दलित वोटरों को भरमाने के लिए बीजेपी ने चली नई चाल, क्या आप भी आए हैं निशाने पर?

नई दिल्ली- उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी दलित वोटरों को साधने के लिए नई-नई साजिशें रच रही है। बीजेपी न सिर्फ ग्राउंड लेवल पर जाकर बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से भी दलित वोटों के धुर्वीकरण के लिए नई नई चालें चल रही है। सोशल मीडिया के चर्चित प्लेटफार्म ट्विटर पर एक ऐसी ही चाल बीजेपी ने गुरुवार को चली जब ट्विटर पर #दलित_विरोधी_अखिलेश ट्रेंड करने लगा।

इस हैशटैग के साथ कई बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं और बीजेपी सपोर्टर्स ने ट्विट किए और अखिलेश यादव के शासनकाल को दलित विरोधी बताया। इतना ही नहीं इन ट्विटस में अखिलेश यादव द्वारा लिए गये फैसलों का उल्लेख करते हुए, अब और तब में कितना अंतर था, इसे भी बताया गया।

लेकिन क्या आपको लगता है बीजेपी ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि उसे यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव पर निशाना साधना है?

जी नहीं! दरअसल भाजपा का निगाहें कहीं और… और निशाना कहीं और है। असल में उत्तर प्रदेश में जो माहौल है, उसमें ऐसा होता दिख रहा है कि अगर किसी स्थिति में दलित समाज का कुछ हिस्सा बसपा को वोट नहीं करता है तो वह समाजवादी पार्टी को वोट कर सकता है। बस.. भाजपा यही नहीं चाहती, क्योंकि भाजपा को पता है कि अगर दलितों के वोटों का छोटा सा हिस्सा भी अगर समाजवादी पार्टी को जाता है, तो भाजपा की राह और मुश्किल हो सकती है। इसलिए भाजपा की यह कोशिश है कि दलित समाज के जो वोट बसपा को नहीं मिलते हैं, वो या तो भाजपा को मिले या फिर कांग्रेस में चले जाएं। ताकि न सपा जीत सके और न ही बसपा।

जहां तक प्रदेश में दलित समाज के वोटों का सवाल है तो यूपी में करीब 22 फीसदी दलित वोटर हैं जिसमें लगभग 14 फीसदी वोट जाटवों का है, जबकि गैर-जाटव वोटर 8 फीसदी है। इस वोट बैंक पर अब तक बसपा प्रमुख मायावती का एकक्षत्र राज रहा है।

पिछले दिनों राजनीतिक गलियारों में चंद्रशेखर और अखिलेश यादव के एक साथ आने की खबरें बनी रही जो कहीं न कहीं बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ने का संकेत देती हैं। चूंकि मायावती और चंदशेखर आजाद एक ही जाति से और पश्चिमी यूपी से आते हैं तो यदि अखिलेश और आजाद मिल जाते हैं तो दलितों का एक तबका सपा का समर्थन कर सकता है। भाजपा इसी अंदेशें को लेकर परेशान है। इसलिए भाजपा अखिलेश यादव को दलित विरोधी बता कर दलित वोटरों को भरमाने में लगी हुई है।

हालांकि भाजपा की कथनी और करनी में अंतर कई बार सामने आ चुका है। प्रयागराज में हाल ही में हुए दलित परिवार की हत्या का मामला हो, सहारनपुर की बेटी का मामला, बीते सालों में दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ योगी सरकार का लचर रवैया देख कर यूपी के दलित पहले ही सावधानी बरत रहे हैं।

जातिगत भेदभाव को लेकर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का बड़ा फैसला

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भारतीय जब विदेशों में पहुंचे तो अपने साथ अपने जनेऊ और जाति को लेकर भी गए। नौकरी हो या शिक्षण संस्थान, जहां भी ये जातिवादी पहुंचे, जाति को साथ लेकर चलते रहे। इस तरह जाति दुनिया के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी भी पहुंच गई। और खासतौर पर यहां पढ़ने वाले दक्षिण एशियाई छात्रों को इसका सामना करना पड़ा। जाति आधारित यह भेदभाव 80 के दशक से ही शुरू हो गया था, जो लगातार बढ़ता गया।

आखिरकार दक्षिण एशियाई स्नातक छात्रों ने इस भेदभाव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और हार्वर्ड युनिवर्सिटी से जातिवाद के खिलाफ सुरक्षा देने की मांग की। मार्च 2021 में यह मांग जोर पकड़ने लगी और आखिरकार नौ महीनों की लंबी लड़ाई के बाद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने दक्षिण एशियाई छात्रों को जातिगत भेदभाव से सुरक्षा देने का अहम फैसला किया है।

एनबीसी न्यूज़ के अनुसार, दक्षिण एशियाई स्नातक छात्र कार्यकर्ता अपने साथ होने वाले जातिगत भेदभाव को लेकर मार्च से यूनिवर्सिटी से मांग कर रहे थे। जिन्हें अब यूनिवर्सिटी ने मानते हुए जातिगत भेदभाव का सामना कर रहे छात्रों को सुरक्षा देने के लिए उपाय करने शुरू किए हैं। खबर के मुताबिक हाल ही में यूनिवर्सिटी ने स्नातक छात्र संघ के साथ कॉन्ट्रैक्ट होने की पुष्टि की है और जाति को नई संरक्षित श्रेणी के रूप में शामिल किया गया है। इसके लिए छात्र संगठन मार्च से लगातार जोर दे रहे थे। संघ और प्रशासन के बीच 9 महीने की चर्चा के बाद दलित नागरिक अधिकार संगठन, इक्वेलिटी लैब्स के समर्थन से ये निर्णय लिया गया।

दरअसल 1980 के दशक के बाद से दक्षिण एशिया से इमीग्रेशन बढ़ने के बाद से पूरे संयुक्त राज्य के परिसरों में हिंदूओं और भारतीय व्यवस्था के खून तक में समा चुकी जाति प्रथा की बीमारी दिखने लगी। इक्वेलिटी लैब्स के एक अध्ययन के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में 25% दलितों ने मौखिक या शारीरिक हमले का सामना किया है, जबकि तीन में से एक छात्र का कहना था कि उन्हें पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ा जिसकी वजह से उनकी शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

इक्वेलिटी लैब्स की रिपोर्ट के अनुसार,  तीन में से दो दलित छात्रों ने कहा कि उनके साथ काम के दौरान गलत व्यवहार किया गया और 60%  ने जाति-आधारित अपमानजनक जोक्स और टिप्पणियों का सामना करने की बात कही। इतना ही नहीं, रिपोर्ट ये भी बताती है कि लगभग 40% दलित और 14% ओबीसी छात्रों को उनकी जाति के कारण उनके पूजा स्थल यानी मंदिरों पर अनवांटेड फील कराया गया।

 हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट की छात्रा और स्नातक छात्र संघ की सदस्य अपर्णा गोपालन के मुताबिक- कई श्वेत प्रशासकों को जाति की कोई मूलभूत समझ नहीं थी। तो वहीं इक्वेलिटी लैब्स के कार्यकारी निदेशक थेनमोझी सुंदरराजन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के फैसले के बारे में कहा कि ये इस बात की याद दिलाता है कि जाति समानता श्रमिकों और छात्रों के अधिकारों का मामला है।

यह पहली बार है जब हार्वर्ड यूनिवर्सिटी या किसी अन्य आइवी लीग संस्थान ने जाति को संरक्षित श्रेणी के रूप में शामिल करने का फैसला लिया है। निश्चित तौर पर इस फैसले से जहां दक्षिण एशिया के वंचित समूह के छात्रों को मदद मिलेगी, तो वहीं अमेरिका के दूसरे संस्थानों एवं दुनिया के अन्य हिस्सों में भी दलितों-वंचितों के साथ होने वाले जातिवाद के खिलाफ कानून बनने का रास्ता साफ होगा।

भारत पहुंचा कोरोना का नया ‘ओमिक्रॉन वैरिएंट’, कर्नाटक में मिले पॉजिटिव मामले

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डीडी डेस्क- कोरोना वायरस के नए वैरिएंट ‘ओमिक्रॉन’ ने भारत में दस्तक दे दी है. मिल रही खबरों के अनुसार भारत के कर्नाटक राज्य में दो लोग पॉजिटिव मिले हैं. हालांकि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जानकारी देते हुए कहा है कि नए वैरिएंट का संक्रमित लोगों पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है.
ओमिक्रॉन वैरिएंट से संक्रमित देशों में अब भारत भी शामिल हो गया है. अब तक 29 देशों में इस नए वैरिएंट की दहशत देखने को मिल रही थी और अब भारत में भी इसके शामिल हैं.
डर को बढ़ाया! कोरोना वायरस के नए वैरिएंट ‘ओमिक्रॉन’ ने दुनियाभर में संक्रमण के डर को बढ़ा दिया है. ओमिक्रॉन वैरिएंट दूसरी लहर के ‘डेल्टा वेरिएंट’ से कहीं ज्यादा संक्रामक बताया जा रहा है. बताया जा रहा है कि ये डेल्टा की तुलना में पांच गुना ज्यादा तेजी से फैलता है. इस वैरिएंट की पहचान दक्षिण अफ्रीका के शोधकर्ताओं द्वारा की गई थी.
डब्लूएचओ ने चेताया इस नए वैरिएंट को लेकर वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन (डब्लूएचओ) ने भी चेताया है. डब्लूएचओ ने इसे हाई रिस्क वैरिएंट बताया है और लोगों को खासी सावधानी बरतने को कहा है. साथ ही, डब्लूएचओ ने इस वेरिएंट ऑफ कंसर्न की कैटेगरी में रखा है ओमिक्रॉन वैरिएंट की जानकरी मिलते ही दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों की हवाई यात्राओं पर रोक लगा दी गई है. भारत में भी 15 दिसंबर से शुरू होने वाली हवाई यात्राओं को फ़िलहाल टाल दिया गया है.
यहां से हुई पहचान इसकी पहचान तब हुई अब दक्षिण अफ्रीका की सबसे बड़े टेस्टिंग लैब की हेड रकील वियाना कोरोना वायरस के 8 सैंपल्स की जीन सिक्वेंसिंग कर ही रही थी कि अचानक उन्होंने टेस्ट किए गए सैंपल में बड़ी संख्या में म्यूटेशन होते देखा. खास कर स्पाइक प्रोटीन पर जिसका इस्तेमाल कर ही कोरोना वायरस मानव शरीर में दाखिल हुआ था.
डॉक्टर्स ने किया सावधान! नए वैरिएंट को लेकर भारतीय डॉक्टर्स ने सावधान करते हुए कहा है कि ये वैरिएंट कई गुना तेजी से फ़ैल सकता है. उन्होंने मीडिया को बताया कि ओमिक्रॉन वैरिएंट से संक्रमित व्यक्ति एक बार में 18 से 20 लोगों तक इस वायरस को फ़ैलाने में सक्षम है. इस बीच, सरकार ने लोगों से अपील करते हुए कहा है कि इससे घबराने की जरूरत नहीं है, जागरुकता बनाएं रखें. लोग फिजिकल डिस्टेंसिंग जारी रखें, मास्क का इस्तेमाल करें और भीड़भाड़ से बचें.

