बाकी सभी HAL के द्वारा भारत में बनने थे.

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बसपा छोड़ शिवपाल यादव के साथ आए मलिक कमाल

डुमरियागंज (सिद्धार्थनगर)। समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे डुमरियागंज के पूर्व विधायक मलिक कमाल यूसुफ बसपा छोड़ शिवपाल यादव के साथ हो गए हैं. मंत्री रह चुके यूसुफ सपा में रहते हुए शिवपाल यादव के काफी करीब थे. पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी में विवाद छिड़ने पर उन्होंने बसपा का दामन थाम लिया. अब वह पुरानी दोस्ती को तरजीह देते हुए शिवपाल के नवगठित समाजवादी सेक्युलर मोर्चा में शामिल हो गए हैं.

कमाल ने फेसबुक पर शिवपाल यादव के साथ अपनी तस्वीर शेयर की है. इस संबंध में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वह शिवपाल के साथ हैं. कमाल सपा मुखिया अखिलेश यादव पर हमलावर दिखे. कहा कि अखिलेश की राजनीति समाजवादी पार्टी पर टिकी है, जबकि इस पार्टी को बनाने में शिवपाल ने कड़ी मेहनत की थी. उन्होंने कहा कि सपा में आज पुराने नेताओं को महत्व नहीं दिया जा रहा है. इसी वजह से वह सपा छोड़कर बसपा में शामिल हो गए थे. अब वह एक बार फिर अपने पुराने साथी शिवपाल के साथ आ गए हैं. पूर्व विधायक ने कहा कि वह जल्द ही डुमरियागंज आकर कार्यकर्ताओं व समर्थकों के साथ बैठक करेंगे और आगे की रणनीति बनाएंगे. शिवपाल की पार्टी में शामिल होने के मौके पर कमाल के साथ उनके बड़े बेटे इरफान मलिक भी थे.

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रिटायर्ड कर्नल-एडीएम विवाद ने लिया राजनीतिक रंग, सीएम योगी और मायावती आमने-सामने

नई दिल्ली। नोएडा में चर्चित एडीएम और रिटायर्ड कर्नल का विवाद ने अब राजनीतिक का रुप ले लिया है. एक पक्ष के साथ उत्तर प्रदेश सरकार खड़ी है तो दूसरे पक्ष ने पूर्व यूपी सीएम मायावती से मदद मांगी है. बता दें कि सीएम योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर रिटायर्ड कर्नल वीरेंद्र प्रताप सिंह चौहान से मारपीट के मामले में मुजफ्फरनगर के एडीएम हरिशचंद्र को निलंबित कर दिया है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार एडीएम हरिश्चंद्र की पत्नी उषा ने मायावती से दिल्ली में मुलाकात की है. बताया जा रहा है कि इसके बाद मायवाती के कहने पर नेता लालजी वर्मा ने सीएम योगी से भेंट मुलाकत की है. उन्होंने आरोप लगाया है कि सिर्फ दलित होने के कारण एडीएम को परेशान किया जा रहा है.

ये है पूरा मामला दरअसल, 14 अगस्त की सुबह सोसायटी में एक एडीएम की पत्नी ने वीरेंद्र पर छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए मामला दर्ज कराया था. सेक्टर-20 पुलिस ने आनन-फानन में रिपोर्ट दर्ज करते हुए कर्नल को कोर्ट भेज दिया था. कोर्ट ले जाते समय पुलिस ने कर्नल को चोरी के आरोपी के साथ हथकड़ी लगाकर भेजा था. अमर उजाला ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया था. घटना के बाद पुलिस को अपनी गलती का पता चला तो एसएसपी ने सीओ अनित कुमार का तबादला करते हुए दादरी सर्किल में तैनात कर दिया था और इंस्पेक्टर को थाना सेक्टर-20 से हटाकर थाना सूरजपुर भेज दिया था.

पूर्व सैनिकों ने बीते शाम इस मामले को लेकर कैंडल मार्च भी निकाल निकला. जिसके बाद पुलिस ने एडीएम के राहुल नागर (गनर) और जीतेन्द्र अवस्थी (नौकर) को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया हैं. बाकी आरोपियों को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस की टीमें बनाकर गिरफ्तारी के प्रयास किए जा रहे हैं. वहीं मामला उल्टा पड़ता देख एडीएम पत्नी और परिवार सहित फरार हो गए. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक मुजफ्फरनगर के एडीएम छुट्टी पर हैं. वहीं पूर्व सैनिक ने डीएम से मिलकर शिकायत की और सीसीटीवी फुटेज भी सौंपा जिसमें एडीएम ही कर्नल से मारपीट कर रहा था. कोर्ट में सीसीटीवी पेश होने के बाद रिटायर्ड कर्नल को जमानत मिल गई.

मामले की जानकारी होने पर सीएम योगी ने दोनों पक्षों को निष्पक्ष जांच का आश्वासन दिया है. मामले में रिटायर्ड कर्नल के पक्ष में लोगों ने एडीएम की गिरफ्तारी, सीओ अनित व एसएचओ मनीष सक्सेना की बर्खास्तगी, मामले की न्यायिक जांच और एडीएम की आय से अधिक संपत्ति की जांच की मांग की है.

तो वहीं दूसरे पक्ष ने एडीएम की पत्नी का रोते हुए एक वीडियो जारी किया. इसमें उसने आरोप लगाया है कि उसे दलित होने की वजह से परेशान किया जा रहा है. एडीएम पक्ष के लोग उनपर लगे हत्या के प्रयास, मारपीट आदि के आरोपों को हटाने की मांग कर रहें हैं. बता दें कि कर्नल अब जेल से बाहर आ गए हैं. जेल से निकलते ही उनके मित्रों व अन्य अधिकारियों ने जबरदस्त स्वागत किया.

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‘मोदीकेयर’ में केजरीवाल का अड़ंगा, PM नहीं मुख्यमंत्री के नाम से हो योजना!

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट में से एक आयुष्मान भारत 25 सितंबर को देशभर में लॉन्च होगी. इस योजना के तहत करीब देश के 10 करोड़ परिवारों को लाभ मिलेगा. लेकिन इस योजना के जमीन पर उतरने से पहले ही विवाद होता नज़र आ रहा है. और ये विवाद कहीं ओर नहीं बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में ही है.

