वह 90 का दशक था। मान्यवर कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी देश भर में तेजी से पैर पसार रही थी। दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में बसपा की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी। तभी सन् 1992 में पंजाब में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। पंजाब, बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम का होम स्टेट यानी गृह राज्य था। सबकी निगाहे बसपा पर टिक गई थी। पंजाब में सत्ता में रहने वाले राजनैतिक दल परेशान थे, कि जिस कांशीराम ने देश भर में तहलका मचाया हुआ है, वह अपने होम स्टेट क्या करेंगे। इस विधानसभा चुनाव में बसपा ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीटें जीती। उसके 32 उम्मीदवार दूसरे और 40 उम्मीदवार तीसरे नंबर पर थे। और इस चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत था 16.3 प्रतिशत। बहुजन समाज पार्टी के इस शानदार प्रदर्शन से प्रदेश की राजनीति में हंगामा मच गया था।
पंजाब की सियासत में बसपा का कद बढ़ा तो प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दल बसपा से दोस्ती करने को बेचैन हो गए। तब 1996 लोकसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन का हाथ बढ़ाया, और मान्यवर कांशीराम ने इसको स्वीकर कर लिया। अकाली दल और बसपा ने मिलकर यह चुनाव लड़ा और जो नतीजे आएं उसने बसपा के कद को और बढ़ा दिया। प्रदेश की 13 लोकसभा सीटों में से इस गठबंधन ने 11 सीटों पर जीत हासिल कर ली।
बहुजन समाज पंजाब में बसपा की सरकार बनने का सपना देखने लगा। वजह थी प्रदेश की 32 फीसदी दलित आबादी, जिसके बीच बसपा का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। लेकिन बसपा न तो प्रदेश में सरकार बना पाई और न ही वहां सत्ता की चाभी ले पाई, जैसा कि उसने उत्तर प्रदेश में किया था। और वह सपना अब भी सपना बना हुआ है, लेकिन लगता है कि अगले साल पंजाब विधानसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।
2022 में होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए सुखबीर सिंह बादल की अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में गठबंधन कर लिया है। कृषि बिल पर भाजपा के रूख के कारण उससे गठबंधन तोड़ने वाली अकाली दल 25 सालों बाद फिर से सत्ता पाने के लिए बसपा के साथ एक मंच पर आ गई है। गठबंधन के बाद पंजाब की 117 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी 20 सीटों पर और अकाली दल बाकी की 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इस गठबंधन के पीछे पंजाब का जातीय समीकरण है। प्रदेश में 33 प्रतिशत दलित वोट ही यह तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी। लेकिन पंजाब के दलित समाज का इतिहास है कि वो कभी किसी एक पार्टी के पीछे आंख मूंद कर नहीं चला है। इस समीकरण को समझने के लिए पंजाब को समझना होगा। पंजाब दरअसल तीन हिस्से में बंटा हुआ है। माझा, मालवा और दोआब। इन्हीं इलाकों में प्रदेश के सभी प्रमुख जिले आते हैं।
पंजाब में कुल 57.69 फीसदी सिख, 38.59 फीसदी हिंदू और 1.9 फीसदी मुस्लिम हैं। 22 जिलों में से 18 जिलों में सिख बहुसंख्यक हैं। यहां लगभग दो करोड़ वोटर हैं। जहां तक प्रदेश में 33 फीसदी दलित आबादी का सवाल है तो इस समाज में रविदासी और वाल्मीकि दो बड़े वर्ग हैं। देहात में रहने वाले दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा डेरों से जुड़ा हुआ है। ऐसे में चुनाव के वक्त ये डेरे अहम भूमिका निभाते हैं। जबकि दोआबा बेल्ट में रहने वाले दलित समाज में ज्यादातर परिवारों के सदस्य NRI हैं। इनका असर फगवाड़ा, जालंधर और लुधियाना के कई हिस्सों में है।
साल 1992 में भले ही प्रदेश का दलित वोटर मजबूती से बसपा के साथ आया था, लेकिन विडंबना यह रही कि यह पूरी तरह से बसपा के पीछे एकजुट नहीं हो पाया। धीरे-धीरे बसपा प्रदेश में उस जनाधार को भी खोती गई, जो 90 के दशक में उसके साथ खड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा सभी 13 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, पर वह कोई सीट नहीं जीत सकी। उसे 2.63 लाख वोट मिले थे। तो वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा पंजाब लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर के चुनाव में उतरी थी और तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में बसपा का वोट एक प्रतिशत बढ़कर 3.5 प्रतिशत तक पहुंचा, लेकिन फिर से उसे कोई सीट नहीं मिली। 2014 में 2.63 लाख वोट से बढ़कर 2019 चुनाव में बसपा को 4.79 लाख वोट मिले।
वहीं दूसरी ओर विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीते 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा कुल 111 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। लेकिन उसे सिर्फ डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल सके। बसपा और उसके समर्थकों के लिए बुरी खबर यह रही कि पार्टी किसी सीट पर लड़ाई में भी नहीं रही।
लेकिन शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन के बाद बसपा फिर से प्रदेश की राजनीति में मजबूत वापसी की उम्मीद लगाए है। हालांकि पंजाब चुनाव में इस बार अहम मुद्दा किसान आंदोलन और कृषि कानून रहने की उम्मीद है। लेकिन प्रदेश में जिस तरह से सभी दल दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में जुटे हैं, उसमें बसपा के निश्चित तौर पर एक मजबूत ताकत बन कर उभरने की उम्मीद है। इस गठबंधन की घोषणा करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने प्रदेश में सरकार बनने पर दलित उपमुख्यमंत्री बनाने की बात कही है, उनका यह दांव कितना चलता है, यह चुनावी नतीजे बताएंगे।
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार सूरज पाल चौहान नहीं रहें। आज 15 जून को सुबह करीब साढ़े दस बजे उनका परिनिर्वाण हो गया। वह 66 वर्ष के थे। सूरजपाल चौहान पिछले काफी दिनों से बीमार थे और लगातार उनका डायलिसिस हो रहा था। उनके निधन की सूचना से दलित साहित्य के साथ हिन्दी साहित्य की भारी क्षति हुई है। सूरजपाल चौहान की कविताओं और कहानियों ने दलित समाज को जगाने और झकझोरने का काम किया। वह अपनी कविताओं की चंद पंक्तियों के जरिए बड़ी-बड़ी बातें कह देते थे, जिससे बहुजन समाज सोचने को विवश हो जाता था। तो वहीं अपनी कहानियों में वह दलित समाज के मुद्दों को उठाने के साथ दलित समाज के भीतर फैली कुरीतियों और दोहरेपन को भी सामने लाने से नहीं चूकते थे।
(सूरजपाल चौहान के बारे में जानने के लिए ऊपर के वीडियो में उनका इंटरव्यू देखिए)
सूरजपाल चौहान शुरुआती दिनों में हिन्दीवादी संगठनों से जुड़े रहे और उनके मंचों से हिन्दुवादी कविताएं कहते रहें। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि के संपर्क में आने के बाद वह अंबेडकरवादी हो गए थे और फिर बाबासाहेब और दलित साहित्य से जुड़ गए। इसके बाद उन्होंने दलित साहित्य को काफी सिंचा और दलित साहित्य में बड़ा योगदान दिया। ‘हैरी कब आएगा’ उनकी चर्चित कृति रही। उन्होंने ‘तिरस्कृत’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। इसके अलावा उनका कविता संग्रह और कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।
उनका जन्म 20 अप्रैल 1955 में हुआ था। अपने जीवन में काफी संघर्ष करने के बाद वह इस मुकाम पर पहुंचे थे। वह पिछले काफी समय से स्वास्थ्य संबंधी समस्या से जूझ रहे थे। उनकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी थी, जिसके बाद पिछले लंबे वक्त से उन्हें लगातार डायलिसिस लेना पड़ता था। बावजूद इसके वह तमाम पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। सूरजपाल चौहान ‘दलित दस्तक’ के लिए भी लगातार लिखते रहे। उन्होंने दलित दस्तक के लिए तमाम कहानियां और कविताएं लिखी, जिससे यह पत्रिका काफी समृद्ध हुई।
अपने आखिरी वक्त में वह आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की काफी बातें कर रहे थे। उनके विचार को आगे बढ़ा रहे थे। वह सोशल मीडिया पर लगातार संस्मरण लिख रहे थे। इस दौरान उन्होंने तमाम दलित लेखकों पर भी सवाल उठाएं जिससे दलित साहित्यकारों के बीच उनको लेकर थोड़ी नाराजगी रही। लेकिन हमेशा बेबाक बोलने के लिए मशहूर सूरजपाल चौहान ने इसकी परवाह नहीं की। दलित दस्तक की ओर से सूरजपाल चौहान जी को श्रद्धांजलि। नमन।
चे ग्वेरा (14 जून 1928- शहादत – 9 अक्टूबर 1967)
क्रांतिकारियों की गैलेक्सी के एक चमकते सितारे का नाम अर्नेस्टो चे ग्वेरा है। एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही नसें तन जाती हैं। दिलो-दिमाग उत्तेजना से भर जाता है। हर तरह के अन्याय के खिलाफ लड़ने और न्यायपूर्ण दुनिया बनाने के ख्वाब तैरने लगते हैं। उम्र छोटी हो, लेकिन खूबसूरत हो, यह कल्पना हिलोरे मारने लगती है।
कल्पना करना मुश्किल है, लेकिन यह सच है सिर्फ और सिर्फ 39 साल में शहीद हो जाने वाला एक नौजवान इतना कुछ कर गया जिसे करने के लिए सैकड़ों वर्षों की उम्र नाकाफी लगती है। वह फिदेल कास्त्रो के साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर क्यूबा में क्रांति करता है, अमेरिकी कठपुतली बातिस्ता का तख्ता पलट देता है। ठीक अमेरिका ( यूएसए) के सटे छोटे से देश में क्रांति की चौकी स्थापित कर देता है, जिसका भय आज भी अमेरिका को सताता रहता है।
एक ऐसा क्रांतिकारी जो आज भी दुनिया के युवाओं का प्रेरणास्रोत है। जिसका जन्म अर्जेंटीना में होता, क्रांति क्यूबा में करता है और वोलोबिया में क्रांति की तैयारी करते अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए के हाथों शहीद होता है। कोई अकेला व्यक्ति अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया, तो उसका नाम चे ग्वेरा है। जिसे मारने के लिए अमेरिका ने अपनी सारी ताकत लगा दी। मरने के बाद भी जिसका भूत अमेरिका और उसके पिट्ठू शासकों को सताता रहता है। वे चे ग्वेरा का मारने में सफल हो गए लेकिन उसके क्रांति के सपने को नहीं मार पाए।
दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप की आदिम लोगों का कत्लेआम कर स्पेन ने पहले इन देशों को गुलाम बना लिया। ये देश स्पेन से संघर्ष कर आजाद हो ही रहे थे कि अमेरिका ( USA) ने अपने कठपुतली शासक बैठाकर इन देशों पर नियंत्रण कर लिया। दक्षिण अमेरिका के क्रांतिकारी निरंतर स्पने और बाद में अमेरिका के खिलाफ संघर्ष करते रहे। इन्हीं कांतिकारियों में से दो को आज पूरी दुनिया जानती है। एक का नाम फिदेल क्रास्त्रो और दूसरे का नाम चे ग्वेरा है।
जन्मजात विद्रोही। उनके पिता कहते थे कि मेरे बेटे की रगों में आयरिश विद्रोहियों का खून बहता रहता है। चे के पिता स्पने के खिलाफ पूरे दक्षिण अमेरिका में चल रहे संघर्षों के समर्थक थे। चे को अपने देश और अपने महाद्वीप के लोगों की गरीबी बेचैन कर देती थी। होश संभालते ही उनके दिलो-दिमाग में यह प्रश्न उठता था कि आखिर प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न और कड़ी मेहनत करने वाले मेरे देश और मेरे महाद्वीप के लोग इतने गरीब, लाचार, वेबस और गुलाम क्यों हैं? क्यों और कैसे स्पने और बाद में अमेरिका ने हमारे महाद्वीप पर कब्जा कर लिया और यहां की संपदा को लूटा।
चे ग्वेरा पेशे से डाक्टर थे। बहुत कम उम्र में उन्होंने करीब 3 हजार किताबें पढ़ डाली थीं। पाल्बो नेरूदा और जॉन किट्स उनके प्रिय कवि थे। रूयार्ड किपलिंग उनके पसंदीदा लेखकों में शामिल थे। कार्ल मार्क्स और लेनिन के साथ बुद्ध, अरस्तू और वर्ट्रेड रसेल उनके प्रिय दार्शनिक और चिंतन थे। खुद चे एक अच्छे लेखक थे। वह नियमित डायरी लिखते थे। उन्होंने पूरे लैटिन अमेरिका की अकेले अपनी मोटर साईकिल से य़ात्रा की। इस यात्रा पर आधारित उनकी मोटर साईकिल डायरी है। जो बाद में किताब के रूप में प्रकाशित हुई। जिस पर एक खूबसूरत फिल्म इसी नाम से बनी।
दक्षिण अमेरिका के कई देशों में क्रांतिकारी संघर्षों मे शामिल हुए। बाद में वे कास्त्रो के साथ क्यूबा की क्रांति ( 1959) के नायक बने। जिस क्रांति ने क्यूबा में अमेरिका की कठपुतली बातिस्ता की सरकार को उखाड फेका। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार में विभिन्न जिम्मेदारियों को संभालते हुए उन्होंने क्यूबी की जनता की जिंदगी में आमूल-चूल परिवर्तन करने में अहम भूमिका निभाई। क्यूबा दुनिया के लिए आदर्श देश बन गया। इस सब में चे ग्वेरा की अहम भूमिका थी।
क्यूबा में अपन कामों को पूरा करने के बाद चे लैटिन अमेरिका के अन्य देशों में क्रांति को अंजाम देने निकल पड़े। वोलोबिया में क्रांतिकारी संघर्ष करते हुए 1967 में वे 39 वर्ष की उम्र में शहीद हुए।
गोली मारने जा रहे सैनिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि Do not shoot! I am Che Guevara and I am worth more to you alive than dead.”
