भाजपा, कांग्रेस और वाम दलों के अलावा बहुजन समाज पार्टी देश की इकलौती ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है जो हर प्रदेश में प्रमुखता से चुनाव लड़ती है. उत्तर प्रदेश को छोड़कर पार्टी हर बार अन्य प्रदेशों में भयंकर हार का सामना करती है, बावजूद इसके चुनाव लड़ने का उसका सिलसिला कायम रहता है. इसकी वजह बताते हुए बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती कहती रही हैं कि अगर बसपा चुनाव नहीं लड़ेगी तो इन राज्यों में रहने वाले अम्बेडकरवादी आखिर किसे वोट देंगे?
हो सकता है कि बसपा प्रमुख की सोच ठीक हो, लेकिन यूपी सहित इक्के-दुक्के राज्यों को छोड़कर बसपा कहीं भी अपना खाता तक नहीं खोल पाती है. गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ है. बहुजन समाज पार्टी यहां एक भी सीट नहीं जीत सकी है, जबकि गुजरात में वह 182 में से 140 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी. दूसरी ओर बसपा से छोटे क्षेत्रिय दलों नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी ने एक और भारतीय ट्रायबल पार्टी ने दो सीटें जीती है.
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर बसपा चुनाव लड़ती क्यों है?? हारने के लिए, हराने के लिए या फिर किसी को जिताने के लिए? चुनावी लड़ाई की एक वजह राष्ट्रीय पार्टी की अपनी मान्यता बरकरार रखने की हो सकती है. लेकिन फिर ऐसे में क्या पार्टी को सिर्फ इसी पहचान को बरकरार रखने के लिए संघर्ष करते रहना चाहिए या फिर इस पहचान के साथ खुद को चुनावी लड़ाई में झोंक भी देना चाहिए. जैसे कि दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां करती हैं. क्योंकि गुजरात में बसपा न तो लड़ती दिखी और न ही चुनौती देती दिखी. प्रदेश में बसपा के पिछले तीन चुनाव की बात करें तो 2007 के चुनाव में बसपा यहां 166 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इसमें उसे 5 लाख 72 हजार 540 वोट मिले और उसका वोट प्रतिशत 2.62 रहा. 2012 के चुनाव में बसपा ने 163 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा. इसमें उसका प्रदर्शन सुधरने की बजाय और नीचे आ गया. इस चुनाव में बसपा को सिर्फ 3 लाख 42 हजार 142 वोट मिले, जबकि वोट प्रतिशत भी कम होकर 1.25 पर पहुंच गया. जहां तक 2017 के हालिया विधानसभा चुनाव की बात है तो अबकी बार बसपा को मिले वोटों से ज्यादा गुजरात में नोटा का बटन दबाया गया हैं. एक दैनिक अखबार में प्रकाशित खबर के मुताबिक गुजरात की 1.8 प्रतिशत जनता ने नोटा का बटन दबाया है, जबकि यहां बसपा को सिर्फ 0.07 प्रतिशत वोट मिले हैं. हिमाचल का भी यही हाल है. यानि कि गुजरात के पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बसपा लगातार नीचे गई है.
सवाल है कि बसपा की लगातार हार के पीछे की वजह क्या है और उसकी रणनीति कैसी होनी चाहिए? इस सवाल के तमाम जवाब हैं. मसलन, सबसे पहले तो पार्टी को 100 और 150 सीटों पर लड़ने की बजाय 40-50 सीटों को चिन्हित कर उस पर चुनाव लड़ना होगा, ताकि वह बेहतर तरीके से और मजबूती से चुनाव लड़ सके. स्थानीय स्तर पर नेतृत्व को मजबूत करना एवं छोटे और समान विचार वाले दलों से गठबंधन करना अब बसपा के जिंदा रहने के लिए जरूरी हो गया है. इसी तरह बसपा अब तक सामाजिक आंदोलन में सक्रिय लोगों से दूर रही है, उसे उनलोगों को अपने राजनीतिक मंचों पर लाकर पार्टी के अंदर प्रतिनिधित्व देना होगा. चिंता की बात यह है कि पिछले एक दशक में बहुजन आंदोलन काफी मजबूत हुआ है, जबकि राजनैतिक आंदोलन कमजोर हुआ है. सवाल है कि आखिर बसपा बहुजन आंदोलन में सक्रिय संगठनों और लोगों को पार्टी से क्यों नहीं जोड़ पा रही है?
अब बसपा के लिए यह जरूरी हो गया है कि उसे एक के बाद एक चुनावी हार से उबरना होगा और चुनावों में जीत के लिए बेहतर रणनीति बनानी होगी. बसपा के लिए एक चिंता की बात यह भी है कि चुनाव दर चुनाव उसकी हार से वह भारतीय राजनीति में अपनी गंभीरता खोती जा रही है. इसे रोकने के लिए जरूरी हो गया है कि वह भारत के राजनीतिक मैदान में खुद को मजबूती से खड़ा करे और चुनाव लड़ने से आगे चुनाव जीतने की ओर बढ़े, तभी उसकी सार्थकता बनी रहेगी.

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
