डॉ. आंबेडकर की भारतीय गणतंत्र की परिकल्पना

26 जनवरी आधुनिक भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तिथियों में एक है। इसी दिन 26 जनवरी 1950 को भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था और भारतीय संविधान को पूरी तरह लागू किया गया था। हालांकि 26 नवंबर 1949 को ही भारतीय संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने संविधान को संविधान सभा को सौंप दिया था और उसे संविधान सभा द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया था, लेकिन भारतीय संविधान पूरी तरह से 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। इसी दिन अतीत के उन सभी कानूनी प्रावधानों को खारिज करते हुए रद्द कर दिया गया, जो भारतीय संविधान से मेल न खाते हों, चाहे वे विभिन्न धर्मों के कानूनी दर्जा प्राप्त प्रावधान हों या ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के कानूनी प्रावधान हों।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी भारत को एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया है। दुनिया में लोकतंत्र के दो रूप हैं- एक सिर्फ लोकतंत्र और दूसरा लोकतांत्रिक गणराज्य। पहले प्रकार के लोकतंत्र का उदाहरण ब्रिटेन है, जहां लोकतंत्र तो है, लेकिन वहां गणतंत्र नहीं है, जापान और स्पेन जैसे अन्य कई देश भी इसके उदाहरण हैं। इन देशों में राष्ट्राध्यक्ष राजा या रानी होते हैं। लोकतंत्रात्मक गणतंत्र का उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस जैसे देश हैं, जहां राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष दोनों प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुने जाते हैं। अमेरिका में राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष एक ही व्यक्ति होता है। 26 जनवरी 1950 को भारत ने लोकतांत्रिक गणराज्य का रास्ता चुना। सिर्फ लोकतंत्र होने का परिणाम यह है कि जहां ब्रिटेन और स्पेन में अभी भी राजा-रानी को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, भले ही वह कितना भी सीमित और औपचारिक क्यों न हो, वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस और भारत जैसे गणतंत्रात्मक लोकतंत्र में राजा-रानी के लिए कोई जगह नहीं है। इसका निहितार्थ यह है कि गणतांत्रिक लोकतंत्र में जन्म के आधार पर किसी को भी स्वाभाविक तौर पर बड़ा नहीं माना जाता है, न तो कोई विशेषाधिकार प्राप्त होता है और न ही किसी भी आधार पर राज्य का कोई पद किसी के लिए जन्म के आधार पर आरक्षित होता है।
डॉ. आबेडकर के नेतृत्व में भारतीय संविधान सभा ने भी गणतंत्रात्मक लोकतंत्र का रास्ता चुना और जन्म-आधारित सभी प्रकार के विशेषाधिकारों और स्वाभाविक तौर पर बड़े होने के दावों को खारिज कर दिया। भारत में वर्ण-जाति व्यवस्था पूरी तरह से जन्म-आधारित विशेषाधिकार और अधिकार विहीनता पर टिकी हुई थी, जिसमें लिंग के आधार पर महिलाओं पर पुरूषों को भी विशेषाधिकार और वर्चस्व प्राप्त था। जन्म और लिंग-आधारित विशेषाधिकार ही ब्राह्मणवाद का मूलतत्व रहा है, इसको खारिज करते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान के माध्यम से भारत में लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव डाली। उन्हें लोकतांत्रिक गणतंत्र कितना प्रिय था, इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में जिस पार्टी की नींव डाली, उस पार्टी का नाम उन्होंने ‘द रिपब्लिकन (गणतांत्रिक) पार्टी ऑफ इंडिया’ रखा।
26 जनवरी 2023को भारतीय गणतंत्र के 72 वर्ष वर्ष पूरे हो रहे हैं। डॉ. आंबेडकर ने यह उम्मीद की थी कि भारत में लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव धीरे-धीरे मजबूत होती जाएगी और यह काफी हद तक हुई भी। जिसका परिणाम है कि वैचारिक तौर पर वर्ण-जाति की पक्षधर आर.एस.एस.-भाजपा को भी अपनी जरूरतों एवं मजबूरियों के चलते ही सही भारत राज्य के राष्ट्राध्यक्ष (राष्ट्रपति) के रूप में दलित समाज से आए एक व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ा। लेकिन इस प्रतीकात्मक उपलब्धि के बावजूद भी डॉ. आंबेडकर का भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य गंभीर खतरे में है और इस पर गहरे संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इस पर सबसे बड़ा खतरा हिंदू राष्ट्र का खतरा है। जिसके संदर्भ में डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि “अगर हिंदू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिंदू कुछ भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा है। इन पैमानों पर वह लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” – (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338) हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र डॉ. आंबेडकर के लोकतांत्रिक गणराज्य के भारत के स्वप्न को धूल-धूसरित करता है। जहां लोकतांत्रिक गणतंत्र में जन्म-आधारित छोटे-बड़े के लिए कोई स्थान नहीं होता, न ही कोई व्यक्ति पुरूष होने के चलते महिलाओं पर किसी प्रकार से वर्चस्व का दावा कर सकता है, वहीं हिंदू राष्ट्र की पूरी परिकल्पना जन्मगत श्रेष्ठता एवं निम्नता और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व पर आधारित है, जिसे किसी भी रूप में डॉ. आंबेडकर अपने लोकतांत्रिक गणराज्य में जगह देने के लिए तैयार नहीं थे। पुरुषों के वर्चस्व से महिलाओं की स्वतंत्रता और स्त्री-पुरुष के बीच समता के लिए उन्होंने हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया और मूलत: यही प्रश्न उनके लिए नेहरू के मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने का मूल कारण बना। इसके साथ हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हिंदूओं के वर्चस्व एवं विशेषाधिकार का दावा करती है। धार्मिक वर्चस्व एवं विशेषाधिकार के लिए भी डॉ. आंबेडकर के लोकतांत्रिक गणराज्य में कोई जगह नहीं थी। उन्होंने लिखा है कि ‘‘हिंदू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिंदू धर्म को खुली छूट मिल जाए-और हिंदुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है-तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिंदू नहीं हैं या हिंदू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दमित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है” (सोर्स मटियरल आन डॉ. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)।
उपरोक्त उद्धरण में डॉ. आंबेडकर साफ शब्दों में हिंदू राष्ट्र को पूर्णत: लोकतंत्र विरोधी और मुसलमानों के अलावा अन्य सभी दमित वर्गों के लिए खतरा मान रहे हैं। डॉ. आंबेडकर के लोकतांत्रिक गणराज्य की परिकल्पना और हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना दो बिलकुल विपरीत ध्रुव हैं, दोनों के बीच कोई जोड़ने वाला सेतु नहीं है, यदि हिंदू राष्ट्र फलता-फूलता है, तो डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित भारत का लोकतांत्रिक गणराज्य खतरे में है। फिलहाल भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य के सम्मुख हिंदू राष्ट्र का गंभीर खतरा आ उपस्थित हुआ है, इस खतरे से भारतीय गणतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी हर उस व्यक्ति की है, जो लोकतांत्रिक गणतंत्र की डॉ. आंबेडकर और संविधान सभा के अन्य सदस्यों की परिकल्पना के साथ खड़ा है।
डॉ. आंबेडकर लोकतांत्रिक गणराज्य को एक राजनीतिक व्यवस्था के साथ सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में भी देखते थे। सामाजिक व्यवस्था का उनका मूल आधार समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर टिका हुआ था। उन्होंने अपनी किताब ‘जाति के विनाश’ में साफ शब्दों में कहा है कि मेरा आदर्श समाज समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित है। समाज के सभी सदस्यों के बीच बंधुता कायम करना उनका लक्ष्य रहा है। बंधुता की यह अवधारणा उन्होंने गौतम बुद्ध से ग्रहण किया था। आधुनिक युग में फ्रांसीसी क्रांति का भी नारा स्वतंत्रता, समता और भाईचारा ही था। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि बंधुता के बिना लोकतांत्रिक गणराज्य सफल नहीं हो सकता है और न ही बंधुता-आधारित राष्ट्र या देश का निर्माण हो सकता है। भारत में बंधुता के मार्ग में दो बड़ी बाधाएं उन्हें दिखी- सामाजिक और आर्थिक। सामाजिक असमानता का भारत में दो आधार स्तंभ रहे हैं और हैं- वर्ण-जाति व्यवस्था और महिलाओं पर पुरुषों का वर्चस्व। उनका मानना था कि वर्ण-जाति व्यवस्था और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के बिना सामाजिक समता और स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती है और बिना समता और स्वतंत्रता के बंधुता कायम नहीं हो सकती है। उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है कि बंधुता सिर्फ उन्हीं व्यक्तियों के बीच कायम हो सकती है, जो समान और स्वतंत्र हों। यानी बंधुता की अनिवार्य शर्त समता और स्वतंत्रता है। डॉ. आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ बंधुता के लिए सामाजिक समता और स्वतंत्रता की अनिवार्यता को स्थापित करती है और उन सभी चीजों के विनाश का आह्वान करती है, जो सामाजिक असमानता की जनक वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करती हो। जिसमें हिंदू धर्म और वे सभी हिंदू धर्मग्रंथ दोनों शामिल हैं, जो वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करते हैं।
यूरोप-अमेरिका के पूंजीवादी समाज के अपने निजी अनुभव और अध्ययन के आधार पर डॉ. आंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आर्थिक असमानता के रहते हुए बंधुता कायम नहीं हो सकती है। सामाजिक समता के साथ आर्थिक समता भी बंधुता की अनिवार्य शर्त है। यूरोप-अमेरिका में काफी हद तक सामाजिक समता थी, लेकिन पूंजीवादी आर्थिक असमानता के चलते बंधुता का अभाव डॉ. आंबेडकर को दिखा । आर्थिक समता के लिए उन्होंने राजकीय समाजवाद की स्थापना का प्रस्ताव अपनी किताब ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में रखा। उन्होंने कृषि भूमि के निजी मालिकाने को पूरी तरह खत्म करने और उसका पूरी तरह राष्ट्रीयकरण करने का प्रस्ताव इस किताब में किया है। इसके साथ उन्होंने सभी बड़े और बुनियादी उद्योग धंधों को भी राज्य के मालिकाने में रखने का प्रस्ताव किया है। कृषि भूमि के पूर्ण राष्ट्रीयकरण और बुनियादी एवं बड़े उद्योग धंधों का पूरी तरह राष्ट्रीयकरण के माध्यम से ही आर्थिक समता हासिल की जा सकती है, यह डॉ. आंबेडकर के चिंतन का एक बुनियादी तत्व है। सामाजिक समता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा ब्राह्मणवाद है और आर्थिक समता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा पूंजीवाद है। इन्हीं दोनों तथ्यों को ध्यान में रखते हुए डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद एवं पूंजीवाद को कामगारों के सबसे बड़े दो दुश्मन घोषित किए।
डॉ. आंबेडकर की नजर में लोकतांत्रिक गणराज्य की अनिवार्य शर्त सामाजिक एवं आर्थिक समता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संविधान सभा के समक्ष संविधान प्रस्तुत करते समय कहा था कि हमने राजनीतिक समता तो हासिल कर ली है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक समता हासिल करना अभी बाकी है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हम सामाजिक और आर्थिक समता हासिल करने में असफल रहे तो राजनीतिक समता भी खतरे में पड़ जाएगी। आज भारत का लोकतांत्रिक गणराज्य गंभीर खतरे में है। एक तरफ हिंदू राष्ट्र की परियोजना के नाम पर नए सिरे से नए रूप में वर्ण-जाति व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश चल रही है और सामाजिक समता के डॉ. आंबेडकर के स्वप्न को किनारे लगाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ सार्वजनिक संपदा और सार्वजनिक संपत्ति को विभिन्न रूपों में कार्पोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है और इस तरह से डॉ. आंबेडकर के राजकीय समाजवाद के स्वप्न का खात्मा किया जा रहा है।
डॉ. आंबेडकर की बंधुता की जड़ें बुद्ध धम्म में थीं। उन्होंने साफ शब्दों में लिखा है कि “सकारात्मक तरीके से मेरे सामाजिक दर्शन को तीन शब्दों में समेटा जा सकता है- मुक्ति, समानता और भाईचारा। मगर, कोई यह न कहे कि मैंने अपना दर्शन फ्रांसीसी क्रांति से लिया है। बिलकुल नहीं। मेरे दर्शन की जड़ें राजनीतिशास्त्र में नहीं, बल्कि धर्म में हैं। मैंने उन्हें… बुद्ध के उपदेशों से लिया है…। (क्रिस्तोफ़ जाफ्रलो, पृ. 159) वे बंधुता-आधारित लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए बुद्धमय भारत की कल्पना करते थे। बुद्धमय भारत उनके लिए वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित वैदिक, सनातन, ब्राह्मणवादी और हिंदू भारत का विकल्प था। बुद्धमय भारत उनके समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित भारत के स्वप्न का एक अन्य आधार स्तंभ था। डॉ. आंबेडकर के प्रयासों के चलते भारतीय गणराज्य के बहुत सारे प्रतीकों में बौद्ध प्रतीकों को शामिल किया गया। जैसे- राष्ट्रीय ध्वज में धर्मचक्र, प्राचीन भारत के बौद्ध सम्राट अशोक के सिंहों को राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में मान्यता देना और राष्ट्रपति भवन की त्रिकोणिका पर एक बौद्ध सूक्ति को उत्कीर्ण करना। संविधान में भी उन्होंने बौद्ध धम्म के कुछ बुनियादी तत्वों को समाहित किया। इस संदर्भ में उन्होंने स्वयं लिखा है- “मैं भी हिंदुस्तान में सर्वांगीण पूर्ण तैयारी होने पर बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाला हूं। संविधान बनाते समय उस दृष्टि से अनुकूल होने वाले कुछ अनुच्छेदों को मैंने उसमें अंतर्भूत किया है।” (धनंजय कीर, पृ.457) उन्होंने बौद्ध धम्म को वैज्ञानिक चेतना, लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्रता, समता और बंधुता की भावना पर खरा पाया। जिसमें ईश्वर और किसी पारलौकिक दुनिया के लिए कोई जगह नहीं थी। न तो उसमें किसी अंतिम सत्य का दावा किया गया था और न ही कोई ऐसी किताब थी, जो ईश्वरीय वाणी होने का दावा करती हो।
गणतंत्रात्मक भारत, बंधुता-आधारित भारत और बुद्धमय भारत डॉ. आंबेडकर के सपनों के भारत के तीन बुनियादी तत्व थे, लेकिन इन तीनों तत्वों को तभी हासिल किया जा सकता है, जब भारतीय जन प्रबुद्ध बनें। प्रबुद्ध भारत की इस परिकल्पना को साकार करने के लिए उन्होंने 4 फरवरी 1956 को ‘प्रबुद्ध भारत’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। प्रबुद्ध व्यक्ति एवं समाज वही हो सकता है, जो वैज्ञानिक चेतना से लैश हो और हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसता हो तथा आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हो। डॉ. आंबेडकर स्वयं बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रबुद्ध व्यक्तित्वों में से एक हैं। वे हर चीज को एक समाज वैज्ञानिक की दृष्टि से आलोचनात्मक नजरिए से देखते थे और तर्क की कसौटी पर कसते थे। जो कुछ भी उनकी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था, उसे वे खारिज कर कर देते थे। उन्होंने बौद्ध धम्म को भी तर्क की कसौटी पर कसा और आलोचनात्मक नजरिए से देखा और उसे नया नाम ‘नवयान’ दिया।
आर.एस.एस. और कार्पोरेट (ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद) के गठजोड़ से बन रहा वर्तमान भारत डॉ. आंबेडकर के गणतंत्रात्मक, बंधुता-आधारित, बुद्धमय और प्रबुद्ध भारत की परिकल्पना से पूरी तरह उलट है। हमें डॉ. आंबेडकर की संकल्पना के भारत के निर्माण के लिए इस गठजोड़ का पुरजोर विरोध करना चाहिए और स्वतंत्रता, समता और बंधुता आधारित गणतंत्रात्मक भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ लग जाना चाहिए।

कुश्ती में विवाद, किसके साथ खड़ी है मोदी सरकार?

दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश के दिग्गज पहलवानों ने भारतीय कुश्ती संघ के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। बजरंग पुनिया, साक्षी मलिक, विनेश फोगाट समेत कई पहलवान इंसाफ की मांग को लेकर डटे हुए हैं। प्रदर्शन कर रहे पहलवानों का आरोप सीधे कुश्ती फेडरेशन और उसके अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ है। महिला पहलवानों ने बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगाया है। धरने पर जो खिलाड़ी बैठे हैं उनके नामों और योगदान पर गौर करिए। धरने पर बैठे खिलाड़ियों में बजरंग पुनिया, विनेश फोगाट, साक्षी मलिक, सरिता, संगीता फोगाट, सत्यव्रत मलिक, जितेन्द्र किन्हा सहित 30 पहलवान शामिल हैं। ये वो नाम हैं, जिन्होंने देश के लिए ओलंपिक, विश्व चैंपियनशिप और राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीते हैं।

 ये तो पूरा मामला है, जिसके बारे में आप दर्शकों को अब तक पता चल गया होगा। लेकिन इन आरोपों के बाद सरकार और कुश्ती संघ का रवैया इस देश के लिए चिंता की बात है। कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह जो कि भाजपा के सांसद हैं, उनके और खेल मंत्री अनुराग ठाकुर जोकि खुद भी भाजपा के ही सांसद हैं, के बीच फोन पर बात होती है। बृजभूषण को जवाब देने के लिए 72 घंटे का समय दिया जाता है। बृजभूषण मीडिया के सामने आकर थेथरई कर रहे हैं और खिलाड़ियों पर सवाल उठा रहे हैं। लेकिन जनाब क्या इस देश के पदक विजेता खिलाड़ी इतने खाली हैं जो अपना आखाड़ा छोड़कर कुश्ती संघ के खिलाफ कुश्ती लड़ें?

