बिहार में जहरीली शराब से रोज मरते हैं इतने दलित-आदिवासी

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पूरे देश में बिहार अनोखा राज्य बनता जा रहा है। यहां के सीएम नीतीश कुमार आए दिन शराबबंदी को लेकर दावे करते हैं तो दूसरी ओर उनका सिस्टम उनके ही दावे की धज्जियां उड़ा देता है। और हो यह रहा है कि आए दिन बिहार में जहरीली शराब के कारण लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। वहीं उनका तंत्र सच कबूलने के बजाय कहानियां गढ़ने में लगा है।

गत 15 मार्च को राज्य के कटिहार, गोपालगंज और बेतिया में हुई अलग-अलग घटनाओं में 8 लोगों की मौत जहरीली शराब के सेवन के कारण हुई है। लेकिन नीतीश कुमार के अफसरान यह स्वीकारने के बजाय इन मौतों को संक्रमण, मधुमेह और हृदयाघात आदि करार दे रहे हैं।

सबसे पहले बात करते हैं कटिहार जिले की। यहां के कोढ़ा थाना के चरखो जुराबगंज गांव में चार लोगों की मौत हो गई। मरनेवालों में दो औरतों रेखा देवी, सुलोचना देवी के अलावा अविनाश कुमार और जमील शामिल हैं। जबकि दो अन्य युवक सचिन और विकास कुमार की हालत गंभीर है। स्थानीय डीएम उदयन मिश्रा ने इन सभी के पीछे जहरीली शराब नहीं होने की बात कही है।वहीं गोपालगंज के थावे थाना के कविलासपुर गांव में दो लोगों और बेतिया के नौतन अंचल के श्यामपुर गांव में दो लोगों की मौत स्थानीय लोगों के मुताबिक जहरीली शराब पीने की वजह से हो गई है। इन मामलों में भी स्थानीय अधिकारियों ने जहरीली शराब के कारण होने से इंकार किया है।

दरअसल, बिहार सरकार जहरीली शराब से हो रही घटनाओं को रोकने में नाकाम हो रही है तो उसने और उसके तंत्र ने बदनामी से बचने का यह तरीका खोज लिया है। यह बिल्कुल वैसा ही जैसे भुखमरी के कारण होनेवाली मौतों से होनेवाली बदनामी से बचने के लिए सरकारें तमाम तरह का झूठ बोलती हैं।

बताते चलें कि पिछले छह महीने में साढ़े पांच सौ से अधिक लोगों की जान चली गयी है। वहीं करीब दो सौ लोगों को अपनी आंख् गंवानी पड़ रही है। इनमें अधिकांश दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं। जाहिर तौर पर इन घटनाओं से यह तो साबित होता ही है कि बिहार में शराबबंदी के बावजूद शराब की बिक्री जारी है। लेकिन नीतीश कुमार, जो अपनी इमेज को लेकर चौकन्ने रहते हैं, ने इस तरह के तमाम सच्चाइयों को खारिज किया है।

योगी के शपथग्रहण से पहले अखिलेश ने किया #Awesome कमेंट, जानकर रह जाएंगे हैरान

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यूपी के विधानसभा चुनाव में भले ही अखिलेश यादव और उनके सहयोगी दलों को बहुमत से कम सीटें मिलीं, लेकिन इससे उनके हौसले पर कोई असर नहीं पड़ा है। अभी जबकि योगी आदित्यनाथ द्वारा सीएम पद का दूसरी बार शपथ लेना शेष है, अखिलेश यादव ने जबरदस्त कमेंट किया है। उन्होंने योगी का नाम लिए बगैर यूपी के हाल को बयान कर दिया है।

दरअसल, अखिलेश यादव अपने चुटीली टिप्पणियों की वजह से भी जाने जाते रहे हैं। पूरे चुनाव के दौरान उन्होंने योगी आदित्यनाथ को भले ही बाबा कहकर सबोधित किया हो, लेकिन उसका असर योगी आदित्यनाथ पर सीधे होता था। अब जबकि चुनाव खत्म हो चुका है और भाजपा विधानसभा में अकेले 255 सीटों के साथ सरकार बनाने जा रही है, अखिलेश यादव ने राजनीतिक प्रहारों का सिलसिला रोका नहीं है।

बुधवार को ऐसी ही एक टिप्पणी अखिलेश यादव ने अपने ट्वीटर हैंडल पर जारी किया। ट्वीटर पर अपलोडेड वीडियो में वह स्वयं एक गाड़ी में बैठे हैं और एक सांढ़ उनके काफिले के बीच से गुजरता है। इस वीडियो के साथ ही अखिलेश ने टिप्पणी लिखी है– “सफ़र में साँड़ तो मिलेंगे… जो चल सको तो चलो…बड़ा कठिन है यूपी में सफ़र जो चल सको तो चलो!”

जाहिर तौर पर अखिलेश यादव ने जहां एक ओर सांढ़ के बहाने योगी आदित्यनाथ पर हमला बोला है तो दूसरी ओर उन्होंने यूपी की जनता को आगाह किया है कि उन्होंने अपना जनादेश ऐसे ही एक अराजक को दिया है।

बहरहाल, एक दूसरे ट्वीट में अखिलेश यादव ने पंजाब के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भागवंत सिंह मान को बधाई दी है।

सपा ने डॉ. कफील को बनाया MLC कैंडिडेट, योगी मुश्किल में

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विशेषज्ञ रहे डा. कफील खान एक बार फिर सुर्खियों में हैं। हालांकि सुर्खियों में वे यूपी सरकार की दमनकारी नीतियों के चलते गिरफ्तारी और अपनी समाजसेवाओं के लिए पहले से रहते रहे हैं। परंतु, इस बार सुर्खियों में उनके बने रहने की बड़ी वजह यह कि समाजवादी पार्टी ने उन्हें देवरिया कुशीनगर स्थानीय निकाय से विधान परिषद का उम्मीदवार बनाया है। यह पहला मौका है जब डा. कफील खान सियासी संग्राम में शरीक होंगे।

बताते चलें कि डा. कफील खान की पहचान एक जुझारू चिकित्सक की रही है। वह आमलोगों के बीच आम आदमी के डाक्टर के रूप में भी प्रसिद्ध रहे हैं। फिर चाहे वह कोविड की महामारी हो या फिर बिहार में बाढ़ के कारण फंसे लोगों की सेवा, डा. कफील सभी जगह नजर आए और पूरे देश में उनकी अलग पहचान बनी।

हालांकि डा. कफील खान उत्तर प्रदेश सरकार के निशाने पर भी रहे। यहां तक कि उन्हें गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी के कारण बच्चों की मौत मामले अभियुक्त भी बनाया गया और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जबकि उन्होंने न केवल बच्चों को बचाने की पूरी कोशिश की थी और सार्वजनिक तौर पर यह उजागर किया था कि किन कारणों से अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हुई। इस सच बयानी की कीमत उन्हें जेल में यातना सहकर चुकानी पड़ी। लेकिन डा. कफील खान झुके नहीं। 

ध्यातव्य है कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया था। इस बार कुल 29 मुसलमान विधायक विजयी हुए हैं और ये सभी सपा गठबंधन के उम्मीदवार रहे। 

बहरहाल, समाजवादी पार्टी ने उन्हें देवरिया कुशीनगर स्थानीय निकाय से प्रत्याशी बनाकर यूपी में वापसी करनेवाली भाजपा सरकार के समक्ष चुनौती पेश कर दी है। अब देखना दिलचस्प होगा कि सियासी अखाड़े में डा. कफील खान को जीत मिलती है या हार।

मान्यवर की जयंती पर सामने आईं बहनजी, कही यह बात

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देश के करोड़ों दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को संगठित कर उन्हें सत्ता हासिल करनेवाला बनाने के संघर्ष के महानायक मान्यवर कांशीराम के 89वें जयंती की धूम पूरे देश में रही। तमाम दलित-बहुजन संगठनों ने इस मौके पर मान्यवर को पूरे सम्मान के साथ याद किया और उनके बताए रास्ते पर चलते रहने का संकल्प लिया। मुख्य समारोह लखनऊ के बसपा स्थित प्रदेश कार्यालय में आयोजित हुआ, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने भी भाग लिया। इस मौके पर पार्टी के अनेक नेतागण व पदाधिकारी मौजूद थे।

इस मौके पर उन्होंने मान्यवर की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करने के बाद अपने संबोधन में उनके महान संघर्ष और अनंत कुर्बानियों को याद किया। उन्होंने कहा कि देश में करोड़ों, दलितों, आदिवासियों और अन्य उपक्षितों को लाचारी और मजलूमी की जिंदगी से निकालकर पैरों पर खड़ा करने के बसपा के संघर्ष में दृढ़ संकल्प के साथ लगातार डटे रहना ही मान्यवर कांशीराम को सच्ची श्रद्धांजलि देना है। उन्होंने मान्यवर के योगदानों को याद करते हुए कहा कि मान्यवर ने डॉ. आंबेडकर के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान के मानवतावादी मूवमेंट को जीवंत बनाने के लिए आजीवन कड़ा संघर्ष किया और अनंत कुर्बानियां दीं।

मौजूदा राजनीति के संदर्भ में मायावती ने कहा कि वास्तव में वर्तमान युग में जारी चमचा युग में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के मिशनरी कारवां के प्रति तन, मन की लगन तथा धन्नासेठों के धनबल की जकड़ के बजाय अपने खून-पसीने से अर्जित धन के बल पर डटे रहना कोई मामूली बात नहीं। यह इस मूवमेंट की ही देन है और जिसके बल पर बसपा ने खासकर यूपी में कई ऐतिहासिक सफलता हासिल की है। आगे भी हमें डटे रहना है।

इस मौके पर मायावती ने बसपा के कार्यकर्ताओं के प्रति अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा कि आज की विषम परिस्थितियों से हम सभी वाकिफ हैं। जिस तरह से छल-बल की राजनीति की जा रही है, ऐसे वे सभी जो पूरी प्रतिबद्धता से अपने मिशन में मुस्तैदी से लगे हैं, उनके प्रति हम आभार प्रकट करते हैं।

बनिया-सवर्णों के गंठजोड़ को चुनौती देंगे बहुजन

 भारतीय समाज में सबसे बेवकूफ दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं। मैं यह बात प्रमाण के साथ कह सकता हूं। एक प्रमाण तो यह कि मेरी जानकारी में ऐसा कोई मामला नहीं आया है जिसमें किसी सवर्ण महिला को डायन के आरोप में नंगा कर घुमाया गया हो, उनके बाल काटे गए हों, उन्हें पखाना पिलाया गया हो। ऐसी अमानवीयता और पशुवत व्यवहार केवल और केवल दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज की महिलाओं के साथ होता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है कि तमाम वंचित वर्ग इस तरह के अंधविश्वासों का शिकार है? क्या वह खुद इसके लिए जिम्मेदार है या फिर उसे अंधविश्वासी बनाया जा रहा है?

इस सवाल के पहले एक बात जो कल पटना में दैनिक जागरण से जुड़े मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने डायरी में उल्लिखित दलित-बहुजनों के लिए अलग अखबार की आवश्यकता के मसले पर अपनी टिप्पणी भेजी। उनका कहना है– “किसी अखबार के मालिक सवर्ण नहीं हैं। आप अपनी यह बात उन्हें समझा सकते हैं कि अपर कास्ट को हटाकर दलितों और आदिवासियों के लिए भी जगह निकालें।

सच्चाई यह है कि जो पिछड़ा, दलित और आदिवासी माल कमा लेता है वह शोषक वर्ग में शामिल हो जाता है।

आपसे निष्पक्षता के साथ बेबाक टिप्पणी की उम्मीद है कि कैसे आप अपने मालिक की इच्छा के अनुकूल अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का शोषण करते हैं।

सामान्य सिद्धांत है कि हर मालिक शोषक होता है और हर कर्मचारी शोषित। मालिक को मुनाफा चाहिए और कर्मचारी को अधिक वेतन और सहूलियत।

कोई मीडिया हाउस यह दावा नहीं कर सकता कि उसने इमानदारी के साथ वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर रखी है। …और संपादक नाम का प्राणी भी दावे के साथ नहीं कह सकता है कि वह शोषण नहीं कर रहा है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। मगर होता सब जगह है। इसलिए पहले अपने घर को ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए।”

उपरोक्त टिप्पणी में मेरे हिसाब से मेरे लिए महत्वपूर्ण यह है कि “किसी अखबार के मालिक सवर्ण नहीं हैं। आप अपनी यह बात उन्हें समझा सकते हैं कि अपर कास्ट को हटाकर दलितों और आदिवासियों के लिए भी जगह निकालें। सच्चाई यह है कि जो पिछड़ा, दलित और आदिवासी माल कमा लेता है वह शोषक वर्ग में शामिल हो जाता है।” मैं इसी बात पर विचार करता हूं।

