भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मणयम स्वामी के आरक्षण को लेकर दिये उस बयान को बार-बार दोहराने और याद रखने की जरूरत है, जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा सरकार आरक्षण को कानूनी तौर पर खत्म नहीं करेगी, बल्कि उसे ऐसी जगह लाकर छोड़ देगी कि आरक्षण होने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
आप केंद्र यूसे लेकर भाजपा शासित तमाम राज्यों के आंकड़े उठा कर देख लिजिए, आरक्षित वर्ग को नौकरियों में मिलने वाले आरक्षण को लेकर तमाम अनियमितताएं देखने को मिल जाएगी। केंद्र सरकार द्वारा घोषित लैटरल एंट्री का नतीजा सबके सामने है। नया घोटाला उत्तर प्रदेश में सामने आया है, जिसमें बहुजन समाज के युवाओं की तकरीबन 6000 नौकरियां साजिश के तहत सवर्ण समाज के युवाओं को दे दिया गया है। उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने कहा है कि परिषदीय प्राइमरी स्कूलों के लिए निकली 69 हजार सहायक शिक्षकों की भर्ती में रिजर्वेशन के नियमों का पालन ठीक से नहीं किया गया।
रिक्रूटमेंट प्रोसेस में रिजर्वेशन को लेकर बड़े स्तर पर हुई इस गड़बड़ी की शिकायत राष्ट्रपति और राज्यपाल तक पहुंची थी। OBC और SC समाज के तमाम अभ्यर्थियों ने विरोध जताते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल को पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की मांग की थी। तब जाकर जांच शुरू हुई और इस घोटाले का पर्दाफाश हुआ।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. लोकेश कुमार प्रजापति ने इस मामले में एक अंतरिम रिपोर्ट दी है। इस रिपोर्ट में यह सामने आया है कि हर जिले की लिस्ट में भर्ती प्रक्रिया में गड़बड़ी हुई है और आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स की जगह गैर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की नियुक्ति हुई है। यानी बहुनजों की नौकरी सवर्णों को दे दी गई है।
इस घोटोले को लेकर हर ओर से सवाल उठ रहा है और योगी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। और ऐसा नहीं है कि ऐसा अनजाने में हो गया है। दरअसल इस भर्ती प्रक्रिया में अंतिम तौर पर जारी किए गए सफल कैंडिडेट्स की लिस्ट में कैंडिडेट्स की कैटेगरी का उल्लेख ही नहीं किया गया है। यानी कि लिस्ट में बताया ही नहीं गया कि चयनित होने वालों में कौन एससी वर्ग से है, कौन ओबीसी है और कौन सामान्य वर्ग से है। हालांकि जब सभी लिस्ट को जिलेवार प्रकाशित किया गया था तो उनमें चयनित उम्मीदवारों की श्रेणी भी बताई गई थी और यहीं से मामला सामने आ गया।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के उपाध्यक्ष द्वारा जारी की गई अंतरिम रिपोर्ट में बताया गया है कि सभी जिलों में प्रकाशित लिस्ट और कैंडिडेट्स की कैटेगरी को लेकर चयन प्रक्रिया में काफी बड़े लेवल पर अनियमितता पाई गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि OBC को 18,598 सीटें मिली थीं, लेकिन उनके हिस्से की 5844 सीटें गैर आरक्षित वर्ग को दे दी गई है। जो सूचना सामने आ रही है उसके मुताबिक 69 हजार शिक्षक भर्ती में आरक्षण के नियमों का घोर उल्लंघन हुआ है। OBC को 27% की जगह मात्र 21% और SC-ST को 22.5% की जगह सिर्फ 18% आरक्षण दिया गया है जो असंवैधानिक है। हालांकि इस मामले में 15 दिनों में रिपोर्ट मांगी गई है, जिसके बाद साफ हो पाएगा कि यह घोटाला कितने बड़े स्तर का है।
निश्चित तौर पर प्रदेश का मुखिया होने के नाते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी सवाल उठता है, क्योंकि योगी एक कड़े प्रशासक माने जाते हैं और उनकी सहमति और जानकारी के बिना इतना बड़ा नौकरी घोटाला संभव नहीं है। और अगर यह घोटाला उनकी नाक के नीचे हुआ है तो सवाल उनकी नेतृत्व क्षमता पर उठता है। सवाल उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या पर भी उठता है, क्योंकि वह पिछड़े वर्ग से आते हैं और अगर इसके बावजूद वह पिछड़े वर्ग के ही हितों की रक्षा करने में नाकाम रहे हैं, तो संभवतः वह भाजपा की सरकार में रबर स्टैंप के अलावा कुछ भी नहीं हैं।
इस नौकरी घोटाले के सामने आने के बाद भाजपा सरकार को वोट देने वाले उन पिछड़े और दलित समाज के युवाओं को भी एक बार समझना होगा कि वो जिस भाजपा को वोट देकर सत्ता में लाए थे, और वह जिनसे ‘अच्छे दिन’ लाने की उम्मीद लगाए बैठे थे, दरअसल वह उनकी नहीं, सिर्फ सवर्णों की परवाह करती है। क्योंकि यह सरकार उन्हें नौकरी देने की बजाय उनकी नौकरियां छीनकर ऊंची जाति के लोगों को दे रही है। ऐसे में वक्त आ गया है कि बहुजन युवा यह समझें कि उनके हितों की रक्षा कौन सा राजनैतिक दल और कौन सा नेता कर सकता है।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में थाना कोतवाली की पुलिस ने गांव अभिया खुर्द के निवासी दलित समाज के बाबूलाल कोरी को महज इसलिए गिरफ्तार कर हवालात में डाल दिया, क्योंकि उन्होंने अपनी पोती की शादी के कार्ड में बाबासाहेब की उन 22 प्रतिज्ञाओं को प्रिंट करवा दिया था, जिसे सन् 1956 में बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद अपने अनुयायियों को बौद्ध धर्म की दीक्षा देते हुए दिलवाई थी।
शादी का यह कार्ड स्थानीय लोगों के बीच भी बांटा गया, जिस पर स्थानीय हिंदुओं ने आपत्ति जताई और इसकी शिकायत जिले के स्थानीय कोतवाली देहात, दोमुंहा थाने में कर दी गई। और गजब यह हुआ कि स्थानीय थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह ने बिना यह देखे कि यह मामला कानून तोड़ने का है या नहीं, करीब 70 साल के बाबूलाल को पोती कि विदाई के तीसरे दिन ही गिरफ्तार कर लिया। शादी 20 मई को थी, 21 मई को पोती की डोली उठी और उन्हें 24 मई को गिरफ्तार कर लिया गया, जहां उन्हें 28 मई तक हवालात में रखा गया।
इस मामले को लेकर दलित दस्तक ने कोतवाली देहात के देवेन्द्र सिंह से बात की जिनका कहना था कि स्थानीय लोगों ने शिकायत की थी। शादी के कार्ड में 22 प्रतिज्ञाओं के साथ कुछ ऐसी बातें भी छपवाई गई थी, जो 22 प्रतिज्ञाओं में नहीं थी। लेकिन जब आप शादी के कार्ड को देखने पर साफ पता चलता है कि उस कार्ड पर ऐसा कुछ नहीं है जो 22 प्रतिज्ञाओं से अलग हो। यानी कि पुलिस प्रशासन यहां भी गलतबयानी कर रहा है।
हालांकि भले ही बाबूलाल की रिहाई हो गई हो लेकिन जिस तरह असंवैधानिक तरीके से बाबूलाल की गिरफ्तारी हुई उसने यूपी पुलिस की दलित समाज के व्यक्ति के साथ की गई ज्यादती को ही सामने ला दिया है। सवाल यह भी है कि क्या सुल्तानपुर की पुलिस और यूपी शासन भारतीय संविधान से ऊपर है? और बाबा साहेब द्वारा दी गई प्रतिज्ञा को दोहराना और उसे शादी के कार्ड पर प्रिंट करना आखिर गैरकानूनी कैसे है? क्या यदि आज बाबासाहेब होते तो योगी सरकार उन्हें भी 22 प्रतिज्ञाओं के लिए जेल भेज देती? अगर नहीं, तो फिर बाबू लाल को जेल भेजना कितना सही था। सुल्तानपुर की पुलिस को इसका जवाब देना होगा।
(लेखक-राजेश निर्मल) भारतीय समाज के केंद्र में जब-जब महामारी आती है तो सिर्फ़ महामारी ही नहीं आती, बल्कि उसके साथ आती है बहुत सारी भ्रांतियां, अंधविश्वास और ऊटपटांग आडंबर। भारत में जब 19वीं सदी में चेचक जैसी महामारी ने पैर पसारा तो ज्यादातर ग्रामीण इलाको में इसे देवी या माता का नाम देकर कई प्रकार के अंधविश्वास से जोड़ा गया। तब से लेकर आज तक, यदि किसी को ऐसा कुछ भी होता है तो ज्यादातर लोगों के मुंह से निकलता है कि- “माता आ गयी है।” ऐसी ही स्थिति के बहुत से उदाहरण हमें 1961 की हैजा महामारी में भी नज़र आये और पोलियो महामारी के दौरान भी दिखाई दिए थे। आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में झगड़े या गुस्से की स्थिति में महिलाएं गुस्से में श्राप के तौर पर- “तुम्हें हैजा माई उठा ले जाएं” जैसे वाक्यों का आसानी से प्रयोग करती दिखाई दे जाती हैं।
इन उदाहरणों से पता चलता है कि हैज़े जैसी महामारी को आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में दैवीय प्रकोप के रूप में देखा जाता है। ऐसे में जहां एक तरफ ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत ख़राब हो और दूसरी तरफ़ जनता महामारी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बजाये उसे दैवीय या चमत्कारी घटना से जोड़कर देखती हो, ऐसे में सरकार और प्रशासन को दोबारा से पलट कर पीछे मुड़ना चाहिए और देखना चाहिए कि आजादी के इतने साल बाद भी व्यवस्था में क्या छूट रहा है? क्या है जो एक तरफ गांव गांव में वीडियो कॉलिंग और फ़ाइव जी के सहारे गांवो को आगे बढा कर चमका देने के दावे किये जा रहे हों वहीं दूसरी तरफ़ उसी फ़ाइव जी के टावर के नीचे अंधविश्वासी कहानियां जन्म लेती हैं? केंद्र और प्रदेश की सरकार महिला शिक्षा पर पूरा जोर लगाए हुए है, फिर कहां से समाज और विशेष कर महिला समाज में अंधविश्वास और भ्रामक कहानियां जन्म ले लेती हैं?