दलित प्रेरणा स्थल को लेकर जांच में आई तेजी

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 सरकार में चाहे भाजपा हो या सपा, जब भी उत्तर प्रदेश में चुनाव की दस्तक होती है, बहुजन महापुरुषों के सम्मान में बने दलित प्रेरणा स्थल का मुद्दा जरूर उठता है। एक बार फिर 2022 के यूपी चुनाव को देखते हुए बहुजनों के स्वर्णिम इतिहास को समेटे नोएडा के दलित प्रेरणा स्थल और लखनऊ के सामाजिक परिवर्तन स्थल की जांच की खबर है। योगी सरकार के इशारे पर दोनों बहुजन स्मारकों में पैसे की अनियमितता की जांच एक बार फिर से तेज हो गई है। प्रेरणा स्थल से जुड़ी जरूरी 23 फाइलें लखनऊ मंगा ली गई हैं। जांच टीम ने 2009 से 2012 तक नोएडा अथॉरिटी (Noida Authority) में रहे सीईओ, एसीईओ और अन्य इंजीनियरों के नाम और पदनाम समेत पूरी जानकारी मांगी है।

दरअसल लोकायुक्त की जांच रिपोर्ट में इन दोनों पार्कों के निर्माण में 14 सौ करोड़ रुपये के घोटाले की बात सामने आई थी। आरोप है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की सरकार में जब दलित प्रेरणा स्थल बनने के बाद जांच शुरू हुई तो सैकड़ों करोड़ रुपये की खरीद के दस्तावेज गायब थे। किसके आदेश पर एमओयू में तय रकम से ज्यादा खर्च की गई यह आदेश भी गायब था।

लेकिन यहां अहम सवाल यह है कि बीते दस साल में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार भी रही और भाजपा भी सत्ता में रही, अब तक जांच में किसी पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। सपा हो या भाजपा दलित प्रेरणा स्थल का मुद्दा हर चुनाव के समय उठाया तो जाता है लेकिन ऐसा कर महज बसपा शासनकाल को बदनाम करने की साजिश रची जाती है। जबकि यह साफ है कि बहुजन समाज के लिए नोएडा का दलित प्रेरणा स्थल हो या फिर लखनऊ का सामाजिक परिवर्तन स्थल, इनका महत्व एक तीर्थ सरीखा है। भाजपा और समाजवादी पार्टी कई मौकों पर इसकी जगह स्कूल औऱ अस्पताल बनाने की वकालत करते रहे हैं, लेकिन न तो सपा और न ही भाजपा सरकार और न ही किसी दूसरे में यह हिम्मत है कि वो इसकी एक ईंट को भी खरोच सकें।

योगी सरकार का ‘मंदिर निर्माण’ क्या दिला पाएगा BJP को यूपी की सत्ता?

डीडी डेस्क- उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने यूपी विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर राज्य में विकास को दरकिनार कर धर्म की राजनीति को हवा दे दी है. दरअसल, केशव प्रसाद मौर्य ने अयोध्या के राम मंदिर के बाद अब मथुरा में कृष्ण मंदिर बनाए जाने को लेकर एक ट्विट किया जिसके बाद से ट्वीटर पर हैशटैग सेव मथुरा मस्जिद ट्रेंड करने लगा है. केशव प्रसाद मौर्य ने ट्विट करते हुए कहा, “अयोध्या काशी भव्य मंदिर निर्माण जारी है मथुरा की तैयारी है” मौर्य के इस ट्विट पर उन्हें कड़ी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा. हालांकि, चुनाव से पहले बीजेपी सरकार द्वारा ये हथकंडा अपनाना नया नहीं है. जहां एक तरफ यूपी विधानसभा चुनाव के लिए जब विपक्षी पार्टियां किसान, महंगाई, गरीबी और रोजगार जैसे मुद्दे उठा रही है तो वहीं, बीजेपी का धर्म को लेकर वोट बटोरने की राजनीति, यूपी में हिंदू-मुस्लिम की आंधी को हवा देने का काम कर रही है. अखिलेश ने साधा निशाना वहीँ, यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने केशव मौर्य के बयान पर पलटवार करते हुए कहा, “भाजपा का गरीबों को लूटने और अमीरों की जेब भरने का एजेंडा है. हमेशा अमीर वर्ग को फायदा पहुंचाने का काम किया है. आगामी चुनावों में कोई रथ यात्रा या नया मंत्र भाजपा की मदद करने वाला नहीं है.” मायावती ने किया तंज उधर, केशव मौर्य के बयान को लेकर बसपा सुप्रीमों मायावती ने भी तंज करते हुए उन्होंने ट्विट किया. उन्होंने ट्विट में लिखा, “यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य द्वारा विधानसभा आमचुनाव के नजदीक दिया गया बयान कि अयोध्या व काशी में मन्दिर निर्माण जारी है अब मथुरा की तैयारी है, यह भाजपा के हार की आम धारणा को पुख्ता करता है. इनके इस आखिरी हथकण्डे से अर्थात् हिन्दू-मुस्लिम राजनीति से भी जनता सावधान रहे.” गरीब यूपी के लिए मंदिर जरूरी! नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट भले ही बता रही है कि उत्तर प्रदेश, भारत का तीसरा सबसे ग़रीब राज्य है. लेकिन यूपी सरकार में शहरी रोजगार और गरीबी उन्मूलन, श्रम विभाग और सेवायोजन विभागों के मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य गरीबी के बारे में नहीं बल्कि धर्म, मंदिर निर्माण के बारे में बात कर रहे हैं. गरीबी मुद्दा नहीं.. हालांकि इस बार यूपी की जनता तेल के बढ़ते दामों, महंगे होते गैस सिलेंडर और बेरोजगारी से त्रस्त हैं. पिछले दिनों लीक हुए यूपीटीईटी के पेपर के तुरंत बाद जिस तरह से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक ही महीने में दोबारा पेपर कराने की घोषणा की, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि योगी इन मुद्दों पर गच्चा खा सकते हैं. तो आखिर क्या कारण है कि योगी सरकार इन मुद्दों से भटक रही है?

किसानों के लिए प्रेरणा बनी कर्नाटक की ये आदिवासी महिला, खेती से कमाएं लाखों

बीबीसी हिंदी से साभार
शहरों में कुछ महिलाएं अपने घरों में बागवानी करके उसे सोशल मीडिया पोस्ट कर लोगों के बीच पॉपुलर हो रही हैं. उनके पास छोटी-छोटी क्यारियां और गमले हैं जिसमें वो कई तरह के छोटे छोटे पौधें लगा कर तारीफे बटोर लेती हैं. लेकिन उन महिलाओं का क्या जो अपने खेतों में अपनी सूझ बुझ से फसल उगा कर उससे न सिर्फ अपना परिवार पाल रही हैं बल्कि कई गांवों के लिए प्रेरणा भी बन रही हैं. सशक्तिकरण के गुर सिखाती प्रेमा ऐसी ही एक शख्सियत से आज हम आपको मिलवाने जा रहे हैं. इनका नाम है प्रेमा दासप्पा. 50 वर्षीय प्रेमा तेरह साल पहले जंगल में रहते हुए कम मजदूरी पर जटिल जीवन जी रही थीं. लेकिन अब वो अपनी जैसी कई आदिवासी महिलाओं को आर्थिक सशक्तिकरण के गुर सीखा रही हैं. बीबीसी की रिपोर्ट में अपने बारे में बताते हुए दासप्पा कहती हैं कि उन्होंने शुरुआत में एक एकड़ जमीन में चिया के बीज बोए थे जिसकी खेती से उन्हें 90 हजार की कमाई हुई. उन्होंने इन बीजों को 18 हजार क्विंटल बेचा और अपनी इस कमाई से प्रेमा ने बेटे को बाइक ख़रीद कर दी थी. ऐसे मिली थी जमीन प्रेमा को ये जमीन जेनू कुरुबा आदिवासी समुदाय के उन 60 आदिवासी परिवारों में शामिल होने की वजह से मिली थी जिन्हें साल 2007-08 में नागरहोल टाइगर रिज़र्व के जंगल से बाहर होने के बदले में मुआवजे के तौर पर जमीन दी गई थी.
बीबीसी हिंदी से साभार
कुछ परिवार इस जमीन पर रहते हैं, कुछ वन विभाग में मजदूरी करते है लेकिन एक प्रेमा ही थीं जिन्होंने इस जमीं पर कुछ अलग करने का सोचा था. उन्होंने पहले खेती करना सीखा और फिर उन्होंने इस पर चावल, ज्वार, मक्का जैसे अनाज के साथ सब्ज़ियां भी उगाईं. पानी की समस्या का निकाला हल लेकिन यहाँ पानी की समस्या थी और इसलिए प्रेमा ने पहला इसका तोड़ निकाला. प्रेमा ने अपनी जमीन केरल के एक व्यक्ति को दी जो अदरक की खेती करना चाहता था. प्रेमा ने बदले में पैसा नहीं बल्कि कुआँ खोदने को कहा और इस तरह प्रेमा ने अपने खेतों के लिए पानी की भी व्यवस्था कर ली. ऐसे बनी पहचान प्रेमा के इस जज्बे और सीखने-सिखाने की क्षमताओं को कर्नाटक सरकार के वन विभाग के साथ लोगों के पुनर्वास के लिए काम करने वाली संस्था द वाइल्डलाइफ़ कंज़रवेशन सोसायटी ने पहचाना. इसी का परिणाम है कि प्रेमा अब कई दूसरी जगहों पर किसानों को सलाह देती हैं. इतना ही नहीं, वन विभाग ने राज्य में मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई के न होने पर, प्रेमा से कृषि मेले का उद्घाटन करने की अपील भी की थी. प्रेमा अब खुश हैं और गर्व से अपना काम सभी को बताती और सिखाती हैं.

