मामला एक बार फिर दलितों के खिलाफ सवर्णों द्वारा अत्याचार का है। एक बार फिर एक दलित नौजवान सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह अच्छे कपड़े पहनता था और मुंछें रखता था। अपराधी मृतक से किस कदर जातिगत खुन्नस रखते थे, इसका अंदाज सिर्फ इससे लगाया जा सकता है कि अपराधी जातिगत वर्चस्व को बनाए रखने के इरादे से हत्या को अंजाम देने के लिए 800 किलोमीटर की दूरी मोटरसाइकिल से गुजरात से चलकर राजस्थानी के पाली जिला पहुंचे थे। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग है, जो अब भी कान में तेल डालकर सो रहा है। यह आयोग की निष्क्रियता नहीं तो और क्या है कि आजतक जितेंद्र मेघवाल के अपराधी गिरफ्तार तक नहीं किये जा सके हैं।
सवालों के घेरे में राजस्थान की कांग्रेसी हुकूमत भी है और वे सभी हैं जो दलितों के नाम पर राजनीति करते रहते हैं। आखिर कौन है वह जिसके दम पर सवर्ण बेखौफ होकर घटनाओं को अंजाम देने के लिए 800 किलोमीटर की दूरी तक तय कर लेते हैं और पुलिसिया तंत्र उन्हें गिरफ्तार तक नहीं कर पाता है?
मामले की बात करें तो जितेंद्र मेघवाल राजस्थान के पाली जिले में एक स्वास्थ्य कर्मी के रूप में पदस्थापित थे। सोशल मीडिया पर वह अपनी खास तरह की मुंछों व अच्छे कपड़ों आदि के लिए प्रसिद्ध थे। वे अपने पोस्ट में कहा करते थे– “मैं गरीब जरूर हूं, पर मेरी जिंदगी रॉयल है।”
जितेंद्र मेघवाल की हत्या के दोनों आरोपी सूरजसिंह राजपुरोहित और रमेशसिंह राजपुरोहित ने इसके पहले भी 23 जून, 2020 को अपनी जातिगत नफरत का परिचय तब दिया था जब अपने गांव बारवा के आंगनबाड़ी केंद्र के बाहर बैठे जितेंद्र मेघवाल ने आरोपियों को नजर उठाकर देखा था। तब आरोपियों ने जितेंद्र के घर में घुसकर उनके और उनकी मां व बहनों के साथ मारपीट की थी। तब पुलिस में शिकायत दर्ज कराए जाने के करीब छह माह के बाद आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था और उसने मुकदमे को इतना कमजोर कर दिया था कि निचली अदालत में पहली ही पेशी में दोनों आरोपियों को जमानत मिल गयी थी।
मिली जानकारी के अनुसार सूरजसिंह राजपुरोहित और रमेशसिंह राजपुरोहित जमानत मिलने के बाद गुजरात के सूरत चले गए। लेकिन जितेंद्र मेघवाल को लेकर दुश्मनी की आग में जलते रहे। बीते 13 मार्च को दोनों गुजरात से मोटरसाइकिल चलाकर राजस्थान के पाली जिला पहुंचे जो कि करीब 800 किलोमीटर दूर है। वहां पहुंचने पर दोनों आरोपियों ने जितेंद्र मेघवाल की रेकी की तथा अगले दिन उसकी हत्या चाकू घोंपकर कर दी।
बहरहाल, यह पहला मौका नहीं है जब किसी दलित की निर्मम हत्या की गयी और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग हाथ पर हाथ धरे बैठा है। इसके पहले यूपी के हाथरस में भी जब एक वाल्मीकि समुदाय की बेटी के साथ पहले बलात्कार और फिर उसके साथ शारीरिक हिंसा व मृत्यु के बाद पुलिस द्वारा आरोपियों को बचाने की नीयत से शव को रातों-रात जला देने के मामले में भी आयोग ने खामोशी की चादर ओढ़ ली थी। सवाल यही है कि यदि वह ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है तो उसके होने का मतलब क्या है? क्या उसके अध्यक्ष व सदस्य केवल सरकारी खजाने से लाखों रुपए पगार के रूप में लेने के लिए बने हैं?
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