परिनिर्वाण दिवस पर सामने आया मनुवादी मीडिया का जातिवादी चेहरा

6 दिसंबर को बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस होता है. इस साल बाबासाहेब का 63वां परिनिर्वाण दिवस है. अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े लोग इस दिन देश भर में कार्यक्रम आयोजित कर बाबासाहेब को श्रद्धांजलि देते हैं. लेकिन क्या डॉ. आम्बेडकर सिर्फ वंचित तबके के लिए ही महत्वपूर्ण हैं. अगर आप अपने दिमाग को खुला रख कर इस सवाल का जवाब ढूंढ़ेंगा तो जवाब होगा नहीं.

क्योंकि डॉ. आम्बेडकर ने न सिर्फ देश के शोषित समाज के लोगों को संविधान में अधिकार दिलवाया, बल्कि महिलाओं और मेहनतकशों की बेहतरी और मुक्ति के लिए भी कई कानून बनाएं. वह भारत के संविधान निर्माता थे, देश के पहले कानून मंत्री थे. रिजर्व बैंक के गठन में भी डॉ. आम्बेडकर का महत्पूर्ण रोल रहा. देश की इस महान शख्सियत के परिनिर्वाण के मौके पर “दलित दस्तक” ने देश के प्रमुख अखबारों और वेबसाइटों को खंगाला और जानने की कोशिश की कि आखिर उन्होंने बाबासाहेब को और उनके काम को कितना याद किया है.

हमारी इस पड़ताल के नतीजे चौंकाने वाले थे. तमाम महान कामों के जरिए देश की आधी से ज्यादा आबादी की जिंदगी बदल कर रख देने वाले डॉक्टर आम्बेडकर की पुण्यतिथि पर इस देश की मीडिया ने चुप्पी साध रखी है.

हमने प्रमुख अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस को खंगाला. तो वहीं हिन्दी के अखबार हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और अमर उजाला को भी टटोला. जबकि नवभारत, आजतक और एनडीटीवी की वेबसाइट को सर्च किया. इसके बाद हमें जो नतीजा मिला, वह सुनिए. किसी भी अखबार के पहले पन्ने पर डॉ. आम्बेडकर से जुड़ी कोई खबर नहीं थी. यहां तक की एडिटोरियल में भी डॉ. आम्बेडकर को पूरी तरह नजर अंदाज कर दिया गया. उनको याद नहीं किया गया. सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ नेता डी. राजा का लिखा एक आर्टिकल अखबारों की इज्जत बचा रहा है.

लेकिन अगर हिन्दी अखबारों की बात करें तो हिन्दुस्तान से लेकर जागरण और अमर अजाला तक ने पुरी तरह से चुप्पी साध रखी है. हां, तमाम अखबारों ने बाबरी विध्वंस की खबर का जिक्र प्रमुखता से जरूर किया है.

हमने हिन्दी के जिन वेबसाइटों को खंगाला उनमें कुछ वेबसाइटों ने नीचे एक खबर जरूर डाली है, लेकिन उसे प्रमुख रूप से नहीं दिखाया गया है.

हां, तमाम अखबार सरकारी विज्ञापन बटोरने में जरूर कामयाब रहे हैं. इसमें एक विज्ञापन केंद्र सरकार द्वारा दिया गया है तो दूसरा दिल्ली के केजरीवाल सरकार के मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम द्वारा.

आप फर्ज करिए कि आज दो अक्टूबर होता, या फिर जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं की पुण्यतिथि होती, तो भी क्या अखबार ऐसे ही खामोश रहतें. जाहिर है… नहीं. फिर आखिर इस देश का मीडिया डॉ. आम्बेडकर को नजरअंदाज क्यों करता है, वह उनके विचारों का जिक्र करने से आंखें क्यों चुराता है. जाहिर है कि बाबासाहेब के विचार इस देश की सत्ता और मीडिया पर कब्जा जमाए लोगों को रास नहीं आता. शायद इसीलिए वंचित तबके को भी अपनी एक मीडिया की जरूरत है.

अशोक दास, संपादक (दलित दस्तक) इसे भी पढ़ें-महात्मा ज्योतिबा फुले स्मृति दिवस: ज्योतिबा और डॉ. अंबेडकर में एक समानता है

वर्तमान कृषि संकट का विकल्प

वर्तमान कृषि संकट का विकल्प तलाशने के लिए हमें भारत को समझना जरुरी है. भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ आज भी 65 से 70 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर है. यूँ कहें अर्थव्यवस्था का एक पूरा हिस्सा कृषि पर आधारित है. जबकि कृषि पर आधारित हर वो वस्तु का आज बाजार मूल्य नहीं है, जो जिस अर्थ व्यवस्था द्वारा संचालित होता है, वो अर्थ व्यवस्था उस समाज को प्रभावित करता है. भारत कोई अकेला देश नहीं है जो किसी एक व्यवस्था के अंदर रहते हुए वे अपनी सारी चीजों को संचालित कर पाने में या व्यस्थित-व्यवस्था दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं. चूँकि भारत दुनिया का ही हिस्सा है. दुनिया की आर्थिक स्थिति बहुत ही तेजी से बढ़ता जा रहा और हम उसके मुकावले अपनी आर्थिक स्थिति को गति नहीं दे पा रहे है. जबकि सभ्यता के विकास में कृषि व्यवस्था का बड़ा योगदान है. कृषि-पशुपालन ही हमारे आर्थिक व्यवस्था का केंद्र बिंदु है. आज भी विकास की गतिशीलता कृषि-पशुपालन को छोड़कर तय नहीं किया जा सकता है. ऐसा हो ही नहीं सकता है. यही कारण है की दुनिया के विकास के दौर में भारतीय अर्थ व्यवस्था भी अपना स्वरूप बदलता चला गया और जब हम कृषि पर बात करते हैं तो कहते हैं कि हम अपनी सभ्याता और संस्कृति को छोड़ देते है.

सभ्याता- संस्कृति आती कहाँ से है. यह निश्चित रूप सी ही, वर्गीय सोच है और वर्गीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत हर शासन व्यवस्था का विस्तार हुआ है तो सभ्यता संस्कृति उसका परिणाम लेकर आएगी. किस व्यवस्था में कौन सा अर्थनीति होगी और कौन सा कृषि नीति होगी. यदि कोई कहे की सामाजवादी व्यवस्था में क्या होगा तो समाजवादी व्यवस्था में किसी एक व्यक्ति के हाथ में कृषि नही रहेगा. वह पूरी व्यवस्था सरकार के हाथ में होगा. पूंजीवादी व्यवस्था में क्या होगा, वहाँ हर व्यक्ति के हाथ में व्यवस्था होगी, जो मन होगा लोग करेंगे. इस व्यवस्था के अंतर्गत किसी के पास हजारो एकड़ जमीन है, किसी के पास दस बीघा जमीन होगा तो किसी के पास कट्टा, दस कट्टा जमीन होगा तो कोई भूमिहीन होगा. वहां मुनाफ़ा पर आधारित सारी नीतियाँ होगी. जहाँ मुनाफे पर आधारित नीतिया होगी वहां मानवीयता जरुर सम्माप्त होगी. मानवीयता जिसकी चिंता हमलोग करते है, पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में हम कितनो चाह ले भाईचारा, बंधुत्व, परिवार को बचा ले संभव ही नहीं है, क्योंकि यहाँ हर चीज मुनाफे पर तय होता है. पारिवारिक संबंध भी होगा तो घाटे-नाफे पर होगा. कोई उद्योग भी होगा तो घाटे-नाफे पर होगा. कृषि भी होगा तो घाटे- नाफे पर होगा. ये कौन सा व्यवस्था है की किसान घाटे में जा रहा है. जबकि पहले प्रतेक किसान के पास अपने उत्पादन के फसलों में ही बीज रखने का चलन था. उस बीज को खाने के उपयोग में नहीं लाते थे, चाहे भूखे क्यों न रह जाय. बीज संयोज कर रखना हमारी परम्परा में था. अब जो उत्पादन हो रहा है, उस उत्पादन के आनाज को बीज के रूप में रखने का कोई फाइदा ही नहीं है. क्योंकि इस अनाज को बीज के रूप में उपयोग करना आज संभव ही नहीं है, ये बीज के रूप में उत्पादन के काम में नहीं लाया जा सकता है. उससे उत्पादन नहीं हो पाता है, ये जो बदलाव है. ये तमाम विदेशी कम्पनियों और पूँजीवादी व्यवस्था का देन है, जिसने भारतीय कृषि व्यवस्था को चौपट किया है. आज कृषि को उद्योग की दर्जा देना जरुरी हो गया है, तभी कृषि संकट से निपट पायेंगे.

जब हमारी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर आधारित है ऐसे में हमें कृषि के उत्पादन पर जो भी खर्च है वह सरकार के द्वारा उसकी छति-पूर्ति हो. सिचाई की व्यवस्था, नहर की व्यवस्था, टुबेल की व्यवस्था करनी होगी. जैसे सोवियत संघ में क्रांति हुई तो वहां के प्रथम “हेड ऑफ़ गवर्नमेंट” रहे ‘व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव’ ने कहा की सारे विकास की धुरी में बिजली है. बिजली ही शक्ति का एक मात्र साधन है जो हर क्षेत्र में विकास कर सकता है. और आज हम देख पा रहे हैं कि बिजली के बिना किसी भी तरह की विकास को कर पाना संभव नहीं है. 1917 में क्रांति होता है, और तेजी से सोवियत रूस दुनिया में विकास करता है उसका मुख्य कारण है, कृषि के क्षेत्र में तमाम साधनों को जोड़ना है. वह ध्वस्त हुआ भुखमरी के कारण नहीं, बेरोजगारी के कारण नहीं. बल्कि दुनिया के निगाह में वो समाजवादी देश जो ध्वस्त हुआ उसके पीछे पूंजीवादी देश का हाथ रहा है. दुनिया के कोई भी छोटा सा देश पूँजीवादी देश को चुनौती दे सकता है. अगर वो कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो.

आज हमारे देश में कृषि संकट गहरा रहा है. उसके पीछे का बड़ा कारण कुछ और नहीं बीज को पेटेंट कर देना महत्वपूर्ण कारण है. आज हम बीच के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है. नीम का पेटेंट, गेंहूँ के बीज का पेटेंट, मक्के का पेटेंट हुआ है (कृषि उत्पादित वस्तुओं का पेटेंट होना) जो कृषि को बर्बाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है. उत्पादन जितना चाहे कर लें, उसे बीज के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. नवगछिया, भागलपुर बिहार के किसान मक्के का विदेशी बीज को लाकर खेत में लगाया तो जरुर है, लेकिन उस भुट्टे में दाना नहीं है. ऐसे में कृषि संकट गहराएगा ही… भारतीय कृषि नीति देश की आर्थिक स्थिति को बर्बाद करने में बड़ी भूमिका निभायी है. जिस तरह नील की खेती भूमि को बंजर बनाने के लिए था ठीक उसी तरह की नीति आज देश के अंदर अपनाया जा रहा है. पेटेंट के माध्यम से जो बीज और रसायनिक खाद बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है. उससे खेती बंजर ही होगा. देश की आर्थिक व्यवस्था को सुधारने और बिगारने में सरकार जिम्मेवाद होती है.

कृषि संकट का विकल्प को देखे तो पहला है किसानों को संगठित होना होगा, संगठित होकर किसान विरोधी सरकारी नीतियों का विरोध करना, किसान की बात करने वाली पार्टियों को अपना मत देना होगा. दूसरा है सहकारी खेती, पशुपालन और मार्केंटिंग का विस्तार करते हुए तमाम तरह की व्यवस्था में सहकारी भाव पैदा करना (सहकारी समिति को बढ़ावा देना होगा). यह तो अपने देशा में हो रहा है, गुजरात में अमूल है, महाराष्ट्र में कॉपरेटिव, बिहार में सुधा है एवं अन्य दुग्ध उत्पादन समितियाँ है जिसने किसानों की जीवन स्तर को उठाया है.

गांधी ने कहा था ऊँची कल्पनाओं से और उचे आर्दशों से जीवन नहीं चलता है. जीवन चलता है अच्छे काम करने से… इसलिए अब जरूरत है, जीरो वजट नेचुरल फार्मिंग को अपनाने का तभी भारत में कृषि व्यवस्था को नये सिरे से सुधारा जा सकता है. जो पुराना कृषि व्यवस्था था उसे अपनाते हुए उसमें कुछ परिवर्तन लाते हुए परम्परा विकसित करने का. उसके तहत कृषि कार्य में लागत मूल्य जैसी बहुत कुछ नहीं था. मनुष्य का श्रम और पशु का श्रम से कृषि कार्य होता रहा है, इस आधार पर भारत में सभ्यता-संस्कृति, दर्शन और विकास का परिप्रेक्ष्य देखा जा सकता है. ये केवल कृषि का सवाल नहीं है. ये पुरे जीवन शैली का सवाल है. गांधी जी की बात करें तो उनके वक्तव्य टुकड़ों में आये हैं. वो न ही अर्थशास्त्री थे, न राजनीतिशास्त्री थे, न ही दर्शनशास्त्री थे और न ही वो सामाजशास्त्री थे. लेकिन वो सबकुछ थे. उनके लेख और वक्तव्य टुकड़ों में भले है, लेकिन समग्रता में है. और एक-दुसरे से जूडा हुआ है. जब हम कृषि संकट की बात करेंगे तो भारतीय परिपेक्ष्य में गांधी को छोड़कर कृषि संकट उवर पाना संभव नहीं है. कृषि संकट का विकल्प गांधी जी के स्थानीय संसाधोनों के उपयोग पर ही संभव है, न की पूंजीवादी व्यवस्था में है.