इस पूरे मामले के सामने आने के बाद पहली बात क्या आती है, चलिये दर्शकों आप खुद बताईए, इन आरोपों के बाद क्या कुश्ती संघ के अध्यक्ष को खुद अपने पद से यह कहते हुए नहीं हट जाना चाहिए था कि इसकी जांच की जाए और आरोपों पर जांच समिति का निर्णय आने तक वह खुद को इस पद से दूर करते हैं? या फिर क्या सरकार को ही कुश्ती संघ के अध्यक्ष को जांच समिति की रिपोर्ट आने तक पद से नहीं हटा देना चाहिए?

लेकिन ये भारत है, यहां तमाम मामलों में आरोपों पर सजा सुनाए जाने के पहले जिस पर आरोप लगा है उसकी हैसियत देखी जाती है। जिस पर आरोप लगा है, अगर वह राजनीतिक व्यक्ति हो और उसका संबंध सत्ताधारी दल से हो तब तो उस पर हाथ डालने से पहले पुलिस भी सौ बार सोचती है और जांच समिति भी।

 बृजभूषण शरण सिंह के मामले में भी यही बात है। पिछले 11 सालों से कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद पर जमें बृजभूषण उत्तर प्रदेश के कैसरगंज लोकसभा सीट से भाजपा के सांसद हैं। ऐसे वैसे सांसद नहीं, बल्कि उनकी छवि मनुवादी मीडिया की नजर में दबंग वाली है, मेरी परिभाषा में दबंग माने गुंडा। वह 6 बार से सांसद हैं। वह बड़ी जल्दी आपा खोते हैं। मंच पर एक कुश्ती खिलाड़ी को थप्पड़ मार चुके हैं। महिलाओं के मामले में बात करते हुए वे शालिनता भूल जाते हैं। इतनी गुंडई पर उतारू हो जाते हैं कि 2019 के लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान उसने देश की कद्दावर नेता और उत्तर प्रदेश की चार बार की मुख्यमंत्री मायावती जी को गुंडी कह दिया था।

ऐसा लगता है कि भाजपा में नेताओं को महिलाओं के खिलाफ कुछ भी बोलने की आजादी है। क्योंकि इसी भाजपा के नेता दयाशंकर ने मायावती के बारे में ऐसे अपशब्द कहे थे, जिसे दोहराया नहीं जा सकता। आज वह प्रदेश सरकार में मंत्री हैं।

खैर यहां हम बात खिलाड़ियों के आरोपों की कर रहे हैं जो कि काफी गंभीर है। कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण के इस्तीफे से कम पर खिलाड़ी राजी नहीं हैं। अगर खिलाड़ी बृजभूषण के खिलाफ अड़ गए हैं तो भारत की सरकार को भी सोचना चाहिए। दर्जनों खिलाड़ियों की बात सही है या फिर एक नेता की, जिसकी अपनी छवि भी साफ नहीं है।  देश देख रहा है। सत्ता के नशे में चूर दूसरों को कुछ न समझने वाले नेताओं को भी, और सरकार के इंसाफ को भी। देखना होगा भाजपा की मोदी सरकार किसके साथ खड़ी है।

जान लीजिए, गठबंधन क्यों नहीं करना चाहती हैं बहनजी?

बसपा सुप्रीमों मायावती ने 15 जनवरी को अपने जन्मदिन पर ऐलान किया कि वह फिलहाल चुनावी गठबंधन नहीं करेंगी। 2023 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनावों में वह किसी भी दल से किसी भी तरह का कोई गठबंधन नहीं करेंगी। 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी बहनजी ने रुख साफ कर दिया है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिर जब सभी दल गठबंधन को तव्वजो दे रहे हैं और फिलहाल देश के सबसे मजबूत राजनीतिक दल भाजपा भी मजबूत स्थिति में होने के बावजूद विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनाव तक में गठबंधन करने को तैयार रहती है, बसपा सुप्रीमों मायावती को गठबंधन से इंकार क्यों है?

लेकिन पहले बात बहनजी की इस घोषणा के बाद मनुवादी मीडिया के दुष्प्रचार की। बहनजी के गठबंधन न करने की घोषणा के बाद मनुवादी मीडिया यह कह रही है कि चूंकि बसपा बहुत कमजोर स्थिति में है और उसके पास बार्गेनिंग पावर नहीं है, इसलिए वह गठबंधन से इंकार कर रही है। साफ है कि यह मजह एक सतही और तुरंत किया गया आंकलन है। क्योंकि बसपा के बारे में ऐसा दुष्प्रचार कर मनुवादी मीडिया उसे शुरुआत में ही लड़ाई से बाहर दिखाने में जुटी रहती है। लेकिन जिस बसपा को तमाम मुश्किलों और सपा और भाजपा की सीधी लड़ाई के बावजूद यूपी में एक करोड़ 18 लाख, 73 हजार 137 वोट मिले थे, वह लड़ाई से बाहर कैसे हो सकती है? अपने सबसे मुश्किल वक्त में भी एक करोड़ का जनाधार रखने वाली पार्टी को कमजोर ठहराना सीधे तौर पर मीडिया की चाल है।

 साल 2020 के यूपी विधानसभा चुनाव का हवाला देकर हाथी की चाहे जितनी हवा निकालने की कोशिश की जाए, एक बात साफ हो गई है कि भाजपा से सीधी लड़ाई, मुस्लिमों के ध्रुवीकरण और तमाम दलों से गठबंधन के बावजूद समाजवादी पार्टी भाजपा को हरा नहीं पाई। यानी कि जिस पिछड़े वोटों को समाजवादी पार्टी अपना बताती है, वही उसके साथ पूरी तरह नहीं आया। यानी साफ है कि मुस्लिमों को अगर भाजपा को रोकना है तो सिर्फ बसपा ही ऐसा कर सकती है। क्योंकि बसपा के कैडर दलित वोट बैंक हर परिस्थिति में बसपा के साथ रहते हैं और मुस्लिम वोटों के इसमें जुड़ते ही एक पल में करिश्मा हो सकता है।

यूपी में यह स्थिति दिख भी रही है। यहां मुस्लिम समाज का रुझान अब बसपा की तरफ दिखने लगा है तो बसपा भी मुस्लिम समाज को अपने साथ जोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। तीन महीने पहले वेस्ट यूपी के प्रमुख मुस्लिम चेहरे इमरान मसूद ने जब समाजवादी पार्टी को छोड़कर बहुजन समाज पार्टी का दामन थामा था, उसने अचानक से प्रदेश का सियासी पारा बढ़ा दिया। और अब संभल से सपा के सांसद डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क ने जिस तरह बहनजी की तारीफ की है, उसके भी सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। यह कब समीकरण बदल दे, कोई नहीं जानता।

कुल मिलाकर यह बात दर्ज हो चुकी है कि बसपा चाहे जिससे गठबंधन कर ले, उसका फायदा बसपा को नहीं मिलता है। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बाद बसपा 10 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही तो इसके पीछे दलित-मुस्लिम गठबंधन का जादू था। क्योंकि चाहे सवर्ण समाज का प्रत्याशी हो या फिर मजबूत पिछड़े समाज का प्रत्याशी इन दोनों समाज के मतदाता बसपा को वोट देने से परहेज करते हैं। हां, अति पिछड़ा समाज जरूर लंबे वक्त तक बसपा के साथ खड़ा रहा है। इन समीकरणों को बहनजी खूब समझती हैं, यही वजह है कि वह गठबंधन को लेकर किसी भी जल्दबाजी में नहीं हैं। बाकी सियासत है, वक्त और जरूरत के हिसाब से नेताओं के बयान बदलते रहते हैं।

ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट ने भारतीय अरबपतियों को किया बेनकाब

अगर दुनिया के अमीरों पर 5 फीसदी टैक्स लगा दिया जाए तो एक साल में करीब 1.7 ट्रिलियन डॉलर इकट्ठे किए जा सकते हैं, जो कि दुनिया के करीब 2 अरब लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाल सकते हैं। यह दिलचस्प आंकड़ा ऑक्सफैम ने अपनी हालिया रिपोर्ट में दिया है। इस रिपोर्ट में भारत के अमीरों को लेकर भी हैरान करने वाला आंकड़ा सामने आया है, जिसने अंबानी-अडानी सरीखे अरबपतियों की पोल खोल कर रख दी है।

Oxfam ने वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की वार्षिक बैठक के दौरान अपनी वार्षिक असमानता रिपोर्ट जारी की है, जिसमें यह बात सामने आई है। दरअसल दुनिया के एक फीसदी अमीरों की दौलत बीते दो सालों में दुनिया के बाकी 99 फीसदी लोगों की तुलना में करीब दोगुनी तेजी से बढ़ी है। दुनिया के अमीरों की दौलत हर दिन 22 हजार करोड़ रुपए हर दिन बढ़ी है। जिससे गरीबी और अमीरी की खाई चिंताजनक रूप से बढ़ने लगी है।

रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के 170 करोड़ मजदूर उन देशों में रहते हैं, जहां महंगाई, मजदूरी से ज्यादा है, जिससे वह हर दिन गरीबी में धंसते जा रहे हैं। ऐसे में अगर दुनिया के अमीरों पर 5 फीसदी टैक्स लगा दिया जाए तो एक साल में करीब 1.7 लाख करोड़ रुपए इकट्ठे किए जा सकते हैं। दिलचस्प यह है कि यह रकम दुनिया के करीब 2 अरब लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाल सकती है।

‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2020 से दुनिया में करीब 42 ट्रिलियन यूएस डॉलर की संपत्ति कमाई गई है, जिसमें से करीब दो तिहाई संपत्ति दुनिया के सिर्फ एक फीसदी अमीरों की जेब में गई है। यानी जहां एक आम आदमी अपनी रोजमर्रा की जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहा है, वहीं अमीर लोग दिनों दिन अमीर होते जा रहे हैं। बीते दो साल तो अमीरों के लिए खास तौर पर फायदेमंद रहे हैं।

इसी क्रम में भारत को लेकर ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि भारत में सिर्फ 21 अरबपतियों के पास जितनी दौलत है, वह देश के 70 करोड़ लोगों की सारी दौलत मिलाने से भी ज्यादा है। यानी करीब 140 करोड़ आबादी वाले भारत में आधी जनसंख्या जितना पैसा अकेले 21 अरबपति लोगों के पास है। रिपोर्ट बताती है कि बीते साल अंबानी और अडानी सरीखे देश के टॉप अरबपतियों ने हर रोज 3000 करोड़ रुपये से ज्यादा की दौलत कमाई है।

 जहां देश के अरबपति अरबों कमाने में जुटे हैं, तो वहीं देश की आम जनता टैक्स चुकाने में जुटी है। इसका दिलचस्प आंकड़ा आपकी आंख खोल देगा। देश में GST से सरकार के पास जो भी धन इकट्ठा हुआ है, उसका 64 फीसदी हिस्सा साधारण कमाई करने वाले आम लोगों ने चुकाया हैं। इस टैक्स से मिलने वाली पूरी राशि में देश के सबसे धनवान 10 फीसदी बड़े अरबपतियों का हिस्सा सिर्फ 3 प्रतिशत है।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश के 166 अरबपतियों में टॉप 100 अरबपति ऐसे हैं, जो 18 महीनों तक पूरे देश का खर्च उठा सकते हैं। तो वहीं अगर इनकी संपत्ति पर सिर्फ एक बार दो फीसदी टैक्स लगा दिया जाए तो अगले तीन सालों के लिए देश में कुपोषित लोगों के पोषण के लिए 40,423 करोड़ रुपये जमा हो जाएंगे।

इन आंकड़ों के आने के बाद अब एक बार फिर अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलने की मांग होने लगी है। ऑक्सफैम इंडिया के CEO अमिताभ बेहर ने कहा है कि अब समय आ गया है कि धनी वर्ग पर टैक्स बढ़ाकर उनसे उचित हिस्सा लिया जाए। आगामी बजट से ठीक पहले आई इस रिपोर्ट के बाद सरकार क्या फैसला लेती है, इस पर सबकी नजर रहेगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी सरकार क्या देश की आम जनता के साथ खड़ी है या फिर देश के पूंजिपतियों के साथ।

बसपा कार्यकर्ताओं ने धूम-धाम से मनाया बहनजी का जन्मदिन, नए गानों से उत्साह

 15 जनवरी को बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती का 67वां जन्मदिन है। इस मौके पर बहुजन समाज पार्टी ने अपनी अध्यक्ष सुश्री मायावती के जन्मदिन की विशेष तैयारी की है। पार्टी ने बहनजी को खास तोहफा देने की योजना बनाई है। इस मौके पर कई गाने रिलिज किये जाएंगे जिसे कैलाश खेर और उदित नारायण सरीखे दिग्गज गायकों ने गाया है। इस गाने को बसपा के सभी पार्टी कार्यालयों में भेज दिया गया है, और जब पार्टी कार्यालय में बहनजी का जन्मदिन मनाया जाएगा, वहां पूरे दिन यही गाने गूजेंगे।

इन गानों में बहनजी को विश्व का महान नेता और आयरन लेडी कहा गया है। उन्हें हिम्मत और साहस की प्रतिमूर्ति कहा गया है। बहुजन समाज पार्टी इससे पहले भी बहुजन नायकों पर गाने रिलिज करती रही है, लेकिन इस बार खासतौर पर बहनजी के लिए ही गाने तैयार किये गये हैं। इन गानों में बहनजी को सर्वजन की उद्धारक, सर्वधर्म की रक्षक, और गरीबों का सहायक बताया गया है। पार्टी का कहना है कि बहनजी ने देश के गरीबों और पिछड़ों के लिए बहुत से काम किये हैं।

बहनजी का जन्मदिन बहुजन समाज पार्टी जन कल्याणकारी दिवस के रूप में मनाती है। देश भर में बसपा के कार्यकर्ता इस दिन को जोश से मनाते हैं और केक काटने से लेकर तमाम आयोजन किये जाते हैं। इस बार भी इस मौके पर गरीब बस्तीयों में साड़ी और कंबल बांटे जाएंगे। तो बच्चों को किताबें दी जाएंगी। साथ ही इस दौरान इन बस्तियों में इन गानों को बजाने की भी योजना है।

दिलचस्प यह है कि इन गानों को किसने लिखा है और इसको रिकार्ड करवाने में किसकी भूमिका है, यह अभी पता नहीं चल पाया है। लेकिन चर्चा है कि इसके पीछे बसपा के युवा नेता और पार्टी के राष्ट्रीय को-आर्डिनेटर आकाश आनंद की सोच है और वह इन गानों के जरिये जहां बहनजी के कामों को आम जनता तक पहुंचाना चाह रहे हैं तो वहीं अपनी राजनीतिक गुरू, पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष और अपनी बुआ मायावती को एक खास तोहफा भी देना चाहते हैं। निश्चित तौर पर भतीजे का यह तोहफा बहनजी को जरूर पसंद आएगा।

शरद यादव: जिनका होना अभी जरूरी था

 शरद यादव (1 जुलाई 1947 – 12 जनवरी 2023) नहीं रहे। उनका आकस्मिक निधन बहुत दुखद और स्तब्धकारी है। अपनी लंबी अस्वस्थता से उबरकर वह धीरे-धीरे स्वस्थ और सक्रिय हो रहे थे। पिछले साल, मार्च में उन्होंने अपने दल-लोकतांत्रिक जनता दल (LJD) का राष्ट्रीय जनता दल (RJD) में विलय भी किया। जनता दल (यू) से अलग होने के बाद उन्होंने 2018 में इस दल का गठन किया था। लेकिन यह राष्ट्रीय राजनीति में अपनी खास पहचान नहीं बना सका। शायद इस नये दल को शरद जी की अगुवाई में ठीक से काम करने का वक्त भी नहीं मिला। अपनी अस्वस्थता के चलते वह पहले की तरह सक्रिय भी नहीं हो सकते थे।

उनके निकटस्थ लोगों के मुताबिक इधर कुुछ समय से वह अपेक्षाकृत स्वस्थ और बेहतर महसूूस कर रहे थे। अपने मित्रों और निकटस्थ सहकर्मियों से उनका मिलना-जुलना भी जारी था। इसी बीच, बीती रात (12 जनवरी की रात) उनके निधन की दुखद खबर आयी। उनकी बेटी सुभाषिनी की एक फेसबुक पोस्ट से यह सूचना मिली।

शरद जी का जन्म तो मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में हुआ था लेकिन उनकी वास्तविक कर्मभूमि बिहार और दिल्ली रही। पहला चुनाव उन्होंने सन् 1974 में मध्य प्रदेश के जबलपुर से लड़ा और जीता। तब वह इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले एक युवा छात्र नेता थे।। ‘जेपी के प्रत्याशी’ के तौर पर उप-चुनाव लडा और कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर लोकसभा में पहली बार प्रवेश किया। इमर्जेंसी में वह लगातार जेल में रहे। शरद जी ने अपने राजनीतिक जीवन में सबसे अधिक वक्त दिल्ली, बिहार औ यूपी में बिताया। सन् 1989 में यूूपी के बदायूं से वह सांसद भी बने। इसके बाद अगले कई चुनावों में वह बिहार के मधेपुरा से सांसद रहे। सन् 1999 के मधेपुरा संसदीय चुनाव में तो लालू प्रसाद यादव और शरद यादव आमने-सामने हो गये। कांंटे की टक्कर में शरद जी ने लालू जी को हरा दिया।