प्रयागराज दलित हत्याकांड मामलाः क्या पुलिस लीपापोती कर रही है?

 उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के फाफामऊ में बीते 26 नवंबर को एक दलित परिवार के चार लोगों की हत्या की जिस खबर से यूपी सहित देश भर में सनसनी फैल गई थी, अब उस मामले में नया मोड़ आ गया है और पुलिस ने एक दलित युवक को ही आरोपी बना डाला है। हालांकि दलित परिवार की हत्या के आरोप में दलित युवक को ही आरोपी बनाए जाने को लेकर पुलिस जो थ्योरी दे रही है, उससे न तो पीड़ित परिवार संतुष्ट है और न ही दलित समाज के संगठन। बल्कि पुलिस की नई थ्योरी से पुलिस पर ही सवाल उठने शुरू हो गए हैं।

 यूपी चुनाव पास होने के कारण इस मामले ने राजनीतिक तूल पकड़ लिया था। योगी सरकार और यूपी की पुलिस पर इस घटना को जल्दी हल करने का दबाव था। मामला तूल पकड़ने के बाद पुलिस ने आनन-फानन में सवर्ण समाज के आठ लोगों को गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन नए घटनाक्रम में पुलिस ने अब आठ लोगों को रिहा कर दिया है, साथ ही इस मामले में 23 साल के पवन सरोज और दो अन्य युवाओं को गिरफ्तार किया है। पवन सहित तीनों युवा दलित समाज से हैं, जिससे यह मामला और गरमा गया है।

सवर्ण आरोपियों को रिहा करने और इस मामले में दलित युवकों को ही आरोपी बनाए जाने के बाद अब पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाने शुरू हो गए हैं। द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक इसकी वजह यह भी है कि पुलिस ने अभी तक पवन सरोज के खिलाफ कोई बड़ा सबूत सामने नहीं रखा है। पुलिस का बस इतना भर कहना है कि पवन ने कुछ लोगों के साथ मिलकर इस वारदात को अंजाम दिया है।

29 नवंबर को नई थ्योरी को सामने रखते हुए प्रयागराज के एडीजी प्रेम प्रकाश ने कहा था कि पवन सरोज मृतक परिवार की लड़की को मोबाइल पर मैसेज भेजकर उसे लगातार परेशान कर रहा था, लेकिन लड़की उसे नजरअंदाज कर रही थी। अंतिम मैसेज और सबूतों के आधार पर पवन सरोज की गिरफ्तारी हुई है।

लेकिन पुलिस की इस थ्योरी पर खुद मृतक परिवार के परिजनों ने ही सवाल उठा दिया है। मारे गए लोगों के परिजनों का आरोप है कि पुलिस सवर्ण समुदाय के लोगों को बचा रही है। द इंडियन एक्सप्रेस से दिये बयान में उनका तर्क है कि पवन सरोज कैसे एक परिवार के चार लोगों की हत्या कर सकता है। मृतक फूलचंद्र के भाई का सवाल है कि अगर पवन सरोज को मारना होता तो वह सिर्फ लड़की को मारता, न कि पूरे परिवार को।

 परिजनों का कहना है कि मारे गए परिवार का सवर्ण समाज के पड़ोसी के परिवार के एक शख्स के साथ जमीन को लेकर विवाद चल रहा था और सितंबर में इन लोगों पर हमला भी हुआ था। दूसरी ओर पवन सरोज के घरवालों का भी कहना है कि उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है।

26 नवंबर को घटी सनसनीखेज हत्याकांड में 50 साल के फूलचंद्र, 45 साल की उनकी पत्नी मीनू, 17 साल की बेटी और 10 साल के बेटे की हत्या कर दी गई थी। महिला और उसकी बेटी के साथ बलात्कार की बात की भी पुष्टि हुई थी। पुलिस चाहे जो थ्योरी पेश करे.. सच क्या है, यह अभी सामने आना बाकी है। क्योंकि इस पूरे मामले में अंतिम नतीजे पर पहुंचने में पुलिस की हड़बड़ी साफ दिख रही है। और मृतक परिवार के कई सवालों के जवाब पुलिस अब भी नहीं ढूंढ़ पाई है।

अपने सपनों को पूरा करने के लिए दलित छात्रा ने मांगी इलाहाबाद हाईकोर्ट से मदद, मिले इतने रूपये…

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  वो कहते हैं न, चाह को राह मिल ही जाती है. ऐसा ही कुछ अपनी काबिलियत के दम पर आईआईटी की परीक्षा पास करने वाली होनहार छात्रा संस्कृति रंजन के साथ भी हुआ है. संस्कृति ने अपनी मेहनत से आईआईटी की जेईई एडवांस परीक्षा पास तो कर ली लेकिन उनके पास एडमिशन के लिए पैसे नहीं थे. अपनी मदद के लिए जब संस्कृति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो जैसे उन्हें राह मिल गई. संस्कृति की मदद के लिए हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने हाथ बढ़ाया. हाईकोर्ट ने की मदद लखनऊ बेंच ने संस्कृति की मदद करते हुए उन्हें 15 हजार रुपए फीस देने का फैसला किया है. खबरों की माने तो संस्कृति का एडमिशन बीएचयू में हो गया था. उन्होंने आईआईटी की परीक्षा पास कर काउंसिलिंग में मैथमेटिक्‍स और कंप्‍यूटिंग कोर्स लिया.  लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसके पास कॉलेज की फीस देने के लिए पैसे नहीं थे. तब अपनी मदद के लिए संस्कृति ने हाईकोर्ट से गुहार लगाई. सीट हुई पक्की खबरों के अनुसार, संस्कृति की बात सुन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बीएचयू (बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी) को उनकी मदद करने का आदेश दिया है और कहा है कि अगर छात्रा के लिए सीट उपलब्‍ध नहीं है तो उन्हें अतिरिक्‍त सीट पर एडमिशन किया जाए. मेधावी छात्रा संस्‍कृति रंजन की याचिका पर जस्टिस दिनेश कुमार सिंह ने सुनवाई करते हुए ये आदेश दिया. होशियार छात्रा संस्कृति संस्‍कृति गरीब दलित तबके से आती हैं. वो शुरू से ही मेधावी छात्रा रही हैं. उन्होंने हाईस्‍कूल में उसे 95.6 %  और 12वीं में उसे 92.77 अंक प्राप्‍त किए थे. जेईई की परीक्षा में उन्हें 2,062 रैंक मिली थी. एससी कैटगरी में उनकी रैंक 1469 थी. दरअसल, हाईकोर्ट जाने से पहले संस्‍कृति और उनके पिता ने कई बार जॉइंट सीट एलोकेशन अथॉरिटी को फीस को लेकर समय बढ़ाने की मांग की थी. लेकिन जब उन्हें इसका जवाब नहीं मिला तब उन्होंने हाईकोर्ट की तरफ रुख किया. कोर्ट ने जब संस्कृति की मेहनत और उनकी काबिलियत को देखा तो उनकी मदद करते हुए उन्हें 15 हजार रुपए देने के साथ उनका अतिरिक्‍त सीट पर एडमिशन करने का भी आदेश दे डाला.

 यूपी की 136 सीटों के लिए मायावती ने बनाया स्पेशल प्लॉन

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 उत्तर प्रदेश के सियासी संग्राम में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिसपर सभी दलों की नजर है। खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लड़ाई अहम हो गई है। अखिलेश यादव ने आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी को अपने साथ मिला कर जाट-मुस्लिम और दलित समुदाय का समीकरण तैयार किया है। इस पूरे समीकरण पर बसपा प्रमुख की भी नज़र है। ऐसे में बसपा सुप्रीमों मायावती ने अपना सियासी दांव चल दिया है। बसपा मुखिया ने लखनऊ में पिछड़ों, दलित, मुस्लिम और जाट समुदाय के नेताओं की बड़ी बैठक बुलाई। बैठक में मायावती ने अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित 86 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम और जाट समुदाय को बड़ी संख्या में पार्टी से जोड़ने की बात कही है।

इस दौरान बसपा प्रमुख ने सत्ताधारी बीजेपी सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि-बीजेपी के राज में मुस्लिम सामुदाय के ऊपर सबसे ज़्यादा अन्याय हुआ है। इस समाज के प्रति देश मे नफ़रत को बढ़ावा बीजेपी के सह पर दिया जाता है। बीजेपी के राज में मुस्लिम समाज असुरक्षित और ठगा हुआ महसूस कर रहा है। हमारी बीएसपी की सरकार में इस समुदाय के साथ कभी ऐसा व्यवहार नही किया गया था।”

इसी तरह बसपा सुप्रीमों ने जाट वोटों को भी साधने की कोशिश की। दरअसल जब हम उत्तर प्रदेश की सियासत को देखते हैं तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश काफी अहम है। पश्चिमी यूपी में विधानसभा की 136 सीटे हैं, जिन पर जाट, मुस्लिम और दलित समाज के वोटरों का दबदबा है। यही वजह है कि चाहें समाजवादी पार्टी हो या बसपा या फिर भाजपा, सभी कि निगाहें इन वोटरों पर है। जहां तक बहुजन समाज पार्टी की बात है तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा एक वक्त में काफी मजबूत रही है। लेकिन 2017 के चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र की 136 में से 109 सीटें जीतकर बाजी पलट दी थी। यही वजह है कि साल 2022 चुनाव को देखते हुए बसपा सुप्रीमों मायावती ने फिर से अपना दांव खेल दिया है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने गढ़ को फिर से हासिल करने की कवायद में जुट गई हैं।