नीरज कुमार, पी-एच.डी, शोधार्थी इसे भी पढ़ें-वर्तमान कृषि संकट और उसका समाधान  

दलित कहकर मंदिर में कथा कराने से रोका!

0

रेवाड़ी। हरियाणा के रेवाड़ी की गढ़ी बोलनी रोड स्थित एंप्लॉयीज कॉलोनी के श्रीकृष्ण मंदिर में एक अनुसूचित समाज की महिला को कथा कराने से रोकने का मामला सामने आया है. शिकायत मिलने के बाद डीएसपी सतपाल यादव पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए और किसी भी अप्रिय घटना को रोकने के लिए मंदिर परिसर व उसके आसपास पुलिस बल व दुर्गा शक्ति को तैनात कर दिया. पुलिस ने मामले की नजाकत को समझते हुए मंदिर को ताला लगा दिया.

जानकारी के मुताबिक, एंप्लॉयीज कॉलोनी में रहने वाली पीड़िता ने बताया कि वह श्रीकृष्ण मंदिर में कथा कराना चाहती थी. इसके लिए उसने लोगों को न्योता भी दिया था. शुरू में मंदिर कमिटी के सदस्यों ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तारीख नजदीक आने पर उसे मना कर दिया गया. मंदिर कमिटी ने उसे दलित कहकर प्रवेश से रोक दिया. इसके बाद पुलिस को शिकायत दी गई. इस पर डीएसपी सतपाल यादव अपने स्टाफ के साथ मंदिर पहुंचे और हालात का जायजा लिया. उन्होंने बताया कि पूरे मामले की छानबीन की जाएगी.

दूसरी ओर मंदिर कमिटी सदस्यों का कहना है कि महिला द्वारा लगाए गए आरोपों में सच्चाई नहीं है और उसे दलित कहकर कथा से नहीं रोका गया. मंदिर कमिटी के एक सदस्य ने कहा, ‘कमिटी के नियमों को पूरा नहीं करने पर उसे कथा करने से मना किया गया है.’ उनका कहना है कि कमिटी का नियम है कि जब भी मंदिर में कथा या अन्य प्रोग्राम होता है तो पहले अनुमति ली जाती है और कार्यक्रम के बाद मंदिर परिसर में शौचालय व अन्य निर्माण करवाना होता है. महिला से भी कुछ निर्माण करने को कहा गया था. वह कमिटी नियमों को पूरा कर कथा कर सकती है. उन्हें कोई आपत्ति नहीं है.

इसे भी पढ़ें-ऊना दलित पीड़ितों ने राष्ट्रपति को पत्र लिख मांगी इच्छा मृत्यु

डिक्की नार्थ के कार्यक्रम में मंत्री ने की बड़ी घोषणा

0

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में दलित उद्यमियों को आगे बढ़ाने के लिए राज्य सरकार सस्ता लोन मुहैया कराएगी. इस लोन पर उद्यमियों से पांच साल तक कोई ब्याज नहीं लिया जाएगा. इसकी घोषणा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्री सत्यदेव पचौरी ने इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में आयोजित एससी-एसटी उद्यमी सेमिनार में की. यह कार्यक्रम दलित उद्यमियों के संगठन डिक्की नार्थ के द्वारा आयोजित किया गया. मंत्री ने कहा कि दलित उद्यमियों को बढ़ावा देने के लिए कॉमन फैसिलिटी सेंटर और विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजनाएं जल्द शुरू की जाएंगी. दलित उद्यमियों के प्रॉडक्ट्स की मार्केटिंग भी सरकार करेगी.

कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि के रूप में एमएसएमई मंत्री सत्यदेव पचौरी और मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने आश्वासन दिया कि दलित उद्यमियों की मांगों पर मुख्यमंत्री से वार्ता के बाद निर्णय लिया जाएगा. सत्यदेव पचौरी ने कहा कि जो भी दिक्कतें आएंगी. उनको दूर करने का प्रयास किया जाएगा.

प्राइवेट सेक्टर में भी मिलना चाहिए आरक्षण

कार्यक्रम के दौरान मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि दलितों को प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण मिलना चाहिए. साथ ही दूसरे राज्यों की तरह ठेकेदारी में भी छूट दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार दूसरे राज्यों में दलित उद्यमियों को दी जाने वाली सुविधाओं का अध्ययन करेगी. इसी के मुताबिक दलित उद्यमियों को सुविधाएं राज्य सरकार की तरफ से दी जाएगी.

इससे पहले कार्यक्रम में डिक्की नार्थ के चेयरमैन आरके सिंह ने संगठन की मांगों को रखा. कार्यक्रम के दौरान दलित उद्यमी सुभाष सिंह ग्रोवर, विपिन कुमार, डिक्की नार्थ के चेयरमैन आरके सिंह, बीना सिंह, लक्ष्मी और अशोक कुमार को सम्मानित किया गया.

दलित उद्यमियों की प्रमुख मांगे

डिक्की (नार्थ) के चेयमैन आरके सिंह ने कार्यक्रम में 16 सूत्रीय मांग पत्र रखा. इसमें मुख्य रूप से एससी-एसटी के उद्यमियों को ऑर्नेस्ट मनी में छूट देने की मांग, कार्यादेश होने के बाद जो बैंक गारण्टी दी जा रही है, उसमें 1 प्रतिशत एससी व एसटी के लोगों को मान्य करने, एससी-एसटी के उद्योगपतियों को औद्योगिक क्षेत्रों में भूखंडों पर 50 प्रतिशत की सब्सिडी देने की मांग की गई. इसके साथ ही छोटी औद्योगिक इकाइयों से राज्य की खरीद का 50 प्रतिशत स्टेट की यूनिटो से क्रय किया जाए नई उद्योग नीति के निर्धारण करने वाली समिति में डिक्की नार्थ के अध्यक्ष अथवा अध्यक्ष द्वारा नामित उद्यमी को सदस्य नामित किया जाए.

इसे भी पढ़ें-डिक्की नार्थ का सेमिनार 5 दिसंबर को लखनऊ में

वर्तमान कृषि संकट और उसका समाधान

नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट को देखें तो 1995 से 2015 तक में 3, 60,000 किसानों ने अब-तक आत्महत्या कर चुके हैं. प्रत्येक साल 15 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इसको कैसे रोका जाये, भारत जैसे देश में किसान ऋण में पैदा लेता और ऋणग्रस्त होकर मरता है. अपने बच्चों को सरकार एवं साहूकारों का ऋणी बनाकर चले जाते थे. 1960-65 से लेकर आज-तक की स्थिति में कुछ ख़ास बदलाव नहीं हुआ है. अब क्या है भारतीय किसान बिना ऋण के जन्म लेते है और ऋण के कारण मर जाते हैं. 2011 के सेन्सर्स के अनुसार पिछले सेन्सर्स यानी 2001 से 2011 के बीच के अनुसार डेढ़ करोड़ किसानों ने खेती करना छोड़ दिया. दिन पर जोड़ा जाय तो प्रतिदिन दो हजार चालीस किसान खेती को छोड़ रहे है. खेती छोड़ने वाले किसान, किसान से खेतिहर मजदूर हो जाते हैं.

चूँकि खेती के साधन मंहगे होते जा रहे हैं और उससे आमदनी कम होते जा रही है. उनकी किसान बने रहने की हैसियत नहीं रहती है. या फिर वो अपने गाँव को छोड़ कर छोटे शहरों में, बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में जाते हैं. जहाँ उन्हें रोजगार नहीं मिल पाता है ये है कृषि संकट का बड़ा कारण, और ये कृषि संकट है क्या? कृषि उद्योग की तरह घाटे में जाने पर कृषक को कहीं से कोई राहत नहीं मिल पाना ही उदासीनता की दिशा में बढ़ते जा रहा है. मुनाफ़ा नहीं होता है. कृषि मुनाफे का धंधा नहीं रहा इसलिए खेती छोड़ते जा रहे किसान, किसान ऋण लेते हैं खेती के लिए खेती मारी जाति है और किसान आत्महत्या के लिए विवस होते हैं. किसान ऋण कहाँ से लेते हैं. ज्यादातर महाजनों से ऋण लेते हैं, क्योंकि बैंक आदि के द्वारा ऋण सभी को नहीं मिल पाता है. और जिसे मिलता भी है तो प्रयाप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है. उसे ऑफिसों का चक्कर काटना पड़ता है. ऋण का एक तिहाई हिस्सा घुस खिलाना पड़ता है. आखिरकार उसे महाजनों से ही ऋण लेना पड़ता है. महाजन अधिक ब्याज पर ऋण देता है. जिसके कारण वो खेती करके परिवार को चलते हुए ऋण चुका नहीं पाते हैं. फिर वो कर्ज में चला जाता है. यही कारण है कि कई किसान खेती को छोड़कर खेतिहर मजदूर हो जाता है या फिर शहर की ओर पलायन कर जाता है. ऐसे में किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है.

44-45 प्रतिशत जो कृषि शाख है वो इसी तरह से आता है. कृषि लाभकारी रहा क्यों नहीं अर्थशास्त्र के अनुसार लाभ है लागत और कीमत का अंतर… अगर हम विश्लेषण कर ले की कीमत क्यों मिलता है लागत और कीमत में अंतर क्यों नहीं है तो समझ जायेंगे. वर्तमान कृषि संकट में वर्तमान कृषि संकट के कारण… किसानों को कीमत क्या मिलता है. किसानों को उचित कीमत मिले, इसके लिए समर्थन मूल्य की नीति अपनाई गई, कृषि पर लागत और समय को जोड़ कर जो बनता है उसके अनुपात में लागत मूल्य को आँका जाता है. इसी के आधार पर समर्थन मूल्य तय होता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य: इसका उद्देश्य था की किसान को उतना कीमत मिल जाय की उनको इतना समर्थन मूल्य मिल जाए की उसको खेती में घटा नहीं हो. खेती में लगाये गए लागत के अनुरूप घाटा न हो, इसलिए प्रतेक साल समर्थन मूल्य सरकार के द्वारा घोषित हो अभी ये समर्थन मूल्य बहुत विवाद में है. क्योंकि अभी के वर्तमान सरकार चुनाव में वादा करके कुछ आई थी और सरकार में आने के साथ ही पूंजीपतियों के नीतियों पर चलने लगते हैं.

हम स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करेंगे. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिस थी की किसानों को उसके लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर उसे कीमत दिया जाय. (वर्तमान समय में इसको लागू करने के लिए किसान आंदोलित हैं.) वित्त मंत्री ने तो कहा हम लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर कीमत घोषित करेंगे. रबी फसल में किया है और खरीफ में भी करेंगे. वित्त मंत्री के कहने के बाद समस्या कहाँ रह गया. समस्या यह है कि कृषि लागतों को कई तरीके से जोड़ा जाता है. किसान ने खेती के दरम्यान विभिन्न तरीके का खर्च किये हैं उसकी लागत जैसे बीज, खाद. कीट नाशक, बिजली, डीजल और श्रमिक आदि पर खर्च है. एक लागत हुई किसान अपने जेब से खर्च करता है, दूसरा लागत हुआ किसान अपना और अपने परिवार का श्रम लगाता है. अपने खेत में काम नहीं करता तो दूसरे जगह काम करता उसे मजदूरी मिलता, तो किसान और उसके परिवार का जो आनुमानित लागत मजदूरी हो वो जोड़ा जाय. स्वामीनाथन आयोग द्वारा जो जोड़ा गया है, a2+f l से जोड़ा है. तीसरा है, जिसे कहा जाता है समग्र कीमत : किसान अपने खेत पर खेती नहीं करता तो उसे लगान आता, वह लगान की राशि और उसके पास जो ट्रेक्टर है, थ्रेसर है, हार्वेसर है या अन्य तरह के जो भी कृषि उपकरण है. जिसको हम कृषि पूँजीगत सामान कहते है. इसको खरीदा तो इस पर ब्याज लग रहा है, उसकी कीमत क्या होगी फिर किसान अपनी उत्पादन को मंडी में ले जाता है तो ट्रांसपोर्ट कोस्ट लगता है. किसान अपना फसल मंडी में ले जाता है तो उसे कमिशन देना पड़ता है, उसे अपने फसल का बीमा कराता है तो प्रीमियम भरना पड़ता है. समग्र लागत को स्वामीनाथन कमिटी ने C2 कहा है, समग्र लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर समर्थन मूल्य घोषित करने की जरूरत है. लेकिन समर्थन मूल्य में लगातार कमी होती रही है.

बाजार को निगरानी करने वाली कृषि एक रेटिंग एजेंसी है उसने एक अध्ययन करके निकाला है. 2009 और 2013 के बीच में समर्थन मूल्य की वृद्धि की दर थी वह थी 19.3 प्रतिशत और 2014 से 17 के बीच सर्मथन मूल्य की दर रही है 3.6 प्रतिशत, उस समय यूपीए के समय में जो सर्मथन मूल्य था वो समग्र मूल्य के बराबर नहीं था, कम था. समग्र लागत से कम था लेकिन उसके करीब था. अब क्या है उसके करीब बिल्कुल नहीं रहा यानी कि 19 प्रतिशत से बढ़ा रहा था, तो लागत मूल्य के करीब था, समर्थन मूल्य लेकिन जब से 3.6 प्रतिशत के करीब समर्थन मूल्य पहुँच गया तबसे कृषि संकट गहरा सा गया है. एक अध्ययन आया दाल की लागत जिसने कहा 1916-17 में लागत में वृद्धि 3.7 प्रतिशत, उसके पहले के वर्ष में लागत वृद्धि थी 2.8 प्रतिशत यानी की लागत मूल्य में 3.7 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है तो समर्थन मूल्य में 3.6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है. लागत मूल्य से भी कम की वृद्धि हो रही है. फिर किसान की लागत और समर्थन मूल्य के बीच के अंतर में लाभ नहीं दिखाई दे रहा है. अर्थात लागत मूल्य से भी कम समर्थन मूल्य तय करना कृषि कार्य हानि की दिशा में जा रहा है. पहला यह की वाजिब लागत पर 50 प्रतिशत समर्थन मूल्य जोड़कर वस्तु की कीमत तय करना है.

