अर्ध सैनिक बलों को पूर्ण सैनिक के सम्मान के लिए भी लड़ना होगा- रवीश कुमार

सीआरपीएफ हमेशा युद्धरत रहती है. माओवाद से तो कभी आतंकवाद से. साधारण घरों से आए इसके जाबांज़ जवानों ने कभी पीछे कदम नहीं खींचा. ये बेहद शानदार बल है. इनका काम पूरा सैनिक का है. फिर भी हम अर्ध सैनिक बल कहते हैं. सरकारी श्रेणियों की अपनी व्यवस्था होती है. पर हम कभी सोचते नहीं कि अर्ध सैनिक क्या होता है. सैनिक होता है या सैनिक नहीं होता है. अर्ध सैनिक?

2010 में माओवादियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के 76 जवानों को मार दिया था. फिर भी ये अर्ध सैनिक बल पूर्ण सैनिक की तरह मोर्चों पर जाता रहा है. मन उदास है कि 40 जवानों की जानें गई हैं. परिवारों पर बिजली गिरी है. उन पर क्या गुज़र रही होगी, यह ख़्याल ही कंपा देता है. शोक की इस घड़ी में हम उनके बारे में सोचें.

सोशल मीडिया और गोदी मीडिया में हमले को लेकर जो हो रहा है, उसकी भाषा को समझना ज़रूरी है. उसकी ललकार में उसकी कुंठा है. जवानों और देश की चिन्ता नहीं है. वह इस वक्त ग़म में डूबे नागरिकों के गुस्से को हवा दे रहा है. इस्तेमाल कर रहा है. गोदी मीडिया हमेशा ही उन्माद की अवस्था में रहा है. जवानों की शहादत गोदी मीडिया उन्माद के एक और मौक़े के रूप में कर रहा है. उसकी ललकार के निशाने पर कुछ काल्पनिक लोग हैं. किसी ने कुछ कहा नहीं है फिर भी बुद्धिजीवी और कुछ पत्रकारों पर इशारा किया जा रहा है. क्या इस घटना में उनका हाथ है? ज़रा बताएं ये गोदी मीडिया कि कल के हमले में ये काल्पनिक लोग कैसे जिम्मेदार हैं, जिन्हें कभी लिबरल कहा जा रहा है तो कभी आज़ादी गैंग कहा जा रहा है. क्या इनके लिखने बोलने से सेना और अर्ध सैनिक बलों को फैसला लेने में दिक्कतें आ रही थीं? और इसी कारण से घटना हुई है?

कल इस घटना की खबर आने के बाद भी मनोज तिवारी रात 9 बजे एक कार्यक्रम में डांस कर रहे थे. अमित शाह कर्नाटक में सभा कर रहे थे. इनके ट्विट हैं. क्या ये गोदी मीडिया अमित शाह से पूछ सकता है कि क्यों कार्यक्रम रद्द नहीं किया? क्या उनसे पूछ सकता है कि कश्मीर में आपकी क्या नीति है, क्यों आतंकवाद पैर पसार रहा है?

जिनकी ज़िम्मेदारी है उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन आकाओं को बचाने के लिए गोदी मीडिया काल्पनिक खलनायक खड़े कर रहा है. जिसे सोशल मीडिया में हवा दी जा रही है. इस दुखद मौके पर देश के लोगों के बीच हम बनाम वो का बंटवारा किया जा रहा है. राज्यपाल सत्यपाल मलिक तो कई बार कह चुके हैं कि दिल्ली के मीडिया ने कश्मीर को खलनायक बनाकर माहौल बिगाड़ा है. शहादत के शोक के बहाने गोदी मीडिया अपना और आपका ध्यान मूल बातों से हटा रहा है. उसमें हिम्मत नहीं कि सवाल कर सके. कल प्राइम टाइम में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने साफ-साफ कहा कि भारी चूक हुई है. काफिला गुज़र रहा था और कोई इंतज़ाम नहीं था.

