सूर्य कुमार यादव बनाम सचिन तेंदुलकर

1322
भारत और श्रीलंका के बीच 7 जनवरी, 2023 को खेेले टी-20 सीरीज के तीसरे और आखिरी मैच में जब सूर्य कुमार यादव ने 360 डिग्री घूम कर छक्का लगाया तो अचानक मुझे हिन्दी के एक मशहूर ‘क्रिकेट-प्रेमी’ संपादक की याद आयी. वह जीवित होते तो सूर्य कुमार यादव के इस चमत्कारी शतकीय-पारी पर क्या लिखते!
उन्होंने एक समय सचिन तेंदुलकर की आतिशी पारियों पर आह्लादित होेते हुए क्रिकेटर के हुनर को उसके जाति-वर्ण से जोड़कर अपने प्रबुद्ध पाठकों को हैरत में डाल दिया था. यहां तक कहा कि तेंदुलकर जिस धैर्य के साथ खेलते हैं वैसा धैर्य तो ब्राह्मणों में ही हो सकता है. यही नहीं, सुनील गावस्कर और तेंदुलकर सहित कई क्रिकेट खिलाड़ियों के खेल की प्रशंसा करते हुए अक्सर वह उनके हुनर को ‘जातिजन्य गुणों’ से जोड़ने की कोशिश करते थे.
पर मैं तो ऐसा लिखने या ऐसा सोचने के बारे में सोच भी नहीं सकता कि सूर्य कुमार यादव जिस तरह का कलात्मक क्रिकेट खेलते हैं, वैसा सिर्फ कोई यादव ही खेल सकता है! ऐसा सोचना तार्किकता और वैज्ञानिकता का संपूर्ण निषेध तो है ही, बेहद हास्यास्पद भी है.
खेल, चित्रकला, लेखन, गीत, संगीत या दुनिया किसी भी कला पर किसी देश, समुदाय, नस्ल, वर्ण, जाति या लिंग का काॅपीराइट नहीं हो सकता. प्रतिभा, अभ्यास और प्रतिबद्धता से लोग अपने-अपने क्षेत्र में हुनरमंद बनते हैं. किसी बिरादरी या इलाके के चलते वे ‘सितारा’ नहीं बनते!
प्रतिभावान लोग किसी भी देश, समाज, नस्ल, रंग, जाति या वर्ण के हो सकते हैं. प्रतिभा या योग्यता को संकीर्ण दायरे में सीमित करना वैज्ञानिकता, वास्तविकता और तार्किकता का निकृष्टतम निषेध है.
हमारे यहां अब हर समुदायों के बीच से प्रतिभाएं आ रही हैं तो इसलिए कि पहले ऐसे तमाम क्षेत्रों में हर समुदाय के लोगों के जाने की स्थितियां ही नहीं थीं. सदियों से हमारा समाज भयानक विभेदकारी वर्ण-व्यवस्था के ‘कठोर-अनुशासन’ के तहत यूं ही चल रहा था. पढ़ाई-लिखाई सहित किसी भी क्षेत्र में समाज के दलित-पिछड़ों को अपना हुनर दिखाने का अवसर ही नहीं था. एकलव्य की कथा सिर्फ एक मिथक तो नहीं है. ब्रिटिश काल में पहली बार अन्य वर्गों-वर्णों से भी कुछ लोगों को मौका मिला. स्वतंत्रता के बाद, खासकर संविधान बनने के बाद सबके लिए स्वतंत्रता और समान अवसर देने का सिद्धांत अपनाया गया. आज तक संविधान की उद्देशिका में दर्ज महान् लोकतांत्रिक मूल्यों को अपने समाज में अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है. अपने समाज में आज भी संविधान और मनुवाद, दोनों के मूल्य और विचार समानांतर चल रहे हैं. कागज औैर शासन की संस्थाओं में संविधान की उपस्थिति तो है जमीनी स्तर पर आज भी मनुष्य-विरोधी मनुवादी मूल्य बरकरार हैं.
पर यह तो मानना ही होगा कि माहौल पहले के मुकाबले निश्चय ही बहुत-बहुत बदला है. बदलाव की प्रक्रिया को थामने की बहुस्तरीय कोशिशें भी चल रही हैं. ऐसी शक्तियों को इस बीच फौरी तौर पर कामयाबी भी मिली है. पर दोनों तरह की शक्तियों के बीच जद्दोजहद जारी है.
फिलहाल, इस वैचारिक विमर्श को यहीं रोकते हुए आइये हम सब सूर्य कुमार यादव की प्रतिभा और सफलता को सलाम करें! उसके हुनर और कामयाबी को हम हिन्दी के उन स्वनामधन्य ‘क्रिकेट प्रेमी संपादक’ की तरह किसी जाति, वर्ण या नस्ल तक सीमित करने की चेष्टा न करें!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.