महत्वपूर्ण यह है कि समर्थन मूल्य केवल 26 वस्तुओं पर घोषित होता है. लेकिन लागू सिर्फ तीन-चार वस्तु पर ही हो पाता है. बाजार से घोषित मूल्य पर सरकार वस्तु को खरीदेगा. जितनी मात्रा में किसान अपनी वस्तु बेचना चाहे बेच सकता है. यानी सरकार को जब वस्तु खरीदना होता है तो वो सिर्फ दो ही वस्तु खरीदती है. धान और गेंहूँ तीसरी वस्तु प्रायः नहीं खरीदी जाती है किसान तो प्रायः सभी वस्तुओं की उत्पादन करती है. ये जो धान और गेंहूँ की बात है तो मोदी सरकार ने एक समिति बनाया ‘शांता कुमार समिति’ जिसने अपने अध्ययन में कहा ये समर्थन मूल्य का लाभ केवल 6 प्रतिशत किसान को मिलता है. इस समर्थन मूल्य के लाभ से 94 प्रतिशत किसान इससे बाहर रह जाता है. पुरानी सरकार और नई सरकार ने ऐसा कोई तंत्र विकसित नहीं किया है कि किसान अपने कृषि उत्पादन के वस्तु बेचना चाहे तो उस बस्तु को सरकार आसानी से खरीद ले जाय. इसलिए यह सवाल समर्थन मूल्य की घोषणा का नहीं है. सवाल खरीदने का भी है जो भविष्य में दिखाई नहीं पर रहा है. समर्थन मूल्य जो भी घाषित करता है, दूसरा यह जो समर्थन मूल्य घोषित होता है उस समर्थन मूल्य पर खरीद ले इसकी भी कोई गारेंटी नहीं है. तो कीमतें लगातार घटती जा रही है वही दूसरी तरफ खाद, बीज, कृषि से संबंधित उपकरण और कृषि पर तमाम तरह की लागते बढ़ते जा रही है. आखिर ऐसा हो क्यों रहा है. जैसा नीति हमने राजनीति को बनाया है ऐसा ही होगा.

दूसरा 1991 के बाद 1995 से ही कृषि संकट गहराते जा रहा है. ये कोई आज का संकट नहीं है. एक तरफ आर्थिक संकट शुरू होती है दूसरी तरफ कृषि संकट साल-दर-साल गहराता जा रहा है. 1991 के बाद से जिसे नव उदारवादी व्यवस्था कहते है, उदारवादी नीति में वृत्तीय घाटा को कम रखना है. वृत्तीय घटा को बनाए रखने के लिए कर राज्वस्व की वसूली को बढ़ाइए. कर राजस्व को बढाना नहीं क्योंकि हमें निजी क्षेत्र को मुनाफ़ा देना है. नव उदारवाद सिद्धांत के तहत हमें निजी क्षेत्र को बढ़ाना है. इसलिए कर राजस्व को बढ़ाना नहीं है. निजी क्षेत्र को बढाने के लिए उसे कर में छुट देना है और सरकार ऐसा करते रही है सरकार कीमत नहीं बढ़ा सकती है तो खर्च घटाये, ऐसा सरकारी क्षेत्र में कर को बढ़ा नहीं सकती है तो कृषि क्षेत्र में कर राजस्व बढ़ा देती है. ग्रामीण क्षेत्र बचा है, कृषि क्षेत्र बचा है जहाँ सरकार अपने व्यय में कटैती कर रही है. तो समर्थन मूल्य इसलिए भी नहीं बढ़ा रही की बाजार मूल्य और समर्थन मूल्य के बीच का अंतर को सरकार को भुक्तान करना पड़ेगा.

वृत्तीय घाटा को बनाए रखने के लिए समर्थन मूल्य पर नियंत्रण बनाए रखना सरकार की नियती है. ये तो नवउदारवाद की नीति भी यही कहता है. दूसरा WTO का जो समझौता है उसका भी यही नीति है कि कृषि पर छुट कम रखना है. भारत में जिसकी भी सरकार हो सब्सीडी लागत के अनुपात कम ही दिया जाना है. बाजार की बस्तुओं की कीमते बढ़ रही है वहीं उत्पादित बस्तुओं की कीमत मिल नहीं रही है. चूँकि दुनिया की बाजार आपस में जुड़ गई है. जुड़ने की वज़ह से यह होने लगा है कि बम्पर क्रॉप होने पर किसानों को उसके फसलों का कीमत नहीं मिल पाता है किसान आलू, टमाटर, बैंगन फेकते हैं और दूध बहाते हैं. और कभी कम उत्पादन होता है खराब मौसम की वज़ह से या किसी कारणों की वज़ह से तो ये सरकार है जो शहरी वर्ग से डरती है, चूँकि बाजार में उत्पादन कम होने के कारण बस्तुओं की कीमत कम होने के कारण वस्तुओं की दामों में वृद्धि को लेकर हाय तोवा मचा देती है. तब सरकार वस्तुओं को आयात कर लेती है बाजार को नियंत्रण कर लेती है. वहीं जब वस्तुओं का उत्पादन अधिक होता है तो उसका उचित कीमत नहीं मिल पाता है. जब वस्तु आयात की जाती तो उसका अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुसार कीमत निर्धारित होने लगता है समर्थन मूल्य कम तो बाजार मूल्य भी कम होने लगता है. इसका असर बाजार की कीमतों पर पड़ता है. किसान मारा जाता है कृषि मारी जाती है. जब उत्पादन अधिक होता है तब भी जब उत्पादन कम होता है तब भी… और इस तरह से किसान का शोषण हो रहा है.

शोषण कई तरह का होता है. ब्राह्मणवादी शोषण होता है, सामंतवादी शोषण होता है और पूंजीवादी शोषण होता है. ये जो किसानों के साथ शोषण हो रहा है यह शुद्ध पूंजीवादी शोषण हो रहा है. सामंतवादी शोषण होता है मजदूर को मुफ्त में काम कराया जाता है. कम मजदूरी देकर विदा कर देते हैं डंडे की जोड़ पर, ये पूंजीवादी शोषण हो रहा है, पूंजीवादी शोषण मूल्य के द्वारा होता है. किसानों की फसलों की कीमत कम मिलती है लेकिन जब वही फसल बाजार-मंडी से बाहर चली जाती है प्रोसेसिंग में चली जाती है तो उसका कीमत बढ़ जाती है. टमाटर की कीमत में और सोस की कीमत में, आलू की कीमत में और चिप्स की कीमत में, मकई के कीमत में और कान्फेक्स की कीमत में आसमान-जमीन का अंतर रहता है. डेढ़ रुपए में एक बोतल पानी तैयार होता है और वही पानी बाजार में 15 रुपए में बिकता है. ये जो मूल्य के द्वारा किसानों और आम जनता का शोषण हो रहा है यह शुद्ध रूप से पूंजीवादी शोषण है. किसान की हालत दिन-व-दिन वद-से-वद्तर होती जा रही है, कृषि संकट में पड़ते जा रहा है. ये मोटा-मोटी कृषि संकट का परिणाम है. सवाल है कि इसका निदान क्या है.

अर्थशास्त्री कई तरह के निदान बताते है 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर दी जायेगी, अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया है कि अगर कृषि उत्पादन में 14 या 8 या 6 प्रतिशत की वृद्धि प्रतेक साल हो तो 2022 तक में किसानों की आय दुगनी की जा सकती है. वस्तु की कीमते ठीक मिलते रहे, सरकार इसे नहीं मानती है लेकिन नीति आयोग यह कहता है की 2022 तक में किसानों की आमदनी दुगनी करने के लिए कृषि उत्पादन में 10.4 प्रतिशत की बार्षिक वृद्धि होनी चाहिए तभी किसानों की आय दुगनी हो पाएगी. हो कितनी रही है, इकोनोमिक सर्वे कहता की 2.1 प्रतिशत वृद्धि की ही संभावना है आगे के वर्षों में भी 2.1 प्रतिशत वृद्धि की संभावना है. और वातावरण में परिवर्तन हो रहा है इसके कारण आने वाले वर्षों में औसतन कृषि उत्पादन में 15 से 18 प्रतिशत की कमी होगी. और जहाँ असिंचित क्षेत्र है वहां पर 20 से 25 प्रतिशत कमी होगी. इसका कारण यह है की किसानों के प्रति सरकार का कोई रुची है ही नहीं… अभी हाल में आंदोलन कई हुआ है. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली में बिहार में लखीसराय से वख्तियारपुर तक सड़क जाम हुआ. इस लिए की दलहन खरीद लो. आंदोलन तो हो रहा है लेकिन असर नहीं हो रहा है क्योंकि संसद में अब किसानों का बात करने वाला कोई नहीं है. संसद में अब किसान लॉबी नहीं है क्यों लॉबी नहीं है क्योंकि वोट तो हम दे रहे हैं धर्म और जात के नाम पर… धर्म-जाति और साम्प्रदाय में बंटे हुए भी है और हमें लगातार बांटने की कोशिश भी हो रही है. किसान की तो कोई जात है ही नहीं, न ही किसान हिन्दू है, न किसान सिख है, न किसान मुस्लिम है. न किसान उच्च वर्ग और न ही किसान निम्न वर्ग का हो सकता है. परंतु यहाँ तो किसान यादव है, कोयरी है, कुम्हार है, मुस्लिम है, सिख है, इसाई है, राजपूत है, ब्राह्मण है, तेली है, धनुक है, कुर्मी है और दलित है. इसलिए जरूरत है जाति और धर्म से ऊपर उठकर किसानों को संगठित होने की जरूरत है.

आत्मनिर्भरता जरुरी है लेकिन सहकारिता के बिना सामाजिक व्यवस्था संभव नहीं है. गांधी के ग्राम स्वराज्य का सिद्धांत से निकला हुआ सहकारिता का दर्शन दुनिया के मानवता के लिए है. ये जीवनशैली, जीवन पद्धति है. चीन में रेगुलेटेड मार्केट है, वहां सभी वस्तुओं का मूल्य सरकार तय करती है चूँकि वहाँ सरकार के नियंत्रण में कृषि उत्पादन से संबंधित वस्तु है, उन पर मूल्य निर्धारण करती है और प्रोसेसिंग मार्केट के तहत सरकार फेक्टरियों में वस्तु पहुंचाते है जिससे वहां के किसान को उसके वस्तु का कीमत मिल जाता है. और यहाँ खुला बाजार है, पूंजीपति और व्यापारी वर्ग यह चाहता है कि उसे कम दाम में उत्पादित फसल मिल जाय, कभी-कभी जब भारत के किसान को अपने फसल का कीमत मिलने की स्थिति बनती है. वैसे में व्यापारी वर्ग खुला बाजार के कारण सरकार के सहयोग से विदेशों से आनाज आयात कर लेती है. इसके कारण किसान को दोहरा मार का शिकार होता है. मार्केटिंग एक रास्ता है जिसके माध्यम से लागत-कीमत का अंतर के साथ-साथ बहुत सारे समस्याओं का निदान हो सकता है. सहकारी पशुपालन और सहकारी कृषि होगा तो अपने आप ग्रामीण हाट-बाजार बढेगा. बीज संरक्षण केंद्र होगा, जीरो वजट नेचुरल फार्मिंग जैसे कृषि के दिशा में भारत बढेगा. सहकारी खेती, सहकारी पशुपालन, सहकारी मार्केटिंग केवल हिन्दू के लिए नहीं होगा, केवल मुस्लिम के लिए नहीं होगा, न ही केवल सवर्णों के लिए होगा और न ही दलित-पिछड़ों के लिए होगा. इसका लाभ सबको मिल पायेगा. दरअसल सहकारिता से सभी के बीच रिश्ते वेहतर होगा. हिन्दू-मुस्लिम के बीच का झगड़े खत्म होंगे, दलित-पिछड़ों और अगड़े के बीच का झगड़ा खत्म होगा. आपस में पारिवारिक संबंध विकसित होगा, तब सायद उस मूल्य की भी पूर्ति होगी जिसके दंभ पर मानवता टिका है. आज जिस तरीके से लोग पढ़ते-लिखते जा रहे है और अपने गाँव व कस्बे को भूलते जा रहा है. तब मेनेजमेंट किया हुआ लड़का बैंक में न जा कर सहकारी खेती व्यवस्था से जुड़ेगा, क्योंकि तब हमें मेनेजमेंट की जरूरत पड़ेगी.

