7 अगस्त मंडल दिवसः आधुनिक भारत में वर्ग संघर्ष के आगाज का दिन

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 7 अगस्त एकाधिक कारणों से इतिहास का खास दिन है। यह लेख शुरू करने के पहले मैंने इस दिन का महत्व जानने के लिए लिए गूगल पर सर्च किया। विकिपीडिया पर इस दिन की प्रमुख घटनाओं के रूप में कई जानकारियां दर्ज है। लेकिन मुझे भारी विस्मय हुआ कि उन घटनाओं में मंडल दिवस का उल्लेख नहीं है, जबकि इसी दिन 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की संस्तुतियां लागू कर इस दिन को बेहद खास बना दिया था, जिसे देश-विदेश के सामाजिक न्यायवादी कभी नहीं भूल सकते।

1989 के चुनाव में जनता दल की ओर से वीपी सिंह ने घोषणा किया था कि अगर सत्ता में आये तो मंडल आयोग की संस्तुतियां लागू करेंगे और सत्ता में आने के बाद उन्होंने मौका-माहौल देखकर 7 अगस्त, 1990 को अपना वादा पूरा कर दिखाया। उन्होंने मंडल की संस्तुतियों को लागू करने की घोषणा करते समय कहा था, ‘हमने मंडल रूपी बच्चे को माँ के पेट से बाहर निकाल दिया है। अब कोई माई का लाल इसे माँ के पेट में नहीं डाल सकता। यह बच्चा अब प्रोग्रेस करेगा।’ मंडल मसीहा की बात सही साबित हुई। पिछड़ों के लिए नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करने वाला मंडल रूपी बच्चा आज प्रोग्रेस करते–करते सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, धार्मिक न्यास, पुरोहितगिरी, आउट सोर्सिंग जॉब इत्यादि को स्पर्श करते हुए डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण का रूप अख्तियार करता प्रतीत हो रहा है। ऐसे में कहा जा सकता है 7 अगस्त प्रधानतः मंडल दिवस है। लेकिन 7 अगस्त का महत्त्व मुख्यतः मंडल दिवस तक ही सीमित नहीं है, यह आधुनिक भारत में वर्ग-संघर्ष के आगाज का भी दिन है।

इसे जानने के लिए महानतम समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स की मानव जाति के इतिहास की व्याख्या का सिंहावलोकन कर लेना पड़ेगा। मार्क्स ने कहा है अब तक का विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात दूसरे शब्दों में जिसका शक्ति के स्रोतों, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक पर कब्ज़ा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है। अर्थात शक्ति के स्रोतों से दूर व बहिष्कृत है। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है। मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित, ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है।’ मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के इतिहास की यह व्याख्या मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास की निर्भूल व अकाट्य सचाई है, जिससे कोई देश या समाज न तो अछूता रहा है और न आगे रहेगा। जबतक धरती पर मानव जाति का वजूद रहेगा, वर्ग-संघर्ष किसी न किसी रूप में कायम रहेगा और इसमें लोगों को अपनी भूमिका अदा करते रहने होगा। किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि जहां भारत के ज्ञानी-गुनी विशेषाधिकारयुक्त समाज के लोगों ने अपने वर्गीय हित में, वहीं आर्थिक कष्टों के निवारण में न्यूनतम रूचि लेने के कारण बहुजन बुद्धिजीवियों द्वारा मार्क्स के कालजई वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की बुरी तरह अनदेखी की गयी, जोकि हमारी ऐतिहासिक भूल रही। ऐसा इसलिए कि विश्व इतिहास में वर्ग-संघर्ष का सर्वाधिक बलिष्ठ चरित्र हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा है, जो मूलतः शक्ति के स्रोतों अर्थात मार्क्स की भाषा में उत्पादन के साधनों के बंटवारे की व्यवस्था रही है एवं जिसके द्वारा ही भारत समाज सदियों से परिचालित होता रहा है।

हजारों साल से भारत के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी और वंचित बहुजन समाज, दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर जो अनवरत संघर्ष जारी रहा, उसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया। इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण को लेकर संघर्ष का एक नया दौर। मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया। ऐसे में सुविधाभोगी वर्ग के तमाम तबके– छात्र और उनके अभिभावक, लेखक और पत्रकार, साधु-संत और धन्ना सेठ तथा राजनीतिक दल, अपने–अपने स्तर पर आरक्षण के खात्मे और वर्ग-शत्रुओं को खत्म करने में मुस्तैद हो गए। बहरहाल मंडल के बाद वर्ग शत्रुओं का खात्मा करने में जुटा भारत का जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग भाग्यवान जिसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे नरसिंह राव ने सोत्साहवरण कर लिया। इसी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर राव ने हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी, जिसपर महल खड़ा करने की जिम्मेवारी परवर्तीकाल में अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आई। इनमें डॉ. मनमोहन सिंह ने अ-हिंदू होने के कारण बहुजनों के प्रति वर्ग- मित्र की भूमिका अदा करते हुए नवउदारीकरण की नीतियों को कुछ हद मानवीय चेहरा प्रदान करने का प्रयास किया।

