क्रंदन नहीं समाधान चाहने वाले साहित्यकार थे सूरजपाल चौहान

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वरिष्ठ दलित साहित्यकार एवं संवेदनशील कवि सूरजपाल चौहान जी का दिनांक 15 जून, 2021 को लंबी बीमारी से निधन हो गया था। दलित साहित्य के आरंभिक लेखकों में से एक चौहान जी भी थे। सूरजपाल चौहान का नाम उन दलित लेखकों में शुमार है, जो लकीर के फकीर नहीं बने और दलित चिंतन की स्वतंत्र जमीन पर आकर रचनाएं की। यह इसलिए संभव हो सका था क्योंकि चौहान जी ईमानदार और मजबूत व्यक्तित्व के थे। उन्होंने कौम की समस्या और उस के समाधान को समझा और फिर आजीवक चिंतन के साथ आए। कैलाश दहिया जी ने चौहान जी के निधन पर शोक संवेदना व्यक्त करते हुए अपनी एक फेसबुक टिप्पणी में बिल्कुल सही लिखा है- “सूरजपाल चौहान जी ने वैचारिक यात्रा पूरी की है। माता के जागरण की भेंट से शुरू कर, बुद्ध वंदना से होते हुए आजीवक तक पहुंचे हैं। इस से दलितों को सीख लेने की जरूरत है। चौहान साहब को शत् शत् प्रणाम।”(1)

 बताइए, ये चौहान जी की दो कविताओं ‘मेरा गांव कैसा गांव…’ और ‘ये दलितों की बस्ती है’ को महत्वपूर्ण कविता बता रहे हैं और कह रहे हैं कि दलित समाज चौहान जी से ऐसे ही सार्थक लेखन की की उम्मीद कर रहा था। दलित समाज अपनी समस्याओं का समाधान चाहता है। रोने-धोने और शिकायत करते रहने से समाज की समस्या का समाधान नहीं निकलता। दलित समाज के लिए वही लेखनी सार्थक है, जो उस की समस्या के समाधान के क्रम में लिखा गया हो।

यह जरूरी लग रहा है कि चौहान जी की उन दोनों कविताओं को देख लिया जाए। पहली कविता इस प्रकार है –

“कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!

कच्ची मड्डिया
टूटी खटिया
घूरे से सटकर
बिना फूँस का—
मेरा छप्पर
मेरे घर न
कौए की काँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!

उनके आँगन
गैया बछिया
मेरे आँगन
सूअर, मुर्ग़ियाँ
मेरे सिर
उनकी लाठी
बेगारी करने को गाँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!

उनका खेत
उन्हीं का बैल
और उन्हीं का है ट्यूब-वेल
‘मेरे हिस्से मेहनत आयी
उनके हिस्से है आराम’
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!

ब्याह-बरात का—
काम कराते
देकर जूठन बहकाते
जब मरता है
कोई जानवर
दे-देकर गाली उठवाते
दिन-रात
ग़ुलामी कर-करके
थक गये—
बिवाई फटे पाँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!

उनका दूल्हा
चढ़ घोड़ी पर
घूमे सारा गाँव-गली
मेरी बेटी की शादी पर
कैसी आफ़त आन पड़ी
जिन पर आया—
घोड़ी चढ़ वो
अलग पड़े हैं दोनों पाँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव”(5)

देखा जा सकता है इस कविता में कवि अपनी स्थिति का दुखड़ा रो रहा है। अपनी गुलामी की स्थिति दुनिया को दिखा रहा है। गुलाम कौम की स्थिति कैसी होती है यह कौन नहीं जानता भला? यह कविता महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह दलितों की गुलामी के जीवन को दर्शाती है। यह ठीक है कि दलित कौम की यातनाएं, पीड़ा, अत्याचार जो उस ने इतिहास के एक लम्बे काल में सहे हैं उसे सामने लाना चाहिए। लेकिन, साथ में समाधान की बात भी तो हो। पर देखा यह गया है कि दलितों के साहित्य के नाम पर क्रंदन करने का एक पूरा दौर ही चला है। यह कविता दलित आंदोलन के उसी प्रारंभिक दौर की कविता है। अभी भी तथाकथित दलित लेखक इस नकारात्मकता में मशगूल हैं। दिवंगत मलखान सिंह का एक कविता संग्रह तो ‘सुनो ब्राह्मण’ के नाम से ही है। जिस में वे ब्राह्मण के सामने घुटनों के बल बैठ कर अपनी पीड़ाओं का रोना रो रहे हैं। उस कविता संग्रह को द्विजों ने दलितों की नम्बर एक कविता संग्रह का खिताब भी दे रखा है। उस कविता संग्रह की खोल बांध कैलाश दहिया जी ने अपने लेख ‘मलखान सिंह का कविताकर्म’ में की है, जिस में उन्होंने लिखा है – “कवि को दलित की समस्या का पता तो है, लेकिन इनके पास समस्या का समाधान नहीं है।…बताना यही है कि ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता संग्रह में ब्राह्मण बचा ही रह गया है, जो कवि को आंखे दिखा रहा है।