सवाल यह भी उठ रहा है कि ऐसी कहानियों से बने समाज के बीच जो महिलाएं अपने घरों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निर्णय लेती हैं, वह करोना महामारी में दवा और वैक्सीन को लेकर क्या मज़बूत निर्णय ले पायेंगी? हम इसकी पड़ताल करते है उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में, जहां हमने बात की नमिता द्विवेदी से, जो नंन्दौली गांव में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं। इन दिनों बड़ी शिद्दत से कोरोना महामारी के लिए जागरूकता जगाने में जुटी हुई हैं। हमारे सवाल पूछे जाने में पर कि महिलाएं वैक्सीन के बारे में क्या सोचती है? बताती हैं- “महिला हो या पुरुष, वैक्सीन को लेकर लोगों की राय बटी हुई है। कुछ लोग कहते है कि वैक्सीन लगवा लेनी चाहिए, लेकिन अब भी बहुत से लोग वैक्सीन से घबरा रहे हैं। मुझे लगता है कि अभी लोग बहुत डरे हुए हैं। एक तो इस महामारी से और दूसरा वैक्सीन की अलग अलग कहानियों से। जब तक लोगो को ठीक से समझाया नही जायेगा, उन्हें इस पर पूरी तरह से भरोसा नही आयेगा। विशेषकर ग्रामीण महिलाएं जो सबसे अधिक अशिक्षित हैं, उनमें वैक्सीन को लेकर सबसे अधिक भ्रम और अंधविश्वास अपनी जड़े जमा चुका है। जिसे समाप्त करना बहुत आवश्यक और बड़ी चुनौती है।
हमने उनसे जानना चाहा कि ऐसी स्थिति में जो पढ़ी लिखी जागरुक महिलाएं या पुरुष अपने घरो का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनका घर के बाकी लोगो के साथ मतभेद हो रहा है? इस पर वह कहती हैं कि- मेरे निजी अनुभव से मैं बता सकती हूं कि हमारे गांव में ही ऐसे बहुत से घर है, जहां वैक्सीन को लेकर लगभग टकराव की स्थिति है। घर के आधे सदस्य वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार हैं और आधे लोग लगाने से मना कर चुके हैं।” दरअसल लोगों को यह सही ढंग से बताने वाला कोई नहीं है कि वैक्सीन लगा कर बुखार क्यों आ जाता है? उन्हें इस सवाल का संतुष्टि पूर्वक जवाब नहीं मिल रहा है कि आखिर कोई दवा आराम के लिए बनी है, तो उससे बुखार क्यों आ रहा है? ऐसे में लोगों में मौत का डर बहुत है। कुछ लोग वैक्सीन की दूसरी डोज़ की समय अवधि बढाये जाने में भी शंका की स्थिति बनाए हुए हैं। नमिता जी के पास वैक्सीन को लेकर बहुत सी कहानियां हैं। वह कहना यही चाहती थी कि ऐसी स्थिति में जब घरों के मत दो हिस्सों में बंटे हों, ऐसी परिस्थिति में किसी महिला का घर के लिए निर्णय लेना मतलब हर आने वाली स्थिति की ज़िम्मेदारी खुद पर डालने जैसा होगा। जो वह कभी करना नहीं चाहेगी।
इसी कड़ी में हमारी बात रायबरेली जिले के घाटमपुर गांव के रहने वाले पप्पू से हुई। वह बल्दीराय ब्लाक में नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन में प्रोजेक्ट मैनेजर के तौर पर काम करते हैं। जब हमने उनसे ग्रामीण परिवेश में महामारी को लेकर बात की और जानना चाहा कि ऐसा क्यों होता है तो उन्होंने हमें बताया- “स्थिति काफ़ी गंभीर है और गांवो में भी इसे बड़ी गंभीरता से लिया जा रहा है। लेकिन किसी भी महामारी के साथ हमें गांव की शिक्षा और जागरूकता पर भी विशेष ध्यान देने की ज़रुरत है। पोलियो महामारी के दौरान जब दवा पिलाई जाती थी तब बहुत सी कहानियां कुछ इस तरह फैला दी गयी कि इसके पीछे प्रशासन जनसंख्या को नियंत्रित करना चाहता है और जिस बच्चे को दवा पिलाई जाएगी वह बच्चा भविष्य में पिता नहीं बन सकेगा। ऐसी स्थिति में ग्रामीण इलाकों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह वैक्सीन पर इतनी जल्दी भरोसा दिखा सकेंगे?”।
उनकी बातों से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी प्रशासन के लिए गांवों स्तर पर नयी वैक्सीन के लिए विशेष जागरूकता की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि पुराने तरीके से स्थिति के गडमड बने रहने का पूरा अनुमान है। इसी दौरान हमने रामपुर बबुआन गांव की पूजा से बात की, जिनकी उम्र लगभग 23 साल है। पूजा ने बताया कि वो बीएससी पास है। उनकी दो साल पहले ही शादी हुई है। पति और जेठ दूसरे शहर में काम करते है। वह बीमारी को लेकर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखती हैं, लेकिन घर में बाकी लोग परंपरावादी सोच वाले हैं। इसलिए बात बात पर उसकी अपनी सास और ससुर से ठन जाती है। पूजा कहती हैं – “मेरी एक साल तीन महीने की बेटी है। मैंने उसे सारे जरूरी टीके लगवा दिए हैं। अगर कोरोना का बच्चो के लिए टीका आया तो वह भी लगवा दूंगी। मेरे घर के बुजुर्ग थोड़े पुराने ख्यालों के हैं और वह मुझे बार बार टोकते हैं। लेकिन मुझे मालूम है कि मैं जो कर रही हूं वह मेरे बच्चे के भविष्य के लिए सही है”।
बहरहाल वैज्ञानिक नज़रियों और अंधविश्वासों का झगड़ा तब तक चलता रहेगा जब तक देश के हर ग्रामीण इलाकों तक शिक्षा और सही सूचना नहीं पहुंच जाती है। जिस दिन ऐसा मुमकिन होगा, पूजा जैसी युवा गृहणी और नमिता जैसी जमीनी कार्यकर्ता के लिए समाज में निर्णय लेने की चुनौतियां समाप्त हो जाएंगी। लेकिन ऐसे परिवेश को तैयार करने के लिए हम सब को आगे आने की ज़रूरत है।
(यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2020 के तहत लिखा गया है। इसके लेखक राजेश निर्मल हैं, जो यूपी के सुल्तानपुर में रहते हैं।)
चुनाव से पहले सत्ताधारी पार्टी यूपी में कुछ बड़ा फैसला कर सकती है। साफ दिख रहा है कि विवादास्पद कारोबारी रामदेव से जुड़ा ताजा विवाद और सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े सरकारी कदमों से जुड़ी खबरों को सुचिंतित योजना के तहत उछाला गया है। टीवीपुरम् या मीडिया के अन्य हिस्सों के जरिये इसे इतना उछाला गया कि लोग टीकाकरण (वैक्सीनेशन) की सरकारी महा-विफलता को भूल जायं! उत्तर के हिंदी-भाषी राज्यों के गाँवों में कोरोना से हो रही बेतहाशा मौतों के बारे में खबरें दिखना बंद हो जायं। सामाजिक जीवन में उसकी चर्चा तक न हो। अखबार और चैनल लोगों की बीमारी, बेबसी और बेहाली की खबरें छापना-दिखाना बंद कर दें और हिंदी क्षेत्र में पारुल खख्खर जैसी कोई कविता भी न लिखे।
सरकारें जो झूठे आंकड़े परोस रही हैं, उन पर मीडिया में न कोई खबर छपे और न कोई सवाल उठे। गुजराती के ‘उस अखबार’ जैसी रिपोर्टिंग हिंदी भाषी क्षेत्रों में न शुरू हो जाय। क्यों? क्योंकि सच्ची रिपोर्टिंग से सरकारों और शासकों पर समाज और जनता के हक में काम करने का भारी दबाव बनता है। इसलिए एक साथ तीन-चार झुनझुने बज उठे।
कहीं, विवादास्पद और मूर्खतापूर्ण बयानबाज़ी करने के उस्ताद अपने खास चरित्रों को आगे किया गया तो कहीं नयी नियमावली का हवाला देकर सोशल नेटवर्किंग सेवाओं और साइट्स के बड़बोले संसार को झिंझोड़ा गया। सारे ‘महानगरीय-लिबरल्स’ भिड़ गये-‘हाय, ये क्या हो रहा, हम अपनी बोलने-लिखने की आजादी का हरण बर्दाश्त नहीं करेंगे।’ वे भूल गये कि सोशल नेटवर्किंग सेवा देने वाली कंपनियां अब सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही नहीं हैं, किसी ताकतवर स्टेट से वे कुछ कम नहीं। उनका कितना बड़ा निवेश है, हमारे यहां। सत्ताधारियो को संरक्षण देने वाले बड़े कारपोरेट तक उनके हमजोली हैं। पर अपने देश के ‘महानगरीय लिबरल्स’ के कहने ही क्या?
इसी तरह यूपी में सत्ताधारी खेमे की खलबलाहट की नियोजित ‘लीक’ बन गयी बड़ी खबर। किसी ठोस सूत्र के हवाले के बगैर! क्योंकि इससे यूपी के गांवों की वो भयावह कोरोना-कहानियां दब गईं। वैसे भी अपने देश, खासकर हिंदी भाषी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्र की खबरें आम दिनों में भी मीडिया में कहां आती रही हैं? बमुश्किल 2 से 3.5 फीसदी ग्रामीण-भारत का कवरेज़ रहा है। अपने कथित नेशनल मीडिया में इस महामारी के दौर में कुछेक साहसिक प्रयासों को छोड़ दें तो कथित नेशनल मीडिया ने हिंदी भाषी राज्यों के ग्रामीण अंचल को उनके हाल पर छोड़ दिया है।
तो ये है कहानी इस बीच अचानक कुछ ‘झुनझुनो’ के बजाये जाने की। लोगों को बेतहाशा मारती इस महामारी, एक विराट राष्ट्रीय त्रासदी, शासन की महा-विफलता और ग्रामीण क्षेत्रों के भयावह यथार्थ से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ये झुनझुने कुछ ‘कारगर’ दिखे।
दिल्ली के तीन मुंसिपल कॉर्पोरेशनों के मरने वाले 95 कर्मचारियों में 49 सफाई कर्मचारी हैं, इनमें सिर्फ एक या दो को केजरीवाल द्वारा घोषित 1 करोड़ की क्षतिपूर्ति राशि मिली, शेष इसके लिए दर-दर भटक रहे हैं। दिल्ली के अमीरों- मध्यवर्गीय लोगों के घरों के कूड़ा उठाने वाले और उनकी गलियां-सड़के साफ करने वाले सफाई कर्मचारियों के बारे में मैं सुनता रहा हूं कि देखो इन लोगों को कोरोना नहीं होता, इनका इम्युन सिस्टम इतना मजबूत है कि इनको कुछ नहीं होता।
तथ्य इसके उलट हैं, दी इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के तीन मुंसिपल कार्पोरेशन (MCD) के मरने वाले कुल 94 कर्मचारियों में 49 सफाई कर्मचारी हैं। हो भी क्यों न, जब अमीर और मध्यमवर्गीय लोग अपने-अपने घरों में दुबके हुए किसी भी सूरत में अपनी जान बचाने में लगे हुए थे, दबा कर खा-पी रहे थे, उसके बाद जो कूड़ा निकाल रहे थे, उसे कोई उसे उठा रहा था और साफ कर रहा था, तो वे यही सफाई कर्मचारी थे- जिसमें स्त्री-पुरूष दोनों शामिल थे।
अमीरों-मध्यवर्ग को यह भी नहीं पता चलता कि उनकी गली में आने वाला या उनके सोसायटी को साफ करने वाला कौन सफाई कर्मचारी कब मर गया या गायब हो गया, क्योंकि अक्सर वे उनके चेहरों से नहीं, उसके झाडू और कचरे के ठेले से जानते और पहचानते हैं और एक के मरने के बाद कोई दूसरी झाडू वाली और कचरे का ठेला वाला तो आ ही जाता है। एक मर जाता है, उसकी जगह कोई दूसरा ले लेता है। अमीरों और मध्यवर्ग का काम तो नहीं रूकता न।
अखबार की रिपोर्ट से यह तथ्य भी सामने आया कि इन 49 कर्मचारियों में से सिर्फ एक या दो को केजरीवाल द्वारा घोषित 1 करोड़ की क्षतिपूर्ति की धनराशि मिली। केजरीवाल द्वारा एक सफाई कर्मचारी के परिवार को 1 करोड़ देते हुए फोटो देखकर लगा था कि सबको शायद 1 करोड़ मिल गया होगा। लेकिन तथ्य इसके बिल्कुल उलट है।
भारत में सफाई कमर्चारी अपने काम के स्वरूप (श्रम) और सामाजिक श्रेणी दोनों आधारों पर तलछट के लोग माने जाते रहे हैं और आज भी हैं, तथ्य इसे प्रमाणित कर रहे हैं। ब्राह्मणवाद उन्हें उनकी सामाजिक हैसियत के आधार पर और पूंजीवाद उन्हें उनके श्रम के स्वरूप के आधार पर अंतिम दर्जे का मानता है। तथ्य यही प्रमाणित कर रहे हैं।
बसपा प्रमुख और दलित समाज की सबसे बड़ी नेता बहन मायावती को लेकर ओछी टिप्पणी करने वाले औसत अभिनेता और फूहड़ इंसान रणदीप हुड्डा पर गाज गिर गई है। यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री बहन मायावती पर की गई टिप्पणी के वायरल होने के बाद संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें अपने एंबेसडर के पद से हटा दिया है।
रणदीप हुड्डा को संयुक्त राष्ट्र की जंगली जानवरों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण संबंधी संधि जिसे CMS कहा जाता है, उसके राजदूत के पद से हटा दिया है। सीएमएस सचिवालय ने 27 मई को एक बयान जारी कर वीडियो में रणदीप हुड्डा द्वारा की गई टिप्पणी को आपत्तिजनक बताया। साथ ही कहा कि रणदीप की टिप्पणी सीएमएस सचिवालय या संयुक्त राष्ट्र के मूल्यों को नहीं दर्शाती और हुड्डा अब सीएमएस के राजदूत नहीं हैं। बता दें कि रणदीप को फरवरी 2020 में तीन साल के लिए राजदूत नियुक्त किया गया था, जिसके तहत उन्हें तमाम सुविधाएं मिलती थी, जो अब नहीं मिलेगी। यह रणदीप के लिए एक बड़ा झटका है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी बदनामी हुई है।
गौरतलब है कि नौ साल पुराने एक वीडियो में रणदीप हुड्डा ने मायावती का नाम लेते हुए आपत्तिजनक चुटकुला सुनाया था। इसका वीडियो क्लिप वायरल होने के बाद मामला गरमा गया। रणदीप के इस कथित चुटकुले को ‘सेक्सिस्ट’, ‘स्त्री विरोधी’ और ‘जाति सूचक’ कहकर कड़ी आपत्ति की गई। और इसे यूपी की पहली दलित मुख्यमंत्री मायावती से जोड़ कर देखा गया।
तमाम लोगों ने इस पर विरोध दर्ज कराया। ट्विटर पर हैशटैग #अरेस्टरणवीरहुड्डा ट्रेंड करने लगा और उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग भी की गई। हालांकि सीएमएस ने रणदीप हुड्डा के खिलाफ जिस तेजी से कार्रवाई की, वह काबिले तारीफ है। लेकिन सीएमएस द्वारा राजदूत का पद छीने जाने के बावजूद अंबेडकरवादी समाज रणदीप की गिरफ्तरी की मांग को लेकर अड़ा हुआ है और बी ग्रेड अभिनेता रणदीप हुड्डा को माफ करने के मूड में नहीं है। अंबेडकरवादी इस मामले में जिस तरह अपने समाज की नेत्री के साथ खड़े हुए हैं, वह दलितों के खिलाफ बेदूहा कमेंट करने वालों के लिए एक बड़ा सबक है। उम्मीद है रणदीप हुड्डा अब अपनी औकात में रहेगा।
अंबेडकरवादी समाज हमेशा से ‘पे बैक टू सोसाइटी’ के रास्ते पर चलता है। कोविड के दौर में यह समाज एक बार फिर से सामने आया है। दिल्ली में अंबेडकरवादी संगठनों ने मिलकर जय भीम कोविड आइसोलेशन सेंटर बनाया है, जहां कोरोना से जूझ रहे गरीब मरीजों का मुफ्त इलाज किया जा रहा है। खास बात यह है कि यहां ऑक्सीजन समेत सभी जरूरी सुविधाएं मौजूद है।
पिछले करीब एक महीने से चल रहे इस कोविड आइसोलेशन सेंटर की विधिवत शुरुआत 26 मई को बुद्ध पूर्णिमा के मौके पर किया गया। साउथ दिल्ली में बत्रा हॉस्पिटल के पास यह सेंटर 55B तुगलकाबाद इंस्टीट्यूशनल एरिया में चल रहा है, जिसके इंचार्ज डॉ. मोहनलाल भागवत हैं। इस सेंटर को बामसेफ, संत रविदास इंटरनेशनल मिशन, राष्ट्रीय शोषित परिषद और अर्थ रिवाइटल फाउंडेशन ने साथ मिलकर शुरू किया है, जहां कोविड के मरीजों का इलाज हो रहा है।
संयुक्त प्रयास से चल रहे इस कोविड आइसोलेशन सेंटर के मुख्य संरक्षक बामसेफ के डॉ. सिद्धार्थ हैं, जबकि डॉ. धर्मेंद्र कुमार इसके संरक्षक, जोगिन्दर सिंह नरवाल चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर और डॉ. मोहन लाल भागवत सेंटर के मैनेजर हैं। जबकि इस कोविड सेंटर के लिए अपनी पूरी बिल्डिंग देने वाले राष्ट्रीय शोषित परिषद के विनय गौतम मैनेजमेंट इंचार्ज हैं।
जहां तक डॉक्टरों की बात है तो यह सेंटर डॉ. मोहनलाल भागवत के नेतृत्व में चल रहा है, जिसमें उनके साथ 6 अन्य अनुभवी डॉक्टर हैं। डॉक्टरों की इस टीम में डॉ. दीपशिखा, डॉ. पूनम, डॉ. प्रोमिला भल्ला के अलावा पैरामेडिकल के मोहित राज, मो. फैजान, बिलाल अहमद शामिल हैं। डॉ. मोहन लाल भागवत मेडिकल साइंसेंज एंड रिसर्च हमदर्द युनिवर्सिटी दिल्ली में डिपार्टमेंट ऑफ पैरामेडिकल साइंसेज में लेक्चरार हैं। अच्छी बात यह भी है कि इस कोविड सेंटर से 22 ऐसे डॉक्टर जुड़े है, जो मुफ्त में कोविड को लेकर ऑनलाइन सलाह देते हैं। इसमें दिल्ली एम्स के अलावा देश के अलग-अलग शहरों के डॉक्टर जुड़े हैं।
इस सेंटर के शुरू होने के बाद अंबेडकरी समाज और अंबेडकरवादी संगठन मदद के लिए सामने आए हैं। श्री गौतमा प्रभु नगप्पन चेन्नई, फाउंडेशन ऑफ हिज स्क्रीड मैजेसटी और बुद्धा लाइट इंटरनेशन एसोसिएशन मलेशिया की ओर से कोविड सेंटर को दो ऑक्सीजन कंसंट्रेटर दिया गया है। जबकि लक एंबुलेंश सर्विस के नीरज कुमार गुप्ता ने सेंटर को 6 मुफ्त एंबुलेंस दिया है। तो राष्ट्रीय शोषित परिषद के विनय गौतम ने इस सेंटर के लिए अपनी बिल्डिंग दे दी है।
कोविड के दौर में जब देश के लोगों को एक-दूसरे के मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है, अंबेडकरवादी और बुद्धिस्ट संगठनों का इस तरह समाज को मेडिकल सहायता देना एक बड़ा कदम है, और अंबेडकरी आंदोलन के सबसे बड़े मंत्र ‘पे बैक टू सोसाइटी’ का एक बेहतर उदाहरण है।
Jai Bhim All
It gives us great pleasure to announce that “Dr. Vijaykumar Trisharan has been chosen as this year’s recipient of the Dr. Ambedkar International Award 2021. Dr. Vijay Kumar Trisharan has done phenomenal work in intiated Jhola Pustakalaya (a Mobile bag library) concept in rural and remote areas of Jharkhand. He also wrote more than 30 books on various subjects. He is currently president of Ambedkar Chetna Parishad and Buddhist Mission society.