क्या यह साधारण बात है? राज्यपाल मलिक ने कहा कि यही नहीं ढाई हज़ार जवानों का काफिला लेकर चलना भी ग़लत था. काफिला छोटा होना चाहिए ताकि उसके गुज़रने की रफ्तार तेज़ रहे. राज्यपाल ने यहां तक कहा कि काफिले के गुज़रने से पहले सुरक्षा बंदोबस्त की एक मानक प्रक्रिया है, उसका पालन नहीं हुआ.

आप गोदी मीडिया की देशभक्ति को लेकर किसी भ्रम में न रहें. जब किसान दिल्ली आते हैं तो यह मीडिया सो जाता है. जानते हुए कि इन्हीं किसानों के बेटे सीमा पर शहीद होते हैं. सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालकर राजनीतिक माहौल बनाने वाले मिडिल क्लास के बच्चे जवान नहीं होते हैं. 13 दिसंबर को अर्ध सैनिक बलों के हज़ारों पूर्व जवान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली आए. यह मांगे उनके भविष्य को बेहतर और वर्तमान में मनोबल को बढ़ाने के लिए ज़रूरी थीं. सेवारत जवान मुझे लगातार मेसेज कर रहे थे कि हमारी बातों को उठाइये.

हमने उठाया भी और वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं. तब तो किसी ने नहीं कहा कि वाह आप इनके लिए लगातार लड़ते रहते हैं, इन्हें सब कुछ मिलना चाहिए क्योंकि यह देश के लिए जान देते हैं. आप खुद इनसे पूछिए कि किसी ने भी 13 दिसंबर के प्रदर्शन की चिन्ता की थी? आप पूर्व अर्धसैनिक बलों के संगठन के नेताओं से पूछ लें यह बात कि 13 दिसंबर की रात टीवी पर क्या चला था? उस दिन नहीं चल पाया तो क्या किसी और दिन चला था?

अर्ध सैनिक बलों के अफसर हाल ही में एक लड़ाई हार गए. वे अपने बल में पसीना बहाते हैं. जान देते हैं मगर अपने बल का नेतृत्व नहीं कर सकते. यह कहां का न्याय हुआ? क्या इस चूक के लिए कोई आई पी एस जवाबदेही लेगा? क्यों इन अर्ध सैनिक बलों का नेतृत्व किसी आई पी एस को करना चाहिए? अर्ध सैनिक बलों के जवान और अफसर जान दे सकते हैं, अपना नेतृत्व नहीं कर सकते? क्या आपने इन सवालों को लेकर अर्ध सैनिक बलों के लिए किसी को लड़ते देखा है?

हम और आप तो शहीद कहते हैं लेकिन सरकार से पूछिए कि इन्हें शहीद क्यों नहीं कहती है? पूर्ण सैनिक की तरह लड़कर भी ये अर्ध सैनिक हैं और जान देकर भी ये शहीद नहीं हैं. 11 जुलाई 2018 को सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में हलफनामा दिया था कि अर्धसैनिक बलों को शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है. आप चैनल खोल कर देख लें कि कौन एंकर इनके हक की बात कर रहा है. इन्हें पेंशन तक नहीं है. शहादत के बाद पत्नी और उसका परिवार कैसे चलेगा? इस पर बात होगी कि नहीं होगी?

पूर्व अर्ध सैनिक बलों के संगठन के नेता रणवीर सिंह ने कहा है कि गुजरात में अर्ध सैनिक बलों के शहीदों के परिवार वालों को 4 लाख क्यों मिलता है? क्यों दिल्ली में एक करोड़, हरियाणा की सरकार 50 लाख देती है? रणवीर सिंह ने कहा सहायता राशि के लिए एक नोटिफिकेशन होनी चाहिए. राज्यों के भीतर मुआवज़े (एक्स ग्रेशिया) को लेकर भेदभाव क्यों होना चाहिए? कोई कम क्यों दे और कोई किसी से ज़्यादा ही क्यों दें?