दिल्ली में सस्ता हुआ पेट्रोल, केजरीवाल सरकार ने लागू की नई कीमतें

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  नई दिल्ली/टीम डिजिटल- दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने दिल्लीवासियों को राहत देते हुए पेट्रोल के दाम कर दिए हैं. दिल्ली में अब एक लीटर पेट्रोल की कीमत आठ रूपये सस्ती हो जाएगी. पेट्रोल हुआ सस्ता दिल्ली सरकार ने ये फैसला बुधवार को हुई कैबिनेट की बैठक में लिया. सरकार ने पेट्रोल की कीमत कम करने के लिए इस पर लगने वाले वैट को 30 फीसदी से कम करते हुए 19.40 फीसदी कर दिया है. इस फैसले के बाद से बुधवार रात से ही दिल्लीवासियों को पेट्रोल आठ रूपये कम दाम में मिल सकेगा और आज आधी रात से ही ये नए दाम लागू हो जाएंगे. पेट्रोल की नई कीमत के बारे में बताने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट कर ये जानकारी दी. ट्विटर पर दी जानकारी सीएम केजरीवाल ने ट्वीट किया, “’दिल्ली में आज हमने पेट्रोल काफ़ी सस्ता कर दिया. VAT की दर 30% से घटाकर 19.4% कर दी. NCR के अन्य शहरों के मुक़ाबले दिल्ली में पेट्रोल और डीज़ल सस्ता हो गया. मैं उम्मीद करता हूँ कि इस कदम से दिल्ली के लोगों को महंगाई से राहत मिलेगी.” गौरतलब है कि साल की शुरुआत होते ही देशभर में पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों ने दिल्लीवासियों की कमर तोड़ दी थी. लगातार बढ़ती जा रही कीमतों को दिवाली के मौके पर केंद्र सरकार द्वारा कम किया गया था. केंद्र की तरफ से एक्साइज ड्यूटी 5 और 10 रुपये कम कर दी गई थी. जिससे पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम हो गई थीं. केंद्र की राह पर कांग्रेस! केंद्र के इस फैसले के बाद से ही एनडीए शासित राज्यों ने भी पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले वैट को कम किया था. इसी कड़ी में पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने भी जनता को राहत देते हुए वैट कम कर दिया था.

24 साल पहले राष्ट्र के लिए शर्म करार दी गई थी यह घटना, क्या आपको याद है?

नई दिल्ली। 24 साल पहले, बिहार में आज ही के दिन वो हुआ था जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने राष्ट्रीय शर्म करार दिया था. ये घटना बिहार के इतिहास की सबसे भयावह घटना थी जिसे दुनिया लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के नाम से जानती है. इस नरसंहार में बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया था.

1 दिसंबर 1997 की रात कई परिवार अनाथ हो गए, कई परिवारों में एक महिला भी नहीं बची, कई में सिर्फ बच्चे ही रह गए और कई जन्म लेने से पहले ही अपनी माओं की कोख में ही मार दिए गए.

क्या हुआ था उस रात उस रात बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में 58 लोगों को गोली मार दी गई. जिनमें 27 औरतें और 10 बच्चे भी शामिल थे, मरने वालों में 1 साल का बच्चा भी था. महिलाओं के स्तन काट दिए गये थे, हैवानियत इस कदर थी कि सोन नदी के किनारे बसे इस गाँव की मिट्टी खून से लाल हो गई थी. गोलियों का ये खेल तीन घंटे तक चला था. हत्यारे शॉल ओढ़कर आए थे और फिर इस गाँव की छाती लहुलुहान कर कहीं गुम हो गए.

अगले दो दिन तक लोग लाशों को सीने से लगाए रोते रहे, न्याय मांगते रहे. खबरें दुनिया भर में पहुंची तब मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने दौरा किया, सांत्वना दी, मुआवजे का ऐलान किया. जिसके बाद लाशें ट्रकों में भर कर लायी गईं और 3 दिसम्बर को अंतिम संस्कार किया गया. लोगों को सरकार पर एतबार था लेकिन लाख एडियाँ रगड़ने के बाद भी सरकार मुआवजे या सरकारी नौकरियां, कुछ नहीं दे पाई.

कैसे हुई शुरुआत ये नरसंहार किसी एक दिन की दुश्मनी की वजह से नहीं था बल्कि इसकी पटकथा 5 साल पहले यानी 12 फरवरी 1992 को लिखी जा चुकी थी. जब गया के बाड़ा गांव में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के सदस्यों ने 40 भूमिहारों को मौत के घाट उतारा दिया था. इस मामले में 9 लोगों को सजा सुनाई गई, जिनमें से 4 को पहले फांसी की और बाद में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.

इसके बाद 1997 में लक्ष्मणपुर-बाथे में पिछड़ी और अगड़ी जातियों के बीच जमीनी विवाद हुआ और फिर 1992 का बदला लेने के मकसद से रणवीर सेना के 100 सदस्य लक्ष्मणपुर-बाथे पहुंच गये और इस नरसंहार को अंजाम दिया. जब लोग सरकार से हार गये तब उन्होंने न्यायालय से आस लगाई लेकिन अफ़सोस, कानून भी उन्हें कुछ न दे सका.

और हत्यारें निर्दोष साबित हुए…. 58 लोगों की हत्या करने वाले रणवीर सेना के 100 सदस्यों में से 46 लोगों को दोषी बनाया गया. जिनमें से एक सरकारी गवाह बन गया और 19 को निचली अदालत ने बरी कर दिया था. इसके बाद पटना की एक विशेष अदालत ने 7 अप्रैल, 2010 को 16 दोषियों को फांसी और 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई. लेकिन पटना हाइकोर्ट के 9 अक्तूबर, 2013 के फैसले में सभी दोषियों को बरी कर दिया.

इसके बाद राबड़ी सरकार ने फिर से एसआईटी गठित करने की बात की और मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ले जाने की बात भी कही. लेकिन फिर क्या हुआ और क्या नहीं ये सभी के सामने है. कोर्ट ने सभी दोषियों को बरी करते हुए ये निष्कर्ष निकला कि जिन 58 लोगों को हैवानियत के साथ मार डाला गया दरअसल उन्हें किसी ने नहीं मारा वो आपस में ही लड़ कर मारे गये थे.

आज भी राष्ट्रीय शर्म! लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को कई साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी जातिगत हिंसा, अन्याय और हैवानियत का इससे बड़ा उदहारण शायद बिहार के इतिहास में कहीं और देखने को नहीं मिलता है. ये घटना 24 साल पहले भी राष्ट्र के लिए शर्म थी और आज भी ये इस आजाद लोकतंत्र के लिए राष्ट्रीय शर्म है.

Hey Dalits, stop duping yourself!

Written By- Sarang Bhongade

Expectations are a part of life and a very natural feeling. It is one thing to expect something from the people you love. It becomes entirely different when you expect the same from an immoral upper caste people to talk about the topic which is, beyond their imagination, ‘CASTE!’ Then, why are we duping ourselves here? It is us who are the sufferers of this system. It is us who have to clean this mess. Why do we want to put words into the mouths of people who do not want to take a stand against the caste?

Post-independence, the Upper Caste people have started doing tasks that were not meant for them, as stated in the Dharmashastras, Vedas, and Puranas. They went ahead to become teachers, doctors, artists and are different according to the Varna System prescribes them Hindu Scriptures. They are becoming your friends, sitting with you in your class, eating with you, befriending you, besides you are even allowed to assert yourself within the criteria the same sacred texts have prescribed to you. It is like a relationship Rama shared with Shabari by eating her leftover food for the fact, she stayed in her lowest rung according to the Varna system. It is like ‘LakshmanRekha’ where Seeta was restricted to cross that sacred line to protect herself. But this ‘LakshmanRekha is for your protection, or you will get killed like a Shambuka.

Like Babasaheb has said, “Why then do the Caste Hindus get irritated? The reason for their anger is very simple. Your behavior with them as an equal insults them. Your status is low. You are impure, you must remain at the lowest rung; then alone they will allow you to live happily. The moment you cross your level, the struggle starts.” TWO INDIAS OR TWO-NATION THEORY? The recent controversy is the Vir Das controversy. Unsurprisingly, he puts his version of the two-nation theory, as Savarkar and Jinnah had put forward in the independence struggle. Where Savarkar wanted Muslims to live as a subjugated class, the present situation of India is the same as envisioned by Savarkar. About Pakistan Jinnah had imagined, it was the same fear, but the reality of Pakistan is in front of our eyes. But Vir Das has made some progress. He drew the Nations attention by reciting his “Poetry” in the Kennedy Center for putting his imagined version of two Indias. Perhaps this poetry had some metaphor behind it, the most awaited national movement against the Government of BJP. One is orthodox, fanatic and the second one is a little progressive. However, the toxicity remains the same. In one India, there is pure hatred for women, where men rape them in the night. There is a hatred for Pakistan, which is responsible for terrorist activities in India, and someone who is the “biggest enemy.” There is hatred for farmers, comedians, divisions among people on the topic of Bollywood. In this India, some people listen to 75-year-old men and their 150-year-old ideas, which have soft sentiments. Vir Das is entirely correct in depicting this India, though he is not discussing anything new.

In second India, there is respect for women, not for how they want to live but by worshipping them. Now there is only one reason, why do men venerate women? Which is off-course, as long as they stay within their limits. The moment they cross that line, the struggles will start for them, in this India too. Second India is also “Vegetarian,” which is not just a mistaken belief but also Oppressive towards the Muslims, Dalits, Adivasis, and other marginalized people. He forgot that India is the biggest ‘Beef Exporter’ in the world. This India also bleeds blue according to him, which can be true but, he is okay with the fact that the same blue team has failed and is utterly regressive towards the people who bleed for them. There is Yuvraj Singh controversy, the Casteism faced by VinodKambli, not to mention the Drama of support to the #Blacklivesmatter movement, by taking a knee, when in their nation, attacks happen on Dalits every 10 minutes, perhaps every minute, according to AnandTeltumbde. This India also has the majority of the working-class people who are under 30. It seems that Vir Das has no qualms with the fact that people are divided in a graded inequality. This India also serves themselves but, he forgot to mention the word ‘caste’ which, the Hindus are ready to serve and take pride in it every time. WHERE IS THE CONFLICT? Where is the difference between both the Indias? It appears that one India has mentioned in the manifesto of BJP, the other one mentioned in the Congress manifesto. This analogy is somewhat correct too, after all, the post-independent history of India is nothing but a fight between Liberal Brahmin and Orthodox Brahmin for maintaining their superiority. Both India is regressive in their behavior. Unsurprisingly, both Indias do not have a caste system, but caste violence exists nevertheless. This India has Hindu, Sikh, Muslim, Parsi, even Jews, everyone but Buddhists. Is it correct to assume that liberal India also fears Buddhism and its egalitarian tradition? You can rip apart India into many Indias as much as you want and give birth to a whole new India. The tragedy of caste and patriarchy will continue to be prevalent. Hindus can never imagine India without caste. In one India, people do not want you to talk about caste because it will break the national unity. In another, if you discuss the caste problem, the never forged class unity will be divided.