जब तक कवि’ सुनो भंगी सुनो चमार’ नाम से अपना संग्रह नहीं लाते तब तक यह इन्हें आँखें ही दिखाएगा।”(6) तो, दलितों को ध्यान देना चाहिए कि द्विज दलितों को कभी स्वतंत्र देखना नहीं चाहते। उन्हें तो रोने-धोने और ‘हाय मार डाला’ ‘हाय मार डाला’ करते हुए दलित ही पसंद हैं। शोषित जितना रोता है, पीड़ा से जितना कराहता है सामंत को उतना ही आनंद मिलता है। वह उतना ही अपनी मूंछों पर ताव देता हुआ घूमता है। दुनिया की कौन कौम गुलाम नहीं रही है? क्या वे अपनी गुलामी का रोना रोते हुए ही स्वतंत्र हुई हैं? दलित ही ऐसा क्यों सोचता है कि रोने-धोने से ही उसे स्वतंत्रता मिल जाएगी। वह हथियार क्यों नहीं उठाना चाहता? युद्ध क्यों नहीं करना चाहता? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस ने अपनी पीड़ा और यातनाओं के बदले दुश्मन से मुआवजा मांगने की आकांक्षा पाल ली है।

चौहान जी की दूसरी कविता ‘ये दलितों की बस्ती है’ भी देखी जाए –

“बोतल महँगी है तो क्या,
थैली बहुत ही सस्ती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

ब्रह्मा विष्णु इनके घर में,
क़दम-क़दम पर जय श्रीराम ।
रात जगाते शेरोंवाली की …
करते कथा सत्यनाराण..।
पुरखों को जिसने मारा था,
उनकी ही कैसिट बजती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

तू चूहड़ा और मैं चमार हूँ,
ये खटीक और वो कोली ।
एक तो हम कभी हो ना पाए,
बन गई जगह-जगह टोली ।
अपने मुक्तिदाता को भूले,
गैरों की झाँकी सजती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

हर महीने वृन्दावन दौड़े,
माता वैष्णो छह-छह बार ।
गुडगाँवा की जात लगाता,
सोमनाथ को अब तैयार ।
बेटी इसकी चार साल से,
दसवीं में ही पढ़ती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

बेटा बजरँगी दल में है,
बाप बना भगवाधारी
भैया हिन्दू परिषद में है,
बीजेपी में महतारी ।
मन्दिर-मस्जिद में गोली,
इनके कन्धे से चलती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

शुक्रवार को चौंसर बढ़ती,
सोमवार को मुख लहरी ।
विलियम पीती मंगलवार को,
शनिवार को नित ज़हरी ।
नौ दुर्गे में इसी बस्ती में,
घर-घर ढोलक बजती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

नकली बौद्धों की भी सुन लो,
कथनी करनी में अन्तर ।
बात करें हैं बौद्ध धम्म की,
घर में पढ़ें वेद मन्तर ।
बाबा साहेब की तस्वीर लगाते,
इनकी मैया मरती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

औरों के त्यौहार मनाकर,
व्यर्थ ख़ुशी मनाते हैं ।
हत्यारों को ईश मानकर,
गीत उन्हीं के गाते है ।
चौदह अप्रैल को बाबा साहेब की जयन्ती,
याद ना इनको रहती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

डोरीलाल है इसी बस्ती का,
कोटे से अफ़सर बन बैठा।
उसको इनकी क्या चिन्ता अब,
दूजों में घुसकर जा बैठा ।
बेटा पढ़कर शर्माजी, और
बेटी बनी अवस्थी है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

भूल गए अपने पुरखों को,
महामही इन्हें याद नहीं ।
अम्बेडकर, बिरसा , बुद्ध,
वीर ऊदल की याद नहीं ।
झलकारी को ये क्या जानें,
इनकी वह क्या लगती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।

मैं भी लिखना सीख गया हूँ,
गीत कहानी और कविता ।
इनके दु:ख दर्द की बातें,
मैं भी भला था, कहाँ लिखता ।
कैसे समझाऊँ अपने लोगों को ,
चिन्ता यही खटकती है ।
ये दलितों की बस्ती है।।”7