We are also happy to announce that the recipient of the Savitrimai Phule International Award 2021 is Dr. Indu Choudhary. Dr. Indu Chaudhary is an Asst. Professor of English in Banaras Hindu University, Varanasi India. She is General Secretery of SC/ST Employee Welfare Association , BHU Varanasi. She is also the Chief Editor of an International Journal named MOOKNAYIKA. To her credit she has three books published in her academics and also a number of research papers in various national and international journals of repute.
She has read many papers in international and national conferences. She has guided four Doctorial thesis in her subject, one of the topic being FEMINIST PERSPECTIVE IN THE WRITINGS OF BABA SAHEB AMBEDKAR. “Mooknayak” Excellency in Journalism Award Ambedkar Association of North America(AANA) initiated the “Mooknayak” Excellency in Journalism Award from 2020 year on the Centenary year of Mooknayak.
The award is an honor for the exceptional work done for raising voice and awareness about the social issues of marginalized following the vision of Dr. Ambedkar. The award shall be conferred on individuals/organizations who have done outstanding work in Print or Digital Media. We are glad to announce “National Dastak” for the MookNayak Excellency in Journalism Award 2021. National Dastak YouTube channel launched in 2015 has a current reach of more than 4.5 Million subscribers. National Dastak is consistently raising the issues of marginalized in digital and social media.
“Dr. Ambedkar International Lifetime Achievement Award The AANA Board members unanimously decided to honor Bhante Surai Sasai with a Dr. Ambedkar International Lifetime Achievement Award. The Dr. Ambedkar International Lifetime Achievement Award was instituted from the year 2020 by the Ambedkar Association of North America(AANA). The award is an honor for the exceptional work done for social change over a lifetime following the vision of Dr. Ambedkar. The award shall be conferred on individuals/organizations who have done outstanding work Sincerely.
Chatak Dhakne On behalf of AANA Award Team Ambedkar Association Of North America (AANA)
रमाबाई के परिनिर्वाण दिवस (27 मई) पर उनको सादर नमन
डॉ. आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते थे, इसका अंदाज इन शब्दों से लगाया जा सकता है- “उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।”
डॉ. आंबेडकर अपनी जीवन-संगिनी रमाबाई आंबेडकर को प्यार से रामू कहकर पुकारते थे और उनकी रामू उन्हें साहेब कहकर बुलाती थीं। दोनों ने 27 वर्षों तक जीवन के सुख-दुख सहे। दुख ज्यादा, सुख बहुत कम। दोनों की शादी 1908 में उस समय हुई थी, जब डॉ. आंबेडकर की उम्र 17 वर्ष और रमाबाई की उम्र 9 वर्ष थी। रमाबाई का मायके का नाम रामीबाई था। शादी के बाद उनका नाम रमाबाई पड़ा। आंबेडकर के अनुयायी माता रमाबाई को ‘रमाई’ कहते हैं।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, आंबेडकर उन्हें प्यार से रामू कहकर पुकारते थे। उन्होंने रामू के निधन (1935) के करीब 6 वर्ष बाद 1941 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर दी पार्टिशन ऑफ इंडिया’ को रमाबाई को इन शब्दों में समर्पित किया है– ‘रामू की याद को समर्पित।
उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।’ (आंबेडकर, 2019)
समर्पण के इन शब्दों से कोई भी अंदाज लगा सकता है कि डॉ. आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते हैं और उनके जीवन में उनकी कितनी अहम भूमिका थी। उन्होंने उनके हृदय की उदारता, कष्ट सहने की अपार क्षमता और असीम धैर्य को याद किया है। इस समर्पण में वे इस तथ्य को रेखांकित करना नहीं भूलते हैं कि दोनों के जीवन में एक ऐसा समय रहा है, जब उनका कोई संगी-साथी नहीं था। वे दोनों ही एक दूसरे संगी-साथी थे। वह भी ऐसे दौर में जब दोनों वंचनाओं और विपत्तियों के बीच जी रहे थे।
जब आंबेडकर ने रमाबाई को लंदन से लिखा, दाने-दाने को हूं मोहताज
ऐसे दौर उनके जीवन में कई बार आए। पहली बार तब जब आंबेडकर 1920 में दूसरी बार अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए। जाने के पहले उन्होंने रमाबाई को घर का खर्च चलाने के लिए जो रकम दी थी, वह बहुत कम थी और बहुत ही जल्दी खर्च हो गई। उसके बाद उनका घर का खर्च रमाबाई के भाई-बहन की मजदूरी से चला। रमाबाई के भाई शंकरराव और छोटी-बहन मीराबाई-दोनों छोटी-मोटी मजूरी कर तक़रीबन आठ-दस आने (50-60 पैसे) रोज कमा पाते थे। उसी में रमाबाई बाजार से किराना सामान खरीद कर लातीं और रसोई पकाकर सबका पेट पालती थीं। इस तरह मुसीबत के ये दिन उन्होंने बड़ी तंगी में बिताए। कभी-कभी उनके परिवार के सदस्य आधे पेट खाकर ही सोते, तो कभी भूखे पेट ही। (वंसत मून, 1991 पृ.25)
इधर रमाबाई बच्चों और भाई-बहन के साथ आधे-पेट या भूखे रहकर जीवन गुजार रहीं थीं, तो उधर कमोवेश यही हालात डॉ. आंबेडकर के लंदन में भी थे। रमाबाई ने घर की इस आर्थिक हालात का वर्णन करते हुए एक पत्र उन्हें लिखा। जिसका जवाब इन शब्दों में आंबेडकर ने दिया–
लंदन, दिनांक 25 नवंबर 1921
प्रिय रामू,
नमस्ते।
पत्र मिला। गंगाधर (आंबेडकर पहला पुत्र) बीमार है, यह जाकर दुख हुआ। स्वयं पर विश्वास (भरोसा) रखो, चिंता करने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी पढ़ाई चल रही है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। पैसों की व्यवस्था कर रहा हूं। मैं भी यहां अन्न (दाने-दाने को) का मोहताज हूं। तुम्हें भेजने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी कुछ-न-कुछ प्रबंध कर रहा हूं। अगर कुछ समय लग जाए, या तुम्हारे पास के पैसे खत्म हो जाएं तो अपने जेवर बेचकर घर-गृहस्थी चला लेना। मैं तुम्हें नए गहने बनवा दूंगा। यशवंत और मुकुंद की पढ़ाई कैसी चल रही है, कुछ लिखा नहीं?
मेरी तबियत ठीक है। चिंता मत करना। अध्ययन जारी है। सखू और मंजुला के बारे में कुछ ज्ञात नहीं हुआ। तुम्हें जब पैसे मिल जाएं तो मंजूला और लक्ष्मी की मां को एक-एक साड़ी दे देना। शंकर के क्या हाल हैं? गजरा कैसी है?
सबको कुशल!