One can imagine India in many ways, when in fact, that they want Dalit, Adivasis, and Muslims to remain in their place. Both Indias want marginalized communities, But they must exist in a way they have imagined. One must not self-determine. If you do, you will be called “stooges, anti-national, footsoldiers, and separatists.” They are both and kin standing against the rights of the majority of marginalized people. They have liberated themselves from the shackles of caste but, they want you to remain in such tragedy by ignoring your problems and forcing you to talk about caste so that you can never have the liberty to enjoy your life.

BabasahebAmbedkar has stated “We are Indians firstly and lastly,” this they have understood, they are keeping themselves safe by appearing as an Indian only, in front of the non-Indian world, where everything is perfect. But it is us who are the problem who want to break this flawless India.

Written By- Sarang Bhongade sarang.bhongade95@gmail.com

जामताड़ा के साइबर क्रिमिनलों ने उड़ाए लाखों रुपये, न पुलिस मदद कर रही, न बैंक

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आपको झारखंड के जामताड़ा जिले में सक्रिय साइबर क्रिमिनलों के बारे में बताना चाहता हूँ। उन्होंने 27/09/2019 को मेरे बैंक खाते से एक लाख रुपए अनऑथोराइज्ड यूपीआई ट्रांजेक्शन (कुल 10) के माध्यम से उड़ा लिए। उन्होंने फर्जी वीपीए बनाया और उसे मेरे बैंक खाते से लिंक करके उक्त कृत्य को अंजाम दिया, जबकि मेरे खाते से यूपीआई ट्रांजेक्शन 18/05/2019 से बैंक द्वारा ब्लॉक कर दिया गया था। फर्जी वीपीए है – chchchhdfhhf@boi, पर SBI कहता है कि यह वीपीए एसबीआई से लिंक नहीं है। आठ ट्रांजेक्शन का पैसा इस वीपीए में डाला गया- 919088962081@PYTM0123456 (Ayesa Molla का वीपीए Paytm, NOIDA). दो ट्रांजेक्शन का पैसा इस वीपीए में डाला गया- 6548267902@IDIB000K029.ifsc.npci (Afsar Ansari, Indian Bank, Kashmiri Gate, New Delhi). Paytm से आठ ट्रांजेक्शन का पैसा अन्य साइबर क्रिमिनलों के खातों में भेजा गया। अधिकतम पैसा श्रीमती इमरान अंसारी s/o अब्दुल मजीद, शहरपुर, जामताड़ा, के SBI खाता नंबर 38377505036 में डाला गया। Md Mo. Jaffar, शाहपुर जाट, नई दिल्ली दक्षिण के एसबीआई खाता नंबर 33702131884 (शाखा- एशियन गेम्स विलेज कॉम्प्लेक्स, नई दिल्ली) में कुछ पैसा डाला गया। निम्नलिखित अन्य खातों में भी पैसा डाला गया- 919088962081@PYTM0123456, 20470100061308 (IFSC code: FDRL0002047, Kerala), 448100000555 (Nandlal Pidhi alias Banshraji, IFSC code: BARB0SISOUD), 9932904739@upi (Arun Pandit, NOIDA). उक्त साइबर क्राइम का सूत्रधार Mukesh Kumar alias Tapasrani Giri है, जिसका मोबाइल नंबर है- 8509099576. मोबाइल नंबर के आधार पर उसका लोकेशन कोलकाता है।

नजदीकी बैंक शाखा, पुलिस चौकी और साइबर पुलिस को तत्काल इस घटना की जानकारी दी गई थी, पर आज तक न बैंक द्वारा कोई कार्रवाई की गई और न ही पुलिस द्वारा। इंडियन बैंक की संबंधित शाखा और पेटीएम से भी शिकायत की गई थी, पर उन्होंने भी कोई कार्रवाई नहीं की। न्याय मिलना बहुत दूर की बात है। उक्त साइबर क्रिमिनलों का भंडाफोड़ किया जाना चाहिए। उनके खिलाफ पुलिस कार्रवाई की जानी चाहिए ताकि हम जैसे पीड़ितों की गाढ़ी कमाई का पैसा वापस मिल सके। कृपया मुझे मेरा लूटा हुआ पैसा वापस दिलाने में यथासंभव सहयोग प्रदान करने का कष्ट करें। सधन्यवाद। एक पीड़ित, चंद राम बंजारे मानिकपुर, कोरबा, छत्तीसगढ़- -495682

असुरन, कर्णन, सैराट और सत्तपटा की कड़ी में जुड़ती है फिल्म ‘जय भीम’

दक्षिण भारतीय सिनेमा में पिछड़े तबके के प्रश्नों को लगातार दर्शाया जा रहा है। यह फिल्म जगत एक मायने में स्पष्ट है वह है इनका यथार्थ प्रदर्शन। जो है वह उसे दिखाते हैं। बॉलीवुड सिनेमा नहीं जिसमें प्यार को महत्व दिया जाता है। देखा जाए तो बॉलीवुड एक ऐसे छवि का निर्माण करता है तो चुपचाप सहने में ही विश्वास करता है। वहाँ औरतें पति परमेश्वर,सब कुछप्रेम के लिए,भविष्य को दाँव पर लगाने वाली आदर्श बना दिया जाती हैं। सरल शब्दों में कहूँ तो तथाकथित बॉलीवुड हमें एक कल्पना लोक में लेकर जाता है। वह कल्पना जगत जिसका यथार्थ से कोई लेना-देना, खासकर पिछड़े, आदिवासी, दलित, महिला, मुस्लिम समाज के प्रश्नों के संदर्भ में नहीं है।

असुरन, कर्णन, सैराट, फ्रैंडी, सत्तपटा, काला की कड़ी में एक फिल्म और जुड‌ जाती है वह है ‘जय भीम’।  फिल्म का उद्देश्य आदिवासियों को समस्याओं को सामने लाना है। किस तरह से देश भर में आज़ादी के कई साल बाद भी एक पूरा समय और समाज है जो मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। जहाँ शिक्षा के नाम पर हस्ताक्षर तक की पहुँच अभी नहीं हुई है। यह इतने पिछड़े है कि देश के लोकतंत्र में इनका कोई हिस्सा नहीं है। राशन कार्ड से लेकर कोई भी सरकारी पत्र इनके पास नहीं है। इनके माँ-बाप, बच्चे कभी भी जान गंवा सकते है क्योंकि जहाँ कोई भी अपराध होगा वहां इन्हें सबसे पहले बेगुनाह होते हुए भी पकड़ा जायेगा। वास्तव में यह फिल्म उस सच को दिखाती है जो यह बताता है कि हम जानते हैं तुमने कोई अपराध नहीं किया लेकिन इस विशेष समुदाय में पैदा होना ही तुम्हारा अपराध है। इस अपराध की सजा कभी  लोगों को मारपीट कर, महिलाओं को बलत्कृत करके दी जाती है। फिल्म में चंद्रु नाम का वकील है जो कि मार्क्स, अम्बेडकर और पेरियार की विचारधारा को मानता है।वह मानवाधिकार के मामलों को मुफ्त में लड़ता है।  उसकी उम्र कोर्ट के सभी वकीलों से कम है लेकिन वह अपनी हर गलती से सीखना चाहता है। बार बार तर्क से अपनी दलील पेश करता है और इसी तरह कई निर्दोष लोगों की जान बचता है। वह अंधे कानून को गूंगा होने से रोकता है और सफल भी होता है।

फिल्म का मुख्य किरदार यदि सोचे तो एक पल्म में हम जान लेते हैं कि वकील चंद्रु ही वह मुख्य पात्र है। कहानी उसके इर्द-गिर्द ही बनी है। फिल्म में वह नायक है। मुख्य पात्र वह होता यदि कहानी कॉमरेड चंद्रु के जीवन या उसके सभी केसो को आधार बनाकर लिखी गई होती। वास्तव में कहानी की मुख्य पात्र है वह आदिवासी महिला जो शुरु से अंत  तक फिल्म में एक दृढ निश्चय के साथ खड़ी है। राजा की पत्नी संघिनी। एक प्रेमिका, पत्नी, मां के रूप में लड़ने वाली महिला। महिलाएं कमजोर होती हैं, लड़ नहीं सकती की छवि को यह महिला पूरी तरह खारिज करती है। उसे अपने पति से प्रेम है पति द्वारा महल बनाने की उसकी आशा नहीं है। बस उसका साथ ही उसके लिए महत्वपूर्ण है। वह शिक्षा का महत्व जानती है इसलिए कठिन परिस्थिति में भी अपनी बच्ची की पढ़ाई नहीं रोकती है। गर्भावस्था के मुश्किल समय में वह महिला भ्रष्ट पुलिस, अधिकारियों, कानून के दांव पेचों से लड़ जाती है। जिसका आदमी भले ही कानून के तथाकथित रखवालों द्वारा मार दिया जाता है लेकिन उसके अंदर जो जिंदा है वह उसका जमीर। वह लालची नहीं है स्वाभिमानी है। छोटी-छोटी सुविधाओं को लेने के लिए मना कर देती है। पुलिस वाले द्वारा बेटी को उठाए जाने पर जब डीजीपी कहते हैं कि उस महिला को गाड़ी में घर तक छोड़ कर आओ वह नहीं मानती। सुविधा नहीं सम्मान की इच्छा।उसे फिल्म में एक मजबूत पात्र बनाती है। बार-बार उस महिला को खरीदने की कोशिश की जाती है, केस वापस लेने के लिए उस पर दबाव बनाया जाता है लेकिन वह इधर से उधर नहीं होती।

क्या तुम इस समय हालत में  केरल तक जा सकती हो?