मेरे हिसाब से मेरे मित्र का यह कहना सही है कि सारे अखबारों के मालिक सवर्ण नहीं हैं, लेकिन संपादक से लेकर तमाम तरह के शीर्ष पदों पर सवर्ण काबिज हैं। दरअसल अखबार निकालना एक बिजनेस है। इसमें पूंजी की आवश्यकता होती है और पूंजी निस्संदेह भारतीय समाज में बनिया के पास ही रहता आया है। सूदखोरी के तमाम किस्से-कहानियां इसके गवाह हैं। झारखंड में फिर चाहे वह सिदो-कान्हू हों या तिलका मांझी हों या बिरसा मुंडा हों या फिर शिबू सोरेन, सबने महाजनी कुप्रथा के खिलाफ संघर्ष किया। होता यह था कि सूदखोर व्यापारी वर्ग अकूत लाभ कमाने के लिए आदिवासियों पर जुल्म करता था। इसके लिए व सामंती जातियों को अपना गुलाम बनाकर रखता था। अपने जुल्म को न्यायोचित साबित करने के लिए वह ब्राह्मणों को पालता था। अंग्रेज जब भारत आए थे, उनका इरादा बिजनेस करना ही था। वे जनसेवा के लिए भारत नहीं आए थे। तो हुआ यह कि भारत के व्यापारी वर्ग ने उनका आगे बढ़कर साथ दिया। भामाशाह की तरह उनकी तिजोरियों भरीं और इसके बदले अपना व्यापार बढ़ाया। झारखंड का जमशेदपुर इसका सबसे नायाब उदाहरण है कि कैसे एक पूरा का पूरा शहर एक व्यापारी को दे दिया गया।

वर्तमान में प्रसिद्ध सामाजिक न्याय विचारक प्रो. कांचा आइलैया शेपर्ड ने अपनी एक पुस्तक में बनिया वर्ग को सामाजिक स्मगलर की संज्ञा दी है।

खैर, उपरोक्त उद्धरण सिर्फ यह बताने के लिए व्यापारी वर्ग लाभ कमाने के लिए सारे उद्यम करता है। इसके लिए वह ब्राह्मणों का उपयोग करता है। और ब्राह्मण इसका उपयोग समाज में अपनी सर्वोच्चता को बरकरार बनाए रखने के लिए करता है। पूंजी होती है व्यापारी की और उसका लाभ उठाकर वह दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के उपर राज करता आया है। आज भी यही हो रहा है। मेरे वरिष्ठ मित्र ने यह बात बिल्कुल वाजिब कही है कि सारे अखबारों के मालिक सवर्ण नहीं हैं। लेकिन यह कि उनसे कहकर दलित, पिछड़े और आदिवासी अपने लिए जगह निकलवाएं, मुमकिन ही नहीं है।

मैं तो आज दिल्ली से प्रकाशित “आरएसएस सत्ता” (जनसत्ता) देख रहा हूं। इसने आज धर्म पर आधारित एक पन्ना प्रकाशित किया है। चूंकि यह आरएसएस का मुख पत्र है, लिहाजा इसके इस पन्ने पर सारे आलेख ब्राह्मण वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। एक आलेख में एक व्यापारी वर्ग के लेखक ने होलिका दहन के बारे में लिखा है कि जब 150 डिग्री सेल्सियस तापमान पर होलिका का पुतला जल रहा होता है तब उसकी परिक्रमा करने से शरीर के अंदर के सारे रोगाणु खत्म हो जाते हैं। यह बनिया लेखक यही नहीं रूकता है। वह यह भी कहता है कि दांपत्य जीवन में निराश लोग, व्यापार में नुकसान उठा रहे लोग या फिर बीमारियों से ग्रस्त लोग अपने लाभ के लिए होलिका की आग में क्या-क्या आहूति दे सकते हैं ताकि उनके कष्टों का निवारण हो।

दरअसल, यह वह उदाहरण है जो इस सवाल का जवाब है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को कैसे बेवकूफ बनाकर रखा जाता है। इसकी एक वजह यह भी है कि यह वर्ग अभी भी नवसाक्षर है। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि किताबों और अखबारों में लिखित बातें ही सच है और मौखिक बातें गलत। ऐसे में वे आसानी से सवर्णों और बनियों की मिली-जुली साजिश के शिकार हो जाते हैं।

बहरहाल, यह सामाजिक संघर्ष के विभिन्न चरणों में से एक चरण है। आज मैं आह्वान कर रहा हूं कि दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के तमाम बड़े नेता और उद्यमी अपने-अपने समाजों के लिए अखबारों का प्रकाशन करें। कल मेरे जैसे अनेक होंगे और फिर वह दौर आएगा जब इन सवर्णों के अखबारों को कोई दलित, पिछड़ा और आदिवासी नहीं पढ़ेगा।

लोग उन पर कीचड़ फेंकते रहे, वह लड़कियों को पढ़ाती रहीं

महान नारीवादी, समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता, मराठी कवयित्री व शिक्षाविद सावित्री बाई फुले आज ही के दिन यानी 10 मार्च 1897 को चल बसी थी. आज के दिन करोड़ों लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. उनका जीवन संघर्ष कठिनाइयों से भरा रहा. उनके कार्यों का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि जिस दौर में महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझकर काल कोठरी में बंद रखा जाता था व मात्र बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाता था उस समय सावित्री बाई ने न केवल स्वयं शिक्षा ग्रहण की बल्कि लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया और उनके लिए जगह जगह विद्यालय भी खोले. उनका पूरा जीवन नारी शिक्षा और उनके बेहतर जीवन को समर्पित रहा.

सावित्री बाई का जन्म 03 जनवरी 1931 को हुआ था. मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी ज्योतिबा फुले से हो गई थी. उस समय उनके पति की उम्र 13 साल थी. सावित्री बाई की जब शादी हुई थी, तब वह पढ़ना लिखना नहीं जानती थीं और उनके पति तीसरी कक्षा में पढ़ते थे.

सावित्री बाई का सपना था कि वह पढ़े लिखें, लेकिन उस समय दलितों के साथ काफी भेदभाव किया जाता था. सावित्री बाई ने एक दिन अंग्रेजी की एक किताब हाथ मे ले रखी थी तभी उनके पिता ने देख लिया और किताब को लेकर फेंक दिया. उनके पिता को पता था कि इसे कोई पढ़ने नहीं देगा. उन्होंने सावित्री को कहा कि शिक्षा सिर्फ उच्च जाति के पुरुष ही ग्रहण कर सकते हैं. दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने की इजजात नहीं है, क्योंकि उनका पढ़ना पाप है. लेकिन वह नहीं मानी और अपनी किताब वापस लेकर आ गईं. उन्होंने प्रण लिया कि वह जरूर शिक्षा ग्रहण करेंगी चाहे कुछ भी हो जाए. इसके बाद ज्योतिबा फुले ने सावित्री को पढ़ाया और लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया. इतना ही नहीं इस काम में हर कदम पर उनका साथ भी दिया.

जब सावित्री बाई फुले अपने घर से लड़कियों को पढ़ाने स्कूल जाती तो बीच से सवर्णों के मोहल्ले से गुजरना होता. सवर्ण समाज के लोगों को यह बात बर्दास्त नहीं थी कि महिलाएं पढ़ना लिखना सीखें. चाहे वह सवर्ण महिलाएं हों या अवर्ण महिलाएं. सावित्री को अपमानित करने के लिए सवर्ण समाज के पुरुष उन पर गंदगी व कीचड़ फेंकते. इस सब के बावजूद भी सावित्री ने हार नहीं मानी और वह लगातार लड़कियों को पढ़ाती रही. वह अपने साथ थैले में एक साड़ी रखती थी. गंदी कर दी गई साड़ी को वह स्कूल में पहुंचकर बदल लेती.

सावित्री बाई द्वारा समाज में किए गए कार्य

  • पहले बालिका विद्यालय की स्थापना की
  • जातिवाद और पितृसत्ता का खुलकर विरोध किया
  • भेदभाव और बालविवाह के विरुद्ध जन अभियान चलाया
  • भारत के प्रथम कन्या विद्यालय की प्रथम शिक्षिका बनीं
  • नवजात कन्या शिशुओं की हत्याओं को रोकने का अभियान चलाया व आश्रम खोले
  • पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 19 वीं शताब्दी में विधवा विवाह, छुआछूत व सती प्रथा आदि महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया
  • प्लेग महामारी में लोगों की सेवा व प्रसूति एवं बाल संरक्षण ग्रहों की स्थापना में भी उनका अहम योगदान रहा

3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने महिलाओं के लिए पहले विद्यालय की स्थापना की. इसके बाद वे एक ही वर्ष में पाँच नए स्कूल खोलने में सफल हुए. तत्कालीन सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया. उनके कार्य की काफी लोगों ने सराहना भी की. उनके जीवन संघर्ष पर कई भाषाओं में किताबें लिखी गई हैं.

सावित्री बाई का जीवन काफी संघर्षमय रहा है. उनकी जीवन घटनाओं से उनके हौसले और आत्मविश्वास का अहसास होता है. वर्तमान में महिलाएं उन्हें अपना आदर्श मानती हैं. गूगल ने भी 3 जनवरी 2017 को उनकी जयंती पर गूगल डूडल जारी कर उन्हें अभिवादन किया था. वहीं भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट निकाली गई. उनके संघर्ष और कार्यों को देखते हुए उन्हें सरकार द्वारा भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए. सावित्री बाई फुले के नाम से अधिक से अधिक महिला स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, बाल आश्रम, अनाथालय, वृद्धाश्रम और चिकित्सा केंद्र खोले जाने चाहिए. सभी महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबर का हक मिले. शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवाओं जैसी मूलभूत सुविधाओं में समान अवसर मिलें यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

भारत की महिलाओं में शिक्षा की अलख जगाना साहसिक व ऐतिहासिक कदम है. उन्हें नारीवाद की महानायिका कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. “चौका बर्तन से बहुत जरूरी है पढ़ाई, क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई?” उनकी इन दो पंक्तियों में उनके कार्य करने की व्याख्या छिपी है. निश्चित ही उन्होंने मौजूदा दौर का भयंकर विरोध झेला, गालियां सुनी और उन पर गंदगी फेंकी गई लेकिन वह डटी रही, भारत की बेटियों को पढ़ाती रही और उनका हाथ पकड़कर उन्हें अंधेरे कमरे से निकालकर खुले आसमान के नीचे ले आई.

फुले दंपत्ति के लिए ब्राह्मणवादी हिंदू समाज में अपना घर चलाना काफी मुश्किल रहा. उन्होंने छोटे छोटे काम करके जैसे तैसे गुजारा किया और निर्वहन करते रहे. उन्होंने फूल बेचे, सब्जियां बेची, रजाई की सिलाई की. इस तरह गुजर बसर करते हुए भारत का पहला बालिका विद्यालय भी खोला. इसके बाद एक एक करके कुल 18 बालिका विद्यालय खोले.

साबित्रीबाई फूले का जिन लोगों ने विरोध किया उसी समाज की एक लड़की की उन्होंने जान भी बचाई. एक विधवा गर्भवती आत्महत्या करने जा रही थी जिसका नाम काशीबाई था. लोकलाज के डर से वह ऐसा कर रही थी, लेकिन साबित्रीबाई ने उनको खौफनाक कदम उठाने से रोका. वह काशीबाई को अपने घर ले आई और उसकी डिलीवरी कराई. उन्होंने काशीबाई के बच्चे का नाम यशवंत रखा और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया.

उन्होंने समाज से अस्पृश्यता के कलंक को समाप्त करने के लिए अपने घर में अछूत और वंचितों के लिए एक कुआं भी स्थापित किया. पति के साथ मिलकर पीड़ितों और बिना दहेज के विवाह कराने के लिए सत्यशोधक समाज का निर्माण किया. 1897 में पुणे में उन्होंने अपने दत्तक पुत्र यशवंत के साथ प्लेग की तीसरी महामारी के पीड़ितों के उपचार के लिए चिकित्सा केंद्र खोला. इस दौरान लोगों की देखभाल करते करते वह भी प्लेग की शिकार हो गई और 66 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गई. सावित्री बाई फुले अपने कार्यों के लिए हमेशा याद की जाएंगी.