आज किसानों को लामबंद होने की जरूरत है, विभिन्न झंडों के तले नही बल्कि एक बैनर तले, तभी कृषि संकट से भारत बाहर निकल पायेगा. (30 नवम्वर को दिल्ली में किसान रैली में अठारह विपक्षी दलों के नेताओं को एक मंच पर आना) गांधी जी का ट्रस्टीशीप का सिद्धांत आज भी प्रसांगिक है. ग्राम स्वराज्य में ट्रस्टीशीप के सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए गांधीजी ने कहा कि मनुष्य के द्वारा अब-तक की सभ्यता के विकास से पनपी समस्याओं का विकल्प यही है. जिसमें सहकारी खेती, सहकारी पशुपालन और सहकारी बाजार व्यवस्था से ही सभी का जीवनशैली उत्कृष्ट हो पायेगा. अकेला व्यक्ति, अकेला किसान, अकेला मजूदर सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता है. गाय को या फिर किसी भी तरह के जानवरों की रक्षा करना और उसके दूध का लाभ अन्य लाभ लेना हो तो ये अकेले संभव नहीं है. सौ किसान मिलकर वो अपने पशुओं का अच्छी तरीके से इलाज कर सकता है. उसकी देख भाल अच्छी तरीके से हो सकता है एक किसान की तुलना में, जो बात सहकारी पशुपालन से ही संभव हो सकता है. वही बात कृषि पर भी लागू होता है. गांधीजी के जीवनशैली को देखें तो उन्होंने सहकारी कृषि की भी बात की थी. सौ किसान अपने खेतों को मिला दे और उसपर खेती करे फिर अपने उत्पादन को बाँट ले, इससे उत्पादन भी बढ़ेगा और संसाधनों की भी वचत होगा. गांधी जी ने सहकारी पशुपालन और सहकारी कृषि की बात की, वर्धा स्थित गोपुरी इसका उदहारण है. इसके साथ उन्होंने सहकारी लघु-कुटीर उद्योग का भी विचार दिया जिसका स्थानीय स्तर पर ग्रामीण स्तर पर अपना ग्रामीण हाट, बाजार होगा.

नीरज कुमार, पी-एच.डी, शोधार्थी गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग, म.गां.अं.हिं.वि.वर्धा.

इसे भी पढ़ें-शहरों/ नगरों /सड़कों के नाम बदलने की राजनीति नई तो नहीं है किंतु ….

डिक्की नार्थ का सेमिनार 5 दिसंबर को लखनऊ में

4

लखनऊ। डिक्की नार्थ एस.सी./एस.टी  उद्यमियों के लिए लखनऊ के गौमती नगर में दिनांक 05 दिसम्बर 2018, दिन बुद्धवार को प्रातः 09:30  से सांय 5:30 बजे तक एक सेमिनार का आयोजन करने जा रही है जिसके मुख्य अतिथि श्री सत्यदेव पचौरी मंत्री,उ0प्र0 सरकार,  विशिष्ट अतिथि श्री स्वामी प्रसाद मौर्य मंत्री, उ0प्र0, और श्री कौशलकिशोर सांसद लोकसभा होगें.

गौरतलब है कि साल 2005 में दलित उद्यमियों को एक मंच पर लाने और आपस में जुड़कर एक ताकत बनने की चाह में उभरे दलित उद्यमियों के संगठन डिक्की का अगस्त 2018 दो फाड़ हो गया था. संगठन के हरियाणा और उत्तर प्रदेश के फाउंडर प्रेसिडेंट सुभाष सिंह ग्रोवर और आर.के सिंह ने डिक्की से अलग होकर अपना एख अलग संगठन बनाया था जिसका नाम Developing Indian Chamber of Commerce & Industry North रखा. जिसका शार्ट नाम DICCI होता है. इसके अध्यक्ष डिक्की के पूर्व यूपी प्रेसिडेंट आर.के सिंह हैं जबकि उपाध्यक्ष हरियाणा के फाउंडर प्रेसिडेंट सुभाष सिंह ग्रोवर हैं. अन्य पदाधिकारियों में लक्ष्मी जनरल सेक्रेट्री और विपिन कुमार ट्रेजरार हैं. अशोक कुमार और सोबेस सिंह संस्था के सदस्य हैं.

Read it also-दलित उद्यमियों के संगठन डिक्की में दो फाड़      

IPL 2019: 18 DEC को जयपुर में होगा ऑक्शन

0

नई दिल्ली। इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) 2019 से पहले खिलाड़ियों की नीलामी 18 दिसंबर को जयपुर में होगी. बीसीसीआई ने सोमवार को इसकी घोषणा की. ये नीलामी एक दिन की होगी. इसके आयोजन स्थल में भी बदलाव किया गया है और ये बेंगलुरू की जगह जयपुर में होगी. सिर्फ 70 खिलाड़ियों को नीलामी में जगह दी गई है जिसमें 50 भारतीय और 20 विदेशी खिलाड़ी शामिल हैं. आठ टीमों के पास नीलामी में बोली लगाने के लिए कुल 145 करोड़ 25 लाख रुपये की राशि है.

नीलामी से पहले पिछले महीने टीमों ने रिटेन किए हुए खिलाड़ियों के नामों की घोषणा की और इस दौरान कुछ बड़े नामों को रिलीज किया. किंग्स इलेवन पंजाब ने युवराज सिंह जबकि दिल्ली डेयरडेविल्स ने गौतम गंभीर को रिलीज किया. साल 2018 सीजन की नीलामी में जयदेव उनादकट के लिए 11 करोड़ 50 लाख रुपये की बोली लगाने के बाद राजस्थान रायल्स ने इस तेज गेंदबाजी को रिलीज कर दिया है. आम चुनावों के साथ अगर तारीखों का टकराव होता है तो 2019 आईपीएल के कुछ हिस्से या पूरे टूर्नामेंट का आयोजन भारत के बाहर हो सकता है.

Read it also-Women’s World T20: सेमीफाइनल में बाहर हुई टीम इंडिया

रजनी-अक्षय की 2.0 फिल्म 400 करोड़ पार

0

मुंबई। सिर्फ़ चार दिनों में वर्ल्डवाइड 400 करोड़ रूपये से अधिक का कलेक्शन करने वाली रजनीकांत और अक्षय कुमार की साइंस-फिक्शन थ्रिलर फिल्म ‘2.0’ ने हिंदी वर्जन के जरिये 100 करोड़ रूपये का आंकड़ा पार कर लिया है.

शंकर ने निर्देशन में बनी फिल्म 2.0 ने अपने रिलीज़ के पांचवे दिन यानि इस सोमवार को 13 करोड़ 75 लाख रूपये का कलेक्शन किया जिसके चलते फिल्म का कुल कलेक्शन अब 111 करोड़ रूपये तक पहुंच गया है. फिल्म ने वर्किंग डे में 20 करोड़ 25 लाख रूपये से ओपनिंग ली थी और उसके मुकाबले करीब 35 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गई है, जो की फिल्म की ग्रोथ के लिए बेहद अहम् है. फिल्म को इस हफ़्ते बॉक्स ऑफ़िस पर ऐसा कोई बड़ा ख़तरा नहीं है. इस हफ़्ते केदारनाथ रिलीज़ होगी और फिल्म का बज़ इस फिल्म से डेब्यू कर रही सैफ़ अली खान की बेटी सारा को लेकर ही है.

फिल्म 2.0 इस साल की 12वीं ऐसी फिल्म है जिसने 100 करोड़ या उससे अधिक का कलेक्शन किया हैl फिल्म को ओवरसीज़ से भी अच्छा कलेक्शन मिला है. शनिवार तक के कलेक्शन के आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका से फिल्म को 24 करोड़ 55 लाख रूपये का कलेक्शन मिला जबकि यू के से चार करोड़ 54 लाकह और ऑस्ट्रेलिया से चार करोड़ 87 लाख रूपये.

फिल्म को पहले चार दोनों में ही वर्ल्डवाइड बॉक्स ऑफ़िस से 403 करोड़ रूपये का कलेक्शन मिल चुका है. इसमें से भारत ने 298 करोड़ इंडियन और 105 करोड़ ओवरसीज़ बॉक्स ऑफ़िस से मिले हैं. तमिलनाडु बॉक्स ऑफ़िस पर फिल्म को 4 दिनों में 62 करोड़ रूपये का कलेक्शन मिला है.

Read it also-‘बाहुबली 2’ का रिकॉर्ड तोड़ ‘बधाई हो’ ने छठे हफ्ते कर दिखाया यह कारनामा

बाबरी की बात

0

उर्दू, अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार हिंदी और संस्कृत से पी.जी. इस पूरे आंदोलन को करीब से जानने समझने वाले और बाबरी मस्जिद के मुद्दई स्व. हाशिम अंसारी के करीब रहने वाले कुछ लोगों में हाजी आफाक साहब भी हैं। बाबरी मस्जिद विवाद पर यूँ तो बात करने के लिए यहाँ काफी कुछ है लेकिन इस पूरे विवाद पर कब किसने क्या किया इसकी काफी दिलचस्प जानकारी इनसे गुफ्तगू के दौरान हुई यह लेख इसी बात चीत पर आधारित है.

अयोध्या मसले पर सुलह की कोशिश में भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने सबसे पहले बात-चीत का सिलसिला शुरू किया जो भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. वीपी सिंह तक चला यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए ज़रूरी है क्यूंकि यह देश के प्रधानमंत्रियों द्वारा किया जाने वाला प्रयास था इसलिए महत्वपूर्ण भी था लेकिन इसका कोई हल नहीं निकल सका कारण सिर्फ इतना था कि सुलह की सूरत में शर्त एक ही थी कि मुसलमान मस्जिद से अपना दावा छोड़ दें. शंकराचार्य जी, जस्टिस पलोक बासु से होता हुवा यह सिलसिला श्री श्री रवि शंकर तक पहुंचा लेकिन सब में एक ही बात थी कि मुसलमान बाबरी मस्जिद से अपना दावा छोड़ दें.

जबकि होना यह चाहिए था कि दोनों पक्षों को साथ ला कर दोनों के ही धार्मिक स्थलों का निर्माण कराने की बात पर सहमती बनानी चाहिए थी और सांप्रदायिक शक्तियों को मुंह तोड़ जवाब भी देना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुवा बल्कि इसके उलट ऐसा माहौल बनाया गया जिससे देश में लगातार नफरत फैलती गयी. उस समय से अगर हम देखें तो एक तरफ सुलह की लगातार बात हो रही है वही दूसरी तरफ पूरे देश में मुसलमानों और उनकी इबादतगाहों के खिलाफ घृणा का माहौल भी बनाया जा रहा है जिसमे आये दिन ऐसे बयान दिए जा रहे हैं जिससे मुसलमानों की इबादतगाहों, मकबरों एवं कब्रिस्तानो के लिए लगातार खतरा पैदा होता जा रहा है. आखिर हम कब समझेंगे कि जब सुलह का माहौल ही नहीं होगा तो सुलह की बात कैसे होगी.

एक खास बात जिसको मंदिर की पैरवी करने वालों ने हमेशा नज़रंदाज़ किया वो यह कि देश के मुसलमानों ने कभी नहीं कहा कि वो मंदिर के खिलाफ हैं बल्कि वो तो हमेशा इस बात पर सहमत हैं कि अदालत से जो भी फैसला होगा वो उनको मंज़ूर होगा.

देश का आम मुसलमान यह चाहता हैं कि मंदिर भी बने और मस्जिद की जगह मस्जिद बन जाए जिससे शांति-सदभाव का सन्देश पूरी दुनिया में अयोध्या से जाए. इसमें हर्ज़ भी नहीं है देश में इसकी तमाम मिसाल मौजूद है लेकिन अगर हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति नफरत और घृणा होगी तो हम साथ कैसे खड़े होंगे अगर हम साथ खड़े हो गए तो अयोध्या ही नहीं काशी और मथुरा का भी हल निकाल लेंगे लेकिन अगर हमने हल निकाल लिया तो फिर इस देश के तमाम सियासी दल किस मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे क्यूंकि पूरे देश में धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषाई झगडा खड़ा करके तो ये चुनाव जीतते आये हैं.

अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता सीपी जोशी का बयान आया है कि ताला कांग्रेस के समय लगा और उनके ही प्रधानमंत्री ने ताला खुलवाया और कांग्रेस का प्रधानमंत्री ही मंदिर निर्माण करा सकता है यही बात राजबब्बर ने भी कही हमें यहाँ यह समझना होगा कि सियासी दलों के लिए मंदिर मुद्दा सिर्फ सरकार बनाने का जरिया है न कि आस्था की बात है. बात सिर्फ कांग्रेस की ही नहीं बल्कि बीजेपी जो मंदिर आन्दोलन पर ही टिकी पार्टी है उसने देश में इसी मुद्दे पर 4 बार सरकार बनायीं और 2014 में प्रचंड बहुमत से केंद्र की सत्ता में काबिज़ हुई फिर राम मंदिर के नाम पर ही उत्तर प्रदेश में सत्ता में यह बोल कर आयी कि प्रदेश में सरकार होगी तो हम संसद में अध्यादेश ला कर मंदिर निर्माण करा लेंगे लेकिन पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद वो लगातार इससे कन्नी काट रही है और उसके ज़िम्मेदार नेता लगातार बयान दे रहे हैं कि हम मंदिर के लिए अध्यादेश नहीं ला सकते जबकि उनके ही कुछ सांसद, विधायक आज भी आम भारतियों को गुमराह करने पर तुले हुए हैं कि मुसलमानों की वजह से मंदिर निर्माण नहीं हो रहा है.

जबकि हकीकत यह है कि इस पूरे मामले में मुसलमान ही विक्टिम है और उसको ही अपराधी की तरह नेता और मीडिया पेश करते रहे हैं. एक तरफ तो मस्जिद को तत्कालीन सरकार और दक्षिणपंथी संगठनों के कार्यकर्ताओं की भीड़ के माध्यम से तोड़ा गया वही दूसरी तरफ अयोध्या में 17 मुस्लिमो की हत्या भी की गई लेकिन इन दोनों ही अपराधिक मामलों में आज तक न्याय नहीं हो पाया और न ही किसी को सजा हुई अगर सजा भी हुई तो सिर्फ एक दिन की उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह को जो मौजूदा समय में राजस्थान और हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल हैं.