अपने अनेक मित्रों और समकालीन नेताओं की तरह शरद जी भी जेपी आंदोलन से ही उभरे नेता थे। सत्तर-अस्सी के दशक में इस आंदोलन से उभरे नेताओं में सोशलिस्ट-जनता दली धारा से जुड़े चार नेता नब्बे के दशक में राष्ट्रीय राजनीति के नये सितारे बनकर उभरे। इनमें तीन ठेठ बिहारी थे तो एक मध्य प्रदेश मूल के। यह चार नेता थे- शरद यादव, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार। सन् 1988 के फरवरी महीने में कर्पूरी ठाकुर का निधन हो चुका था। सन् 1990 में बिहार विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस हार गयी। सरकार जनता दल की बननी थी। उधर, केंद्र में जनता दल की अगुवाई वाली वीपी सिंह की सरकार 1989 में बन चुकी थी। वीपी सिंह चाहते थे कि बिहार के मुख्य मंत्री रामसुंदर दास बनें। लेकिन देवीलाल और शरद यादव सहित अन्य नेता लालू प्रसाद जैसे अपेक्षाकृत युवा नेता को नेतृत्व सौपने के पक्ष में थे। अंतत: लालू यादव ही नेता बने और 10 मार्च, 1990 को उन्होंने पहली बार बिहार के मुख्य मंत्री पद की शपथ ली। लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाने में देवीलाल और शरद यादव जैेसे नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गयी। हालांकि प्रकारांतर से चंद्रशेखर जी की भी इसमें बहुत अहम भूमिका थी। विधायक दल के नेता पद के चुनाव में वीपी सिंह समर्थित रामसुंदर दास को परास्त करने में अंतत: चंद्रशेखर समर्थित-रघुनाथ झा की उम्मीदवारी महत्वपूर्ण साबित हुई।

लालू यादव की सरकार बनने के बाद बिहार की सत्ता में तीन सर्वशक्तिमान नेताओं की तिकड़ी उभरी: लालू-शरद-नीतीश! इसी दौर में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की 40 सिफारिशों में सिर्फ एक, पिछडों (OBC) के आरक्षण को अमलीजामा पहनाने का फैसला किया। इसके लिए शरद, पासवान, लालू, नीतीश सहित अनेक नेताओं ने वीपी सिंह को हर तरह से समर्थन दिया। उधर, बसपा प्रमुख कांशीराम का भी इस मुद्दे पर वीपी सिंह को समर्थन मिला। उसी दौर में शरद-लालू जैसे नेता देवीलाल का साथ छोड़कर वीपी सिंह से जुड़ गये। पार्टी का अंदरूनी समीकरण बिल्कुल बदल गया। मंडल आयोग की एक सिफारिश के लागू होने के ऐलान से बदली राजनीति पर आर एस एस-भाजपा की तीखी नजर थी। उन्होंने मंडल के खिलाफ ‘कमंडल’ का अस्त्र चलाया और सन् 1992 में भगवा ब्रिगेड की अगुवाई में अयोध्या की पुरानी बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गयी।।

कुछ ही समय बाद ‘जनता दल परिवार’ का बिखराव और बढ़ गया। मुलायम सिंह यादव तो सन् 1992 में ही समाजवादी पार्टी बनाकर जनता दल से अलग हो चुके थे। सन् 1994 में जार्ज और नीतीश ने मिलकर समता पार्टी बना ली। बाद में शरद भी नीतीश कुुमार के साथ आ गये और जनता दल-यू बड़ा मंच बन गया। लंबे समय तक शरद और नीतीश साथ रहे। फिर उनका साथ भी छूटा। समाजवादी धारा के जनता-दलियों की टूटने-बिखरने-जुडने और फिर बिखरने की दिलचस्प कहानी है। इसमें जितना रोमांच और रहस्य है, उससे ज्यादा निजी महत्वाकांक्षाओं का टकराव और वैचारिक-सतहीपन! कांग्रेस के पतन और जनतादलियों के बिखराव के बाद हिंदी-भाषी क्षेत्र में भाजपा के सामाजिक आधार और असर, दोनों में इजाफा होता रहा। अपनी गलतियों के चलते लगातार हारती कांग्रेस के हिन्दू-उच्चवर्णीय आधार में भाजपा ने अपनी जगह बनाना शुरू किया। कांग्रेस का दामन छोड़कर मुस्लिम समुदाय बिहार में लालू प्रसाद यादव के साथ और यूपी में मुलायम सिंह यादव के साथ जाने लगा। इस तरह कांग्रेस के पतन से रिक्त हुई जगह पर भाजपा ने अपने हिन्दुत्व-आधार का भवन बनाना तेज किया।

लंबे समय तक शरद यादव, नीतीश कुुमार और जार्ज फर्नांडिस भाजपा के प्रबल सहयोगी और अटलबिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी के दौर वाले एनडीए की केंद्र सरकार मे वरिष्ठ मंत्री भी रहे। बाद में शरद और नीतीश का भाजपा के गठबंधन से मोहभंग हुआ। फिर शरद और नीतीश भी अलग-अलग हो गये। वक्त गुजरने के साथ गंगा-यमुना में बहुत सारा पानी बहा। सियासत का अंदाज बदल गया। भाजपा आज बहुत बडी ताकत है। सेक्युलर-लोकतांत्रिक राजनीति के लिए यह बुरा दौर है।

वामपंथियों का मोर्चा कमजोर हो चुका है और सामाजिक न्याय के आंदोलनकारियों का कुनबा भी खूब बिखरा है। इनके बिखराव का फायदा भाजपा को ही सबसे अधिक मिला है।

शरद जी तकरीबन चार दशक के इस लंबे राजनीतिक दौर के महत्वपूर्ण किरदार और गवाह भी रहे हैं। काश, उन्होंने अपनी कोई सुसंगत आत्मकथा लिखी होती! उससे राजनीति की नयी पीढी, खासकर समता, सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे आज के युवाओं को काफी कुछ मिलता कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए! शायद, शरद जी अपनी आत्मकथा में आत्मालोचना का भी कोई अध्याय जोड़ते कि उनसे क्या-क्या राजनीतिक गलतियां हुईं? एक प्रखर समाजवादी ने हिंदुत्व की शक्तियों से हाथ क्यों मिलाया? इस मामले में समाजवादी रुझान के जनतादलियों में लालू प्रसाद यादव संभवत: एकमात्र अपवाद रहे जो भाजपा के साथ नहीं गये!

एक दौर में शरद जी से संसद भवन में मेरी मुलाकात होती रहती थी। सेंट्रल हाॅल में साथ बैठकर कभी-कभी गपबाजी भी हो जाती थी। उनके बंगले पर भी यदा-कदा जाना हुआ। संयुक्त मोर्चा के दौर में कई बार उनके दफ़्तर या घर पर मिलना हुआ। पर उनके साथ कभी मेरा नियमित तौर पर मिलना-जुलना या संवाद नहीं रहा। इसलिए उनको ज्यादा जानने-समझने का दावा नहीं कर सकता। पर जितना मैने दैखा-समझा, वह राजनीति में विचार और संगठन, दोनों को महत्वपूर्ण मानते थे। हाल के कुछ वर्षों में वह अस्वस्थ रहे। अस्वस्थता और ढलती उम्र के चलते शायद ईमानदार आत्ममंथन, अफसोस और नयी पीढ़ी को जरूरी संदेश देने के अलावा वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे। पर राजनीतिक परिदृश्य पर उन जैसे अनुभवी नेता की उपस्थिति महत्वपूर्ण होती।

संयोग देखिये, पिछले साल मार्च में ही शरद यादव ने अपनी पार्टी का विलय राष्ट्रीय जनता दल में किया। दूसरी तरफ, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उसके कुछ ही महीने बाद भाजपा का साथ छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल से मिलकर बिहार में महा-गठबंधन (जद-यू, राजद और कांग्रेस आदि) की सरकार बनाई, जिसमें लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव उप-मुख्यमंत्री हैं। यानी, जे. पी. आंदोलन से उभरे तीनों पुराने दोस्त लंबे अंतराल के बाद फिर एक साझा मंच की तरफ बढ़े। बड़ी घटना थी। इसलिए अभी शरद यादव का होना जरूरी था। पर वह बीती रात चले गये।

शरद जी को हमारी सादर श्रद्धांजलि। रेखा जी, सुभाषिनी, शांतनु और पूरे परिवार के प्रति शोक संवेदना।

बिहार में जाति जनगणना का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने का सारा खेल समझिये

 हाल ही में जोशीमठ में जमीन धंसने के मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की तुरंत सुनवाई करने से इंकार कर दिया। अदालत ने कहा कि हर जरूरी चीज की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में ही हो, ऐसा जरूरी नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा कि लोकतांत्रिक सरकार पहले से ही इस मसले के समाधान में जुटी हुई है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सभी मुद्दों के लिए सुप्रीम कोर्ट ही एकमात्र जगह नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने बाद में 16 जनवरी को इस मामले में विचार करने की बात कही।

 सुप्रीम कोर्ट का एक दूसरा रुप भी देखिए। बिहार की सरकार ने जाति जनगणना जिसे वह जाति आधारित सर्वे कह रही है, उस का काम शुरू कर दिया है। पहले से ही तय तारीख के मुताबिक 7 जनवरी से यह काम शुरू हो गया है। लेकिन जाति जनगणना का काम शुरू होते ही 10 जनवरी को मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। इसके खिलाफ याचिका में इसको लेकर कई सवाल उठाए गए और सुप्रीम कोर्ट से मामले की जल्द सुनवाई की अपील की गई। मजेदार बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट भी तुरंत मान गया और 13 जनवरी को इस मामले की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई तय हुई है।

अब यहां पहला सवाल यह है कि जोशीमठ के मामले की जल्दी सुनवाई वाली याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तमाम दलील दी। कहा गया कि लोकतांत्रिक सरकार पहले से ही इसके समाधान में जुटी है। लेकिन जाति जनगणना का सवाल आते ही सुप्रीम कोर्ट को ऐसा क्या खतरा दिखाई देने लगा कि याचिका आने के महज दो दिन बाद ही उच्चतम न्यायलय सुनवाई को राजी हो गया।

जबकि जातिगत जनगणना कराने के लिए 6 जून 2022 को ही राज्य सरकार द्वारा नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया था। अब इसी नोटिफिकेशन को ही रद्द करने की मांग सुप्रीम कोर्ट में की जा रही है।

यहां दूसरा सवाल यह है कि जिस जोशीमठ में सैकड़ों घर टूटने को हैं…  जहां के हजारों लोग मुश्किल में हैं। सरकार ने लोगों के लिए पुर्नवास नीति तक नहीं बनाई है, और न ही अभी तक उन्हें जायज मुआवजे को लेकर आश्वस्त किया है, सुप्रीम कोर्ट के लिए क्या वह मामला जरूरी नहीं था।

खैर क्या जरूरी है, और किस मामले पर कब सुनवाई करनी है, इसका अधिकार तो सुप्रीम कोर्ट में बैठे मी-लार्ड को है, लेकिन जोशीमठ में परेशान हजारों लोग और बिहार में जाति जनगणना को रोकने में से कौन सा मुद्दा अहम है, इस बारे में देश की आम जनता तो फैसला कर ही सकती है।

या कहीं ऐसा तो नहीं कि जाति जनगणना होने की स्थिति में बिहार से उठी चिंगारी देश भर में एक बड़ा मुद्दा बन जाएगी। और तब ऐसे में कुछ खास लोगों की सियासत पर खतरा मंडराने लगेगा, जो सालों से देश के तमाम संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं। और जिसे रोकना या रोकने की कोशिश करना ज्यादा अहम हो गया है।

 याद रहे देश के शीर्ष अदालतों को लेकर हाल ही में एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें कहा गया है कि देश के उच्च न्यायालयों में 79 प्रतिशत जज ऊंची जाति के हैं। और तमाम कानून विशेषज्ञ न्यायपालिका के पक्षपात पूर्ण फैसलों पर सवाल तो उठाने ही लगे हैं। बाकी आप दर्शक यानी देश की जनता खुद ही समझदार है। समझ जाइये।

शिक्षा मंत्री के बयान पर हंगाामा, रामचरित मानस के दोहे और मनुस्मृति के जहर पर क्यों नहीं?

बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर निशाने पर हैं। वजह यह है कि उन्होंने रामचरित मानस और मनुस्मृति को नफरत फैलाने वाला और वंचितों से उनका हक छिनने वाला कह दिया। इसके बाद कोई उनकी चीभ काटने की बात कह रहा है तो कोई कह रहा है कि शिक्षा मंत्री को खुद शिक्षा लेने की जरूरत है। लेकिन कोई मनुस्मृति और रामचरित मानस में लिखे हुए पर बात नहीं कर रहा है। मसलन शिक्षा मंत्री ने 11 जनवरी को पटना के जिस कार्यक्रम में यह बातें कही, उस दौरान उन्होंने रामचरित मानस के उस दोहे का भी जिक्र किया, जिसमें लिखा है कि- अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए … यानी कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण कर के जहरीले हो जाते हैं, जैसे कि सांप दूध पीने के बाद हो जाता है।

ऐसे में मनुवादी व्यवस्था जिन्हें अधम और नीच कहती है, वो लोग विरोध क्यों न दर्ज कराएं? देश के एक बड़े वर्ग को नीच कहने वाले इस दोहे पर न किसी धार्मिक गुरु ने, न ही रामायण की बात कर लाखों कमाने वालों ने और न ही चैनलों ने कुछ कहा। बस विरोध शुरू कर दिया गया। अयोध्या के एक कथित संत जगद्गुरू परमहंस आाचार्य ने मंत्री चंद्रशेखर को उनके पद से बर्खास्त करे की मांग की है। उनसे माफी मांगने की बात की है और माफी नहीं मांगने पर शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर की जीभ काटने वालों को 10 करोड़ रुपये का इनाम देने का ऐलान भी कर दिया है।

बात तो इस पर भी होनी चाहिए कि खुद को संत कहने वाले के पास 10 करोड़ कहां से आएंगे। और क्या पुलिस को उस संत पर इसके लिए मुकदमा नहीं दर्ज करना चाहिए कि वह लोगों को किसी व्यक्ति को मारने के लिए, उसकी चीभ काटने के लिए उकसा रहा है। कोई मुस्लिम धर्मगुरु इस तरह की बातें कर दे तो देश में हंगामा मच जाए, ये मीडिया वाले उसके पीछे पर जाएं। लेकिन यहां तो सब सही है।

बिहार के शिक्षामंत्री के खिलाफ एक और वीर सामने आए हैं। पहले युवाओं को प्रणय पाठ पढ़ाने वाले और अब लाखों रुपये लेकर राम प्रेम में डूबे रामकथा कहने वाले कवि कुमार विश्वास कह रहे हैं कि बिहार के शिक्षा मंत्री को खुद शिक्षा लेने की जरूरत है। ये वही कुमार विश्वास हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले एक वीडियो डाला था, जिसका शीर्षक था- किसके गुलाम हैं राम। इसमें कुमार विश्वास ने कहा था कि- भगवान राम अपनी एक जाँघ पर सीता को और दूसरी जाँघ पर शबरी को लिटाकर बेर खिला रहे हैं जबकि न तो वाल्मीकि रामायण और न ही तुलसीदास रचित रामायण में शबरी और सीता को जाँघ पर सुलाने का प्रसंग है। और रामायण की कहानी के मुताबिक शबरी और राम सीता हरण के बाद मिलते हैं। ऐसे में क्या कुमार विश्वास को रामकथा विशेषज्ञ बनने से पहले खुद पढ़ने की जरूरत नहीं है? कुमार विश्वास की इस भ्रामक बातों पर साधु-संन्यासियों और हिन्दु धर्म के रक्षकों की त्यौरियां क्यों नहीं चढ़ी।

बिहार के शिक्षा मंत्री ने जिस मनुस्मृति को देश के वंचितों का हक छिनने की बात कहने वाला ग्रंथ बताया है, उससे आखिर किसको इंकार हो सकता है। मनुस्मृति सहित हिन्दुओं के कई धार्मिक ग्रंथों में देश के वंचित समाज और महिलाओं को लेकर जिस तरह की भेदभाव पूर्ण बातें कही गई है, उसके खिलाफ बोलने में सवर्ण समाज के कथित क्रांतिकारी से लेकर कथित संतों तक की जुबान गूंगी हो जाती है, लेकिन जब कोई व्यक्ति उन बातों को मंच से कह देता है तो उनके भीतर धर्म के प्रति भरा प्रेम कुलाचे मारने लगता है। वह चीभ और गर्दन काटने की बात करने लगते हैं। इसकी सीख उन्हें कौन देता है?? क्या वही ग्रंथ??

जम्मू में प्रशासन का भयंकर जातिवाद, दलितों को 6 लाख- ब्राह्मणों को 10 लाख

बीते साल के आखिर में 16 दिसंबर, 2022 को जम्मू के रजौरी स्थित फलियाना गांव में एक सैन्य शिविर के बाहर दो लोगों की हत्या कर दी गई थी। सेना ने  इन मौतों के लिए उग्रवादियों को जिम्मेदार ठहराया। मृतक के परिवार को पहले एक लाख की मदद देने की घोषणा हुई, लेकिन फिर एलजी मनोज सिन्हा ने इसमें 5 लाख और जोड़ कर राशि को छह लाख कर दिया। उपायुक्त ने मृतकों के परिवार को नौकरी भी देने की घोषणा की।

इस घटना के ठीक 15 दिन बाद… साल के पहले ही दिन, 1 जनवरी 2023 को रजौरी के ही एक अन्य गांव में जो पहले घटना स्थल से महज सात किलोमीटर की दूरी पर ही है, दो बच्चों सहित छह लोगों की हत्या कर दी गई। इन मौतों के लिए भी उग्रवादियों को जिम्मेदार ठहराया गया। मौत के तुरंत बाद एलजी मनोज सिन्हा ने गांव का दौरा किया। और सभी मृतकों के परिजनों को 10-10 लाख रुपये के साथ सरकारी नौकरी देने की घोषणा की। द टेलिग्राफ ने इन दोनों मामले को रिपोर्ट किया था।

तो क्या राहत राशि का यह फर्क इसलिए हो गया क्योंकि दो मृतक दलित थे जबकि बाकी के छह ब्राह्मण? जम्मू में दलित समाज के परिवार वालों का यही आरोप है। उनका साफ कहना है कि एक ही जैसी घटना में दो अलग-अलग राहत राशि क्यों? जम्मू कश्मीर के दलितों ने इस भेदभाव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा के प्रशासन को आड़े हाथों लेते हुए दलित संगठनों का कहना है कि वो दलित समुदाय के सदस्यों को भी उच्च जाति के हिन्दुओं के समान क्यों नहीं देख रहे हैं।

यहां साफ है कि दलित समाज के जो लोग जीते-जी अक्सर तमाम भेदभाव का शिकार होते हैं, मरने के बाद भी जाति से उनका पीछा नहीं छूटा। जिस जम्मू और कश्मीर में हर कोई चरमपंथियों के उग्रवाद के कारण परेशान है, और खासकर भाजपा जिसे हिन्दु बनाम मुस्लिम का मुद्दा बनाने में जुटी रहती है, वहीं केंद्र के ही शासन में दलितों के साथ सीधा भेदभाव साफ नजर आ रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि जम्मू कश्मीर में दलितों को चरमपंथियों के साथ-साथ ब्राह्मणों और प्रशासन के भेदभाव का भी सामना करना पड़ेगा। उन्हें तीन तरफ से प्रताड़ित किया जाएगा?