पंजाब कई संदर्भों में भारत का विलक्षण राज्य है। इसकी सामाजिक संरचना धर्म और जाति के लिहाज से भारत के राष्ट्रीय प्रारुप या अधिकांश राज्यों से बिल्कुल भिन्न है। राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में बहुसंख्यक हिन्दू पंजाब में अल्पसंख्यक हैं। पंजाब में सिख धर्म के मानने वालो की संख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 58 प्रतिशत है जो आश्चर्यजनक रूप से 1961 के 61 प्रतिशत से तीन प्रतिशत कम है। पंजाब में अनुसूचित जाति की संख्या पूरे भारत में प्रतिशत के हिसाब से सर्वाधिक है, 2011 की जनसंख्या के अनुसार पंजाब में अनुसूचित जातियों की कुल संख्या का 32 प्रतिशत थी जिसकी पूरी संभावना है कि 2021 में यह बढ़कर प्रतिशत हो चुकी है। पंजाब में कुल सिखों का कम से कम प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति से संबंध रखता है। आज भी अनुसूचित जाति के प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं। पंजाब के तकरीबन 57 गाँव ऐसे हैं जिनमें 100 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं। अगर एक दो उदाहरणों को छोड़ दें तो ऐसा शायद ही किसी और प्रदेश में देखने को मिलेगा।
शहीद भगत सिंह नगर, श्रीमुक्तसर नगर, फरीदकोट, फिरोजपुर तथा जलंधर ऐसे जिले हैं जिनमें अनुसूचित जाति की संख्या 40% या उससे अधिक है। वहीं दूसरी और पंजाब की कुल जमीन का सिर्फ 6% हिस्सा ही अनुसूचित जाति के लोगों के पास है। प्रदेश में अनुसूचित जाति के कुल 2 प्रतिशत लोग ही स्नातक या उससे अधिक पढ़े लिखे हैं। राज्य विधान सभा की 117 सीटो में से 32 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं हालांकि संवैधानिक प्रावधान के अनुसार कम से कम 39 सीटे अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होनी चाहिए। प्रदेश में अनुसूचित जाति की कमजोर राजनैतिक स्थिति एवं चुने हुए आरक्षित प्रतिनिधियों की अकर्मण्यता, हैसियत एवं उपयोगिता पर यह एक ज़बरदस्त आक्षेप है। संसाधनों के अभाव में कई जगह पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद यहाँ की अनुसूचित जाति की राजनीति के लाचार एवं निर्भर होने पर पूना पैक्ट का दुष्प्रभाव साफ नज़र आता है।
पंजाब में जाट सिख समुदाय राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक रूप से वर्चस्वशाली रहा है। प्रदेश में कभी किसी और समुदाय के पास इतना प्रभाव या शक्ति नहीं रही है। इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि ज्ञानी जैल सिंह (1972-1977) जो बाद में केन्द्रीय गृह मंत्री एवं राष्ट्रपति भी बने, पंजाब के अंतिम गैर सिख जाट मुख्यमंत्री थे। उसके बाद पिछले 43 वर्षों से पंजाब का हर मुख्यमंत्री जाट सिख रहा है। सभी अकाली दलों और कांग्रेस या आम आदमी पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हमेशा से जाट सिखों के हाथ में ही रहा है। यही सच्चाई अकाल तख़्त या शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की भी रही है। हालाँकि पंजाब की कुल जनसंख्या में मात्र 20 प्रतिशत के आसपास ही जाट सिख हैं लेकिन उनका रुतबा सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में कही अधिक है। लेकिन भारतीय समाज एवं लोकतंत्र में संख्या का महत्व ही कब रहा है। अमूमन हर मामले में संख्या का प्रभाव विपरीत ही रहा है। शिरोमणि अकाली दल आज इस समुदाय का प्रतिनिधि राजनीतिक दल है, 1966 में हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश से अलग होने के बाद यह दल छह बार पंजाब में अपनी सरकार बना चुका है। वर्तमान कांग्रेसी सरकार से पहले मार्च 2017 तक प्रकाश सिंह बदल के नेतृत्व में इनकी सरकार चल रही थी, वर्तमान विधानसभा में SAD के 15 विधायक हैं जिन्हें कुल 31% वोट मिले थे।
पंजाब में 1992 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करते हुए 17 प्रतिशत मत, 9 सीटें और मुख्य विपक्षी पार्टी की मान्यता हासिल की थी। फिर 1996 के लोकसभा चुनाव में SAD से लोकसभा गठबंधन में 100 स्ट्राइक
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रेट के साथ अपनी लड़ी तीनों सीटो के साथ 13 में से 11 सीटें जीत ली थी। लेकिन उसके बाद पंजाब में बसपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है। 1997 के विधानसभा चुनावों में बसपा को सिर्फ एक सीट मिली थी और पिछले चार विधानसभा चुनावों (2002, 2007, 2012, 2017) में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई है जबकि बसपा हर बार लगभग सभी सीटो पर अपने प्रत्याशी उतारती रही है। पिछले विधान सभा चुनाव में बसपा को कुल 1 करोड़ 55 लाख वोटों में से 2 लाख 35 हजार वोट प्राप्त हुए थे जो कि सिर्फ कुल वोट का मात्र 1.52 प्रतिशत ही था। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी राज्य में अपनी खोई हुई राजनैतिक जमीन को दुबारा से प्राप्त करने की पूरी कोशिश कर रही है। अपनी स्थापना के 12 साल में ही जब 1996 में बसपा ने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल किया था उसमें पंजाब में बसपा को 1992 प्राप्त मतों (16.3%) का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था।
आज जब बसपा राष्ट्रीय स्तर पर अपने उस दर्जे को बनाये रखने की जद्दोजहद कर रही है, लगता है पंजाब एक बार फिर बसपा की इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहा है। हालांकि जमीनी सच्चाई से दूर बैठे हुए कुछ लोगों को यह लग सकता हैं कि SAD-BSP गठबंधन में बसपा के हिस्से में मात्र 20 सीटें आई हैं और SAD को 97 मिली हैं लेकिन पिछले चुनावों में दोनों दलों के तुलनात्मक प्रदर्शन से यह साफ हो जाता है कि यह समझौता काफी सम्मानजनक एवं राजनैतिक सूझबूझ भरा है BSP और SAD दोनों ही इस समझौते से अपनी राजनीतिक जमीन हासिल कर सकते है।
इस बार जिस तरह की सुदृढ़ तैयारी ऊर्जावान एवं युवा प्रदेश बसपा संगठन की पंजाब में दिख रही है, जिसका प्रदर्शन उसने स्थानीय निकायों के चुनावों में अच्छी सफलता प्राप्त करके दिया है। और केन्द्रीय नेतृत्व ने समय रहते शिरोमणि अकाली दल से अपना गठबंधन घोषित किया है उससे निश्चित ही 1992 के अपने मत प्रतिशत एवं सीटो के मामले में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने की संभावना दिख रही है। क्योंकि यह गठबंधन चुनावों से लगभग आठ महीने पहले हुआ हैं इससे संगठन के स्तर पर दोनों दलों को तालमेल बैठाने का पर्याप्त समय भी मिल गया है। प्रदेश की राजनीति में खासतौर पर अनुसूचित जाति की महत्वपूर्ण संख्या को देखते हुए यह चुनावी गठबंधन बसपा को यह दीर्घकालीन मजबूती प्रदान कर सकता है।
अगर सामाजिक संबंधों के सन्दर्भ में अकाली बसपा गठबंधन का आकलन किया जाये तो यह राजनैतिक प्रक्रिया भविष्य के सामाजिक गठबंधन एवं वैचारिक एकता की बुनियाद बन सकती है। दोनों दल जिन सामाजिक समुदायों का राजनीतिक एवं वैचारिक प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, ये समुदाय पंजाब में पिछले 500 वर्षों के सभी सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक आंदोलनों एवं क्रांतियों की धुरी रहे हैं। वह चाहे खालसा क्रांति से लेकर आदि धर्मी एवं वर्तमान किसान तक। कांशीराम साहब कहा करते थे कि जाट सिख एक क्रांतिकारी कौम है जिसने इतिहास में कभी भी ब्राह्मण वादी वर्चस्व या उसके सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को स्वीकार नहीं किया।
दोनों समुदाय खेती से जुड़े है और अधिकतर खेतिहर मजदूर जहाँ अनुसूचित जाति वर्ग से आते है वही जाट अधिकतर खेती योग्य जमीन पर मालिकाना हक़ रखते हैं। जाहिर है दोनों समुदायों में आर्थिक संबंधों की वजह से तनाव की स्थिति बन जाना सहज है, लेकिन इस बीच बहुत से अनुसूचित जाति के लोग विदेशों में जाकर अपना कारोबार कर रहे हैं, जिसने लाखों लोगों आर्थिक मजबूती प्रदान की है। वही दूसरी तरफ पिछले तीन दशकों में कृषि के साथ सरकारों के सौतेले व्यवहार, कृषि सहित चारों और बढ़ते निजी-करण का खतरा, बढ़ते एवं पढ़ते परिवार, बिचौलियों की मुनाफाखोरी तथा घटती जमीनों के आकर ने किसानों एवं खेती से जुड़े समुदायों पर ज़बरदस्त दबाव बढाया हैं जिस कारण सैकड़ों जमींदार अपनी जमींदारियों के साथ गुम-नामी के अंधकार में विलीन हो गये और आज भी हो रहे हैं। यह गठबंधन इस तनाव से गुजर रहे दोनों समूहों को राजनीतिक रूप से नजदीक लाकर परम्परागत संबंधों को बराबरी के स्तर पर लाकर ऐतिहासिक शुरुआत कर सकता है।
इस गठबंधन के साथ ही विधानसभा के फरवरी 2022 में होने वाले चुनाव में SAD-BSP सरकार बनाने के प्रमुख दावेदार बन गये हैं। कृषि कानून के खिलाफ चल रहे ऐतिहासिक आन्दोलन के चलते, पंजाब में किसानों, युवाओं एवं व्यापारियों में केंद्र की भाजपा सरकार एवं अपने ढुलमुल रवैये के कारण राज्य की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जन आक्रोश चरम पर है। ऐसे में पंजाब का चुनाव भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित हो सकता है न सिर्फ पंजाब के लिए बल्कि आने वाले अप्रैल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए और फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भी।
अगले साल 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है। पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए सुखबीर सिंह बादल की अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में गठबंधन कर लिया है। प्रदेश की राजधानी चंडीगढ़ में सुखबीर सिंह बादल के साथ बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने इसकी घोषणा की। कृषि बिल पर भाजपा के रूख के कारण उससे गठबंधन तोड़ने वाली अकाली दल 25 सालों बाद फिर से सत्ता पाने के लिए बसपा के साथ एक मंच पर आ गई है। गठबंधन के बाद पंजाब की 117 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी 20 सीटों पर और अकाली दल बाकी की 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इस गठबंधन के पीछे पंजाब का जातीय समीकरण है। प्रदेश में 33 प्रतिशत दलित वोट ही यह तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी। हालांकि विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीते 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा कुल 111 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। लेकिन उसे सिर्फ डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल सके। बसपा कोई सीट नहीं जीत सकी थी।
लेकिन शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन के बाद बसपा फिर से प्रदेश की राजनीति में मजबूत वापसी की उम्मीद लगाए है। हालांकि पंजाब चुनाव में इस बार अहम मुद्दा किसान आंदोलन और कृषि कानून रहने की उम्मीद है। लेकिन प्रदेश में जिस तरह से सभी दल दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में जुटे हैं, उसमें बसपा के निश्चित तौर पर एक मजबूत ताकत बन कर उभरने की उम्मीद है। इस गठबंधन की घोषणा करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने प्रदेश में सरकार बनने पर दलित उपमुख्यमंत्री बनाने की बात कही है, उनका यह दांव कितना चलता है, यह चुनावी नतीजे बताएंगे।
पंजाब में बसपा की राजनीति की बात करें तो साल 1992 विधानसभा चुनाव में बसपा ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीटें जीती। उसके 32 उम्मीदवार दूसरे और 40 उम्मीदवार तीसरे नंबर पर थे। और इस चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत था 16.3 प्रतिशत। बहुजन समाज पार्टी के इस शानदार प्रदर्शन से प्रदेश की राजनीति में हंगामा मच गया था। पंजाब में यह अब तक का बसपा का सबसे शानदार प्रदर्शन रहा है।
बहुजन समाज पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित किए जाने से नाराज कार्यकर्ताओं ने गुरुवार को सामूहिक रूप से पार्टी से इस्तीफा दे दिया। कार्यकर्ताओं ने कहा कि राम अचल राजभर ने पार्टी के लिए निष्ठापूर्वक कार्य किया, लेकिन कुछ लोगों ने साजिश रचकर उन्हें पार्टी से निष्कासित करा दिया है।
बसपा भाईचारा कमेटी के पूर्व मंडल अध्यक्ष राम भवन शर्मा की अध्यक्षता में बसपा कार्यकर्ताओं ने शहर के एक होटल में बैठक की। इस दौरान पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित करने को लेकर नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि राम अचल राजभर ने बाबा साहेब आंबेडकर व कांशीराम के आदर्शों पर चलकर बसपा को मजबूती प्रदान की, लेकिन साजिश के तहत उन्हें निष्कासित कर दिया गया है।
इससे निष्ठावान कार्यकर्ता आहत हैं। इसके बाद कार्यकर्ताओं ने सामूहिक इस्तीफा देने की घोषणा की। पार्टी से त्यागपत्र देने वालों में चंद्र प्रकाश, रामफेर, राजमणि शर्मा, राहुल शर्मा, विजय शर्मा, सदानंद गौतम, पप्पू राजभर, दीपू शर्मा, कृष्ण कुमार शर्मा, अवधेश कुमार, वीरेंद्र शर्मा, सत्यवान शर्मा, सत्यवान, सुनील वर्मा, धर्मपाल शर्मा, श्याम बिहारी, साधू शर्मा, बलराम शर्मा आदि शामिल रहे।
त्यागपत्र देने वाले कभी सक्रिय भूमिका में नहीं रहे
बसपा जिलाध्यक्ष धर्मदेव प्रियदर्शी ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी सर्वजन समाज की पार्टी है। बसपा ने हमेशा अपने शासनकाल में सबसे अधिक पिछड़ों को सम्मान दिया है। राम भवन शर्मा अभी तत्काल में हुए पंचायत चुनाव में बसपा प्रत्याशी का विरोध किए हैं। इसकी जानकारी कार्यकर्ताओं और प्रत्याशी के माध्यम से लगातार मिलती रही। वह बसपा में कभी भी सक्रिय भूमिका में नहीं रहे। इस प्रकार के व्यक्तित्व का कोई अस्तित्व नहीं है।
(लेखकः बाल गंगाधर बागी)भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी समाज की अहम भूमिका रही है, पूरे देश में लाखों आदिवासियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाया है। भारत की सभ्यता निर्माण से लेकर आज तक के भारत में आदिवासी समाज की जो महती भूमिका रही है उसे इतिहास में उचित स्थान नहीं दिया गया। यह सवाल उन भारतीय इतिहासकारों पर खड़ा होता है जो स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सेनानी 1857 के विद्रोही मंगल पांडेय को बताते नहीं थकते। जबकि मंगल पांडेय से भी पहले 11 फरवरी 1750 में सुल्तानगंज जिला भागलपुर में जन्में तिलखा माझी सन् 1784 में क्रांति का बिगुल बजा चुके थे। बाबा तिलका मांझी ने ऑगस्टस क्लीवलैंड, ब्रिटिश कमिश्नर [लेफ्टिनेंट] को राजमहल पर गुलेल से जान से मार दिया था। परिणामस्वरूप 1784 में अंग्रेजी सरकार उन्हें पकड़ने के बाद घोड़े की पूंछ में उन्हें बांधकर भागलपुर के अंग्रेजी आवास के चारो तरफ घुमाया गया और अंत में बरगद के पेड़ में टांगकर उन्हें शहीद कर दिया गया। उस वक्त मंगल पांडेय का जन्म भी नहीं हुआ था। लेकिन सवर्ण इतिहासकार आदिवासी शौर्य को नकारते हुये वीडी सावरकर ने पहली बार मंगल पांडेय को आज़ादी का प्रथम स्वंतन्त्रता संग्राम सेनानी घोषित किया। आदिवासी समाज के प्रति इतनी नफरत इनके मन में क्यों है?