भीमाराव
(शहारे, अनिल, 2014, पृ. 57)
रमाबाई और डॉ. आंबेडकर ने एक साथ मिलकर समाज के लिए कितना और किस कदर कष्ट उठाया इसका वर्णन उन्होंने बहिष्कृत भारत की एक संपादकीय में भी किया है। उन्होंने इस बात विशेष जोर दिया है कि जिंदगी के एक बड़े हिस्सें में (जब आंबेडकर विदेशों में पढ़ाई कर रहे थे) गृहस्थी का सारा बोझ रमाबाई ने अपने कंधे पर उठा रखा था। जब आंबेडकर विदेश में पढ़ाई करके वापस आए। तब उसके बाद भी सामाजिक कामों में इस कदर लग गए कि उनके पास 24 घंटे में से आधा घंटा भी रमाबाई के लिए नहीं बचता था। रमाबाई उस वक्त भी गृहस्थी का सारा बोझ अकेले उठाती थीं। बस फर्क यह पड़ा था कि अब आंबेडकर आर्थिक सहायता करने की स्थिति में थे।
‘बहिष्कृत भारत’ के संपादकीय में रमाबाई को आंबेडकर ने किया याद
दोनों ने सामाजिक कार्यों के लिए अपने सुख-चैन की कितनी कुर्बानी दी, इसका वर्णन आंबेडकर ने इन शब्दों में किया है– “कौड़ी का फायदा न होते हुए जिसने एक वर्ष तक बहिष्कृत भारत के 24-24 कॉलम लिखकर जनजागृति का काम किया तथा उसे याद करते समय जिसने (आंबेडकर) अपने स्वास्थ्य, सुख, चैन व आराम की चिंता न करते हुए अपने आंखों की बाती बनाया, इतना ही नहीं, इस लेखक (आंबेडकर) के विदेश में रहते समय जिसने (रमाबाई) रात-दिन अपनी गृहस्थी का भार संभाला तथा आज भी वह संभाल रही है। यह लेखक (आंबेडकर) के परदेस से वापस आने पर अपनी (रमाबाई) विपन्नावस्था में अपने सिर पर गोबर के टोकरे ढोने के लिए जिसने आगे-पीछे नहीं देखा, ऐसी अत्यन्त ममतामयी, सुशील तथा पूज्य पत्नी के संपर्क में जिसे चौबीस घंटे में आधा घंटा भी साथ बिताने को नहीं मिला।” (प्रभाकर गजभिये, 2017 पृ.152)
यह संपादकीय ‘बहिष्कृत भारत’ समाचार-पत्र के एक वर्ष पूरे होने पर 3 फरवरी, 1928 ‘बहिष्कृत भारत का यह ऋण क्या लौकिक ऋण नहीं है?’ शीर्षक से लिखी गई थी।
इस संपादकीय में आंबेडकर ने रमाबाई को ममतामयी के मूर्त रूप में देखा है और उन्हें पूज्य जीवन-संगिनी के रूप में याद किया है। साथ ही इस बात पर दुख जताया है कि ऐसी पत्नी के साथ कुछ घंटे भी बिताने के लिए उनके पास नहीं हैं, जिसने जिंदगी में असह्य कष्ट उठाए हैं और असीम कुर्बानिया दी हैं।
आंबेडकर दंपति ने सहा चार-चार बच्चों के खोने का दर्द
रमाबाई और डॉ. आंबेडकर ने तीन पुत्रों और एक पुत्री को भी खोया। जब वे अमेरिका में अध्ययनरत थे, तब उनके पुत्र गंगाधर की मृत्यु हुई थी। उसके बाद यशवंत का जन्म हुआ। फिर रमेश, इंदू और राजरत्न का जन्म हुआ, लेकिन बाद की ये तीनों बच्चे भी काल के गाल में समा गए। चार-चार बच्चों की मौत ने रमाबाई और आंबेडकर को भीतर से तोड़ दिया। दोनों तड़प उठे और दुख के अथाह सागर में डूब गए। इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति डॉ. आंबेडकर द्वारा अपने मित्र दत्तोबा पवार को लिखे पत्र में हुई है। यह पत्र अंतिम संतान राजरत्न की मत्यु के बाद लिखा गया है। इस पत्र में आंबेडकर लिखते हैं– “पुत्र निधन से हम दोनों (रमाबाई और आंबेडकर) को जो आघात पहुंचा है, उसे अतिशीघ्र भूल पाना संभव नहीं है। अभी तक तीन पुत्र और एक पुत्री को श्मशान पहुंचाने का काम इन हाथों ने किया है। जब भी ये यादें सताती हैं, तो मन दुख से विचलित हो उठता है। उनके भविष्य के बारे में जो सोचा था, वह सब धराशायी हो गया। हमारे जीवन (रमाबाई और आंबेडकर) पर दुख के बादल मंडरा रहे हैं। बच्चों के निधन से हमारा जीवन ऐसे निस्वाद हो गया है, जैसे भोजन बिना नमक के हो जाता है। बाइबिल में कहा गया है, ‘तुम धरती का नमक हो। नमक का स्वाद ही गया तो, उसे खारा (नमकीन) कैसे बनाया जा सकता है? मेरे शून्य जीवन में इस वचन की सार्थकता सिद्ध होती है। मेरा अंतिम पुत्र असामान्य था। उसके जैसा पुत्र मैंने शायद ही देखा हो। उसके जाने से जीवन कांटों भरे बगीचे के समान हो गया। दुखी-पीड़ित अवस्था के कारण कुछ ज्यादा लिखा नहीं जा रहा है। दुख से व्यथित तुम्हारे मित्र का तुम्हें नमस्कार।” (शहारे, अनिल, 2014 पृ. 70)
मुंबई के मछली बाजार में हुई आंबेडकर और रमाबाई की शादी
“रमाबाई से डॉ. आंबेडकर की शादी 1908 में आंबेडकर के मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण होने के थोड़े ही दिनों के बाद हो गई थी। तब वे एल्फिंस्टन हाई स्कूल के छात्र थे। इसी दौरान ही उनके पिता रामजी सूबेदार ने भीमा की शादी भिकू वलंगकर की पुत्री रामीबाई के साथ संपन्न कर दी।… विवाह स्थल बम्बई (अब मुंबई) का भायखले बाजार (मछली बाजार) था। वहां के एक कोने में घराती इकट्ठा हुए। दूसरे कोने में बाराती इकट्ठा हुए। छप्पर के नीचे नाली से गंदा पानी बह रहा था। चबूतरे का इस्तेमाल बेंच के रूप में किया गया। बाजार के पूरे स्थल का इस्तेमाल-विवाह स्थल के रूप में किया गया।… रमाबाई अपने माता-पिता की सबसे छोटी बेटी थीं। उनके पिता का नाम भिकु धुत्रे था। दाभोल के समीप स्थित वनंद गांव के वह निवासी थे। वे दाभोल बंदरगाह में कुली का काम करते थे। रमाबाई के बचपन में ही उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। उनका और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी चाची और मामा ने किया था। उनके भाई का नाम शंकर धुत्रे था।” (धनंजय कीर, 2018 पृ. 23)
भले ही आंबेडकर का विवाह सन् 1908 में संपन्न हो गया था, लेकिन सही मायने में उनकी गृहस्थी बहुत बाद में शुरू हुई। जब आंबेडकर 1917 में लंदन से लौट कर मुंबई आए। घर में खुशी छा गई। उनकी पत्नी रमाबाई को लगा कि हम लोगों ने अब तक जो भी दुख भोगा है। वह समाप्त हो चुका है। हमारे साहेब नौकरी करके पैसा कमाएंगे और सभी को खुशहाली में रखेंगे।… रमाबाई को लगा था कि हमारे और भी बच्चे होंगे (पहला बच्चा गंगाधर की मृत्यु हो चुकी थी) और हमारा घर-संसार सुख-सुविधाओं से भरपूर होगा। (खैरमोड़े, 2016, पृ. 112)
लेकिन आंबेडकर कुछ और ही सोच रहे थे। वे इस बात से दुखी थे कि उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़कर बीच में ही लंदन से वापस आना पड़ा। परिवार में आने के कारण उनको जो आनंद मिला, उस पर उपरोक्त दुख (बीच में पढ़ाई छोड़कर आने का दुख) की काली छाया पड़ी हुई थी। (वही)
आंबेडकर के लंदन जाते ही रमाबाई पर टूटा दुखों का पहाड़
करीब दो-ढाई वर्षों तक रमाबाई के साथ रहने के बाद पुन: आंबेडकर अपनी पढ़ाई पूरी करने 1920 में लंदन चले गए। रमाबाई के साथ रहते हुए भी उनके साथ कितना रह पाए, इसका अंदाज तो इस बीच आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता से लगाया जा सकता है। 1920 में दुबारा पढ़ाई के लिए लंदन जाने के बाद रमाबाई के जीवन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, जिसका पता उनके पत्र के जवाब में 1921 आंबेडकर द्वारा लिखे पत्र से होती है, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। वे 1923 में भारत लौटे तब दोनों की जिंदगी थोड़ी पटरी पर लौटी। लेकिन आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गई, उन्हें संघर्ष के कई मोर्चों पर सक्रिय होना पड़ा। उनके पास रमाबाई के साथ बिताने के लिए 24 घंटे में आधे घंटे भी नहीं मिल पाते। इसका जिक्र उन्होंने बहिष्कृत भारत की संपादकीय में किया है।
रमाबाई के निधन के बाद बच्चे की तरह फूट-फूटकर रोए आंबेडकर
आंबेडकर के भारत आने के बाद भी उनके पास घर-गृहस्थी के लिए वक्त नहीं रहता। हां आर्थिक हालात थोड़ी संभली। लेकिन रमाबाई का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। इसके कारणों का जिक्र करते हुए आंबेडकर के जीवनीकार धनंजय कीर लिखते हैं– “बाबासाहब की पत्नी श्रीमती रमाबाई बीमार थीं। पिछले दस वर्षों में अपने परिवार का ध्यान देने के लिए बाबा साहब को समय कभी मिला ही नहीं। जब-जब उन्हें थोड़ा समय मिल जाता, तब-तब वे पारिवारिक बातों की ओर ध्यान देते। एक बार रमाबाई को हवा बदली करने के लिए धारवाड़ ले गए थे। लेकिन उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो पा रहा था।… पत्नी के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो इसके लिए बाबा साहब ने काफी प्रयास किए।” (धनंजय कीर, 2018 पृ. 237)। लेकिन इलाज का असर नहीं हो रहा था। धीरे-धीरे उनका शरीर कमजोर पड़ता गया। मृत्यु से पहले वे छह महीने तक बिस्तर पर रहीं। वैवाहिक जीवन के शुरुआती वर्षों में उन्हें लंबे समय तक भूखे या आधा पेट खाकर जीना पड़ा था। इस स्थिति ने उन्हें शारीरिक तौर पर तोड़ दिया चार-चार बच्चों की मौत ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था। अंत में साहेब की रामू उन्हें सदा-सदा के लिए छोड़कर 27 मई, 1935 को चली गईं। रमाबाई की मृत्यु के एक रात पहले ही आंबेडकर लौटे थे। उनकी मृत्यु के समय उनकी शैय्या के पास बैठे थे। भारी दिल से, गंभीर मुद्रा, विचार और दुख से व्याकुल मन: स्थिति के साथ वे शवयात्रा के साथ धीमे-धीमे चल रहे थे। श्मशान यात्रा से लौटने पर वह दुख से व्याकुल होकर कमरे में अकेले पड़े रहे। एक सप्ताह तक छोटे बच्चे की भांति वे फूट-फूटकर रोते रहे। (धनंजय कीर, 2018 पृ.239)।
रमाबाई के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर कई फिल्में बनाई गई हैं और नाटक भी लिखे गए हैं। मराठी में कुछ चर्चित किताबें भी उनके व्यक्तित्व पर रोशनी डालती हैं। जो निम्न हैं–
2011 में प्रकाश जाधव के निर्देशन में मराठी में ‘रमाबाई भीमराव आंबेडकर’ फिल्म बनी। जो पूरी तरह रमाबाई के व्यक्तित्व पर केंद्रित है।
2016 में एम. रंगानाथ के निर्देशन में कन्नड़ में ‘रमाई’ फिल्म बनी। इस फिल्म का केंद्रीय चरित्र भी रमाबाई हैं।
शशिकांत नालवाडे के निर्देशन में 1993 में बनी मराठी फिल्म ‘युगपुरुष डॉ. आंबेडकर’ में भी रमाबाई की भूमिका को रेखांकित किया गया है।
अंग्रेजी में जब्बार पटेल ने सन् 2000 में डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर नामक फिल्म बनाई। जिसमें रमाबाई के व्यक्तित्व को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
1990 में मराठी फिल्म ‘भीम गर्जना’ बनी। जिसका निर्देशन विजय पवार ने किया। इसमें भी आंबेडकर के जीवन में रमाबाई की भूमिका को प्रस्तुत किया गया है।
1992 में अशोक गवाली के निर्देशन में मराठी में चर्चित नाटक ‘रमाई’ सामने आया।
संदर्भ :
1. आंबेडकर, बी. आर.(2019). पाकिस्तान ऑर दी पार्टिशन ऑफ इंडिया। इन डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर राइटिंग्स एडं स्पीचेज, वाल्यूम,8, बाम्बे : गर्वमेंट ऑफ महाराष्ट्र
2. डॉ. बाबा साहब, आंबेडकर, वसंत मून, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली,1991
3. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की संघर्ष-यात्रा एवं संदेश, डॉ.म.ला. शहारे, डॉ. नलिनी अनिल, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
4. बहिष्कृत भारत’ में प्रकाशित, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के संपादकीय. अनुवादक, प्रभाकर गजभिये, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017
5. डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जीवन–चरित, धनंजय कीर, पापुलर प्रकाशन, मुबई, 2018
6. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, जीवन और चिंतन, भाग-1, चांगदेव भगवानराव खैरमोडे, अनुवाद,डॉ. विमलकीर्ती, सम्यक प्रकाशन, 2016, नई दिल्ली
(बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर: बहुजन नायक और नायिकाएं शीर्षक मेरी किताब का एक अध्याय है।)
