लोग उन पर कीचड़ फेंकते रहे, वह लड़कियों को पढ़ाती रहीं

महान नारीवादी, समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता, मराठी कवयित्री व शिक्षाविद सावित्री बाई फुले आज ही के दिन यानी 10 मार्च 1897 को चल बसी थी. आज के दिन करोड़ों लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. उनका जीवन संघर्ष कठिनाइयों से भरा रहा. उनके कार्यों का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि जिस दौर में महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझकर काल कोठरी में बंद रखा जाता था व मात्र बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाता था उस समय सावित्री बाई ने न केवल स्वयं शिक्षा ग्रहण की बल्कि लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया और उनके लिए जगह जगह विद्यालय भी खोले. उनका पूरा जीवन नारी शिक्षा और उनके बेहतर जीवन को समर्पित रहा.

सावित्री बाई का जन्म 03 जनवरी 1931 को हुआ था. मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी ज्योतिबा फुले से हो गई थी. उस समय उनके पति की उम्र 13 साल थी. सावित्री बाई की जब शादी हुई थी, तब वह पढ़ना लिखना नहीं जानती थीं और उनके पति तीसरी कक्षा में पढ़ते थे.

सावित्री बाई का सपना था कि वह पढ़े लिखें, लेकिन उस समय दलितों के साथ काफी भेदभाव किया जाता था. सावित्री बाई ने एक दिन अंग्रेजी की एक किताब हाथ मे ले रखी थी तभी उनके पिता ने देख लिया और किताब को लेकर फेंक दिया. उनके पिता को पता था कि इसे कोई पढ़ने नहीं देगा. उन्होंने सावित्री को कहा कि शिक्षा सिर्फ उच्च जाति के पुरुष ही ग्रहण कर सकते हैं. दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने की इजजात नहीं है, क्योंकि उनका पढ़ना पाप है. लेकिन वह नहीं मानी और अपनी किताब वापस लेकर आ गईं. उन्होंने प्रण लिया कि वह जरूर शिक्षा ग्रहण करेंगी चाहे कुछ भी हो जाए. इसके बाद ज्योतिबा फुले ने सावित्री को पढ़ाया और लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया. इतना ही नहीं इस काम में हर कदम पर उनका साथ भी दिया.

जब सावित्री बाई फुले अपने घर से लड़कियों को पढ़ाने स्कूल जाती तो बीच से सवर्णों के मोहल्ले से गुजरना होता. सवर्ण समाज के लोगों को यह बात बर्दास्त नहीं थी कि महिलाएं पढ़ना लिखना सीखें. चाहे वह सवर्ण महिलाएं हों या अवर्ण महिलाएं. सावित्री को अपमानित करने के लिए सवर्ण समाज के पुरुष उन पर गंदगी व कीचड़ फेंकते. इस सब के बावजूद भी सावित्री ने हार नहीं मानी और वह लगातार लड़कियों को पढ़ाती रही. वह अपने साथ थैले में एक साड़ी रखती थी. गंदी कर दी गई साड़ी को वह स्कूल में पहुंचकर बदल लेती.

सावित्री बाई द्वारा समाज में किए गए कार्य

  • पहले बालिका विद्यालय की स्थापना की
  • जातिवाद और पितृसत्ता का खुलकर विरोध किया
  • भेदभाव और बालविवाह के विरुद्ध जन अभियान चलाया
  • भारत के प्रथम कन्या विद्यालय की प्रथम शिक्षिका बनीं
  • नवजात कन्या शिशुओं की हत्याओं को रोकने का अभियान चलाया व आश्रम खोले
  • पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 19 वीं शताब्दी में विधवा विवाह, छुआछूत व सती प्रथा आदि महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया
  • प्लेग महामारी में लोगों की सेवा व प्रसूति एवं बाल संरक्षण ग्रहों की स्थापना में भी उनका अहम योगदान रहा

3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने महिलाओं के लिए पहले विद्यालय की स्थापना की. इसके बाद वे एक ही वर्ष में पाँच नए स्कूल खोलने में सफल हुए. तत्कालीन सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया. उनके कार्य की काफी लोगों ने सराहना भी की. उनके जीवन संघर्ष पर कई भाषाओं में किताबें लिखी गई हैं.

