वर्तमान कृषि संकट का विकल्प

वर्तमान कृषि संकट का विकल्प तलाशने के लिए हमें भारत को समझना जरुरी है. भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ आज भी 65 से 70 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर है. यूँ कहें अर्थव्यवस्था का एक पूरा हिस्सा कृषि पर आधारित है. जबकि कृषि पर आधारित हर वो वस्तु का आज बाजार मूल्य नहीं है, जो जिस अर्थ व्यवस्था द्वारा संचालित होता है, वो अर्थ व्यवस्था उस समाज को प्रभावित करता है. भारत कोई अकेला देश नहीं है जो किसी एक व्यवस्था के अंदर रहते हुए वे अपनी सारी चीजों को संचालित कर पाने में या व्यस्थित-व्यवस्था दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं. चूँकि भारत दुनिया का ही हिस्सा है. दुनिया की आर्थिक स्थिति बहुत ही तेजी से बढ़ता जा रहा और हम उसके मुकावले अपनी आर्थिक स्थिति को गति नहीं दे पा रहे है. जबकि सभ्यता के विकास में कृषि व्यवस्था का बड़ा योगदान है. कृषि-पशुपालन ही हमारे आर्थिक व्यवस्था का केंद्र बिंदु है. आज भी विकास की गतिशीलता कृषि-पशुपालन को छोड़कर तय नहीं किया जा सकता है. ऐसा हो ही नहीं सकता है. यही कारण है की दुनिया के विकास के दौर में भारतीय अर्थ व्यवस्था भी अपना स्वरूप बदलता चला गया और जब हम कृषि पर बात करते हैं तो कहते हैं कि हम अपनी सभ्याता और संस्कृति को छोड़ देते है.

सभ्याता- संस्कृति आती कहाँ से है. यह निश्चित रूप सी ही, वर्गीय सोच है और वर्गीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत हर शासन व्यवस्था का विस्तार हुआ है तो सभ्यता संस्कृति उसका परिणाम लेकर आएगी. किस व्यवस्था में कौन सा अर्थनीति होगी और कौन सा कृषि नीति होगी. यदि कोई कहे की सामाजवादी व्यवस्था में क्या होगा तो समाजवादी व्यवस्था में किसी एक व्यक्ति के हाथ में कृषि नही रहेगा. वह पूरी व्यवस्था सरकार के हाथ में होगा. पूंजीवादी व्यवस्था में क्या होगा, वहाँ हर व्यक्ति के हाथ में व्यवस्था होगी, जो मन होगा लोग करेंगे. इस व्यवस्था के अंतर्गत किसी के पास हजारो एकड़ जमीन है, किसी के पास दस बीघा जमीन होगा तो किसी के पास कट्टा, दस कट्टा जमीन होगा तो कोई भूमिहीन होगा. वहां मुनाफ़ा पर आधारित सारी नीतियाँ होगी. जहाँ मुनाफे पर आधारित नीतिया होगी वहां मानवीयता जरुर सम्माप्त होगी. मानवीयता जिसकी चिंता हमलोग करते है, पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में हम कितनो चाह ले भाईचारा, बंधुत्व, परिवार को बचा ले संभव ही नहीं है, क्योंकि यहाँ हर चीज मुनाफे पर तय होता है. पारिवारिक संबंध भी होगा तो घाटे-नाफे पर होगा. कोई उद्योग भी होगा तो घाटे-नाफे पर होगा. कृषि भी होगा तो घाटे- नाफे पर होगा. ये कौन सा व्यवस्था है की किसान घाटे में जा रहा है. जबकि पहले प्रतेक किसान के पास अपने उत्पादन के फसलों में ही बीज रखने का चलन था. उस बीज को खाने के उपयोग में नहीं लाते थे, चाहे भूखे क्यों न रह जाय. बीज संयोज कर रखना हमारी परम्परा में था. अब जो उत्पादन हो रहा है, उस उत्पादन के आनाज को बीज के रूप में रखने का कोई फाइदा ही नहीं है. क्योंकि इस अनाज को बीज के रूप में उपयोग करना आज संभव ही नहीं है, ये बीज के रूप में उत्पादन के काम में नहीं लाया जा सकता है. उससे उत्पादन नहीं हो पाता है, ये जो बदलाव है. ये तमाम विदेशी कम्पनियों और पूँजीवादी व्यवस्था का देन है, जिसने भारतीय कृषि व्यवस्था को चौपट किया है. आज कृषि को उद्योग की दर्जा देना जरुरी हो गया है, तभी कृषि संकट से निपट पायेंगे.