इस पूरे विवाद में अब खेल खुल गया है जहाँ पहले इस मुद्दे पर कांग्रेस,भाजपा सहित उत्तर प्रदेश के ही सियासी दल हाथ आजमाते थे वही महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों के खिलाफ नफरत और घृणा फैलाने वाली पार्टी शिवसेना ने इस मुद्दे पर अयोध्या कूच कर दिया और उद्धव ठाकरे भाजपा को मंदिर मुद्दे पर लगातार कटघरे में खड़ा करते रहे उन्होंने इसके लिए एक नारा “हर हिन्दू की यही पुकार पहले मंदिर फिर सरकार” दिया जिसका असर 25 नवम्बर की धर्मसभा में भी देखने को मिला और भीड़ में कुछ राम भक्त भाजपा, विहिप और संतो तक से बहस करते हुए टीवी पर दिखाई दिए. शिवसेना मंदिर आन्दोलन से शुरू से जुडी रही है और भाजपा गठबंधन में हिस्सेदार भी है. इस पूरे मामले को करीब से समझने की ज़रूरत है कि क्यों शिवसेना राम मंदिर मुद्दे को भाजपा से छीनना चाहती है और अयोध्या में ही भाजपा को घेर कर उसकी हिंदुत्व की छवि को तार तार करने की कोशिश उद्धव ठाकरे द्वारा की गयी. 24-25 नवम्बर को जो हुवा उससे एक बात तो साफ़ है कि यह मुद्दा अब भाजपा की झोली से निकल चुका है शिवसेना और कांग्रेस दोनों इस मुद्दे को अब हथियाना चाहते हैं.

हमें यह भी जानना होगा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब राम चरित्र मानस काशी में बैठ कर अवधी में लिखा तो उस समय अकबर का शासन था उन्होंने न ही बाबर का ज़िक्र किया और नहीं ही मंदिर तोड़े जाने के विषय में ही कुछ लिखा अगर ऐसा कुछ होता तो ज़रूर तुलसीदास जी अपनी रचना के माध्यम से इसका उल्लेख करते. लेकिन गोसाईं जी ने ऐसा नहीं किया और भी बहुत से उधाहरण है जिनसे हम यह समझ सकते हैं कि यह मुद्दा सिर्फ सियासी है और सियासी फ़ायदे के लिए लोगों को आपस में लड़ाया जा रहा है.

इस पूरे मामले में इन्साफ का सवाल आज तक बना हुवा है और इस घटना के साजिशकर्ता और अपराधियों का महिमा मंडन मीडिया जब तब करती ही रहती है साथ ही देश की राजनीती में ऐसे लोगों का कद आसमान छु रहा है. लेकिन देश का युवा आज भी बेहतर शिक्षा और रोज़गार की तलाश में लगातार पलायन कर रहा है उसका भविष्य अंधकारमय है और चूँकि सत्ता शासन नहीं चाहते कि देश की आम जनता अपने हक़ हुकूक के लिए लडे इसलिए वो धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा को हथियार बना कर जनता को आपस में लड़ाते रहते हैं.

अब समय आ गया है जब हम देश के लिए कुछ बेहतर करने का फैसला ले और संविधान विरोधी और सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह से ऐसे नकारे जैसे जर्मनी में हिटलर के बाद नाजीवाद को आम जर्मन नागरिकों ने ‘नेवर अगेन’ मतलब ‘अब फिर नहीं’ के नारे के साथ ज़मिदोज़ कर दिया और अपने देश की मूल समस्याओं को हल करने की तरफ अपनी उर्जा लगा दी. गुफरान सिद्दीकी

Read it also-जातीय राजनीति के शिकार सुपर 30 के आनंद कुमार

दलित परिवार पर टूटा जातिवादियों का कहर

0

गोंडा जिले में दलित परिवार पर दबंगो का कहर टूटा है. जिले के परसपुर थाना क्षेत्र में दलित दम्पत्ति को धारदार हथियार और लाठी डंडे से हमला कर दिया. दलित दम्पत्ति का आरोप है कि गाँव के ही कुछ दबंग उसकी जमीन पर जबरन रास्ता निकालना चाहते हैं. जबकि रास्ता दूसरी तरफ से खुला हुआ है. डरा सहमा ये परिवार दबंगो की दबंगई का शिकार हुआ, तो अपनी सुरक्षा की गुहार लगाने एसपी कार्यालय पहुँच गया.

मामला जिले के परसपुर थाना क्षेत्र के सेवरी गावँ का है. जहाँ एक दलित परिवार की ज़मीन पर रास्ता निकालने को लेकर हुए विवाद में कुछ दबंग छवि के लोगो ने लाठी डंडे और फावड़े से पिटाई कर दी. जिससे एक का हाथ टूट गया और दूसरे का सिर फट गया. इतना ही नहीं, जब इन लोगों ने थाने पर गुहार लगाई तो खाकी नें भी उनकी सुनवाई नहीं की.

पीड़ित महिला पुष्पा ने रोते हुए बताया कि गाँव के ही कृष्णदत्त पांडे, सरयू प्रसाद पांडे, सोनू और सीताराम ने मिलकर उन्हें मारा है. वो लोग हमारी ज़मीन पर जबरन कब्जा कर रहे हैं. मिट्टी पटवा कर दलित के घर के दरवाजे पर कूड़ा भी फेक देते हैं. पुष्पा ने बताया कि हम थाने पर तीन महीने से दौड़ रहे हैं लेकिन कोई सुनवाई नही हो रही है.

अब पुलिस अधीक्षक से अपनी ज़मीन बचने की गुहार लगा रही हैं. वहीं इस पूरे मामले पर जिले के एसपी आर पी सिंह ने बताया कि जय प्रकाश ने सूचना दी है, कि उसे और उसकी पत्नी को गाँव के ही दो लोगो ने मारा है. इस संबंध में अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमा पंजीकृत करके एक आदमी को अरेस्ट कर लिया गया है. पीड़ितों का मेडिकल कराया गया है और मेडिकल रिपोर्ट की अभी प्रतीक्षा की जा रही है. श्रोत:- News18

Read it also-पीएम मोदी का ‘भय’ और सीजेआई गोगोई से गुपचुप मुलाकात! देखें तस्वीर

विपक्षी गठबंधन पर मायावती के सस्पेंस के पीछे का सच

भाजपा के खिलाफ  बनाने की खातिर विपक्षी दलों ने 10 दिसंबर को महाबैठक करने का ऐलान किया है. यह बैठक दोपहर 3.30 बजे से पार्लियामेंट एनेक्सी में होना तय है. बैठक को लेकर समाजवादी पार्टी ने अपनी सहमति दे दी है… तो वहीं इस बैठक में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी, राजद के तेजस्वी यादव, तेलगु देशम पार्टी के अध्यक्ष और बैठक के मुख्य संयोजक चंद्रबाबू नायडू, एनसीपी के शरद पवार, जेडीएस के एच.डी. कुमारास्वामी सहित नेशनल कांफ्रेंस के फारुक अबदुल्ला के पहुंचने की पूरी संभवना है. उम्मीद यह भी जताई जा रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इस बैठक में हिस्सा लेने आ सकते हैं. लेकिन इन सबके बीच सबकी नजरें बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती पर टिकी है, जिन्होंने इस बैठक को लेकर अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं. न तो बसपा ने इस बैठक में शामिल होने से इंकार किया है, और न ही शामिल होने को लेकर ही कोई बयान दिया है.

हालांकि विपक्षी दल इसकी तैयारी में भी हैं कि बसपा की ओर से किसी के शामिल नहीं होने पर यह बैठक प्रभावित न हो. लेकिन असल में ऐसा है नहीं. साफ है कि मायावती या फिर बसपा के किसी प्रतिनिधि का इस बैठक में जाना जहां इस विपक्षी गठबंधन को मजबूती देगा तो वहीं बसपा की अनुपस्थिति से विपक्षी गठबंधन को झटका तो लगेगा ही. ऐसे में सवाल यह है कि आखिर बसपा मुखिया मायावती इस बैठक को लेकर अपनी चुप्पी क्यों साधे हुए हैं?

दरअसल इसकी सबसे बड़ी वजह गठबंधन को लेकर मायावती की वो सोच है, जिसको वह पहले भी जाहिर कर चुकी हैं. मायावती का कहना रहा है कि पहले सीटों का बंटवारा हो जाए फिर गठबंधन के साथ मंच साझा किया जाए. लेकिन अभी उत्तर प्रदेश में सीटों का फाइनल बंटवारा नहीं हुआ है, जिसकी वजह से वो विपक्षी बैठक को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हैं और फिलहाल चुप हैं. वहीं विपक्ष के लिए मायावती इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि देश के हर राज्य में कम या ज्यादा उनके वोटर मौजूद हैं.

ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि अगर 10 दिसंबर की बैठक में बसपा शामिल नहीं होती हैं तो क्या बिना बसपा के विपक्षी गठबंधन को धार मिल पाएगी.

Read it also-आज के दौर में अम्बेडकरवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं किंतु…..

रिटायर होते ही मुख्य चुनाव आयुक्त ने खोली चुनावों की पोल

1

नई दिल्ली। एक दिसंबर को नौकरी और पद से रिटायर होने के बाद पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने बड़ा धमाका किया है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने माना है कि नोटबंदी को कोई असर चुनाव के दौरान देखने को नहीं मिला है. रावत ने कहा कि नोटबंदी के बाद अनुमान लगाया जा रहा था कि चुनावों में कालेधन का इस्‍तेमाल बंद हो जाएगा लेकिन ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है. उन्‍होंने कहा कि पांच विधानसभा में हो रहे चुनावों को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनीतिक पार्टियों और उनके फाइनेंसरों के पास पैसे की कोई कमी नहीं है. चुनाव में जिस तरह से पैसे का इस्‍तेमाल हो रहा है वह काला धन ही है.

मुख्य चुनाव आयुक्त पद पर आसीन रहे ओपी रावत 1 दिसंबर 2018 को रिटायर हो गए और उनकी जगह सुनील अरोड़ा को नया मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया है. ओपी रावत का मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर कार्यकाल एक साल रहा और इस दौरान उन्होंने त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और मिजोरम में चुनाव कराए. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा कि हमने हाल ही में 5 राज्यों के चुनावों के दौरान भी 200 करोड़ रुपए की रिकॉर्ड रकम सीज की है. इसका मतलब ये है कि चुनावों के दौरान जिस सोर्स से पैसा चुनावों में आ रहा है, वह बेहद प्रभावी है और नोटबंदी का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा है. स्रोतः न्यूज18

Read it also-मोहम्मद अज़ीज को रवीश कुमार की श्रद्धांजलि

राहुल गांधी को पप्पू कहना भाजपा सांसद को पड़ा भारी, मांफी मांग भागना पड़ा

बांसवाड़ा। बीजेपी के एक सांसद को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पप्पू कहना उस समय भारी पड़ गया, जब वो राजस्थान में बीजेपी प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे थे. बीजेपी सांसद ने राहुल गांधी को पप्पू कहा, तो वहां मौजूद कांग्रेसी पार्षद भड़क गईं. इसके बाद कांग्रेसी पार्षद के साथ स्थानीय लोगों ने बीजेपी सांसद को घेर लिया. माहौल को देखते हुए बीजेपी सांसद को माफी मांगकर किसी तरह वहां से भागना पड़ा.

दरअसल, गुजरात के सुरेंद्रनगर से बीजेपी सांसद देवजी भाई राजस्थान के बांसवाड़ा के भागाकोट इलाके में अपनी पार्टी के प्रत्याशी के चुनाव प्रचार के लिए आए थे. जब वो बांसवाड़ा सीट से बीजेपी प्रत्याशी हकरू मईड़ा के पक्ष में चुनाव प्रचार करने वार्ड नंबर 36 पहुंचे और वहीं पर एक मीटिंग करने लगे, तभी वार्ड की पार्षद सीता डामोर वहां आ धमकी. डामोर कहने लगीं कि यहां पर पांच साल से बीजेपी का शासन है. सड़क पर हर जगह गड्ढे हैं. कम से कम यहां की सड़कों के गड्ढे तो भरवा दो.

इसके बाद बीजेपी सांसद देवजी भाई ने पूछा कि आखिर यह महिला कौन है, तो उनके बगल में बैठे लोगों ने कहा कि ये भी कांग्रेसी पार्षद हैं. इस पर सांसद महोदय ने तपाक से कह दिया कि आप अपने पप्पू को बुला लो, वही गड्ढा भर देगा. इतना कहते ही कांग्रेसी पार्षद सीता डामोर बीजेपी सांसद देवजी भाई पर टूट पड़ीं. डामोर ने सांसद से कहा कि आखिर तुमने पप्पू कैसे कह दिया.

यह मामला इतना गरमा गया कि वहां पर मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए और बीजेपी सांसद को घेर लिया. फिर बीजेपी सांसद को सबके सामने माफी मांगनी पड़ी और किसी तरह वहां से भागना पड़ा. इसके बाद भी लोग शांत नहीं हुए और बीजेपी दफ्तर आ धमके. विरोध कर रहे लोगों के गुस्से को शांत करने के लिए बीजेपी के नेताओं ने सांसद देवजी भाई को बांसवाड़ा से गुजरात के लिए वापस रवाना कर दिया.

स्रोत- आज तक

Read it also-आदि महोत्सव में आदिवासी कलाकारों ने देश-दुनिया को लुभाया

आज के दौर में अम्बेडकरवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं किंतु…..