कई मूवी रिव्यू पढ़ने और देखने के बाद कल रात कर्णन मूवी देखी। शुरू करने से पहले बॉलीवुड के अभिनेता, अभिनेत्रियों, निर्देशक, प्रोड्यूसर, स्क्रिप्ट राइटर, म्यूजिक आर्टिस्ट व फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े तमाम लोगों से एक आग्रह है कि वो अपने कीमती समय में से ढाई घंटे निकालकर एमेजॉन प्राइम पर कर्णन मूवी जरूर देखें ताकि पता चले कि इन विषयों पर भी स्क्रिप्ट लिखी जा सकती है, म्यूजिक बनाए जा सकते हैं, डायलॉग लिखे जा सकते हैं। बॉलीवुड को चलाने वाले कुछ चालाक दिमाग मे एक नेरेटिव गढ़ा हुआ है कि किसी भी फिल्म में मुख्य किरदार या तो दलित न हो यदि एक दो फिल्म में किसी दलित, वंचित को मुख्य किरदार में दिखाया भी जाए तो इतना दरिद्र, हीन, मूक बना देते हैं ताकि शान से रह रहे बहुजनों को भी यह देख कर शर्म आए। बॉलीवुड के दलित किरदार इतने गूंगे क्यों होते हैं? बॉलीवुड की फिल्में बहुजनों के जीवन पर कभी नहीं बनती, उनके ब्याह शादी, पहनावा, खान पान, काम धंधा, रहने सहने का तरीक़ा आदि पर कभी फिल्में नहीं बनती।
लेकिन यह झलक साउथ इंडियन फिल्मों में बखूबी देखने को मिलती है। उतनी मात्रा में तो वहां भी ऐसी फिल्में नहीं बनती लेकिन जो भी बनाई जाती है अपने आप में मास्टरपीस ही होती है। कुछ दिन पहले मैंने असुरन देखी, उसके बाद पेरियम पेरूमल और कल रात कर्णन देखी।
असुरन और पेरियम पेरूमल दोनों ही यूट्यूब पर उपलब्ध हैं और आप हिंदी में भी देख सकते हैं। ये तीनों ही फिल्में बहुजनों के जीवन पर आधारित है। फिल्म देखने पर लगता है कि ये कोई फिल्म नहीं बल्कि हर दिन घट रही सच्ची घटनाएं ही हैं।
कर्णन
कर्णन फिल्म में दलित एक अलग गांव में रहते हैं उनके यहां बसें भी नहीं रुकती क्योंकि यहां किसी और का दबदबा है। एक लड़की को कॉलेज छोड़ने जा रहे उसके पिता को बस स्टॉप पर बिना बात पीटा जाता है, अपमानित किया जाता है। सुख सुविधा के सारे तंत्र पैसे वालों के पास, साफ सुथरे व सफेद कपड़े पहनने वाले निर्मम व निष्ठुर लोगों के पास हैं। फिल्म में पढ़ाई को लेकर भी अच्छा संदेश डाला गया है। एक बहुजन युवा व इस फिल्म का मुख्य किरदार सीआरपीएफ में भर्ती हो जाता है। ज्वाइनिंग लेटर देखते ही सारे गांव वाले खुशी के मारे झूम उठते हैं। उन सबको विश्वास है कि यही हमारे लिए कुछ अच्छा कर सकता है।
फिल्म में गांव वाले किसी बिना सिर वाली मूर्ति की पूजा करते हैं। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि वह मूर्ति बुद्ध की हो सकती है क्योंकि खुदाई में अधिकतर बुद्ध की मूर्ति बिना सिर के मिली हैं। आपस में होने वाली छोटी छोटी नोंक झोंक को बखूबी दिखाया गया है। इसके अलावा फिल्म में गधा, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता, सुअर, बाज, मुर्गा, मछली, केंचुए आदि के सीन इतने रोचक तरीके से उकेरे गए हैं कि लगता है इनके बिना यह फिल्म अधूरी ही है। वो सब बिना डायलॉग बोले भी चीख रहे हैं। फिल्म देखने पर पता लगेगा कि कोई भी भाषा संप्रेषण में बाधा नहीं बन सकती। यह फिल्म तमिल में है व अंग्रेज़ी सबटाइटल उपलब्ध हैं लेकिन इसके विजुअल्स और म्यूजिक ऐसे हैं कि बिना तमिल जाने भी सब समझ आते हैं। खुशी के गानों में साथ थिरकने का मन करता है और मातम के गीत में साथ में आंसू बहाने का मन होता है।
फिल्म की सबसे अच्छी व खूबसूरत बात यह है कि डायलॉग से ज्यादा विजुअल्स मन मस्तिष्क को कुरेदते हैं, अंदर तक झकझोर के रख देते हैं। करीब हर टर्निंग प्वाइंट पर छोटी बच्ची को मुखोटा पहने दिखाना लेखक व निर्देशक के रचनात्मक दिमाग का परिचय कराता है। फिल्म बनाने वाली पूरी टीम को बधाई। ऐसी फिल्में जरूर देखनी चाहिए।
इस आलेख के लेखक रवि संबरवाल (कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र) हैं। उनसे संपर्क 8607013480 पर कर सकते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध के सबसे पुराने और सबसे शातिर दुश्मनों को आप आसानी से पहचान सकते हैं। यह दिन बहुत ख़ास है इस दिन आँखें खोलकर चारों तरफ देखिये। बुद्ध की मूल शिक्षाओं को नष्ट करके उसमे आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की बकवास भरने वाले बाबाओं को आप काम करता हुआ आसानी से देख सकेंगे।
भारत में तो ऐसे त्यागियों, योगियों, रजिस्टर्ड भगवानों और स्वयं को बुद्ध का अवतार कहने वालों की कमी नहीं है। जैसे इन्होंने बुद्ध को उनके जीते जी बर्बाद करना चाहा था वैसे ही ढंग से आज तक ये पाखंडी बाबा लोग बुद्ध के पीछे लगे हुए हैं। बुद्ध पूर्णिमा के दिन भारत के वेदांती बाबाओं सहित दलाई लामा जैसे स्वघोषित बुद्ध अवतारों को देखिये। ये विशुद्ध राजनेता हैं जो अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए बुद्ध की शिक्षाओं को उल्टा सीधा तोड़ मरोड़कर उसमें आत्मा परमात्मा घुसेड देते हैं।
भारत के एक फाइव स्टार रजिस्टर्ड भगवान्, ‘भगवान् रजनीश’ ने तो दावा कर ही दिया था कि बुद्ध उनके शरीर में आकर रहे, इस दौरान उनके भक्तों ने प्रवचनों के दौरान उन्हें बुद्ध के नाम से ही संबोधित किया लेकिन ये “परीक्षण” काम नहीं किया और भगवान रजनीश ने खुद को बुद्ध से भी बड़ा बुद्ध घोषित करते हुए सब देख भालकर घोषणा की कि “बुद्ध मेरे शरीर में भी आकर एक ही करवट सोना चाहते हैं, आते ही अपना भिक्षा पात्र मांग रहे हैं, दिन में एक ही बार नहाने की जिद करते हैं” ओशो ने आगे कहा कि बुद्ध की इन सब बातों के कारण मेरे सर में दर्द हो गया और मैंने बुद्ध को कहा कि आप अब मेरे शरीर से निकल जाइए।
जरा गौर कीजिये। ये ‘भगवान् रजनीश’ जैसे महागुरुओं का ढंग है बुद्ध से बात करने का। और कहीं नहीं तो कम से कम कल्पना और गप्प में ही वे बुद्ध का सम्मान कर लेते लेकिन वो भी इन धूर्त बाबाजी से न हो सका। आजकल ये बाबाजी और उनके फाइव स्टार शिष्य बुद्ध के अधिकृत व्याख्याता बने हुए हैं और बहुत ही चतुराई से बुद्ध की शिक्षाओं और भारत में बुद्ध के साकार होने की संभावनाओं को खत्म करने में लगे हैं। इसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि दलित बहुजन समाज के और अंबेडकरवादी आन्दोलन के लोग भी इन जैसे बाबाओं से प्रभावित होकर अपने और इस देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।
इस बात को गौर से समझना होगा कि भारतीय वेदांती बाबा किस तरह बुद्ध को और उनकी शिक्षाओं को नष्ट करते आये हैं। इसे ठीक से समझिये। बुद्ध की मूल शिक्षा अनात्मा की है। अर्थात कोई ‘आत्मा नहीं होती’। जैसे अन्य धर्मों में इश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म होता है वैसे बुद्ध के धर्म में ईश्वर आत्मा और पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं है। बुद्ध के अनुसार हर व्यक्ति का शरीर और उसका मन मिलकर एक आभासी स्व का निर्माण करता है जो अनेकों अनेक गुजर चुके शरीरों और मन के अवशेषों से और सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आदि आदि कारकों के प्रभाव से बनता है, ये शुद्धतम भौतिकवादी निष्पत्ति है।
किसी व्यक्ति में या जीव में कोई सनातन या अजर अमर आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। और इसी कारण एक व्यक्ति का पुनर्जन्म होना एकदम असंभव है। जो लोग पुनर्जन्म के दावे करते हैं वे बुद्ध से धोखा करते हैं। इस विषय में दलाई लामा का उदाहरण लिया जा सकता है। ये सज्जन कहते हैं कि वे पहले दलाई लामा के तेरहवें या चौदहवें अवतार हैं और हर बार खोज लिए जाते हैं।
अगर इनकी बात मानें तो इसका मतलब हुआ कि इनके पहले के दलाई लामाओं का सारा संचित ज्ञान, अनुभव और बोध बिना रुकावट के इनके पास आ रहा है। सनातन और अजर-अमर आत्मा के पुनर्जन्म का तकनीकी मतलब यही होता है कि अखंडित आत्मा अपने समस्त संस्कारों और प्रवृत्तियों के साथ अगले जन्म में जा रही है। अब इस दावे की मूर्खता को ठीक से देखिये। ऐसे लामा और ऐसे दावेदार खुद को किसी अन्य का पुनर्जन्म बताते हैं लेकिन ये गजब की बात है कि इन्हें हर जन्म में शिक्षा दीक्षा और जिन्दगी की हर जरुरी बात को ए बी सी डी से शुरू करना पड़ता है।
भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि ही नहीं बल्कि इनका अपना पालतू विषय– अध्यात्म और ध्यान भी किसी नए शिक्षक से सीखना होता है। अगर इनका पुनर्जन्म का दावा सही है तो अपने ध्यान से ही इन चीजों को पिछले जन्म से ‘री-कॉल’ क्यों नहीं कर लेते? आपको भी स्पेशल ट्यूटर रखने होते हैं तो एक सामान्य आदमी में और इन अवतारों में क्या अंतर है?
इस बात को ठीक से देखिये। इससे साफ़ जाहिर होता है कि अवतार की घोषणा असल में एक राष्ट्राध्यक्ष के राजनीतिक पद को वैधता देने के लिए की जाती है। जैसे ही नया नेता खोजा जाता है उसे पहले वाले का अवतार बता दिया जाता है इससे असल में जनता में उस नेता या राजा के प्रति पैदा हो सकने वाले अविश्वास को खत्म कर दिया जाता है या उस नेता या राजा की क्षमता पर उठने वाले प्रश्न को भी खत्म कर दिया जाता है। जनता इस नये नेता को पुराने का पुनर्जन्म मानकर नतमस्तक होती रहती है और शिक्षा, रोजगार, विकास, न्याय आदि का प्रश्न नहीं उठाती, इसी मनोविज्ञान के सहारे ये गुरु सदियों सदियों तक गरीब जनता का खून चूसते हैं।
यही भयानक राजनीति भारत में अवतारवाद के नाम पर हजारों साल से खेली जाती रही है। इसी कारण तिब्बत जैसा खुबसूरत मुल्क अन्धविश्वासी और परलोकवादी बाबाओं के चंगुल में फंसकर लगभग बर्बाद हो चुका है। वहां न शिक्षा है न रोजगार है न लोकतंत्र या आधुनिक समाज की कोई चेतना बच सकी है। अब ये लामा महाशय तिब्बत को बर्बाद करके धूमकेतु की तरह भारत में घूम रहे हैं और अपनी बुद्ध विरोधी शिक्षाओं से भारत के बौद्ध आन्दोलन को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं। भारत के बुद्ध प्रेमियों को ओशो रजनीश जैसे धूर्त वेदान्तियों और दलाई लामा जैसे अवसरवादी राजनेताओं से बचकर रहना होगा।
डॉ. अंबेडकर ने हमें जिस ढंग से बुद्ध और बौद्ध धर्म को देखना सिखाया है उसी नजरिये से हमे बुद्ध को देखना होगा। और ठीक से समझा जाए तो अंबेडकर जिस बुद्ध की खोज करके लाये हैं वही असली बुद्ध हैं। ये बुद्ध आत्मा और पुनर्जन्म को सिरे से नकारते हैं। लेकिन भारतीय बाबा और फाइव स्टार भगवान लोग एकदम अलग ही खिचड़ी पकाते हैं। ये कहते हैं कि सब संतों की शिक्षा एक जैसी है, सबै सयाने एकमत और फिर उन सब सयानों के मुंह में वेदान्त ठूंस देते हैं। कहते हैं बुद्ध ने आत्मा और परमात्मा को जानते हुए भी इन्हें नकार दिया क्योंकि वे देख रहे थे कि आत्मा परमात्मा के नाम पर लोग अंधविश्वास में गिर सकते थे।
यहाँ दो सवाल उठते हैं, पहला ये कि क्या बुद्ध ने स्वयं कहीं कहा है कि उन्होंने आत्मा परमात्मा को जानने के बाद भी उसे नकार दिया? दुसरा प्रश्न ये है कि बुद्ध अंधविश्वास को हटाने के लिए ऐसा कर रहे थे तो अन्धविश्वास का भय क्या उस समय की तुलना में आज एकदम खत्म हो गया है? दोनों सवालों का एक ही उत्तर है– “नहीं”।
गौतम बुद्ध कुटिल राजनेता या वेदांती मदारी नहीं हैं। वे एक इमानदार क्रांतिचेता और मनोवैज्ञानिक की तरह तथ्यों को उनके मूल रूप में रख रहे हैं। उनका अनात्मा का अपना विशिष्ठ दर्शन और विश्लेषण है। उसमे वेदांती ढंग की सनातन आत्मा का प्रक्षेपण करने वाले गुरु असल में बुद्ध के मित्र या हितैषी नहीं बल्कि उनके सनातन दुश्मन हैं।