जब हमारी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर आधारित है ऐसे में हमें कृषि के उत्पादन पर जो भी खर्च है वह सरकार के द्वारा उसकी छति-पूर्ति हो. सिचाई की व्यवस्था, नहर की व्यवस्था, टुबेल की व्यवस्था करनी होगी. जैसे सोवियत संघ में क्रांति हुई तो वहां के प्रथम “हेड ऑफ़ गवर्नमेंट” रहे ‘व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव’ ने कहा की सारे विकास की धुरी में बिजली है. बिजली ही शक्ति का एक मात्र साधन है जो हर क्षेत्र में विकास कर सकता है. और आज हम देख पा रहे हैं कि बिजली के बिना किसी भी तरह की विकास को कर पाना संभव नहीं है. 1917 में क्रांति होता है, और तेजी से सोवियत रूस दुनिया में विकास करता है उसका मुख्य कारण है, कृषि के क्षेत्र में तमाम साधनों को जोड़ना है. वह ध्वस्त हुआ भुखमरी के कारण नहीं, बेरोजगारी के कारण नहीं. बल्कि दुनिया के निगाह में वो समाजवादी देश जो ध्वस्त हुआ उसके पीछे पूंजीवादी देश का हाथ रहा है. दुनिया के कोई भी छोटा सा देश पूँजीवादी देश को चुनौती दे सकता है. अगर वो कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो.

आज हमारे देश में कृषि संकट गहरा रहा है. उसके पीछे का बड़ा कारण कुछ और नहीं बीज को पेटेंट कर देना महत्वपूर्ण कारण है. आज हम बीच के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है. नीम का पेटेंट, गेंहूँ के बीज का पेटेंट, मक्के का पेटेंट हुआ है (कृषि उत्पादित वस्तुओं का पेटेंट होना) जो कृषि को बर्बाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है. उत्पादन जितना चाहे कर लें, उसे बीज के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. नवगछिया, भागलपुर बिहार के किसान मक्के का विदेशी बीज को लाकर खेत में लगाया तो जरुर है, लेकिन उस भुट्टे में दाना नहीं है. ऐसे में कृषि संकट गहराएगा ही… भारतीय कृषि नीति देश की आर्थिक स्थिति को बर्बाद करने में बड़ी भूमिका निभायी है. जिस तरह नील की खेती भूमि को बंजर बनाने के लिए था ठीक उसी तरह की नीति आज देश के अंदर अपनाया जा रहा है. पेटेंट के माध्यम से जो बीज और रसायनिक खाद बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है. उससे खेती बंजर ही होगा. देश की आर्थिक व्यवस्था को सुधारने और बिगारने में सरकार जिम्मेवाद होती है.

कृषि संकट का विकल्प को देखे तो पहला है किसानों को संगठित होना होगा, संगठित होकर किसान विरोधी सरकारी नीतियों का विरोध करना, किसान की बात करने वाली पार्टियों को अपना मत देना होगा. दूसरा है सहकारी खेती, पशुपालन और मार्केंटिंग का विस्तार करते हुए तमाम तरह की व्यवस्था में सहकारी भाव पैदा करना (सहकारी समिति को बढ़ावा देना होगा). यह तो अपने देशा में हो रहा है, गुजरात में अमूल है, महाराष्ट्र में कॉपरेटिव, बिहार में सुधा है एवं अन्य दुग्ध उत्पादन समितियाँ है जिसने किसानों की जीवन स्तर को उठाया है.

गांधी ने कहा था ऊँची कल्पनाओं से और उचे आर्दशों से जीवन नहीं चलता है. जीवन चलता है अच्छे काम करने से… इसलिए अब जरूरत है, जीरो वजट नेचुरल फार्मिंग को अपनाने का तभी भारत में कृषि व्यवस्था को नये सिरे से सुधारा जा सकता है. जो पुराना कृषि व्यवस्था था उसे अपनाते हुए उसमें कुछ परिवर्तन लाते हुए परम्परा विकसित करने का. उसके तहत कृषि कार्य में लागत मूल्य जैसी बहुत कुछ नहीं था. मनुष्य का श्रम और पशु का श्रम से कृषि कार्य होता रहा है, इस आधार पर भारत में सभ्यता-संस्कृति, दर्शन और विकास का परिप्रेक्ष्य देखा जा सकता है. ये केवल कृषि का सवाल नहीं है. ये पुरे जीवन शैली का सवाल है. गांधी जी की बात करें तो उनके वक्तव्य टुकड़ों में आये हैं. वो न ही अर्थशास्त्री थे, न राजनीतिशास्त्री थे, न ही दर्शनशास्त्री थे और न ही वो सामाजशास्त्री थे. लेकिन वो सबकुछ थे. उनके लेख और वक्तव्य टुकड़ों में भले है, लेकिन समग्रता में है. और एक-दुसरे से जूडा हुआ है. जब हम कृषि संकट की बात करेंगे तो भारतीय परिपेक्ष्य में गांधी को छोड़कर कृषि संकट उवर पाना संभव नहीं है. कृषि संकट का विकल्प गांधी जी के स्थानीय संसाधोनों के उपयोग पर ही संभव है, न की पूंजीवादी व्यवस्था में है.

नीरज कुमार, पी-एच.डी, शोधार्थी

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