दलितों के मामले में पहले एक लाख की घोषणा की जाती है, फिर इसमें पांच लाख और जोड़कर 6 लाख देने की घोषणा होती है, जबकि सवर्णों के मामले में सीधे 10 लाख की घोषणा होती है। यहीं नहीं एलजी न सिर्फ खुद यह घोषणा करते हैं बल्कि गांव का दौरा कर मृतकों के परिवार से मिलते भी हैं। सवाल उठता है कि आखिर यह भेदभाव क्यों?

यहां तक की अब दलितों के परिजन इस बात से भी डरे हुए हैं कि उपायुक्त द्वारा नौकरी का ऐलान किये जाने के बावजूद उन्हें नौकरी मिलेगी भी या नहीं। क्योंकि अब तक इस बारे में कोई सुनवाई नहीं हुई है। इस मामले को लेकर बहुजन समाज पार्टी ने भी मोर्चा खोल दिया है। बसपा के राज्यसभा सांसद रामजी गौतम ने इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हुए ट्विट किया है और कहा है कि-

बसपा सांसद ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस पर संज्ञान लेने की अपील की है।

 बसपा नेता का सवाल बिल्कुल जायज है। जब सरकार ही दलितों के साथ भेदभाव करने लगे तो लोग आखिर किससे गुहार लगाएंगे? यहां दलित समाज के लोगों को यह भी समझना जरूरी है कि जो सरकार उनके समाज के मृतकों के साथ न्याय करने को तैयार नहीं है, आखिर उससे अपने विकास और उन्नति की उम्मीद लगाना क्या बेवकूफी नहीं है? क्या समाज को उस राजनीतिक व्यवस्था का साथ नहीं देना चाहिए, जो उनकी असली हितैषी है? जरूरत आंख खोलकर देखने और दिमाग खोलकर सोचने की है।

चौंकाने वाली है उच्च न्यायलयों में सवर्ण जजों के वर्चस्व पर आई रिपोर्ट

सभार NBT
सभार NBT

हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों को लेकर एक ताजा रिपोर्ट सामने आई है। इस रिपोर्ट में 2018-2022 तक यानी बीते चार सालों में उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति का आंकड़ा सामने आया है। यह आंकड़ा बताता है कि इन चार सालों में 79 प्रतिशत जज ऊंची जातियों से नियुक्त किए गए। यह रिपोर्ट केंद्रीय कानून मंत्रालय ने संसदीय समिति को दी है।

यानी देश के 25 हाई कोर्ट में जो जज बैठे हैं, उनमें 100 में 79 जज ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते हैं। यानी साफ है कि न्यायपालिका में जहां हर जाति और मजहब के लोग न्याय की खातिर पहुंचते हैं, वहां न्याय करने का हक सिर्फ ऊंची जातियों के पास है। यानी साफ है कि जो भारत देश आजादी के 75 वर्ष पूरे कर चुका है, उस देश की सबसे बड़ी आबादी एससी-एसटी-ओबीसी और अल्पसंख्यक को न्यायपालिका में हिस्सेदारी नहीं मिल सकी है और न ही अब तक सामाजिक विविधता सुनिश्चित हो सकी है।

कानून मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश के उच्च न्यायालयों में पिछड़े वर्ग से मात्र 11 प्रतिशत जज ही हैं। 2018 से उच्च न्यायालयों में नियुक्त कुल 537 जजों में से अल्पसंख्यक समुदाय के सिर्फ 2.6 प्रतिशत जज हैं। जबकि दलित समाज के 2.8 प्रतिशत और आदिवासी समाज के महज 1.3 प्रतिशत जजों को भारत के उच्च न्यायालयों में प्रतिनिधित्व मिल पाया है।

जजों की नियुक्ति में दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय सहित हर वर्ग की महिलाओं तक को नजरअंदाज किये जाने को लेकर न्यायपालिका और सरकार गजब खेल खेलती है। सरकार की ओर से कानून मंत्रालय का कहना होता है कि हम बेबस हैं क्योंकि नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से होती है, जबकि न्यायपालिका का कहना होता है कि नामों पर अंतिम मुहर सरकार लगाती है। ऐसे में सवाल यह बचा रह जाता है कि अगर शीर्ष न्यायपालिका में सिर्फ ऊंची जाति के जज भरे हुए हैं और बाकियों को मौका नहीं मिल पाता है तो इसकी जवाबदेही किसकी है? कहीं सरकार और न्यायपालिका आपस में मिलकर ऐसा व्यूह तो नहीं रच रहे हैं कि दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाकर देश के वंचित समुदाय को इस व्यवस्था का हिस्सा बनने से दूर रखें?

पिछले दिनों ‘दलित दस्तक’ से इसी मुद्दे पर बातचीत में सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट डॉ. के.एस. चौहान ने इस मिली भगत की ओर इशारा भी किया था। डॉ. चौहान की माने तो दाल में काला है और कहीं न कहीं सरकार और न्यायपालिका के बीच एक अलिखित समझौता चल रहा है।

जहां तक कॉलेजियम के काम करने के तरीके की बात है तो जजों का कॉलेजियम दो स्तरों पर काम करता है। एक, सुप्रीम कोर्ट और दूसरा, हाई कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के चार जजों का कॉलेजियम, जिसकी अगुवाई मुख्य न्यायधीश करते हैं, वह नए जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव लाता है। दूसरी ओर हाई कोर्ट के कॉलेजियम में तीन सदस्य नियुक्ति के लिए नए जजों का नाम सुझाते हैं, इसकी अगुवाई हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस करते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 217 और 224 के मुताबिक हाई कोर्ट जजों की नियुक्ति में किसी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। जिस कारण हाई कोर्ट औऱ सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम नए जजों के नामों का चयन करते समय दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग के जजों को शामिल करने के लिए बाध्य नहीं होता।

इस पूरे मामले में कानून मंत्रालय समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को चिट्ठियां लिखकर जजों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता एवं सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की बात तो कहता है लेकिन कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों को लेकर खुलकर मोर्चा खोलता अब तक नहीं दिखा है। कानून मंत्रालय यह कह कर अपनी बेबसी जता देता है कि ‘सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में उन्हीं जजों को नियुक्त करती है जिनके नाम की सिफारिश कॉलेजियम करता है।’

लेकिन दूसरी ओर यही सरकार यह भी कहती है कि ‘संवैधानिक अदालतों में नियुक्ति प्रक्रिया में सामाजिक विविधता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और हाई कोर्ट के कॉलिजियमों का प्राथमिक दायित्व है।’ तब आखिरकार वह इस दायित्व को लागू करवाने के लिए देश के शीर्ष अदालतों पर पुरजोर दबाव डालने की बजाय समर्पण की मुद्रा में क्यों दिखती है।

अदालतें और सरकार जो भी तर्क दें, सच्चाई यह है कि न्याय व्यवस्था में देश के वंचित समूहों को अब तक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। सरकार और अदालत अगर न्यायपालिका में आरक्षण नहीं देना चाहती तो भले न दें, लेकिन कम से कम ऐसा रास्ता तो खोले की वंचित समाज के लोग अपनी प्रतिभा के बूते तमाम परीक्षाओं को पास कर के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का जज बन सकें। आखिर भारत की न्याय व्यवस्था को अपने कब्जे में रखने वालों को ऐसा क्या डर है कि वह सिर्फ अपने सगे-संबंधियों को ही पीढ़ी दर पीढ़ी न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर मनचाहे तरीके से पहुंचा रहे हैं, और बाकियों के लिए रास्ते बंद कर के रखे हैं। अब यह सवाल मजबूती से पूछा जाना चाहिए।

सूर्य कुमार यादव बनाम सचिन तेंदुलकर

भारत और श्रीलंका के बीच 7 जनवरी, 2023 को खेेले टी-20 सीरीज के तीसरे और आखिरी मैच में जब सूर्य कुमार यादव ने 360 डिग्री घूम कर छक्का लगाया तो अचानक मुझे हिन्दी के एक मशहूर ‘क्रिकेट-प्रेमी’ संपादक की याद आयी. वह जीवित होते तो सूर्य कुमार यादव के इस चमत्कारी शतकीय-पारी पर क्या लिखते!
उन्होंने एक समय सचिन तेंदुलकर की आतिशी पारियों पर आह्लादित होेते हुए क्रिकेटर के हुनर को उसके जाति-वर्ण से जोड़कर अपने प्रबुद्ध पाठकों को हैरत में डाल दिया था. यहां तक कहा कि तेंदुलकर जिस धैर्य के साथ खेलते हैं वैसा धैर्य तो ब्राह्मणों में ही हो सकता है. यही नहीं, सुनील गावस्कर और तेंदुलकर सहित कई क्रिकेट खिलाड़ियों के खेल की प्रशंसा करते हुए अक्सर वह उनके हुनर को ‘जातिजन्य गुणों’ से जोड़ने की कोशिश करते थे.
पर मैं तो ऐसा लिखने या ऐसा सोचने के बारे में सोच भी नहीं सकता कि सूर्य कुमार यादव जिस तरह का कलात्मक क्रिकेट खेलते हैं, वैसा सिर्फ कोई यादव ही खेल सकता है! ऐसा सोचना तार्किकता और वैज्ञानिकता का संपूर्ण निषेध तो है ही, बेहद हास्यास्पद भी है.
खेल, चित्रकला, लेखन, गीत, संगीत या दुनिया किसी भी कला पर किसी देश, समुदाय, नस्ल, वर्ण, जाति या लिंग का काॅपीराइट नहीं हो सकता. प्रतिभा, अभ्यास और प्रतिबद्धता से लोग अपने-अपने क्षेत्र में हुनरमंद बनते हैं. किसी बिरादरी या इलाके के चलते वे ‘सितारा’ नहीं बनते!
प्रतिभावान लोग किसी भी देश, समाज, नस्ल, रंग, जाति या वर्ण के हो सकते हैं. प्रतिभा या योग्यता को संकीर्ण दायरे में सीमित करना वैज्ञानिकता, वास्तविकता और तार्किकता का निकृष्टतम निषेध है.
हमारे यहां अब हर समुदायों के बीच से प्रतिभाएं आ रही हैं तो इसलिए कि पहले ऐसे तमाम क्षेत्रों में हर समुदाय के लोगों के जाने की स्थितियां ही नहीं थीं. सदियों से हमारा समाज भयानक विभेदकारी वर्ण-व्यवस्था के ‘कठोर-अनुशासन’ के तहत यूं ही चल रहा था. पढ़ाई-लिखाई सहित किसी भी क्षेत्र में समाज के दलित-पिछड़ों को अपना हुनर दिखाने का अवसर ही नहीं था. एकलव्य की कथा सिर्फ एक मिथक तो नहीं है. ब्रिटिश काल में पहली बार अन्य वर्गों-वर्णों से भी कुछ लोगों को मौका मिला. स्वतंत्रता के बाद, खासकर संविधान बनने के बाद सबके लिए स्वतंत्रता और समान अवसर देने का सिद्धांत अपनाया गया. आज तक संविधान की उद्देशिका में दर्ज महान् लोकतांत्रिक मूल्यों को अपने समाज में अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है. अपने समाज में आज भी संविधान और मनुवाद, दोनों के मूल्य और विचार समानांतर चल रहे हैं. कागज औैर शासन की संस्थाओं में संविधान की उपस्थिति तो है जमीनी स्तर पर आज भी मनुष्य-विरोधी मनुवादी मूल्य बरकरार हैं.
पर यह तो मानना ही होगा कि माहौल पहले के मुकाबले निश्चय ही बहुत-बहुत बदला है. बदलाव की प्रक्रिया को थामने की बहुस्तरीय कोशिशें भी चल रही हैं. ऐसी शक्तियों को इस बीच फौरी तौर पर कामयाबी भी मिली है. पर दोनों तरह की शक्तियों के बीच जद्दोजहद जारी है.
फिलहाल, इस वैचारिक विमर्श को यहीं रोकते हुए आइये हम सब सूर्य कुमार यादव की प्रतिभा और सफलता को सलाम करें! उसके हुनर और कामयाबी को हम हिन्दी के उन स्वनामधन्य ‘क्रिकेट प्रेमी संपादक’ की तरह किसी जाति, वर्ण या नस्ल तक सीमित करने की चेष्टा न करें!

फीफा और जी 20

जी 20 की अध्यक्षता करने की बारी इस बार भारत को मिली है। 20 देशों के इस समूह में भारत भी एक है लेकिन डंका ऐसा पीटा जा रहा कि न तो भूतकाल में कभी ऐसा हुआ और न ही कभी भविष्य में होने वाला होगा। कहा जा रहा है कि यह सब मोदी जी के प्रताप से हो रहा है। मीडिया में खूब जगह मिल रही है और प्रचार-प्रसार में अभी से खर्च बढ़ गया  है। मिलेगा क्या, जानना मुश्किल नहीं  है। जितना स्थान मीडिया और भाषणों में जी 20 की मेजबानी के लिए मिल रहा है  उतना किसान, मजदूर और भ्रष्टाचार पर रोक आदि समस्याओं को मिलता तो हम कहां से कहां पहुंचते?  किसान के  जो आलू और टमाटर कौड़ियों के भाव बिक रहे हैं , मीडिया ऐसे मुद्दे को जगह दे तो उपभोक्ता को भी लाभ और किसान का तो होगा ही। अधिकारी काम नहीं करते और रिश्वत लेते हों परंतु ऐसी बातों के लिए कहां जगह है? युवाओं को रोजगार नहीं है और महंगाई आसमान पर , ऐसी समस्याओं की बात नदारद है। जी 20 की अध्यक्षता मिली देश के लिए गर्व की बात है। वैसे 19 और देश हैं जिन्हे ऐसा अवसर मिला या मिलेगा। इस मेजबानी का लाभ उठाया जा सकता है अगर कतर जैसे कट्टर देश से भी सीख लें। भले ही फीफा और जी 20 के उद्देश्य अलग हों लेकिन निवेश और पर्यटन दोनों इनसे प्रभावित होते हैं।
            फीफा वर्ल्ड कप 20 नवंबर से शुरू हुआ। कतर को उम्मीद थी कि 18 दिसम्बर को फाइनल तक 15 लाख विदेशी पर्यटक आयेंगे जबकि 29 लाख टिकट बिक चुके थे । शुरुआत में कुछ फीफा प्रेमियों में कट्टरता के कारण हिचक थी लेकिन जो आते गए और संदेश वापिस अपने देश में दिए उससे पर्यटक बढ़ते गए। स्टेडियम में बीयर और शराब आदि पर कुछ प्रतिबंध ज़रूर लगा लेकिन व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि लोगों को आनंद मिलता रहा। फ्रांस और अन्य देशों में खेल के दौरान ऐसे कुछ प्रतिबंध लग चुके हैं। कुछ धार्मिक प्रतिबंध थे परंतु बेहतर सुविधा और अनुशासन ने माहौल खुशनुमा बनाए रखा। यूरोप की लड़कियों ने अपने देश भी ज्यादा आजादी और सुरक्षा महसूस किया। ऐसा माहौल बना कि पड़ोसी देशों का पर्यटन 200% बढ़ गया। इस बार की फीफा कमाई करीब 75000 करोड़ आंकी गई है। कतर ने भारी खर्च करके स्टेडियम और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया जो बाद में उपयोग होगा। आने वालों दिनों में पर्यटन, ट्रेड और निवेश से भरपाई हो जाएगी और  अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। एक अनुमान के  अनुसार 2030 में हर साल 60 लाख सैलानी आयेंगे। उत्तर भारत में विदेशी सैलानी क़रीब गायब हो गए। कभी कनॉट प्लेस और पहाड़ गंज सैलानियों से भरा होता था और अब तो दर्शन दुर्लभ हो रहा है। आत्मनिर्भर का असर उल्टा हो गया। चीन से आयात 100 बिलियन डॉलर से अधिक बढ़ गया। जिस उपलब्धि का डंका पीटा जाता है, होता उल्टा ही है और जी 20 सम्मेलन का भी वही हस्र होने वाला है। ट्रंप के आने से कौन सा लाभ मिला? करने वाला शोर नहीं करता बल्कि करके दिखा देता है। क्या कतर जैसे यहां होगा?  फीफा वर्ल्ड कप का इंतजाम और माहौल ऐसा हो गया कि कतर के होटलों में जगह कम पड़ गई और पड़ोसी देशों के भाग्य चमक गए। लाखों लोग उनके होटलों में रूके। 10 लाख फुटबॉल प्रेमी घूम रहें थे और कोई वारदात नहीं हुई।
फुटबॉल वर्ल्ड कप के द्वारा कतर अपनी कट्टर छवि में जबर्दस्त सुधार लाया और हमारे यहां उल्टा ही होता है। नोएडा एक्सपो में जो देश भाग लेने आए थे, कान पकड़ लिया कि दुबारा नहीं आएंगे। मूल सुविधाएं नदारद और ट्रैफिक की समस्या से चीनियों ने कहा कि अब कभी नहीं आयेंगे। फीफा  अगर हमारे यहां होता तो विदेशी लड़कियों के छेड़ने की घटना ज़रूर होती। नकली सामान बेच देते। कुछ न कुछ चोरी ज़रूर होती। ट्रैफिक की समस्या ज़रूर होती और कहीं न कहीं व्यवस्था में कमी ज़रूर होती। इस छोटे से देश ने बिना ऐसी शिकायतों के सफल पूर्वक दुनिया का सबसे बड़ा आयोजन करा दिया। आर्थिक रुप से आने वाले दिनों में कतर को बड़ा लाभ मिलने वाला है। जी 20 मेजबानी में अभी देना पड़ रहा है और आते-आते इतना खर्च हो जायेगा कि लेने के देने न पड़ जाएं। झुग्गियों और गरीब बस्तियों को ढकने में तमाम धन व्यर्थ होने लगा है। शहर सजाएं जाने लगे हैं और ये पैसे किसी और काम आते। चीन के राष्ट्रपति गुजरात में आए तो शोर मचा कि 500 बिलियन डॉलर निवेश होगा, हुआ कितना अंदाज ही लगाना ठीक होगा। वाइब्रेंट गुजरात महोत्सव होता रहता है लेकिन अर्थव्यवस्था की हालत खराब होती गई। कुछ बड़े शहरों में चमक दिखती है जो पहले से अच्छे रहे हैं बल्कि देखा जाए तो उनको और आगे होना चाहिए लेकिन ग्रामीणों की हालात बहुत ही खराब है। अतीत के ऐसे सारे कार्यक्रमों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि फायदा किसी का होगा तो ज़रूर लेकिन न देश की अर्थव्यवस्था का और न ही जनता का। लेने के देने ही पड़ेंगें जैसे पहले होता रहा है। एक साधारण सा आयोजन जो इंडोनेशिया जैसे देश ने हाल में किया। इंडोनेशिया की मेजबानी की तैयारी के बारे में तमाम जानकारी इकट्ठा किया तो पता लगा कि उसने इसे इवेंट नहीं बनाया।यहां तो अभी से अनहोनी को होनी की तरह पेश किया जाने लगा है। किसी को कुछ प्राप्ति हो या न लेकिन मोदी जी का नाम चारो तरफ़ ज़रूर चमकेगा। मीडिया तो ऐसा पेश करेगी कि अब तो तमाम समस्याओं का समाधान हो ही जाने वाला है। काश! जी 20 सम्मेलन इवेंट न बने यही देश के भले में होगा।