राजधानी दिल्ली में योजना के तहत करीब 20 लाख से अधिक लोगों को लाभ मिलेगा. योजना का पूरा नाम ‘आयुष्मान भारत- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’ है, लेकिन दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार की मांग है कि इस योजना का नाम प्रधानमंत्री नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के नाम पर रखा जाए.

अंग्रेजी अखबार मेल टुडे की खबर के अनुसार, दिल्ली सरकार की मांग है कि योजना का नाम ‘मुख्यमंत्री आम आदमी स्वास्थ्य बीमा योजना-आयुष्मान भारत’ रखा जाए. हालांकि, अभी केंद्र की ओर से इस मुद्दे पर यही कहा जा रहा है कि पहले योजना की शुरुआत करने पर ध्यान दिया जाए, बाकी चीज़ों को बाद में देख लिया जाएगा.

हालांकि, दोनों सरकार में विवाद के बस ये ही एक जड़ नहीं है. दिल्ली सरकार की मांग है कि इस योजना में 50 लाख लोगों का नाम और जोड़ा जाए. जबकि केंद्र का तर्क है कि इस योजना का संचालन 2011 की जनगणना के अनुसार हो रहा है, जिसके तहत राजधानी में 20 लाख लोगों का ही नाम आता है.

बता दें कि आयुष्मान भारत को दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थ प्लान स्कीम बताया जा रहा है. जिसके तहत करीब 50 करोड़ लोगों को सीधा फायदा पहुंचेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लालकिले से इसका ऐलान किया था, 25 सितंबर से ये स्कीम धरातल पर लागू होगी.

इस स्कीम के तहत हर परिवार को सालाना तौर पर 5 लाख रुपए तक का कवर मिलेगा. यानी 1 रुपए से लेकर 5 लाख रुपए तक के इलाज गरीब परिवारों के लिए मुफ्त में किए जाएंगे. बताया जा रहा है कि अभी ये इस योजना का पहला चरण ही है.

मोदीकेयर के नाम से पॉपुलर इस स्कीम का ये विरोध बीजेपी के नेताओं को रास नहीं आया है. दिल्ली बीजेपी के प्रवक्ता नागेंद्र शर्मा ने मेल टुडे को बताया कि इस प्रकार की मांग के कारण किसी भी गरीब को दिक्कत नहीं होगी, हम चाहते हैं कि ये स्कीम लागू हो. वहीं, दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता ने भी केजरीवाल सरकार की इस मांग का जमकर विरोध किया है.

इस मामले में Delhi’s Director-General of Health Services (DGHS) के डॉ. कीर्ति भूषण का कहना है कि दिल्ली सरकार ने इस स्कीम में कुछ चीजें जोड़ने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें लोगों की संख्या बढ़ाना भी शामिल है.

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दलित प्रेरणा स्थल की पार्किंग का ओखला बर्ड सेंचुरी के लिए इस्तेमाल करने की तैयारी

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नई दिल्ली। सेक्टर-95 स्थित ओखला बर्ड सेंचुरी में जाने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या पार्किंग की है. जल्द ही इसका समाधान निकालने की तैयारी है. सूत्रों के अनुसार दलित प्रेरणा स्थल की पार्किंग को ओखला बर्ड सेंचुरी में आने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल करने की तैयारी है. अथॉरिटी ऐसी प्लानिंग कर रही है ताकि दलित प्रेरणा स्थल की पार्किंग में वाहन खड़े करने के बाद टहलते हुए लोग ओखला बर्ड सेंचुरी जा सके.

दरअसल ओखला बर्ड सेंचुरी में जाने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या वाहन पार्क करने की है. अगर सेक्टर-14ए के सामने स्थित शनिमंदिर वाले गेट के लोग ओखला बर्ड सेंचुरी जाएं तब भी बाहर वाहन खड़े करने के लिए कोई जगह नहीं है. इसी तरह एक्सप्रेस वे के रास्ते से जाते हुए भी सड़क पर वाहन खड़े करने पड़ते हैं जहां दो-चार वाहन ही खड़े हो पाते हैं. पार्किंग की समस्या की वजह से लोग चाहते हुए ओखला बर्ड सेंचुरी नहीं जा पाते हैं. इसी समस्या को देखते हुए अथॉरिटी ऐसा प्लान कर रही है कि दलित प्रेरणा स्थल की पार्किंग के को इस्तेमाल किया जाए जो कि अभी खाली पड़ी हुई है और वहां से सीधी कनेक्टीविटी के लिए ओखला बर्ड सेंचुरी जाने वालों को एक पैदल का रास्ता बना दिया जाए.

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52 गांवों की दलित महापंचायत आज, पुलिस-प्रशासन अलर्ट

नई दिल्ली। उल्देपुर प्रकरण को लेकर दलित संघर्ष मोर्चा के बैनर तले कमिश्नरी पार्क में 52 गांवों की महापंचायत आज होगी. महापंचायत को भीम आर्मी ने अपना समर्थन दे दिया है. आयोजकों का दावा है कि कई जिलों के दो हजार से ज्यादा लोग जुटेंगे. इसे लेकर पुलिस-प्रशासन अलर्ट हो गया है. खुफिया विभाग ने रिपोर्ट बनाकर लखनऊ भेज दी है.

दलित संघर्ष मोर्चा से जुड़े डॉक्टर सुशील गौतम ने बताया कि करीब 19 सामाजिक, छात्र और दलित संगठनों ने इस मोर्चा को समर्थन दिया है. महापंचायत कमिश्नरी पार्क में गुरुवार सुबह 10 बजे शुरू हो जाएगी. पंजाब से टाइगर फोर्ट संगठन के पदाधिकारी भी आएंगे. भीम आर्मी के राष्ट्रीय प्रवक्ता मंजीत नौटियाल के मौखिक समर्थन के बाद मेरठ से भीम आर्मी के कुछ कार्यकर्ता भी इस महापंचायत में आएंगे. इसके अलावा बुलंदशहर, हापुड़, मेरठ, गाजियाबाद, मुजफ्फरनगर, बागपत सहित हरिद्वार से भी समाज से जुड़े लोग पहुंचेंगे.