आजकल आप किसी भी बाबाजी के पंडाल या ध्यान केंद्र में चले जाइए। या यहीं फेसबुक पर ध्यान की बकवास पिलाने वालों को देख लीजिये। वे कृष्ण और बुद्ध को एक ही सांस में पढ़ाते हैं, ये गजब का अनुलोम विलोम है। जबकि इनमे थोड़ी भी बुद्धि हो तो समझ आ जाएगा कि बुद्ध आत्मा को नकारते हैं और कृष्ण आत्मा को सनातन बताते हैं, कृष्ण और बुद्ध दो विपरीत छोर हैं।
लेकिन इतनी जाहिर सी बात को भी दबाकर ये बाबा लोग अपनी दूकान कैसे चला लेते हैं? लोग इनके झांसे में कैसे आ जाते हैं? यह बात गहराई से समझना चाहिए।
असल में ये धूर्त लोग भारतीय भीड़ की गरीबी, कमजोरी, संवादहीनता, कुंठा, अमानवीय शोषण, जातिवाद आदि से पीड़ित लोगों की सब तरह की मनोवैज्ञानिक असुरक्षाओं और मजबूरियों का फायदा उठाते हैं और तथाकथित ध्यान या समाधि या चमत्कारों के नाम पर मूर्ख बनाते हैं। इन बाबाओं की किताबें देखिये, आलौकिक शक्तियों के आश्वासन और अगले जन्म में इस जन्म के अमानवीय कष्ट से मुक्ति के आश्वासन भरे होते हैं।
इनका मोक्ष असल में इस जमीन पर बनाये गये अमानवीय और नारकीय जीवन से मुक्त होने की वासना का साकार रूप है। इस काल्पनिक मोक्ष में हर गरीब शोषित इंसान ही नहीं बल्कि हराम का खा खाकर अजीर्ण, नपुंसकता और कब्ज से पीड़ित हो रहे राजा और सामंत भी घुस जाना चाहते हैं।
आत्मा को सनातन बताकर गरीब को उसके आगामी जन्म की विभीषिका से डराते हैं और अमीर को ऐसे ही जन्म की दुबारा लालच देकर उसे फंसाते हैं, इस तरह इस मुल्क में एक शोषण का सनातन साम्राज्य बना रहता है। और शोषण का ये अमानवीय ढांचा एक ही बिंदु पर खड़ा है वह है – सनातन आत्मा का सिद्धांत।
इसके विपरीत बुद्ध ने जिस निर्वाण की बात कही है या बुद्ध ने जिस तरह की अनत्ता की टेक्नोलोजी दी है और उसका जो ऑपरेशनल रोडमेप दिया है उसके आधार पर यह स्थापित होता है कि आत्मा यानी व्यक्तित्व और स्व जैसी किसी चीज की कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है।
यह एक कामचलाऊ स्व या व्यक्तित्व है जो आपने अपने जन्म के बाद के वातावरण में बहुत सारी कंडीशनिंग के प्रभाव में पैदा किया है, ये आपने अपने हाथ से बनाया है और इसे आप रोज बदलते हैं।
आप बचपन में स्कूल में जैसे थे आज यूनिवर्सिटी में या कालेज में या नौकरी करते हुए वैसे ही नहीं हैं, आपका स्व या आत्म या तथाकथित आत्मा रोज बदलती रही है। शरीर दो पांच दस साल में बदलता है लेकिन आत्मा या स्व तो हर पांच मिनट में बदलता है। इसी प्रतीति और अनुभव के आधार पर ध्यान की विधि खोजी गयी।
बुद्ध ने कहा कि इतना तेजी से बदलता हुआ स्व – जिसे हम अपना होना या आत्मा कहते हैं – इसी में सारी समस्या भरी हुयी है। इसीलिये वे इस स्व या आत्मा को ही निशाने पर लेते हैं। बुद्ध के अनुसार यह स्व या आत्मा एक कामचलाऊ धारणा है, ये आत्म सिर्फ इस जीवन में लोगों से संबंधित होने और उनके साथ समाज में जीने का उपकरण भर है।
इस स्व या आत्म की रचना करने वाले शरीर, कपड़े, भोजन, शिक्षा और सामाजिक धार्मिक प्रभावों को अगर अलग कर दिया जाए तो इसमें अपना आत्यंतिक कुछ भी नहीं है। यही अनात्मा का सिद्धांत है। यही आत्मज्ञान है। बुद्ध के अनुसार एक झूठे स्व या आत्म के झूठेपन को देख लेना ही आत्मज्ञान है।
लेकिन वेदांती बाबाओं ने बड़ी होशियारी से बुद्ध के मुंह में वेदान्त ठूंस दिया है और इस झूठे अस्थाई स्व, आत्म या आत्मा को सनातन बताकर बुद्ध के आत्मज्ञान को ‘सनातन आत्मा के ज्ञान’ के रूप में प्रचारित कर रखा है। अगर आप इस गहराई में उतरकर इन बाबाओं और उनके अंधभक्तों से बात करें तो वे कहते हैं कि ये सब अनुभव का विषय है इसमें शब्दजाल मत रचिए।
ये बड़ी गजब की बात है। बुद्ध की सीधी सीधी शिक्षा को इन्होने न जाने कैसे कैसे श्ब्द्जालों और ब्रह्म्जालों से पाट दिया है और आदमी कन्फ्यूज होकर जब दिशाहीन हो जाता है तो ये उसे तन्त्र मन्त्र सिखाकर और भयानक कंडीशनिंग में धकेल देते हैं। इसकी पड़ताल करने के लिए इनकी गर्दन पकड़ने निकलें तो ये कहते हैं कि ये अनुभव का विषय है। इनसे फिर खोद खोद कर पूछिए कि आपको क्या अनुभव हुआ ? तब ये जलेबियाँ बनाने लगते हैं। ये इनकी सनातन तकनीक है।
असल में सनातन आत्मा सिखाने वाला कोई भी अनुशासन एक धर्म नहीं है बल्कि ये एक बल्कि राजनीती है। इसी हथकंडे से ये सदियों से समाज में सृजनात्मक बातों को उलझाकर नष्ट करते आये हैं। भक्ति भाव और सामन्ती गुलामी के रूप में उन्होंने जो भक्तिप्रधान धर्म रचा है वो असल में भगवान और उसके प्रतिनिधि राजा को सुरक्षा देता आया है।
यही बात है कि हस्ती मिटती नहीं इनकी, इस भक्ति में ही सारा जहर छुपा हुआ है। इसी से भारत में सब तरह के बदलाव रोके जाते हैं। और इतना ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में अनात्मा के अभ्यास या ज्ञान से जो स्पष्टता और समाधि (बौद्ध समाधी)फलित हो सकती है वह भी असंभव बन जाती है।
ये पाखंडी गुरु एक तरफ कहते हैं कि मैं और मेरे से मुक्त हो जाना ही ध्यान, समाधि और मोक्ष है और दूसरी तरफ इस मैं और मेरे के स्त्रोत– इस सनातन आत्मा– की घुट्टी भी पिलाए जायेंगे। एक हाथ से जहर बेचेंगे दुसरे हाथ से दवाई। एक तरफ मोह माया को गाली देंगे और अगले पिछले जन्म के मोह को भी मजबूत करेंगे।
एक तरह शरीर, मन और संस्कारों सहित आत्मा के अनंत जन्मों के कर्मों की बात सिखायेंगे और दुसरी तरफ अष्टावक्र की स्टाइल में ये भी कहेंगे कि तू मन नहीं शरीर नहीं आत्मा नहीं, तू खुद भी नहीं ये जान ले और अभी सुखी हो जा।
ये खेल देखते हैं आप? ले देकर आत्मभाव से मुक्ति को लक्ष्य बतायेंगे और साथ में ये भी ढपली बजाते रहेंगे कि आत्मा अजर अमर है हर जन्म के कर्मों का बोझ लिए घूमती है।
अब ऐसे घनचक्कर में इन बाबाओं के सौ प्रतिशत लोग उलझे रहते हैं, ये भक्त अपने बुढापे में भयानक अवसाद और कुंठा के शिकार हो जाते हैं। ऐसे कई बूढों को आप गली मुहल्लों में देख सकते हैं। इनके जीवन को नष्ट कर दिया गया है। ये इतना बड़ा अपराध है जिसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। दुर्भाग्य से अपना जीवन बर्बाद कर चुके ये धार्मिक बूढ़े अब चाहकर भी मुंह नहीं खोल सकते।
लेकिन बुद्ध इस घनचक्कर को शुरू होने से पहले ही रोक देते हैं। बुद्ध कहते हैं कि ऐसी कोई आत्मा होती ही नहीं इसलिए इस अस्थाई स्व में जो विचार संस्कार और प्रवृत्तियाँ हैं उन्हें दूर से देखा जा सकता है और जितनी मात्रा में उनसे दूरी बनती जाती है उतनी मात्रा में निर्वाण फलित होता जाता है।
निर्वाण का एक अर्थ है जमा अर्थ ‘नि+वाण’ है अर्थात चित्त की प्रवृत्तियों और मन की तृष्णा का मिट जाना, उनकी खोज और तड़प का मिट जाना। अगर आप किसी विचार या योजना या अतीत या भविष्य का बोध लेकर घूम रहे हैं तो आप ‘वाण’ की अवस्था में हैं अगर आप अनंत पिछले जन्मों और अनंत अगले जन्मों द्वारा दी गयी दिशा और उससे जुडी मूर्खता को त्याग दें तो आप अभी ही ‘निर्वाण’ में आ जायेंगे।
लेकिन ये धूर्त फाइव स्टार भगवान् और इनके जैसे वेदांती बाबा इतनी सहजता से किसी को मुक्त नहीं होने देते। वे बुद्ध और निर्वाण के दर्शन को भी धार्मिक पाखंड की राजनीति का हथियार बना देते हैं और अपने भोग विलास का इन्तेजाम करते हुए करोड़ों लोगों का जीवन बर्बाद करते रहते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर इन बातों को गहराई से समझिये और दूसरों तक फैलाइये। एक बात ठीक से नोट कर लीजिये कि भारत में गरीबॉन, दलितों, मजदूरों, स्त्रीयों और आदिवासियों के लिए बुद्ध का अनात्मा का और निरीश्वरवाद का दर्शन बहुत काम का साबित होने वाला है।
बुद्ध का निरीश्वरवाद और अनात्मवाद असल में भारत के मौलिक और ऐतिहासिक भौतिकवाद से जन्मा है। ऐसे भौतिकवाद पर आज का पूरा विज्ञान खड़ा है और भविष्य में एक स्वस्थ, नैतिक और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण भी इसी भौतिकवाद की नींव पर होगा। आत्मा इश्वर और पुनर्जन्म जैसी भाववादी या अध्यात्मवादी बकवास को जितनी जल्दी दफन किया जाएगा उतना ही इस देश का और इंसानियत का फायदा होगा।
अब शेष समाज इसे समझे या न समझे, कम से कम भारत के दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और शूद्रों (ओबीसी) सहित सभी मुक्तिकामियों को इसे समझ लेना चाहिए। इसे समझिये और बुद्ध के मुंह से वेदान्त बुलवाने वाले बाबाओं और उनके शीशों के षड्यंत्रों को हर चौराहे पर नंगा कीजिये। इन बाबाओं के षड्यंत्रकारी सम्मोहन को कम करके मत आंकिये।
ये बाबा ही असल में भारत में समाज और सरकार को बनाते बिगाड़ते आये हैं। अगर आप ये बात अब भी नहीं समझते हैं तो आपके लिए और इस समाज के लिए कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए आपसे निवेदन है कि बुद्ध को ठीक से समझिये और दूसरों को समझाइये।
डॉक्टरों के संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी IMA से उलझना बाबा रामदेव को भारी पर गया है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) उत्तराखंड ने रामदेव को 1000 करोड़ रुपये का मानहानि नोटिस भेजा है। साथ ही नोटिस में रामदेव से अगले 15 दिन में उनके बयान का खंडन, वीडियो और लिखित दोनों रूप में जारी कर माफी मांगने को कहा है। आईएमए ने रामदेव की कोरोनिल किट पर भी गंभीर सवाल उठाया है।
दरअसल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने रामदेव के उस बयान को गंभीरता से लिया है, जिसमें उन्होंने एलोपैथी पद्धति और इसके डॉक्टरों का मजाक उड़ाया था।
आईएमए (उत्तराखंड) के सचिव अजय खन्ना ने अपने वकील नीरज पांडे के माध्यम से रामदेव को छह पन्नों का एक नोटिस भेजा है जिसमें कहा गया है कि योग गुरु की टिप्पणियों ने एलोपैथी और आईएमए से जुड़े 2000 से ज़्यादा डॉक्टरों की छवि और इज़्ज़त को नुक़सान पहुंचाया है। नोटिस में कहा गया है कि रामदेव अगर 15 दिन के अंदर वीडियो और लिखित माफी नहीं मांगते हैं तो उनसे 1000 करोड़ रुपये की मांग की जाएगी।
रामदेव को बड़ा झटका देते हुए आईएमए ने कोरोनिल किट को 72 घंटे के अंदर सभी स्थानों से हटाने को कहा है, जिसको रामदेव कोविड वैक्सीन के बाद होने वाले साइड इफेक्ट पर प्रभावी बताते हैं। आईएमए ने इस दावे और विज्ञापन को भ्रामक बताया है। आईएमए ने रामदेव को चेतावनी दी है कि कोरोनिल को बाजार से नहीं हटाने पर रामदेव के ख़िलाफ़ एफ़आईआर और आपराधिक मुक़दमा दर्ज करवाया जाएगा।
आईएमए और रामदेव के बीच विवाद उस बयान से शुरू हुआ, जिसमें रामदेव ने कहा था कि एलोपैथिक दवाएं खाने से लाखों लोगों की मौत हुई है। उन्होंने एलोपैथी को स्टुपिड और दिवालिया साइंस कह दिया था। हालांकि इस पर विवाद बढ़ने और केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के कड़े ऐतराज के बाद रामदेव ने अपना बयान वापस ले लिया था। लेकिन उन्होंने डॉक्टरों पर तंज कसना नहीं छोड़ा। उन्होंने पलटवार करते हुए एलोपैथ के डॉक्टरों से 25 सवाल पूछ डाले। इसके बाद मामला और बिगड़ गया है।
रामदेव की टिप्पणियों को आईपीसी की धारा 499 के तहत ‘आपराधिक कार्य’ बताते हुए नोटिस में कहा गया है कि इसे पाए जाने के 15 दिनों के अंदर लिखित माफ़ी मांगी जाए वरना आईएमए के प्रत्येक सदस्य को 50 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाए, जिसकी कुल रकम 1000 करोड़ बनती है।
अस्पताल आने पर दुःख इतना दिख रहा कि मुझे अपनी बीमारी की परवाह ख़त्म हो गई।
दूर दूर से प्राण निकालने वाली खांसियों की चीत्कार दीवारों से टकराकर चली आ रही है। मन ही मन बीमार की शांति के लिए प्रार्थना करता हूँ। बगल के बेड पर कृत्रिम आक्सीजन के सहारे लेटा बीस साल का नौजवान रह रह कर चिहुंक जा रहा। उसके पिता पंखा झलते हुए बेटा बेटा पुकार रहे।