सावित्री बाई का जीवन काफी संघर्षमय रहा है. उनकी जीवन घटनाओं से उनके हौसले और आत्मविश्वास का अहसास होता है. वर्तमान में महिलाएं उन्हें अपना आदर्श मानती हैं. गूगल ने भी 3 जनवरी 2017 को उनकी जयंती पर गूगल डूडल जारी कर उन्हें अभिवादन किया था. वहीं भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट निकाली गई. उनके संघर्ष और कार्यों को देखते हुए उन्हें सरकार द्वारा भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए. सावित्री बाई फुले के नाम से अधिक से अधिक महिला स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, बाल आश्रम, अनाथालय, वृद्धाश्रम और चिकित्सा केंद्र खोले जाने चाहिए. सभी महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबर का हक मिले. शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवाओं जैसी मूलभूत सुविधाओं में समान अवसर मिलें यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

भारत की महिलाओं में शिक्षा की अलख जगाना साहसिक व ऐतिहासिक कदम है. उन्हें नारीवाद की महानायिका कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. “चौका बर्तन से बहुत जरूरी है पढ़ाई, क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई?” उनकी इन दो पंक्तियों में उनके कार्य करने की व्याख्या छिपी है. निश्चित ही उन्होंने मौजूदा दौर का भयंकर विरोध झेला, गालियां सुनी और उन पर गंदगी फेंकी गई लेकिन वह डटी रही, भारत की बेटियों को पढ़ाती रही और उनका हाथ पकड़कर उन्हें अंधेरे कमरे से निकालकर खुले आसमान के नीचे ले आई.

फुले दंपत्ति के लिए ब्राह्मणवादी हिंदू समाज में अपना घर चलाना काफी मुश्किल रहा. उन्होंने छोटे छोटे काम करके जैसे तैसे गुजारा किया और निर्वहन करते रहे. उन्होंने फूल बेचे, सब्जियां बेची, रजाई की सिलाई की. इस तरह गुजर बसर करते हुए भारत का पहला बालिका विद्यालय भी खोला. इसके बाद एक एक करके कुल 18 बालिका विद्यालय खोले.

साबित्रीबाई फूले का जिन लोगों ने विरोध किया उसी समाज की एक लड़की की उन्होंने जान भी बचाई. एक विधवा गर्भवती आत्महत्या करने जा रही थी जिसका नाम काशीबाई था. लोकलाज के डर से वह ऐसा कर रही थी, लेकिन साबित्रीबाई ने उनको खौफनाक कदम उठाने से रोका. वह काशीबाई को अपने घर ले आई और उसकी डिलीवरी कराई. उन्होंने काशीबाई के बच्चे का नाम यशवंत रखा और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया.

उन्होंने समाज से अस्पृश्यता के कलंक को समाप्त करने के लिए अपने घर में अछूत और वंचितों के लिए एक कुआं भी स्थापित किया. पति के साथ मिलकर पीड़ितों और बिना दहेज के विवाह कराने के लिए सत्यशोधक समाज का निर्माण किया. 1897 में पुणे में उन्होंने अपने दत्तक पुत्र यशवंत के साथ प्लेग की तीसरी महामारी के पीड़ितों के उपचार के लिए चिकित्सा केंद्र खोला. इस दौरान लोगों की देखभाल करते करते वह भी प्लेग की शिकार हो गई और 66 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गई. सावित्री बाई फुले अपने कार्यों के लिए हमेशा याद की जाएंगी.

रवि संबरवाल
स्वतंत्र पत्रकार
(अमर उजाला में पत्रकार रहे हैं।)
संपर्क सूत्र: 8607013480

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.