यह था उल्देपुर प्रकरण

गंगानगर क्षेत्र के उल्देपुर गांव में नौ अगस्त को दो पक्षों में खूनी संघर्ष हो गया था. इसमें रोहित जाटव की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी. नौ में से तीन आरोपी जेल जा चुके हैं. पुलिस ने रोहित पक्ष पर भी क्रॉस मुकदमा दर्ज कर लिया था. इसे लेकर दलित आंदोलन कर रहे हैं. 20 अगस्त की महापंचायत में पुलिस अफसरों ने क्रॉस केस समाप्त करने सहित कई मांगों को पूरा करने का भरोसा दिया था, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

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चारा घोटाला: लालू प्रसाद यादव ने कोर्ट में किया सरेंडर…

रांची। चारा घोटाले से जुड़े मामले में सजा काट रहे राजद प्रमुख और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने गुरुवार को रांची की सीबीआई कोर्ट में सरेंडर किया. चारा घोटाला मामले में सजायाफ्ता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने सीबीआई के विशेष न्यायाधीश एसएस प्रसाद की अदालत में सरेंडर कर दिया है. लालू प्रसाद के अधिवक्ता प्रभात कुमार के अनुसार लालू प्रसाद को कोर्ट से सीधा जेल भेजा जाएगा. इसके बाद जेल प्रशासन उन्हें रिम्स भेज देगी. लालू को हाई कोर्ट ने जमानत का आदेश दिया था. उसमें यह शर्त है कि उनका इलाज रिम्स में चलेगा. ऐसे में संभावना जताई जा रही की जेल भेजने के बाद सीधे रिम्स भेजे जाएंगे.

कोर्ट परिसर में सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई है. राजद समर्थक राजद समर्थक और पुलिसकर्मियों की भीड़ लगी हुई है. लालू प्रसाद की अदालत सीबीआई भवन के पहले मंजिल पर है जहां जाने से पुलिसकर्मियों ने रोक लगा रखी है. नीचे के गेट को बंद कर दिया गया है ताकि ऊपरी मंजिल पर कोई नहीं जा सके. कोर्ट परिसर में सिटी डीएसपी प्राण रंजन कोतवाली डीएसपी कुमार अजीत, कोतवाली इंस्पेक्टर श्यामानंद मंडल सहित कई अधिकारी और पुलिसकर्मी मौजूद हैं.

बता दें कि लालू 10 मई को अपने बेटे तेजप्रताप यादव की शादी के लिए बाहर आए थे, जिसके बाद अब करीब 110 दिन बाद वह जेल लौटेंगे. लालू यादव, पिछले कई दिनों से जमानत पर थे, वह मुंबई में अपना इलाज करा रहे थे. लालू के सरेंडर करने से पहले गुरुवार को झारखंड विकास मोर्चा चीफ बाबूलाल मरांडी ने रांची में उनसे मुलाकात की. लालू से मुलाकात करने के बाद बाबूलाल मरांडी ने कहा कि राजनीति के कारण बीजेपी लालू यादव पर शिकंजा कस रही है.

बीते 27 अगस्त को लालू की जमानत की मियाद पूरी हो रही थी. इससे पहले लालू ने अदालत से औपबंधिक जमानत की अवधि तीन महीने और बढ़ाने की अपील की थी जिसे अदालत ने अस्वीकार करते हुए उन्हें 30 अगस्त तक सीबीआई अदालत में आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया था.

पटना से रवाना होने से पहले आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर हमला बोलते हुए आरोप लगाया कि देश तानाशाह शासन की ओर बढ़ रहा है. पटना एयरपोर्ट पर बातचीत में लालू ने बिहार में कानून व्यवस्था ठीक नहीं होने का आरोप लगाते हुए कहा कि यहां पूरी तरह से अराजकता का माहौल है.

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एशियन गेम्स: 20 साल बाद फाइनल में पहुंची महिला हॉकी टीम, अब नजरें गोल्ड पर …

नई दिल्ली। गुरजीत कौर ने आखिरी क्वार्टर में 52वें मिनट में पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में तब्दील कर भारतीय महिला हॉकी टीम को 20 साल बाद एशियाई खेलों के फाइनल में पहुंचा दिया. भारत ने गुरजीत के एकमात्र गोल के दम पर सेमीफाइनल में चीन को 1-0 से हराते हुए फाइनल का टिकट कटाया. भारतीय महिला हॉकी टीम ने इससे पहले 1998 में बैंकॉक में हुए एशियाई खेलों के फाइनल में जगह बनाई थी. फाइनल में भारत का सामना शुक्रवार को जापान से होगा. इसी दिन कांस्य पदक के लिए चीन का मुकाबला दक्षिण कोरिया से होगा.

गुरजीत के गोल से पहले भारतीय टीम ने गोल करने के कई मौके गंवाए. टीम को कुल सात पेनाल्टी कॉर्नर मिले जिसमें से वो एक को ही गोल में तब्दील कर पाई. अगर भारतीय महिलाएं मौकों में से आधे को भी भुना लेतीं तो ज्यादा अंतर से मैच अपने नाम करतीं. पूरे मैच में भारतीय टीम ही हावी रही लेकिन उसकी फिनिशिंग कमजोर होने के कारण कई मौकों पर चीन को हावी होने के अवसर मिले। भारतीय डिफेंस ने हालांकि चीन के हमलों का माकूल जवाब दिया.

भारतीय महिलाओं ने शुरुआत अच्छी की थी। टीम ने पहले क्वार्टर में धैर्य से खेला और सटीक पासिंग के जरिए चीनी खिलाड़ियों को गेंद पर ज्यादा पकड़ नहीं बनाने दी. आठवें मिनट में भारत को लगातार दो पेनाल्टी कॉर्नर मिले लेकिन दोनों पर गोल नहीं हो सका. भारतीय महिलाएं लगातार चीन के घेरे में जगह बना रही थीं। इसी प्रयास में 13वें मिनट में भारत ने गोल करने का शानदार मौका बनाया लेकिन फॉरवर्ड लाइन इस प्रयास को गोल में बदलने में नाकाम रही.

भारत को 51वें मिनट में लगातार तीन पेनाल्टी कॉर्नर मिले जिसमें आखिरी प्रयास में 52वें मिनट में गुरजीत ने गोल कर भारत का खाता खोला और फाइनल में जाने का रास्ता तय किया.