करीब 7 हजार मजदूरों की कब्रों पर हो रहा है, फीफा वर्ल्ड कप का जश्न

फुटबाल विश्व कप का जश्न अपने शबाब पर है, ऐसे में यह विश्व कप भारत, नेपाल, बाग्लादेश और पाकिस्तान के जिन 7 हजार मजदूरों की कब्रों पर हो रहा है, उसकी चर्चा करना रंगे-पुते चेहरे के पीछे के घिनौने चेहरे को उघाड़ कर रख देने जैसा है, जो किसी को अच्छा नहीं लगता। वैसे मजदूरों के बारे में, यहां तक की उनकी मौत के बारे में बातें करना बीते जमाने की बात ठहरा दी गई है। इसे बैकवर्डनेस मान लिया गया है।
जब सारी दुनिया के कार्पोरेट अपने-अपने विज्ञापनों और मुनाफे, कार्पोरेटे मीडिया अपने विशालकाय कैमरों और खेल का लुत्फ उठा रहे खेल-प्रेमी जश्न में डूबे हुए हों, तो उनसे ये कहना की आप जो यह भव्य स्टेडियम देख रहे है, जो आलीशान अतिथि गृह देख रहे हैं, जो चकाचौंध कर देने वाली सड़के-पुल, होटल, हवाई अड्डों और रोशनी देख रहे हैं, उस सब को तैयार करने में भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के लाखों मजदूर कई वर्षों तक रात-दिन अमानवीय परिस्थियों ( 40 से 50 डिग्री तापमान) में खटते रहे हैं, इसमें 7 हजार मजदूरों की काम के दौरान मौत हो गई और उनकी लाशें ही वापस उनके घर आईं।
इन मजदूरों से 50 डिग्री तक के तापमान में 12 घंटे तक काम कराया जाता था। कई की हार्ट अटैक से मौत हो गई। इस मजदूरों पर कतर के श्रम कानून भी लागू नहीं होते थे। मारे गए मजदूरों को कोई मुआवजा तक नहीं दिया जाता।
ये वे मजदूर थे, जो अपने बाल-बच्चों, मां-बाप और भाई-बंधु को छोड़कर वर्षों के लिए खाड़ी देशों में थोड़ी सी बेहतर जिंदगी और अपनों के लिए थोड़े से बेहतर भविष्य की तलाश गए थे, इनमें से 7 हजार मजदूरों की लाशें ही परिवार वालों के वापस आईं।
खूब जश्न मनाईए, खूब खुशी झूमिए, कतर को इस आयोजन के लिए शाबासी दीजिए और जीतने वाली टीमों को बधाईयां दीजिए, पर हो सके तो उन्हें भी एक बार याद कर लीजिए जो कई वर्षों तक रात-दिन खटते रहे और उनमें 7 हजार के हिस्से मौत आई।
फीफा वर्ल्डकप’ पर मजदूरों के खून के छींटे हैं। एक आंकड़ा देखिये-
भारत, 2,711
नेपाल, 1,641
बांग्लादेश, 1,018
पाकिस्तान, 824  
ऐसे में गोरख पांडेय की कविता स्वर्ग से विदाई याद आती है-
भाइयो और बहनो!
अब यह आलीशान इमारत
बन कर तैयार हो गई है
अब आप यहाँ से जा सकते हैं
अपनी भरपूर ताक़त लगाकर
आपने ज़मीन काटी
गहरी नींव डाली
मिट्टी के नीचे दब भी गए आपके कई साथी
मगर आपने हिम्मत से काम लिया
पत्थर और इरादे से
संकल्प और लोहे से
बालू, कल्पना और सीमेंट से
ईंट दर ईंट आपने
अटूट बुलंदी की दीवारें खड़ी कीं
छत ऐसी कि हाथ बढ़ाकर
आसमान छुआ जा सके
बादलों से बात की जा सके
खिड़कियाँ
क्षितिज की थाह लेने वाली आँखों जैसी
दरवाज़े-शानदार स्वागत!
अपने घुटनों बाजुओं और
बरौनियों के बल पर
सैकड़ों साल टिकी रहने वाली
यह जीती-जागती इमारत तैयार की
अब आपने हरा भरा लॉन
फूलों का बग़ीचा
झरना और ताल भी बना दिया है
कमरे-कमरे में ग़लीचा
और क़दम-क़दम पर
रंग-बिरंगी रोशनी फैला दी है
गर्मी में ठंडक और ठंड में
गुनगुनी गर्मी का इंतज़ाम कर दिया है
संगीत और नृत्य के साज-सामान
सही जगह पर रख दिए हैं
अलगनियाँ प्यालियाँ
गिलास और बोतलें
सजा दी हैं
कम शब्दों में कहें तो
सुख-सुविधा और आज़ादी का
एक सुरक्षित इलाक़ा
एक झिलमिलाता स्वर्ग
रच दिया है
इस मेहनत और इस लगन के लिए
आपको बहुत धन्यवाद
अब आप यहाँ से जा सकते हैं
यह मत पूछिए कि कहाँ जाएँ
जहाँ चाहें वहाँ जाएँ
फ़िलहाल, उधर अँधेरे में
कटी ज़मीन पर जो झोपड़े डाल रक्खे हैं
उन्हें भी ख़ाली कर दें
फिर जहाँ चाहें वहाँ जाएँ
आप आज़ाद हैं
हमारी ज़िम्मेवारी ख़त्म हुई
अब एक मिनट के लिए भी
आपका यहाँ ठहरना ठीक नहीं
महामहिम आने वाले हैं
विदेशी मेहमानों के साथ
आने वाली हैं अप्सराएँ
और अफ़सरान
पश्चिमी धुनों पर शुरू होने वाला है
उन्मादक नृत्य
जाम छलकने वाला है
भला यहाँ आपकी क्या ज़रूरत हो सकती है
और वे आपको देखकर क्या सोचेंगे
गंदे कपड़े धूल में सने शरीर
ठीक से बोलने, हाथ हिलाने
और सिर झुकाने का भी शऊर नहीं
उनकी रुचि और उम्मीद को कितना धक्का लगेगा
और हमारी कितनी तौहीन होगी
मान लिया कि इमारत की
यह शानदार बुलंदी हासिल करने में
आपने हड्डियाँ गला दीं
ख़ून-पसीना एक कर दिया
लेकिन इसके एवज़ में मज़ूरी दी जा चुकी है
मुँह मीठा करा दिया है
धन्यवाद भी दे चुके हैं
अब आपको क्या चाहिए?
आप यहाँ से टल नहीं रहे हैं
आपके चेहरे के भाव भी बदल रहे हैं
शायद अपनी इस विशाल और ख़ूबसूरत रचना से
आपको मोह हो गया है
इसे छोड़कर जाने में दुख हो रहा है
ऐसा हो सकता है
मगर इसका मतलब यह तो नहीं
कि आप जो कुछ भी अपने हाथों से बनाएँगे
वह सब आपका हो जाएगा
इस तरह तो यह सारी दुनिया आपकी होती
फिर हम मालिक लोग कहाँ जाते
याद रखिए
मालिक मालिक होता है
मज़दूर मज़दूर
आपको काम करना है
हमें उसका फल भोगना है
आपको स्वर्ग बनाना है
हमें उसमें विहार करना है
अगर ऐसा सोचते हैं
कि आपको अपने काम का
पूरा फल मिलना चाहिए
तो हो सकता है
कि पिछले जन्मों के आपके काम
अभावों के नरक में ले जा रहे हों  
( यह पोस्ट तैयार करने में नागिरक अखबार और मनीष आजाद की पोस्ट से मदद ली गई है)
आंकड़ों के स्रोत-

लालू यादव के सेहत को लेकर सिंगापुर से आई बड़ी खबर, किडनी ट्रांसप्लांट हुआ सफल

 किडनी ट्रांसप्लांट के लिए सिंगापुर के एक अस्पताल में भर्ती लालू यादव का आपरेशन सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है। इसकी जानकारी लालू यादव के बेटे और बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने ट्विट कर के दी। तेजस्वी यादव ने ट्विटर पर इस बारे में जानकारी दी। तेजस्वी यादव ने लिखा- “पापा का किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन सफलतापूर्वक होने के बाद उन्हें ऑपरेशन थियेटर से आईसीयू में शिफ्ट किया गया। डोनर बड़ी बहन रोहिणी आचार्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष जी दोनों स्वस्थ है। आपकी प्रार्थनाओं और दुआओं के लिए साधुवाद।”

लालू यादव का आपरेशन सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में हुआ है। उन्हें किडनी उनकी दूसरी नंबर की बेटी रोहिणी आचार्य ने डोनेट किया है, जो सिंगापुर में ही रहती हैं। पिछले महीने लालू यादव और उनकी बेटी रोहिणी की किडनी मैच हो गई थी, जिसके बाद यह प्रक्रिया शुरू हुई। पहले लालू अपनी बेटी की किडनी लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन बाद में परिवार के दबाव और बेटी की जिद के बाद वह मान गए।

बताया जा रहा है कि अभी लालू यादव की किडनी 35 प्रतिशत काम कर रही थी। लेकिन अब किडनी के सफलता पूर्वक ट्रांसप्लांट के बाद उनकी किडनी 70 फीसदी तक काम करेगी, जिससे लालू स्वस्थ रहेंगे। आरजेडी मुखिया लालू प्रसाद यादव कई बीमारियों से ग्रसित हैं। उन्हें डायबिजिट और हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी भी है।

बता दें कि लालू यादव तमाम आरोपों में लंबे समय तक जेल में रहे। इस दौरान उनकी सेहत लगातार खराब होती गई। कई बार लालू यादव गंभीर रूप से बीमार हुए लेकिन परिवार की देख-रेख और अपनी इच्छा शक्ति के जरिये लालू यादव हर मुश्किल से बाहर आ गए। किडनी की तकलीफ से लगातार जूझ रहे लालू यादव पिछले दिनों काफी परेशान रहे। लेकिन माना जा रहा है कि अब किडनी ट्रांसप्लांट के बाद उनका स्वास्थ बेहतर हो जाएगा। इससे लालू यादव के परिवार के साथ-साथ उनके समर्थकों और पार्टी के लोगों को काफी राहत मिली है।

लालू यादव और उनका परिवार लगातार यह आरोप लगाता रहा है कि भाजपा से समझौता नहीं करने की वजह से लालू यादव को खराब सेहत के बावजूद लंबे समय तक जेल में रखा गया। साथ ही कई अन्य मामलों में जिससे उनका संबंध नहीं था, परेशान किया गया। उम्मीद है कि स्वस्थ होकर आने के बाद लालू यादव राजनीति में फिर से सक्रिय होंगे।

बौद्ध भिक्खुओं ने रचा इतिहास, जानकर याद आ जाएंगे बुद्ध

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हाथ में तथागत बुद्ध, सम्राट अशोक और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की तस्वीर लिये… बुद्धम शरणं गच्छामि के उदघोष के साथ बौद्ध भिक्खुओं का यह दल सारनाथ से निकला है। उद्देश्य है विश्व का कल्याण। 15 नवंबर को तथागत बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ से यह धम्म यात्रा निकली है, जिसमें देश-विदेश के 101 बौद्ध भिक्खु शामिल हैं। 350 किलोमीटर की पदयात्रा कर बौद्ध भिक्खु 30 नवंबर को श्रावस्ती पहुचेंगे, जहां इस यात्रा का समापन होगा। इसे विश्व शांति पदयात्रा का नाम दिया गया है।

सारनाथ से श्रावस्ती तक इस 15 दिवसीय पदयात्रा की शुरुआत सारनाथ स्थित धम्मा लर्निंग सेंटर से हुई। सेंटर के संस्थापक एवं अध्यक्ष भिक्खु चन्दिमा हैं, जिन्होंने तथागत बुद्ध के दौर के भिक्षाटन की परंपरा को दोहराने का प्रण लिया है। अपनी इस यात्रा के दौरान भंते चन्दिमा और भिक्खु संघ विश्व कल्याण के साथ बौद्ध धम्म और तथागत बुद्ध की बातों का प्रचार प्रसार कर रहे हैं।

इस यात्रा को लेकर बौद्ध समाज के लोगों में भी खासा उत्साह है। बौद्ध भिक्खु जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, बौद्ध उपासक उनके स्वागत के लिए उमड़ रहे हैं। इस दौरान यात्रा के पड़ाव पर भंते चंदिमा और बौद्ध भिक्खु आमजन को धम्म की शिक्षा दे रहे हैं। साथ ही तथागत बुद्ध द्वारा दिये गए उपदेश को बता रहे हैं।

15 नवंबर को सारनाथ से शुरू हुई यह धम्म यात्रा 19 नवंबर को आजमगढ़, 23 नवंबर को अंबेडकर नगर, 25 नवंबर को बस्ती, 27 नवंबर को सिद्धार्थ नगर और 30 नवंबर को श्रावस्ती पहुंचेगी, जहां इसका समापन होगा। इस दौरान बौद्ध भिक्खु रोज 20 किलोमीटर की यात्रा करेंगे।

यात्रा के शुरूआती स्थल सारनाथ के साथ श्रावस्ती भी बौद्ध धम्म का प्रमुख केंद्र है। सारनाथ में बुद्ध ने जहां पांच शिष्यों को अपना पहला उपदेश दिया था, तो वहीं श्रावस्ती स्थित जैतवन में तथागत बुद्ध ने अपना वर्षावास बिताया था। भंते चन्दिमा के नेतृत्व में निकली बौद्ध भिक्खुओं की यह पदयात्रा उस दौर की याद दिला रही है, जब तथागत बुद्ध बौद्ध भिक्खुओं के साथ हाथ में भिक्षापात्र लिये नगर-नगर भ्रमण करते हुए धम्म का प्रचार करते थे। भंते चन्दिमा और भिक्खु संघ ने उस दौर को एक बार फिर से जीवंत कर दिया है।

सवर्ण आरक्षण पर आए फैसले के पीछे है वर्ग संघर्ष में क्रियाशील सोच!

 सवर्ण आरक्षण पर हिंदू जजों के अन्यायपूर्ण फैसले से ढेरों बहुजन बुद्धिजीवी आहत व विस्मित हैं,पर मैं नहीं! यही नहीं सदियों से आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक इत्यादि, विविध क्षेत्रों में हिंदुओं अर्थात् सवर्णों ने शुद्रातिशुद्रो और महिलाओं के खिलाफ एक से बढ़कर एक अन्याय का जो अध्याय रचा है,उससे भी विस्मित नहीं होता। क्योंकि मैं इनकी समस्त गतिविधियों को मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखता हूं। वास्तव में मानव ही नहीं, प्राणी मात्र में जो सतत संघर्ष चलते रहा है,उसे यदि मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखें तो जानवरों द्वारा जानवरों का भक्षण, मानव जाति द्वारा उपभोग के साधनों पर कब्जे के लिए किये गए हर कृत्य में मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत की क्रियाशीलत नजर आएगी। वर्ग संघर्ष की व्याख्या के क्रम में मार्क्स द्वारा कही गई यह बात हर पढ़े लिखे व्यक्ति के जेहन में होगी कि दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है: एक वर्ग वह है जिसका उत्पादन के साधनों ( दुसाध के शब्दों शक्ति के स्रोतों ) पर कब्जा है, दूसरा वह है जो इससे वंचित व बहिष्कृत exclude है। इन दोनों में दुनिया में सर्वत्र ही सतत संघर्ष चलते रहता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने प्रभुत्व dominance को बनाए रखने के लिए राज्य का इस्तेमाल करता है”।

वास्तव में मानव मानव के मध्य सारा संघर्ष conflict उपभोग ( जीविकोपार्जन) के साधनों पर कब्जे के लिए, इस बात को दुनिया के तमाम प्रभुत्वशाली वर्गो में जिसने सर्वाधिक आत्मसात किया : वह हिंदू अर्थात सवर्ण रहे। इसलिए सवर्णों ने उपभोग के साधनों : शक्ति के स्रोतों पर कब्जा जमाने के लिए जिस तरह नैतिक और अनैतिक रास्तों का अवलंबन किया, वैसा कोई अन्य प्रभुत्वशाली वर्ग नहीं कर पाया। इस कारण भारत का सवर्ण समुदाय एक ऐसे विरल प्रभु वर्ग में विकसित हुआ है,जिसमें जियो और जीने दो की भावना न्यूनतम स्तर की रही।

वर्ग संघर्ष की विरल सोच के कारण ही स्वाधीन भारत के सवर्ण शासक डॉक्टर आंबेडकर की कड़ी चेतावनी के बावजूद भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या: आर्थिक और सामाजिक विषमता के उत्खात में कोई रुचि नहीं लिए।क्योंकि इसके लिए सवर्ण, एससी/ एसटी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्त्री पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा करना पड़ता और ऐसा करने पर सवर्णों का उपभोग के साधनों पर एकाधिकार नहीं हो पाता। यह वर्ग सिर्फ अपने एकाधिकार का आकांक्षी रहा है, इसलिए जब 7अगस्त 1990 को मंडल की रिपोर्ट के जरिए सरकारी नौकरियों में एकाधिकार टूटने की आशंका दिखी, इसका हर तबका: छात्र और उनके अभिभावक, हरि भजन में निमग्न साधु संत, राष्ट्र के विचार निर्माण में लगे लेखक पत्रकार और धन्ना सेठों के साथ इनके तमाम राजनीतिक दलों ने जिस रवैए का परिचय दिया, दुनिया के इतिहास में उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है!