आदिवासी शौर्य की बात की जाय तो देश की आज़ादी के लिए 1855 का हूल विद्रोह सर्वविदित है। संताल की हूल क्रांति को आजादी की पहली लड़ाई माना जाता है। 30 जून 1855 को क्रांतिकारी नेता सिदो और कान्हू मुर्मू के आह्वान पर राजमहल के भोगनाडीह में 20 हजार संतालों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह किया था। इस लड़ाई में फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू ने अपने संथाल आदिवासी समुदाय के साथ अंग्रेजी हुकूमत का विरोध किया।
इन्हीं नायकों के ऐतिहासिक शौर्य में उलगुलान धरती आबा शहीद बिरसा मुंडा का नाम इतिहास में अमर है। जिन्होंने अपनी मात्र 25 साल की उम्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो जंग छेड़ी उसने अंग्रेजी सरकार के परखच्चे उड़ा दिए। बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के रांची (खुटी) जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। उनके पिता सुगना पुर्ती (मुंडा) और माता-करमी पुर्ती था। विद्रोही बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा साल्गा गाँव चाईबासा जी.ई.एल. चार्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विधालय से हुई। उनके माता पिता बिरसा मुंडा को अच्छी शिक्षा देकर उन्हें आगे बढ़ाना चाहते थे लेकिन स्कूलों की कमी के कारण उनका ईसाई मिशनिरी स्कूलों में दाख़िला कराया। जहाँ दाखिला लेने के लिए ईसाई नाम रखना ज़रूरी था इसीलिए बिरसा का एडमिशन बिरसा डेविड के नाम से हुआ। लेकिन बिरसा को यह बात पसंद नहीं आई इसीलिए उन्होंने अपने नाम से डेविड शब्द हटा दिया।
उस दौर में झारखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश में जाति, पाखंड, आडम्बर ज़मींदारी इत्यादि हावी था। जिसके चलते धर्म के ठेकेदारों के द्वारा ज़मींदारी बढ़ने लगी और सवर्ण ज़मींदार जब आदिवासियों की जमीने छीनने लगे तो आदिवासी समाज इस बाबत लामबंद हुआ और यह समय के साथ विद्रोह का रूप लेने लगा। बिरसा मुंडा ने ज़मींदारों की हड़प नीति की मुखालिफ़त करते हुए आदिवासी समाज का नेतृत्व किया।
झारखंड में छोटा नागपुर का नाम बहुत मशहूर है। नागवंश का इतिहास यहाँ से मिलता है। यहाँ के नागा आदिवासी पूरे भारत में बसे हैं। नागपुर शहर इन्हीं के नाम से जाना जाता है, जहाँ बाबा साहब ने 1956 में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते हुये इस ऐतिहासिक तथ्य की तरफ़ इशारा किया था कि “जिन लोगों को यह लगता है कि मैं नागपुर में इसीलिए बौद्ध धम्म ग्रहण कर रहा हूँ क्योंकि यहाँ आरएसएस का मुख्यालय है तो वह लोग गलत सोच रहे हैं बल्कि मैं नागपुर में इसीलिए बौद्ध धम्म की दीक्षा ले रहा हूँ क्योंकि यह धरती हमारे पूर्वज नागों की धरती है।”
अगर कश्मीर का इतिहास उठाकर देखे व उसकी भूगोलिक व राजनीतिक नामावली का जायजा लें तो यह पता चलता है कि वहाँ अनंतनाग नाम से एक जिला है जिसका ज़बरदस्ती नाम बदलकर इस्लामाबाद रखा गया है। उत्तर भारत में एक पर्व मनाया जाता है जिसे नाग पंचमी कहते हैं। इसमें पंचमी शब्द बुद्ध के पंचशील दर्शन को संबोधित करता है। इस दिन लोग अपने घरों में अच्छे पकवान बनाते हैं और पेड़ों पर झूला डालकर झूलते हैं। इस मौके पर महिलाएं कजरी गाती हैं और मौसम से संबंधित लोकरंग में डूबी संवेदनाओं का लोमहर्षक वर्णन करती हैं। और पुरूष कबड्डी व कुश्ती जैसे खेलों का आनन्द लेते हैं।
इसके विपरीत सवर्ण संस्कृति के लोग इसी दिन कपड़े की गुड़िया बनाकर शाम के वक़्त सवर्ण लड़किया कतार बनाकर आती हैं और सवर्ण लड़के हाथ में डंडा लेकर आते हैं और कपड़े की गुड़िया को सवर्ण लड़कियाँ फेंकती हैं जिस को सवर्ण लड़के डंडों से पीटते हैं। उसके बाद लड़कियाँ लड़कों को घर से लाये पकवान खिलाती हैं। यह परम्परा आज भी पूर्वांचल में कुछ जगहों पर है। लेकिन नाग संस्कृति के प्रति सवर्ण समाज के भीतर आज भी नफरत है?
आदिवासी समाज स्वतंत्र संस्कृति का बाहक रहा है इसीलिए उसे किसी का उसके इलाके में जबरन घुसपैठ पसंद नहीं। आदिवासियों का मानना है कि उनके इलाके में कोई भी आये उसका स्वागत है लेकिन वहाँ रहकर अगर उनके जल-जंगल व ज़मीन को छीनने का प्रयास करे तो उन्हें पसंद नहीं। कुछ लोग आदिवासियों के खिलाफ भ्रामक प्रचार करते हैं कि आदिवासी किसी को अपने इलाके में आने नहीं देना चाहते। जबकि यह बात समझने का प्रयास बहुत कम लोग करते हैं अगर किसी के घर में जाकर कोई उसके घर को हड़पने की कोशिश करे तो यह किसी को भी पसन्द नहीं आएगा। फिर यह बात सभी पर लागू होती है न कि सिर्फ आदिवासियों पर। यही वजह थी कि अंग्रेज जब आदिवासी इलाक़ों में घुसपैठ करते हुये झारखंड पहुंचे और वहां आदिवासियों की जमीनों की हड़प नीति अपनाए और धर्म परिवर्तन कराना शुरू किये तो आदिवासी जिस तरह से स्थानीय ज़मींदारों व सामन्तों के खिलाफ मुखर होकर लामबंद हुये थे उससे भी ज़्यादा विद्रोही रुप में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दिया।
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उसका नारा था कि “अबुआ दिशुम अबुआ राज यानि हमारा देश हमारा राज”। यह अब्राहम लिंकन के नारे के ही समान है कि “जनता की सरकार जनता के द्वारा जनता के लिए”। बिरसा के अलख से जगह-जगह आदिवासी एकत्रित व संगठित होने लगे और तीर कमान के विद्रोह से देखते ही देखते पूरे झारखंड से अंग्रेजी सरकार के पैर उखड़ने लगे। इस सेना में आदिवासी पुरुषों के साथ महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही थीं। घबराई अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपये का ईनाम रखा। जिसके परिणाम स्वरूप जनवरी 1900 में जब बिरसा उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे, एक आदिवासी की मुखबिरी के कारण अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच लड़ाई हुई। औरतें और बच्चों समेत बहुत से लोग मारे गये। अन्त में बिरसा 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये और कई दिनों की यातना देने के बाद उन्हें 9 जून सन 1900 में रांची की जेल में ही जहर देकर मार दिया गया।
महज 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने क्रांति का ऐसा ऐतिहासिक बिगुल बजाया जिसने उन्हें करोड़ों लोगों के आदर्श के रूप में स्थापित कर दिया। तीर-कमान, भाला, फरसा, व गुलेल से अंग्रेजी सरकार के तोपों का मुकाबला करने वाला यह नौजवान आदिवासी समाज को यह सीख दे गया कि अपने वजूद की रक्षा के लिए एक चिंगारी भी ज्वाला बन सकती है। हर असमानता के ख़िलाफ़ विद्रोह का नाम बिरसा मुंडा है।
आज भी बिहार, उड़िसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। इसीलिए उन्हें लोग धरती आबा के नाम से संबोधित करते हैं। बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। जहाँ उनकी प्रतिमा भी लगी है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है। आजादी के बाद से सत्ता में आई सरकारों ने आदिवादी समाज के प्रति जो दोहरा रवैया अपनाया है वह अत्यन्त निराशाजनक है। आदिवासी समाज आज भी अपने ही मुल्क में अपनी ही मिल्कियत से बेदखल किये जा रहे हैं। ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए ऐसी सरकार की ज़रूरत है जिसका आदिवासी समाज अपेक्षित है।
बहुजन समाज में जन्मे ऐसे नायक को मान्यवर कांशीराम अपना आदर्श मानते थे इसीलिए साईकिल से पूरे देश में गाँव-गाँव जाकर बहुजन नायक व नायिकाओं की वीरगाथा।लोगों को सुनाते व समझाते रहे। कहते हैं कि अपने इतिहास को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचारती करते रहना चाहिए नहीं तो विरोधी उस पर मिट्टी डाल देंगे।
जय भीम- हूल जोहार
इस आलेख के लेखक डॉ. बाल गंगाधर बाग़ी ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी की डिग्री ली है।
जेएनयू के पूर्व छात्र और ओडिशा के रहने वाले एंटी कॉस्ट एक्टिविस्ट दलित रैपर सुमित समोस ने कमाल कर दिया है। सुमित ने जो किया, दरअसल उससे एक रिकार्ड भी बन गया है। रिकार्ड की बात बाद में, अच्छी खबर यह है कि सुमित समोस ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी जा रहे हैं, जहां वह दक्षिण एशियाई अध्ययन में एमएससी कार्यक्रम में शामिल होंगे। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में सुमित का शोध एंटी कास्ट एक्टिविजम पर केंद्रित होगा। सुमित का कहना है कि यह विषय उनके दिल के करीब है। सुमित इससे पहले जेएनयू में स्पेनिश भाषा और लैटिन अमेरिकी साहित्य में ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री ले चुके हैं। सुमित अक्टूबर में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की राह पकड़ेगे।
दरअसल सुमित का ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में दाखिले के लिए भेजा गया आवेदन जनवरी महीने में स्वीकार कर लिया गया था। लेकिन सुमित के सामने पढ़ाई के पैसे जुटाने की चुनौती थी। दक्षिण ओडिसा के कोरापुट के रहने वाले सुमित के पिता एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं, जबकि उनकी माँ एक एएनएम कार्यकर्ता रही हैं। ऐसे में वह घर से पैसे नहीं ले सकते थे। दिकक्त तब ज्यादा बढ़ गई जब सुमित ने स्कॉलरशिप के लिए आवेदन दिया, लेकिन कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण वह स्कॉलरशिप नहीं पा सकें। और वादा करने के बावजूद ओडिसा सरकार ने तकनीकी दिक्कतों का हवाला देकर हाथ खड़े कर दिये। ऐसे में सुमित के सामने बस एक ही रास्ता था, वह रास्ता था, क्राउड फंडिंग के जरिए पैसे जुटाना।
सुमित ने इस बारे में सुन रखा था सो उन्होंने अपने कुछ दोस्तों की मदद से क्राउड फंडिग के लिए अपील की। और गजब यह हुआ कि सुमित ने सिर्फ 3 घंटे में क्राउड फंडिग के जरिए 38 लाख रुपये जुटा लिए। जो कि निश्चित तौर पर एक रिकार्ड है। हालांकि इस दौरान कई लोगों ने सुमित पर जाति के आधार पर पैसे मांगने का आरोप भी लगाया और उन्हें भला-बुरा भी कहा। लेकिन सुमित के विचारों से ताल्लुक रखने वाला समाज उनकी मदद को आगे आया और दिल खोल कर उनकी मदद की। सुमित का कहना है कि उन्हें यकीन था कि समाज के लोग उनकी मदद करेंगे, लेकिन वो सिर्फ 3 घंटे में 38 लाख रुपये जैसी बड़ी रकम जुटा पाएंगे, उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी।
सुमित अब ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी जाने की तैयारी में हैं। सुमित अपने नाम से ही अपना यू-ट्यूब चैनल भी चलाते हैं, जहां वह अपने लिखी गीतों को रैप के जरिए लोगों तक पहुंचाते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुमित ऑक्सफोर्ड से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद दलित-बहुजन समाज के लिए और बेहतर काम करेंगे।
बाबासाहेब डॉ. बी.आर आंबेडकर भारत के अद्वितीय चिंतक, अर्थशास्त्री और महान समाज सुधारक थे। भारत के संविधान निर्माता के रूप में वे विश्वविख्यात हैं ही उनका योगदान भी अद्वितीय है। लेकिन वे केवल एक कानूनी व्याख्याकार ही नहीं थे, वरन उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। समाजशास्त्र,राजनीत शास्त्र, मानव शास्त्र एवं तुलनात्मक धर्म शास्त्र अध्ययन में उनका योगदान हमेशा याद रखा जाएगा। एक संसदीय नेता, महान शिक्षा शास्त्री , विश्वविख्यात पत्रकार और इस सबसे ऊपर भारत में करोड़ो दबे कुचले लोगों के मानव अधिकारों के लिए संघर्षशील समाज सुधारक के रूप में उनकी भूमिका इतिहास के पन्नों पर सदैव विद्यमान रहेगी। उन्होंने दलित समुदाय की गरिमा, सामाजिक सुधार और धार्मिक उन्नति को प्रमुखता प्रदान की, जो मानवीय विकास के लिए सदैव प्रासंगिक रहेगी। उनका कहना था कि धर्मों के जद में आकर भाग्य पर भरोसा करना कतई उचित नहीं है। भाग्य के भरोसे न रहकर मनुष्य को अपनी शक्ति पर विश्वास करने की आवश्यकता है, क्योंकि उसकी शक्ति ही, उसकी मानसिक मजबूती है। मानसिक मजबूती ही भारत को आगे ले जा सकती है ना कि अंधविश्वासी मानसिकता।
1933 में 18 फरवरी को कसारा में ठाणे जिला अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए डॉक्टर बी.आर आंबेडकर ने कहा- “अंधविश्वासी प्रचलन ने दलितों को, श्रमिकों को युगों से शक्ति विहीन किया है और उनकी पुरूषत्व को समाप्त कर दिया है। रोटी कमाना भगवान की पूजा से बेहतर है, कहकर उन्होंने लोगों के मन तथा मस्तिष्क पर छाप छोड़ी।” अधिवेशन में डॉक्टर अंबेडकर ने अछूतों से कहा- “हमें चतुर्वर्ण व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा। उच्च जातियों के लिए विशेष सुविधाएं और निम्न वर्गों के लिए गरीबी के सिद्धांत का अंत होना चाहिए। ब्रिटिश सरकार विदेशी सरकार है, इसलिए हमारी दशा में अधिक प्रगति नहीं है। फूट को अपने ऊपर हावी ना होने दें। आपसी फूट सर्वनाश की ओर ले जाती है। परिवेश परिस्थितियों का स्वयं की दृष्टि से अध्ययन करें। यह ना भूलें कि महाड़ तथा नासिक की तुम्हारी मुठभेड़ से तुम्हें शीघ्र ही राजनीतिक प्रतिष्ठा मिलने वाली है। नासिक सत्याग्रह के समाचार लंदन के ‘टाइम्स’ में हर दिन छपते थे तथा इनसे ब्रिटिश निवासियों में हमारे बारे में जानने की रुचि बढ़ी और उन्हें सीखने को मिला।