‘मैं अपने पति के लिए कहीं भी जा सकती हूं’

फिल्म में पति की हत्या जेल में पुलिस अत्याचार के कारण होती है। कहां पूरा पुलिस विभाग, गांव का सरपंच और मंत्री की बातें कहां वह  साधारण सी बेपढ़ गर्भवती महिला। लेकिन वह हार नहीं मानती, लड़ती है और जीतती है। चंदू का योगदान उसकी इस सफलता में बहुत बड़ा है लेकिन संघर्ष का पहल सिंघिनी द्वारा रखा गया। पैसे के आगे न झुकने का फैसला उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है।

फिल्म ‘जय भीम’क्या वास्तव में अंबेडकरवादी फिल्म है? क्या नाम जय भीम रख देने से कोई चीज अंबेडकरवादी हो जाती है? फिल्म को इस परिपेक्ष में समझना पड़ेगा। संविधान, कानून में विश्वास, फिल्म का मुख्य बिंदु है।व्यक्ति यदि संविधान के साथ है, सच के साथ लड़ता है तो उसे देर से  सही सफलता मिलेगी। फिल्म मार्क्सवादी, आंदोलनकारियों को दिखाती है। कहीं नीले झंडे का इस्तेमाल नहीं हुआ, लेकिन देश के सबसे निचले पायदान पर जिंदगी बसर कर रहे लोगों के लिए सिर्फ मार्क्स काफी नहीं है। वह चूहे मार कर खाने वाले लोग हैं। इतनी गरीबी कि छत कब टपक और टूट जाए पता नहीं चलता। चप्पल, कपड़ा कुछ ठीक नहीं लेकिन जीना है। फिल्म भले ही मार्क्स के झंडे और व्यक्तियों को दिखाती है लेकिन डॉ.अंबेडकर के मूल सिद्धांत ‘शिक्षित बनो’,‘संघर्ष करो’,‘संगठित रहो’ पर टिकी है। जब तक वह इन तीनों को नहीं मानते उनकी जिंदगी खतरे में रहती है। राजा के दो भाई जो पांडुचेरी के जेल में बंद थे उनकी रक्षा संगठित होकर ही की गई। पूरी फिल्में में महिला और उसका समुदाय जीवन और न्याय के लिए संघर्ष करते हैं। अंत में चंदू के साथ सिंघिनी की बेटी का चंदू के अंदाज में बैठकर स्वाभिमान से अखबार पढ़ना शिक्षा की ओर उनका प्रयास है। व्यक्ति शिक्षित होगा तो वह उसकी जगह ले सकता है, जिसको  समाज बड़ा मानता है।

फिल्म की खासियत यह है कि यह फिल्म किसी पुरूष अभिनेता को केंद्र बनाकर नहीं लिखी गई है। ना ही इसमें पुरूष पात्र को मार-धाड़ करने की जरूरत पड़ती है। फिल्म में बहुत अधिक संवाद भी नहीं है। अधिकतर फिल्मों में पुरुष पात्र द्वारा ज्यादा व्यंग्य मिले संवाद उनकी विशेषता बताते हैं। यहां पुरुष पात्र के रूप में चंद्रु नामक पात्र है वह अधिक नहीं बोलता। उसकी भाव भंगिमा ही अधिक मुखर है। फिल्म में दोनों भाइयों की रक्षा के लिए भी लड़ाई नहीं की गई। उन्हें समुदाय के अन्य लोगों द्वारा रक्षा प्रदान की गई जो कि ज्यादा उचित और यथार्थवादी लगता है। फिल्म में पुरुषों के पुरुषार्थ को उभारने की डायरेक्टर ने कोशिश नहीं की है बल्कि महिला की संगठन शक्ति, उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति, लड़ने की ताकत को फ़िल्म बताती है। दक्षिण भारतीय फिल्मों से यह फ़िल्म इस मायने में अलग हो जाती है।

कुल मिलाकर यह फ़िल्म एक अलग तरह की फिल्म है जिसमें कई बार आपके रोंगटे खड़े करने, दिमाग को चेतनाशील बनाने की ताकत है और हाशिए के समाज की वह सच्चाई भी हैजो अधिकतर लोग नकारते हैं। देश का विकास शहरों से नहीं उसके गांवों से तय होगा। देश की शिक्षा का स्तर शहर नहीं गांव बताएंगे। भले ही ये फ़िल्म 1995 के गांव की घटना के आधार पर बनी है लेकिन आज भी दलित, आदिवासी, मुस्लिम, पिछड़े तबके के पुरुष और स्त्रियों  की स्थिति कुछ खास नहीं बदली है। आज भी गांवों में वही छुआछूत भेदभाव है। शहरों  में इसका रूप बदला है। महिला को न्याय के लिए तब भी और अब भी लगातार भटकना ही पड़ता है। कुछ तो न्याय मिलते मिलते मर जाती हैं। कब किसे पकड़कर मार दिया जाए गायब कर दिया जाए नहीं पता। वास्तव में शहर एक कल्पना है और गांव यथार्थ और इसी यथार्थ को पेश करती फिल्म है ‘जय भीम’।

 

आरती रानी प्रजापति

शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

जय भीम बनाम अम्बेडकरवाद

जब से ‘जय भीम’ पिक्चर आयी है भावना में बहे लोग अपनी भावुकता के कारण अपनी एक गल्ती को छुपाने के ‘जय भीम’ के अर्थ को सालरिकृत कर समझने में लगे है।  अतः यह प्रश्न उठता है की जय भीम के असली मायने क्या है।  और उसे किस सन्दर्भ में देखना चाहिए ?

जय भीम आंबेडकरवादियों के अभिवादन का प्रतिक है। यह अम्बेडकरी विचारधारा के प्रभाव में कितना बड़ी जनसँख्या खड़ी है इसको भी इंगित करता है।  यह अम्बेडकरवादियों में भाईचारा फैलाने का भी कार्यक्रम है।  इस लिए यह भावनात्मकता से जुड़ा हुआ है।

जय भीम आंबेडकरवादियों की संस्कृति का केवल एक प्रतिक है। उनकी संस्कृति में बाबासाहब के साथ-साथ बहुत सारे आयाम है -नमो बुद्धाय, गुरु रविदास, कबीर , चोखा मेला, जोतिबा फूले- माता सावित्री बाई फूले, बिरसा मुंडा, पेरियार, साहू जी , झलकारीबाई कोरी , मातादीन भंगी , उददेवी पासी, ललईसिंह आदि -आदि।

इसी लिए कुछ  लोग अपने स्वार्थ के लिए ‘जय भीम’ का प्रयोग कर के समाज को धोका देते है. और आंबेडकरवाद से जुड़े अन्य मूल्यों एवं प्रतीकों से बचते है या उसकी जानबूझ कर अनदेखी करते है।

परन्तु ‘अम्बेडकरवाद’ एक वृहद दर्शन है। इस दर्शन का आधार है -समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, एवं सामाजिक न्याय। बाबासाहब ने इन सभी तथ्यों को अलग-अलग से परिभाषित भी किया है।  और उन्होंने बताया भी की उन्होंने ये मूल्य – समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व बुद्ध से ग्रहण किये।

इन मूल्यों में बाबासाहब ने  बंधुत्व (भाईचारा) को प्रथम वरीयता दी या उसे सबसे ऊपर बताया। क्योकि उनका मानना था की आप स्वतंत्रता एवं समता के लिए कानून बना सकते है पर बंधुत्व के लिए कोई कानून नहीं बना सकते।  बाबासाहब का मानना था की बंधुत्व जनतांत्रिक व्यवस्था में आत्म- क्रांति से आएगा।

और साथ ही साथ बाबासाहब का मत था की बंधुत्व नहीं है तो समता और स्वतंत्रता नहीं आएगी। इस लिए बाबासाहब बंधुत्व को वरीयता देते थे।

बाबासाहब ने आत्म- क्रांति का मार्ग भी बताया- पांचशील, आष्टांगिक मार्ग एवं दस परिमिताए।

इसी लिए बाबासाहब ने धम्म और धर्म में अंतर् भी बताया। धम्म  सर्वसमाज के उत्थान के लिए है और धर्म के व्यक्ति के उत्थान कई लिए।

बाबासाहब ने सामाजिक नियंत्रण के लिए धम्म  को अतयंत आवश्यक बताया ।

बाबासाहब का मानना था की संविधान आपको संस्थाएं -जैसे न्यायालय, कार्यपालिका, अभिशासन, अधिकार आदि तो दे सकता है परन्तु उसको चलाने वाले लोग तो समाज से ही आएंगे।  इस लिए उनके आचरण को धम्म ही नियंत्रित कर सकता है। बात बड़ी हो जायेगी इस लिए आंबेडकर दर्शन पर अभी इतना काफी है।

संक्षेप में हम कह सकते  है की ‘अम्बेडकरवाद ‘ एक वृहद दर्शन है जिसे हम विचारधारा भी कह सकते है -जिसमें  राजनीत, सामजिक न्याय , सामाजिक व्यवस्था, मानव सधिकार, राष्ट्रीय निर्माण के मूल्यों एवं मार्गों के साथ वैश्विक व्यवस्था के निर्माण के तत्व निहिन्त है।

इस लिए मैं अपने भाइयों से अनुरोध करूँगा की ‘जय भीम’ और ‘अम्बेडकरवाद ‘ में अंतरकर इसे समझने का प्रयास करें।

धोबी समाज के बड़े नेता चिंतामणि ने दिया बसपा से इस्तीफा, लिखी बहनजी को चिट्ठी

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 विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़े उत्तर प्रदेश में हर दिन सियासी पारा चढ़ता जा रहा है। इस बीच विधानसभा चुनावों की तैयारियों में लगीं बसपा प्रमुख मायावती के बड़े नेता चिंतामणि ने अपने पद और पार्टी से सोमवार को इस्तीफा दे दिया है। चिंतामणि बसपा भाईचारा के प्रदेश संयोजक थे। उन्होंने बसपा अध्यक्ष सुश्री मायावती को अपने इस्तीफे को लेकर लिखे गए पत्र में उन्होंने कहा कि पार्टी के लक्ष्यों व अपने पदीय दायित्वों को सामज के सामने स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं।