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गिरफ्तार बुद्धिजीवियों के समर्थन में आईं मायावती

File Photo

नईे दिल्ली।  कोरेगांव से जुड़े मामले में बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी के खिलाफ बसपा प्रमुख सुश्री मायावती ने मोर्चा खोल दिया है. नक्सल समर्थकों के नाम पर देश के कई राज्यों में पुणे पुलिस द्वारा की गई छापेमारी और फिर उस क्रम में कवि, महिला वकील, प्रोफेसर आदि बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी पर बसपा अध्यक्ष ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. इस कार्रवाई को भाजपा द्वारा भय फैलाने और सत्ता का दुरुपयोग ठहराते हुए बसपा प्रमुख ने कहा है कि-

दलितों के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान से जुड़े भीमा-कोरेगाँव के 200 वर्ष पूरे होने के मौके पर दलितों की ज़बर्दस्त एकजुटता भाजपा को रास नहीं आई. कोरेगांव हिंसा की आड़ में देश में दलितों, आदिवासियों व पिछड़ों पर हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ लगातार संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकत्ताओं को परेशान किया जा रहा है. जिस प्रकार एन.जी.ओ. चलाने वालों पर सरकारी आतंक व भय फैलाने के लिये देश भर में जो गिरफ्तारयाँ की गई हैं वे बीजेपी सरकार की निरंकुशता व सत्ता के दुरूपयोग की प्रकाष्ठा है, जिसकी जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है.

भाजपा को कठघरे में खड़ा करते हुए यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा है कि वास्तव में इस प्रकार की सरकारी आतंक की घटनाओं के माध्यम से बीजेपी की सरकारें अपनी घोर विफलताओं पर से लोगों का ध्यान बांटना चाहती है. लेकिन गिरफ्तारी से लोगों का रोष बढ़ा ही है.

बसपा प्रमुख ने कहा कि इतना ही नहीं बल्कि भीमा-कोरेगाँव में हिंसा के सम्बन्ध में जिन लोगों के खिलाफ पुलिस में एफ.आई.आर. दर्ज है, उन्हें गिरफ्तार करके न्याय की व्यवस्था को बहाल करने के बजाय इसकी आड़ में उन विख्यात लोगों को टारगेट किया जा रहा है जो दलितों, आदिवासियों व पिछड़ों आदि के हित के लिये हर प्रकार का संघर्ष करते रहे हैं और जिनका सार्वजनिक जीवन वास्तव में एक खुली किताब की तरह से लोगों के सामने है.

सुश्री मायावती ने महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं व अन्य बुद्धिजीवियों पर भाजपा सरकार द्वारा ’नफरत फैलाने’ के आरोप को भी बेतुका कहा और सरकार के उस तर्क पर भी सवाल खड़े किए जिसमें ’’पी.एम. मोदी की हत्या की साज़िश रचने के आरोप में गिरफ्तारी की बात कही जा रही है. उन्होंने कहा कि यह गिरफ्तारियां गुजरात में बीजेपी सरकार के उस दौर की याद दिलाता है जब मुख्यमंत्री की हत्या की साजिश को विफल करने की आड़ में लगातार फर्जी पुलिस इंकाउण्टर हुआ करते थे.

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बहुजनों द्वारा अपने धर्म और संस्कृति की घोषणा : एक वास्तविक क्रान्ति

भारत के दलितों-बहुजनों के खिलाफ जो अन्याय अत्याचार हुआ है, जो हो रहा है और जो आगे भी कुछ समय तक जारी रहेगा उसके लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनमे बहुत हद तक बहुजनों के हितैषी भी जिम्मेदार हैं. यह एक विचित्र और कठोर वक्तव्य है. लेकिन अनुभव बतलाता है कि यह सच बात है. आइये इसे समझने की कोशिश करें.

बहुजनों के हितैषियों के नाम पर हम जिन लोगों को पाते हैं वे दलितों-बहुजनों को सिर्फ एक विक्टिम की तरह देखते आये हैं. विशेष रूप से अगर हम जनजातीय या ट्राइबल मित्रों की बात करें तो उन्हें तो बिलकुल ही विक्टिम की तरह देखा जाता है. अधिकाँश दलित, शूद्र (ओबीसी) और शेड्यूल्ड ट्राइब्स (आदिवासी) को ही नहीं बल्कि महिलाओं को भी विक्टिम की तरह देखा जाता है.

नारीवाद ने आजकल स्त्री की गरिमा और स्वतन्त्रता का जो झंडा बुलंद किया है उसमे एक गहरी प्रतीति रही है जिसे हमने अब तक दलित-बहुजन आन्दोलन के सन्दर्भ में न सिर्फ नजरअंदाज किया है बल्कि कई बार प्रयासपूर्वक अदृश्य बनाये रखा है. नारीवादी आंदोलनों ने शेष विश्व और भारत में भी नारी के विक्टिम होने की बात को अपनी सैद्धांतिकी में काफी लंबे समय तक बनाये रखा, इससे सहानुभूति और संवेदना का निर्माण हुआ. लेकिन कुछ दशकों के बाद इस “विक्टिम के विलाप” से नारीवाद ने अपने को आजाद करने का प्रयास किया और वह अभी तक जारी है.

स्त्री की अपनी अस्मिता, उसका अपना व्यक्तित्व और उसके अपने सपनों को मान्यता देते हुए नारीवादी आन्दोलन जिस तरह से बढ़ा उसने स्त्री को विक्टिम की तरह नहीं बल्कि अपनी पहचान को रचने वाली समर्थ और स्वतंत्र इकाई के रूप में खड़ा किया. इसका परिणाम अब दुनिया भर में नजर आता है.

इसके उलट दलित-बहुजन आंदोलनों में दलितों बहुजनों के अपने नेतृत्व और हितैषी (गैर-बहुजन) नेतृत्व ने अभी तक क्या किया है? अनुभव यह बताता है कि ऐसे अधिकांश नेताओं चिंतकों साहित्यकारों ने दलित-बहुजन समाज को विक्टिम होने के विलाप से अभी तक आजाद नहीं होने दिया है. साहित्य ने जिस तरह का पीड़ा और भेदभाव का चित्रण दिया है, कहानियों उपन्यासों और कविताओं ने शोषण और दमन का जो रेखाचित्र उभारा है उसमे विलाप और यह क्रंदन इतना मुखर होकर उभरता रहा है कि दलित-बहुजन साहित्य का मतलब ही विलाप का साहित्य हो गया है.