उन्होंने आगे कहा, “तुमने जो खोया, उससे दूसरों को लाभ हुआ। तुम्हारे अपमान से दूसरों का स्वाभिमान बढ़ता है। तुम्हें अभावों की जिंदगी जीने को मजबूर किया जाता है, वस्तुओं से वंचित तथा अपमानित किया जाता है, क्योंकि वे जो तुमसे ऊपर हैं, प्रबल तानाशाह हैं और अविश्वसनीय है और यह किसी भी तरह तुम्हारे पूर्व जन्म में किए पापों का फल नहीं है। तुम्हारे पास कोई जमीन नहीं है क्योंकि दूसरों ने हड़प ली। तुम्हारे पास कोई पद नहीं है क्योंकि दूसरों ने उस पर कब्जा कर लिया। भाग्य के भरोसे ना रहो अपनी शक्ति में विश्वास रखो।”
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने लोगों को मंदिर प्रवेश आंदोलन तथा पारस्परिक भोज की भूल भुलैया में खो जाने के विरुद्ध चेताया। उन्होंने समझाया कि इससे उनकी दाल रोटी की समस्या हल नहीं होगी। इस मूर्खता पूर्ण धारणा कि तुम्हारी कंगाली तथा विपदा ईश्वर द्वारा निर्धारित है, जितनी जल्दी त्याग दो उतना ही तुम्हारे लिए बेहतर है। यह विचार कि तुम्हारी गरीबी अवश्यंभावी है, जन्मजात है तथा मृत्यु पर्यंत है, कोरा झूठ तथा गलत एवं बकवास है। उन्होंने आगे कहा कि अपने आप को दास समझने वाली विचारधारा को त्याग दो
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4 मार्च 1933 को बंबई सेंडहस्र्ट मार्ग के समीप जीआईपी रेलवे आवास के मैदान पर अछूतों की एक सभा हुई थी। यह सभा डॉक्टर आंबेडकर को 85 लोगों द्वारा हस्ताक्षरित सम्मान पत्र भेंट करने के लिए बुलाई गई थी। इस सभा में डॉक्टर आंबेडकर ने कहा “आपने मुझे जो सम्मान पत्र भेंट किया है, मैं उसके लिए आप सब का आभार व्यक्त करता हूं। यह सम्मान पत्र मेरे काम और गुणों के लिए प्रशंसा से भरा है। इसका अर्थ है कि आप अपने जैसे ही एक साधारण मनुष्य को ‘पूजा की वस्तु’ मान रहे हैं’। यह नायक पूजा की सोच अगर तुरंत समय रहते नहीं रोकी गई तो यह आप का विनाश कर देगी। किसी एक व्यक्ति को पूज्यनीय बनाकर आप अपनी सुरक्षा तथा मुक्ति का दायित्व उस अकेले व्यक्ति पर डालकर भार मुक्त हो, विश्राम मुद्रा में चले जाते हैं और आप में आश्रित रहने तथा अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता की आदत पर जाती है। अगर आप ऐसे विचारों के शिकार बन जाते हैं, तो आपका भाग्य राष्ट्र की जीवनधारा में बहते कटे लकड़ी के लट्ठे से बेहतर तो नहीं हो सकता। आप का संघर्ष तो शून्य हो जाएगा, समाप्त हो जाएगा, खत्म हो जाएगा।
उन्होंने अपनी बात को आगे कहा “नवयुग ने आपको जो राजनीतिक अधिकार उपलब्ध कराएं हैं उनकी उपेक्षा मत करो। आपका पूरा समाज अब तक पैरों तले रौंदा जा रहा था क्योंकि आपके मन तथा मस्तिष्क में बेबसी भरी थी। मैं यह भी कहूंगा कि नेता पूजा के विचार तथा नेता पूजा तथा कर्तव्य की अनदेखी ने हिंदू समाज का विनाश किया है तथा हमारे देश के पिछड़ने के कारण बने हैं। उन्होंने बताया “दूसरे देशों में राष्ट्रीय विपत्ति तथा संकट के समय लोग एकजुट होकर खतरे को टालने के लिए सक्रिय हो जाते हैं और शांति तथा संपन्नता प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत हमारा धर्म हमारे कानों में बार-बार “मनुष्य कुछ नहीं करता” का राग अलापता रहता है और मनुष्य को निष्क्रिय कर देता है। वह एक बेबस लकड़ी के लट्ठे के समान है। किसी भी राष्ट्रीय संकट के समय ईश्वर के अवतरित होने तथा संकट से उबारने की आशा रखी जाती है। सारांश में शत्रुओं से एकजुट होकर निपटने के बजाय इस काम को करने के लिए अवतार लेने की प्रतीक्षा करते रहते है।”
इस दासता का उन्मूलन आपको स्वयं ही करना है। इसके लिए ईश्वर या किसी दैवी शक्ति पर निर्भर ना रहें, आपकी मुक्ति तो आपकी राजनीतिक शक्तियों में है ना कि तीर्थ यात्राओं अथवा उपवास रखने में या व्रत रखने में। धर्मग्रंथों के प्रति निष्ठा से आपको अपने दासता के बंधनों, अभाव व गरीबी से मुक्ति नहीं मिल सकती। तुम्हारे पूर्वज यह सब पीढ़ी दर पीढ़ी करते आए हैं पर उन्हें दुखद जीवन से नाम मात्र भी राहत नहीं मिली। आप अपने पूर्वजों की ही तरह से चिथड़े पहनते हो। उनकी तरह तुम फेंके हुए बचे-खुचे टुकड़ों पर जीते हो। उनकी तरह गंदी बस्तियों में गंदी झोपड़ियों में सड़ रहे हो और उन्हीं की तरह बीमारियों के आसान शिकार होते हो और मुर्गियों के चूजों की मौत मरते हो। अपने धार्मिक उपवास में संयम व प्रायश्चित ने भी आपको भूखमरी से नहीं बचाया।”
उन्होंने आगे कहा “यह विधानमंडल का कर्तव्य है कि आप को भोजन, कपड़े, आवास, शिक्षा औषधि व रोजगार उपलब्ध कराएं। कानून का निर्माण कार्य और इसे लागू करना जैसे कार्य आप की स्वीकृति, सहायता व आपकी इच्छा से पारित किए जाएंगे। संक्षेप में कानून वैश्विक प्रसन्नता का आवास है। इसलिए अपना ध्यान उपवास, पूजा-पाठ और प्रायश्चित से हटाकर विधि व्यवस्था निर्माण करने की शक्ति को अपने काबू में करो, इसी में आपकी मुक्ति है। इसी मार्ग से आपकी भुखमरी का अंत होगा। स्मरण रहे कि यह आवश्यक नहीं है कि संख्या में लोगों का बहुमत हो। हमेशा सतर्क, शक्तिशाली, सुशिक्षित और आत्मसम्मान के प्रति सजग हो, तभी सफल होंगे।”
वर्तमान समय में कोरोना के कहर ने यह साबित कर दिया है कि कोई ईश्वरीय महाशक्ति, आत्मा-परमात्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है। जो कुछ भी घटित होता है वह या तो मानव जनित होता है या प्रकृति जनित। सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हम करते खुद हैं और उसका श्रेय ईश्वर, अल्लाह या भगवान को दे देते हैं। भगवान को मानव ने खुद बनाया है, भगवान ने मानव को नहीं। कुछ स्वार्थी लोगों ने अपने स्वार्थ में भगवान को जन्म दिया और लोगों को उसका डर दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। हम अपने आप पर विश्वास कर सकते हैं। मानवता पर विश्वास कर सकते हैं। भाग्य और भगवान पर विश्वास करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। इसलिए भाग्य पर भरोसा मत रखिए, अपने आप पर भरोसा रखिए। तभी अपना, समाज का और राष्ट्र का उद्धार किया जा सकता है।
जय भीम !! जय बहुजन समाज!!
यह आलेख संजय कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर (बी.एड.विभाग बीआरडीपीजी कॉलेज देवरिया, उत्तर प्रदेश) ने भेजा है। उनसे संपर्क- 9919 62 3541 पर कर सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के जनता ने 2018 में 15 साल (बीजेपी शासन) के वनवास के बाद 90/72 सीट से भूपेश बघेल कांग्रेस की सरकार बनाई। जनता को क्या पता की कांग्रेस बीजेपी भाई बहन है! बस्तर संभाग के 12/11सीट पर जनता ने कांग्रेस को बैठाया। दुर्दशा देखिए 17 मई 2021 को बस्तर (सिलगेर) में आदिवासियों पर हुई फायरिंग से 3 किसान की मौत हो गई, जबकि 6 लापता और 18 किसान घायल हो गए, जिसकी उच्च स्तरीय जांच की मांग एवं इस पर सरकार द्वारा नाटकबाजी के खिलाफ लगभग 40 गांव के किसान सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। अपने जमीन से उनका CRPF कैंप (153वी बटालियन) के खिलाफ हल्ला बोल जारी है। सरकार का कहना है कि उस जमीन से चौड़ी रोड बनकर गुजरेगी, जबकि जनता का साफ कहना है कि हमें इतनी चौड़ी सड़क की जरूरत ही नहीं!
खेल कुछ ऐसा है कि कार्पोरेट के सेवक सरकारी तंत्र और मीडियातंत्र मिलकर दमनकारी बलों का प्रयोग कर उल्टे आदिवासियों को विभिन्न तरीके से बदनाम कर रहे हैं। नक्सल के नाम पर मौत की नींद सुला रहे हैं। बस्तर में औसतन हर माह 4 आदिवासी नक्सल के नाम पर मारे जा रहे हैं। रोजगार, सड़क-रेल-विकास का कागजी विकास दिखाने के नाम पर केन्द्र सरकार भी पीछे नहीं हैं। वास्तविक रूप से सड़क-रेल विकास लोगों के लिए नहीं बल्कि कार्पोरेट द्वारा बस्तर की बहुमूल्य जंगल-खनिज संपदा कीमती इमारती लकड़ी कोयला आदि को बिना अवरोध के ढोने, विरोधी जन-आक्रोश को कुचलने हथियारों को कम समय में पहुंचाने के लिए BJP कांग्रेस द्वारा यह खेल बहुत वर्षो से खेला जा रहा है। बीजेपी काल का “सलवा जुडूम” का नंगा-नाच सबको याद होगा। और अब बदली परिस्थितियों में विकसित नाम व काम दुनिया देख ही रही है।
ऐसा नहीं है कि बस्तर के आदिवासी अपना विकास, अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, सड़क, रेल, उद्योग नहीं चाहते? वे भी विकास चाहते हैं पर वह संवैधानिक हो, दूसरी शर्त यह है कि आदिवासी का, बस्तर का विकास आदिवासी करेंगे। मतलब “अबुवा दिशुम अबूवा राज” इसी सुझबुझ की नीति से पूर्व में हमारे महान पुरखे छत्तीसगढ़ में शोषण के खिलाफ सोनाखान के शासक रामाराय व उनके पुत्र अमर शहीद वीर नारायण सिंह का आन्दोलन चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी दृष्टिकोण में गुरू घासीदास और गुरु बालकदास ने भूस्वामित्व अधिकार आंदोलन (सतनाम आंदोलन) चलाया था, जिसमें एक उद्देश्य छुआछूत भेदभाव मिटाना भी शामिल था, इस सच्चे इतिहास को आदिवासी व सतनामी समाज बखूबी जानते हैं। तमाशा देखिए, कुछ आंदोलन जीवी को सिर्फ दिल्ली का किसान आंदोलन दिखता है, किंतु बस्तर के किसान आंदोलन, बोधघाट बहुद्देशीय परियोजना, राम वन पथ गमन योजना तथा हाल ही में किसानों की जमीन पर भूपेश बघेल सरकार की सरकारी बंदूक के नोक पर फोर्स कैंप लगाने का विरोध हो, नक्सल के नाम पर फोर्स की फायरिंग से 3 किसान की मृत्यु, 6 लापता, 18 से अधिक किसानों पर गोली लगने के मुद्दे दिखाई नहीं पड़ती? बस्तर में औसतन हर माह 4 बेकसूर आदिवासी नक्सल के नाम पर मारे जाते हैं।
जातिवादी मीडिया ऐक्टिविस्ट सवर्ण और आरक्षित MP-MLA मूकदर्शक बने हुए हैं। आज कहीं न कहीं मैदानी एकता से उलगुलान की जरूरत है जब जल जंगल जमीन की लड़ाई अकेला ST लड़ेगी, संविधान बचाने की लड़ाई अकेला SC लड़ेगा, किसान आंदोलन की लड़ाई को केवल OBC हवा देगी तो सफलता कैसे मिलेगी? अब समय आ गया है कि ST, SC, OBC और मायनोरिटी को एक होकर दमन कारी नीति को कुचलना होगा। गैर छत्तीसगढ़िया राज को खत्म कर बिरसा मुंडा वीर नारायण सिंह, गुरु घासीदास गुरु बालकदास के सपनों का छत्तीसगढ़ बनाना होगा तभी बस्तर ही नहीं बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में खुशियां चैन अमन लौट पाएंगे।
लेखक नरेन्द्र टंडन (RTI & SC ST Act activist) हैं। लोरमी, मुंगेली (छत्तीसगढ़) में रहते हैं। संपर्क- 9425255802
नए रिसर्च से पता चलता है कि “नमो बुद्धाय” का प्रचलन पुराना है। तेलंगाना के मेदक जिले की मंजीरा नदी की घाटी से पुरातत्ववेत्ता एम. ए. श्रीनिवासन की टीम ने प्राचीन “नमो बुद्धाय” खोज निकाला है। कुल्चाराम से बस एक किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ की एक गुफा (गुहाश्रय) से चट्टानों पर लिखा हुआ “नमो बुद्धाय” मिला है। चूँकि दक्षिण भारत में “ध” नहीं है, इसलिए “हे नमो बुद्धाय” लिखा हुआ है। अभिलेख प्राकृत भाषा और धम्म लिपि में है।
लिपि विशेषज्ञों ने इस लिपि का समय प्रथम सदी या इसके कुछ पहले का बताया है, मतलब कि “नमो बुद्धाय” कम से कम दो हजार साल पुराना अभिवादन है। प्राकृत में “हे” अव्यय है, जो संबोधन के लिए आता है तथा “नमो” भी अव्यय है, जिसका अर्थ “नमस्कार है” होता है।
कुल्चाराम में “आराम” जुड़ा है, जैसे संघाराम में “आराम” जुड़ा है। यहीं कारण है कि कुल्चाराम के आस-पास के गुहाश्रयों में बुद्धिज्म से जुड़े और भी स्लोगन लिखे मिलते हैं।
(नोट: शीलबोधि जी का मत है कि इस अभिलेख का प्रथम लेटर “ओ” है और यह मत गलत नहीं है। “ओ” के आगे बिंदु है, जो इसे “ओम्” बनाता है। तब इसका पाठ होगा- ओम् नमो बुद्धाय। ओम् नमो बुद्दाय का पाठ ग्रहण करने पर यह धारणी का स्वरूप ग्रहण कर लेगा। धारणी विशेषकर महायान और तंत्रयान के मंत्र हैं, जिनमें प्रायः संकर संस्कृत का प्रयोग हुआ है। ऐसा माना जाता है कि धारणी का संग्रह कनिष्क के समय से होना आरंभ हुआ।)
बौद्ध चिंतक और बौद्ध धम्म पर कई पुस्तकें लिखने वाले राजेन्द्र प्रसाद के फेसबुक वॉल से
भारत में इन दिनों केन्या की चर्चा हो रही है। वजह है केन्या द्वारा भारत को भेजे गए 12 टन अनाज। इसका बहुत से लोग मज़ाक उड़ा रहे है। सोशल मीडिया पर केन्या को “भिखारी, भिखमंगा, गरीब” आदि आदि कहा जा रहा है। अब एक छोटा सा वाक़या सुनिए। आपने अमेरिका का नाम सुना होगा, मैनहैटन का भी, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का भी और ओसामा बिन लादेन का भी। जो ज़्यादातर लोगों ने नहीं सुना होगा वो है ‘इनोसाईन गाँव’ जो पड़ता है केन्या और तंजानिया के बॉर्डर पर और यहाँ की लोकल जनजाति है ‘मसाई’।