लोग भूले नहीं होंगे कि मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही भारत के ज्ञात इतिहास में एक अभिनव स्थिति पैदा हो गई। क्योंकि इससे सदियों से शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाए विशेषाधिकारयुक्त सवर्णों का वर्चस्व टूटने की स्थिति पैदा हो गई। इस रिपोर्ट ने जहां जन्मजात सुविधाभोगी सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27% अवसरों से वंचित कर दिया,वहीं इससे दलित,आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों में जाति चेतना का ऐसा लंबवत विकास हुआ कि सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए। कुल मिलाकर मंडल से एक ऐसी स्थिति का उद्भव हुआ,जिससे वंचित वर्गो की स्थिति अभूतपूर्व रूप से बेहतर होने के आसार पैदा हो गए। ऐसा होते ही सवर्ण वर्ग के बुद्धिजीवी ,मीडिया,साधु संत, छात्र और उनके अभिभावक और दौलतमंदों सहित तमाम सवर्णवादी राजनीतिक दल अपना कर्तव्य स्थिर कर लिए और आरक्षण के खात्मे में जुट गए। इस के पीछे सिर्फ एक ही कारण था वर्ग संघर्ष के सोच की क्रियाशीलता!

अपने वर्गीय सोच के हाथों विवश होकर सवर्ण छात्र जहांआत्म दाह से लेकर संपदा दाह में जुट गए ,वहीं राष्ट्र के विचारों का निर्माण करने वाले तमाम लेखक पत्रकार आरक्षण के विरुद्ध फिजा बनाने में कलम तोड़ने लगे। लेकिन वर्ग संघर्ष में वर्ग शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए साधु संतों ने जिस भयावह वर्गीय चेतना की मिसाल पेश किया, वह मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे विरल घटनाओं में दर्ज हो गया।

 

भारतीय साधु संत सदियों से जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य में विश्वास करते हुए जागतिक समस्यायों से निर्लिप्त रहे। इसलिए हजारों वर्षो तक मुसलिम शासन में चली हिंदुओं की गुलामी के खिलाफ मुखर होने के बजाय वे हरि भजन में निमग्न रहे। बेशक अंग्रेज भारत में जन्मे स्वामी दयानंद, विवेकानंद,ऋषि अरविंद जैसे हिंदू शख्सियतों ने ईश्वर भक्ति से ध्यान हटाकर देशभक्ति अर्थात हिंदुओं को गुलामी से मुक्त करने में कुछ ऊर्जा लगा कर अपवाद घटित किया।पर,सहस्रों साल से शंकराचार्य, रामानुज स्वामी, तुलसी और सूरदास, रामदास कठिया बाबा,गंभीरनाथ,भोलानंद गिरी ,तैलंग स्वामी इत्यादि जैसे स्टार साधक व उनके अनुसरणकारी सारी समस्यायों से निलिप्त होकर हरि भजन में लगे रहे। किंतु 7 अगस्त ,1990को को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही इनकी तंद्रा टूट गई और गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के नाम पर ये संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा के साथ हो लिए ,जो आरक्षण के खात्मे के लिए राम मंदिर का आंदोलन छेड़ी थी।

मंडल उत्तरकाल में साधु संतों ने अपने स्व वर्ण सवर्णों के हित में जो राजनीति खेली,उसकी मिसाल संपूर्ण इतिहास में मिलनी मुश्किल है! ऐसा इसलिए कि हिन्दुओं अर्थात सवर्णों में वर्गीय चेतना दूसरी नस्लों से कहीं ज्यादा है। इस चेतना के हाथों मजबूर होकर वे समय समय पर ईश्वर भक्ति से ध्यान हटाकर गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के आंदोलन में कूदते रहते हैं। अगर साधु संतों ने सवर्ण हित में जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य की थ्योरी का मजाक उड़ाया है तो न्यायायिक सेवा पर काबिज सवर्णों ने बार बार स्व वर्णीय हित में सामाजिक न्याय का गला घोटा है,जिसका नया दृष्टांत सवर्ण आरक्षण है।

मोदी ने सत्ता में आने के बाद मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार कायम करने और आरक्षण पर निर्भर वर्ग शत्रु : बहुजनों को फिनिश करने में किया है। इसीलिए उन्होंने देश की उन तमाम संस्थाओं को निजी क्षेत्र के जरिए अल्पजन सवर्णों के हाथ में देने के लिए सर्व शक्ति लगाया जहां उनके वर्ग शत्रुओं आरक्षण मिलता रहा। मोदी की तरह देश बेचने जैसा जघन्य काम विश्व में किसी भी शासक ने अंजाम नहीं दिया।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सवर्णों जैसी निर्मम वर्ग चेतना किसी कौम में पैदा ही नहीं हुई। इस कारण ही उन्होंने संविधान का मखौल उड़ाते हुए 2019 के जनवरी में महज एक सप्ताह के भीतर ईडबल्यूएस के नाम पर सवर्णों को 10% आरक्षण दे दिया।

यह लोकतंत्र के इतिहास में राजसत्ता के जघन्यतम इस्तेमाल का विरल दृष्टांत था,जिसके खिलाफ सवर्णों का बुद्धिजीवी वर्ग कभी मुखर नहीं हुआ।कोई और देश होता तो वहां के प्रभु वर्ग के लेखक पत्रकार मोदी सरकार की आलोचना में जमीन आसमान एक कर देता पर,भारत के प्रभु वर्ग का कलमकार खामोश रहा,क्योंकि इसमें स्व वर्णीय/ वर्गीय चेतना इतनी प्रबल है कि निज वर्ण हित में देश हित और मानवता की बलि देने में इसे रत्ती भर भी विवेक दंश नहीं होता।भारत के बौध्दिक वर्ग के इसी चरित्र का अनुसरण करते हुए न्यायतंत्र पर काबिज लोगों ने मोदी के फैसले पर समर्थन को मोहर लगा दिया है।अब इस फैसले के खिलाफ वंचित बहुजन समाज के कुछ लोग कोर्ट में जाने का मन बना रहे हैं।

सवर्ण आरक्षण के फैसले के खिलाफ फिर से कोर्ट का शरणागत होने का मन बनाने वालों की एक बड़ी त्रासदी यह रही कि आदर्श आंबेडकरवावादी बनने के चक्कर में इन्होंने इतिहास को मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखा ही नहीं। उन्हें लगता है इस नजरिए से भारत के इतिहास को देखने से वे शुद्ध आम्बेडकरवादी नहीं रह जायेंगे। इसलिए उन्होंने स्वाधीन भारत में शासकों की गतिविधियों को वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखने का कष्ट ही नहीं उठाया: अगर उठाया होता आज़ाद भारत का इतिहास भिन्न होता!उनके इस भोलेपन का लाभ उठकर भारत का जन्मजात प्रभु वर्ग अपने वर्ग शत्रुओं को प्रायः फिनिश कर चुका है। ऐसे में शेष होने के कगार पर पहुंचे बहुजन समाज को जिन्हे बचाने को चिंता है, वे यूनिवर्सल रिजर्वेशन अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई लड़ने के लिए “यूनीवर्सल रिजर्वेशन फ्रंट “निर्माण की बात सोचें,जिसके दायरे में होगा भारत के विविध समाजों के स्त्री पुरुषों के संख्यानुपात में सेना,न्यायिक व पुलिस सेवा के साथ सरकारी और निजी क्षेत्र की समस्त नौकरियों,सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों,फिल्म मीडिया, पौरोहित्य, शिक्षण संस्थानों के प्रवेश ,अध्यापन इत्यादि सहित ए टू जेड हर क्षेत्र! इस लड़ाई का यह एजेंडा हो कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में पहला अवसर सर्वाधिक वंचित दलित/ आदिवासी महिलाओं और शेष अवसर सर्वाधिक संपन्न सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात में मिले!

Decolonising the caste question: Reservations for Dalit Muslims and Dalit Christians

As an integral part of India’s continued modernity, caste is not merely a phenomenon restricted to rural areas or in extreme cases manifested in caste-related violence. It is a part of everyday affairs in modern institutions, public spaces and community life, where it represents a contingent element in social relations.

To grapple with the unique problem of caste endemic to the subcontinent, India made explicit constitutional and legal provisions for compensatory discrimination for the advancement of the historically depressed and socially backward sections of the society. India has long strived to strike a balance between its commitment to an overarching conception of equality for all, and the imperatives of compensatory discrimination in favour of specified castes and communities who have been historically relegated to the margins of the society, and against whom the forward castes have monopolized power and resources. Compensatory discrimination, popularly known as reservation, endeavours to actualize Dr. B.R. Ambedkar’s prophetic aspiration of substantive equality. For those who thought that these two objectives are incompatible, India proved that such a course is not only feasible, but also desirable as it strengthens the democratic process itself.

More than seven decades of Indian experience of compensatory discrimination did, however, give rise to multitudinous theoretical, constitutional and legal issues vis-à-vis the contemporary reservation policy. One such question awaiting answers from the apex court, legislators and public imagination at large is that of the status of Dalit converts to Islam and Christianity. The apex court has been hearing a bunch of petitions arguing the delinking of caste reservation from religion. The progress came following a hearing in Supreme Court on August 30 where Solicitor General Tushar Mehta promised to submit the Union Government’s stance within three weeks on the possibilities of extending reservations to Dalit Muslims and Dalit Christians.

Characterizing Dalit Muslim and Dalit Christian communities

Before addressing the intricacies of a prospective inclusion of Dalit Muslim and Dalit Christian communities in the existing reservation policy, it is imperative to discern ‘Dalit Muslims’ and ‘Dalit Christians’ as authentic social groups, and the challenges inherent in presupposing that only clearly dileanated social groups exist. Despite enduring discourses about social hierarchy and socio-political activism, and a generalized have-nots versus elite rhetoric that underlies assertions of community coherence and demands for amelioration, no established, homogeneous groups can be identified as Dalit Muslims or Dalit Christians for either scholarly investigation or policy planning. Rather, diversity, status ambiguity and ongoing social change processes provide the most cogent characterization of Dalit Muslim and Dalit Christian communities in India today. Ethnic mobilizations, social stratification and issues of social justice are dominant themes in today’s sociological, anthropological and political discourses on modern India. Nowhere do these themes intermingle as exhaustively as in the expanding discourse on Dalit Muslims and Dalit Christians.

Unearthing a long pending injustice

As stated before, the plight of Dalit Muslims and Dalit Christians is falling upon sensitive ears after long because of the ongoing petitions before the Supreme Court. In response, the government of India has appointed a three-member commission headed by former Chief Justice of India and former chairperson of the National Human Rights Commission (NHRC) K G Balakrishnan to consider the inclusion of Dalit Muslims and Dalit Christians as Scheduled Castes (SCs). Earlier, the Attorney General had submitted before the Supreme Court that the government lacks data on the two minority groups. The crucial question before the constitutional bench of the apex court is the validity or lack thereof of the Constitution (Scheduled Castes) Order, 1950, sub-clause three under Article 341, which expressly forbids the inclusion of persons who follow a religion other than Hinduism, Buddhism, and Sikhism. The said clause must be assessed against the fundamental rights of equality before the law and non-discrimination based on religion, race, or caste. Under the existing condition, Dalit Muslims and Dalit Christians stand discriminated against, while Dalit converts to Sikhism and Buddhism in addition to Dalit Hindus hold eligibility for the constitutional policy of reservation.

Both the Government of India and the Supreme Court have been rendered a historic opportunity to unearth a long pending injustice. The problem endures as the colonial understanding of the relationship between caste and religion persists. The British colonial administration firmly believed that caste was an exclusively Hindu phenomenon since the scriptures of any other religion did not extend legitimacy to this birth-based hierarchy perpetuated through the apparatus of endogamy. Hence, only Hindus were allowed to be included in the Scheduled Castes as part of the Government of India Act of 1935. Consequently, in India’s post independence polity, the Presidential Order of 1950 gave a new lease of life to caste-religion congruence by relying on the same criteria. The two amendments to include Sikhs and Buddhists in 1956 and 1990 respectively, did not strike at the underlying premise. The Scheduled Castes order is a shining example of the colonial understanding of the institution of caste which is immovable even after 75 years of independence from foreign rule. Thus, there is a historic opportunity before the Supreme Court and the Government of India to decolonise the understanding of caste by quashing Clause 3 of the Presidential Order.

For decades, it has been the endeavour of the political executive to hide behind the excuse of a lack of data. It is very apparently, a vicious cycle of the absence of data paralysing policy formulation. However, once the inherent discrimination in the Constitution is removed, all other steps will follow independently. The inclusion of castes would happen on a case-to-case basis, using data collected by the Registrar General of India.

Unsurprisingly, the claim that there is no data on these caste groups is also not tenable. Several studies have underlined the persistence of caste or caste-like hierarchy among Muslims and Christians after conversion to these religions and the existence of a group of people at the bottom facing untouchability.

Previous efforts towards inclusion of Dalit converts to Islam and Christianity among SCs

After 1990, a number of Private Member’s Bills were introduced on the floor of the Parliament for the stated purpose. In 1996, a government Bill called the Constitution (Scheduled Castes) Orders (Amendment) Bill was drafted, but in view of a divergence of opinions, the Bill was not introduced in Parliament.

Additionally, the UPA government headed by Prime Minister Manmohan Singh set up two important panels: the National Commission for Religious and Linguistic Minorities, popularly known as the Ranganath Misra Commission, in October 2004; and a seven-member high-level committee headed by former Chief Justice of Delhi High Court Rajinder Sachar to study the social, economic, and educational condition of Muslims in March 2005.

The Ranganath Misra Commission, which submitted its report in May 2007, recommended that SC status should be “completely de-linked…from religion and…Scheduled Castes [should be made] fully religion-neutral like…Scheduled Tribes”.

On the other hand, the Sachar Commission Report observed that the social and economic situation of Dalit Muslims and Dalit Christians did not improve after conversion. The report was tabled in both Houses of Parliament in 2009, but its recommendation was not accepted in view of inadequate field data and corroboration with the actual situation on the ground.

Also, a detailed 2008 review-study commissioned by the National Commission of Minorities (NCM) and housed in the Sociology Department of Delhi University, authored by the Sociologist Satish Deshpande analysed the question of Dalit Muslims and Dalit Christians on multiple levels. One, what is the contemporary status of Dalit Muslims and Dalit Christians in terms of their material well-being and social status? Two, how does their situation compare with that of: a) non-Dalits of their own communities, and b) Dalits of other communities? And three, do the caste disabilities suffered by these groups justify state intervention?

The study reviewed two main kinds of available evidence, ethnographic-descriptive and macro-statistical, in addition to semi-academic NGO reports and publications. The only original part of the study was an extensive analysis of the unit-level data from the (then) latest large-sample survey of the National Sample Survey Organisation (61st Round of 2004-05).

On the basis of these studies, the courts have time and again accepted that “caste survives conversion” but complain about the lack of reliable data. There is a circularity about the lack of data that needs to be emphasised. Official national-level data – usually more reliable than other kinds – does not exist on Dalit Muslims and Dalit Christians simply because they are not recognised as Scheduled Castes.

It has been established beyond dispute that Dalit Muslims and Dalit Christians face social indignities much like their counterparts in the Hindu or Sikh communities. (The case of Buddhism is different because the overwhelming majority – around 95 per cent — of India’s Buddhists are Dalits.) As expected, there is visible and significant variation in specific practices of discrimination and segregation across regions and communities, but this is common to Hinduism and Sikhism as well.

Inconsistency in the religion-based bar on converted marginalized people

The Department of Personnel and Training (DoPT) website states, “The rights of a person belonging to a Scheduled Tribe are independent of his/her religious faith.” Moreover, following the implementation of the Mandal Commission report, several Christian and Muslim communities have found place in the central and state lists of OBCs. Thus, this religion-based bar on converted marginalized people exists only to the detriment of converted Dalits and not the STs and OBCs.

BJP, Savarkar, and a change of mind

While the BJP has always attacked Congress-led Governments with the Muslim-appeasement jibes, the political observers argue it is now BJP’s turn to prove otherwise for themselves. The far-right organisation has historically opposed such steps towards extending reservation to the Dalit converts to Islam and Christianity.

During the debates on Ranganath Mishra commission, BJP leader Nitin Gadkari slammed the then Government for appeasement and called for throwing the reports to the dustbin. Interestingly, BJP has always been against such reservations to any religious group that they consider ‘alien’.

Their ideological forefather V D Savarkar’s idea of conflating ‘holy land’ and ‘father land’ as the determining ground to be ‘Indian’ doesn’t allow Muslims and Christians to be ‘fully Indians’ despite their centuries of belonging.

Conclusively, while the step to organise this panel is being interpreted as a welcome move by many, some vociferous voices believe that it is another effort of the BJP to weaken the unity among Muslims through the caste card. They argue, it is necessary to contextualize this step as in the last few years the world has witnessed the unity of Indian Muslims several times against legislations that pitted them against the current ruling dispensation.

