बनिया-सवर्णों के गंठजोड़ को चुनौती देंगे बहुजन

 भारतीय समाज में सबसे बेवकूफ दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं। मैं यह बात प्रमाण के साथ कह सकता हूं। एक प्रमाण तो यह कि मेरी जानकारी में ऐसा कोई मामला नहीं आया है जिसमें किसी सवर्ण महिला को डायन के आरोप में नंगा कर घुमाया गया हो, उनके बाल काटे गए हों, उन्हें पखाना पिलाया गया हो। ऐसी अमानवीयता और पशुवत व्यवहार केवल और केवल दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज की महिलाओं के साथ होता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है कि तमाम वंचित वर्ग इस तरह के अंधविश्वासों का शिकार है? क्या वह खुद इसके लिए जिम्मेदार है या फिर उसे अंधविश्वासी बनाया जा रहा है?

इस सवाल के पहले एक बात जो कल पटना में दैनिक जागरण से जुड़े मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने डायरी में उल्लिखित दलित-बहुजनों के लिए अलग अखबार की आवश्यकता के मसले पर अपनी टिप्पणी भेजी। उनका कहना है– “किसी अखबार के मालिक सवर्ण नहीं हैं। आप अपनी यह बात उन्हें समझा सकते हैं कि अपर कास्ट को हटाकर दलितों और आदिवासियों के लिए भी जगह निकालें।

सच्चाई यह है कि जो पिछड़ा, दलित और आदिवासी माल कमा लेता है वह शोषक वर्ग में शामिल हो जाता है।

आपसे निष्पक्षता के साथ बेबाक टिप्पणी की उम्मीद है कि कैसे आप अपने मालिक की इच्छा के अनुकूल अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का शोषण करते हैं।

सामान्य सिद्धांत है कि हर मालिक शोषक होता है और हर कर्मचारी शोषित। मालिक को मुनाफा चाहिए और कर्मचारी को अधिक वेतन और सहूलियत।

कोई मीडिया हाउस यह दावा नहीं कर सकता कि उसने इमानदारी के साथ वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर रखी है। …और संपादक नाम का प्राणी भी दावे के साथ नहीं कह सकता है कि वह शोषण नहीं कर रहा है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। मगर होता सब जगह है। इसलिए पहले अपने घर को ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए।”

उपरोक्त टिप्पणी में मेरे हिसाब से मेरे लिए महत्वपूर्ण यह है कि “किसी अखबार के मालिक सवर्ण नहीं हैं। आप अपनी यह बात उन्हें समझा सकते हैं कि अपर कास्ट को हटाकर दलितों और आदिवासियों के लिए भी जगह निकालें। सच्चाई यह है कि जो पिछड़ा, दलित और आदिवासी माल कमा लेता है वह शोषक वर्ग में शामिल हो जाता है।” मैं इसी बात पर विचार करता हूं।

मेरे हिसाब से मेरे मित्र का यह कहना सही है कि सारे अखबारों के मालिक सवर्ण नहीं हैं, लेकिन संपादक से लेकर तमाम तरह के शीर्ष पदों पर सवर्ण काबिज हैं। दरअसल अखबार निकालना एक बिजनेस है। इसमें पूंजी की आवश्यकता होती है और पूंजी निस्संदेह भारतीय समाज में बनिया के पास ही रहता आया है। सूदखोरी के तमाम किस्से-कहानियां इसके गवाह हैं। झारखंड में फिर चाहे वह सिदो-कान्हू हों या तिलका मांझी हों या बिरसा मुंडा हों या फिर शिबू सोरेन, सबने महाजनी कुप्रथा के खिलाफ संघर्ष किया। होता यह था कि सूदखोर व्यापारी वर्ग अकूत लाभ कमाने के लिए आदिवासियों पर जुल्म करता था। इसके लिए व सामंती जातियों को अपना गुलाम बनाकर रखता था। अपने जुल्म को न्यायोचित साबित करने के लिए वह ब्राह्मणों को पालता था। अंग्रेज जब भारत आए थे, उनका इरादा बिजनेस करना ही था। वे जनसेवा के लिए भारत नहीं आए थे। तो हुआ यह कि भारत के व्यापारी वर्ग ने उनका आगे बढ़कर साथ दिया। भामाशाह की तरह उनकी तिजोरियों भरीं और इसके बदले अपना व्यापार बढ़ाया। झारखंड का जमशेदपुर इसका सबसे नायाब उदाहरण है कि कैसे एक पूरा का पूरा शहर एक व्यापारी को दे दिया गया।

वर्तमान में प्रसिद्ध सामाजिक न्याय विचारक प्रो. कांचा आइलैया शेपर्ड ने अपनी एक पुस्तक में बनिया वर्ग को सामाजिक स्मगलर की संज्ञा दी है।

खैर, उपरोक्त उद्धरण सिर्फ यह बताने के लिए व्यापारी वर्ग लाभ कमाने के लिए सारे उद्यम करता है। इसके लिए वह ब्राह्मणों का उपयोग करता है। और ब्राह्मण इसका उपयोग समाज में अपनी सर्वोच्चता को बरकरार बनाए रखने के लिए करता है। पूंजी होती है व्यापारी की और उसका लाभ उठाकर वह दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के उपर राज करता आया है। आज भी यही हो रहा है। मेरे वरिष्ठ मित्र ने यह बात बिल्कुल वाजिब कही है कि सारे अखबारों के मालिक सवर्ण नहीं हैं। लेकिन यह कि उनसे कहकर दलित, पिछड़े और आदिवासी अपने लिए जगह निकलवाएं, मुमकिन ही नहीं है।

मैं तो आज दिल्ली से प्रकाशित “आरएसएस सत्ता” (जनसत्ता) देख रहा हूं। इसने आज धर्म पर आधारित एक पन्ना प्रकाशित किया है। चूंकि यह आरएसएस का मुख पत्र है, लिहाजा इसके इस पन्ने पर सारे आलेख ब्राह्मण वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। एक आलेख में एक व्यापारी वर्ग के लेखक ने होलिका दहन के बारे में लिखा है कि जब 150 डिग्री सेल्सियस तापमान पर होलिका का पुतला जल रहा होता है तब उसकी परिक्रमा करने से शरीर के अंदर के सारे रोगाणु खत्म हो जाते हैं। यह बनिया लेखक यही नहीं रूकता है। वह यह भी कहता है कि दांपत्य जीवन में निराश लोग, व्यापार में नुकसान उठा रहे लोग या फिर बीमारियों से ग्रस्त लोग अपने लाभ के लिए होलिका की आग में क्या-क्या आहूति दे सकते हैं ताकि उनके कष्टों का निवारण हो।

दरअसल, यह वह उदाहरण है जो इस सवाल का जवाब है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को कैसे बेवकूफ बनाकर रखा जाता है। इसकी एक वजह यह भी है कि यह वर्ग अभी भी नवसाक्षर है। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि किताबों और अखबारों में लिखित बातें ही सच है और मौखिक बातें गलत। ऐसे में वे आसानी से सवर्णों और बनियों की मिली-जुली साजिश के शिकार हो जाते हैं।

बहरहाल, यह सामाजिक संघर्ष के विभिन्न चरणों में से एक चरण है। आज मैं आह्वान कर रहा हूं कि दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के तमाम बड़े नेता और उद्यमी अपने-अपने समाजों के लिए अखबारों का प्रकाशन करें। कल मेरे जैसे अनेक होंगे और फिर वह दौर आएगा जब इन सवर्णों के अखबारों को कोई दलित, पिछड़ा और आदिवासी नहीं पढ़ेगा।

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