मैं सीधी समझ वाला आदमी हूं। खुद को बहुत घुमाने-फिराने में यकीन नहीं रखता। मेरी नजर में गांधी डॉ. आंबेडकर के जैसे नहीं हैं। मैं गांधी का सम्मान भी नहीं करता। मेरे लिए वह एक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने भारत में हुए एक राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व किया। इससे अधिक कुछ नहीं। डॉ. आंबेडकर अलहदा हैं। उन्होंने गांधी से अधिक बड़ा काम किया।
दरअसल, आज मैं यह देख रहा हूं कि अनेक लोग पंजाब के नये मुख्यमंत्री भागवंत सिंह मान के दफ्तर में भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर की तस्वीर के साथ गांधी की तस्वीर नहीं होने को लेकर टिप्पणियां कर रहे हैं। कोई भागवंत सिंह मान और उनकी पार्टी (आम आदमी पार्टी) को भाजपा की बी टीम बता रहा है तो कोई और कुछ भी लिख रहा है। एक सज्ज्न ने तो यह भी लिखा कि यदि गांधी तस्वीर भी होती तो क्या हो जाता।
निस्संदेह आम आदमी पार्टी एक नयी पार्टी है, जिसके पास सबसे अधिक कमी है तो वह विचारधारा की। वह कट्टर हिंदुत्व को अपनाकर तो भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती है जिस पर भाजपा ने अपनी मुहर लगा दी है। सॉफ्ट हिंदुत्व पर कांग्रेस व अन्य दलों का कब्जा है। आम आदमी पार्टी को राजनीति करनी है तो उसे इन दोनों के बीच में ही कोई राह तलाशनी होगी। मेरे हिसाब से यह पार्टी यही कर रही है। वह यह जानती है कि इस देश में स्पेस बनानी है तो बहुसंख्यक वर्ग के बीच जाना होगा। इसके लिए डॉ. आंबेडकर और भगत सिंह से बेहतर कोई चेहरा नहीं है। पेरियार की विचारधारा को आम आदमी पार्टी बर्दाश्त नहीं कर सकती। पेरियार डॉ. आंबेडकर की तुलना में अधिक समतावादी हैं।
लेकिन वे लोग जो गांधी को लेकर आम आदमी पार्टी की आलोचना कर रहे हैं, उनके बारे में सोच रहा हूं। ये कौन लोग हैं। मैं भी गांधी की हत्या को आजाद भारत में हुई पहली आतंकी घटना मानता हूं जिसे एक संघी आतंकवादी नाथूराम गोडसे ने अंजाम दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं गांधी का प्रशंसक हूं।
हालांकि एक समय था जब मेरे पास जानकारियां कम थीं। गांधी के बारे में उतना ही पढ़ा था, जितना कि मेरे पास उपलब्ध था। अब जबकि मैंने ठीक-ठाक अध्ययन कर लिया है तो सोचता हूं कि गांधी का व्यक्तित्व एक विशाल व्यक्तित्व था। दक्षिण अफ्रीका से लेकर बिहार के चंपारण और फिर पूरे भारत में राजनीतिक आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व करना कोई खेल नहीं है। गांधी ने हर तरीके से भारतीय राजनीति को प्रभावित किया। उन्होंने समाज और संस्कृति को भी अपने राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा बनाया। वैसे यह जरूरी भी था। वजह यह कि बिना समाज और संस्कृति के राजनीति की भी नहीं जा सकती।
डॉ. आंबेडकर ने भी यही किया। मेरे हिसाब से तो गांधी ने राजनीतिक आंदोलन में सफलता हासिल की तो डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक आंदोलन में। दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। लेकिन मुझे लगता है कि मेरे पास यह आजादी है कि इन दोनों में से मैं किन्हें अपना आदर्श मानूं। ठीक ऐसे ही आम आदमी पार्टी और भागवंत सिंह मान को भी है।