रवि संबरवाल स्वतंत्र पत्रकार (अमर उजाला में पत्रकार रहे हैं।) संपर्क सूत्र: 8607013480

सपा-बसपा के जातीय चक्रव्यूह में फंसी भाजपा का निकलना मुश्किल

 यूपी विधानसभा चुनाव अपने आखिरी चरण की ओर बढ़ चला है। आखिरी दो चरणों की लड़ाई पूर्वांचल में लड़ी जा रही है। इन दो चरणों की 111 सीटों पर 3 और 7 मार्च को मतदान होना है। छठवे चरण में 10 जिलों की 57 सीटों पर गुरुवार को वोटिंग हो रही है। 2017 में इन 57 सीटों में से भाजपा ने 46 सीटें जीती थी, बसपा ने पांच, सपा ने दो जबकि कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली थी। हालांकि 2012 में समाजवादी पार्टी 32 सीटें जीती थी।

एक बार फिर से जीत के इस आंकड़े को दोहराने के लिए भाजपा की ओर से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत तमाम दिग्गज चुनाव प्रचार में जुटे हैं। लेकिन इस क्षेत्र में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने टिकट के बंटवारे में जाति का ऐसा जाल बुना है, जिसमें भाजपा उलझती नजर आ रही है।

इसमें तुर्रा यह कि पूर्वांचल की 8 जिलों की 16 सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी आज तक अपना खाता नहीं खोल पाई है। जैसे आजमगढ़ की सदर सीट को भाजपा आज तक नहीं जीत पाई है। इसके अलावा गोपालपुर, सगड़ी, मुबारकपुर, अतरौलिया, निजामाबाद और दीदारगंज में भी आज तक कमल नहीं खिला है। मऊ सदर की सीट भी भाजपा अब तक नहीं जीत पाई है। तो सीएम योगी के शहर गोरखपुर की चिल्लूपार सीट, देवरिया की भाटपाररानी सीट और जौनपुर की मछलीशहर विधानसभा सीट पर भी भाजपा का खाता नहीं खुला है।

10 जिलों की जिन सीटों पर छठवें चरण का मतदान हो रहा है, उसमें अंबेडकर नगर की 5, बलरामपुर की 4, सिद्धार्थनगर की 5, बस्ती की 5, संतकबीर नगर की 3, महाराजगंज की 5, गोरखपुर की 9. कुशीनगर की 7, देवरिया की 7 और बलिया की 7 सीटें शामिल हैं। इन जिलों में दलित, ओबीसी और ब्राह्मण वोटर सबसे ज्यादा निर्णायक हैं। कुछ जिलों में मुस्लिम वोटर भी मजबूत है। दलित वोटों की बात करें तो वह 22-25 प्रतिशत तक है।

छठवें और सातवें चरण में अस्मिता की राजनीति करने वाले ओमप्रकाश राजभर, डॉ. संजय निषाद, अनुप्रिया पटेल जैसे नेताओं की भी परीक्षा होगी। कुल मिलाकर पूर्वांचल में होने वाले अंतिम दो चरणों का चुनाव उत्तर प्रदेश की राजनीति तय करने के साथ अस्मिता की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों और नेताओं का भी भविष्य तय करेगा।

त्रिकोणीय हुआ यूपी चुनाव, मजबूती से उभरी बसपा

चौथे चरण के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति बदलती नजर आ रही है। जिस बहुजन समाज पार्टी को पीछे बताया जा रहा था, वह चुपके से आगे बढ़ती जा रही है। बसपा के साथ कैडर वोटों के अलावा कई क्षेत्रों में ब्राह्मण और मुस्लिम वोटों के जुड़ने की खबर से भाजपा और सपा दोनों में बेचैनी है। इस नई खबर से उत्तर प्रदेश का चुनाव रोचक होता जा रहा है। आखिर हम यह बात किस आधार पर कह रहे हैं, और क्या है जमीनी हकीकत… आईए, हम आपको बताते हैं-

चौथे चरण के चुनाव में लखनऊ में अपने बूथ पर वोट डालने के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने चुनाव परिणाम में सबको चौंकाने की बात एक बार फिर दोहराई और दावा किया कि 2007 की तरह बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर से प्रदेश में सरकार बनाएगी। मायावती यह दावा पहले दिन से कर रही हैं। अगर बहनजी का दावा सच निकल गया तो यह भारत की राजनीति का सबसे ज्यादा चौंकाने वाला चुनाव बन जाएगा।

 ऐसा होगा या नहीं यह 10 मार्च को सामने आएगा, लेकिन यह साफ है कि यूपी चुनाव उलझता हुआ दिख रहा है। भले ही समाजवादी पार्टी और भाजपा सत्ता में आने का जोरदार दावा कर रही है और ज्यादातर मीडिया समूह और राजनीतिक विश्लेषक इस दावे पर मुहर भी लगा रहे हैं, लेकिन ऐसा कहने वाले लोग जमीन पर बसपा की ताकत को भूल रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को मिले 19 सीटों का हवाला देकर उसे कमजोर आंका जा रहा है। लेकिन उस चुनाव में बसपा को मिले वोट प्रतिशत की तरफ इन मीडिया समूहों और राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान नहीं है।

 दरअसल प्रो. विवेक कुमार इसे मीडिया और कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की साजिश बताते हैं। उनका कहना है कि अगर बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा से सीधी लड़ाई में दिखाया गया तो बसपा के जीतने के आसार बढ़ जाएंगे, क्योंकि बसपा के पास उसका 20 प्रतिशत कैडर वोट बना हुआ है। बसपा की जीत की आहट से प्रदेश के 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक और भाजपा से नाराज सवर्ण वोटर और गैर यादव पिछड़ी जातियों के वोटर बसपा के साथ आ सकते हैं। यह पूरा चुनावी खेल बदल सकता है। क्योंकि अगर ऐसा होता है, जो कि हो सकता है, तो बसपा की 19 सीटों को 119 और उससे भी आगे बढ़कर 219 होने से कोई दल नहीं रोक सकता।

दूसरी वजह, बहनजी ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है, उसमें जाति और सोशल इंजीनियरिंग दोनों साफ नजर आ रहा है। टिकट बंटवारे में मायावती ने मुसलमान, पिछड़े और ब्राह्मण सभी का ख़्याल रखा है। यह 2007 का पैटर्न है। अगर ये उम्मीदवार अपने-अपने समाज के 5 प्रतिशत वोट भी ले आते हैं, तो बीएसपी का वोट प्रतिशत आसानी से 25 से तीस प्रतिशत तक जा सकता है।

तीसरी बात, 2017 का चुनाव भाजपा के लिए प्रचंड बहुमत का चुनाव था। लेकिन सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि भाजपा के लहर में भी बसपा को हर वर्ग का समर्थन मिला था। यह आंकड़ा काफी मायने रखता है। सीएसडीएस के आंकड़े के मुताबिक 2017 के चुनाव में बसपा को मिले वोटों का प्रतिशत देखें तो ब्राह्मण समाज का दो प्रतिशत वोट, राजपूत/भूमिहार का 6 प्रतिशत, वैश्व का चार प्रतिशत, जाट का तीन प्रतिशत जबकि अन्य अगड़ी जातियों का सात प्रतिशत वोट बसपा को मिला था। इसी तरह यादव समाज का 3 प्रतिशत, कुर्मी-कोईरी का 14, अन्य ओबीसी जातियों का 13 प्रतिशत, जबकि मुस्लिम समाज का 19 प्रतिशत वोट बसपा को मिला था। जाटव वोट निश्चित तौर पर सबसे ज्यादा 86 प्रतिशत था, जबकि गैर जाटव दलित समाज का वोट 43 प्रतिशत मिला था।

यहां यह ध्यान रखना होगा कि जब भाजपा अपने चरम पर थी, तब भी 14 प्रतिशत कोईरी कुर्मी समाज, 13 प्रतिशत अन्य ओबीसी, 43 प्रतिशत गैर जाटव दलित वोट, और 19 प्रतिशत मुस्लिम समाज का वोट बसपा को मिला था। यानी तब इन्होंने भाजपा और सपा को न चुन कर बसपा को समर्थन दिया था। इस बार तो भाजपा पहले जैसे लहर पर सवार भी नहीं है, तो क्या बहुजन समाज पार्टी सबको चौंकाते हुए कोई करिश्मा करने को तैयार है?

सामने आई यूपी चुनाव में पिछड़ती भाजपा की बौखलाहट

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उत्तर प्रदेश के चुनाव में जैसे-जैसे भारतीय जनता पार्टी पिछड़ती जा रही है, उसकी बौखलाहट सामने आ रही है। और बौखलाहट में भाजपा नेता अल-बल कुछ भी बोले जा रहे हैं। यूपी के सिद्धार्थ नगर जिले के डुमरियागंज के भाजपा विधायक राघवेंद्र सिंह का एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है, जिसमें वह धर्म और जाति को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर रहे हैं। इस वीडियो में भाजपा का बड़बोला विधायक कह रहा है कि, जो हिंदू दूसरी पार्टी को वोट देगा उसके अंदर मिया का खून है, वो गद्दार है… जो भाजपा को वोट नहीं करेगा वो अपने बाप की नाजायज़ औलाद है… यहीं नहीं इस सनकी विधायक ने लोगों को अपना डीएनए टेस्ट कराने की सलाह भी दे डाली..

हद तो यह है कि भाजपा विधायक राघवेंद्र सिंह की ऐसी बयानबाजी पर वहां मौजूद लोग तालियां बजा रहे हैं। हालांकि लोगों के बीच यह वीडियो आने के बाद भाजपा विधायक की जमकर खबर ली जा रही है। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री डॉ नितिन राउत ने इस विडियो को ट्विटर पर साझा करते हुए चुनाव आयोग से पूछा है कि क्या चुनाव आयोग इस वीडियो को देख रहा है। दरअसल उत्तर प्रदेश में जिस तरह भाजपा की हार की लेकर खबरें सामने आने लगी है, उससे भाजपा और उसके नेता बौखलाए हुए हैं। मंदिर के नाम पर हिन्दुओं को एकजुट करने की राजनीति करने वाली भाजपा के नेता हिन्दू वोटों को अपने पाले में लाने के लिए हर सीमा पार करते जा रहे हैं। वो न सिर्फ मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं, बल्कि हिन्दुओं की भी फजीहत और अपमान कर रहे हैं।

फिलहाल वीडियो वायरल होने के बाद चुनाव आयोग ने भाजपा नेता के भाषण को उन्मादी बताते हुए उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है। दरअसल इस चुनाव में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होता दिख रहा है। लेकिन चुनाव आयोग ने ज्यादातर मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है। जिसको लेकर वह निशाने पर भी है। भाजपा नेता के ताजा बयान पर हालांकि चुनाव आयोग ने संज्ञान ले लिया है, लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या ऐसे बायनों पर बाद में कार्रवाई होगी या फिर चुनाव के साथ ये भी रफा-दफा हो जाएंगे? फिलहाल यही कहा जा सकता है कि भाजपा नेता का बयान बौखलाहट है, जो सत्ता से बाहर जाने के डर से आई है।

 भाजपा हार रही है यूपी चुनाव, पूर्व राज्यपाल का दावा

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 दिल्ली के पूर्व राज्यपाल नजीब जंग का दावा है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश का चुनाव हारने जा रही है। नजीब जंग का कहना है कि भाजपा सरकार नहीं बनाने जा रही है। वह यूपी में चुनाव हारेगी। द वायर के लिए वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को दिये गए इंटरव्यू में नजीब जंग ने यह दावा किया है। जब करण थापर ने पूछा कि आखिर वह इतने श्योर कैसे हैं? इस पर नजीब जंग ने यूपी चुनाव का पूरा गणित समझा दिया।

साल 2017 के यूपी चुनाव में भाजपा के बहुमत की वजह नजीब जंग ने मोदी को माना। उनका कहना है कि मोदी काऊ बेल्ट में काफी पॉपुलर हैं। पिछली बार उनका चेहरा सामने था। उनके साथ अमित शाह थे, यह करिश्मा काम कर गया। लेकिन इस बार योगी का चेहरा आगे हैं। योगी को भाजपा ने सीएम कैंडिडेट बनाया है और योगी का आगे होना कई निगेटिव फैक्टर प्ले करेगा, जिसका भाजपा को नुकसान होगा।

 पूर्व राज्यपाल का कहना है कि योगी को यूपी चुनाव में आगे रख कर भाजपा ने गलती कर दी है और इस बार यही उसकी हार का कारण होगा।

नजीब जंग ने कारण गिनवाते हुए कहा कि

  • भाजपा को किसान आंदोलन का खामियाजा उठाना पड़ेगा। गृहराज्य मंत्री टेनी के बेटे से जुड़ा विवाद और फिर उसको बेल मिलने से भी भाजपा को नुकसान होगा।
  • गौशालाएं नहीं होने से गाएं खेतों में खुला घूम रही हैं, किसानों के खेतों को जानवरों से नुकसान पहुंच रहा है। इससे किसान नाराज हैं।
  • पिछले दो सालों में उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी दोगुनी हो गई है। आलम यह है कि यूपी में ग्रेजुएट युवा मनरेगा में काम कर रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
  • योगी जिस तरह से मुसलमानों के खिलाफ बयान दे रहे हैं, उससे भी फर्क पड़ा है।