पूरे विश्व में ‘बुध्द’’ ही ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने कहा था कि मेरी पूजा मत करना, ना ही मुझसे कोई उम्मीद लगा के रखना कि मैं कोई चमत्कार करूंगा…….. दु:ख तुमने पैदा किया है और उसको दूर भी तुम्हें ही करना पड़ेगा. मै सिर्फ मार्ग बता सकता हूँ क्योंकि मै जिस मार्ग पर चला हूँ उस रास्ते पर तुम्हे स्वयं ही चलना पडेगा. मैं कोई मुक्तिदाता नही, मैं केवल और केवल मार्गदाता हूँ.

मुझे लगता है कि बुद्ध का यही एक ऐसा विचार रहा होगा जिसने बाबा साहेब को बुद्ध धम्म के अलावा कोई अन्य धम्म अपनी ओर नहीं खींच पाया क्योंकि बाबा साहेब ने भी अपने अंतिम दिनों में ऐसा ही कुछ कहा था कि कोई भी मुझे पूजने की वस्तु न बनाए, अन्यथा इसमें उसका ही अहित होगा. बताते चलें कि 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था. इसका खास कारण था कि वे तथाकथित देवताओं के जंजाल को तोड़कर एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे जो धार्मिक तो हो किंतु ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने.

उन्होंने ये भी कहा था कि कोई भी किसी बात को महज इसलिए न माने कि वो किसी किताब में लिखी है या फिर किसी अमुक व्यक्ति के द्वारा कही गई है. इसलिए भी नहीं कि वो मैंने कही है… उस बात की सत्यता या तर्क को अपने स्तर पर भी परख लेने की जरूरत है. बाबा साहेब आंबेडकर ने यह बात 1950 में ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में कहा था कि यदि नई दुनिया पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से धर्म की अधिक जरूरत है. उनकी यह तमाम कोशिशें शोषण के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दासत्व के प्रकट-अप्रकट कारणों को समाप्त करने की दिशा में एक ठोस प्रयास था.

अक्सर यह भी पढ़ने को मिलता है कि बाबा साहेब अंबेडकर के द्वारा बौद्ध धम्म को एक उचित धम्म मानने के पीछे बुद्ध की विचारधारा में छिपी नैतिकता तथा विवेकशीलता थी. बाबा साहेब अपने एक प्रसिद्द लेख ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’ में लिखते हैं कि भिक्षु संघ का संविधान एक लोकतांत्रिक संविधान था. स्वयं बुद्ध केवल भिक्षुकों में से एक भिक्षु ही थे. वह तानाशाह कभी नहीं रहे. कहा जाता है कि उनकी मृत्यु से पहले उनसे दो बार कहा गया कि वह संघ पर अपना नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें. लेकिन हर बार उन्होंने तानाशाह बनने और संघ का प्रमुख नियुक्त करने से इंकार कर दिया. कहा भिक्षु संघ ही प्रमुख है.

आज जिस विषय पर मै विचारने का प्रयास कर रहा हूँ, वह सीधे तौर पर हमारे रहन-सहन, हमारी संस्कृति और आज के गतिशील जीवन के मूल्यों से सम्बंधित विषय है. कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को आत्मसात न कर पाने के कारण आज भी हम अनेक परम्परागत विचारों और शैलियों से उभर नहीं पाए हैं. रुढिवादिता आज भी हमारे जहन में डर बनाए हुए है. इसका कारण मुझे तो केवल और केवल यह लगता है कि हम बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुयाई होने का दावा तो करते हैं किंतु उनके आदर्शो को हम स्वीकार करने में अभी लगभग दूर ही हैं. यह बात अलग है कि तथाकाथित अम्बेडकरवादियों की एक लम्बी कतार मंचों से बड़ी-बड़ी बात करती है लेकिन आचार-व्यवहार में जहाँ की तहाँ है. यह जानते हुए भी कि कि परम्पराएं हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि विकास के लिए न केवल बाधक हैं अपितु कष्टकारी भी हैं, हम इन को छोड़ कर हम अपने जीवन मूल्यों को बचा सकने का प्रयास क्यों नहीं करते? यही आज का मूल प्रश्न है. कमाल की बात तो ये है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को हिन्दूवादी शक्तियां अपनी ओर ठीक वैसे ही उन्होंने मुसलमान सांई बाबा को अपनी ओर खींचकर कमाऊ देवता की भूमिका में अंगीकार कर लिया. अब वो शक्तियां बाबा साहेब को अपने पाले में खींचकर राजसत्ता के शिखर को चूमने के प्रयास में जुटी हैं. और हम नाहक ही उछ्ल-कूद रहे हैं बुद्ध और बाबा साहेब के नाम पर.

ऊपरी तौर पर आज हम नित्यप्रति होने वाले अनेक आयोजन बुद्ध रीति अथवा बाबा साहेब अम्बेडकर विचारों के अनुरूप और उनको साक्षी मानकर सम्पन्न करते हैं किंतु कार्यविधि में कोई अन्तर देखने को नहीं मिलता. हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों की छाया ही हर कार्यक्रम में देखने को मिलती है. तथागत बुद्ध और बाबा साहेब की पूजा ठीक उसी प्रकार की जाती है जैसे हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की जाती है. यह गर्व की बात मानी जा सकती है कि आज शहरों के मुकाबले गावों में बुद्ध और बाबा साहेब की मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं किंतु ये नवनिर्मित बुद्ध विहार अथवा अम्बेडकर भवन पूजा-पाठ के हिसाब से परम्परागत हिन्दू मन्दिरों का रूप ही लेते जा रहे हैं…. यह दुख की बात ही नहीं अपितु समाजिक विकास के लिए अति घातक है. ऐसे कर्मकाण्डों से बचने के लिए हमें पहले अपनी औरतों को वैचारिक और मानसिक रूप से शिक्षित करके उनके मन से तथाकथित भगवान के डर से मुक्त करने की जरूरत है. आज हमें बुद्ध जैसे भिक्षु की ही जरूरत है न कि बुद्ध और अम्बेडकर के नाम पर माला जपने वाले झुंडों की.

बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के दौर में अम्बेडवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं… खासकर राजनीति के क्षेत्र में. अम्बेडकर की विरासत को आगे ले जाने के नाम पहले सामाजिक और धार्मिक मंच बनते हैं और फिर धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल से ये सामाजिक व धार्मिक मंच राजनीतिक दलों में तबदील हो जाते हैं. ….जाहिर है कि ऐसे लोग न तो समाज के तरफदार होते हैं और बाबा साहेब के. ये तो बस बाबा साहेब का लाकेट पहनकर अपने-अपने हितों को साथने के लिए वर्चस्वशाली राजनीतिक दलों के हितों साधने का साधन बनकर कुछ चन्द चुपड़ी रोटियां पाने का काम ही करते हैं. मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ, इस सच्चाई का सबको पता है किंतु इनमें से अधिकतर लोग वो हैं जो अम्बेडकर विरोधी दलों की गुलामी कर रहे दलितों नेताओं के चमचों में शामिल हैं. गए वर्षों में भाजपा नीत सरकार के दौर में दलितों के खिलाफ न जाने कितने ही निर्णय हुए… वो अलग बात है कि बाद में सरकार ने दलितों की नाक काटकर अपने ही रुमाल से पौंछने का काम किया. एक जानेमाने तथाकथित दलित नेता ने तो अपने बेटे को ही मैदान में उतारकर 02.04.2018 के दलित/ अल्पसंख्यक/ पिछड़ा वर्ग के द्वारा आयोजित सामुहिक बन्द में उतार कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का काम किया. भाजपा में शामिल दलित नेता ही नहीं, कांग्रेस में शामिल दलित नेता भी ऐसी दलित विरोधी गतिविधियों पर सवाल करने से हमेशा कतराते रहे हैं. और तो और ये दलित नेता अपने आकाओं के क्रियाकलाप की समीक्षा न करके दलित राजनीति के सच्चे पैरोकारों के पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं. बाबा साहेब का ये कहना कि मुझे गैरों से ज्यादा अपने वर्ग के ही पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, ऐसे में यह सही ही लगता है.

Read it also-समाजवादी पार्टी और मुस्लिम हित: मिथ या हक़ीक़त

हिन्दुस्तान का गोत्र कॉपर है, जाति मर्करी और धर्म सल्फेट….

पुष्कर में खुलासा होता है कि राहुल गान्धी का गोत्र दत्तात्रेय है. हमारे पीएम प्रत्याशी मोदी चुनाव प्रचार के दौरान पूर्वांचल पहुंच कर अपनी जाति का ऐलान करते है. हम राहुल के गोत्र पर सवाल खडा करते है. ये गोत्र और जाति ही हिन्दुस्तान का, हिन्दुस्तान के लोगों का मुस्तकबिल तय कर रह है. तो जान लीजिए फिर कि असलियत क्या है?

असलियत ये है कि हिन्दुस्तान का गोत्र कॉपर है, जाति मर्करी और धर्म सल्फेट. ये सच आपको न मोदी बताएंगे, न राहुल. ये बताने की औकात इन दोनों में क्या, किसी नेता में नहीं है, किसी राजनीति में नहीं है. ये सच आपको ही बताना होगा. ये सच आपको ही समझाना होगा, समाज को, राजनीति को.

एनजीटी ने पश्चिम यूपी के 6 जिलों (हिंडन नदी समेत आसपास के जिले) के ग्राउंड वाटर सैपल का परीक्षण किया. परीक्षण रिपोर्ट बताती है कि पानी का हाल ऐसा है, जिसे पीना तो दूर, उसमें घंटों तक पैर भी रखे रहे तो उंगलियां काटने की नौबत आ जाएगी.

खबर बीबीसी में छपी है. आपको बीबीसी का नाम सुन कर देशद्रोही मीडिया का ख्याल आ सकता है, तो जान लीजिए कि मूल रिपोर्ट एनजीटी की है. स्वीकार कर लीजिए सच को. इस बात से कोई फर्क नहीं पडेगा कि रिपोर्ट छपी कहां है?

क्या कहती है ये रिपोर्ट? 6 जिलों के 168 जगहों से लिए गए 500 से अधिक पानी के सैंपल में औसत से 200 गुना अधिक कैडमियम, कॉपर, शीशा, मर्करी, सल्फेट, आयरन आदि पाए गए है. यानी इसमें इतना हैवी मेटल है, जिसे पी कर आम इंसान भी बीमार हो जाए. और ऐस हो भी रहा है. गांव के गांव बीमार हो रहे है.

तो ये मुद्दा राजनीति का नहीं है क्या? राहुल गांधी के दत्तात्रेय गोत्र जानने से अधिक जरूरी ये जानना नहीं है कि हमरे पानी में मर्करी या आर्सेनिक कितना है? मोदी जी चाय बेचते थे ये जानना जरूरी है या फिर ये जानना जरूरी है कि पानी बेचने वाले आखिर कहां से साफ पनी ला कर बेच रहे है और कौन हमारे पानी को बीमार बना रह है?

याद रखिए, न मोदी जी में इतनी ताकत है कि वे पानी के सौदागरों के खिलाफ बोल सके न राहुल गांधी में वो नैतिक बल है कि पानी को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ हल्ला बोल सके.

तो आप क्या करेंगे? हम क्या करेंगे? राजनीति का रोना रोएंगे? बोलेंगे कि राजनीति यही है. राजनीति ऐसे ही होती है. नहीं जनाब. राजनीति ऐसे नहीं होती है. ऐसे तो सिर्फ हमारे-आपके खिलाफ, जनता के खिलाफ साजिशें रची जाती है. जो हो रही है.

जिस दिन हम राहुल के गोत्र और मोदी के चाय बेचने की महागाथा जानने की जगह हिन्दुस्तान का गोत्र समझ लेंगे, उसी दिन राजनीति भी बदल जाएगी. राजनीति का एजेंडा भी बदल जाएगा….

याद रखिए, हिन्दुस्तान का गोत्र कॉपर है, जाति मर्करी और धर्म सल्फेट…. — शशि शेखर के फेसबुक वॉल से

Read it also-दो धड़ों में बंटी भीम आर्मी

मोहम्मद अज़ीज को रवीश कुमार की श्रद्धांजलि

गानों की दुनिया का अज़ीम सितारा था,मोहम्मद अज़ीज़ प्यारा था. काम की व्यस्तता के बीच हमारे अज़ीज़ मोहम्मद अज़ीज़ दुनिया को विदा कर गए. मोहम्मद रफ़ी के क़रीब इनकी आवाज़ पहचानी गई लेकिन अज़ीज़ का अपना मक़ाम रहा. अज़ीज़ अपने वर्तमान में रफ़ी साहब के अतीत को जीते रहे या जीते हुए देखे गए. यह अज़ीज़ के साथ नाइंसाफ़ी हुई. मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ बंद गले की थी मगर बंद गली से निकलते हुए जब चौराहे पर पहुँचती थी तब सुनने वाला भी खुल जाता है. एक बंद गिरह के खुल जाने की आवाज़ थी मोहम्मद अज़ीज़ की. यहीं पर मोहम्मद अज़ीज़ महफ़िलों से निकल कर मोहल्लों के गायक हो जाते थे. अज़ीज़ अज़ीमतर हो जाते थे.