बहरहाल, आज मैं 18 जुलाई, 1936 को ‘हरिजन’ पत्रिका में प्रकाशित गांधी के संपादकीय आलेख का वह हिस्सा रख रहा हूं, जिसकी वजह से मैं गांधी को केवल और केवल राजनीतिज्ञ मानता हूं। एक ऐसा राजनीतिज्ञ जिसने जातिवाद और ब्राह्मणवाद की आजीवन रक्षा की। यह अंश फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘जाति का विनाश’ के पृष्ठ संख्या 132-133 से लिया गया है–
“जाति का धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह एक ऐसी प्रथा है, जिसका उद्गम मैं नहीं जानता और अपनी आध्यात्मिक भूख की शांति के लिए जानना जरूरी भी नहीं समझता। लेकिन यह मुझे जरूर पता है कि यह आध्यात्मिक और राष्ट्रीय, दोनों प्रकार के विकास के लिए नुकसानदेह है। वर्ण और आश्रम ऐसी संस्थाएं हैं, जिनका जाति से कोई संबंध नहीं है। वर्ण का नियम हमें बताता है कि हममें से प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाकर अपनी जीविका कमानी चाहिए। यह हमारे अधिकारों को नहीं, कर्तव्यों को परिभाषित करता है। आवश्यक रूप से इसका संबंध उन पेशों से है, जो मानवता के कल्याण का हेतु हैं– किसी अन्य पेशे से नहीं। इससे यह भी नि:सृत होता है कि कोई भी पेशा न तो बहुत नीचा है और न बहुत ही ऊंचा। सभी अच्छे और कानून संगत हैं तथा सबकी हैसियत पूरी तरह से बराबर है। ब्राह्मण– आध्यात्मिक गुरु– और भंगी के पेशों का महत्व एक जैसा है और उनका उचित ढंग से निष्पादन ईश्वर के सम्मुख बराबर योग्यता रखता है तथा ऐसा लगता है कि एक समय मनुष्य के सम्मुख उनका प्रतिफल भी बराबर था। दोनों को जीविका का अधिकार था, लेकिन इससे ज्यादा का नहीं। वास्तव में अभी भी गांवों में इस नियम के स्वस्थ रूप से लागू होने के धुंधले चिह्न मिल जाते हैं। मैं 600 की आबादी वाले गांव में रहता हूं और ब्राह्मणों सहित विभिन्न पेशों में लगे हुए लोगों की आय में बहुत फर्क नहीं देखता। मैं यह भी पाता हूं कि इन पतनशील दिनों में भी असली ब्राह्मण मौजूद हैं, जिनका जीवन उदारता से दी गयी भिक्षा पर चलता है और स्वयं उनके पास जो भी आध्यात्मिक खजाना है, उसमें से वे उदारता से देते रहते हैं। वर्ण के नियम का मूल्यांकन उसके कैरिकेचर के आधार पर– जो उन व्यक्तियों के जीवन में मिलता है, जो अपने को वर्ण के अधीन मानते हैं, लेकिन इसके एकमात्र क्रियाशील नियम का खुलेआम उल्लंघन करते हैं –करना गलत और अनुचित होगा। एक वर्ण द्वारा अन्य वर्णों के मुकाबले अपने को उच्चतर मान लेना, इसके नियम को धता बताना है। और वर्ण के नियम में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो अस्पृश्यता में विश्वास का आधार बन सके। (हिंदुत्व का सार इस विश्वास में है कि एक और एकमात्र ईश्वर सत्य है और इस साहसपूर्ण स्वीकार में कि अहिंसा मानव परिवार का नियम है, निहित है।) मुझे पता है कि हिंदुत्व की मेरी व्याख्या का विरोध डॉ. आंबेडकर के अलावा और भी बहुत-से लोग करेंगे। इससे मेरी अवस्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह एक ऐसी व्याख्या है, जिसके अनुसार लगभग आधी शताब्दी से मैं जीवन बिता रहा हूं और जिसके अनुसार मैंने अपनी समस्त योग्यता के साथ अपने जीवन को अनुशासित करने का प्रयास किया है।”
(नवल किशोर कुमार के फेसबुक से साभार)
लेखक फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं।