आखिर बसपा को क्यों नहीं मिलता करोड़ों का चंदा?

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 तमाम राजनीतिक दल अक्सर बहुजन समाज पार्टी पर यह आरोप लगाते हैं कि बसपा पैसे लेकर टिकट देती है। बसपा की मुखिया मायावती जब खुद को दलित की बेटी कहती हैं तो तमाम मनुवादी दलों के मनुवादी नेता मायावती को दौलत की बेटी कह कर उनका मजाक उड़ाते हैं। और तो और अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के कारण बसपा छोड़ कर जाने वाला हर नेता बहनजी पर टिकटों की खरीद बिक्री का आरोप लगाता है।

लेकिन वहीं जब देश के मूलनिवासी दलित, आदिवासी और पिछड़ों का खून चूसने वाले भारत के धन्नासेठ मनुवादी दलों को हजारों करोड़ रुपये का चंदा देते हैं तो उस वक्त कोई आवाज नहीं उठाता। तब कोई सवाल नहीं करता कि वो हजारो करोड़ रुपये आएं कहां से? तब कोई यह नहीं पूछता कि हजारों करोड़ रुपये का चंदा सिर्फ मनुवादी दलों को ही क्यों मिलता है, बसपा को ऐसे चंदे क्यों नहीं मिलते।

हम ये सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि चुनाव आयोग की वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट आई है। जिसके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को साल 2019-20 के दौरान ढाई हजार करोड़ रुपये का चंदा मिला है। भाजपा को यह पैसे इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिला है, जिसको कुछ लोग ब्लैक मनी को व्हाइट मनी बनाने का साधन मानते हैं। देश की सत्ता में पिछले सात सालों से जमीं भाजपा, जो लगातार देश के तमाम संसाधनों को निजी हाथों में बेचती जा रही है, कहीं धन्नासेठ उसे इसका इनाम तो नहीं दे रहे हैं। यह सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि भाजपा को साल 2018-19 में इलेक्टोरल बॉन्ड से 1450 करोड़ रूपये मिले थे। और इस बार उसको पिछले वित्तिय वर्ष के मुकाबले करीब 76 प्रतिशत अधिक ढाई हजार करोड़ रुपये मिले हैं।

वहीं कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 318 करोड़ रुपये मिले हैं। जो पिछले साल के मुकाबले 17 प्रतिशत कम है। दूसरी विपक्षी पार्टियों की बात करें तो तृणमूल कांग्रेस को 100 करोड़, डीएमके को 45 करोड़ रूपए, शिवसेना को 41 करोड़ रूपए, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 20 करोड़ रूपए, आम आदमी पार्टी को 17 करोड़ रूपए और राष्ट्रीय जनता दल को 2.5 करोड़ रूपए का चंदा इलेक्टोरल बांड के जरिए मिला है। बसपा को कितने पैसे मिले हैं, इसका कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। यानी बसपा को कोई पैसे नहीं मिले हैं।

ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड योजना इसी मंशा से बनाई गई थी कि सत्ताधारी बीजेपी को लाभ पहुँ सके। दरअसल इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकते हैं। मोदी जी की सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी और इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था।

आरोप लगता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में चूंकि पैसे देने वालों की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन को बढ़ावा मिल सकता है। यानी यह योजना बड़े कॉरपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी। यानी कि जो सरकार काला धन लेकर आने का ढिंढ़ोरा पीटकर सत्ता में आई थी, उसने काला धन मैनेज करने का कानून बना दिया।

मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आप और हम टैक्स पेयर हैं। सरकार हमारे एक-एक पैसे का हिसाब मांगती है। हम एक लाख रुपये भी छिपा नहीं सकते, लेकिन सत्ता की आड़ में ऐसी व्यवस्था बना ली गई है कि भारत के सवर्ण नेतृत्व वाले दल धन्नासेठों के और अपने हजारों करोड़ रुपये आसानी से छिपा सकते हैं। गुमनाम तरीके से हर साल हजारों करोड़ रुपये हासिल करने वाले नेता और राजनीतिक दल जब बसपा पर और बसपा प्रमुख मायावती पर पैसे लेने का आरोप लगाते हैं और उन्हें दौलत की बेटी कहते हैं तो गरीब-वंचित समाज को उनसे यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि भारत के पूंजीपति भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों को तो करोड़ों रुपये दे देते हैं, जबकि बसपा सहित दलित-पिछड़ों के नेतृत्व वाले अन्य दलों से मुंह फेर लेते हैं। देश के बहुजनों को भी इस बारे में खुद भी समझने की जरूरत है।

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