अमेरिका पर हुए 9/11 के हमले की ख़बर मसाई लोगों तक पहुचने में कई महीने लग गए। ये ख़बर उन तक तब पहुँची जब उनके गाँव के पास के ही कस्बे में रहने वाली, स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी की मेडिकल स्टूडेंट किमेली नाओमा छुट्टियों में वापस केन्या आयी और वहाँ की लोकल जनजाति मसाई को 9/11 का आंखों देखा हाल सुनाया।
कोई बिल्डिंग इतनी ऊंची हो सकती है कि वहाँ से गिरने पर जान चली जाए, झोपड़ी में रहने वाले मसाई लोगों के लिए ये बात अविश्वसनीय थी मगर फिर भी उन लोगों ने अमरीकियों के दुःख को महसूस किया और उसी मेडिकल स्टूडेंट के माध्यम से केन्या की राजधानी नैरोबी में अमेरिकी दूतावास के डिप्टी चीफ़ विलियम ब्रांगिक को एक पत्र भिजवाया जिसे पढ़ने के बाद विलियम ब्रांगिक ने पहले हवाई जहाज का सफर किया, उसके बाद कई मील तक टूटी फूटी सड़क पर कठिनाई का रास्ता पर करते हुए मसाई जनजाति के गाँव पहुँचे।
गाँव पहुँचने पर मसाई जनजाति के लोग इक्कट्ठा हुए और एक कतार में 14 गायें ले कर अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ़ के पास पहुँचे। मसाईयों के एक बुज़ुर्ग ने गायों से बंधी रस्सी डिप्टी चीफ़ के हांथों पे पकड़ाते हुए एक तख़्ती की तरफ इशारा कर दिया। जानते हैं उस तख़्ती पर क्या लिखा था? लिखा था- “इस दुःख की घड़ी में अमरीका के लोगों की मदद के लिए हम ये गायें उन्हें दान कर रहे हैं”। जी हाँ, उस पत्र को पढ़ कर दुनियाँ के सबसे ताकतवर और समृद्धि देश का राजदूत सैकड़ो मील चल कर चौदह गायों का दान लेने आया था।
गायों के ट्रांसपोर्ट की कठिनाई और कानूनी बाध्यता के कारण गायें तो नहीं जा पायीं मगर उनको बेंचकर एक मसाई आभूषण ख़रीद कर 9/11 मेमोरियल म्यूजियम में रखने की पेशकश की गई। जब ये बात अमरीका के आम नागरिकों तक पहुँची तो पता है क्या हुआ? उन्होंने आभूषण की जगह गाय लेने की ज़िद्द कर दी। ऑनलाइन पिटीशन साइन किये गए की उन्हें आभूषण नहीं गाय ही चाहिए, अधिकारियों को ईमेल लिखे गए, नेताओं से बात की गई और करोड़ों अमरीका वासियों ने मसाई जनजाति और केन्या के लोगों को इस अभूतपूर्व प्रेम के लिए कृतज्ञ भाव से धन्यवाद दिया, उनका अभिनंदन किया। 12 टन अनाज को सहर्ष स्वीकार करिये। दान नहीं, दानी का हृदय देखिये।
मुथुवेल करूणानिधि ब्राह्मणवाद विरोधी द्रविड़ आंदोलन की पैदाईश थे। आधुनिक युग में तमिलनाडु में इस आंदोलन को व्यापक जन का आंदोलन बनाने वाले ई.वी. रामास्वामी यानि पेरियार (जन्म 17 सिंतंबर 1879-निधन 24 दिसंबर 1973) थे। उन्होंने ताजिंदगी हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद का जमकर विरोध किया। वर्ण-जाति व्यवस्था और जातिवादी पितृसत्ता खिलाफ निरंतर संघर्ष करते रहे। उन्हें धर्म और ईश्वर किसी रूप में स्वीकार नहीं थे। इसके साथ ही उन्होंने उत्तर भारतीय आर्य श्रेष्ठता के राष्ट्रवादी वर्चस्व को भी चुनौती दिया। पेरियार ने हिदूं धर्म और द्रविड़ परंपरा के बीच अंतर करते हुए लिखा, “हम लम्बे समय से कहते रहे हैं कि हिन्दू धर्म का अर्थ है आर्य धर्म और हिन्दू आर्य हैं। इसलिए हम यह कहते रहे हैं कि हम द्रविड़ों को खुद को हिन्दू नहीं कहना चाहिए न ही खुद को हिंदुत्व को मानने वाला कहना चाहिए।
इसी के अनुरूप सन् 1940 में जस्टिस पार्टी के प्रांतीय सम्मलेन में मेरी अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित हुआ। फैसला किया गया कि हम द्रविड़ खुद को हिन्दू नहीं कहेंगे और न ही यह कहेंगे कि हम हिन्दू धर्म से ताल्लुक रखते हैं।” पेरियार के कथन की पुष्टि डॉ. आंबेडकर भी करते हैं। उन्होंने द्रविड़ संस्कृति को आर्य-ब्राह्मणवादी संस्कृति से अलगाते हुए लिखा है, “अनार्य, असुर, नाग और द्रविड़ एक ही हैं। जिनका निरंतर संघर्ष आर्य संस्कृति और सभ्यता से होता रहा है।” पेरियार ने ही द्रविड़ कडगम आंदोलन शूुरू किया। इस आंदोलन के उद्देश्य के बारे में उन्होंने लिखा, “‘द्रविड़ कड़गम आंदोलन’ का एक ही उद्देश्य और केवल एक ही निशाना है और वह है आर्य ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था का अंत कर देना, जिसके कारण समाज ऊंच और नीच जातियों में बांटा गया है। द्रविड़ कड़गम आंदोलन उन सभी शास्त्रों, पुराणों और देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखता, जो वर्ण तथा जाति व्यवस्था को जस का तस बनाए रखे हैं”।पेरियार भारत की उस नास्तिक परंपरा के व्यक्तित्व थे, जो न तो वेदों में विश्वास करता था, न ही ईश्वर में। उन्होंने साफ शब्दों में घोषणा की थी कि ईश्वर की रचना धूर्तों ने की है।
उन्होंने लिखा, “ईश्वर की सत्ता स्वीकारने में किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन नास्तिकता के लिए बड़े साहस और दृढ विश्वास की जरुरत पड़ती है। ये स्थिति उन्हीं के लिए संभव है जिनके पास तर्क तथा बुद्धि की शक्ति हो”। उनके लिए धर्मग्रंथ और मंदिर बहुसंख्यक समाज को गुलाम बनाने के उपकरण थे। वे लिखते हैं, ““ब्राह्मणों ने हमें शास्त्रों ओर पुराणों की सहायता से गुलाम बनाया है। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मंदिर, ईश्वर और देवी-देवताओं की रचना की”।करूणानिधि ब्राह्मणवाद, आर्य संस्कृति और उच्च जातीय उत्तर भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देने वाली दक्षिण की पेरियार की इसी द्रविड़ परंपरा की अंतिम कड़ी थे। पेरियार के शिष्य परंपरा के एक वारिस के रूप में करूणानिधि ने तमिलनाडु में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि यह भी सच है कि पेरियार को अपना गुरू मानने वाला यह व्यक्तित्व धीरे-धीरे अपना ताप, तेवर, मूल्य और वैचारिकता खोता गया और भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों के कई पतनशील तत्वों से यह व्यक्तित्व भी आच्छादित हो गया। जिसका एक घृणित रूप वंशवाद भी था। कभी द्रविड़ संस्कृति और तमिल पहचान की राजनीति करने वाली करूणानिधि की पार्टी उनके बेटे-बेटियों की जागीर बन गई।
द्रविड़ मुनेत्र कड़गम भी अन्य दलों के जैसे व्यक्तिगत स्वार्थो और महत्वाकांक्षा का अखाड़ा बन गई।करूणानिधि ने तामिलनाडु को बनाया कल्याणकारी राज्यलेकिन मैं इस आलेख में उस करूणानिधि को याद करना चाहता हूं, जिन्होंने न केवल तमिलनाडु की राजनीति में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ने की प्रक्रिया को तेज किया, साथ ही समाज और संस्कृति पर उनके वर्चस्व को काफी हद तक तोड़ भी दिया। हम सभी जानते हैं कि तमिलनाडु के आर्थिक संसाधनों पर भी ब्राह्मणों का ही नियंत्रण था। इस वर्चस्व को तोड़ने में उनकी अहम भूमिका रही है। तमिलनाडु को मानवीय विकास के पैमाने पर देश के चंद राज्यों के बरक्स खड़ा करने में उनकी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है। उन्होंने इस राज्य को एक कल्याणकारी राज्य में बदल दिया।
3 जून को जब बसपा समर्थक बहन मायावती के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के 26 साल पूरा होने का जश्न मना रहे थे, मायावती ने पिछड़े समाज के अपने दो कद्दावर नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर दिया। इसमें एक थे लालजी वर्मा और दूसरे थे रामअचल राजभर। इन दोनों के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब मायावती ने 3 जून 1995 को पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया था तो रामअचल राजभर उस सरकार में परिवहन उपराज्यमंत्री बनाए गए थे। मायावती जब भी मुख्यमंत्री बनीं, रामअचल राजभर अहम मंत्रालयों के मंत्री बने। राजभर लंबे समय तक बसपा के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहें तो उन्हें मायावती के करीबी के रूप में जाना जाता रहा। मायावती ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया था। तो वहीं पार्टी के निष्कासित होने से पहले लालजी वर्मा वर्तमान विधानसभा में बसपा के नेता थे।
इन दोनों नेताओं पर हाल ही में हुए बीते पंचायत चुनाव के दौरान पार्टी के विरोध में काम करने का आरोप लगाकर निष्कासित किया गया है। खास बात यह भी है कि ये दोनों नेता अंबेडकर नगर जिले से हैं। कुर्मी नेता लालजी वर्मा अंबेडकरनगर जिले के कटेहरी विधानसभा से विधायक हैं, जबकि स्थानीय तौर पर हर वर्ग में लोकप्रिय रामअचल राजभर अकबरपुर विधानसभा सीट से विधायक हैं। इस बीच यह एक बड़ी खबर है कि इन दोनों नेताओं के पार्टी से बाहर जाने के बाद अब बसपा में मायावती के अलावा बड़े चेहरे के रूप में सिर्फ सतीश चंद्र मिश्रा ही हैं।
यह तब है जब यूपी विधानसभा चुनाव महज छह महीने दूर है। और जब तमाम पार्टियां नेताओं को संजोने में लगी है, बसपा अपने नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा रही है। बसपा प्रमुख मायावती का अपने नेताओं के प्रति यह कड़ा रुख तब जारी है, जब 2017 में 403 सीटों वाली यूपी विधानसभा में बसपा सिर्फ 19 सीटें जीती थी। और तमाम नेताओं के निकाले जाने के बाद बसपा के पास सदन में अब केवल सात एमएलए बचे हैं। इसमें से एक मुख्तार अंसारी जेल में हैं।
एक वक्त था जब बसपा के पास सभी समाजों के नेता थे और जिन्हें मान्यवर कांशीराम ने आगे बढ़ाया था, जिससे वो पार्टी और अपने समाज में कद्दावर भी बनें। उस दौर के तमाम नेताओं को पार्टी विरोध के नाम पर पार्टी से बाहर कर दिया गया है तो कुछ पार्टी छोड़ गए हैं। हालांकि मायावती या फिर बसपा कभी भी किसी नेता के खिलाफ सबूत देने से बचती रही। आज नेताओं की उस फेहरिश्त को याद करना जरूरी है। आर. के चौधरी, दीनानाथ भास्कर, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, राजबहादुर, मसूद अहमद, बरखूराम वर्मा, दद्दू प्रसाद, जंगबहादुर पटेल, सोनेलाल पटेल, स्वामी प्रसाद मौर्या, धर्मपाल सैनी, जुगुल किशोर, इंद्रजीत सरोज, दारा सिंह चौहान जैसे दिग्गज कभी बसपा की फेहरिश्त में शामिल थे। इन सभी की अपने समाज में जबरदस्त पकड़ थी और इन्हीं के बूते बसपा बहुजन समाज की पार्टी बनी थी। इसी कड़ी में अब रामअचल राजभर और लालजी वर्मा का नाम भी जुड़ गया है।
ऐसे में अब बसपा के पास बड़े नेताओं के नाम पर सिर्फ मायावती और सतीश चंद्र हैं। कुछ गिने-चुने पुराने नेता हैं भी तो वो अब सक्रिय नहीं हैं। ऐसे में जब उत्तर प्रदेश अगले विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है, उसके पास अनुभवी और जनता के बीच पकड़ रखने वाले नेताओं की भारी कमी साफ नजर आ रही है। जिस बहुजन समाज के बूते बसपा अब तक राजनीति करती रही है, उसके पास उस बहुजन समाज से जुड़े कद्दावर नेताओं की भारी कमी है। तमाम पार्टियों से नेताओं का जाना या फिर निकाला जाना राजनीति में एक आम प्रक्रिया है, लेकिन पिछले लंबे वक्त में आपको शायद ही ऐसा कोई कद्दावर नेता याद होगा, जिसने बसपा का दामन थामा हो और जिसके पार्टी में आने से पार्टी को बड़ा लाभ हुआ हो। इसे आखिर किस तरह समझा जाए।
अब आते हैं उस आरोप पर जिसके कारण रामअचल राजभर और लालजी वर्मा को पार्टी से निष्कासित किया गया है। इन पर आरोप है कि इन्होंने पंचायत चुनाव के दौरान पार्टी विरोधी काम किया। अंबेडकर नगर जिले में कुल 41 जिला पंचायत सदस्य हैं। इसमें से सपा के सबसे ज्यादा 11 सदस्य जीते है, जबकि बसपा के 8 सदस्य पंचायत चुनाव जीते। यूपी की सत्ता में मौजूद भाजपा के सिर्फ 2 सदस्य चुनाव जीत सकें। जिले में सबसे ज्यादा 20 सदस्य निर्दलीय जीते हैं। निर्दलीय जीतने वाले ज्यादा सदस्य वो हैं, जो बसपा से टिकट मांग रहे थे लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। यहां सच्चाई यह है कि एक तो निर्दलीय लड़ने वाले अपने पैसे, अपने संबंधों और अपने प्रचार के आधार पर जीते, दूसरा सवाल यह है कि क्या यह इतना बड़ा अपराध था कि मायावती द्वारा अपनी पार्टी के दो बड़े नेताओं को बिना किसी अल्टीमेटम के, बिना उनकी बात सुने पार्टी से निष्कासित करने का फैसला लेना पड़ा। इसका जवाब आप खुद से पूछिए।
क्योंकि यह तब है जब 2017 विधानसभा चुनाव में बसपा के हिस्से में जो 19 सीटें आई थीं, उसमें से बसपा तीन सीटें अंबेडकर नगर जिले में जीती थी। ऐसे में इन दोनों नेताओं पर पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप फिलहाल समझ से परे दिख रहा है।
हालांकि मायावती और बसपा समर्थक लगातार दावा करते रहे हैं कि बसपा को वोट सिर्फ मायावती के नाम पर मिलता है। अगर ऐसा है तो बसपा आखिर 19 सीटों पर कैसे सिमट गई। ऐसा है तो बसपा सिर्फ उत्तर प्रदेश में क्यों सिमट गई और वहां भी अब अपने प्रतिद्वदी पार्टियों को मजबूती से चुनौती देती क्यों नहीं दिख रही है। सवाल है कि क्या बसपा 2007 में अपनी सफलता के जिस शीर्ष पर खड़ी थी, उसे वहां लाने में उन नेताओं की भूमिका नहीं थी, जिन्हें पार्टी से बिना सफाई का मौका दिए बाहर कर दिया गया?