तो आखिर यूपी में किसकी सरकार बनने जा रही है। इस पर नजीब जंग समाजवादी पार्टी का नाम लेते हैं। उनका दावा है कि अखिलेश यादव अपने दम पर यूपी में सरकार बनाने जा रहे हैं। अखिलेश यादव के पक्ष में दावा करने का कारण बताते हुए नजीब जंग का कहना है कि वह शानदार तरीके से चुनाव लड़ रहे हैं। पूर्व राज्यपाल के मुताबिक जब भाजपा यह कह कर अखिलेश यादव को घेर रही थी कि अखिलेश यादव घर में बैठ गया, वह कोविड से डर गया। उस वक्त अखिलेश यादव घर में बैठ कर चुनाव की रणनीति बना रहे थे।

अखिलेश यादव ने यह समझ लिया है कि सिर्फ MY यानी मुस्लिम-यादव समीकरण से जीत नहीं मिलेगी। अखिलेश ने इस बार अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़ा है, जो मिलकर एक बड़ी संख्या है। पिछली बार भाजपा ने यही काम किया था। और अखिलेश यादव ने सिर्फ जातियों को ही नहीं जोड़ा। उन्होंने महिलाओं को जोड़ा, रोजगार की बात की, बिजली की बात की। नजीब जंग का दावा है कि चुनाव शुरू होने से ठीक पहले गैर यादव ओबीसी जातियों के अखिलेश यादव के साथ आने से पूरा गणित बदल गया है। यह पिछड़ा वर्ग ठाकुरवाद से चिढ़ा हुआ है। मुस्लिम वोटों पर पूर्व राज्यपाल का दावा है कि 80 फीसदी मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी को जा रहा है। मुस्लिम ओवैसी को वोट नहीं देने जा रहे हैं। ओवैसी वोटकटवा हैं।

उनका दावा है कि ब्राह्मण वोटों का बंटवारा होगा। जबकि ठाकुर वोट भाजपा के साथ मजबूती से खड़ा है। हालांकि यह नजीब जंग ने भी माना कि बसपा का परंपरागत वोटर बसपा के साथ मजबूती से खड़ा है। ऐसे में चाहे कोई दूसरा भले ही कुछ भी दावा करे, अगर बसपा के परंपरागत वोटों में भाजपा से छिटके ब्राह्मण वोटर और सपा से छिटके मुस्लिम वोटर मिल जाते हैं तो बसपा भी मजबूत ताकत बनकर सामने आ सकती है और सरकार को बनाने या बिगाड़ने में अहम रोल निभा सकती है।

जय भीम-नमो बुद्धाय के बीच क्यों छूट जाते हैं सतगुरु रविदास और कबीर

मुझमें जब से अंबेडकरी आंदोलन को लेकर चेतना आई है, तब से एक लंबा वक्त गुजर चुका है। शुरूआती सालों में इस आंदोलन को अपने से बड़ों के नजरिये से देखने के बाद बीते कुछ सालों में मैंने इस आंदोलन को अपने नजरिये से देखना शुरू किया तो कई सवाल मेरे सामने आएं। और इसमें सबसे बड़ा सवाल यह था कि जय भीम और नमो बुद्धाय के बीच संत शिरोमणि रविदास और संत कबीर क्यों छूट जा रहे हैं? क्योंकि दलित-मूलनिवासी संतों महापुरुषों के बारे में पढ़ते हुए मुझे यह बात अक्सर परेशान करती थी कि जिन सतगुरु रविदास को संत शिरोमणि कहा जाता है और जो खुद एक चमार के घर जन्में थे, उनको लेकर दलित-मूलनिवासी समाज में बहुत उत्साह क्यों नहीं है। इस बारे में जब ज्यादा खोजबीन शुरू की और आसानी से उपलब्ध साहित्य को पढ़ा तो रैदास ब्राह्मणवादी खेमे में खड़े नजर आएं। मुझे निराशा हुई, क्योंकि तब तक एक बात तो साफ हो गई थी कि दलित-मूलनिवासी समाज को कभी भी ब्राह्मणवादी खेमे में खड़े किसी व्यक्ति या संत से बचना ही चाहिए। और जिन साहित्यों से मेरा पाला पड़ा था, उसमें रैदास उसी खेमें मे खड़े नजर आते थे। उन्हें रामानंद का शिष्य बताया गया था और ऐसी ही कई बातें थी, जिसके जरिए रैदास ब्राह्मणवाद के अनुयायी दिखते थे। ये बातें सामने आने के बाद संत रैदास को लेकर मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया।

लेकिन इसके बावजूद मुझे एक बात लगातार परेशान करती रही कि जो रविदास खुद को बार-बार चमार कहते रहे, जो कबीर के सामानांतर थे, जिन्होंने बेगमपुरा की परिकल्पना की, और जो अपनी लेखनी में अंधविश्वास पर कुठाराधात करते रहे, आखिर वह ब्राह्मणवाद के खेमें में कैसे खड़े हो सकते हैं। इसलिए संत रविदास को समझने के लिए जरूरी था, ऐसे लोगों का साहित्य पढ़ना, जो मनुवादी खेमे के न होकर अंबेडकरवादी खेमे के लोग हों। और इसी क्रम में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु जी की सतगुरु रविदास पर लिखी पुस्तक का अंश पढ़ने को मिला। उन्होंने रविदास को ब्राह्मणवादी खेमे से निकाल कर एक स्वतंत्र विचारक और संत के रूप में खड़ा कर दिया था। उन्होंने ब्राह्मणवादियों द्वारा संत रविदास को लेकर रचे गए झूठ का पर्दाफाश अपने तर्कों से किया, जिससे साफ हो गया कि सतगुरु रविदास तो कभी ब्राह्मणवादी खेमें में थे ही नहीं, बल्कि उनको लेकर तमाम आडंबर और झूठ फैलाया गया और मूलनिवासी समाज खासकर रैदास के समाज की बाद की पीढ़ी के जागरूक लोगों को ब्राह्मणवादी खेमे में लाने के लिए ऐसा षड्यंत्र रचा गया। कँवल भारती जी और डॉ. मनोज दहिया जी की लेखनी ने भी रैदास को अलग तरीके से देखने का नजरिया दिया।

संत रविदास को और बेहतर समझने के लिए उनके लिखे को पढ़ना जरूरी है। आखिर कुछ तो रहा होगा कि उन्हें संत शिरोमणि कहा गया। आखिर कुछ तो रहा होगा कि मीरा सहित तमाम राजाओं ने उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया होगा। सिकंदर लोधी उनके सामने झुक गया। लेकिन यहां सवाल यह है कि जिस संत के ज्ञान के सामने उस दौर के तमाम बादशाहों ने खुद को नतमस्तक कर दिया, वह आखिर बाद के दिनों में आमजन के बीच उतने लोकप्रिय और जनप्रिय क्यों नहीं रह गए? और जिस पूर्वांचल में सतगुरु रविदास का जन्म हुआ, वहीं की जनता ने उनको इतना क्यों बिसार दिया। यहां तक कि जब बीते दिनों मैंने सीर गोवर्धनपुर की स्टोरी दलित दस्तक यू-ट्यूब पर चलाई तो कई लोगों ने मुझे फोन कर के जानना चाहा कि वह कहां है। हैरानी की बात यह रही कि उसमें से कई लोग उस जगह से महज 100 किलोमीटर के भीतर के लोग थे। ऐसे लोगों के बीच में संत रविदास के विचार उतनी पैठ क्यों नहीं बना सके? और रैदास पूर्वांचल से निकल कर उत्तर भारत के पंजाब के लोगों के बीच इतने लोकप्रिय कैसे हो गए?

बीते महीनों में मैं पंजाब स्थित जालंधर के डेरा सचखंड बल्लां और वाराणसी में सीर गोवर्धनपुर गया। डेरा सचखंड बल्लां, जहां के लोगों ने रविदासिया धर्म को बढ़ाया है, तो सीर गोवर्धनपुर वह जगह है जहां संत रविदास का जन्म हुआ। इन दोनों जगहों पर केंद्र में पंजाब के रविदासिया समाज के लोग थे। और साफ कहें तो पंजाब के चमार थे। डेरा सचखंड बल्लां हो या रविदास जन्मस्थान दोनों जगहों को यहीं के लोगों ने विकसित किया। क्योंकि पंजाब के रविदासी समाज के लोग दुनिया के कई हिस्सों में गए हैं, पैसा कमाया और अपने धर्म को अपने समाज के संत को सर माथे बैठाया। लेकिन ऐसा देश के दूसरे हिस्सों में नहीं हो पाया। तो क्या संत रविदास बाबासाहेब आंबेडकर और फिर बुद्ध के बीच में कहीं खो से गए हैं? क्योंकि आज दलित समाज का हर कोई बाबासाहेब आंबेडकर को मानता है। बाबासाहेब आंबेडकर ने धर्म के नाम पर बौद्ध धम्म दिया, इस तरह बुद्ध वंचित समाज के जीवन में बतौर ‘ईश्वर’ आएं। लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि जय भीम और नमो बुद्धाय के बीच सतगुरु रविदास क्यों छूट रहे हैं? सतगुरु रविदास हमारे समाज की धरोहर हैं। अपने उस महान पूर्वज को उनकी बातों को अगर हम नहीं बढ़ाएंगे, उन्हें अगर हम सम्मान नहीं देंगे तो फिर हमारे समाज की सांस्कृतिक विरासत पीछे छूट जाएगी।

हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा।

UGC Regulation for M.Phil./Ph.D.: Its Adverse Affect on Downtrodden, Rural and Remote Candidates

(Written By- RaghavendraYadav) The admission policy is one of the most debatable issues in Higher Educational Institutions of India. Efforts have been made during the pre-independence of India to improve and modernize the conditions of education and even after the Independence of India. Several efforts have been made by the Government(s) to improve the quality of education and expand the access to education towards a large segment of the country. In this article, the Author is focusing only on Regulation 2009 and 2016 for UGC “Minimum Criteria and Process to Provide M.Phil./Ph.D. Degree”.An effort was made by University Grants Commission (UGC) in 2009 to improve the condition of M.Phil./Ph.D. thru Regulation 2009 “Minimum Criteria and Process to Provide M.Phil./Ph.D. Degree”. After that, A similar effort was made in May 2016 by “Minimum Criteria and Process to Provide M.Phil./Ph.D. Degree” Regulation 2016 and again amendment thru Regulation 2018. UGC’s Regulation 2016 was the replacement and corrective form of the Regulations 2009. Its several articles and sub-articles are mandatory in nature which must be followed by the higher educational institutions.

Most of its articles and sub-articles are good and it is also an effort to bring transparency in many cases, which implementation will make positive changes in the condition of research but some articles and sub-articles of this Regulation have been very controversial and a large number of intellectuals & scholars of the country are strongly disagreeing. Therefore, they do not want to apply it in the same form. They want some changes in the above said Regulation because it would have a negative effect on the massive numbers of students who come from deprived educationally backward sections of society and rural remote areas. With this discriminatory & draconian rule of UGC, higher educational institutions of India will become more difficult for underprivileged sections of the country to join the research program.

The double standard in minimum eligibility criteria is undemocratic According to the UGC Regulation 2016, notified in the Gazette of India [No. 28, Part-3, Section-4] which was published on May 5, 2016, under sub-section 2.1, 2.2 and 3.1, 3.2 of Section 2 and 3, for admission in M.Phil./Ph.D. at least 55% marks or its equivalent grade in the post-graduate degree or its equivalent (5% relaxation to the SC/ST/OBC-NCL/PWD or equivalent waiver in grades will be provided). This pattern is made by UGC for those students who are studying in India. There is a different paradigm for those Indian students who are studying abroad. For them, the degree of postgraduate or equivalent of a foreign educational institution has been obtained which is approved and accredited by such a statutory authority or under such an authority which is established or incorporated under any law in that country.

Now the question is that students who are studying in India’s top educational institute which is approved and accredited under the statutory authority for ensuring quality and standards and for their assessment, accreditation which is established and incorporated under the laws of India, for them a 55% barrier in Masters or equivalent and for students studying abroad, there is no percentage barrier. Why is this undemocratic double standard? This dual parameter is unethical in nature because almost Indian students who are studying abroad come from the elite class. They are sons or daughters of big leaders, high bureaucrats, rich businessmen or professors who take salary each month in lac. Therefore, they get a discount in the percentage of the Master Degree and on the students studying in India, the arbitrary percentile barrier is imposed. So that, the students from rural, remote and educationally backward of the society can be prevented from enrolling in the research program. These double standards for enrolment are not justified for the same course. Such double standards are undemocratic and discriminatory.

If the students from rural, remote and educationally backward of the society are deprived from research work, then the foundation of social justice and inclusive development (which also means SabkaSath, SabkaVikas) will become an incomplete dream. The Government’s law makers should ensure that the minimum qualification of M.Phil./Ph.D. for the students studying in India should be Master Degree as same as for foreign students. There is no relevance to keep the percentage barrier for research programs when it is adversely affecting to students of underprivileged sections of the country and shrinking their hope to join the higher educational institutions for research work. By removing this arbitrary paradigm, the way will be open to candidates of large segments of society especially from the downtrodden. The candidates from first generation learning will get an opportunity to prove their selves.