यह विलाप–साहित्य मूल रूप से गैर दलित-बहुजन साहित्यकारों की कलम से निकला और चूँकि वे अपनी अधिकतम ताकत लगाकर “हितैषी या सहानुभूतिपूर्ण मित्र” ही हो सकते थे – पीड़ा के या समाधान के प्रयासों के सहभागी नहीं – इसलिए उन्होंने दलितों-ओबीसी-आदिवासियों का विलाप बहुत नए नए ढंग से उजागर करना शुरू किया. यही ट्रेंड स्वयं दलित बहुजन साहित्यकारों में भी आ गया और अभी भी जारी है. इस तरह भीतर और बाहर दोनों तरफ से साहित्यकार और विचारक मित्र दलित-बहुजनों को विक्टिम बनाकर उनके विलाप का लेखा जोखा बनाये जा रहे हैं.

बहुत हद तक यह एक सुरक्षित चुनाव भी है. इस सुरक्षा की जरूरत किसे पहले थी? यह जानना बहुत जरुरी है. सबसे पहले इस सुरक्षा की जरूरत गैर-बहुजन लेखकों को ही थी. सवर्ण समाज से आने वाले साहित्यकारों को अपने स्वयं के घर और समाज में जिस विरोध का सामना करना होता था उस विरोध ने बहुत हद तक विलाप चित्रण को एक सुरक्षित स्ट्रेटेजी बनाये रखा. दलित-बहुजन शोषण का चित्रण करते जाना और उससे निकलने के उपायों का कोई अनुमान न देना या ऐसी किसी मुक्ति की संभावना का कोई उल्लेख न करना – यह साहित्य का सामान्य क्रम बन गया. हालाँकि स्वय दलित-बहुजन समाज के अपने कई पुरोधाओं ने क्रांतिकारी प्रस्तावनाएँ दी हैं और पीड़ा के चित्रण से आगे जाकर समाधान की यांत्रिकी भी दी है. लेकिन उसे बहुत आसानी से सवर्ण और बहुजन साहित्यकारों ने भुलाए रखा.

कबीर और ज्योतिबा फुले यहाँ उल्लेखनीय हैं. वे दोनों बहुत हद तक एक सीधी भाषा में तोड़फोड़ और बदलाव की बात करते हैं. ज्योतिबा के स्वर में तो नवनिर्माण का मार्ग भी मिलता है जिसे बहुत अर्थों में डॉ. अंबेडकर विकसित करते और अमल में लाते हैं. लेकिन हमारा साहित्य कबीर और फूले के साथ जो दुर्व्यवहार करता है वह बड़ा मजेदार है. कबीर को सगुण-निर्गुण की बहस और भक्ति-अध्यात्म इत्यादि से बाहर नहीं निकलने दिया जाता. वहीं फूले का जितना भी उल्लेख होता है उसमे वे शिक्षा के प्रयासों तक समेट दिए जाते हैं. कबीर और फूले दोनों में एक पुराने शोषक धर्म के खंडन और नयी संभावनाओं के रोडमेप का जो इशारा मिलता है उस इशारे की बात नहीं की जाती है.

सवर्ण तबके के लिए यह इशारा छुपाया जाना जरूरी है. फूले कबीर की ही तरह अन्य क्रांतिकारी हैं जो न सिर्फ खंडन कर रहे हैं बल्कि नवनिर्माण का पूरा फ्रेमवर्क दे रहे हैं, वे दलितों- बहुजनों को विक्टिम नहीं बल्कि चेंजमेकर की तरह खड़ा कर रहे हैं. लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश गैर-बहुजन और बहुजन साहित्यकार भी जो विलाप के चित्रण को संभावित समाधान के अनुमान से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं – उन्होंने अभी भी यह दलितों- बहुजनों को विक्टिम होने से अधिक और किसी चीज के लायक नहीं समझा है.

जैसे नारीवाद के वैश्विक आन्दोलन ने स्त्री को विक्टिम से आगे ले जाकर स्वयं निर्मात्री होने का मार्ग दिया उसी तरह क्या दलित-बहुजनों को भी विक्टिम-हुड की सदी गली लेकिन सुरक्षित राजनीती से निकाला जा सकता है? यह कितना आसान या कठिन है यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना जरुर कहना होगा कि अब यह आवश्यक है. लेकिन दलितों-बहुजनों को विक्टिम बनाये रखने में किसे लाभ होता है? और दलितों-बहुजनों को अपनी संस्कृति धर्म और इतिहास सहित भविष्य का निर्माता बनने से कौन और क्यों रोकना चाहते हैं? ये एक भयानक प्रश्न है जो अब सभी दलितों, शूद्रों आदिवासियों को बार बार पूछना चाहिए.

जब तक दलित, शूद्र और आदिवासी अपनी पीड़ा और विलाप के गीत गाते हैं तब तक सभी इनसे सहानुभूति रखते हैं लेकिन जैसे ही ये अपने इतिहास और संस्कृति की घोषणा करने निकलते हैं तो तकलीफ शुरू हो जाती है. यह असल में एक छुपे हुए षड्यंत्र के उजागर होने का संकेत है. अधिकांश विचारकों और साहित्यकारों में यह प्रवृत्ति है कि वे इस देश के तथाकथित मुख्यधारा के या अल्पसंख्यकों की संस्कृति और धर्मों को संरक्षित करने प्रचारित करने के अधिकार को समर्थन देते हैं. साथ ही वे यह भी बताते जाते हैं कि भाषा संस्कृति, सांस्कृतिक चिन्ह, रीती रिवाज और जीवन व्यवहार को बचाए-बनाये रखना क्यों जरुरी है.

लेकिन जब बात आती है दलितों-बहुजनों की अपनी संस्कृति और धर्म को उजागर करने और प्रचारित करने की तो अधिकाँश साहित्यकार विचारक मित्र असहज होने लगते हैं. तब बहुत अधिकांश मौकों पर वे यह भूल जाते हैं कि संस्कृति और धर्म जिस तरह तथाकथित मुख्यधारा के और अल्पसंख्यकों के लिए जरुरी हैं उसी तरह ये बहुजन बहुसंख्यकों के लिए भी आवश्यक हैं.

