NEET में ओबीसी को आरक्षण मिलने के बाद अब जाति जनगणना को लेकर बहस छिड़ गई है। ऐसे में इसके समर्थक और विरोधी अपनी-अपनी दलीलें दे रहे हैं। लेकिन कुछ कथित प्रगतिशील ऐसे भी हैं; जो अपनी छवि को बचाने के लिए सीधे तो जाति जनगणना का विरोध नहीं कर रहे है, लेकिन परोक्ष रूप से इसके खिलाफ तमाम तर्क दे रहे हैं। कुछ बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि, “यादव, कुर्मी, शाक्य, लोधी को आरक्षण का लाभ “संख्या से अधिक” मिल रहा है, इसलिए उनको जाति जनगणना का समर्थन नहीं करना चाहिए। उनका तर्क है कि उनकी फीस वैज्ञानिक आंकलन एवं पद्धतिशास्त्र में माफ़ लगती है, या उन्होंने इसकी कभी पढ़ाई ही नहीं की है।
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यहां हमें यह समझना होगा कि प्रतिनिधित्व या आरक्षण का वैज्ञानिक एवं पद्धतिशास्त्र अलग होता है। इसका आंकलन ‘indicies’ (सूचकांक) पर किया जाना चाहिए। अर्थात एक हजार या एक लाख आबादी पर कितने लोग शिक्षित हैं और उनमें से कितने लोगों को प्रतिनिधित्व मिला है। वैज्ञानिक एवं पद्धतिशास्त्र आधार पर यह आसानी से स्पष्ट हो जाएगा की किसी एक जाति की कितने लाख आबादी है और उसमें से कितने लोगों को प्रतिनिधित्व मिला है या मिल रहा है। अगर किसी जाति की संख्या लाखों में है और किसी जाति की संख्या हजारों में तो यह स्वाभाविक ही है कि लाखों की जनसंख्या वाले जाति के लोगों में प्रतिनिधित्व ज्यादा ही लगेगा। परन्तु जब आप आरक्षण की गणना प्रति हजार करेंगे तो इंडीसीस लगभग एक जैसा ही आएगा।
जो लोग प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का आंकलन जाति की संख्या बल के आधार पर कर रहे हैं, उनको प्रतिनिधित्व आरक्षण के दर्शन के बारे में भी कुछ ज्ञान नहीं लगता। क्योंकि प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सामाजिक न्याय पर आधारित है। यद्यपि यह जाति की सामूहिक अस्मिता पर आधारित है परंतु इसका लाभ जाति में रह रहे व्यक्ति को एकांगी रूप में प्राप्त होता है। अर्थात अगर जाति में किसी एक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का लाभ मिल गया है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसके पूरे नाते-रिश्तेदारों या उसकी पूरी जाति को ही उसका लाभ मिल गया है। प्रतिनिधित्व (आरक्षण) पूरे वंचित समाज को सामाजिक न्याय के प्रति आशान्वित करता है जिससे उनके अंदर क्रांतिकारी बदलाव की सोच ना विकसित हो और वे संवैधानिक मार्ग पर उसमें प्रदत अधिकारों के आधार पर ही अपनी वंचना की को दूर कर सके। इसलिए प्रतिनिधित्व (आरक्षण) समाज में विघटन होने से भी बचाता है। अतः प्रतिनिधित्व (आरक्षण) उन वंचित समाजों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सत्ता, शिक्षा, संसाधन, उत्पादन, आदि संस्थाओं में प्रतिनिधित्व देकर राष्ट्र एवं प्रजातंत्र को मजबूत करने की एक प्रक्रिया है, जिनको जातीय अस्मिता के आधार पर हजारों हजारों वर्षों से जीवन के हर क्षेत्र में यथा-आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यवसायिक, आवासीय आदि आधार पर बहिष्कृत किया गया। सारांश में जाति जनगणना एवं प्रतिनिधित्व (आरक्षण) परस्पर विरोधी नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं।
(प्रोफेसर विवेक कुमार, लेखक जवाहरलाल नेहरू स्थित समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। यह विचार व्यक्तिगत हैं।)
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प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।
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