यह कविता दलितों की सांस्कृतिक गुलामी को उजागर करती है। यह सांस्कृतिक गुलामी के दुष्परिणाम का ही चित्रण है जिसे चौहान जी ने अपनी कविता में चित्रित किया है। दुनिया में अनेक स्वतंत्र कौमें हैं। इन अलग-अलग कौमों के होने का अर्थ ही यह है कि प्रत्येक कौम की अपनी खुद की संस्कृति, परम्पराएँ, रीति-रिवाज हैं। बिना इन के कोई भी कौम नहीं है। दलित कौम के लोग भी खेती-बाड़ी करते हैं, कमाते हैं, शादी-ब्याह करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, घर-गृहस्थी बसाते हैं। इस तरह से जीवन यापन के लिए दलितों को भी धर्म दर्शन, तीज-त्यौहार, परम्पराएं चाहिए ही चाहिए। दलित आज इन सब मामलों में भटके हुए हैं तो इस में उन का क्या दोष है? दोष तो उन के नेता का है, महापुरुष का है, चिंतक का है जिन्होंने दलित कौम को धर्म के मामले में भटकाया है। बताया जाए, दलित डा. अम्बेडकर के कारण हिन्दू बने हुए हैं। जब कौम अपने धर्म दर्शन से कट गई है तो वह दूसरे की धार्मिक गुलाम बनेगी ही बनेगी। फिर दलित यहाँ तो खुद ही धार्मिक गुलामी की शरण में जा रहा है। तो, सूरजपाल चौहान जी की ये दोनों कविताएँ एक समय के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं। इन्हें बताया जाए, चौहान जी इस से कहीं आगे बढे़ हैं। इन कविताओं से आगे निकल कर चौहान जी ‘मेरा गांव ऐसा क्यों है?’, ‘ये दलितों की बस्ती ऐसी क्यों है?’ का समाधान भी तलाशते हैं। इसी समाधान की तलाश में आगे बढ़ते हुए चौहान जी मुकम्मल मुकाम ‘आजीवक’ तक आए हैं। और फिर उन की कलम से दलितों की समस्या का समाधान लिए हुए यह कविता निकलती है-

“अपना पुरखा भूलकर, दूजे का गुणगान।
यह तो तू भी जानता, कभी न मिलता मान।।

अपना पुरखा भूलकर, चले दूसरे संग।
कैसे तुम ज्ञानी पुरुष, सोच-सोच हम दंग।।

विश्वासी पुरखे रहे, चले वे अपनी चाल।
फिर तू काहे ढो रहा, दूजे का कंकाल।।

अनजाने करता रहा, मैं दूजे का जाप।
जैसा है वैसा भला, मेरा अपना बाप।।

जातिवाद के आज-तक, ना खुल पाए जोड़।
बाबा भी थक-हारकर, गये भंवर में छोड़।।

ना तो मैं हिंदू कभी, और ना ही मैं बुद्ध।
हूं आजीवक जन्म से, कर्म रहे हैं शुद्ध।।

आजीवक को भूलकर, लिया कमंडल थाम।
अब तक ठोकर खा रहा, भूला अपना धाम।।

अपना पुरखा ढूंढ कर, किया बहुत उपकार।
धर्मवीर जी आपका, जग में हो सत्कार।।”(8)

ये दोहे चौहान जी की दोहों की पुस्तक में संकलित हैं। इन दोहों से चौहान जी की वैचारिक यात्रा का पता चलता है। सूरजपाल चौहान जी अपनी कविताओं के जरिए साफ-साफ बता रहे हैं कि रोने-धोने का दौर अब खत्म हो चुका है। दलितों को समाधान चाहिए। समाधान के रूप में चौहान जी के ये दोहे बेजोड़ हैं। बताइए, ये कह रहे हैं कि चौहान जी से ‘मेरा गांव कैसा गांव’ और ‘ये दलितों की बस्ती है’ जैसी लेखनी की उम्मीद दलित समाज कर रहा था! चौहान जी दलित समाज की समस्या का समाधान चाहते थे, जिस में वे ‘आजीवक’ तक पहुंचे हैं।

देखा जा सकता है ऊपर दिए गए चौहान जी के दोहों में से पहला दोहा इस प्रकार है –
‘अपना पुरखा भूलकर, दूजे का गुणगान।
यह तो तू भी जानता कभी न मिलता मान।।’
अब महान आजीवक रैदास के इस दोहे को देखा जाए-
”पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सों, कौन करै हैं प्रीत?”(9)

साफ देखा जा सकता है चौहान जी के ये दोहे सद्गुरु रैदास के दोहों के क्रम में आये हैं। अर्थात चौहान जी अपने जीवन के अंतिम दौर में अपने पुरखों रैदास-कबीर के आंदोलन से जुड़ गए थे। आगे उन की कलम से आजीवक आंदोलन से जुड़ी ऐसी ही रचनाएँ निकलने वाली थीं। खैर, सूरजपाल चौहान दलित कौम के स्वतंत्र और असली साहित्यकार के रूप में मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। जो हमारे लिए गर्व की बात है। हाथ में नये नये कलम थामे दलितों को चौहान जी से सीख लेनी चाहिए।

मेरा गांव कैसा गांव और ये दलितों की बस्ती है से चौहान काफी लोकप्रिय हुए थे। चौहान जी की महत्वपूर्ण और साहसिक रचनाएँ उनकी आत्मकथाएं ‘संतप्त’ और ‘तिरस्कृत’ हैं। हर दलित को चौहान जी की आत्मकथाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए। अपनी आत्मकथा लिख कर चौहान जी ने दलित कौम की मूल और ऐतिहासिक समस्या को सब के सामने रखा।

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