यह एक भयानक विरोधाभास है जिसे उजागर करके चुनौती दी जानी चाहिए. कोई भी समाज सिर्फ विलाप करके सहानुभूति इकट्ठी करके बाहरी समर्थन से अपनी आजादी नहीं हासिल कर सकता. जो समाज स्वयं समर्थ, आजाद और आत्मनिर्भर होना चाहता है उसे अपनी संस्कृति और धर्म को मजबूत बनाकर ही ऐसा करना होता है.

संस्कृति और धर्म के मुद्दे पर भारत के अधिकांश साहित्यिक मित्र एक नकारात्मक मुद्रा में आ जाते हैं और नास्तिकता को एकमात्र शुभ की तरह प्रचारित करते हुए संस्कृति और धर्म की विराट शक्ति को शोषक सवर्ण तबके को सौंप देते हैं. वह शोषक वर्ग नास्तिकता के प्रचार से बिलकुल भी चिंतित नहीं होता. इसे बोलीवुड फिल्मों में भी देखा जा सकता है. जो फिल्मे मजदूर मालिक संघर्ष पर बनी हैं वे बड़ी आसानी से चलती हैं किसी को कोई दिक्कत नहीं होती. लेकिन जो फ़िल्में जातीय हिंसा और दमन पर बनती हैं उन्हें दबाया जाता है. इससे साफ़ होता है कि सवर्ण शोषक वर्ग को क्या पसंद है और क्या नहीं.

अगर दलित-बहुजन तबका विलाप में ही उलझा रहेगा तो वह पर-निर्भर ही रहेगा. जो भी तबका अपनी संस्कृति और अपने धर्म की घोषणा नहीं कर पाता वह कमजोर और शोषित होगा. साहित्यिक मित्रों के लिए यह बात अधिक आकर्षक नहीं होगी क्योंकि साहित्य को यथास्थिति के चित्रण का टूल माना जाता है. साहित्य से समाधान देने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, या ठीक से कहें तो सवर्ण साहित्य से समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बहुजन खेमे से आने वाले साहित्यकार भी समाधान के अनुमान से स्वयं भी उदासीन हो जाएँ.

भारतीय दलित-बहुजन साहित्यिक मित्रों को समाजशास्त्र और मानवशास्त्र का थोड़ा अध्ययन करना चाहिए. साहित्यिक उड़ान में बहुत सी कल्पनाएँ करने की जो सुविधा उन्हें मिलती है वह उन्हें अक्सर एक परीलोक में ले जाती है जहां विश्व के अन्य देशों में हुई क्रांतियों की जय-जयकार गूंज रही है. इस परीलोक से गुजरते हुए वे जिस संघर्ष की सफलता की धुन सुनते हैं वह उन्हें सिखाती है कि किस तरह गरीब और अमीर तबके के बीच युद्ध हुआ और गरीबों ने अमीरों की दासता से आजादी पा ली.

भारत में लौटकर ये मित्र अधिकांश मौकों पर इसी धुन को बजाना जारी रखते हैं. ये मित्र यह भूल जाते हैं कि गरीबी अमीरी का संघर्ष जो कि गरीब और अमीर दोनों के एक ही धर्म और एक ही संस्कृति के वारिस होने की प्रष्ठभूमि में हुआ था उस संघर्ष को भारत में अनेक धर्मों सम्प्रदायों और संस्कृतियों के बड़े घमासान में सीधे सीधे लागू करना मुश्किल है. पश्चिम में बहुत हद तक अमीर गरीब एक ही धर्म और सम्प्रदाय के थे, उनकी साझा संस्कृति और देवालय थे जहां वे एक से नैतिक आग्रहों और प्रस्तावनाओं से संचालित होते थे. इसीलिये वहां क्रांति या सुधार की प्रस्तावनाएँ एक ही समय में समाज के अनेकों स्तरों पर एकसाथ फ़ैल सकीं. वहां भारत की तरह सामाजिक स्तरों के एयर-टाईट कम्पार्टमेंट नहीं थे. इसीलिये सांस्कृतिक अंतर और धार्मिक अंतर की बात किये बिना सीधे सीधे गरीब अमीर की बात उठानी आसान थी.

लेकिन हमारे मित्र यही फार्मूला भारत में भी आजमाना चाहते हैं. हालाँकि उसकी असफलता बहुत हद तक उजागर हो चुकी है लेकिन फिर भी उस फार्मूले का सम्मोहन कम नहीं होता. यह सम्मोहन पुनः उसी सुरक्षा के साथ जुडा हुआ है जिसका अनुष्ठान सवर्ण साहित्यकार स्वयं अपने घर परिवार और समाज में सुरक्षित होने के लिए करते आये हैं. वे विलाप का चित्रण बहुत गंभीरता से करेंगे लेकिन इस विलाप के खात्मे के लिए विदेशी इलाज बतायेंगे जो कि यहाँ संभव ही नहीं है.

इसी परिपाटी को कई दलित-बहुजन मित्र भी अपनाए हुए हैं. वे बहुत गहराई में अभी भी बहुजन-गैर बहुजन संघर्ष को अमीर-गरीब का संघर्ष मानकर चलते हैं. वे इसे भिन्न संस्कृतियों और धर्मों के संघर्ष की तरह नहीं देख पाते. उनकी मान्यता में यह बात भी शामिल है कि ये बहुजन और गैर-बहुजन दोनों एक ही संस्कृति और एक ही धर्म के अनिवार्य वारिस हैं. बस इन दोनों मान्यताओं के कारण ही वे स्वय दलित-बहुजन होते हुए भी फुले-अम्बेडकरी विचारधारा से दूर निकलकर स्वयं अपने समाज से मुंह मोड़ लेते हैं और समाधान की बजाय विलाप के चित्रण में ही लगे रहते हैं.