एक उदास और ख़ाली दौर में अज़ीज़ की आवाज़ सावन की तरह थी. सुनने वालों ने उनकी आवाज़ को गले तो लगाया मगर अज़ीज़ को उसका श्रेय नहीं दिया. अपनी लोकप्रियता के शिखर पर भी वो गायक बड़ा गायक नहीं माना गया जबकि उनके गाने की शास्त्रीयता कमाल की थी. अज़ीज़ गा नहीं सकने वालों के गायक थे. उनकी नक़ल करने वाले आपको कहीं भी मिल जाएँगे. उनकी आवाज़ दूर से आती लगती है. जैसे बहुत दूर से चली आ रही कोई आवाज़ क़रीब आती जा रही हो. कई बार वे क़रीब से दूर ले जाते थे.

फिल्म ‘सिंदूर’ के गाने में लता गा रही हैं. पतझड़ सावन बसंत बहार. पाँचवा मौसम प्यार का, इंतज़ार का. कोयल कूके बुलबुल गाए हर इक मौसम आए जाए. गाना एकतरफ़ा चला जा रहा है. तभी अज़ीज़ साहब इस पंक्ति के साथ गाने में प्रवेश करते हैं. ‘ लेकिन प्यार का मौसम आए. सारे जीवन में एक बार एक बार.’ अज़ीज़ के आते ही गाना दमदार हो जाता है. जोश आ जाता है. गाने में सावन आ जाता है.

चौंसठ साल की ज़िंदगी में बीस हज़ार गाने गा कर गए हैं. उनके कई गानों पर फ़िदा रहा हूँ. ‘मरते दम तक’ का गाना भी पसंद आता है. छोड़ेंगे न हम न तेरा साथ, ओ साथी मरते दम तक. सुभाष घई की फ़िल्म ‘राम लखन’ का गाना ‘माई नेम इज़ लखन’ उस दौर को दमदार बनाया गया था. इस गाने ने अनिल कपूर को घर-घर का दुलारा बना दिया. मोहम्मद अज़ीज़ अनिल कपूर में ढल गए थे. यह उनके श्रेष्ठतम गानों में से एक था.

मोहम्मद अज़ीज़ को काग़ज़ पर सामान्य गीत ही मिले लेकिन उन्होंने अपने सुरों से उसे ख़ास बना दिया. और जब ख़ास गीत मिले उसे आसमान पर पहुँचा दिया. महेश भट्ट की फिल्म ‘नाम’ का गाना याद आ रहा है. ये आँसू ये जज़्बात, तुम बेचते हो ग़रीबों के हालात बेचते हो अमीरों की शाम ग़रीबों के नाम. मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ ही उस वक़्त के भारत के कुलीन तबक़े को चुनौती दे सकती थी. बहुत ख़ूब दी भी . उनकी आवाज़ की वतनपरस्ती अतुलनीय है. आप कोई भी चुनावी रैली बता दीजिए जिसमें ‘कर्मा’ फ़िल्म का गाना न बजता हो. रैलियों का समां ही बँधता है मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ से.’ हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई हमवतन हमनाम हैं, जो करें इनको जुदा मज़हब नहीं, इल्ज़ाम है. हम जिएंगे और मरेंगे, ऐ वतन तेरे लिए दिल दिया है, जाँ भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए .’

हमने हिन्दी प्रदेशों की सड़कों पर रात-बिरात यहाँ वहाँ से निकलते हुए अपनी कार में मोहम्मद अज़ीज़ को ख़ूब सुना है. उनके गानों से हल्का होते हुए गाँवों को देखा है, क़स्बों को देखा है. तेज़ी से गुज़रते ट्रक से जब भी अज़ीज़ की आवाज़ आई, रगों में सनसनी फैल गई. अज़ीज़ के गाने ट्रक वालों के हमसफ़र रहे. ढाबों में उनका गाना सुनते हुए एक कप चाय और पी ली. उनका गाया हुआ बिगाड़ कर गाने में भी मज़ा आता था. फिल्में फ्लाप हो जाती थीं मगर अज़ीज़ के गाने हिट हो जाते थे.

विनोद खन्ना अभिनीत ‘सूर्या’ का गाना सुनकर लगता है कि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो है. इस गाने को सुनते हुए अक्सर लगता रहा कि तमाम तकलीफ़ों को मिटाने ‘सूर्या’ आ रहा है. सूर्या के आते ही सब ठीक हो जाएगा. नाइंसाफ़ी से लड़ते रहना है. सुबह होगी. बाद की पढ़ाई ने समझा दिया कि मसीहा कभी नहीं आता. किसी एक के आने से सब ठीक नहीं होता है. यह सच है कि मैंने ‘सूर्या’ के इस गाने को असंख्य बार सुना है. सोचता रहता हूँ कि मुंबई के गीत लिखने वालों ने कितनी ख़ूबी से ऐसे गाने पब्लिक स्पेस में अमर कर दिए. इस गाने को आप किसी किसान रैली में बजा दीजिए, फिर असर देखिए.

जो हल चलाए, उसकी जमीं हो ये फ़ैसला हो,आज और यहीं हो अब तक हुआ है,पर अब न होगा मेहनत कहीं हो, दौलत कहीं हो ये हुक्म दुनिया के नाम लेकर आएगा सूर्या एक नई सुबह का पैग़ाम लेकर आएगा सूर्या आसमां का धरती को सलाम लेकर आएगा सूर्या

अज़ीज़ साहब हम आपके क़र्ज़दार हैं. आपके गानों ने मुझे नए ख़्वाब दिए हैं. लोग कहते थे कि आपकी आवाज़ लोकल है. शुक्रिया आपके कारण मैं लोकल बना रहा. मुझे इस देश के गाँव और क़स्बे आपकी आवाज़ के जैसे लगते हैं. दूर से क़रीब आते हुए और क़रीब से दूर जाते हुए. हिन्दी फ़िल्मों के गाने न होते तो मेरी रगों में ख़ून नहीं दौड़ता. आपने कई चाट गानों को सुनने लायक बनाया. कई गानो को नहीं सुने जा सकने लायक भी गाया. राम अवतार का एक गाना झेला नहीं जाता है. ‘फूल और अंगारे’ का गाना आज भी सुनकर हँसता हूँ और आपको सराहता हूँ.

तुम पियो तो गंगाजल है ये हम पीये तो है ये शराब पानी जैसा है हमारा ख़ून और तुम्हारा ख़ून है गुलाब सब ख़्याल है सब फ़रेब है अपनी सुबह न शाम है तुम अमीर हो ख़ुशनसीब हो मैं ग़रीब हूँ बदनसीब हूँ पी पी के अपने ज़ख़्म सीने दो मुझको पीना है पीने दो मुझको जीना है जीने दो

मोहम्मद अज़ीज़ मेरे गायक हैं. रफ़ी के वारिस हैं मगर रफ़ी की नक़ल नहीं हैं. हालांकि उनमें रफ़ी की ऊँचाई भी थी लेकिन वे उन अनाम लोगों की ख़ातिर नीचे भी आते थे जिनकी कोई आवाज़ नहीं थी. अज़ीज़ के कई गानों में अमीरी और ग़रीबी का अंतर दिखेगा. हम समझते हैं कि गायक को गाने संयोग से ही मिलते हैं फिर भी अज़ीज़ उनके गायक बन गए जिन्हें कहना नहीं आया. जो आवाज़ के ग़रीब थे. जिन्हें लोगों ने नहीं सुना. उन्हें अज़ीज़ का इंतज़ार था और अज़ीज़ मिला. आपने हिन्दी फ़िल्मों के गानों का विस्तार किया है. नए श्रोता बनाए. आप चले गए. मगर आप जा नहीं सकेंगे. लोग मर्द टांगे वाला गाते रहेंगे, इसलिए कि इस गाने को कोई कैसे गा सकता है. ‘आख़िर क्यों’ का गाना कैसे भूल सकता हूँ. यह गाना आपको रफी बनाता है.

एक अंधेरा लाख सितारे एक निराशा लाख सहारे सबसे बड़ी सौग़ात है जीवन नादां है जो जीवन से हारे बीते हुए कल की ख़ातिर तू आने वाला कल मत खोना जाने कौन कहाँ से आकर राहें तेरी फिर से सँवारे

अज़ीज़ की बनाई रविशों पर चलते हुए हम तब भी गुनगुनाया करेंगे जब आप मेरे सफ़र में नहीं होंगे. जब भी हम अस्सी और नब्बे के दशक को याद करेंगे, अज़ीज़ साहब आपको गुनगुनाएँगे. आपका ही तो गाना है. ‘देश बदलते हैं वेष बदलते नहीं दिल बदलते नहीं दिल, हम बंज़ारे.’ हम बंज़ारों के अज़ीज़ को आख़िरी सलाम.

रवीश कुमार देश के जाने-माने टीवी पत्रकार हैं.

Read it also-“व्हाट इज इन ए नेम”, अर्थात नाम में क्या रखा है

1857 क्रांति के सूत्रधार थे मातादीन वाल्मीकि

5

1857 की क्रांति को घोषित तौर पर पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध माना जाता है. भारतीय इतिहासकारों द्वारा इस पूरी क्रांति का श्रेय मंगल पांडे को दे दिया जाता है, लेकिन असल में इस क्रांति के सूत्रधार मातादीन भंगी थे. माना जाता है कि मातादीन भंगी मूलतः मेरठ के रहने वाले थे. लेकिन रोजी-रोटी के लिए इनके पूर्वजों ने यूपी के कई शहरों की खाक छानी और एक समय बंगाल में जाकर बस गए. उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के कारण वे पढ़-लिख नहीं पाए थे, क्योंकि हिन्दू धर्म व्यवस्था एक भंगी को पढ़ने का अधिकार नहीं देती थी. हालांकि मातादीन के पुरखे शुरू से ही अंग्रेजों के संपर्क में आने से सरकारी नौकरी में रहे थे. अतः शीघ्र ही मातीदीन को भी बैरकपुर फैक्ट्री में खलासी की नौकरी मिल गई. यहां अंग्रेज सेना के सिपाहियों के लिए कारतूस बनाए जाते थे. अंग्रेजी फौज के निकट रहने के कारण मातादीन के जीवन पर उसका खासा असर पड़ा था. अनुशासन, संयम, स्वाभिमान, स्पष्टवादिता आदि गुण उन्होंने सैनिकों की संगत से ही पाए थे.

मातादीन को पहलवानी का भी शौक था. वह इस मल्लयुद्ध कला में दक्षता हासिल करना चाहते थे, लेकिन अछूत होने के कारण किसी भी हिन्दू उस्ताद ने उन्हें अपना शागिर्द नहीं बनाया. वह हर हिन्दू उस्ताद के अखाड़े में मल्लयुद्ध की कला सीखने के लिए जाते लेकिन वहां से उन्हें निराश लौटना पड़ता था. वहां उनसे वही सलूक किया जाता जो एक वक्त में द्रोणाचार्य के आश्रम में आदिवासी वीर तीरंदाज एकलव्य के साथ हुआ था. लेकिन कहते हैं कि जहां चाह होती है वहां राह भी निकल ही आती है. आखिरकार मातादीन की मल्लयुद्ध सीखने की इच्छा पूरी हुई और एक मुसलमान खलीफा इस्लाउद्दीन जो पल्टन नंबर 70 में बैंड बजाते थे, मातादीन को मल्लयुद्ध सिखाने के लिए राजी हो गए. अपनी लगन की बदौलत मातादीन ने उस्ताद इस्लाउद्दीन से मल्लयुद्ध के सभी गुर सीख लिए थे. अब वह एक कुशल मल्लयुद्ध योद्धा बन चुके थे. इस कला की वजह से ही अब लोग उन्हें पहचानने लगे थे.

इसी मल्लयुद्ध कला की बदौलत ही मातादीन की दोस्ती मंगल पाण्डे से हुई थी. मंगल पाण्डे स्वयं भी मल्लयुद्ध के शौकीन थे. एक कुश्ती प्रतियोगिता में मंगल पाण्डे मातादीन का सुदृढ़ शरीर और कुश्ती का बेहतरीन प्रदर्शन देख कर गदगद हो गए. इस्लाउद्दीन के अखाड़े और मातादीन के नाम की वजह से मंगल पाण्डे ने उसकी छवि एक मुस्लिम पहलवान की बना ली थी. मातादीन को यह भनक लग चुकी थी कि मंगल पांडे उन्हें मुसलमान समझ रहा है, सो सीधी बात कहने के आदि मातादीन ने मंगल पाण्डे को अपनी जाति भी बता दी. इसके बाद मातादीन के प्रति मंगल पांडे का व्यवहार बदल गया था.

एक दिन गर्मी से तर-बतर, थके-मांदे, प्यासे मातादीन ने मंगल पाण्डे से पानी का लोटा मांगा. मंगल पाण्डे ने इसे एक अछूत का दुस्साहस समझते हुए कहा, ‘अरे भंगी, मेरा लोटा छूकर अपवित्र करेगा क्या?’ प्रतिउत्तर में मातादीन ने मंगल पांडे को ललकार दिया और कहा कि पंडत, तुम्हारी पंडिताई उस समय कहा चली जाती है जब तुम और तुम्हारे जैसे चुटियाधारी गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से काटकर बंदूकों में भरते हो.’ मातादीन की ये बातें मंगल पाण्डे तक ही सीमित नहीं रही बल्कि एक बटालियन से दूसरी बटालियन, एक छावनी से दूसरी छावनी तक फैलती चली गई. इन्हीं शब्दों ने सेना में विद्रोह की स्थिति बना दी. 1 मार्च, 1857 को मंगल पाण्डे परेड मैदान में लाईन से निकल बाहर आया और एक अधिकारी को गाली मार दी. इसके बाद विद्रोह बढ़ता चला गया. मंगल पाण्डे को फांसी पर लटका दिया गया. जो गिरफ्तार हुए उनमें मातादीन प्रमुख थे. मातादीन को भी अंग्रेज ऑफिसर ने फांसी पर लटका दिया.