However, even if the motivations behind it may be murky, the move itself is welcome because the issue is crystal clear. At this juncture in India’s post independence polity, it’s a gross injustice upon the integrity of the Constitution of India to exclude marginalized groups discernible as Dalit Muslims and Dalit Christians from the constitutional policy of reservations that aspires to enable equitable conditions for progress and opportunities for every section of the society. The Supreme Court and the Government of India must assess the debate from the perspective of decolonising the question of caste through interpreting the Constitution (Scheduled Castes) Order, 1950, sub-clause three under Article 341 of the Constitution of India in the same light.

Additionally, the concepts of ‘Dalit Muslims’ and ‘Dalit Christians’ as cohesive groups remain the product of discursive processes and rhetorical pronouncements rather than well-defined consensus. In the end, what remains are enduring discourses

about social stratification and socio-political activism that construct and reinforce convoluted narratives of oppression focused on an as-yet abstrusely defined Dalit Muslim and Dalit Christian communities in India. It should be the endeavour of scholarly investigation and public policy to address these unique experiences in greater depth and preclude possibilities of homogenizing these varied experiences.

गुजरात में सैकड़ों मौतों का दोषी कौन? 

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गुजरात के मोरबी में मच्छु नदी पर बना ऐतिहासिक पुल के गिरने से 150 लोगों की मौत हो गई। पुल पर 100 लोगों की क्षमता थी। घटना के वक्त पुल पर 500 लोग थे, जिसकी वजह से यह गिर गया और कई घर उजड़ गए। गुजरात सरकार ने मृतकों के परिजनों को राज्य सरकार की ओर से चार लाख और पीएम फंड से 2 लाख देने की घोषणा हुई है। घायलों को 50 हजार दिया गया है।
1879 में इसको साढ़े तीन लाख की लागत से बनाया गया था। इसे मोरबी के राजा वाघजी रावाजी ठाकोर ने बनवाया था। यानी अब यह पुराना हो चुका था। जिसकी वजह से यह पिछले छह महीने से बंद था। मरम्मत के बाद इसे 26 अक्टूबर को फिर से खोला गया था।इस पुल के देख-रेख की जिम्मेदारी ओरेवा ग्रुप के पास है। मार्च 2022 से मार्च 2037 तक इस ग्रुप कोब्रिज की साफ सफाई, सुरक्षा, रख-रखाव और टोल वसूलने की जिम्मेदारी है। इस घटना के बाद कई सवाल खड़े हो गए हैं, जिसका जवाब गुजरात सरकार को और ओरेवा ग्रुप को देना है। (1) इस पुल पर जाने के लिए टिकट लेना पड़ता है। जब 100 लोग की क्षमता है तो 500 लोग कैसे पहुंचे। (2) 26 अक्टूबर को जब पुल खोला गया, NOC नहीं मिला था। बिना एनओसी के पुल कैसे और किसके आदेश पर खोला गया। सभी मौतों के लिए उसी को जिम्मेदार मानकर हत्या का मामला दर्ज होना चाहिए। (3) भीड़ नियंत्रित करने में ओरोवा ग्रुप और सुरक्षा व्यवस्था में लगे लोग कैसे विफल हो गए।

माता-पिता को खोकर भी हौसला नहीं ख़ोया, अपने संघर्ष की बदौलत दिवाकर बना जज

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दिनांक 10.10.2022 को बिहार लोक सेवा आयोग, पटना द्वारा 31वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा का परिणाम जारी किया गया, जिसमें कुल 214 अभ्यर्थियों का चयन हुआ। उसमें एक नाम दिवाकर राम का भी है, जिसे कैमूर के बहुजन युवा कैमूर का कांशीराम कहते हैं। जज बनने के बाद से दिवाकर राम को बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ है। गाँव के हर लोगों को लग रहा है कि अपना बेटा जज बना है। आखिर कौन है दिवाकर राम, आइए जानते हैं-

जन्म

 कैमूर जिला के चैनपुर प्रखण्ड के चैनपुर थाना अंतर्गत चैनपुर पंचायत के मलिक सराय गाँव के निर्धन परिवार में दिवाकर राम का जन्म हुआ। दिवाकर के पिता का नाम सुधीर राम तथा माता का नाम कुन्ती देवी था। दिवाकर के दादा का नाम महिपत राम था और उनके चार पुत्रों में से दिवाकर के पिता सबसे बड़े थे या यों कहें कि वे अपने खानदान के सभी भाइयों में सबसे बड़े थे, इसलिए उनका पूरे खानदान में मान-सम्मान रहा है। दिवाकर तीन भाई-बहन है। छोटे भाई का नाम प्रभात राम तथा छोटी बहन का नाम ज्योति कुमारी है। गाँव के लोग दिवाकर को दसवीं तक ‘पतालू’ ही कहते थे। आज भी गाँव के बुजुर्ग लोग पतालू ही कहते हैं और प्रभात को ‘डब्ल्यू’। यह तो गोपाल सर जी की महानता है कि इसके पिता जी नाम लिखाने गये तो दोनों भाइयों का नाम बदल डाले और उन्होंने दिवाकर की जन्मतिथि 01 अप्रैल, 1989 लिख दी। आज उसी तिथि को सच मानकर जन्मदिन की बधाइयां बटोरना पड़ता है। खैर, ऐसा अधिकांश ग्रामीण विद्यार्थियों के साथ हुआ है। गोपाल सर ने हमारे गाँव के कई विद्यार्थियों का नामांकन के समय निःशुल्क नामकरण संस्कार किया है।

बचपन

दिवाकर का बचपन गाँव की गलियों में ही बीता है। गाँव के सभी बच्चे लगभग एक जैसे ही पले-बढ़े हैं। बचपन में दिवाकर खेल-कूद में भी अव्वल था। चुट्टी (गोली) तथा ताश खेलने के लिए कई बार अपने बाबू जी से मार भी खाया है। क्रिकेट, फुटबॉल एवं गुल्ली डंडा खेलने पर उसके  बाबू जी नहीं बोलते थे लेकिन चुट्टी, ताश एवं जुआ पर तो तुरंत चप्पल निकाल लेते थे फिर भी बालमन खेलने से बाज नहीं आता था। छुप-छुप कर खूब खेला जाता था।

शिक्षा और संघर्ष

कक्षा छठवीं तक की पढ़ाई राजकीय कृत मध्य विद्यालय, चैनपुर तथा सातवीं से दसवीं तक की पढ़ाई गाँधी स्मारक उच्च विद्यालय, चैनपुर से किया है। बिहार विधानसभा चुनाव 2005 में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला जिसके कारण 07 मार्च को राष्ट्रपति शासन लग गया और मार्च के अंतिम सप्ताह में मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा होती थी। दिवाकर मैट्रिक बोर्ड में फस्ट डिवीजन से परीक्षा पास किया। गाँव के सवर्ण परिवार में कुछ बच्चे पहले भी फर्स्ट डिवीजन लाये थे लेकिन दलित-पिछड़ा परिवार में पहली बार दिवाकर को ही फस्ट डिवीजन से पास होने का संयोग बना। उस समय का नौवीं कक्षा तक विद्यार्थी पढ़ाई के प्रति बेपरवाह रहते थे लेकिन दसवीं कक्षा में जाते ही मैट्रिक का लोड ट्रक के लोड जैसा महसूस होने लगता था। लगभग हर दिन बात-बात में गुरुजी लोग बोर्ड की याद दिलाते रहते थे। दिवाकर दसवीं में जाने के बाद खेलना-कूदना बहुत कम कर दिया था। सात बजे तक गोड़-हाँथ धोकर कुर्सी पर लालटेन के सामने किताब लेकर बैठ जाता था। दिवाकर इस मामले में धनी था कि गरीबी में भी उसके बाबू जी कुर्सी की व्यवस्था कर दिए थे वरना अधिकांश को तो खटिया पर या जमीन पर ही बोरा बिछाकर ढिबरी या लालटेन के सामने  बैठकर पढ़ना पड़ता था।

दसवीं के बाद इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के बनारस चला गया, तब उसके पिता जी किसी जमींदार के यहाँ रहकर खेतीबारी कराते थे और ट्रैक्टर चलाते थे। बनारस में अधिकांश समय आंबेडकर छात्रावास में रहकर पढ़ाई किया। 2007 में पीसीएम (विज्ञान वर्ग) से प्रथम श्रेणी से बारहवीं करने के बाद इंजीनियरिंग की तैयारी में अभी जुटा ही था कि उसके पिता जी की तबियत खराब हो गई और बेहतर इलाज के अभाव में बनारस में ही वो चल बसे। पिता जी का जाना दिवाकर के लिए बहुत बड़ा झटका था। छोटे-छोटे भाई बहन और विकलांग माँ के साथ पेट पालना ही मुश्किल था तो फिर पढ़ाई करना तो और मुश्किल…., लेकिन दिवाकर इंटरमीडिएट में ही शिक्षा का महत्व समझ चुका था, इसलिए उसके लिए पढ़ाई छोड़ने का निर्णय लेना आसान नहीं था। उसने बनारस में काम करके पढ़ने की सोची और रिक्शा भी चलाना शुरू किया लेकिन कम उम्र और कमजोर शरीर की वजह यह सब आसान नहीं था। बहुत दिन तक चल नहीं सका। बनारस से बोरिया-बिस्तर समेट कर घर आ गया। घर आने के बाद उसे लगा कि मैं उच्च शिक्षा से विमुख हो जाऊँगा, इसलिए उसने तय किया कि जिला मुख्यालय भभुआ में रहकर टीयूशन पढाऊँ और अपनी पढ़ाई को जारी रखूं। दिवाकर भभुआ में जगजीवन राम स्टेडियम के बिल्कुल सामने वाले मकान में किराए पर कमरा लिया और छोटे भाई के साथ रहने लगा। शुरुआत में मुश्किल से एक टीयूशन मिला। भभुआ में 500 रु महीना टीयूशन पढ़ाकर गुजारा करना कितना मुश्किल होगा कोई भी आसानी से समझ सकता है। उसकी विकलांग मां बच्चों का लालन-पालन करने के लिए कटिया-बिनिया व मजूरी भी करने लगी। अपने पास खेतीबारी भी नहीं थी कि कुछ अनाज हो जाये। नाम मात्र को जमीन का एक टुकड़ा था। चावल-आंटा घर से ही ले जाता था।

एक दिन दिवाकर झोला में चावल-आंटा घर से लेकर शाम पाँच बजे के आसपास भभुआ जाने के लिए घर से निकला। गाँव के बाहर विश्वकर्मा जी के मंदिर व पोखरा के पास पहुँचा, तो तीन-चार दोस्तों को चबूतरे पर बैठ बातचीत करते देख खुद भी आकर बैठ गया। दरअसल वह भभुआ जा रहा था लेकिन उसके पॉकेट में एक रुपया भी पैसा नहीं था जबकि पाँच रु किराया था चैनपुर से भभुआ जाने का। ऐसे अधिकांशतः शरारती लड़के तो बस में मुफ़्त में ही भभुआ चले जाते थे या कोई टेढ़ा कंडक्टर मिल गया तो एक-दो रुपया दे दिया, लेकिन दिवाकर ऐसा नहीं करता था। चबूतरे पर बैठे  दोस्तों में से किसी के भी पास पाँच रुपये नहीं थे। अंततः दो घण्टे बैठकर बातचीत करने के बाद दिवाकर वहीं से झोला लेकर घर लौट गया। कुछ दिन बाद एक-दो टीयूशन और मिल गये, फिर एक स्कूल में भी पढ़ाने जाने लगा। अब उसके खाने-पीने की समस्या दूर होने लगी, लेकिन स्कूल में पढ़ाने से उसे पढ़ने का मौका नहीं मिलता इसलिए जल्दी ही स्कूल को छोड़ दिया। उसके उम्र के कई लड़के बाहर फैक्ट्रियों में कमाने लगे थे इसलिए कई लोग दबी जुबान से यह कहने से बाज नहीं आते थे कि बाप मर गया और विकलांग मां दूसरे के यहाँ मेहनत-मजूरी कर रही है और यह नालायक़ चला है कलेक्टर बनने। खैर, यह बात कोई दिवाकर के मुँह पर कहता तो भी वह बुरा नहीं मानता क्योंकि उसके भीतर अथाह सहनशीलता है। हाँ, उसका भाई बिल्कुल उसके विपरीत स्वभाव का रहा है, उधर कुछ सालों से भले सुधर गया है। उसे दिवाकर ने कभी डाँटा हो या मारा हो ऐसा भी नहीं है, बल्कि उसकी गलतियों पर हँसते हुए कहता था कि अभी बच्चा है। लेकिन धीरे-धीरे वह भी दिवाकर के साथ रहकर समाज को समझने लगा और अपने बड़े भाई की प्रतिष्ठा में ही अपनी भी खुशी तलाशने लगा। प्रभात जब इंटरमीडिएट में था तब बहुत दिनों तक दोनों भाई एक ही पैंट से काम चलाते थे। दिवाकर टीयूशन पढ़ाने या कहीं चला जाता तो प्रभात दिन भर कमरे में ही रहता या बहुत ऊबता तो हाफ पैंट पहन कर आसपास घूम लेता। दोनों एक साथ घर भी नहीं जा पाते थे। यह तो संयोग ऐसा था कि दोनों भाई का शारिरिक संरचना एक ही जैसा था, जिससे एक पैंट से भी काम चल जाता था। वह समय प्रभात को थोड़ा विचलित किया और वह कमाने के लिए सोचने लगा लेकिन दिवाकर के डर से पढ़ाई छोड़कर बाहर भी नहीं जा सकता था। बारहवीं के बाद वह स्टाम्प टिकट खरीदकर कचहरी में ब्लैक में बेचकर अपना पॉकेट खर्च चलाने लगा। कुछ दिन के बाद इधर-उधर मजदूरी करने लगा और फिर ट्रक पर खलासीगिरी में रम गया, लेकिन दिवाकर के दबाव में ग्रेजुएशन करना जारी रखा। तब तक दिवाकर 2015 में ग्रेजुएशन पूरा कर चुका था। वह 2009 में ही सरदार वल्लभ भाई पटेल महाविद्यालय, भभुआ में बीएससी मैथ ऑनर्स में एडमिशन ले लिया था। बिहार में कॉलेज की कक्षाएँ  तो तब भी नहीं चलती थीं और आज भी नहीं के बराबर ही चलती हैं।

दिवाकर ग्रेजुएशन में पढ़ रहा था तभी अपने पंचायत का विकास मित्र बन गया था, जिसमें सरकार से कुछ मासिक वेतन मिलने लगा। विकास मित्र बनने के बाद धीरे-धीरे सारा टीयूशन छोड़ दिया। टीयूशन को कभी कमाने का जरिया नहीं बनाना चाहता था। उसके खाने-पीने और पढ़ने की पूर्ति हो सके उतने की ही उसे जरूरत थी। साल 2012 में पुनः बनारस लौटने का फैसला लिया और काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रवेश परीक्षा हेतु तीन आवेदन कर दिया। टीयूशन और स्कूल में पढ़ाने के बाद दिवाकर शिक्षक बनने का सपना देखने लगा था, इसलिए बीएड पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा हेतु आवेदन किया और साथ  ही लाइब्रेरी साइंस तथा एलएलबी का भी। बीएड में तो नामांकन योग्य इंडेक्स लाया नहीं, लेकिन एलएलबी में अच्छा इंडेक्स मिला। लाइब्रेरी साइंस और एलएलबी का प्रवेश परीक्षा एक ही दिन पड़ गया इसलिए लाइब्रेरी साइंस का परीक्षा छोड़ना पड़ा था। एलएलबी में नामांकन के दिन दिवाकर  को उसी के मिजाज का रूममेट मिल गया जिसे आजतक सब लंकेश ही कहते हैं। खैर, पुनः वाराणसी वापसी किया था और इसबार तो बीएचयू में भगवान दास छात्रावास मिला। लंकेश दिवाकर की लापरवाही से बहुत परेशान रहता था क्योंकि वह आये दिन कमरे की चाभी खोआ देता था और लंकेश के इंतजार किये बिना ही ताला तोड़ भी देता था। दरअसल चार सालों तक भभुआ रहा था लेकिन कभी अपने कमरे में ताला नहीं लगया था, चाहे जितना दिन भी गायब रहे। जिसका मन करे कमरे में जाये, खाना बनाये, खाये-सोए और चले जाये कोई टोकने वाला नहीं होता।

एलएलबी अभी चल ही रहा था कि दिवाकर की माँ को पैरालाइसिस (हवा/लकवा) हो गया। दिवाकर की परेशानी और बढ़ गई, उससे अधिक उसके भाई-बहन की, क्योंकि वे दोनों मां से अधिक भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। प्रभात अब इधर-उधर कमाकर मां की इलाज कराने लगा। मां की बीमारी से दिवाकर की पढ़ाई  डिस्टर्ब न हो इसके लिए प्रभात सब कुछ खुद करने की कोशिश करता। उस समय तक वह ड्राइवर बन चुका था लेकिन नियमित गाड़ी नहीं चलाता था। कभी कोई बोल दिया तो लेकर चला गया लेकिन माँ की इलाज के लिए शराब से लदी गाड़ियों को रात में चलाने लगा। काम दो नम्बर का और रिस्की था इसलिए पैसे भी ठीकठाक मिल जाते थे, लेकिन जैसे ही दिवाकर को पता लगा वह छोड़ा दिया। कई माह तक मां बेड पर पड़ी रहीं और दोनों भाई-बहन दवा व सेवा करते रहे। 2015 में दिवाकर एलएलबी अंतिम वर्ष में था और उसका परीक्षा नजदीक था तभी उनकी माँ सीरियस हो गईं। उन्हें बीएचयू में भर्ती करना पड़ा। बीएचयू में सुधार नहीं हुआ तो निजी अस्पताल में ले गया लेकिन वहाँ भी सुधार नहीं दिखा और खर्च बहुत ज्यादा होने लगा जो कि उसके बस की बात नहीं थी, तो पुनः बीएचयू में लाया और कुछ दिन बाद मां भी साथ छोड़कर चली गईं। मां के जाने से दिवाकर बहुत दुःखी हुआ लेकिन वह अपना दुःख कभी चेहरे पर दिखने नहीं देता है। प्रभात और ज्योति अपनी माँ के लिए रो-रो कर बेहाल हो गए। उन्हें संभालना मुश्किल हो गया था। खैर, उनका दाह संस्कार किया गया और परीक्षा खत्म होने के बाद दिवाकर जब छात्रावास खाली कर गाँव गया तो गाँव वालों को एक मृतक-भोज दिया।