इसीलिये ऐसा विलाप प्रधान साहित्य अब आम जनता द्वारा पसंद नहीं किया जाता. दलितों-बहुजनों के जीवन में भी विलाप है और उन्हें साहित्य में भी वही परोसा जाता है. ये एक अन्य तरह का अन्याय है. इसी कारण दलित-बहुजन खेमे के बीच से फुले-अंबेडकरवादी क्रान्तिदृष्टि उभरने लगी है जो विलाप के चित्रण वाले साहित्य से नहीं बल्कि ठोस राजनीति, संविधानिक और समाजशास्त्रीय समझ से आकार ले रही है. बहुजन संस्कृति, बहुजनों के अपने धर्म. अपने स्वयं के कृषि और उर्वरता से जुड़े कर्मकांड, गीत नृत्य उत्सव, सांस्कृतिक प्रतीक और स्पिरिचुआलिटी भी अब पूरी ताकत के साथ उभर रही है. इस उभार के बारे में प्रति “गरीब अमीर” फ्रेमवर्क वाले साहित्यिक मित्र क्या सोचते हैं यह वे ही जानें लेकिन स्वयं बहुजन तबका अपनी संस्कृति और धर्मों को लेकर अब आगे बढ़ने लगा है.

दलितों ओबीसी में बौद्ध धर्म का आन्दोलन चल निकला है अन्य अनेक राज्यों में जनजातीय समाज के अपने धर्मों और संस्कृति के बारे में बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल निकले हैं और वे सभी अपनी अलग संस्कृति और धर्म की घोषणा की तैयारी कर रहे हैं. अब तक भारत के एकीकरण के जो प्रयास हुए हैं वे कमजोरों और शोषितों के एकीकरण के प्रयास थे जिसमे सभी शोषित जन शोषकों की मर्जी से इकट्ठे होने को बाध्य थे. अब निकट भविष्य में जो एकीकरण होगा वह समर्थ समुदायों का स्वैच्छिक एकीकरण और संवाद होगा जिससे न सिर्फ वे समुदाय स्वयं सबल होंगे बल्कि भारत में एक वास्तविक लोकतंत्र निर्मित होगा.

मेरी नजर में यह एक बहुत बड़ी क्रान्ति है जिसकी जड़ें भारत की अपनी जमीन में है. यह क्रांति जरुर सफल होगी और इससे न सिर्फ भारत के शोषण सवर्ण वर्ग के शोषण का निर्णायक रूप से खात्मा होगा बल्कि यही वर्ग भविष्य में बहुजनों में अवशोषित होकर पहले से अधिक सभ्य भी बन सकेगा.

 संजय श्रमण

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यलगार परिषद को माओवादियों से जोड़ने पर दलित नेता नाराज

नई दिल्ली।  पीएम मोदी की हत्या की साजिश और यलगार परिषद से जुड़ाव को लेकर देश भर के कथित नक्सल समर्थकों के घरों व कार्यालयों पर छापे मारे जाने और कई कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेने से दलित नेता नाराज हैं. दलित नेता इसे राजनीतिक साजिश और सनातन संस्था के दबाव में उठाया गया कदम बता रहे हैं.

दलित नेताओं का कहना है कि यलगार परिषद का माओवादियों से कोई नाता नहीं है. भरीप बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार से बातचीत में कहा, ’31 दिसंबर, 2017 को यलगार परिषद का आयोजन पुणे में हुआ था. इसका उद्देश्य मराठों और पिछड़ों तथा मराठों और एससी/एसटी के बीच बढ़ती खाई को दूर करना था. आज इस संगठन का कोई अस्तित्व नहीं दिख रहा है. इसलिए यलगार परिषद की गतिविधियों को माओवादियों या भीमा कोरेगांव हिंसा से कैसे जोड़ा जा सकता है?’

उन्होंने संकेत दिया कि कोर्ट में सभी केस पर चुनौती दी जाएगी. दलित लेखक अर्जुन दांगले ने कहा, भीमा कोरेगांव को माओवादी हिंसा से जोड़ना खतरनाक है, इससे दलित समुदाय में गुस्सा और बढ़ सकता है.’

दलित नेताओें का यह भी कहना है कि कार्रवाई तो सनातन संस्था पर होनी चाहिए थी, लेकिन कार्रवाई दलितों के खिलाफ की जा रही है. उनका कहना है कि कोर्ट के आदेश और कर्नाटक से मिले सुराग की वजह से सनातन संस्था के खिलाफ कार्रवाई अपरिहार्य है.

दूसरी तरफ, दलित इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (डिक्की) के अध्यक्ष मिलिंद काम्बले ने कहा, ‘कानून को अपना काम करने दीजिए, यदि किसी ने गलत नहीं किया है तो उसे डरने की जरूरत नहीं है.’

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आखिर उस चिट्ठी में क्या लिखा है, जिसकी वजह से गिरफ्तार हुए वामपंथी विचारक

नई दिल्ली। भीमा कोरेगांव हिंसा से जुड़े मामलों में मंगलवार को पुणे पुलिस की अगुवाई में देशभर में छापेमारी हुई. इस दौरान कई वामपंथी विचारकों को गिरफ्तार किया गया, जिसके बाद इस मामले ने तूल पकड़ा हुआ है.

इस साल की शुरुआत में पुणे पुलिस ने माओवादी नेता की ओर से लिखे गए एक कथित पत्र को जब्त किया था जिसमें देश में विभिन्न नक्सल गतिविधियों के लिए प्रतिष्ठित तेलुगू कवि वरवरा राव के कथित ‘मार्गदर्शन’ के लिए उनकी तारीफ की गई थी.

राव उन पांच लोगों में शामिल हैं जिन्हें माओवादियों के साथ संदिग्ध जुड़ाव के आरोप में गिरफ्तार किया गया. महाराष्ट्र पुलिस ने कई राज्यों में प्रतिष्ठित वामपंथी कार्यकर्ताओं के घरों पर छापेमारी के बाद ये गिरफ्तारियां की. कॉमरेड मिलिंद द्वारा हिन्दी में लिखे पत्र में राव की तारीफ करते हुए उन्हें ‘वरिष्ठ कॉमरेड’ बताया गया है.

पत्र में कहा गया है, ‘‘ पिछले कुछ महीनों के दौरान वरिष्ठ कॉमरेड वरवर राव और हमारे कानूनी सलाहकार कॉमरेड वकील सुरेंद्र गाडलिंग की विभिन्न गतिविधियों में मार्गदर्शन की वजह से हमें राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रचार मिला है.’’