Read it also-बड़े मकसद के लिए छोटी कुर्बानी, मायावती की यही है चुनावी रणनीति की कहानी

अयोध्या एक तहज़ीब के मर जाने की कहानी है

कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले कूदे बड़े हुए, बनवास भेजे गए, लौट कर आए तो वहां राज भी किया, उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया, जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है, जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं. जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसीयों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा.

अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है. उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! कैसे अताताई थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे. शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी. दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी. निर्मोही अखाड़े के लिए नवाब सिराजुदौला के जमीन देने की बात भी सच नहीं ही होगी, सच तो बस बाबर है और उसकी बनवाई बाबरी मस्जिद! अब तो तुलसी भी गलत लगने लगे हैं जो 1528 के आसपास ही जन्मे थे. लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे मांग के खाइबो मसीत में सोइबो. और फिर उन्होंने रामायण लिखा डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने क्या तुलसी को जरा भी अफसोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं!

अयोध्या में सच और झूठ अपने मायने खो चुके हैं. मुसलमान पांच पीढ़ी से वहां फूलों की खेती कर रहे हैं. उनके फूल सब मंदिरों पर उनमें बसे देवताओं पर.. राम पर चढ़ते रहे. मुसलमान वहां खड़ाऊं बनाने के पेशे में जाने कब से हैं. ऋषि मुनि, संन्यासी, राम भक्त सब मुसलमानों की बनाई खड़ाऊं पहनते रहे. सुंदर भवन मंदिर का सारा प्रबंध चार दशक तक एक मुसलमान के हाथों में रहा. 1949 में इसकी कमान संभालने वाले मुन्नू मियां 23 दिसंबर 1992 तक इसके मैनेजर रहे. जब कभी लोग कम होते और आरती के वक्त मुन्नू मियां खुद खड़ताल बजाने खड़े हो जाते तब क्या वह सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और झूठ क्या?

अग्रवालों के बनवाए एक मंदिर की हर ईंट पर 786 लिखा है. उसके लिए सारी ईंटें राजा हुसैन अली खां ने दीं. किसे सच मानें? क्या मंदिर बनवाने वाले वे अग्रवाल सनकी थे या दीवाना था वह हुसैन अली खां जो मंदिर के लिए ईंटें दे रहा था? इस मंदिर में दुआ के लिए उठने वाले हाथ हिंदू या मुसलमान किसके हों, पहचाना ही नहीं जाता. सब आते हैं. एक नंबर 786 ने इस मंदिर को सबका बना दिया. क्या बस छह दिसंबर 1992 ही सच है! जाने कौन.

छह दिसंबर 1992 के बाद सरकार ने अयोध्या के ज्यादातर मंदिरों को अधिग्रहण में ले लिया. वहां ताले पड़ गए. आरती बंद हो गई. लोगों का आना जाना बंद हो गया. बंद दरवाजों के पीछे बैठे देवी देवता क्या कोसते होंगे कभी उन्हें जो एक गुंबद पर चढ़कर राम को छू लेने की कोशिश कर रहे थे? सूने पड़े हनुमान मंदिर या सीता रसोई में उस खून की गंध नहीं आती होगी जो राम के नाम पर अयोध्या और भारत में बहाया गया?

अयोध्या एक शहर के मसले में बदल जाने की कहानी है. अयोध्या एक तहजीब के मर जाने की कहानी

– सोशल मीडिया पर घूम रहा यह लेख साभार

Read it also-बुद्ध की मूर्तियों की दर्दनाक दास्तान!

महात्मा ज्योतिबा फुले स्मृति दिवस: ज्योतिबा और डॉ. अंबेडकर में एक समानता है

ज्योतिबा फुले और आम्बेडकर का जीवन और कर्तृत्व बहुत ही बारीकी से समझे जाने योग्य है. आज जिस तरह की परिस्थितियाँ हैं उनमे ये आवश्यकता और अधिक मुखर और बहुरंगी बन पडी है. दलित आन्दोलन या दलित अस्मिता को स्थापित करने के विचार में भी एक “क्रोनोलाजिकल” प्रवृत्ति है, समय के क्रम में उसमे एक से दूसरे पायदान तक विक्सित होने का एक पैटर्न है और एक सोपान से दूसरे सोपान में प्रवेश करने के अपने कारण हैं. ये कारण सावधानी से समझे और समझाये जा सकते हैं.

अधिक विस्तार में न जाकर ज्योतिबा फुले और आम्बेडकर के उठाये कदमों को एकसाथ रखकर देखें. दोनों में एक जैसी त्वरा और स्पष्टता है. समय और परिस्थिति के अनुकूल दलित समाज के मनोविज्ञान को पढ़ने, गढ़ने और एक सामूहिक शुभ की दिशा में उसे प्रवृत्त करने की दोनों में मजबूत तैयारी दिखती है. और चूंकि कालक्रम में उनकी स्थितियां और उनसे अपेक्षाएं भिन्न है, इसलिए एक ही ध्येय की प्राप्ति के लिए गए उनके कदमों में समानता होते हुए भी कुछ विशिष्ट अंतर भी नजर आते हैं.

ज्योतिबा के समय में जब कि शिक्षा दलितों के लिए एक दुर्लभ आकाशकुसुम था, और शोषण के हथियार के रूप में निरक्षरता और अंधविश्वास जैसे “भोले-भाले” कारणों को ही मुख्य कारण माना जा सकता था– ऐसे वातावरण में शिक्षा और कुरीती निवारण –इन दो उपायों पर पूरी ऊर्जा लगा देना आसान था. न केवल आसान था बल्कि यही संभव भी था. और यही ज्योतिबा ने अपने जीवन में किया भी. क्रान्ति-दृष्टाओं की नैदानिक दूरदृष्टि और चिकित्सा कौशल की सफलता का निर्धारण भी समय और परिस्थितियाँ ही करती हैं.

इस विवशता से इतिहास का कोई क्रांतिकारी या महापुरुष कभी नहीं बच सका है. ज्योतिबा और उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी आम्बेडकर के कर्तृत्व में जो भेद हैं उन्हें भी इस विवशता के आलोक में देखना उपयोगी है. इसलिए नही कि एक बार बन चुके इतिहास में अतीत से भविष्य की ओर चुने गये मार्ग को हम इस भाँती पहचान सकेंगे, बल्कि इसलिए भी कि अभी के जाग्रत वर्तमान से भविष्य की ओर जाने वाले मार्ग के लिए पाथेय भी हमें इसी से मिलेगा.

ज्योतिबा के समय की “चुनौती” और आंबेडकर के समय के “अवसर” को तत्कालीन दलित समाज की उभर रही चेतना और समसामयिक जगत में उभर रहे अवसरों और चुनौतियों की युति से जोड़कर देखना होगा. जहां ज्योतिबा एक पगडंडी बनाते हैं उसी को आम्बेडकर एक राजमार्ग में बदलकर न केवल यात्रा की दशा बदलते हैं बल्कि गंतव्य की दिशा भी बदल देते हैं. नए लक्ष्य के परिभाषण के लिए आम्बेडकर न केवल मार्ग और लक्ष्य की पुनर्रचना करते हैं बल्कि अतीत में खो गए अन्य मार्गों और लक्ष्यों का भी पुनरुद्धार करते चलते हैं. फूले में जो शुरुआती लहर है वो आम्बेडकर में प्रौढ़ सुनामी बनकर सामने आती है, और एक नैतिक आग्रह और सुधार से आरम्भ हुआ सिलसिला, किसी खो गए सुनहरे अतीत को भविष्य में प्रक्षेपित करने लगता है.

आगे यही प्रक्षेपण अतीत में छीन लिए गए “अधिकार” को फिर से पाने की सामूहिक प्यास में बदल जाता है.

इस यात्रा में पहला हिस्सा जो शिक्षा, साक्षरता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जन्माने जैसे नितांत निजी गुणों के परिष्कार में ले जाता था, वहीं दूसरा हिस्सा अधिकार, समानता और आत्मसम्मान जैसे कहीं अधिक व्यापक, इतिहास सिद्ध और वैश्विक विचारों के समर्थन में कहीं अधिक निर्णायक जन-संगठन में ले जाता है. इतना ही नहीं बल्कि इसके साधन और परिणाम स्वरूप राजनीतिक उपायों की खोज, निर्माण और पालन भी आरम्भ हो जाता है.

यह नया विकास स्वतन्त्रता पश्चात की राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति में बहुतेरी नयी प्रवृत्तियों को जन्म देता है. जो समाज हजारों साल से निचली जातियों को अछूत समझता आया था उसकी राजनीतिक रणनीति में जाति का समीकरण सर्वाधिक पवित्र साध्य बन गया. ये ज्योतिबा और आम्बेडकर का किया हुआ चमत्कार है, जिसकी भारत जैसे रुढ़िवादी समाज ने कभी कल्पना भी न की थी. यहाँ न केवल एक रेखीय क्रम में अधिकारों की मांग बढ़ती जाती है बल्कि उन्हें अपने दम पर हासिल करने की क्षमता भी बढ़ती जाती है.

इसके साथ साथ इतिहास और धार्मिक ग्रंथों के अँधेरे और सडांध-भरे तलघरों में घुसकर शोषण और दमन की यांत्रिकी को बेनकाब करने का विज्ञान भी विकसित होता जाता है.ये बहुआयामी प्रवृत्तियाँ जहां एक साथ एक ही समय में इतनी दिशाओं से आक्रमण करती हैं कि शोषक और रुढ़िवादी वर्ग इससे हताश होकर “आत्मरक्षण” की आक्रामक मुद्रा में आ जाता है.एक विस्मृत और शोषित अतीत की राख से उभरकर भविष्य के लिए सम्मान और समानता का दावा करती हुयी ये दलित चेतना इस प्रष्ठभूमि में लगातार आगे बढ़ती जाती है। Sanjay Shraman Jothe

Read it also-परेशान कर्मचारी ने लगाई पीएम मोदी से गुहार

ऊना दलित पीड़ितों ने राष्ट्रपति को पत्र लिख मांगी इच्छा मृत्यु

0

ऊना मामले के एक दलित पीड़ित ने मंगलवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को खत लिखकर इच्छा मृत्यु की मांग की है. पीड़ित ने कहा कि गुजरात सरकार ने उनसे किया कोई भी वादा पूरा नहीं किया है. उन्होंने कहा कि उनमें से एक 7 दिसंबर से दिल्ली में आमरण उपवास करेगा.

अपने परिवार की ओर से लिखते हुए वशराम सरवइया (28) ने लिखा है कि उस वक्त मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल द्वारा किए किसी भी वादे को गुजरात सरकार ने पूरा नहीं किया है. “उन्होंने कहा था कि हर एक पीड़ित को 5 एकड़ भूमि दी जाएगी, पीड़ितों को उनकी योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी दी जाएगी और मोटा सामढियाला को एक विकसित गांव में बदल दिया जाएगा. घटना हुए दो साल और चार महीने हो गए लेकिन सरकार ने अपना कोई भी वादा पूरा नहीं किया और न ही वादे पूरा करने की कोई कोशिश की.”

वशराम, उनके छोटे भाई, पिता और मां उन्हीं 8 दलितों में शामिल थे जिन्हें गौ रक्षकों ने गिर सोमनाथ जिले के ऊना तालुका के मोटा सामढियाला गांव में 11 जुलाई, 2016 को पीटा था. हमलावरों ने इस परिवार पर गौ हत्या करने का आरोप लगाया था. लेकिन बाद में पुलिस की जांच में पता चला कि वह मरे हुए जानवरों के शवों से चमड़ा निकालने का काम करते हैं. उनके साथ मारपीट की वीडियो पूरे देश में वायरल हो गई थी. जिसके बाद राज्य में दलितों ने विरोध प्रदर्शन भी किया. वशराम का कहना है कि ये उनका पैतृक व्यवसाय है.

वशराम ने लिखा है, “हम पशुओं की खाल बेचने का काम करते थे और उसे छोड़ने के बाद आजीविका के लिए कुछ नहीं बचा. यह संभव है कि भविष्य में हम भूख से मर जाएं. हम अपने मामले को बोलकर और लिखकर कई बार पेश कर चुके हैं लेकिन गुजरात सरकार ने हमारी किसी भी परेशानी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया.” उनका कहना है कि उन्हें और बाकी पीड़ितों को बहुत दुख है कि सरकार ने दलितों के खिलाफ दर्ज 74 मामलों को वापस नहीं लिया. ये मामले घटना के बाद राज्य में हुए हिंसक प्रदर्शनों के दौरान दर्ज हुए थे. उन्होंने खत में लिखा है, “पुलिस ने आंदोलन के दौरान दलितों के खिलाफ कई झूठे मामले दायर किए थे.” 10वीं तक पढ़े लिखे वशराम का कहाना है कि वो और उनका परिवार अब अपना जीवन खत्म करना चाहते हैं. उन्हें सरकार की ओर से कोई सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई है. गवाहों को कोर्ट तक सुरक्षित पहुंचाने के लिए पुलिस ने कुछ नहीं किया और आरोपियों को भी बेल मिल गई.

उन्होंने खत में आगे लिखा है, “सरकार हमारी मांगों को पूरा करने में नाकाम रही है. हम बहुत दुखी हैं. हम अब आगे जीना नहीं चाहते इसलिए हम इच्छा मृत्यु की इजाजत मांग रहे हैं.”

Read it also-22 नवंबर को जन्मदिवस पर नमन, खूब लड़ी मर्दानी जो वो झलकारी बाई थी…