एलएलबी करने के बाद दिवाकर भभुआ में ही रहने लगा और अपनी राजनीतिक तथा सामाजिक गतिविधियों को तेज कर दिया। पूरा समय इधर उधर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अपने को व्यस्त रखने लगा। 29 वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुआ लेकिन मुख्य परीक्षा में कुछ अंकों की कमी से साक्षात्कार में शामिल नहीं हो सका। 2017 में पुनः बनारस लौटने का मन बनाया लेकिन इस बार बीएचयू में मौका नहीं मिला और बीबीयू, लखनऊ चला गया। वहाँ दो वर्षीय एलएलएम में नामांकन कराया। एलएलएम में था तभी किसी की शिकायत पर उसका विकास मित्र का पैसा मिलना बंद हो गया। 2019 में एलएलएम करके वहीं नेट  व जुडिशरी की तैयारी करने लगा। 30वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में भी शामिल हुआ था लेकिन उसमें भी मुख्य परीक्षा में मात्र एक नम्बर की वजह से साक्षात्कार देने से चूक गया था। खैर, एक काम हुआ कि यूजीसी-नेट निकाल लिया। यूजीसी-नेट निकालने के बाद इलाहाबाद में रहकर भाई के साथ कोचिंग करने लगा। अपने दोस्तों से आर्थिक सहयोग लेकर अभी कोचिंग शुरू ही किया था कि कोरोना दस्तक दे डाला। कोरोना के समय जब पूरे देश में लॉक डाउन लगा दिया गया तब सारे विद्यार्थी भी लॉज/हॉस्टल छोड़कर घर चले गए। दिवाकर भी अपने भाई के साथ घर लौट गया और भभुआ में रहने लगा। लॉक डाउन के बाद पुनः बनारस जाकर कमरा लिया। कोरोना की दूसरी लहर में पुनः बनारस का लॉज खाली करके घर लौटना पड़ा, तबतक 31 वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में पी. टी. दोनों भाई पास कर चुके थे। अच्छा, यह तो बताया ही नहीं कि दिवाकर प्रभात को भी ठेल ठाल कर चार साल में हरिश्चंद्र पी जी कॉलेज, वारणसी से एलएलबी करवा चुका था। इतना ही नहीं बीबीयू से लाइब्रेरी साइंस से बी लीव भी करा चुका था। बहरहाल, प्रभात दिवाकर के साथ रहकर पीटी तो पीसीएस-जे तथा एपीओ दोनों का निकाल लिया लेकिन मुख्य परीक्षा में लटक गया, जबकि तीसरी बार में ही सही पर दिवाकर इस बार मुख्य परीक्षा में सफल रहा। कोरोना आने के बाद से दिवाकर खुद को सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते हुए गम्भीरता से पढ़ने लगा था। मुख्य परीक्षा का परिणाम आने से पहले ही बनारस छोड़कर पुनः भभुआ आकर रहने लगा था। दअरसल विकास मित्र का पैसा बन्द होने के बाद दिवाकर पूरी तरह दोस्तों पर निर्भर हो गया। दोस्तों की आर्थिक मदद से ही सही लेकिन अपनी पढ़ाई को निरन्तर जारी रखा और परिणाम आज सामने है। अभी दोनों का एपीओ की मुख्य परीक्षा नवम्बर में होने वाली है।

बहन का विवाह

माता-पिता के निधन के बाद इसे लगा कि अब बहन की शादी कर देनी चाहिए, क्योंकि दोनों भाई अक्सर बाहर ही रहते थे और बहन अकेले में मां को याद करके रोती रहती थी। बहन के विवाह के लिए पैसे नहीं थे तो जो जमीन का एक टुकड़ा सड़क किनारे था उसे लगभग आठ लाख में बेचकर बहन का धूमधाम से विवाह कर दिया। कई लोगों ने समझाने का प्रयास किया कि इतनी ही जमीन है, इसे क्यों बेच रहे हो तो दिवाकर ने कहा कि आज नहीं तो कल मैं बढ़िया नौकरी पा जाऊंगा और इस जमीन से अधिक जमीन भी खरीद लूँगा लेकिन क्या उस दिन बहन को बढ़िया घर-वर दे पाउँगा? इसलिए बेहतर है कि आज ही इसे बढ़िया घर-वर खोज दूँ ताकि यह सुखी रहे वरना हमेशा यही कहेगी कि मां-बाबू जी नहीं थे, तो भैया लोग ऐसे घर में विवाह कर दिए। बहरहाल, आज बहन बहुत खुशहाल रहती है।

छात्र राजनीति

इंटरमीडिएट में आंबेडकर छात्रावास में रहने के दौरान ही दिवाकर में राजनीतिक चेतना जागृत होने लगी थी। विशेष रूप से बाबा साहेब आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम साहब के विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। भभुआ में छात्रावासों में उसका आना-जाना शुरू से ही रहा है। एलएलबी के दौरान बीएचयू में भी आंबेडकर जयन्ती मनाने और छात्र के समस्याओं के लेकर मुखर रहा। एलएलबी करने के बाद जब भभुआ लौटा तो आंबेडकर छात्रावास, कर्पूरी छात्रावास, पाल छात्रावास, मुस्लिम छात्रावास आदि सभी में जा जाकर छात्रों से मिलना और उन्हें पढ़ाई हेतु प्रेरित करने के साथ ही सबको एक मंच पर इकट्ठा करने का प्रयास करने लगा।  छात्र संघर्ष मोर्चा बनाकर छात्र संघ चुनाव में संतुलित पैनल उतारा। कैमूर में पहली बार छत्रपति साहूजी  महाराज की जयन्ती मनाई गई, जिसमें दिल्ली से डॉ. रतन लाल और बनारस-पटना से कई वक्ताओं को बुलाया गया था। भव्य जंयती समारोह के सफल आयोजन में दिवाकर का अहम योगदान था। उससे पहले पटेल कॉलेज के छात्रावास परिसर में ही मनुस्मृति दहन दिवस पर एक कार्यक्रम में हुआ, उसमें भी वह सक्रियता रूप से शामिल था। उसके अगले साल आंबेडकर जयन्ती मनाई गई जिसमें मुख्य अतिथि व वक्ता के रूप में प्रसिद्ध आलोचक प्रो. चौथीराम यादव की गरिमामयी उपस्थिति थी। उन्हें उस मंच पर लाने में दिवाकर की महती भूमिका थी। बीबीयू, लखनऊ में जाकर तो आये दिन छात्र हित में धरना प्रदर्शन और घेराव करने लगा। वहाँ तो ऐसे भी बाबासाहेब और मान्यवर साहब को मानने वाले विद्यार्थियों की भरपूर संख्या होती है जिसके कारण और अधिक सक्रियता से छात्र राजनीति करने का संयोग बना। एससी-एसटी छात्रवृत्ति योजना बन्द होने पर बिहार विधानसभा के घेराव में भी सक्रिय सहभागिता निभाया था, जिसमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी शामिल थे।

प्रेरक कार्य

जब एलएलबी कर रहा था तभी एक दिन अपने भाई से फोन पर बात करते हुए अपने ही जाति के एक अनाथ भाई का हालचाल पूछा। भाई से मालूम हुआ कि वह बाहर कमाने जा रहा है तो फिर उसे बोला कि बात कराओ। उस अनाथ भाई ने बताया कि भैया कमाएंगे नहीं तो छोटी-छोटी बहनों को खिलाएंगे क्या। इतना बोलकर वह रोने लगा। दिवाकर बोला कि तुम अभी अपनी बहनों को नानी के घर भेज दो और तुम मेरे घर जाकर खाओ और वहीं रहकर बोर्ड की तैयारी करो। मैट्रिक बोर्ड के बाद कमाने जाना। अनाथ भाई ने वैसा ही किया। मैट्रिक के बाद दिवाकर उसे प्रेरित करके पॉलिटेक्निक में नामांकन करवाया और वह मेहनत करके अपना कोर्स भी पूरा किया। उसी के साथ अपने खानदान के तीन और लड़कों को प्रेरित करके पॉलिटेक्निक में नामांकन करवाया। अपने खानदान के कई और लड़के-लड़कियों को मोटिवेट करके उच्च शिक्षा की डिग्री दिलवाया। भभुआ के न जाने कितने छात्र इससे प्रेरणा लेकर पढ़ाई-लिखाई में बेहतर प्रदर्शन किए हुए हैं।

एक बार बीएचयू के लंका गेट पर कुछ काम से गया था तबतक चैनपुर के एक व्यक्ति मिल गये जिनका पैर छूकर प्रणाम किया तो भावुक हो गए क्योंकि उनका इसके परिवार से अच्छा सम्बंध था क्योंकि वो पासी जाति के थे तथा ताड़ी बेचते थे और दिवाकर के घर में तो इसे छोड़कर लगभग सब ही ताड़ी पीने वाले हैं। इसके घर में क्या, लगभग पूरे गाँव का ही माहौल ही ऐसा रहा है। खैर, वो भावुक हो गए और पूछने पर पता चला कि उनके बेटे का सरसुन्दरलाल हॉस्पिटल, बीएचयू में ऑपरेशन होना है और खून का व्यवस्था नहीं हो पा रहा है। दिवाकर बिना देर किए भाई को बुलाया और दोनों भाई जाकर बिना उनके कहे दो यूनिट खून दे दिया। इतना ही नहीं बल्कि उनके लिए फल भी खरीद कर दे आया। वह आज भी कहीं मिलते हैं तो हाथ जोड़कर खड़ा हो जाते हैं और दिवाकर उनका पैर छूकर प्रणाम करता है। दिवाकर की विनम्रता ही है कि आज भी सभी का चहेता है और अजातशत्रु भी।

भगवान दास छात्रावास में सर्वाधिक मेस बिल दिवाकर के ही नाम आता था क्योंकि यह एक बड़ा सा टिफिन रखे हुए थे और उसके गाँव या रिश्तेदारी से कोई हॉस्पिटल से आता था तो मेस से खाना जरूर पहुँचाता। इतना ही नहीं आये दिन कोई न कोई दोस्त इसके यहाँ पहुँचा रहता था।

दिवाकर हमेशा बेरोजगार जूनियरों का खाने से परहेज़ करता रहा है। वह अपने सीनियरिटी का फर्ज बखूबी निभाता था। सीनियरों का सम्मान और जूनियरों को स्नेह देने में कभी कोताही नहीं किया। अभी हाल ही मैं एक निजी महाविद्यालय में अतिथि शिक्षक के पद पर साक्षात्कार देने गया तो एक जूनियर मिल गया और बोला कि भैया जब आप दे रहे हैं तब तो मेरा नहीं होगा इसलिए मैं जा रहा हूँ। बिना देर किए दिवाकर बोला कि नहीं-नहीं तुम मत जाओ, मैं साक्षात्कार छोड़ देता हूँ। कितना भी आर्थिक संकट हो लेकिन अपना समर्पण और सहयोग वाला स्वभाव नहीं छोड़ता है।

इंटरमीडिएट में धार्मिक पाखण्ड, अंधविश्वास एवं ईश्वरीय शक्ति के साथ मोहभंग हो गया था। बहुत साल तक इसके पास मात्र एक या दो जोड़ी ही कपड़े रहे हैं लेकिन हमेशा साफ-सुथरा और आयरन करके ही पहनता था। कपड़ा अधिकांशतः रात में साफ करता और पंखे के हवा से सुखाकर सुबह आयरन करता तभी पहनता था। दाढ़ी कभी भी नहीं बढ़ने देता था, हमेशा क्लीन सेव और हंसता-मुस्कुराता चेहरा रखता रहा है।

डॉ. दिनेश पाल असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी) जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा

आरएसएस का आदिवासियों को वनवासी कहने का षड़यंत्र

 यह सर्वविदित है कि आरएसएस हमेशा से आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी कहता है। इसके पीछे बहुत बड़ी चाल है जिसे समझने की ज़रूरत है। हमें उस चाल को समझना होगा। यह आलेख उसी चाल को समझाने के लिए लिखा जा रहा है। इसके बारे में हम कुछ बिंदुओं के जरिये बात करेंगे-

कौन हैं आदिवासी

यह सभी जानते हैं कि हमारे देश में भिन्न-भिन्न समुदाय रहते हैं जिनकी अपने-अपने धर्म तथा अलग-अलग पहचान हैं। अदिवासी जिन्हें संविधान में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है, भी एक अलग समुदाय है, जिसका अपना धर्म, अपने देवी देवता तथा एक विशिष्ट संस्कृति है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्हें इंडिजीनियस पीपुल अर्थात मूलनिवासी भी कहा जाता है। इनके अलग भौगोलिक क्षेत्र हैं और इनकी अलग पहचान है।

हमारे संविधान में जनजाति क्षेत्र

हमारे संविधान में भी इन भौगोलिक क्षेत्रों को जनजाति क्षेत्र कहा गया है और उनके के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था का भी प्रावधान है। इस व्यवस्था के अंतर्गत इन क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था राज्य के मुख्यमंत्री के अधीन न हो कर सीधे राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधीन होती है जिसकी सहायता के लिए एक ट्राइबल एरिया काउंसिल होती है जिसकी अलग संरचना होती है। इन के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए संविधान की अनुसूची 5 व 6 भी है।

क्या है पेसा (PESA)

इन क्षेत्रों में ग्राम स्तर पर सामान्य पंचायत राज व्यवस्था के स्थान पर विशेष ग्राम पंचायत व्यवस्था जिसे Panchayats (Extension to Scheduled Areas Act, 1996) अर्थात PESA कहा जाता है तथा यह ग्राम स्वराज के लिए परंपरागत ग्राम पंचायत व्यवस्था है। इसमें पंचायत में सभी प्राकृतिक संसाधनों/खनिजों पर पंचायत का ही अधिकार होता है और उनसे होने वाला लाभ ग्राम के विकास पर ही खर्च किया जा सकता है। परंतु यह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारों का ही षड्यंत्र है जिसके अंतर्गत केवल कुछ ही जनजाति क्षेत्रों में इस व्यवस्था को लागू किया गया है।

अधिकतर क्षेत्रों में सामान्य प्रशासन व्यवस्था लागू करके आदिवासी क्षेत्रों का शोषण किया जा रहा है, जिसका विरोध करने पर आदिवासियों को मारा जा रहा है। उन क्षेत्रों का जानबूझ कर विकास नहीं किया जा रहा है और खनिजों के दोहन हेतु आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है। विभिन्न कार्पोरेट्स को आदिवासियों की ज़मीनें खाली कराकर पट्टे पर दी जा रही हैं और खनिजों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। फलस्वरूप पूरा आदिवासी क्षेत्र शोषण और सरकारी आतंक की चपेट में है।

इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे संविधान में दलित और आदिवासियों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। उन्हें राजनीतिक आरक्षण के अलावा सरकारी सेवाओं तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया गया है। हमारी जनगणना में भी उनकी उपजातिवार अलग गणना की जाती है।

इसके अतिरिक्त आदिवासियों पर हिन्दू मैरेज एक्ट तथा हिन्दू उत्तराधिकार कानून भी लागू नहीं होता है। इन कारणों से स्पष्ट है कि आदिवासी समुदाय का अपना अलग धर्म, अलग देवी- देवता, अलग रस्मो-रिवाज़ और अलग संस्कृति है।

आरएसएस का हिंदुत्व का मॉडल और आदिवासियों का बैर

उपरोक्त वर्णित कारणों से आरएसएस आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी (वन में रहने वाले) कहता है क्योंकि इन्हें आदिवासी कहने से उन्हें स्वयम् को आर्य और आदिवासियों को अनार्य (मूलनिवासी) मानने की बाध्यता खड़ी हो जाएगी। इससे आरएसएस का हिंदुत्व का मॉडल ध्वस्त हो जाएगा जो कि एकात्मवाद की बात करता है। इसी लिए आरएसएस आदिवासियों का लगातार हिन्दुकरण करने में लगा हुआ है। इसमें उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है जिसका इस्तेमाल गैर हिंदुओं पर आक्रमण एवं उत्पीड़न करने में किया जाता है। यह भी एक सच्चाई है कि ईसाई मिशनरियों ने भी कुछ आदिवासियों का मसीहीकरण किया है, परंतु उन्होंने उनका इस्तेमाल गैर मसीही लोगों पर हमले करने के लिए नहीं किया है।

आरएसएस का मुख्य ध्येय आदिवासियों को आदिवासी की जगह वनवासी कह कर तथा उनका हिन्दुकरण करके हिंदुत्व के माडल में खींच लाना है और उनका इस्तेमाल गैर- हिंदुओं को दबाने में करना है। इसके साथ ही उनके धर्म परिवर्तन को रोकने हेतु गलत कानून बना कर रोकना है जबकि हमारा संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है।

बहुत से राज्यों में ईसाई हुए आदिवासियों की जबरदस्ती घर वापसी करवा कर उन्हें हिन्दू बनाया जा रहा है। इधर आरएसएस ने आदिवासी क्षेत्रों में एकल स्कूलों की स्थापना करके आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण (जय श्रीराम का नारा तथा राम की देवता के रूप में स्थापना) करना शुरू किया है। इसके इलावा आरएसएस पहले ही बहुत सारे वनवासी आश्रम चला कर आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण करती आ रही है। देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें स्थापित हो जाने से यह प्रक्रिया और भी तेज हो गयी है।

आरएसएस आदिवासियों को वनवासी घोषित करके उनके अस्तित्व को ही नकारने का प्रयास कर रहा है। यह न केवल आदिवासियों बल्कि पूरे देश की विविधता के लिए खतरा है। अतः आदिवासियों को आरएसएस की इस चाल को समझना होगा तथा उनकी अस्मिता को मिटाने के षड्यंत्र को विफल करना होगा।