सवाल यह भी है कि क्या 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा बिना जमीनी नेताओं के सिर्फ मायावती और सतीश चंद्र मिश्रा के नाम पर सरकार बनाने का माद्दा रखती है? अगर इसका जवाब नही है, तो बहुजन समाज पार्टी कहाँ जा रही हैं, और मायावती आखिर बसपा को कहां ले जाना चाहती हैं, क्या बसपा आने वाले दिनों में सिर्फ मायावती और सतीश चंद्र मिश्रा की पार्टी बनकर रह जाएगी। ऐसे में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और बसपा के संस्थापक और मायावती को मुख्यमंत्री बनाने वाले मान्यवर कांशीराम के उस सपने का क्या होगा, जिसमें वह दलित समाज को इस देश का शासक बनाने का सपना दिखा गए हैं।
करूणानिधि के जन्मदिन (3 June 1924) पर सादर नमन के साथ
तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की औपचारिक शुूरूआत 1916 में तब हुई, जब जस्टिस पार्टी ने गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र जारी किया। ब्राह्मणवाद बनाम गैर-ब्राह्मणवाद का संघर्ष ही इस घोषणा-पत्र का मूल स्वर था। तमिलनाडु (तब मद्रास प्रेसीडेंसी) में ब्राह्मणों का वर्चस्व किस कदर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1912 में वहां ब्राह्मणों की आबादी सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी, जबकि 55 प्रतिशत जिला अधिकारी और 72.2 प्रतिशत जिला जज ब्राह्मण थे। मंदिरों और मठों पर ब्राह्मणों का कब्जा तो था ही जमीन की मिल्कियत भी उन्हीं लोगों के पास थी। इस प्रकार तमिल समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था।
ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए शुरु हुआ ब्राह्मण विरोधी आंदोलन
इस वर्चस्व को तोड़ने के लिेए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ। 1915-1916 के आसपास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुलियार, टी. एन. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने जस्टिस आंदोलन की स्थापना की थी। इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदलियाल और चेट्टियार प्रमुख थे। इनके साथ ही इसमें तेलुगु रेड्डी, कम्मा, बलीचा नायडू और मलयाली नायर भी शामिल थे। 1920 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गयी जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किये गए। इस चुनाव में जस्टिस पार्टी ने भाग लिया और एक गैर-ब्राह्मणों के नेतृत्व और प्रभुत्व वाली जस्टिस पार्टी सत्ता में आई। इस पार्टी के नेतृत्व में पहली बार तमिलनाडु में 1921 में सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण लागू हुआ
प्रभावकारी साबित हुआ पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन
1925 में पेरियार ने कांग्रेस पार्टी छोड़कर आत्मसम्मान आंदोलन की शुरूआत की। इसके तहत आत्मसम्मान विवाह पद्धति आरंभ की गयी, जिसमें लड़के-लड़की दोनों को समान दर्जा दिया गया। इस विवाह पद्धति में हिंदू धर्म और ब्राह्मणों को पूरी तरह से बाहर कर दिया गया। अंतर जातीय विवाह व विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया गया। किशोर करूणानिधि की भी शादी इसी पद्धति हुई थी। जब करूणानिधि तमिलानाडु के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने डॉ. आंबेडकर के कोड बिल की तरह का एक बिल प्रस्तुत किया। जिसके तहत पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं को बराबरी का हक दिया गया। शिक्षा, सरकारी नौकरी और स्थानीय चुनावों महिलाओं को लिए आरक्षण लागू किया गया। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में महिलाओं को 30 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। उन्होंने महिलाओं के हित के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं की शुरूआत की। गरीब लड़कियों की शादी के लिए 5 हजार रूपए का अनुदान शुरू किया गया। कम और मध्यम आय की लड़कियों के लिए स्नातक तक की शिक्षा मुफ्त कर दी। विधवाओं की शादी को प्रोत्साहित करने के उनकी शादी के लिए विशेष वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया।
हिंदी गाय पट्टी के ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन जहां राजनीतिक दायरे तक ही कमोबेश सीमित रहे, उसके उलट द्रविड़ आंदोलन ने ब्राह्मणवादी संस्कृति को कड़ी चुनौती दी। वहां 1916 से लेकर करूणानिधि के जीवित रहने तक तमिलनाडु में राजनीतिक संघर्ष अपने में सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्षों को किसी न किसी रूप में समाए रखा, भले ही उसका ताप-तेवर और वैचारिकी कमजोर पड़ी हो।
संस्कृत और हिंदी को मिली चुनौती
अकारण नहीं है कि तमिलनाड़ु में ब्राह्मण विरोधी आंदोलन के घोषणा-पत्र (1916) के साथ ही उत्तर भारतीय आर्य-ब्राह्मणों के ब्राह्मणों के भाषायी वर्चस्व के खिलाफ भी संघर्ष शुरू हो गया था। 1916 में ही मद्रास प्रेसीडेंसी (आज के तमिलनाडु) में संस्कृत भाषा वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष भी शुरू हुआ। यह आंदोलन 1937 में हिंदी विरोधी आंदोलन के रूप में तब तब्दील हो गया, जब 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी के सी. राजगोपालाचारी मुख्यमंत्री बने और उन्होंने हिंदी को एक अनिवार्य भाषा के रूप में थोपने का प्रयास किया। 27 फरवरी 1938 को राज्य स्तर पर पेरियार के नेतृत्व में हिंदी विरोधी सम्मेलन हुआ। 13 वर्षीय करूणानिधि ने भी हिंदी विरोधी इस आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की थी। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि हम यह नारा लगता थे कि ‘हिंदी मुर्दाबाद, तमिल जिंदाबाद’। वे लिखते है कि यह नारा लगाते हुए और सुनते हुए हमारी नसें फड़फड़ा उठती थीं। हम रोमांच से भर जाते थे। हाल में ही जब संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में हिंदी को थोपने की कोशिश मोदी-भाजपा ने की तो, करूणानिधि और उनकी पार्टी ने कड़ा विरोध किया और सरकार को अपना फरमान वापस लेना पड़ा
किसी अन्य भाषा-भाषी समाज पर कोई दूसरी भाषा थोपना क्या होता है, शायद यह समझना आज भी किसी हिंदी भाषा-भाषी के लिए मुश्किल हो, खास करके उन लोगों के लिए जो अंग्रेजी के सामने नतमस्तक हुए बैठे हैं। भाषा थोपने वाला देश या समाज अपनी भाषा के माध्यम से अपनी संस्कृति, मूल्य व्यवस्था, वैचारिकी, सोचने का तरीका और अपनी जीवन-पद्धति भी थोपता है। न्यूगोवाथूंगी ने ठीक लिखा है कि किसी समाज को अपने अधीन बनाना हो तो उस पर अपनी भाषा थोप दो। इसके उलट बात यह है कि वर्चस्व और दासता से मुक्ति का रास्ता वर्चस्वशाली भाषा से मुक्ति से खुलता है। द्रविड़ आंदोलन ने द्रविड़ समाज की सांस्कृतिक मुक्ति के लिए पहले चरण में संस्कृत और हिंदी भाषा के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष किया। करूणानिधि आजीवन भाषायी वर्चस्व की मुखालफत करते रहे।
खुद को हिंदू नहीं मानते थे करूणानिधि
मुथुवेल करूणानिधि ब्राह्मणवाद विरोधी द्रविड़ आंदोलन की पैदाईश थे। आधुनिक युग में तमिलनाडु में इस आंदोलन को व्यापक जन का आंदोलन बनाने वाले ई.वी. रामास्वामी यानि पेरियार (जन्म 17 सिंतंबर 1879-निधन 24 दिसंबर 1973) थे। उन्होंने ताजिंदगी हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद का जमकर विरोध किया। वर्ण-जाति व्यवस्था और जातिवादी पितृसत्ता खिलाफ निरंतर संघर्ष करते रहे। उन्हें धर्म और ईश्वर किसी रूप में स्वीकार नहीं थे। इसके साथ ही उन्होंने उत्तर भारतीय आर्य श्रेष्ठता के राष्ट्रवादी वर्चस्व को भी चुनौती दिया। पेरियार ने हिदूं धर्म और द्रविड़ परंपरा के बीच अंतर करते हुए लिखा, “हम लम्बे समय से कहते रहे हैं कि हिन्दू धर्म का अर्थ है आर्य धर्म और हिन्दू आर्य हैं। इसलिए हम यह कहते रहे हैं कि हम द्रविड़ों को खुद को हिन्दू नहीं कहना चाहिए न ही खुद को हिंदुत्व को मानने वाला कहना चाहिए। इसी के अनुरूप सन् 1940 में जस्टिस पार्टी के प्रांतीय सम्मलेन में मेरी अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित हुआ। फैसला किया गया कि हम द्रविड़ खुद को हिन्दू नहीं कहेंगे और न ही यह कहेंगे कि हम हिन्दू धर्म से ताल्लुक रखते हैं।”
पेरियार के कथन की पुष्टि डॉ. आंबेडकर भी करते हैं। उन्होंने द्रविड़ संस्कृति को आर्य-ब्राह्मणवादी संस्कृति से अलगाते हुए लिखा है, “अनार्य, असुर, नाग और द्रविड़ एक ही हैं। जिनका निरंतर संघर्ष आर्य संस्कृति और सभ्यता से होता रहा है।” पेरियार ने ही द्रविड़ कडगम आंदोलन शूुरू किया। इस आंदोलन के उद्देश्य के बारे में उन्होंने लिखा, “‘द्रविड़ कड़गम आंदोलन’ का एक ही उद्देश्य और केवल एक ही निशाना है और वह है आर्य ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था का अंत कर देना, जिसके कारण समाज ऊंच और नीच जातियों में बांटा गया है। द्रविड़ कड़गम आंदोलन उन सभी शास्त्रों, पुराणों और देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखता, जो वर्ण तथा जाति व्यवस्था को जस का तस बनाए रखे हैं”।
पेरियार भारत की उस नास्तिक परंपरा के व्यक्तित्व थे, जो न तो वेदों में विश्वास करता था, न ही ईश्वर में। उन्होंने साफ शब्दों में घोषणा की थी कि ईश्वर की रचना धूर्तों ने की है। उन्होंने लिखा, “ईश्वर की सत्ता स्वीकारने में किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन नास्तिकता के लिए बड़े साहस और दृढ विश्वास की जरुरत पड़ती है। ये स्थिति उन्हीं के लिए संभव है जिनके पास तर्क तथा बुद्धि की शक्ति हो”। उनके लिए धर्मग्रंथ और मंदिर बहुसंख्यक समाज को गुलाम बनाने के उपकरण थे। वे लिखते हैं, ““ब्राह्मणों ने हमें शास्त्रों ओर पुराणों की सहायता से गुलाम बनाया है। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मंदिर, ईश्वर और देवी-देवताओं की रचना की”।
करूणानिधि ब्राह्मणवाद, आर्य संस्कृति और उच्च जातीय उत्तर भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देने वाली दक्षिण की पेरियार की इसी द्रविड़ परंपरा की अंतिम कड़ी थे। पेरियार के शिष्य परंपरा के एक वारिस के रूप में करूणानिधि ने तमिलनाडु में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि यह भी सच है कि पेरियार को अपना गुरू मानने वाला यह व्यक्तित्व धीरे-धीरे अपना ताप, तेवर, मूल्य और वैचारिकता खोता गया और भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों के कई पतनशील तत्वों से यह व्यक्तित्व भी आच्छादित हो गया। जिसका एक घृणित रूप वंशवाद भी था। कभी द्रविड़ संस्कृति और तमिल पहचान की राजनीति करने वाली करूणानिधि की पार्टी उनके बेटे-बेटियों की जागीर बन गई। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम भी अन्य दलों के जैसे व्यक्तिगत स्वार्थो और महत्वाकांक्षा का अखाड़ा बन गई।
करूणानिधि ने तामिलनाडु को बनाया कल्याणकारी राज्य
लेकिन मैं इस आलेख में उस करूणानिधि को याद करना चाहता हूं, जिन्होंने न केवल तमिलनाडु की राजनीति में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ने की प्रक्रिया को तेज किया, साथ ही समाज और संस्कृति पर उनके वर्चस्व को काफी हद तक तोड़ भी दिया। हम सभी जानते हैं कि तमिलनाडु के आर्थिक संसाधनों पर भी ब्राह्मणों का ही नियंत्रण था। इस वर्चस्व को तोड़ने में उनकी अहम भूमिका रही है। तमिलनाडु को मानवीय विकास के पैमाने पर देश के चंद राज्यों के बरक्स खड़ा करने में उनकी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है। उन्होंने इस राज्य को एक कल्याणकारी राज्य में बदल दिया।
संगीत सीखने गये स्कूल, मिला अपमान