हम दोनों नोएडा की अलग-अलग दिशाओं से आज ही यहाँ भर्ती हुए हैं। नौजवान बेहद निराश था। खाना पानी छोड़ रखा था। उसे लगातार मोटिवेट किया। अब वह सही है। जो कुछ मैं खा रहा, उसे भी खिलवा रहा। पानी यहाँ ऐसे वितरित किया जा रहा है जैसे सामूहिक भोज में बच्चे पानी पानी चिल्लाकर पूछते हैं। मोबाइल रख ख़ाली जग लेकर गेट की तरफ़ हम लोग दौड़ लगाए। आदेश हुआ नीचे रख कर पीछे हट जाओ। दोनों जग भर दिए गए।
कमरे में पंखा नहीं है। गर्मी उमस से बुरा हाल है। घर से मँगवाओ तो लग जाएगा। बीस आए थे, लग गए। डाक्टरनी अभी बोल के गई है। शुक्र मनायिए कि सरकारी बेड पर हूँ। दूसरों को तो ये भी मयस्सर नहीं। सोच कर तसल्ली देता हूँ। बुख़ार क्यों नहीं जा रहा, ये पता करने के लिए कल ब्लड टेस्ट होगा। हम भी यहाँ आकर निश्चिंत भाव से पड़ गया हूँ। जो होगा देखा जाएगा। जीवन मौत के बीच का झीना सा पर्दा यहाँ साक्षात दिखता है। डाक्टर और स्टाफ़ दर्शक दीर्घा में बैठे हैं। मरीज मनोरंजन दे रहा है।
किसी का चीत्कार किसी का मनोरंजन है। कोरोना का ट्वेंटी ट्वेंटी चल रहा है। हम कुछ समय के लिए थर्ड अंपायर बन गया हूँ। हलचल खूब है। कब किसकी क्या भूमिका हो जाए, कुछ नहीं पता। गहरी साँस लेकर मन को उन्मुक्त उदात्त बना छोड़ दिया हूँ। हर स्थिति के लिए तैयार! इस तैयारी से तनाव शेष नहीं रह जाता। फ़िलहाल ऑक्सीजन लगाने की स्थिति नहीं आई है।
ये तो तय है कि बहुत से लोग जो महामारी से बुरी तरह लड़कर जी जाएँगे, बुद्ध बन जाएँगे।
वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया वेबसाइट भड़ास4मीडिया के संस्थापक/संचालक यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से
कर्नाटक के चिकमंगलूर में एक दलित युवक ने पुलिस पर बर्बरता का आरोप लगाया है। दलित व्यक्ति का कहना है कि गोनीबीड़ू पुलिस स्टेशन के सब-इंस्पेक्टर ने उसे थाने के अंदर पहले जमकर पीटा और पूछताछ के दौरान पानी मांगने पर उसे जबरन पेशाब पिलाया। युवक ने इसकी शिकायत राज्य के डीजीपी से की। इसके बाद डीजीपी ने मामले का संज्ञान लेते हुए मामला दर्ज कर जांच के आदेश दिए। मामले की छानबीन के बाद पुलिस एसआई को निलंबित कर दिया गया है।
गोनीबीड़ू पुलिस थाना क्षेत्र के दलित समाज के पुनीत ने दारोगा पर आरोप लगाया कि पुलिस ने उसे 10 मई को केवल ग्रामीणों की मौखिक शिकायतों के आधार पर हिरासत में लिया था। उस पर आरोप लगाया गया था कि वह एक महिला से बात कर रहा था और इससे गांव वाले नाराज हो गए। पुनीत के मुताबिक,”मुझे थाने ले जाया गया और वहां पीटा गया और मेरे हाथ-पैर बांध दिए गए। मैं प्यासा था, पानी मांग रहा था, प्यास से मरने जैसी हालत हो गई, लेकिन उन्होंने (पुलिसकर्मी) चेतन नाम के एक दूसरे आरोपी को मुझ पर पेशाब करने के लिए बुला लिया।”
पुनीत ने कहा कि गांव वालों से बचाने के लिए मैंने ही पुलिस को बुलाया था, लेकिन पुलिस ने मुझे ही हिरासत में ले लिया और थाने लाकर मेरे साथ बदसलूकी थी। व्यक्ति ने आगे कहा कि उन्होंने मुझे छोड़ने के बदले जबरन पेशाब पिलाया, उसके बाद ही मुझे बाहर आने दिया। व्यक्ति ने कहा कि पुलिस ने मुझे पीटते हुए मेरे दलित समुदाय को गाली भी दी।
पुनीत ने अब राज्य के गृह मंत्री, पुलिस प्रमुख डीजीपी प्रवीण सूद और मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर इस तरह के अमानवीय कृत्य पर न्याय की मांग की। डीजीपी ने इन आरोपों पर गंभीरता से संज्ञान लेते हुए सब-इंस्पेक्टर के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दे दिए। मामले की सच्चाई सामने आने के बाद आईजीपी (पश्चिमी रेंज) ने आरोपी पुलिसकर्मी को निलंबित कर दिया गया है। निश्चित तौर पर इस मामले में स्थानीय पुलिस बधाई की पात्र है, जिन्होंंने बिना पक्षपात के जांच कर अपने ही विभाग के आरोपी पुलिसकर्मी को निलंबति कर दिया।
(रिपोर्ट- नागमणि) बिहार के छपरा (सारण) जिले के गड़खा में एक सार्वजनिक चापाकल से पानी लेने के कारण गांव के एक भूमिहार और साहू (बनिया-तेली) जाति के लोगों ने दलितों के साथ मारपीट की। उन्हें पीटकर अधमरा कर दिया। इसमें से एक व्यक्ति की मौत हो गई है। 12 मई को घटी यह घटना गड़खा के भेल्दी थाना क्षेत्र के मौलानापुर गांव की है।
इस मामले में पीड़ित पक्ष द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत में कहा गया है कि 12 मई को भेल्दी थाना क्षेत्र के मौलानापुर गांव निवासी शिवप्रसाद राम के घर के लोग सार्वजनिक चापाकल पर शौच के बाद हाथ धो रहे थे। तभी गांव का ही जातिवादी भूमिहार रंजीत कुमार द्विवेदी वहां आ गया और उन्हें भला बुरा कहने लगा। उसके उकसावे पर गांव के ही बनिया-तेली समाज के प्रमोद साह, संतोष साह, पंकज शाह, शकुंतला देवी, नागेंद्र साह, मीना देवी, श्रवण साह, विलास, जिखम कुंअर, सुबोध साह, बृजेश महतो समेत अन्य लोग मिलकर दलितों के साथ मारपीट करने लगे और जाति सूचक गाली देने लगे। चूंकि चापाकल सार्वजनिक था तो दलितों ने विरोध किया।
विरोध करने पर जातिवादियों ने लाठी-डंडा और फरसा जैसे हथियारों से दलितों पर हमला कर दिया। इसमें शिव प्रसाद राम, चंदन कुमार राम, सिकंदर राम, विवेक कुमार राम, सरोज देवी और पन्ना देवी घायल हो गए। इन्हें इलाज के लिए गड़खा CHC ले जाया गया, जहां चिकित्सकों ने सदर अस्पताल छपरा रेफर कर दिया। छपरा में कुछ लोगों का इलाज हुआ एवं गंभीर स्थिति को देखते हुए 3 लोगों को PMCH पटना रेफर कर दिया गया। PMCH में इलाज के क्रम में शनिवार को शिव प्रसाद राम की मौत हो गई।
पोस्टमार्टम के बाद शव जैसे ही गांव पहुंचा, ग्रामीणों ने NH-722 पर मौलानापुर के पास सड़क जाम कर दिया। घटना की सूचना मिलने के बाद भेल्दी पुलिस मढ़ौरा इंस्पेक्टर समेत गड़खा विधायक सुरेन्द्र राम पहुंच गए। उन्होंने आक्रोशित ग्रामीणों को समझा-बुझाकर शांत कराया। पुलिस ने आक्रोशित ग्रामीणों की SP से बात कराई तथा SC एक्ट के तहत कार्रवाई करने, सभी आरोपियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने तथा घर की कुर्की-जब्ती करने का आश्वासन दिया था। जिसके बाद ग्रामीणों ने जाम हटाया। हालांकि खबर लिखे जाने तक इस मामले में अब तक किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी या अन्य कार्रवाई होने की सूचना नहीं है।
जन जागरूकता कहें, प्रशासनिक सफलता कहें या फिर शानदार नेतृत्व, कोरोना संक्रमण से निपटने के मामले में झारखंड देश के 27 राज्यों से आगे निकल चुका है। मई के दूसरे सप्ताह में जारी आंकड़े के मुताबिक झारखंड की साप्ताहिक संक्रमण दर घटकर 7.01 प्रतिशत हो गई है। इसके साथ ही संक्रमण को कम करने के मामले में झारखंड देश भर में तीसरे स्थान पर है।
झारखंड के आगे तेलंगाना दूसरे नंबर जबकि उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। हालांकि उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे मिलने वाले शवों के अंबार ने कई सवाल भी खड़े किए हैं, जिसके बाद यूपी सरकार पर आंकड़ों को छुपाने का आरोप लगाने लगा है। दरअसल कोरोना को रोकने के मामले में झारखंड की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि राज्य में संक्रमण दर तीन सप्ताह में घटकर 16 से 7 प्रतिशत हो गई है।
इसी बीच आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों का दावा है कि झारखंड में कोरोना का पीक गुजर गया है और एक जून तक लोगों को राहत मिलने लगेगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह सब सरकार द्वारा कोरोना रोकथाम के लिए उठाए गए प्रभावी कदम और लोगों के संयम की वजह से संभव हो पाया है। आईआईटी के वैज्ञानिक और पद्मश्री प्रो. मणींद्र अग्रवाल ने कंप्यूटिंग मॉडल सूत्र तैयार किया है। इसमें गणितीय विश्लेषण के आधार पर यह दावा किया गया है। इसी तरह का दावा अन्य वैज्ञानिकों ने भी किया है। वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का कहना है कि झारखंड में कोरोना का पीक अप्रैल अंतिम सप्ताह तक था।
दरअसल झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कोरोना की आहट के साथ ही प्रदेश में 8 अप्रैल से ही तमाम तरह की पाबंदियां लगा दी थी। इसका फायदा यह हुआ कि राज्य में रिकवरी रेट 90 % से ज़्यादा हो गयी है। पिछले कुछ दिनों से संक्रमण दर भी 4 % के आस पास बनी हुई है। कोरोना को काबू में करने की खबरों के बीच मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्य के स्वास्थ्यकर्मियों और प्रदेश की जनता को धन्यवाद दिया है।
ऐसे खबरों को पढ़ ये मत समझियेगा की ख़तरा टल गया है। पिछले एक वर्ष में हमने देखा की जब जब हमने इस महामारी को हल्के में लिया है, तब तब इसने दुगनी शक्ति से वापस आ कर तबाही मचायी है।इसलिए खुश होने के बजाये हमें अब और सतर्क रहना है।
जब झारखंड का मीडिया इस खबर को प्रचारित कर रहा था तो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपनी प्रशंसा से खुश नहीं हो गए, बल्कि उन्होंने एक जिम्मेदार और गंभीर नेतृत्वकर्ता की तरह व्यवहार किया। 19 मई को उन्होंने ट्विटर पर लिखा-
” ऐसे खबरों को पढ़ ये मत समझियेगा की ख़तरा टल गया है। पिछले एक वर्ष में हमने देखा की जब-जब हमने इस महामारी को हल्के में लिया है, तब तब इसने दुगनी शक्ति से वापस आ कर तबाही मचायी है। इसलिए खुश होने की बजाये हमें अब और सतर्क रहना है।”
निश्चित तौर पर हेमंत सोरेन कोरोना की रोकथाम को लेकर लगातार सक्रिय रहे हैं। पिछले साल भी उन्होंने अपनी सक्रियता से प्रदेशवासियों का दिल जीता था। और इस साल भी जिस तरह उन्होंने कोरोना को काबू में किया है, एक बेहतर जनसेवक और प्रशासक के रूप में उनकी छवि मजबूत होती जा रही है।
हाल ही में एक घटना ने मेरे मन मे यह सवाल उठाया है कि हिंदी का बौद्धिक वर्ग इतना लिजलिजा, रीढ़-विहीन और कमजोर क्यों है? वजह चित्रा मुद्गल का भाजपा के बचाव में दिया बयान है।
इसके प्रथम दृष्टया निम्न कारण दिखते हैं-
1-वर्ण-जाति का कवच
हिंदी के बौद्धिक वर्ग का सबसे पहला कवच वर्ण- जाति का है, कुछ चंद अपवादस्वरूप बुद्धिजीवियों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश बुद्धिजीवी जाति के कवच से बाहर नहीं निकल पाते हैं। जातीय संस्कार, परवरिश और अनौपचारिक-औपचारिक शिक्षा उन्हें वर्ण-जाति के दायरे में इस कदर जकड़ लेती है कि वे आजीवन जाति-वर्ण के कवच को तोड़कर बाहर नहीं निकल पाते। दुनिया को देखने-समझने का उनका विश्व दृष्टिकोण वर्ण-जातिवादी (ब्राह्मणवादी) ही बना रहता है यानि वैदिक हिंदूवादी।
औरों की कौन कहे, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, के. दामोदरन, सुमित सरकार और अयोध्या सिंह जैसे शीर्षस्थ वामपंथी भी इस कवच को पूरी तरह से तोड़ नहीं पाए। उदारवादियों और दक्षिण पंथियों की बात ही छोड़ दीजिए।
अकारण नहीं है कि नेहरू से लेकर चेतन भगत तक, अपरकॉस्ट बुद्धिजीवी लेखक तथाकथित मेरिट का तर्क देकर उस आरक्षण के खिलाफ जहर उगलते रहे और अभी भी उगल रहे हैं, जिसे संवैधानिक आरक्षण कहते हैं और जिसका प्रावधान सौ प्रतिशत वैदिक आरक्षण को तोड़ने के लिए किया गया था और है।
2-धर्म का कवच