और क्या था चिट्ठी में…

दरअसल, इस साल जून में माओवादियों की एक चिट्ठी सामने आई थी, जिसमें राजीव गांधी की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने का खुलासा हुआ था. 18 अप्रैल को रोणा जैकब द्वारा कॉमरेड प्रकाश को लिखी गई चिट्ठी में कहा गया कि हिंदू फासिस्म को हराना अब काफी जरूरी हो गया है. मोदी की अगुवाई में हिंदू फासिस्ट काफी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, ऐसे में इन्हें रोकना जरूरी हो गया है.

इसमें लिखा गया था कि मोदी की अगुवाई में बीजेपी बिहार और बंगाल को छोड़ करीब 15 से ज्यादा राज्यों में सत्ता में आ चुकी है. अगर इसी तरह ये रफ्तार आगे बढ़ती रही, तो माओवादी पार्टी को खतरा हो सकता है. इसलिए वह सोच रहे हैं कि एक और राजीव गांधी हत्याकांड की तरह घटना की जाए.

इस चिट्ठी में कहा गया कि अगर ऐसा होता है, तो ये एक तरह से सुसाइड अटैक लगेगा. हमें लगता है कि हमारे पास ये चांस है. मोदी के रोड शो को टारगेट करना एक अच्छी प्लानिंग हो सकती है.
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भीमा कोरेगांव हिंसा केस में ताबड़तोड़ छापेमारी, नक्सल समर्थक होने के शक में 5 गिरफ्तार

नई दिल्ली। पांच महीने में दूसरी बार मंगलवार को पुणे पुलिस ने देशभर के कथित नक्सल समर्थकों के घरों व कार्यालयों पर ताबड़तोड़ छापेमारी की. सूत्रों के मुताबिक भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में जांच के मद्देनजर छापे के बाद अब तक कवि वरवरा राव, अरुण पेरेरा, गौतम नवलखा, वेरनोन गोन्जाल्विस और सुधा भारद्वाज को गिरफ्तार किया गया है. सभी आरोपियों को सेक्शंस 153 A, 505(1) B, 117, 120B, 13, 16, 18, 20, 38, 39, 40 और UAPA (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम ऐक्ट) के तहत मामला दर्ज किया गया है.

आपको बता दें कि भीमा-कोरेगांव में जनवरी महीने में हुई हिंसा में पांच लोगों की गिरफ्तारी के बाद चौंकानेवाला खुलासा हुआ था. पुणे पुलिस को एक आरोपी के घर से ऐसा पत्र मिला था, जिसमें राजीव गांधी की हत्या जैसी प्लानिंग का ही जिक्र किया गया था. इस पत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने की बात भी कही गई थी.

सूत्रों ने बताया कि मंगलवार को देशभर के कई शहरों मुंबई, रांची, हैदराबाद, फरीदाबाद, दिल्ली और ठाणे में छापेमारी की गई. रांची में स्टेन स्वामी को गिरफ्तार नहीं किया गया है, केवल उनके घर की तलाशी ली गई. कार्यकर्ताओं के कई समर्थकों ने विभिन्न जगहों पर पुलिस छापे के दौरान प्रदर्शन किया. उधर, भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने पुणे के लिए ऐक्टिविस्ट गौतम नवलखा की ट्रांजिट रिमांड पर स्टे लगा दिया है. वह बुधवार को केस की सुनवाई होने तक हाउस अरेस्ट रहेंगे.

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सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने की कोशिश- रिहाई मंच

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लखनऊ। रिहाई मंच ने मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकारों के जाने-माने पैरोकारों के घरों पर हुई छापेमारी और उनकी गिरफ्तारी की कड़ी निंदा करते हुए तत्काल रिहाई की मांग की. मंच ने सुधा भारद्ववाज, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा, वेराॅन गोंजाल्विस, आनंद तेलतुंबडे, वरवर राव, फादर स्टेन स्वामी, सुसान अब्राहम, क्रांति और नसीम जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं पर इस हमले को अघोषित आपातकाल कहा.

रिहाई मंच अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि मोदी जब भी राजनीतिक रुप से फंसते हैं उनकी जानपर खतरे का हौव्वा खड़ा हो जाता है- कभी इशरत जहां को मार दिया जाता है तो आज मानवाधिकार-लोकतांत्रिक अधिकारवादी नेताओं, वकीलों और षिक्षाविदों की गिरफ्तारी हो रही है. अच्छे दिनोें के नाम पर जिस मध्यवर्ग को वोट बैंक बनाया गया सरकार उसे कुछ भी दे पाने में विफल रही. इस असफलता को छुपाने के लिए ‘अरबन नक्सली‘ की झूठी कहानी गढ़ी गई है.

सुधा भारद्वाज का बस इतना जुर्म है कि वो आदिवासी जनता के हक-हुकूक की बात करती हैं तो वहीं गौतम नवलखा सरकारी दमन की मुखालफत करते हैं. तो वहीं आनंद तेलतुबंडे बाबा साहेब के विचारों को एक राजनीतिक षिक्षाविद के रुप में काम करते हैं. दरअसल सच्चाई तो यह है कि छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में चुनाव होने को हैं और जनता भाजपा के खिलाफ है. ऐसे में जनता की लड़ाई लड़ने वालों की गिरफ्तारी सरकार की खुली धमकी है.

मुहम्मद शुऐब कहते हैं कि सनातन संस्था की उजागर हुई आतंकी गतिविधियों से ध्यान बंटाने की यह आपराधिक कोषिष है जिसकी कमान मोदी-षाह के हाथ में है. एक तरफ पंसारे, कलबुर्गी, दाभोलकर, लंकेष की सनातन संस्था हत्या कर रही है दूसरी ओर मोदी पर हमले के नाम पर इस तरह की गिरफ्तारियां साफ करती हैं कि जो तर्क करेगा वो मारा जाएगा या उसे जेल में सड़ाया जाएगा.

रिहाई मंच ने कहा कि यह कार्रवाई असंतोष की आवाजों को दबाने और सामाजिक न्याय के सवाल को पीछे ढकेलने की सिलसिलेवार कोषिष का चरम हिस्सा है. भीमा कोरेगांव मामले को माओवाद से जोड़ा जा रहा है और उसके मुख्य अभियुक्त संभाजी भिडे को संरक्षण दिया जा रहा है. यह मोदी की दलित विरोधी नीति नया पैतरा है.

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