चिंतामणि ने बसपा सुप्रीमो मायावती को सोमवार को पत्र लिखकर कहा है कि आपने मेरी सेवानिवृत्ति के बाद मुझे बसपा में बहुजन समाज की सेवा करने, डॉ. भीमराव अंबेडकर और कांशीराम के कारवां को बढ़ाने का दायित्व दिया था। मैंने पिछले आठ सालों से पूरी निष्ठा व लगन से पूरे प्रदेश में इसे निभाने का काम किया। मौजूदा समय ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पार्टी के जनाधार को बढ़ाने के लिए समेकित प्रयास नहीं हो पा रहा है। इससे बहुजन समाज अलग-थलग पड़ गया है। अत्याचार व शोषण और अन्याय से अपने को बचाने में बहुजन समाज असहाय महसूस कर रहा है।

उन्होंने पत्र में यह भी कहा है कि जिस बहुजन समाज को जगाकर एवं उन्हें एकजुट करके पार्टी ने राजनीति सत्ता प्राप्त की थी वह अब सही दिशा के अभाव में बिखरती सी प्रतीत हो रही है। ऐसी असमंजन व दिशाहीन की स्थिति में समाज की सेवा व मदद पार्टी के माध्यम से किस प्रकार संभव होगा। इसका साफ रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है।

गौरतलब है कि चिंतामणि धोबी समाज से ताल्लुक रखते हैं। वह आईएएस अधिकारी रहे हैं। रिटायर होने के बाद उन्होंने बसपा का दामन थामा था और जम कर काम किया। इस दौरान उन्होंने प्रदेश भर में धोबी समाज को बहुजन समाज पार्टी से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शुरुआती तौर पर उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गई, लेकिन बाद में काफी लंबे वक्त तक उन्हें अलग-थलग छोड़ दिया गया। हाल ही में बसपा प्रमुख मायावती ने आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए उन्हें फिर से जिम्मेदारी दी थी, लेकिन एकाएक उनके इस्तीफे से कई सवाल उठने लगे हैं।

Intersectional feminism: Dalit Womanism

(Written By- Vanshika Bhagat, Student at Miranda House)

The concept of intersectionality originated in Black feminist theory. It is attributed to Kimberle Crenshaw, a Black American scholar of race, gender, and critical race theory. However, it alludes to a problem whose recognition has older antecedents.

Crenshaw begins her 1989 article by citing the title of the first volume on Black Women’s Studies, “All the women are white, all the blacks are men, but some of us are brave” to succinctly elucidate the problem.

The concept of intersectionality bears irrefutable applicability in the Indian context because of its recognition of a junctional point- intersection, where multiple axes of oppression meet. The salient issues of gender injustice are indecipherable via class analysis alone- a moot point offered by mainstream Indian feminists. The reluctance of mainstream Indian feminists to take intersectionality vis-à-vis the caste axis seriously, points to a flagrant denial of the many privileges of caste dominance.

The Brahmanical caste system transcends religious, philosophical, and academic boundaries. It permeates the various intricacies of everyday existence. The caste system has survived thousands of years through wars, political upheavals, and constitutional amendments to end caste-based discrimination, the worst victims of which have been Dalit women.

Dalit women are singularly positioned at the bottom of India’s caste, class, community, and gender hierarchies. They are largely uneducated and consistently paid less than their male counterparts. They make up the majority of landless labourers and scavengers, and a significant percentage of the women forced into sex work in rural areas or sold into urban brothels. They are most prone to systematic subjugation through untouchability, labour control, gender control, denial of access to basic resources for human development, and control on sexuality, which define their everyday hierarchical relationships with the dominant castes, as well as with Dalit cisgender men.

The multiple axes of oppression pronounce treble and quadruple burdens on this section of the population. However, the idea of being ‘multiple’ misleadingly suggests that identities are formed by adding together various structures or axes that contribute to them.

In such a view, Dalit women’s identities become an amalgamation of being Dalit and being women. A close analysis of the Dalit women’s experience shows that in the double jeopardy of being Dalit and women, the multiple structures of oppression make these experiences qualitatively different. Therefore, the ordeal of Dalit women can not be addressed at the discursive levels of casteism (where Dalit men are the implicit norm) and sexism (where Savarna women are the implicit norm).

To put it arithmetically, the additive equation of Dalit woman which means Dalit + woman actually translates to Dalit woman= Dalit man + Savarna woman. This understanding is deeply flawed. Three interlocking systems of caste, class, and patriarchy create a multidimensionality, simultaneity, and intensity of oppression, which is destructive to the experiences of Dalit women and qualitatively different from the added experiences of Dalit men and Savarna women.

In this sense, therefore, intersectionality is not merely a solution but the very statement of the problem of Dalit women.

Reformers, as well as scholars, have signified Brahmin women’s problems as those of Hindus, and therefore of Indians. There is a substantial discourse in modern India that tends to focus on the tribulations of Savarna women, and most significantly Brahmin women, in terms of Sati, widow remarriage, enforcement of widowhood, child marriage, age of consent, etc.

In a similar fashion, women’s movements in post-colonial India downplayed caste technologies to focus on the purported ‘unity’ among women as victims. During this process, Savarna women took the lead in demanding rights for women and constructed liberal feminism which reflected their concerns. They set the norms which produced further contestations from subaltern quarters. The tensions and failure in Indian feminism laid out the conditions for the emergence of Dalit subjectivity, agency, and separate Dalit Womanism.

The term ‘Womanism’ was coined by Alice Walker in 1893. Womanism defined as consciousness, incorporates racial, cultural, sexual, national, economic, and political considerations of the concerned category of women. Dalit Womanism is supposed to emanate from the lived realities and realizations of Dalit women. Dalit Womanism asserts that Dalit women have the right to be seen as subjects and not as objects, who play an active role in the betterment of not only themselves but also their whole community. Dalit women’s consciousness is created through their response to hegemonic and dominant discourses.

Dalit women’s discourses provide immense possibilities to them as well as Savarnas. All Dalit women can not contribute to the evolution of Dalit consciousness or feminism equally. Moreover, Dalit feminism should not be held as an entirely homogeneous category. It is a nebulous, heterogeneous concept thwarted by various defining factors like sex and sexuality, and class differences.

It is crucial to recognize the central relationship of power and privilege that sustains Indian feminism and the marked advantage of being the dominant, the nominative, and hence the mainstream.

Dalit feminism often considered the ‘discourse of discontent,’ ‘discourse of the rebels’, etc is distinctive from mainstream Indian feminism. However, it is possible for the outsider to develop empathy towards the suffering and oppression that being Dalit entails, thus building many bridges across feminist movements and Dalit movements.

Dalit feminist framework of subalternity provides the possibility of interpersonal understanding of differently disadvantaged lives and allows for a broad feminist, anti-patriarchal, anti-caste, anti-untouchability, and anti-racist analysis.

Dalit women’s fragmented, flawed, complex, and contradictory lives cannot be confined to linear understandings. The sweeping statements made in the West like ‘All women are Niggers’ are often imported to the Indian context with little or no space for nuances as ‘All women are Dalits.’ Such an import is harmful since it relegates the specific experiences of Dalit women to the margins which are disparate from that of Savarna women who enjoy enormous caste and class privilege. Instead of reinventing as Dalit women, oppressor caste women ought to make concerted efforts towards standing with their oppressed caste counterparts.

Dalit feminist discourses not only question the mainstream Indian feminist hegemony in claiming to speak for all women, but also the patriarchy of Dalit cisgender men that allows them to speak on behalf of Dalit women. Therefore, mainstream Indian feminism should shoulder Dalit feminism in challenging the conceptions of genderless caste and casteless gender. True liberation can only be achieved through large-scale consensual allyship to dismantle all structures of oppression at all levels.

आखिर चरणजीत सिंह चन्नी को एक महीने में ही क्यों करनी पड़ी इस्तीफे की पेशकश?

साल 2007 में पहली बार चमकौर साहिब विधानसभा सीट से निर्दलीय विधायक चुने जाने वाले 58 साल के चरणजीत सिंह चन्नी ने जब 20 सितंबर 2021 को पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी तो उसकी काफी चर्चा हुई थी। यह एक ऐतिहासिक क्षण था क्योंकि दलितों की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री मिला था। हालांकि इसे कांग्रेस का चुनावी स्टंट कहा गया, और नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के विवाद को देखते हुए वंचित समाज के नेता को पंजाब की कमान देकर मामले को निपटाने की कोशिश के रूप में माना गया। लेकिन इससे इस बात की अहमियत कम नहीं हो जाती कि पंजाब की राजनीति में ये एक ऐतिहासिक घटना है। इस बीच 20 अक्टूबर को चरणजीत सिंह चन्नीा की सरकार के एक महीने पूरे हो गए। हालांकि 30 दिनों में किसी के काम की समीक्षा करना एक ज्यादती मानी जाएगी, लेकिन यह देखना तो बनता है कि इन एक महीने के बाद चरणजीत सिंह चन्नी कहां खड़े हैं।

अगर मुख्यमंत्री के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी के एक महीने के काम-काज की बात करें तो उन्होंने 4 ऐसे बड़े फैसले किये, जिसकी काफी चर्चा हुई। लेकिन इस बीच यह भी साफ दिखा कि एक दलित मुख्यमंत्री के लिए काम करना आसान नहीं होता है और उसके आस-पास के लोग ही उसकी राह में रोड़े अटकाते हैं।

हाल ही में अपने बेटे की शादी के समारोह को बिल्कुल सादे तरीके से आयोजित करने के कारण भी चन्नी की काफी तारीफ हुई। सीएम खुद गाड़ी चलाकर गुरुद्वारा पहुंचे, जहां उनके बेटे का विवाह कार्यक्रम हो रहा था। इस बीच अपने एक महीने के कार्यकाल में मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी ने पांच कैबिनेट बैठकें की और इस दौरान चार महत्वपूर्ण फैसले लिए। इन फैसलों में 2 किलोवाट तक के बिजली कनेक्शन वाले उपभोक्ताओं का बकाया बिल माफ करना, पानी के बिल शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति माह 50 रुपये करने की घोषणा करना, लाल डोरा के तहत आने वाले लोगों की जमीन का मालिकाना हक उन्हें दिलवाने से लेकर दर्जा चार मुलाजिमों की भर्ती जैसे महत्वपूर्ण फैसले लिए गए। इसकी काफी सराहना हुई। और इससे सबसे ज्यादा लाभ वंचित समाज को मिला। लेकिन वहीं, डीजीपी दिनकर गुप्ता के छुट्टी पर जाने के बाद उनकी जगह इकबाल प्रीत सिंह सहोता को डीजीपी बनाने और विवादित अमरप्रीत सिंह देयोल को एडवोकेट जनरल नियुक्त करने पर विवाद हो गया।