Does UGC impose arbitrary and unlawful norms on Higher Educational Institutions? As per Clause 2 and 3 of UGC Regulation 2016, UGC has the concession for SC/ST/OBC-NCL and PWD in marks in minimum eligibility in admission in M.Phil., Ph.D., and Integrated M.Phil./Ph.D. program. UGC Regulation 2016 will apply to those Educational Institutions which are established or incorporated by a Central Act, a Provincial Act and a State Act and every Institution Deemed to be a University under Section 3 of UGC Act, 1956. Reservation can be given thru the law passed by theParliament of India or thru States’ legislature or thru the Executive Order of Central Government or thru the Executive Order of the State Government(s). The Universities or any other Autonomous Institution(s) including the Apex Regulatory body University Grants Commission have no power to grant reservations or skip reservations. In the basket of reservation, there is quota, concession and relaxation. Concession in marks, in minimum eligibility under vertical and horizontal reservation for every Educational Institutions that are incorporated by Central Act, Provincial Act and States Act cannot be given by one rule because Central Govt. has different affirmative actions for SC/ST/OBC-NCL and PWD and State Govt. has different affirmative actions for SC/ST/OBC-NCL and PWD.

Even though, different State Govt(s) have different affirmative actions for SC/ST/OBC-NCL and PWD.For the Central Educational Institutions, Central provision will apply and for the State’s Educational Institutions States provision will apply. Central Govt. has a provision of Concession in marks in minimum eligibility but every State Govt. has not provision of 5% Concession in marks in minimum eligibility for all SC/ST/OBC-NCL and PWD. Here question is, does UGC has the Power/Right to grant such concession in minimum eligibility in marks? Under which rule/law, UGC has the power to grant such a concession in minimum eligibility for admission to all the Universities and other Educational institutions that are incorporated or established by a Central Act, a Provincial Act or a States Act? If there is no rule/law, then University Grants Commission should make provision as per law and before publishing it in form of a Gazette, the concerned Ministry and the Parliament should carefully examine the Regulation.


*Author is Ph.D. Scholar at Centre for Studies in Economics & Planning, Central University of Gujarat, Gandhinagar, India- 382029. He may be communicated thru email- raghavendra.pahal50@gmail.com

बहनजी एवं बसपा की सक्रियता और मजबूती का आधार

 उत्तर प्रदेश के 2022 में हो रहे विधानसभा चुनावों को लेकर जितनी ज्यादा सक्रिय बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा एवं उत्तर प्रदेश की चार-चार बार की मुख्यमंत्री माननीय बहनजी रही है, उतना कोई और लीडर उत्तर प्रदेश में संगठन और आगामी चुनाव में लड़ने वाले प्रत्याशियों को लेकर सक्रिय नहीं दिखाई दिया। यही कारण है कि उन्होंने अपने दल के महासचिवों एवं विभिन्न कोऑर्डिनेटरो को अपने दिशा निर्देशन में लगभग 500 से अधिक कार्यकर्ता सम्मेलन करवा दिए।

तो दूसरी ओर उन्होंने उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव के लिए अपने दल के 403 प्रत्याशियों में से लगभग 345 प्रत्याशियों के नाम अनौपचारिक रूप से फाइनल कर दिए। सूत्र बताते हैं कि इसके लिए उन्होंने दिन रात एक कर प्रत्याशियों के आंकड़े इकट्ठा करवाए और साथ ही साथ अपने बूथ तक के कार्यकर्ताओं से मंत्रणा कर यह टिकट फाइनल किए। शायद यह सब काम इसलिए संभव हो पाया है कि वह पिछले 6 महीने से इन कार्यक्रमों में व्यस्त रही हैं। यह बात और है कि मीडिया उनकी इस व्यस्तता को और 180 दिन की मेहनत को देख नहीं पा रही है।

जहां मीडिया एवं सवर्णवादी तथाकथित बुद्धिजीवी बहन जी की सक्रियता को नहीं देख पा रहे हैं वही वे करदाताओं के पैसे पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाने के लिए आयोजित कार्यक्रमों को भारतीय जनता पार्टी की रैली कहकर महिमामंडित कर रहा है। और यह कथानक अर्थात नरेटिव गढ़ रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के लोग बहुत सक्रिय हैं, लेकिन बहनजी सक्रिय नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश का हर एक मतदाता यह जानता है कि वर्तमान सरकार के खिलाफ बहुत ही कड़ी एवं गहरी एंटी इनकंबेंसी अर्थात सत्ता विरोधी लहर चल रही है। अपने खिलाफ चल रही सत्ता विरोधी लहर को रोकने के लिए भारतीय जनता पार्टी सरकारी कार्यक्रमों को अपने दल का कार्यक्रम बनाकर प्रस्तुत कर रही है। इसलिए अगर भारतीय जनता पार्टी मीडिया को सक्रिय दिखाई दे रही है तो उसे यह बताना चाहिए कि यह सक्रियता भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार की नकारात्मक छवि को दुरुस्त करने के लिए कर रही है, न कि वह कोई एजेंडा सेट कर रही है। तो इसका मतलब यह हुआ कि अगर सरकार के खिलाफ बहुत अधिक सत्ता विरोधी लहर लहर है और मीडिया उसके साथ है तो वह ज्यादा सक्रिय अवश्य दिखाई पड़ेगी। लेकिन यहां पर सत्ता विरोधी लहर ज्यादा मायने रखती है ना कि उनकी सक्रियता।

दूसरी तरफ पीआर एजेंसी एवं इवेंट मैनेजर्स के बताए हुए तरीके से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष रोड-शो कर रहे थे। सभी जानते हैं कि जब संगठन में शक्ति नहीं होती और संगठन के अंदर कार्यकर्ताओं को अनुशासित रूप से तैयार ना किया गया हो तो आप जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की रैली तो दूर, आप अपने राजनीतिक दल का कार्यकर्ता सम्मेलन भी नहीं कर सकते और ऐसी स्थिति में एक मजबूर दल कार्यकर्ताओं की रैली के बदले रोड शो करने पर मजबूर हो जाता है। पीआर एजेंसी के तहत इसको मीडिया में सक्रियता का कथानक गढ़ दल को बढ़ा चढ़ा कर के दिखाया जाता है। यद्यपि जमीनी स्तर पर राजनीतिक दल का संगठन जीण – क्षीण पड़ा हुआ होता है। सपा का संगठन जमीनी स्तर पर जीण-क्षीण इसलिए भी कहा जा सकता है कि वह इस स्थिति को भाप कर ही छोटे-छोटे दलों से गठबंधन की बात कर रहे हैं और आनन-फानन में भारतीय जनता पार्टी से आए हुए अनेक नेताओं को अपने दल में शामिल कर उनका टिकट भी फाइनल कर रहे हैं। पर अफसोस इस बात का है कि समाजवादी पार्टी की इस कमजोरी से पार पाने के लिए किए जा रहे जुगाड़ को लोग समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष की सक्रियता बताकर उनको उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में मुख्य विपक्षी दल बता रहे हैं।

बहनजी की सक्रियता और पश्चिम उत्तर प्रदेश का चुनावी समीकरण

यह माननीय बहनजी के अथक परिश्रम का ही फल है कि आज बहुजन समाज पार्टी पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपने प्रत्याशियों की दो लिस्ट जारी कर सभी समाजों के सप्तरंगी धनुष की तरह अपनी चुनावी संघर्ष एवं लड़ाई को आगे बढ़ा रही है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में उन्होंने बघेल, पाल, गंगवार, पटेल, लोधी, कश्यप, यादव, सैनी, शाक्य, शर्मा, मिश्रा एवं अल्पसंख्यक, जाट आदि सभी को अपनी चुनावी लिस्ट में प्रत्याशी बनाकर उतारा है। साथ ही साथ धर्मवीर चौधरी को राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं पांच मंडलों यथा – मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, आगरा, अलीगढ़ का कोऑर्डिनेटर नियुक्त कर जातियों के समीकरण को और भी गहरा कर दिया है। वहीं पर सुरेश कश्यप को एमएलसी पद देखकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपना आधार और बढ़ा लिया है। उपरोक्त जातियों के समीकरणों एवं अपने कार्यकर्ताओं को संगठनात्मक ढांचे में ताकत देकर बहन जी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के चुनावी समीकरण को अपने पक्ष में मोड़ लिया है जिसके कारण सभी दल सकते में आ गए हैं और अपना चुनावी समीकरण टूटते हुए देख रहे हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बहनजी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी भीम राजभर को आजमगढ़ से लड़ाने का फैसला कर राजभर जाति में अपना आधार पुनः सुनिश्चित करने का फार्मूला चल दिया है। यहां यह बताना समीचीन होगा कि भीम राजभर बहुजन समाज पार्टी के उत्तर प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष हैं और वह स्वयं इलेक्शन भी लड़ रहे हैं जिससे राजभर समाज में एक नई ऊर्जा प्रस्फुटित हो रही है और वह बहुजन समाज पार्टी की ओर देखने लगे हैं।

इसी कड़ी में यह बहन जी की दूरदर्शिता, अथक प्रयास एवं मेहनत का ही फल है कि आज दूसरे दलों के लीडरों को बहुजन समाज पार्टी इतनी मजबूत दिखाई दे रही है कि वह भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, आरएलडी आदि पार्टियों को छोड़कर बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम रहे हैं। उदाहरण के लिए मुजफ्फरनगर से पूर्व मंत्री सलमान सईदुज्जमा के बेटे ने कांग्रेस छोड़कर बहुजन समाज पार्टी को ज्वाइन किया। हापुड़ से मदन चौहान एवं बदायूं से ममता शाक्य ने समाजवादी पार्टी छोड़ कर बहुजन समाज पार्टी का दामन थामा। इसी प्रकार गाजियाबाद में भाजपा के के के शुक्ला ने अपने पार्षद के साथ बहुजन समाज पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। सहारनपुर के पूर्व केंद्री मंत्री रशीद मसूद के भतीजे ने भी बहुजन समाज पार्टी को कांग्रेस से ज्यादा अहमियत दी। इसी के साथ-साथ नोमान मसूद ने लोकदल छोड़ कर बहुजन समाज पार्टी ज्वाइन कर ली है। यह सभी दूसरे दलों से आए हुए नेता बहुजन समाज पार्टी को इसलिए ज्वाइन कर रहे हैं कि उनको कहीं ना कहीं बहुजन समाज पार्टी अधिक मजबूत दिखाई दे रही है।

पुनः एक बार अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया एवं सवर्णवादी मानसिकता के पैरोकार यू-ट्यूब वालों को बहुजन समाज पार्टी की यह उपलब्धियां एवं बहनजी की सक्रियता इन सब में दिखाई नहीं देती। बहनजी की सक्रियता एवं उनकी छवि की सकारात्मकता को एवं निर्भीकता को देखते हुए निर्भया कांड की वकील सीमा कुशवाहा ने भी बसपा प्रमुख के सामने और उनसे आशीर्वाद लेते हुए बहुजन समाज पार्टी की सदस्यता ग्रहण की, जो अपने आप में बहुजन समाज पार्टी के लिए एक सकारात्मक उपलब्धि है।

इतना ही नहीं बहुजन समाज पार्टी की ताकत एवं बहन जी के नेतृत्व की क्षमता एवं निपुणता का एक और पैमाना जो यहां पर उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है, वह है कि उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे 10 बहुजन समाज पार्टी को इस चुनाव में अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी है। यह पार्टियां हैं 1. इंडिया जनशक्ति पार्टी, 2. सर्वजन आवाज पार्टी, 3.पचासी परिवर्तन पार्टी, 4.विश्व शांति पार्टी, 5.आदर्श संग्राम पार्टी, 6.संयुक्त जनादेश पार्टी, 7. अखंड विकास पार्टी, 8.सर्वजन सेवा पार्टी, 9.जागरूक जनता पार्टी और (10) आधी आबादी पार्टी।

अंत में एक अन्य तथ्य जो बहन जी की सक्रियता एवं बसपा की मजबूती को प्रमाणित करता है, वह है बहुजन समाज पार्टी द्वारा जारी स्टार प्रचारकों की लिस्ट। इस लिस्ट में सभी समाजों का प्रतिनिधित्व दिखाई पड़ता है। बहुजन समाज पार्टी सभी समाजों का प्रतिनिधित्व करती है, इस बात को पुनः प्रमाणित करता है। दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के लीडरों की भी एक अच्छी खासी जमात बहुजन समाज पार्टी में सक्रिय है। इनमें मुनकाद अली, समसुद्दीन राइन, दानिश अली, अफजाल अंसारी, एम. एच. खान, एवं फैजान खान प्रमुख नाम है।

पहले चरण के चुनाव के पहले बसपा प्रमुख मायावती की अपील

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बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले चरण के मतदान के पहले एक प्रेस रिलिज जारी किया है। इसके जरिए बसपा प्रमुख ने अपने समर्थकों से यूपी चुनाव के लिए अपील की है। उन्होंने भाजपा और समाजवादी पार्टी दोनों पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार ही बेहतर सरकार दे सकती है।

बसपा और बहनजी को लेकर क्या सोचता है बहुजन युवा

 जब 2022 उत्तर प्रदेश चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई तो सबसे पहला सवाल यह उठाया जाने लगा कि यूपी में किसके बीच लड़ाई है। इस चर्चा में तमाम सर्वे बसपा को पीछे बता रहे थे। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आने लगी, बसपा ने सबकी बोलती बंद कर दी। बसपा को छुपा रुस्तम बताया जाने लगा। बहुजन युवाओं को लेकर भी कहा जाने लगा कि अब वह मायावती और बसपा को पसंद नहीं करता। इसमें कितनी सच्चाई है, खुद बहुजन युवा से सुन लिजिए। देखिए यह वीडियो-

मुश्किल है जय भीम का ऑस्कर में इतिहास रचना!