करूणानिधि का जन्म तमिलना़डु के तंंजौर जिले के एक गांव थिरूकुवलाई में 3 जून 1924 को हुआ था। अपने जाति के बारे में वे बताते हैं कि मेरी जाति एसाई वेलालार थी। इस जाति के लोग शादी-विवाह और अन्य मांगलिक अवसरों पर वाद्य यंत्र बजाते थे। उनके पिता बल्लादीर मुथुवेलार प्रसिद्ध लोकगायक थे। अन्य समाजों की तरह तमिल समाज में भी बेटा हो इसके लिए मां-बाप तरह-तरह के जतन करते थे। उनकी मां ने बेटे की चाहत में सभी देवी-देवताओं और मंदिरों के चक्कर लगाए। आखिर बेटा पैदा हुआ। मां ने स्थानीय देवता के नाम उस बेटे का नाम करूणानिधि रखा। यह दीगर बात है कि होश संभालते ही यह बेटा पेरियार के प्रभाव में नास्तिक बन बैठा और आजीवन नास्तिक बना रहा। ब्राह्मणवादी वर्चस्व वाले समाज में पैदा होने वाले हर गैर-द्विज बालक को किसी न किसी रूप में अपनी जाति के चलते अपमान सहना ही होता है। वह करूणानिधि के साथ भी हुआ। लोकगायक पिता ने बेटे को संगीत की शिक्षा के लिए संगीत के स्कूल में भेजा, लेकिन वहां उसे अपमान का सामना करना पड़ा। उसके बैठने की जगह उच्च जातियों से अलग थी और उसे उन गीतों को गाने से रोका जाता था, जिन्हें गाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को था। करूणानिधि लिखते हैं, “वास्तव में मेरी संगीत की कक्षा पहली राजनीतिक कक्षा थी। वहां मैंने यह जाना कि कैसै जाति के आधार पर किसी इंसान को अपमानित किया जाता है। वहां मैंने यह जाना कि कैसे खुद को सही मानते हुए कुछ लोग संस्कारों और परंपराओं से बहुसंख्यक लोगों को अपमानित करते हैं।” करूणानिधि ने उस संगीत स्कूल में शिक्षा लेने से इंकार कर दिया और कहा कि मैं वहां नहीं शिक्षा ग्रहण कर सकता, जहां इंसान की गरिमा का ख्याल न रखा जाता हो।
फिल्मों को बनाया बदलाव का हथियार
यहां यह याद करना जरूरी है कि यह पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन का समय था। करीब 13 वर्ष की उम्र में करूणानिधि ने 1938 हिंदी विरोधी आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की। इसी उम्र में उन्होंने लिखना भी शुरू कर दिया। उन्होंने मन्नावानेसन (छात्रों का साथी) नामक खुद का प्रकाशन भी शुरू कर दिया। लेखन के सिलसिले में ही उनकी पहली मुलाकात अन्नादुरई से हुई जो उनके राजनीतिक गुरू बने। अन्नादुरई ने उन्हें अध्ययन पर ध्यान और कैरियर बनाने की सलाह दी और साथ ही यह भी कहा कि कैसे पैसा कमा सकते हो, इस पर ध्यान दो। करूणानिधि से इस सलाह को अनसुना कर दिया। वे लेखन, सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों और राजनीति में सक्रिय बन रहे।
1916 से 1944 तक जस्टिस पार्टी द्रविड़ आंदोलन की राजनीतिक अगुवाई करती रही। 1940 में पेेरियार इस पार्टी के संरक्षक बन गए। 1944 में अन्नादुरई के प्रस्ताव पर जस्टिस पार्टी की जगह एक नई पार्टी द्रविड़ कड़गम बनी। इस पार्टी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और जातिवादी आधिपत्य के खिलाफ एक साथ संघर्ष करने का निर्णय लिया। इस पार्टी का मानना था कि कांग्रेस ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की समाप्ति तो चाहती है, लेकिन तमिलना़डु में उच्च जातियों का वर्चस्व कायम रखना चाहती है। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि तमिलनाड़ु में उच्च जाति के रूप में ब्राह्मण ही थे। करूणानिधि इस पार्टी के सक्रिय नेता के रूप में उभरे। वे पेरियार और अन्नादुरई दोनों को काफी पसंद थे। पेरियार उन्हें उनके विचारों और लेखन के लिए मुख्यत: पसंद करते थे, तो अन्नादुरई उनके राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता के लिए। करूणानिधि जितने अच्छे चिंतक, विचारक और लेखक थे, उतने ही कुशल राजनेता भी थे, साथ ही वे अच्छे वक्ता और संगठनकर्ता भी थे। आजीवन उन्होंने इन संतुलनों को बनाए रखा। तमिल सिनेमा के चरित्र को उन्होंने अपने पटकथा लेखन से बदल दिया। उनके लिए फिल्में भी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलाव की माध्यम थीं
उन्होंने पेरियार के विचारों को फिल्मी पटकथाओं में रूपान्तरित किया। उनकी फिल्में ब्राह्मणवाद को चुनौती देती थीं, जाति व्यवस्था पर प्रहार करती थीं। मनु की संहिता पर चोट करती थीं। उनकी फिल्में किस कदर क्रांतिकारी चरित्र की थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजाद भारत में ‘पराशक्ति’ (1952) पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। ‘पराशक्ति’ में द्रविड़ आंदोलन की विचारधाराओं का समर्थन और ब्राह्मणवाद के मनुष्य विरोधी चरित्र को सामने लाया गया था। उनके फिल्मी कैरियर की शुूरूआत में फिल्म राजकुमारी से हुई थी।
कभी नहीं हारे करूणानिधि
इससे पहले 1949 में द्रविड कड़गम से अलग होकर अन्नादुरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) पार्टी बनायी। करूणानिधि इसके प्रमुख नेताओं में से एक थे। इस दौरान वे तमिलनाड़ु के समाज और राजनीति में एक बड़ी शख्सियत के रूप में उभर चुके थे। 1957 में डीएमके पार्टी तमिलनाडु के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में हिस्सेदारी की। 1957 में करूणानिधि पहली बार विधायक चुने गए। इसके बाद चुनावी राजनीति के सफर में उन्हेंं कभी हार का मुंह नहीं देखना पड़ा, भले ही उनकी पार्टी चुनावों में हार गई हो। 1967 के चुनाव में डीएमके पहली बार सत्ता में आई और अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने। इस चुनावी जीत का श्रेय अन्नादुरई ने करूणानिधि को देिया। 3 फरवरी 1969 को अन्नादुरई का निधन हो गया और उनके उत्तराधिकारी के रूप में 10 फरवरी 1969 को करूणानिधि पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। वे पांच बार (1969–71, 1971–76, 1989–91, 1996–2001 और 2006–2011) मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने अपने 60 साल के राजनीतिक करियर में अपनी भागीदारी वाले हर चुनाव में अपनी सीट जीतने का रिकॉर्ड बनाया। इन 60 वर्षों के राजनीतिक कैरियर में उन्होंने अनेक उदार-चढ़ाव देखे। हार-जीत का सामना किया। एक बड़ी उपलब्धि आज के दौर में उनके हिस्से यह भी है कि उनके निजी स्तर पर भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं लगा। इस संदर्भ में वे बेदाग रहे।
व्यक्तिगत स्तर पर वे आजीवन नास्तिक बने रहे और तर्क और बौद्धिकता को जीवन-जगत का केंद्र मानते रहे किसी पराशक्ति को नहीं। उनकी अंतिम इच्छा यह थी कि वे उनकी समाधि उनके राजनीतिक शिक्षक अन्नादुरई की समाधि के पास बने। रूकावटों-अवरोधों के बावजूद तमिलनाडु हाईकोर्ट के निर्णय के बाद उनकी यह आखिरी इच्छा भी पूरी हुई। किसी न सच ही कहा कि मौत के बाद भी वे विजयी हुए।
सीएम बनते ही दलितों और ओबीसी के हक में लिया फैसला
भले ही डीएमके पेरियार की पार्टी द्रविड़ कड़गम से अलग होकर बनी थी, लेकिन सत्ता में आने बाद अन्नादुरई और बाद में करूणानिधि दोनों ने मुख्यमंत्री के रूप में उनके विचारों व्यवहार में उतारने की कोशिश की। पहले कदम के तौर पर अन्नादुरई ने तमिलनाडु में शादी की पद्धति को बदल दिया और आत्मसम्मान विवाह पद्धति को लागू किया। मद्रास का नाम बदल कर तमिलनाडु कर दिया और तमिलनाडु में दो भाषा आधारित शिक्षा नीति को लागू किया। पहली भाषा तमिल और दूसरी अंग्रेजी। अन्नादुरई के मुख्यमंत्री रहते ही पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिेए आयोग के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई। इन सभी निर्णयों में करूमानिधि की भूमिका अहम थी। अन्नादुरई के निधन के बाद मुख्यमंत्री बनने के बाद 1971 में करूणानिधि ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट को लागू किया। उन्होंने पिछड़े वर्गों के आरक्षण को 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 31 प्रतिशत कर दिया और एससी/एसटी के आरक्षण 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया। 1989-1991 में मुख्यमंत्री बनने के दौरान उन्होंने आरक्षण में उपवर्गीकरण करके उपेक्षित जातियों को प्रतिनिधित्व दिया। जैसा कि जिक्र किया जा चुका है कि इसी कार्यकाल के दौरान उन्होंने महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया।
भूमि संबंधों में परिवर्तन और इसके मालिकाना की स्थिति में बदलाव के लिए भी करूणानिधि ने कई कदम उठाए। भूमि सुधार अधिनियम 1970 के माध्यम से उन्होंने सीलिंग की सीमा मानक 30 एकड़ से घटाकर 15 एकड़ कर दिया। इस अधिनियम के माध्यम से उन्होंने वासस्थान की जमीन पर सबको मालिकाना हक प्रदान कर दिया। ध्यान रहे पहले वासस्थान की भूमि के मालिक भी जमींदार ही होते थे,भले ही वहां अन्य लोग घर बनाकर रहते हों। वेे पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने हाथों से खींचे जाने वाले रिक्शे को खत्म कर दिया। हाथों से रिक्शा खींचने वालों को साइकिल रिक्शा उपलब्ध कराने के लिए उन्होंने कई कदम उठाए और इसका परिणाम यह हुआ कि हाथ से खींचने वाले रिक्शे तमिलनाडु से गायब हो गए। उन्होंने सभी जातियों के लोग मदिंरो में पुजारी बन सके इसके लिए निरंतर प्रयास किया। तमाम कानूनी अड़चनों के बाद भले ही उनकी यह इच्छा बहुत बाद में पूरी हुई।
करूणानिधि आजीवन खुद को पेरियार का वैचारिक शिष्य और अन्नादुरई का राजनीतिक शिष्य मानते रहे। 1969 में तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने का बाद उन्होंने पेरियार के 91वें जन्मदिन पर कहा, “ पेरियार तमिलनाडु के सरकार हैं।” भले ही यह टिप्पणी अपने शिक्षक के प्रति एक तात्कालिक भावात्मक प्रतिक्रिया हो, लेकिन यह सच है कि करूणानिधि पेरियार के विचारों को अमली जामा पहनाने की कोशिश करते रहे और द्रविड़ आंदोलन को किसी न किसी रूप में जिंदा रखे।
उत्तर प्रदेश के चुनाव से पूर्व जहां सभी पार्टियां यूपी चुनाव की तैयारी में लगी है, बहुजन समाज पार्टी अजीबो गरीब फैसले ले रही है। पार्टी के इस फैसले से पार्टी कमजोर होती दिख रही है। नए घटनाक्रम में बसपा ने अपने दो कद्दावर नेताओं पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर और विधानमंडल के नेता लालजी वर्मा को पार्टी से निकाल दिया है। शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को नए विधायक दल का नेता चुना है।
बसपा ने प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए कहा कि पार्टी के टिकट से निर्वाचित दो विधायकों (राम अचल राजभर और लालजी वर्मा) को उनके द्वारा पंचायत चुनावों के दौरान पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के कारण तत्काल प्रभाव से बहुजन सामज पार्टी ने निष्कासित कर दिया गया है। इतना ही नहीं, बसपा ने सभी पदाधिकारियों को यह भी निर्देश दिए हैं कि इन दोनों विधायकों को पार्टी के किसी भी कार्यक्रम में न बुलाया जाए।
गौरतलब है कि पार्टी में इन दोनों नेताओं का कद काफी बड़ा था। रामअचल राजभर को मायावती ने राष्ट्रीय महासचिव बनाया था। वह लंबे समय तक यूपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे। जबकि लालजी वर्मा भी कद्दावर नेता हैं। खास यह है कि दोनों नेता अम्बेडकरनगर से विधायक हैं। रामअचल राजभर अम्बेडकर नगर के अकबरपुर से विधायक हैं, जबकि लालजी वर्मा कटेहरी विधानसभा से विधायक हैं। यह भी गौरतलब है कि जब पिछले विधानसभा में बसपा सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई थी, अम्बेडकरनगर में पार्टी के सबसे ज्यादा तीन विधायक जीते थे। अम्बेडकर नगर की लोकसभा सीट भी बसपा के खाते में है। ऐसे में इन दोनों नेताओं पर पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप फिलहाल समझ से परे दिख रहा है।
ये तस्वीर उस समय की है, जब मैंने अपने पापा को मुखाग्नि दिया था। मेरे पापा फरवरी महीने से टायफायड बीमारी से जूझ रहे थे। मैं और मेरा परिवार देश की राजधानी दिल्ली में रहते हैं। कहने में ये कितना गर्व सा लगता है? लेकिन अब मुझे ये कहने में काफी शर्मिंदगी भरा लगता है। क्योंकि बीते दिनों में जो मुझ पर और मेरे परिवार पर बीती है, मैं अपने पूरे जीवनकाल तक नहीं भूलूंगा, और न मैं भूलने दूंगा। बार-बार अपने जख्मों को कुरेदता रहूंगा। दुनिया के सामने बेशक मैं नौकरी, शादी ब्याह, परिवार का भरण-पोषण में व्यस्त हो जाऊं। लेकिन दिल के कोने में मैं इन तमाम लम्हों को, इन भयावह तस्वीरों को, समाज के बीच इस भयावह अनुभवों को संजो कर रखूंगा। इतना ही नहीं। मैं अपने बच्चों को, अपने आने वाले पीढियों को रात-दिन आज के अनुभवों, तस्वीरों, आपबीती को शेयर करूंगा। उनसे कहूंगा कि आज का समाज एक समय में महामारी की आड़ में कितना भयावह हो गया था, कि अपने लोग सड़कों पर तड़पते हुए दम तोड़ रहे थे और गली मोहल्ले के लोग, सगे-संबंधी, यार-दोस्त कोई झांकने नहीं आया था।