जिस व्यक्ति ने इसकी सबसे कड़ी आलोचना की, वह खुद पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू थे। दरअसल चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही सिद्धू उन्हें अपने इशारे पर नचाना चाहते थे। जिस तरह सिद्धू कभी मुख्यमंत्री का हाथ पकड़कर चल रहे थे, तो कभी उनके कंधे पर हाथ रखकर। उसने सिद्धू की सामंती सोच को सबके सामने ला दिया। यहां तक की एक तस्वीर में सिद्धू गाड़ी में आगे बैठे दिखें, जबकि चन्नी पीछे की सीट पर। लेकिन अपने फैसलों से चन्नी ने साफ कर दिया कि वह रबड़ स्टाम्प बनकर काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। सिद्धू इससे तिलमिला गए। यहां तक की सिद्धू मुख्यमंत्री चन्नी के बेटे की शादी में भी शामिल नहीं हुए।

इन एक महीने में चरणजीत सिंह चन्नी के लिए सिद्धू सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आए हैं। यहां तक की सिद्धू ने मुख्यमंत्री चन्नी से विरोध जताते हुए कांग्रेस अध्यक्ष का पद तक छोड़ दिया था। बीते 17 सितंबर को तो रात को 8 बजे से सुबह 3 बजे तक 7 घंटे तक सिद्धू औऱ चन्नी के बीच बैठक हुई। इसमें सिद्धू ने सोनिया गांधी को भेजे गए 13 सूत्रीय एजेंडे का मुद्दा उठाकर मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी को घेरने की कोशिश की, जिसके बाद नोकझोक बढ़ गई। खबर है कि सिद्धू पर पलटवार करते हुए चन्नी ने मुख्यमंत्री पद छोड़ने की पेशकश कर दी और कहा कि बाकी बचे 60 दिनों के लिए सिद्धू खुद सीएम बन जाएं और ये वादे पूरे कर के दिखाएं।

बीते एक महीने में साफ दिखा की राजनीतिक दल अपने राजनीतिक फायदे के लिए दलित समाज के व्यक्ति को मुख्यमंत्री तो बना देती है, लेकिन उसी पार्टी के नेता जिस तरह से उसे हर कदम पर रोकने की कोशिश करते हैं, वह भारतीय समाज की जातिवादी सोच को उजागर करता है। यही वजह है कि जेएनयू के प्रोफेसर और समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार स्वतंत्र दलित राजनीति की वकालत करते हैं, जिसकी बानगी बहुजन समाज पार्टी है।

लखबीर हत्याकांड मामले में चंद्रशेखर आजाद ने चरणजीत चन्नी को लिखी चिट्ठी, की यह मांग

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सिंधु बार्डर पर लखबीर सिंह की हत्या ने हर किसी को झकझोर कर रख दिया है। खासकर दलित समाज इससे काफी आहत है। हर कोई अपने तरीके से इसका विरोध कर रहा है। दलित समाज के नेताओं में भी इस घटना को लेकर खासा रोष है। बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती के साथ ही आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद भी इस मुद्दे पर मुखर हैं। इस बीच चंद्रशेखर आजाद आज 18 अक्टूबर को मृतक लखबीर सिंह के घरवालों से मिलने पंजाब के तरणताल पहुंचे। इस दौरान उन्होंने लखबीर सिंह के घरवालों से मिलकर उनका दर्द बांटा।

पंजाब के तरणताल जिले में लखबीर सिंह के परिवार से मिलने के बाद आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने पंजाब के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर न्याय की मांग की है। अपने इस पत्र में चंद्रशेखर आजाद ने सीबीआई जांच की मांग सहित बातें उठाई है। चंद्रशेखर आजाद ने लिखा है-

माननीय चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री, पंजाब सरकार महोदय, जैसा कि आप जानते हैं कि 14-15 अक्टूबर को दिल्ली हरियाणा के बीच सिंधु बार्डर पर किसान आंदोलन के मंच के पास आपके राज्य पंजाब के एक दलित मजदूर लखबीर सिंह की हत्या कर दी गई थी। इस मजदूर पर आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने पवित्र ग्रंथ के साथ बेअदबी की थी। मैंने 18 अक्टूबर को लखबीर सिंह के पंजाब के तरनतारन जिला स्थित गांव पर जाकर परिवार और गाँव के लोगों से मुलाकात की और जो तथ्य सामने आए हैं, उससे इस मामले में संदेह पैदा हो रहा है। परिवार का साफ कहना है कि लखबीर सिंह ऐसा कर ही नहीं सकता। मेरा तो ये भी मानना है कि अगर ये आरोप सही भी मान लिया जाएं, तो किसी को कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। ऐसे मामलों से निपटने के लिए देश में कानून है, कोर्ट है। अब स्थिति ये है कि परिवार लगातार अपमान झेल रहा है। साथ ही वे लोग खुद को असुरक्षित भी महसूस कर रहे हैं। पंजाब के हर नागरिक के अभिभावक होने के नाते आपको इस मामले में न्याय दिलाने की कोशिश करनी चाहिए। मेरा आग्रह है कि – 1. आप इस मामले की सीबीआई जांच के लिए केंद्र सरकार को लिखें 2. पीड़ित परिवार को एक करोड़ रुपये का मुआवजा दें। 3. परिवार की सुरक्षा की जिम्मेदारी आपकी पुलिस ले और इसके लिए जरूरी हो तो परिवार को चंडीगढ़ में फ्लैट देकर शिफ्ट किया जाए। उम्मीद है आप इस मामले में न्याय करेंगे।

चंद्रशेखर आजाद राष्ट्रीय अध्यक्ष आजाद समाज पार्टी (कांशीराम)

निश्चित तौर लखबीर सिंह की हत्या ने समाज के बीच में एक बड़ी बहस शुरू कर दी है और धार्मिक कट्टरता के इस रूप में मानवीयता में यकीन रखने वाले सभी लोगों को परेशान कर दिया है।

लखबीर के खून के छीटे दलितों के मन से जल्दी नहीं मिटेंगे

गुस्सा सबको आता है। गुस्सा हमें भी आता है, जब कोई बाबासाहेब की प्रतिमाएं तोड़ देता है। गुस्सा हमें भी आता है जब कोई जाति के आधार पर हमारे मान-सम्मान को ठेस पहुंचाता है। हम आए दिन किसी न किसी के द्वारा अपमानित होते हैं, तो हमें गुस्सा आता है। गुस्सा इस घटना पर भी आया जिसमें दिल्ली से सटे सिंधु बार्डर पर किसान आंदोलन के बीच शुक्रवार को दलित समाज के एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई। तस्वीरों और वीडियो में साफ दिखा कि उस शख्स का हाथ काट दिया गया, उसे बेरहमी से उल्टा लटकाया गया। साफ दिख रहा था कि उसे बेदर्दी से पीटा गया।

जिस व्यक्ति की हत्या कर दी गई है, उसका नाम लखबीर सिंह है जो कि पंजाब के तरन-तारन जिले के चीमा खुर्द गांव का रहने वाला था। मृतक दलित समाज से ताल्लुक रखता है। इस मामले की जिम्मेदारी निहंग सिखों ने ली है और निहंग सरबजीत सिंह ने अपना जुर्म कबूल कर लिया है, जिसके बाद उसे शनिवार को गिरफ्तार कर लिया गया, मामला अब कोर्ट में है।

हत्या की जो वजह सामने आई है, उसके मुताबिक निहंग सिखों का कहना है कि लखबीर सिंह सेवादार के रूप में जुड़ा था। हत्या की बात कबूल करने वाले सरबजीत का कहना है कि लखबीर सिंह सुबह 3.30 बजे श्री गुरु ग्रंथ साहिब को चोरी कर भाग रहा था। मैं उसके पीछे भागा और उसका हाथ काट दिया। मुझे हत्या का कोई पछतावा नहीं है।

यानी सिखों की भाषा में कहें तो कुल मिलाकर लखबीर सिंह ने सिखों के पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की थी। वह पकड़ा गया, और फिर उसे पुलिस बैरिकेट से बांध कर पहले उसकी बेदर्दी से पिटाई की गई, फिर हाथ की कलाई काट दी गई और उसकी जान ले ली गई। इस तरह वह दर्द से तड़प कर मर गया।… लेकिन यहां कुछ सवाल उठते हैं। अगर मृतक ने गुरु ग्रंथ साहब के साथ बेअदबी की थी तो निश्चित तौर पर उसकी निंदा होनी चाहिए। उसे सबक सिखाने के लिए उसके साथ मार-पीट करने की बात भी समझ में आती है। लेकिन सवाल उठता है कि इस अपराध के लिए लखबीर सिंह की हत्या कर देना कितना जायज है?

निहंग सिख के गुस्से को समझा जा सकता है। लेकिन जब सैकड़ों किसान इस किसान आंदोलन की भेंट चढ़ गए, तब इनका गुस्सा क्यों नहीं दिखा? सिख धर्म कहता है कि हर नस्ल, धर्म या लिंग के लोग समान हैं। सिख काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इन पाँच दोषों से बचने की कोशिश करते हैं, क्योंकि यह उनके जीवन के ईश्वरीय मार्ग में बाधाएँ पैदा करते हैं। निहंग सिख तो सबसे ज्यादा धार्मिक होते हैं, फिर आखिर वह गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी बातों को ही क्यों भूल गए? उनका क्रोध काबू में क्यों नहीं रहा?

गुरु ग्रंथ साहिब की इज्जत हम भी करते हैं, क्योंकि उसमें हमारे गुरु रविदास महाराज की बाणी भी है। जब गुरु ग्रंथ साहिब को तैयार करते समय सिख गुरुओं ने सतगुरु रैदास महाराज के साथ भेद नहीं किया, तो आखिर उसे छू लेने भर से लखबीर की हत्या क्यों कर दी गई। लखबीर ने गलत किया, लेकिन क्या उसकी गलती इतनी बड़ी थी कि इतनी बेदर्दी से उसकी जान ले ली जाती?? लखबीर के खून के छीटे दलितों के मन से जल्दी नहीं मिटेंगे।