    

ऑस्कर में पहुँची जय भीम!

तमिल सुपर स्टार सूर्या और ज्योतिका द्वारा निर्मित और टी जे ज्ञानवेली द्वारा निर्देशित ‘जय भीम’ करोड़ो भारतीयों को विस्मित करने के बाद अब फिल्मों के नोबेल पुरस्कार  ऑस्कर अवार्ड के क्वार्टर फाइनल में पहुच गयी है. ऑस्कर अवार्ड का आयोजन करने वाली एकेडमी ऑफ़ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज ने पूरी दुनिया से आई जिन 276 फिल्मों को अवार्ड के लिए एलिजिबल माना है, उसमे जय भीम भी शामिल है. पुरस्कार के लिए शार्टलिस्ट होने के बाद ऑस्कर अपने आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर इसके चुनिन्दा दृश्यों को प्रसारित कर रहा है, जो इसके लिए गर्व का विषय है. इसके पहले शायद किसी और तमिल फिल्म कोयह गौरव नहीं मिला था. ऐसा होने पर फिल्म के निर्माता और अभिनेता सूर्या शिवकुमार एक बार फिर बधाइयों के सैलाब में डूब गए है और जय भीम सोशल मीडिया में नए सिरे चर्चा का विषय बन गयी है. भारतीय फिल्म प्रेमियों के लिए डबल ख़ुशी की बात है कि सूर्या और लिजोमोल जोशअभिनीत जातिगत भेदभाव का घिनौना और वीभत्स रूप प्रदर्शित करने वालीतमिल फिल्म ‘जय भीम’ के साथ हीपिछले वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित मोहल लाल की एक्शन एडवेंचर मलयालम पीरियड फिल्म ‘मरक्कर: अरेबिकदलिनते सिंमहम’ भी 276 की शार्ट लिस्ट में शामिल हो गयी है.

दक्षिण भारत फिल्मोद्योग की दो फिल्मो का ऑस्कर में यहाँ तक का सफ़र तय करना इस बात इस बात का संकेतक है कि बाहुबली और पुष्पा इत्यादि देने वाला दक्षिण भारत अब बॉलीवुड को अब काफी हद तक म्लान कर चुका है. बहरहाल 94 वें ऑस्कर के शॉर्ट लिस्ट में पिछले वर्ष के मुकाबले इस बार 90 फिल्मे कम शामिल की गयी हैं. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि एलिजिबिलिटी की लिस्ट में इस बार 1 जनवरी के बजाय 1 मार्च से लेकर 31 दिसंबर, 2021तक प्रदर्शित फिल्मों को ही शामिल किया गया है. खैर!94 वें ऑस्कर पुरस्कार के नॉमिनेशन की प्रक्रिया 27 जनवरी से शुरू होकर 1 फ़रवरी तक चलेगी और 8 फ़रवरी को फिल्मों के विभिन्न कटेगरी के नॉमिनेशन की घोषणा होगी. उसके बाद 27 मार्च को लॉस एंजिल्स के डॉल्बी थियेटर में पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित होगा. बहरहाल 2 नवम्बर,2021 में ओटीटी प्लेटफार्म एमेजॉन प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई जय भीम आईएमडीबी में विश्व विख्यात फिल्म ‘द गॉडफादर’ को पछाड़ते हुए 9.6 की रेटिंग दर्ज कराने सहित  गोल्डन ग्लोब्स 2022 के बेस्ट नॉन- इंग्लिश फिल्मों की कटेगरी में शामिल होने बाद ऑस्कर के लिए शार्टलिस्टेड होकर भारतीय फिल्म प्रेमियों की उम्मीदें बढ़ा दी है .अब  इसे लेकर लोगों के जेहन में सवाल उठ रहा है कि ऑस्कर जो काम मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे, लगान नहीं कर पाई, क्या जय भीम वह कर दिखाएगी? इसे समझने के लिए जरा ऑस्कर में पहुंची भारतीय फिल्मों का सिंहावलोकन कर लिया जाय.

ऑस्कर में भारतीय फिल्में

 ऑस्कर अवार्ड की शुरुआत 1929 से हुई, किन्तु औसतन 800 फिल्में हर साल बनाने वाले भारत की ओर से इसमें अवार्ड के लिए फ़िल्में भेजने का सिलसिला 1957 में बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ से शुरू हुआ और पिछले साल तमिल फिल्म ‘कूड़ांगल’ को मिलाकर अबतक 55फ़िल्में  भेजी जा चुकी हैं. इन 55 में बॉलीवुड की 33 हिंदी और 11 तमिल फिल्मे ऑस्कर के लिए भेजी गई है. इसके अलावा मलयालम की तीन, मराठी और बांग्ला की दो-दो तथा तेलगू, असमी, गुजराती और कोंकणी की भी एक-एक फ़िल्में ऑस्कर के लिए भेजी गई हैं, लेकिन अभी तक एक भी फिल्म ऑस्कर जीतने में समर्थ नहीं हुई. भारत के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि तीन फिल्मो ने विदेशी फिल्मों की 5 बेस्ट कटेगरी में शामिल होकर अर्जित किया है. पहली बार 1958 में महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया को बेस्ट फॉरेन फिल्म कैटेगरी में नॉमिनेट किया गया, किन्तु जबरदस्त निर्देशकीय कौसल और तकनीकि भव्यता के बावजूद वह केवल एक वोट से ‘ नाईट ऑफ़ कैरेबिया’ से पीछे रह गयी थी. प्रायः 30 साल बाद ऑस्कर में नॉमिनेट होने का अवसर 1989 में मीरा  नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ को मिला, किन्तु भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई की अप्रिय सचाई को सामने लाने वाली यह फिल्म देश – विदेश में धूम मचाने के बावजूद ऑस्कर जीतने सफल न हो सकी. भारत की ओर से ऑस्कर जीतने की सर्वाधिक सम्भावना आमिर खान निर्मित और आशुतोष गोवारिकर  निर्देशित ‘लगान’ ने जगाया , लेकिन अंत में यह बोस्निया की फिल्म  ‘नो मैन्स लैंड’ के हाथों मात खा गयी.

 भारतीय फिल्मे ऑस्कर में क्योंहोती रही हैं विफल

तो ऑस्कर में  भारतीय फिल्मों को अबतक व्यर्थता ही व्यर्थता मिली है. हाँ, निजी तौर पर रिचर्ड एटेनबोरो और डैनी बॉयल जैसे ब्रितानी फिल्मकारों के सौजन्य से भानु अथैया, एआर रहमान, गुलज़ार, रसूल पोक्कुटी को ऑस्कर ट्राफी उठाने का अवसर मिला है. महान सत्यजित रे भी अपनी खुद की फिल्म के कारण नहीं बल्कि  जीवन भर के कार्यों के कारण ‘ ऑनरेरी  लाइफटाइम  एचीवमेंट’ से ऑस्कर में सम्मानित होने का गौरव पाए थे.  बहरहाल ऑस्कर में भारतीय फिल्मों की व्यर्थता के कारणों की तफ्तीश करते हुए  कई विशेषज्ञों ने कहा है कि भारत से सामान्यतया बॉक्स ऑफिस पर सफल फिल्मों को ही ऑस्कर में भेजा जाता है. इस क्रम में फिल्मों की कहानी और स्क्रीनप्ले की मौलिकता की अनदेखी होती रही हैं. कईयों का मानना है कि भारतीय निर्माता ऑस्कर जीतने के नजरिये से फिल्मों का निर्माण नहीं करते.कईयों का मानना है कि भारतीय फिल्मों की लम्बाई और गाने नॉमिनेट करने वालों को विरक्त कर देते हैं. लेकिन संयोंग से अच्छी फ़िल्में ऑस्कर में पहुँच भी जाती हैं तो आर्थिक कारणों से निर्माता उनका सही तरीके से प्रमोशन नहीं करा पाते. लॉस एंजेलिस में फिल्मों के प्रमोशन पर 10 मिलियन डॉलर के बजट की जरुरत होती है और भारतीय निर्माता उसे पूरा नहीं कर पाते.

बहरहाल जिन कारणों से भारतीय फ़िल्में ऑस्कर में व्यर्थ होती रही हैं, उन कारणों के आधार पर जय भीम की सम्भावना बेहतर नजर दिख रही है. यह लम्बाई और भूरि-भूरि गानों से मुक्त है. इसकी स्टोरी और स्क्रीनप्ले की मौलिकता काफी हद तक प्रश्नातीत है. आईएमडीबी की रेटिंग में विश्वविख्यात ‘द गॉडफादर’ को मात देना तथा ऑस्कर के आधिकारिक यूट्यूब पर इसके खास दृश्यों का प्रसारण इस बात का संकेतक ही यह प्रमोशन की बाधाओं को भी अतिक्रम कर चुकी . ऐसे में 27 मार्च को लॉस एंजेलिस के डॉल्बी थियेटर में इससे कुछ चौकाने वाले परिणाम के प्रति आशावादी हुआ जा सकता है, पर इसके लिए सबसे जरुरी है 8 फ़रवरी को जो नॉमिनेशन की घोषणा होने जा रही है, उसमे यह फॉरेन फिल्मो की कटेगरी के 5 बेस्ट फिल्मों में जगह बनाये. मगर ऑस्कर के लिए आशावादी होने के पहले भारतीय फिल्म प्रेमियों को यह अप्रिय सचाई ध्यान में रखनी होगी कि जिस गोल्डन ग्लोब्स को ऑस्कर का सेमी फाइनल कहा जाता है, उसमें  यह मात खा चुकी है.

गोल्डन ग्लोब्स में भी व्यर्थ रही हैं भारतीय फ़िल्में

ऑस्कर के सेमीफाईनल माने जाने वाले जिस गोल्डन ग्लोब्स को जीतने में जय भीम विफल  हुई है ,उसके विषय में एक नयी जानकारी पाठकों के लिए रोचक होगी. हॉलीवुड फॉरेंन  प्रेस एसोसिएसन(एचऍफ़पीए) द्वारा आयोजित किये जाने वाले गोल्डन ग्लोब्स में फिल्म और टेलीविजन जगत में विशेष उपलब्धियों के लिए देश- विदेश के कलाकारों को  गोल्डन  ग्लोब्स से सम्मानित किया जाता है.  1944 से शुरू हुए गोल्डन ग्लोब्स में आजतक किसी भी भारतीय को गोल्डन ग्लोब्स की ट्राफी नसीब नहीं हुई है. जिस तरह ब्रितानी फिल्मकार-डायरेक्टर डैनी बॉयल के स्लैमडॉग मिलियनेयर से एआर रहमान सहित तीन लोगों को ऑस्कर ट्राफी नसीब हुई थी, उसी तरह एआर रहमान ईकलौते भारतीय जिन्हें 11 जनवरी 2009 को कैलिफोर्निया के बेवरली हिल्टन होटल में आयोजित 66 वें गोल्डन ग्लोब्स समारोह में स्लमडॉग मीलिनियेर में  संगीत के लिए सम्मानित किया गया था. उनके  बाद भारतीय मूल के एक्टर अज़ीज़ अंसारी  को म्यूजिकल कॉमेडी कैटेगरी में टेलीविजन सीरिज ‘ द मास्टर ऑफ़ नॉन’ में बेस्ट एक्टर की ट्राफी चूमने का अवसर मिला था. 2012  के गोल्डन ग्लोब समारोह में एआर रहमान जहाँ दूसरी बार डैनी बॉयल की ही ‘127 आवर्स’ संगीत के लिए सम्मानित होने से चूक गए, वहीँ 2017 में स्लमडॉग मिलिनियेर फेम देव पटेल ‘लायन’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर की ट्राफी जीतने से चूक गए. एआर रहमान के बाद प्रियंका चोपड़ा दूसरी भारतीय है , जिन्हें मंच पर पहुंचकर ट्राफी जीतने का तो नहीं, किन्तु को विजेता की ट्राफी सुपुर्द करने का अवसर मिला. तो जिस गोल्डन ग्लोब्स में सिर्फ एक भारतीय : एआर रहमान को ट्राफी उठाने का अवसर मिला, वह गोल्डन गोल्बस इस बार भीं एक खास कारण से पूरी दुनिया में चर्चा का खास विषय बना.