इसी क्रम में ओबीसी को उच्च शिक्षा में आरक्षण मिलने के साथ बहुजनों को उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ-कुछ बढ़ावा दिया। किन्तु वाजपेयी और मोदी हिन्दू होने के साथ उस संघ प्रशिक्षित पीएम रहे, जो संघ हिन्दू धर्मशास्त्रों में अपार आस्था रखने के कारण गैर- सवर्णों को शक्ति के स्रोतों के भोग का अनाधिकारी समझता है। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के इतिहास की व्याख्या करते हुए यह अप्रिय सच्चाई बताई है कि वर्ग संघर्ष में प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है। मंडल के बाद भारत में जो नए सिरे से वर्ग संघर्ष शुरू हुआ, उसमें शासक वर्ग के हित-पोषण के लिए वाजपेयी और मोदी ने जिस निर्ममता से राज्य का इस्तेमाल अपने वर्ग शत्रुओं अर्थात बहुजनों के खिलाफ किया उसकी मिसाल वर्ग संघर्ष के इतिहास में मिलनी मुश्किल है। मंडल से हुई क्षति की भरपाई के लिए ही इन्होंने अंधाधुन सरकारी उपक्रमों को बेचने जैसा विशुद्ध देश-विरोधी काम अंजाम देने में सर्वशक्ति लगाया ताकि आरक्षण से मूलनिवासी बहुजनों को महरूम किया जा सके।

इस मामले में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी तक को बौना बनाया, उनके शासन में आरक्षण के खात्मे तथा जन्मजात सर्वस्वहारा वर्ग की खुशिया छीनने की कुत्सित योजना के तहत श्रम कानूनों को निरन्तर कमजोर करने तथा नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी-प्रथा को बढ़ावा देने में राज्य का अभूतपूर्व उपयोग हुआ। आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी दी गयी। गैर-सवर्णों के आरक्षण से महरूम करने के लिए ही हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, हॉस्पिटलों इत्यादि को निजी क्षेत्र में देने लिए राज्य का इस्तेमाल हो रहा है। वर्ग शत्रुओं को गुलामों की स्थिति में पहुचाने की दूरगामी योजना के तहत विनिवेशीकरण, निजीकरण के साथ लैटरल इंट्री में राज्य का अंधाधुंन उपयोग हो रहा है। जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में सबकुछ सौपने के खतरनाक इरादे से ही दुनिया के सबसे बड़े जन्मजात शोषकों ईडब्ल्यूएस के तहत 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया। कुल मिलाकर मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ गोलबंद हुए प्रभुत्वशाली वर्ग की ओर से राज्य के निर्मम उपयोग के फलस्वरूप भारत का सर्वस्व-हारा वर्ग उस स्टेज में पहुंचा दिया गया है, जिस स्टेज में पहुंच कर सारी दुनिया में ही वंचितों को शासकों के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा। इसी स्टेज में पहुंचने पर भारतीय लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई छेड़नी पड़ी थी।

बहरहाल अब लाख टके का सवाल यह है कि मंडलोत्तर काल में भारत के प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा छेड़े गए इकतरफा वर्ग संघर्ष के फलस्वरूप जो जन्मजात सर्वहारा वर्ग गुलामों की स्थिति में पहुच गया है, उसको आजाद कैसे किया जाय। कारण इस दैविक सर्वहारा वर्ग को अपनी गुलामी का इल्म ही नहीं है। उसे राष्ट्रवाद के नशे में इस तरह मतवाला बना दिया गया कि वह धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की बदहाली देखकर अपनी बर्बादी भूल गया है। ऐसे में जन्मजात शोषितों को लिबरेट करना दूसरे देशों के गुलामों के मुकाबले कई गुना चुनौतीपूर्ण काम बन चुका है। लेकिन चुनौतीपूर्ण होने के बावजूद भारतीय शासक वर्ग ने अपनी स्वार्थपरता से सर्वस्वहाराओं की मुक्ति का मार्ग खुद प्रशस्त कर दिया है और वह मार्ग है सापेक्षिक वंचना (Relative deprivation) का।

क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब समाज में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है। समाज विज्ञानियों के मुताबिक़, ‘दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें!’ सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना। दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना के अहसास ने ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमें वहां गोरों की तानाशाही सत्ता भस्म हो गयी। जिस तरह आज शासकों की वर्णवादी नीतियों से जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर बेहिसाब कब्जा कायम हुआ है, उससे सापेक्षिक वंचना के तुंग पर पहुंचने लायक जो हालात भारत में पूंजीभूत हुये हैं, वैसे हालात विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं रहे। यहां तक कि फ्रांसीसी क्रांति या रूस की जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में भी इतने बेहतर हालात नहीं रहे। तमाम कमियों और सवालों के बावजूद यह सुखद बात है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय बहुजन बुद्धिजीवियों के सौजन्य से गुलामी का भरपूर इल्म न होने के बावजूद भी जन्मजात सर्वहाराओं में सापेक्षिक वंचना का अहसास पनपा है। इससे वोट के जरिये लोकतांत्रिक क्रांति के जो हालात आज भारत में पैदा हुए हैं, वैसे हालात विश्व इतिहास में कभी किसी देश में उपलब्ध नहीं रहे। इस हालात में परस्पर शत्रुता से लबरेज मूलनिवासी वंचित समुदायों में क्रांति के लिए जरुरी ‘हम-भावना’ (we-ness) का तीव्र विकास का तीव्र विकास हुआ है। ऐसे में बहुजन बुद्धिजीवी/एक्टिविस्ट सबकुछ छोड़कर यदि बहुजनों में सापेक्षिक वंचना का भाव भरने में सारी ताकत झोंक दें तो वोट के जरिये भारत में लोकतान्त्रिक क्रांति स्वर्णिम अध्याय रचित होने के प्रति आशावादी हुआ जा सकता है।

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