अफगानिस्तान के कण-कण में कभी बुद्ध की प्रेम, करुणा व मैत्री की वाणी गूंजती थी। सुख, समृद्धि और खुशहाली थी।
अफगानिस्तान प्रागैतिहासिक काल (prehistoric era) से भारत का अंग रहा है। आज का अफगानिस्तान भी सांस्कृतिक तौर से भारत के बहुत करीब है। गौतम बुद्ध के समय में अफगानिस्तान राजा दारयोपहु के साम्राज्य का अंग था और ‘गंधार’ कहलाता था। पेशावर (प्राचीन पुरुषपुर) गंधार का प्रमुख नगर रहा है। तक्षशिला (रावलपिंडी) पहले पूर्वी गंधार की राजधानी थी। गंधार एक समय रावलपिंडी से लेकर हिंदूकुश पर्वतमाला तक फैला हुआ था।
तक्षशिला बुद्ध के समय में विद्या व व्यापार का बड़ा केंद्र था और उसका उत्तरी भारत से बहुत घनिष्ठ संबंध था। राजा पोक्कसाति ने जब बुद्ध की महिमा व यश सुना तो वह अपना राज-पाट छोड़कर तक्षशिला से बुद्ध के पास मगध में आए और भिक्षु बनकर मानव कल्याण का मार्ग अपनाया। बुद्ध का संदेश उनके जीवन काल में ही गंधार पहुंच गया था और उनके महापरिनिर्वाण के बाद तो खूब फला फूला। बुद्ध के ढाई सौ साल बाद सम्राट अशोक ने जम्बूद्वीप के अपने विशाल साम्राज्य में 84 हजार स्तूप बनवाए थे, उनमें से एक स्तूप तक्षशिला में था। अशोक महान ने बुद्ध वाणी के प्रचार के लिए विश्व के कई देशों में धम्मदूत भेजे थे। वरिष्ठ भिक्षु मध्यान्तक के नेतृत्व में कई विद्वानों को गंधार व कश्मीर भेजा था।
मौर्य काल व बाद में कश्मीर और गंधार बुद्ध की मानव कल्याणकारी शिक्षा, कला और व्यापार के प्रमुख केंद्र बन गए थे। ग्रीक और शक समुदायों को भारतीय संस्कृति की शिक्षा देने में सबसे बड़ा योगदान गंधार के बौद्ध भिक्षुओं का ही था। सम्राट कनिष्क के समय तो अफगानिस्तान बुद्ध धम्म और संघ का महान सिंहासन था। उन्होंने उस भू-भाग पर बुद्ध की शिक्षाओं का बहुत प्रचार करवाया। गंधार पहले ईरान फिर ग्रीक संस्कृति की सीमा पर पड़ता था इसलिए गंधार को अलग- अलग संस्कृतियों के मिश्रण से नई संस्कृति को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसी के परिणाम स्वरूप इंडो-ग्रीक शिल्प मूर्तिकला का जन्म हुआ और इसी गंधार शैली की बुद्ध प्रतिमाएं व चित्रकला विश्वविख्यात हुई।
गंधार ने असंग और वसुबंधु जैसे बौद्ध दर्शन के महान विचारक व दार्शनिक दिए। दिग्नाग के गुरु वसुबंधु यही के थे जिन्होंने न्याय शास्त्र के प्रथम ग्रंथों को लिखा। ईसा से दो सौ साल पहले से एक हजार साल बाद तक गंधार बुद्ध की शिक्षा, साहित्य, संस्कृति व कला का प्रमुख केंद्र रहा। यहीं से मैत्री का संदेश चीन, मंगोलिया व आगे पहुंचा। पश्चिम से आने वाले कबिलाओं के आक्रमण की मार सबसे पहले गंधार ही सहन करता था। लेकिन उनको भारतीय संस्कृति का पाठ पढ़ा कर इसी में समाहित कर देता था। गंधार ने खुशी-खुशी से कभी अपनी संस्कृति को ध्वस्त होते हुए नहीं देखा। 5वीं से 7वीं सदी तक गंधार में बुद्ध की शिक्षाओं का स्वरूप कितना भव्य, व्यापक और ऊंचाई पर था, इसका गुणगान फाहि्यान व ह्वानसांग ने अपनी यात्राओं के विवरण में विस्तृत रूप में लिखा है।
भारत, चीन और मध्य एशिया का यातायात व व्यापार इसी मार्ग से होता था। यहां के लोग व्यापार ही नहीं बल्कि धम्म, शिक्षा और संस्कृति के प्रचार में सबसे आगे थे। ईसा के बाद दूसरी सदी में बामियान घाटियों की विशाल चट्टानों को काटकर बनाई गई बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं संसार का एक अजूबा है, लेकिन समय के करवट लेने के साथ उन्हें 2001 में बम से ध्वस्त कर दिया गया। फिर कई वर्षों की मेहनत से पुनर्निर्माण किया गया।
लगभग 75 साल पहले महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपने ग्रंथ में लिखते हैं- “आज के अफगानिस्तान में बुतपरस्ती सबसे जघन्य अभिशाप मानी जाती है लेकिन इस देश की कला, संस्कृति, शिक्षा और दर्शन का सबसे गौरवशाली काल भी वही था, जब सारा अफगानिस्तान बुतपरस्त था। बुत परस्त फारसी शब्द है जो बुद्ध-परस्त (बुद्ध पूजक) का विकृत रूप है। अरब के बंधुओं को इनमें सिर्फ मिट्टी, पत्थर और धातु की मूर्तियां और उनके प्रति मिथ्या विश्वास ही दिखाई दिए। लेकिन वे इनकी कला की गंभीरता को नहीं समझ सके, क्योंकि कला को समझने के लिए संस्कृति की समझ होना जरूरी है। आज का अफगानिस्तान अपने प्राचीन गंधार की कला, शिक्षा, संस्कृति, महान विचारकों पर गर्व करें तो कौन अनुचित कहेगा? बुद्ध की शिक्षाएं वापस लौटे या न लौटे लेकिन पुरानी संस्कृति अफगानिस्तान की नवीन संस्कृति के निर्माण में अवश्य मददगार होगी।”
लेखक- महापंडित राहुल सांकृत्यायन
संदर्भ ग्रंथ – बौद्ध संस्कृति (1949)
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