79 वें गोल्डन ग्लोब्स में डाइवर्सिटी के अनदेखी की काली छाया 

हर बार जनवरी में हॉलीवुड फॉरेन प्रेस एसोसिएसन (एचऍफ़पीए) ऑस्कर के सेमीफाइनल के रूप में  जाने जाने वाला गोल्डन ग्लोब्स अवार्ड 90 अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों की राय से दिया जाता है. ये पत्रकार हॉलीवुड और अमेरिका के बाहर की मीडिया से सम्बद्ध होते है और उनके चयन में नस्लीय विविधता का ख्याल रखा जाता है. 2021 के अक्तूबर में एचऍफ़पीए ने 21 नए मेम्बर्स जोड़े, जिनमे  6 ब्लैक्स रहे. बावजूद इसके एचऍफ़पीए पर आरोप लग गया कि उसने नए सदस्यों के चयन में रेसियल डाइवर्सिटी (नस्लीय विविधता) का पूरा ख्याल नहीं रखा है. ऐसा आरोप लगते ही इस इवेंट का वर्षों से प्रसारण करने वाली एनबीसी  ने 2022 में आयोजित होने वाले 79वें  गोल्डन ग्लोब्स का प्रसारण करने से हाथ खींच लिया. डाइवर्सिटी की अनदेखी की काली छाया से घिरे 79 वें गोल्डन ग्लोब्स अवार्ड वितरण का आयोजन 9 जनवरी को होना था. उसके पहले ही 6 जनवरी को एचऍफ़पीए के तरफ से  यह घोषणा कर दी गयी,’ 79 वें गोल्डन ग्लोब्स  इवेंट में कोई दर्शक नहीं होगा और न ही रेड कारपेट होगा. इस बार का पुरस्कार समारोह प्राइवेट और बिना किसी लाइव स्ट्रीम के किया जायेगा  इसके विजेताओं की घोषणा ऑन लाइन होगी .’ और ऐसा ही हुआ भी . 9 जनवरी को देर रात तक ऑन लाइन विजेताओं की घोषणा होती रही.

गोल्डन ग्लोब्स 2022 में ‘किंग रिचर्ड’ के लिए बेस्ट एक्टर के विजेता घोषित हुए अश्वेत महानायक विल स्मिथ; बीइंग द रिकार्डोस के लिए बेस्ट ऐक्ट्रेस चुनी गईं आस्ट्रेलियन ब्यूटी  निकोल किडमैन. इस समारोह में दबदबा रहा ‘द पॉवर  ऑफ़ गेम’ का, जिसने बेस्ट पिक्चर का ख़िताब जीता. इसी फिल्म के लिए बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड जे कैम्पियन के हिस्से में आया. जिस गोल्डन ग्लोब्स के रेड कारपेट पर चलना बड़े-बड़े सितारों के लिए गौरव की बात होती रही है, उन्हें उससे महरूम होना पड़ा. लॉस एंजेलिस का जो बेवरली हिल्टन होटल गोल्डन ग्लोब्स अवार्ड के दिन दुनिया भर के सेलिब्रेटीज और चुनिदा दर्शकों से भर जाता रहा, उस होटल हिल्टन में 9 जनवरी को सन्नाटा छाया रहा. वजह रही सिर्फ और सिर्फ डाइवर्सिटी की अनदेखी, जिसकी अहमियत का अंदाजा भारत के आम तो आम तो बहुत से खास लोग भी नहीं लगा सकते. यहाँ तो फिल्म फेयर से लेकर साहित्य अकादमी जैसे बड़े पुरस्कार ही नहीं ; छोटे-बड़े तमाम पुरस्कारों की चयन समितियां विविधता रहित होती हैं, जो गुणवत्ता के बजाय स्व-जाति/ वर्ण को अहमियत देती हैं. इससे न तो पुरस्कार देने वालों को शर्म आती है न लेने वालों को.

जय भीम का भी हो सकता है : मदर इंडिया- सलाम बॉम्बे- लगान जैसा हस्र!

बहरहाल 79 वें गोल्डन ग्लोब्स में जय भीम की विफलता से कयास लगाया जा सकता है कि इसका भी हस्र मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान जैसा ही हो सकता है. किन्तु विविधता प्रेमियों के लिए  गोल्डन ग्लोब्स से एक सुखद सन्देश मिला है. शायद यह पहला अवसर है जबकि ऑस्कर के सेमीफाइनल कहे जाने वाले गोल्डन ग्लोब्स में बेस्ट एक्टर की कैटेगरी के 5 बेस्ट में तीन अश्वेत एक्टरों : डेंजिल वाशिंग्टन, विल स्मिथ और माहेरशाला अली को जगह मिली है . इनमें विल स्मिथ के साथ एरियाना देबोस ने बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्ट्रेस और माइकेला जो रोड्रिज ने टीवी ड्रम के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड जीत कर संकेत दिया है कि 27 मार्च को लॉस एंजेलिस के डॉल्बी थियेटर में डाइवर्सिटी का रंग उसी तरह जमेगा, जैसे 2002 में डेंजिल वाशिंग्टन और हैलीबेरी के क्रमशः बेस्ट एक्टर और ऐक्ट्रेस का ट्राफी जीतने के साथ ही महान सिडनी पोयटीयर के लाइफटाइम  एचीवमेंट अवार्ड पाने से जमा था. मुमकिन है एक बार फिर हम 27 मार्च को डॉल्बी थियेटर निकोल किडमैन की डबडबायी आँखों का साक्षात् करे करें जिस 2002 हैलेबेरी को सम्मानित होते देख उनकी आँखे ख़ुशी भर आई थीं.

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क- 9654816191)

बहनजी का पंजाब दौरे का ऐलान, इस दिन नवांशहर में करेंगी रैली

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) पंजाब के अध्यक्ष जसवीर गढ़ी ने शुक्रवार को कहा कि शिरोमणि अकाली दल-बसपा गठबंधन पंजाब में स्पष्ट बहुमत के साथ अगली सरकार बनाएंगे। शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन को दोहराते हुए उन्होंने कहा कि बहन मायावती 8 फरवरी से पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए नवांशहर सेविशाल रैली से अभियान शुरू करेंगी। उन्होंने आगे कहा, अब जब शिअद-बसपा पंजाब में चुनाव लड़ रही हैं तो कांग्रेस का सफाया होना निश्चित है । गढ़ी ने कहा कि बसपा-शिअद गठबंधन 2022 के विधानसभा चुनाव में जीत के साथ पंजाब को कांग्रेस पार्टी के कुशासन से मुक्त करेगा।

उन्होंने कहा कि बसपा सुप्रीमो बहन मायावती के दिल में पंजाब का खास स्थान है और बसपा के संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम भी पंजाब के ही थे।

गढ़ी ने बताया कि बसपा ने 20 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने के फैसले से कांग्रेस में घबराहट है , बसपा पंजाब इकाई के अध्यक्ष जसवीर सिंह गढ़ी ने शुक्रवार को एक प्रेस बयान में कहा, पार्टी कार्यकर्ताओं को ईमानदारी से काम करना चाहिए और प्रत्येक सीट पर बसपा-शिअद गठबंधन की जीत के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना है कि बसपा-शिअद पंजाब में एक लोकप्रिय सरकार बनाए जो जनता के कल्याण और विकास के लिए काम करे।

पंजाब में कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट बताते हुए, गढ़ी ने कहा, यह सरकार सभी मोचरें पर विफल रही। पंजाब के लोग कांग्रेस सरकार के कुशासन से मुक्त होना चाहते हैं। कांग्रेस नेताओं के बीच कलह के कारण लोगों के कल्याण की अनदेखी की गई है। बसपा और शिअद कार्यकर्ताओं को गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने के लिए अपने मतभेदों को भूल जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि घबराहट में कांग्रेसी सभी तरह के हथकंडे अपना रही है बीते दिनों उन्होंने बसपा की 20 सीटों देने के बाबत विरोध प्रकट करने में अपने डमी समर्थक खड़े किए हुए थे , दूसरी ओर भाजपा की सीटें तो 23 हैं लेकिन उनका वोट प्रतिशत सिर्फ 19 प्रतिशत बनता है जबकि बसपा की 20 सीटों से ही 17% वोट प्रतिशत है।

उन्होंने कहा कि कांग्रेस के दलित सीएम चरणजीत सिंह चन्नी बार-बार दोआबे का चक्कर लगा रहे हैं वह दलितों को अपनी सरकार को ही दलितों की सरकार कहकर वोट मांग रहे हैं यह उनकी घबराहट की निशानी है

पत्रकारिता, देश और नौजवान

आज का दिन भी बहुत खास है। दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के पहले पृष्ठ पर एक तस्वीर है। इस तस्वीर में वैसे तो देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और टाटा समूह के अध्यक्ष एन चंद्रशेखरन अलग-अलग कुर्सियों पर बैठे हैं। लेकिन खबर के लिहाज से दोनों में से एक खरीदार है तो दूसरा बेचनेवाला। खरीदार तो खैर खरीदार है, लेकिन बेचनेवाला देश का प्रधानमंत्री। अत्यंत ही गहरे निहितार्थ लिए यह तस्वीर यह बताने के लिए काफी है कि यह जो विशाल देश है, उसे चलाने की कुव्वत मौजूदा सरकार के पास नहीं है। दिलचस्प इससे जुड़ी दो खबरें और हैं। एक खबर में चंद्रशेखरन यह कह रहे हैं कि उन्होंने पीएम से वादा किया है कि वे एयर इंडिया को विश्वस्तरीय गुणवत्ता वाला बना देंगे। दूसरे खबर में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सहित आधा दर्जन बैंकों ने टैलेस (टाटा समूह की कंपनी, जो कि वास्तविक खरीदार है) को कर्ज ऑफर किया है।

अब मैं यह सोच रहा हूं कि जब चंद्रशेखरन ने मोदी से यह कहा होगा तो मोदी की प्रतिक्रिया क्या रही होगी। क्या उन्हें यह नहीं लगा होगा कि जो काम उन्हें करना चाहिए था, अब वही करने का दावा यह व्यापारी कर रहा है? हो सकता है कि उन्हें शर्मिंदगी भी हुई होगी, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति न तो जनसत्ता द्वारा प्रकाशित तस्वीर में है और ना ही सरकारी बयानों में। मुमकिन है कि उन्हें शर्मिंदगी या किसी तरह की पीड़ा नहीं हुई हो क्योंकि पीड़ा तो उसे होती है जो कुछ सृजन करता है। करीब 69 साल पहले नेहरू ने टाटा से एयर इंडिया को हासिल किया था। उसे सबसे प्रतिष्ठित विमानन कंपनी के रूप में स्थापित किया। अगर नेहरू को यह कंपनी बेचनी होती तो निश्चित तौर पर उन्हें पीड़ा होती।

खैर, आज मेरे सामने बिहार और यूपी के करोड़ों नौजवानों का सवाल है। पिछले एक सप्ताह से नौजवान आंदोलनरत हैं। मामला रेलवे में ग्रुप डी की नौकरियों का है। अभी तक जो आंकड़े मेरे संज्ञान में आए हैं, उनके हिसाब से करीब डेढ़ करोड़ अभ्यर्थियों ने रेलवे भती बोर्ड/एनटीपीसी (नन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी) के पदों के लिए आवेदन किया। इनमें स्नातक और इंटर लेवल के अभ्यर्थी थे। पहले तो यह किया गया कि दो अलग-अलग शैक्षणिक योग्यताओं वालों की एक परीक्षा ली गयी। जाहिर तौर पर इसमें स्नातक उत्तीर्ण अभ्यर्थियों ने बाजी मारी। फिर यह किया गया कि इंटर लेवल के पदों पर भी उनकी हिस्सेदारी तय कर दी गयी। कुल 3 लाख 80 हजार अभ्यर्थियों को सफल घोषित किया गया। लेकिन में 40 फीसदी ऐसे थे, जिन्हें दो या दो से अधिक पदों पर सफल घोषित किया गया।