हिंदी के बौद्धिक वर्ग के मानस के निर्माण में वेद, उपनिषद, गीता और रामचरित मानस का अहम योगदान है। जिन्हें आज हम हिंदू ग्रंथ कहते हैं। इन ग्रंथों से बना मानस न केवल वर्ण-जाति के कवच में बंद रहता है, वह हिंदू धर्म के कवच में भी बंद रहता है। जो इसे वर्ण-जाति और जातिवादी पितृसत्ता को जायज ठहराने का तर्क मुहैया कराते हैं। जो उन्हें संवेदनहीन और वैचारिक तौर पर दिवालिया बना देता है और हर तरह के कुकर्म को जायज ठहराने का औचित्य प्रदान करता है और अक्सर सिद्धांत और व्यवहार में समता, स्वतंत्रता, बंधुता और लोकतांत्रिक एवं वैज्ञानिक मूल्यों का विरोधी बना देता और आचरण में पांखडी।
3- वर्ण-जातिवादी पितृसत्ता का कवच
हिंदी का बुद्धिजीवी वर्ण-जाति के कवच की तरह ही पितृसत्ता के कवच में भी जकड़ा हुआ है। भारत की पितृसत्ता सामान्य पितृसत्ता नहीं हैं, वर्ण-जातिवादी पितृसत्ता है। वैचारिक और व्यवहारिक जीवन में स्त्री के प्रति उसका नजरिया जग-जाहिर है। वह स्वीकार नहीं कर पाता कि स्त्री जीवन के अधिकार सभी क्षेत्रों में उसके बराबर है और उसे प्रेम करने जीवन-साथी चुनने और अपने अनुकूल पेशा चुनने पूरा अधिकार है।
4-रक्त-वीर्य संबंधों का कवच
हिंदी के बुद्धिजीवी रक्त-वीर्य संबंधों के कवच में भी बंद हैं। इसका नमूना देखना है, तो विश्वविद्यालयों और अन्य बौद्धिक संस्थानों में हिंदू बुद्धिजीवियों के भाई-बंधुओं, बेटे-बेटियों, पोते-पोतियों और पत्नी-पति और अन्य सगे संबंधियों की उपस्थिति के रूप में देख सकते हैं।
मेरे पास गोरखपुर विश्वविद्यालय का वर्षों का अनुभव है। कैसे इस विश्वविद्यालय और इससे जुड़े महाविद्यालयों को तथाकथित प्रोफेसरों-आचार्यों ने अपने अयोग्य बेटे-बेटियों, बाई-बंधुओं और पत्नी आदि के लिए रोजी-रोटी का अड्डा बना दिया।
यही हाल कमोवेश अन्य विश्वविद्यालयों और उच्च संस्थानों का भी है।
इस खेल में विद्या निवास मिश्र से लेकर नामवर सिंह तक कैसे शामिल रहे हैं, इसका कच्चा-चिट्ठा कई बार समाने आ चुका है। बयान करने की कोई जरूरत नहीं है। इन नियुक्ति-पदोन्नतियों में जाति और रक्त-वीर्य संबंधों का खेल किस तरह से खेला जाता रहा है और खेला जा रहा है, जग-जाहिर है। अधिकांश बौद्धिक संस्थानों का यही हाल है।
5- कैरियरिज्म और अवसरवाद का मेल
हिंदी के अधिकांश बुद्धिजीवी के केंद्र में सामाजिक सरोकार या देश या राष्ट्र का निर्माण नहीं होता या सच्चे ज्ञान की तलाश नहीं होती है। यह प्रवृत्ति 1990 के दशक के बाद और तेज हुई है। उनके ज्ञान-विज्ञान के केंद्र में कैरियर यानि पद- प्रतिष्ठा होती है और पुरस्कार होता है। इसके लिए वे अवसरवाद का हर खेल-खेलने को तैयार रहते हैं। इसके लिए वे विचार को वस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं और अवसरानुकूल वस्त्र पहन लेते हैं। अवसरवाद हिंदी बुद्धिजीवियों की सहज-स्वाभाविक खूबी है। पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लिए हर जोड़-तोड़ करने के लिए वे हमेशा तैयार रहते हैं।
6- साहस का घोर अभाव
हिंदी के अधिकांश बुद्धिजीवियों में साहस का घोर अभाव है, वे वर्चस्व के विभिन्न रूपों को खुली चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पाते हैं, जिसमें सत्ता को चुनौती देना भी शामिल है। वे बुद्धिजीवी के रूप में सच कहने के लिए बड़ा जोखिम उठाने को तैयार नहीं रहते हैं, वे कुछ भी दांव पर नहीं लगाना चाहते हैं। वे खोने के डर और पाने के लालच में सत्य से मुंह मोड़े रहते हैं। वे चाहते हैं कि वे पूरी तरह सुरक्षित भी बने रहें और बुद्धिजीवी भी कहलाएं।
अकारण नहीं कि हिंदू पट्टी, जिसे गाय पट्टी भी कहते हैं, आज भी मुख्यत: बर्बर मध्यकालीन मूल्यों-मान्यताओं में जी रही है और आज तक इसका लोकतांत्रिकरण- जनवादीकरण भी नहीं हो पाया। इसमें हिंदी के बुद्धिजीवियों के चरित्र की अहम भूमिका है।
यहां रेखांकित कर लेना जरूरी है कि हिंदी के बौद्धिक वर्ग का आज भी पर्याय मुख्यत: अपरकॉस्ट के सामाजिक समूह से आए लोग हैं। बौद्धिक नियंत्रण और संचालन के सभी केंद्रों पर इन्हीं का नियंत्रण और वर्चस्व है। मुस्लिम और ईसाई समाज के बुद्धिजीवी के रूप में भी, उनके बीच के अपरकॉस्ट का ही अभी भी वर्चस्व हैं। उनके बीच के पसमांदा समूह के बुद्धिजीवियों की उपस्थिति अंगुलियों पर गिनी जा सकती है।
पिछड़े-दलितों-आदिवासियों और पसमांदा मुसलमानों के समूह से आए हिंदी के चंद बुद्धिजीवियों की उर्जा का बड़ा हिस्सा अपरकॉस्ट वर्चस्व के प्रतिवाद और प्रतिरोध में खर्च हो जा रहा है और कुछ ने अपरकॉस्ट के सामने पूरी तरह समर्पण भी कर रखा है।
अगर आप मेहनत कर परिणाम दे सकते हैं तो फिल्म इंडस्ट्रीज से जुड़ी नौकरी आपका इंतजार कर रही है। आपका चयन 2000 लोगों के बीच हो सकता है। बैटल ऑफ भीमा कोरेगांव फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशक रमेश थेटे की फिल्म निर्माण कंपनी आपका इंतजार कर रही है। जहां तक पैसे की बात है तो काम के बदले आपको बेसिक 10 हजार रुपये के अलावा 5 हजार रुपये TA-DA मिलेंगे। बात यहीं खत्म नहीं होती, अगर आपका परफार्मेंस बढ़िया है तो आपको परफार्मेंस इंसेंटिव भी मिलेगा। यानी की आप इस काम से जुड़कर 15 से 20 हजार रुपये कमा सकते हैं। आपको जो काम करना है, वह मार्केटिंग एवं मीडिया मैनेजर्स का काम करना है। इसे आप फुल टाइम या पार्ट टाइम कैसे भी कर सकते हैं।
इस काम के लिए आपको कम से कम 10वीं पास होना चाहिए। हालांकि उच्च शिक्षित, अनुभवी तथा व्यापक जनसंपर्क रखने वाले व्यक्तियों को प्राथमिकता दी जाएगी। हां, काम करने के लिए उम्र 18 वर्ष से ज्यादा होनी चाहिए। सबसे शानदार बात यह है कि आपको अपने लोकल क्षेत्र में ही काम करने का मौका मिलेगा।
इस काम के लिए पंजीयन शुल्क 1000 रुपये है, जो आपको जमा करना होगा। अगर आपका चयन नहीं होता है तो आपको पंजीयन शुल्क लौटा दिया जाएगा। पैसे इस खाते में जमा करना है।
बैंक डिटेल-
AC Name- Ramesh Thete Films
Current AC No- 59209399486966
HDFC Bank, Pratapnagar Branch, Nagpur
IFSC Code- HDFC0001786
आवेदन करने का तरीका यह है कि आप अपना नाम, उम्र, पता, शैक्षणिक योग्यता औऱ अनुभव का उल्लेख कर और पंजीयन शुल्क के भुगतान का स्क्रीनशॉर्ट लेकर हस्ताक्षर कर 84466 35855 पर व्हाट्सएप कर दीजिए या फिर rameshthetefilms@gmail.com पर ई-मेल कीजिए। आवेदन भेजने की अंतिम तारीख 23 मई है। तो जल्दी करिए मौका आपका इंतजार कर रहा है।
आपको यह भी बता दें कि रमेश थेटे फिल्मस फिल्म निर्माण के क्षेत्र में तेजी से बढ़ती फिल्म निर्माण कंपनी है, जिसके सीईओ बहुजन समाज के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी रमेश थेटे हैं। उनकी पहली फिल्म ‘द बैटल ऑफ भीमाकोरेगांव’ है, जो बनकर तैयार है और जिसमें अर्जुन रामपाल मुख्य भूमिका में हैं। इस फिल्म को लेकर डायरेक्टर ने स्पेशल वीआईपी पास भी जारी किया है, 500 रुपये में मिलने वाले इस पास का लकी ड्रा सितंबर में होना है, जिसमें जितने वालों को करोड़ों रुपये के पुरस्कार मिलेंगे। तो तुरंत आवेदन करिए।
कोरोना मामले को रोकने की दिशा में मोदी सरकार के सुस्त रवैये की हर ओर आलोचना हो रही है। जहां देश में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है, वहीं दूसरी ओर सेंट्रल विस्टा प्रोग्राम में हजारों करोड़ रुपये खर्च करने को लेकर भी मोदी सरकार की आलोचना हो रही है। इसी बीच 100 से ज्यादा रिटायर्ड नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चिट्ठी लिखकर इस महामारी के बीच सरकार के लापरवाही भरे रवैये पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा है कि इस अत्यधिक पीड़ा के समय जब धन की कमी है, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट एक फिजूलखर्ची है।
इसके अलावा नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार ओरहान पामुक सहित 76 विश्व प्रसिद्ध शिक्षाविदों और लेखकों ने भी मोदी सरकार से सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को रद्द करने और इसमें खर्च होने वाले पैसों को कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए खर्च करने का आवाह्न किया है। रिटायर्ड अधिकारियों ने इस बात पर सवाल उठाया है कि जब देश में हर ओर लोगों की मौत हो रही है और लोग बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का रोना रो रहे हैं, ऐसे में भी सरकार का लापरवाही भरा रवैया हैरान करने वाला है और इससे भारतीयों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पर रहा है।
इस पत्र में सरकार और उसके मंत्रियों की तमाम लापरवाही को लेकर भी निशाना साधा गया है। साथ ही पीएम केयर फंड पर भी सवाल उठाते हुए कहा गया है कि इसका गठन तब किया गया, जबकि पहले से ही प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष था।
यूं तो हर साल दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से युवा भारत के तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए आते हैं। लेकिन इन दिनों एक विश्वविद्यालय विदेशी छात्रों के आकर्षण का केंद्र बन गया है। ऊंची-ऊंची इमारतें और बहुजन नायकों के विशाल प्रतिमाओं से सजे इस विश्वविद्यालय को बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने तब बनवाया था, जब वो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। यह विश्वविद्यालय है दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा यानी गौतम बुद्ध नगर में बना गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय।
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय ने आने वाले सेशन के लिए 124 ब्रांच में 3672 सीटों के लिए ऑनलाइन प्रवेश प्रक्रिया शुरू की है। 2021-22 के सेशन में दुनिया के 40 देशों के 260 विदेशी छात्रों ने अब तक आवेदन किया है। खास बात यह है कि गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी में विदेशी छात्रों के पढ़ने के लिए एडमिशन का आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है।
वर्तमान में विश्वविद्यालय में 50 विदेशी छात्र हैं जो अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने अपने देशों को रवाना हो जाएंगे। इसमें म्यांमार के अलावा कई अन्य देशों के छात्र शामिल हैं। गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय ने इस सेक्शन में 21 नए कोर्स शुरू किए हैं।
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय मामलों के निदेशक डॉ. अरविंद सिंह ने बताया कि विदेशी छात्रों ने एडमिशन में तेजी से रुचि दिखाई है और दिन-ब-दिन उनकी तादाद बढ़ती जा रही है। यूनिवर्सिटी के इंटरनेशनल सेकेंडरी का संबंध विभाग के भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, शिक्षा मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय, अंतरराष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ आदि के साथ है, इनके जरिये भी आवेदन आते हैं।
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय 2008 में बसपा शासनकाल में बना था। भव्य इमारतों वाला यह विश्वविद्यालय 511 एकड़ में फैला हुआ है। विश्वविद्यालय में अंडर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सेस मौजूद हैं। विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की बात करें तो School of Information & Communication Technology, School of Management, School of Biotechnology, School of Engineering, School of Law, Justice and Governance, School of Buddhist Studies and Civilization, School of Vocational and Applied Sciences विषयों में पढ़ाई होती है।