रणबीर सिंह ने कहा कि सिनेमा वाले आए तो टिकट पर जी एस टी कम हो गई, संसद में तालियां बजी और अर्ध सैनिक बल कब से मांग कर रहे हैं कि जीएसटी के कारण कैंटीन की दरें बाज़ार के बराबर हो गई हैं. उसे कम किया जाए. आज तक सरकार ने नहीं माना. अर्ध सैनिक बल इसी 3 मार्च को जंतर-मंतर फिर आ रहे हैं. उस दिन देख लीजिएगा कि गोदी मीडिया इनके हक की कितनी बात करता है.

प्राइवेट अस्तपाल में काम करने वाले एक हार्ट सर्जन ने मुझे लिखा कि हमला होना चाहिए. हम अस्सी फीसदी टैक्स देंगे. बिल्कुल उनकी इस भावना का सम्मान करता हूं मगर आए दिन उन्हीं के अस्तपाल में या किसी और अस्तपाल में मरीज़ों को लूटा जा रहा है, बेवजह स्टेंट लगा देते हैं, आई सी यू में रखते हैं, बिल बनाते हैं, उसी का विरोध कर लें. उसी को कम करवा दें और नहीं होता है तो देश की खातिर इस्तीफा दे दें. क्या दे सकते हैं? इस हमले से पहले बजट में अगर सरकार ने वाकई 80 परसेंट टैक्स लगा दिया होता तो सबसे पहले यही डाक्टर साहब सरकार की निंदा कर रहे होते. मैं डाक्टर से नाराज़ भी नहीं हूं. ऐसी कमज़ोरी हम सभी में हैं. हम सभी इसी तरह से सोचते हैं. हमें सीखाया गया है कि ऐसे ही सोचें.

सब चाहते हैं कि सामूहिकता से जुड़ें. कुछ ऐसा हो कि सामूहिकता में बने रहे. मगर वो तर्क और तथ्य के आधार पर क्यों नहीं हो सकता. क्यों हमेशा उन्माद और गुस्से वाली सामूहिकता ही होनी चाहिए? मैं समझता हूं कि डाक्टर या ऐसी सोच वाले किसी के पास कई तरह की कुंठाएं होती हैं. कई तरह के अनैतिक समझौते से वे टूट चुके होते हैं. खुद से नज़र नहीं मिला पाते होंगे. ऐसे सभी को भी इस वक्त का इंतज़ार होता है. वे इस सामूहिकता के बहाने खुद को मुक्त करना चाहते हैं.

एक तरह से उनके अंदर की यह भावना ही मेरे लिए संभावना है. इसका मतलब है कि वे अंतरात्मा की आवाज़ सुन रहे हैं. बस उस आवाज़ को शोर में न बदलें. ख़ुद को बदलें. उनके बदलने से देश अच्छा होगा. जवानों के माता पिता को ईमानदार डाक्टर और इंजीनियर मिलेगा. बिल्कुल सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होना चाहिए. कोई दुस्साहस करे तो बेझिझक जवाब दिया जाना चाहिए. हम खिलौने नहीं हैं कि कोई खेल जाए. मगर मैं यही बता रहा हूं कि गोदी मीडिया आपको खिलौना समझने लगा है. आप उसे खेलने मत दो.

नोट- मैं एक जवान से बात कर रहा हूं. पुलवामा हमले में शहीद का परिवार उससे संपर्क कर रहा है. उनके बच्चे इस जवान को अपना चाचा कहते हैं. आप इस बहादुर जवान की इंसानी मुश्किलें समझिए. वह खूब रो रहा है कि अपने सीनियर के बच्चों को यह चाचा क्या जवाब दे. थोड़ा तो इंसान बनिए. कब तक आप उन्माद के बहाने भीड़ का सहारा लेते रहेंगे.

— लेखक- रवीश कुमार

 

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