उनसे शेयर करूंगा कि उस समय की तमाम सरकारें कितनी राक्षसी प्रवृति वाली थी। मैं अपने पीढ़ियों से बार-बार कहूंगा कि उस समय भारत में “रावण राज” था। मैं अपने आने वाली पीढियों से मौखिक और लिखित रूप में कहूंगा कि आज का समाज काफी भयावह था। समाज में इंसानियत, धर्म, सच्चाई, प्यार, मानवता का बोलबाला नहीं था। चारों तरफ नफरत, घृणा, पक्षपात, भेदभाव, लूट-खसोट, छल-कपट था। मैं ठोक दबाकर कहूंगा, लिखूंगा कि आज के लोकतंत्र के चारों स्तंभ टूटकर ढह चुके थे। सबकुछ बस नाम मात्र का देश में था। कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, नेता, विधायक, सांसद, अस्पताल, डॉक्टर, पुलिस, मीडिया, न्यायालय नहीं था। सब नाम मात्र के थे। मैं चीख-चीखकर कहूंगा, लिखूंगा कि लाशों के ढेर लग रहे थे। लोकतंत्र की सभी ईकाईयां तमाशबीन बनी हुई थी। सब रोज सुबह हाथों में अखबारों को लिए हुए मौतों के आंकड़ों को आनंदपूर्वक देख रहे थे। कोई आगे आने को तैयार नहीं था।
मैं लिखूंगा, कि किसी सरकारी संस्थाओं ने ईमानदारी से काम नहीं किया था। किसी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं ली थी। पूरा सिस्टम ध्वस्त था। मेरी मम्मी रोड पर पापा के इलाज के लिए तड़पती रही। रोती बिलखती रही। कोई मीडिया, सड़क पर चलता कोई राही, कोई पुलिस, कोई अधिकारी, कोई नेता नहीं आया। मेरी मम्मी डॉक्टरों के पैरों में पड़कर गिड़गिरा रही थी, वो टशन में आराम से देख रहा था। मेरी मम्मी बोली थी तुझे जितना पैसा चाहिए मैं कहीं से लाकर दूंगी। बस मेरे पति को 20 मिनट के लिए ऑक्सीजन सपोर्ट दे दे। लेकिन किसी बेरहम ने हम पर तरस नहीं खाया। यहां तक कि बेशर्म मीडिया के कई पत्रकारों को भी मैंने फोन किया। कई भौकाली, ऑवार्डी पत्रकारों, ब्लूटीक वाले पत्रकारों को भी मैंने फोन किया। किसी ने बार बार फोन करने पर भी नहीं उठाया। किसी ने मैसेज को इग्नोर कर दिया। किसी ने उठाया तो अपना दुखड़ा, अपनी राम कहानी सुनाने लगा।
देखते ही देखते मेरे पापा रोड पर ही दम तोड़ दिए। और हम आज के सरकारों की बदौलत, आज के मीडिया की बदौलत पूरी तरह रोड पर आ गये हैं। गरीब तो हम जन्मजात ही थे। लेकिन तमाम सिस्टम के एहसान के कारण मैंने अपने घर के मुखिया को बड़े आराम से हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। मैं आज के समाज, आज की मीडिया, आज के सरकारों, आज के डॉक्टरों, आज के अव्यवस्थाओं को बारम-बार प्रणाम करता हूं।
युवा पत्रकार साथी Sidharth ने जो कुछ देखा, भुगता और खोया है, उसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता। ये ज़ख़्म कभी नहीं भर सकता। सिद्धार्थ ने यह पोस्ट फेसबुक पर लिखी थी।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आय़ोग का नया अध्यक्ष बनाया गया है। मिश्रा 20 सितंबर 2020 को रिटायर हुए थे। इसके बाद 31 मई 2021 को उन्हें पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली कमेटी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन का चेयरमैन चुन लिया। और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उन्होंने 2 जून को पदभार संभाल लिया है। आयोग का चेयरमैन होने के नाते उन्हें अब कैबिनेट मंत्री का दर्जा और सुविधाएं मिलेंगी। लेकिन इस नियुक्ति को लेकर बवाल शुरू हो गया है और जनता की अदालत में जस्टिस मिश्रा का ट्रायल शुरू हो गया है। इस ट्रायल में जस्टिस मिश्रा पर कई गंभीर आरोप लगे हैं। मिश्रा के खिलाफ खासतौर पर रिजर्वेशन के विरोध में काम करने, दलितों/आदिवासियों के हक का विरोधी होने, पूंजीपतियों के पक्ष में काम करने और न्यायपालिका में रहते हुए पक्षपात करने जैसे गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि रिज़र्वेशन के ख़िलाफ़ लगातार फ़ैसला देने वाले जज अरुण मिश्रा को भाजपा सरकार ने रिटायरमेंट के बाद का तोहफ़ा दिया है। सवाल उठ रहा है कि मानवाधिकार आयोग में ज़्यादातर मामले SC-ST और कमजोर वर्गों के आते हैं और अरुण मिश्रा का ट्रैक रिकार्ड इनके मामले में खराब है, ऐसे में वह इन वर्गों को न्याय कैसे देंगे? सोशल मीडिया पर लोग पुराने अखबारों की उन कतरनों को शेयर कर अरुण मिश्रा की नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं, जिसमें उनकी भूमिका विवादास्पद और वंचित वर्ग की विरोधी रही है। मसलन, अरुण मिश्रा ने आदिवासी इलाकों में आदिवासी टीचर्स की 100 फीसदी भर्ती के खिलाफ फैसला दिया था, जिसका इस समुदाय ने काफी विरोध किया था।
प्रधानमंत्री मोदी के करीबी कहे जाने वाले उद्योगपति अडानी को तमाम मामलों में जस्टिस मिश्रा द्वारा लाभ पहुंचाने का आरोप है। जस्टिस अरुण मिश्रा को 2019 से 2020 के बीच अडानी से जुड़े सात केस मिले। यह चौंकाने वाली बात है लेकिन सच है कि इन सातों केस में फैसला अडानी के पक्ष में आया। आखिरी केस 2 सितंबर 2020 का है जिसमें अडानी के पक्ष में फैसला आने से अडानी ग्रुप की कंपनी को 8000 करोड़ रुपये का लाभ हुआ। जाने-माने वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर जस्टिस अरुण मिश्रा के ख़िलाफ़ एक उद्योग समूह के कई मामलों को अपनी अदालत में सुनने का आरोप भी लगाया था। दिल्ली के तुगलकाबाद स्थित संत शिरोमणि सतगुरु रविदास महाराज धाम को ध्वस्त करने का आदेश अरुण मिश्रा ने ही दिया था।
तो वहीं अरुण मिश्रा ने जजों को नियुक्त करने वाले कोलिजियम में रहते हुए अपने भाई विशाल मि़श्रा को हाई कोर्ट का जज बनाया। इसके लिए कम से कम 45 साल का होने की शर्त में भी ढील दी गई और 44 साल में ही विशाल मिश्रा हाईकोर्ट के जज बन गए। तब अदालत के भीतर भी खूब बवाल मचा था। न्यायमूर्ति बीएच लोया की हत्या के मामले की सुनवाई जस्टिस अरुण मिश्रा को ही सौंपी गई थी। वरीयता की सूची में 10वें स्थान पर होने के बावजूद जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा की खंडपीठ को यह संवेदनशील मामला दे दिया गया था। इससे सुप्रीम कोर्ट के भीतर हलचल मच गई। 4 जजों ने अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बिना नाम लिए मिश्रा पर निशाना साधा था। विवाद होने पर जस्टिस मिश्रा ने खुद को इस केस से अलग कर लिया।
जिस ईवीएम को लेकर देश भर में बवाल मचा है, उसमें भी अरुण मिश्रा का नाम आता है। अरुण मिश्रा ही वो जज हैं जिन्होंने ये आदेश दिया था कि EVM के नतीजों की जाँच करने के लिए VVPAT की 100 प्रतिशत पर्चियों की गिनती ज़रूरी नहीं है। आज भी तमाम लोग इस पर सवाल उठाते हैं। लेकिन जस्टिस मिश्रा के उस फैसले ने ईवीएम को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई।
वैसे किसी भी आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति में प्रधानमंत्री की भूमिका सबसे अहम होती है, लेकिन देखने में आया है कि मोदी सरकार में ऐसे तमाम पद योग्यता देखकर देने की बजाय आपसी रिश्तों को देखकर दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी और जस्टिस अरुण मिश्रा के बीच का कनेक्शन कितना मजबूत है, यह इससे समझा जा सकता है कि जब अरुण मिश्रा पद पर थे, उनके नाती के मुंडन में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी मौजूद थे। वह पारिवारिक आयोजन अरुण मिश्रा के सरकारी आवास पर हुआ था। तो वहीं पद पर रहते हुए अरुण मिश्रा ने पीएम नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए उन्हें दूरदर्शी और अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाला प्रधानमंत्री बताया था। पीएम मोदी और अरुण मिश्रा के बीच इसी गठजोड़ के कारण जज के पद से रिटायर होने के बाद भी अरुण मिश्रा आठ महीने से अपनी सरकारी कोठी में जमे रहे। मानवाधिकार आयोग का चेयरमैन बनने के बाद वह कोठी उनके ही पास रह जाएगी। साथ ही कैबिनेट मंत्री का दर्जा होने के कारण तमाम सुविधाएं भी मिलती रहेगी।
इन तमाम आरोपों के आधार पर जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में खतरनाक कहा जा रहा है। कहा जा रहा है कि उनके रिकार्ड को देखते हुए उनके कार्यकाल में वंचित तबके को न्याय मिलने की संभावना कम ही है। अरुण मिश्रा को चेयरमैन बनाए जाने का भारी विरोध शुरू हो गया है। ट्विटर पर लोग उनके पुराने फैसलों के साथ #ShameonArunMishra का ट्रेंड चला रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन की सेलेक्शन कमेटी में शामिल लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने भी विरोध में चयन प्रक्रिया से खुद को अलग किया। खडगे की मांग थी कि आयोग के अध्यक्ष के रूप में एससी, एसटी या अल्पसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाए।
दरअसल सरकार और न्यायपालिका के बीच गठजोड़ को लेकर बार-बार सवाल उठ रहे हैं तो इसकी जायज वजह भी है। SC-ST Act के ख़िलाफ़ फ़ैसला देने वाले जज अशोक गोयल को सरकार ने रिटायरमेंट के बाद NGT का चेयरमैन बना दिया। तो आरक्षण के ख़िलाफ़ फ़ैसला देने वाले जज अरुण मिश्रा को मानवाधिकार आयोग का चेयरमैन बनाया गया है। रिटायरमेंट के बाद जस्टिस रंजन गोगोई भाजपा के कोटे से राज्यसभा पहुंच चुके हैं। अब आखिर देश की जनता इसे कैसे देखे? साफ दिख रहा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार लाभ लेने और लाभ देने के सिद्धांत पर चल रही है।
यूपी में 69 हजार शिक्षकों की भर्ती मामले में बहुजन समाज के साथ हुई धोखाधड़ी का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। परिषदीय प्राइमरी स्कूलों के लिए निकली शिक्षकों की भर्तियों में बहुजन युवाओं को मिलने वाली नौकरी साजिश के तहत गैर आरक्षित वर्ग के युवाओं को दे देने की साजिश का भांडाफोड़ होने के बाद बहुजन बुद्धिजीवियों से लेकर बहुजन समाज के नेताओं ने योगी सरकार को जमकर घेरा है।
दरअसल राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. लोकेश कुमार प्रजापति ने इस मामले में एक अंतरिम रिपोर्ट दी है। इस रिपोर्ट में यह सामने आया है कि आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स की जगह गैर आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स की नियुक्ति हुई है। यानी बहुनजों की नौकरी सवर्णों को दे दी गई है। 69 हजार सहायक शिक्षकों की भर्ती घोटाले में पिछड़े वर्ग द्वारा जारी अतंरिम रिपोर्ट में कहा गया है कि OBC को 18,598 सीटें मिली थीं, लेकिन उनके हिस्से की 5844 सीटें गैर आरक्षित वर्ग को दे दी गई है।
मामला तूल पकड़ने के बाद बहुजन बुद्धीजिवियों से लेकर बहुजन समाज के राजनेताओं ने योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। जहां वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने इस मुद्दे को ट्विटर पर जोर शोर से उछाला है तो वहीं भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद से लेकर अनुप्रिया पटेल औऱ समाजवादी पार्टी तक ने इस मामले पर सरकार से जवाब मांगा है। ट्विटर पर रिजर्वेशन स्कैम यूपी 69k ट्रेंड करने लगा और साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोगों ने इस आरक्षण घोटाले के खिलाफ आवाज उठाई। साफ है कि बहुजन समाज अपने अधिकारों की हकमारी करने वाले यूपी के मुख्यमंत्री योगी और भाजपा सरकार को छोड़ने के मूड में नहीं है।
पंजाब सरकार ने पंजाब पुलिस के 24 पीपीएस अफसरों को प्रमोशन देकर उन्हें आईपीएस बना दिया है। यह पदोन्नति अप्रैल महीने में की गई थी। लेकिन इस सूची में एक भी दलित अधिकारी के शामिल नहीं होने के कारण इस पर बवाल शुरू हो गया है। भेदभाव का आरोप लगाते हुए सुशील कुमार, पीपीएस कमांडेंट 1 आईआरबी ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में शिकायत की है। इसके बाद आयोग के चेयरमैन विजय सांपला ने पंजाब सरकार को नोटिस देकर जवाब मांगा है।
राष्ट्रीय अनसुचित जाति आयोग ने इस मामले में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव, गृह सचिव और पंजाब पुलिस के डीजीपी को नोटिस जारी किया है और पंद्रह दिनों के भीतर रिपोर्ट मांगी है। आयोग के चेयरमैन विजय सांपला ने इस मामले में कड़ा रुख अपनाते हुए कहा है कि सरकारी नौकरी में प्रमोशन हेतु भारत के संविधान के तहत बने कानूनों को नजरअंदाज करना कानूनी जुर्म है। जिन अफसरों ने केंद्र सरकार के प्रमोशन के रूल एवं पंजाब सरकार के पंजाब शिड्यूल कास्ट एंड बैकवर्ड क्लास अमेंडमेंट एक्ट 2018 को नजरअंदाज किया है, उन पर आयोग कानून के अनुसार सख्त से सख्त कारवाई करेगा।