अब अभ्यर्थी आंदोलन कर रहे हैं और पुलिस उनका दमन भी क्रूरतापूर्वक कर रही है। इलाहाबाद का जो दृश्य सामने आया है, वह तो पुलिसिया दमन की पराकाष्ठा है, जिसमें पुलिसकर्मी अभ्यर्थियों को मां-बहन की गालियां दे रहे हैं और रायफल के कुंदे से उनके दरवाजे तोड़ रहे हैं। ऐसे ही दृश्य पटना के भिखना पहाड़ी इलाके में भी देखने को मिले।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आज पटना से प्रकाशित सभी अखबारों में एक झूठ को लीड खबर बनाकर प्रकाशित किया गया है। खबर के मुताबिक सुशील कुमार मोदी ने केंद्रीय रेल मंत्री से मुलाकात की है और बकौल मोदी रेलमंत्री ने तमाम मांगें मान ली हैं। जबकि मैं रेल मंत्री का आधिकारिक ट्वीटर और रेल मंत्रालय का आधिकारिक वेबसाइट देख रहा हूं और इनमें कहीं भी मांगों को माने जाने की खबर नहीं है।

बहरहाल, अखबारों की उपरोक्त कवायद अभ्यर्थियों के आंदोलन को विफल करने की साजिश है। मैं तो यह सोच रहा हूं कि आज की पत्रकारिता की परिभाषा क्या है। पटना से प्रकाशित एक स्वघोषित प्रतिष्ठित अखबार के स्थानीय संपादक जो कि मेरे मित्र भी हैं, उन्होंने कहा कि जो खबर आज के पहले पन्ने पर लीड के रूप में प्रकाशित है, वह सीधे दिल्ली से भेजी गई है और दिल्ली से भेजी जाने वाली खबरों को हू-ब-हू छापना मेरी मजबूरी है।

सचमुच मैं आज की पत्रकारिता की परिभाषा के बारे में सोच रहा हूं।

– नवल किशोर कुमार

चन्द्र शेखर आजाद के राजनीति में आने के मायने।

जो लोग यह कहते थे कि चन्द्र शेखर आज़ाद युवाओं को बर्बाद कर रहे हैं उनकी चिंता अब और बढ़ गई है क्योंकि चन्द्र शेखर आज़ाद के सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन में आने से हज़ारों लोगों को नेतृत्व करने का मौका मिला रहा है।पहले ही चुनाव में बड़ी संख्या में ग्राम, प्रधान, बीडीसी और जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लोग जीते हैं । आसपा बुलन्दशहर के विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस और आरएलडी से भी आगे रही। अब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर राज्यों में विधायक पद के उम्मीदवार हैं। बढ़ता जनाधार उन्हें एक दिन विधानसभा व लोक सभा में पहुँचायेगा।

वह समाज जो लम्बे समय तक एक पार्टी विशेष को वोट देता रहा उसकी समस्यओं में उस पार्टी के नेता साथ खड़े होने के बजाए नदारद नज़र आये। समाज में जहाँ कहीं अन्याय अत्याचता होता है तो लोग भीम आर्मी के लोगों से सम्पर्क करते हैं। लेकिन एक नेता विशेष की भक्ति में डूबे लोग पीड़ित के साथ खड़े होने के बजाए भीम आर्मी के युवाओं को भड़काते हैं कि आप अपना कैरियर खराब कर रहे हैं। ये वह लोग हैं जिन्हें समाज में हो रहे रेप, हत्या, लूटपाट, आगजनी, महंगाई, अत्याचार, अन्याय आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर इन्हें फर्क पड़ता तो यह और इनके शीर्ष नेता पीड़ितों के इंसाफ की आवाज बुलंद करते। हाथरस में रेप पीड़िता व शहीद बहन मनीषा वाल्मीकि की हत्या में यह लोग गयाब थे और भीम आर्मी लड़ रही थी। इन्हें मुसलमानों का वोट चाहिए लेकिन उनके समर्थन में नहीं खड़ा होना है। चन्द्र शेखर आज़ाद CAA, NRC, NPR की लड़ाई में सबसे आगे रहे और जामा मस्जिद से गिरफ्तार हुये। किसान आंदोलन में यह लोग शामिल ही नहीं हुये चन्द्र शेखर आज़ाद आसपा व भीम आर्मी के साथियों के साथ संघर्ष करते रहे और अंततः जीत हुई। यह लोग प्रयागराज में जब चार दलितों (पासी समुदाय) के लोगों की हत्या हुई तो वहाँ परिजनों से मिलने तक नहीं गये। NEET परीक्षा में जब ओबीसी आरक्षण घोटाला हुआ तो ओबीसी आयोग और दिल्ली में पहला धरना प्रदर्शन भीम आर्मी व आसपा ने किया जिसमें सरकार को झुकना पड़ा और हमारी जीत हुई। गोरखपुर में अनीस कन्नौजिया की जब अंतर जातीय विवाह करने से हत्या हुई तो उनके इंसाफ की लड़ाई में चन्द्र शेखर आज़ाद अपनी टीम के साथ सबसे पहले पहुँचे। हिसार हरियाणा में विनोद वाल्मीकि की हत्या हुई तो उन्हें इंसाफ दिलाने भीम आर्मी व आसपा वहाँ गई। उत्तराखंड में दलित के खाना छूने पर सवर्णों द्वारा हत्या हुई तो परिजनों से मिलने चन्द्र शेखर आज़ाद गये। मध्य प्रदेश के पंचायत चुनाव में ओबीसी का आरक्षण जब खत्म हुआ तो उस लड़ाई में भीम आर्मी व आसपा के लोग सबसे आगे थे। इस लड़ाई में पूना से भोपाल पहुँचें एअरपोर्ट से पुलिस ने चन्द्र शेखर आज़ाद को गिरफ्तार किया और बहुजनों की बात करने वाले नेता ओबीसी आरक्षण पर चुप रहे।

जो लोग समाज की किसी भी लड़ाई में हिस्सा नहीं ले रहे हैं चुनाव के समय उन्हें समाज याद आ रहा है और ये बेशर्म लोग उन्हीं पीड़ितों के घर वोट मांगने जा रहे हैं जिनकी लड़ाई में ये अपने एसी कमरे से बाहर ही नहीं निकले।

जो समाज में हो अन्याय अत्याचार की लड़ाई में समाज के साथ न खड़ा हो कृपया उसको अपना वोट देकर अपने बच्चों का भविष्य खतरे में न डालें। जीतने के बाद यह लोग अपने साथ खड़े नहीं होंगे चन्द्र शेखर आज़ाद भीम आर्मी व आसपा के साथी हर सामाजिक न्याय की लड़ाई में सड़क से संसद भवन तक लड़ते नज़र आयेंगे क्योंकि इनके लिए समाज सबसे पहले है।

डॉ. बाल गंगाधर बाग़ी पीएच.डी जे एन यू, नई दिल्ली।

चुनावी माहौल में दलित और महिला पहचान 

वर्ष 2022 की शुरुआत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ हुई है, भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावों के लिए अनेकों नियम व शर्तें बनाए हुए हैं और उन्हें चुनावों के समय सख्ती से लागू करता है। परन्तु इन सबके बावजूद राजनीतिक दल और राजनेता आम जन को अपने पक्ष में करने के लिए समय समय पर इन नियम व शर्तों को अनदेखा करते हैं और कई बार इसमें मीडिया भी उनका सहयोग करता हुआ प्रतीत होता है। जैसे हम देखें दिनांक 22 जनवरी 2022 को भारत के बड़े अखबार “जनसत्ता” के पहले पेज पर पहली खबर छपी “आठ दलितों को मिला टिकट” ये खबर पंजाब से सम्बन्धित है, कि पंजाब में भारतीय जनता पार्टी ने अपने 34 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की और जनसत्ता ने अपनी इस महत्वपूर्ण खबर में बताया कि इनमें 13 सिखों को, 12 किसानों को और 8 दलितों को टिकट मिला है।

हमें ये भी देखना होगा कि ये कोई खैरात में दलितों को टिकट नहीं दिए गए क्योंकि जिन आठ उम्मीदवारों की घोषणा की गई है वो सभी आरक्षित सीटों से चुनाव लडेंगे, अर्थात उन सीटों पर भारतीय संविधान के अनुसार केवल दलित ही चुनाव लड़ सकते हैं ।   इसके साथ साथ अखबार द्वारा सीटों का जो वर्गीकरण किया गया है वो तीन अलग अलग मापदंडों को दर्शा रहा है, पहले में अखबार ने धर्म को लिया, दूसरे मे काम को और तीसरे में जाति को। इसके बाद अखबार ने जातीय पहचान को अपनी हेडलाइन बनाया क्यूंकि ये पाठकों को सबसे ज्यादा आकर्षित करती प्रतीत हो रही है। हालांकि ये हेडलाइन तब बननी चाहिए थी जब किसी गैर आरक्षित सीट से दलित समुदाय के व्यक्ति को पार्टी द्वारा उम्मीदवार बनाया जाता, परंतु ऐसा नहीं हुआ इसलिए प्रश्न ये है कि सबसे ज्यादा 13 उम्मीदवार सिख समुदाय से संबंध रखते है, 12 किसान परिवारों से तो फिर सबसे कम 8 उम्मीदवार वाले दलित समुदाय को लेकर अखबार ने अपने पहले पेज पर सबसे पहली हेडलाइन क्यों बनाई?

इसी प्रकार महिलाओं को लेकर जनसत्ता ने ही अपने 21 जनवरी के संस्करण में पहले पेज पर खबर दी कि कांग्रेस पार्टी ने अपने उम्मीदवारों की दूसरी सूची में 16 महिलाओं को दिए टिकट। जब कोई पार्टी किसी महिला या दलित को टिकट देती है तो ये खबर आकर्षण का मुद्दा क्यों बन जाती है? क्यों अखबार और मीडिया के अन्य संस्थान उस खबर को सबसे ज्यादा दिखाना और चलाना चाहते हैं?

इसका सीधा सा जवाब है कि चुनावी माहौल में दलित और महिलाएं दोनों ही चर्चा का विषय हैं क्योंकि मतदाताओं के समूह में इन दोनों वर्गों की बड़ी संख्या है ,इसलिए प्रत्येक राजनीतिक दल इन्हे अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है।

जैसे कि दलित पंजाब में सबसे बड़ा समूह है और अब जब कांग्रेस पार्टी ने बीते सितंबर में प्रदेश को पहला दलित मुख्यमंत्री दे दिया है तो इस बार प्रदेश में दलितों का खास तरीके से ख्याल रखा जा रहा है, प्रत्येक राजनीतिक दल और राजनेता दलित समुदाय को खुश करने में लगे हुए हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी लगभग हर पांचवा मतदाता दलित है, जिसका देश की राजनीति में सबसे अहम स्थान है, इसलिए अखबार और राजनीतिक दल ऐसी शब्दावलियों का प्रयोग कर रहे हैं ताकि दलित मतदाताओं को लुभाया जा सके।

वहीं कांग्रेस पार्टी ने उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में अपना वनवास खत्म करने के लिए एक नई योजना निकाली है, उन्होंने “लड़की हूं लड़ सकती हूं” का नारा देकर अपने उम्मीदवारों में 40 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की हैं ताकि महिला मतदाताओं को पार्टी की तरफ आकर्षित किया जा सके, परंतु ये काफी नहीं है क्योंकि केवल आरक्षण से काम नहीं होने वाला, जैसे हम देखते हैं कि पंचायतों में लगभग सभी राज्यों में एक तिहाई या आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है और उन सीटों पर महिलाएं चुनाव जीत कर आ भी रही हैं परन्तु उनमें सक्षमता का अभाव पाया जाता है, उनके नाम पर सारे काम उनके पति या घर के अन्य पुरुष करते हैं, इसी प्रकार कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कमज़ोर है वहां तो महिलाओं के लिए “लड़की हूं लड़ सकती हूं” जैसे नारे का प्रयोग कर रही है परन्तु पंजाब, गोवा व उत्तराखंड जैसे राज्यों में जहां पार्टी मजबूत है वहां ऐसा कोई नारा नहीं चल रहा और ना ही 40 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए जा रहे ।

प्रत्येक राजनीतिक दल की चाहत है कि जिस प्रदेश में मतदाताओं का जो समूह अब तक किसी दल का वोट बैंक नहीं बना है उसे अब बनाया जाए। जैसे उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता जागरूक हैं तो यहां पर महिला मतदाताओं पर ध्यान दिया जा रहा है, वहीं पंजाब में दलित मतदाताओं में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की भांति जागरूकता का अभाव है, इसलिए वहां सभी राजनीतिक दलों का मुख्य बल दलित मतदाताओं को लुभाने में लगा हुआ है।

चाहे दलित हों या महिलाएं हर किसी को अपने आप को मजबूत करना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी राजनीतिक दल उनको केवल मात्र वोट बैंक ना माने। उनके साथ एक नागरिक और मतदाता की तरह व्यवहार करें और उन्हें मजबूत करने व मुख्य धारा में शामिल करने के लिए प्रयास किया जाए।

राजेश ओ.पी.सिंह