Film on Phule-Ambedkar thoughts goes for crowdfunding

Written By- Shailesh Narwade

Jayanti – a film on the anti-caste ideas of Jotiba Phule, Chhatrapati Shahu Maharaj and Dr B R Ambedkar – has started crowdfunding on Crowdera to seek people’s support for its completion. The film is about a youth’s reformation journey. It’s shooting and editing has been completed and the makers are going to start its post-production in September 2020.

Jayanti’s writer-director Shailesh Narwade said,”It is difficultfor an independent filmmaker to find a producer for such kind of films. And it becomes tougher especially when the film talks about caste.”

The project was rolled out in October 2019 after a few like-minded friends decided to fund it. This two-hour feature film in Marathi, with English subtitles, was slated to release in April 2020 but late funding had delayed its shooting early this year. And then the lockdown brought the work to a complete halt. The team is now gearing up to take the project to its completion.

“There is a huge gap of this kind of content. Only a few filmmaker are making such films. We met several people, who liked the projectbut not all of them are capable of funding it. We need support from like-minded people in India and abroad,” Shailesh added.

To its advantage, the film is not on paper. A team of experts and celebrities is involved with this ambitious film. Internationally acclaimed music director Mangesh Dhakde, lyricist Guru Thakur, singer Javed Ali, cinematographer Yogesh Koli, sound recordist Ashish Shinde and makeup designer Santosh Gilbile are part of this project. Well-known actors such as Milind Shinde, Kishor Kadam, Paddy Kamble, Anjali Joglekar and Amar Upadhyay have played the lead roles.

“Half of the journey has already been completed. Now we want to reach the destination,” said Shailesh, who is a former media professional. He is also a playwright, whose recent Hindi play ‘Maseeha’ was invited to IPTA’s national festival in October 2018. His another Marathi film ‘Roommates’ – a crime thriller – will soon be available on an OTT platform.

Veteran filmmaker Shyam Benegal’s ‘Manthan’ was the best example of crowdfunded film in India. Bollywood filmmaker Rajat Kapoor has also crowdfunded for his next film on Crowdera recently. Filmmaker Jyoti Nisha successfully raised over Rs 20 lakh for her documentary ‘Ambedkar: Then and Now’ on another crowdfunding platform.

Very few filmmakers in India have explored this way of raising funds, though it is a popular platform in the western countries. In India, people are gradually getting accustomed to this platformalso as some of the creative projectshave successfully raised funds.

The makers of Jayantiare crowdfunding for Rs 1.5 crore. They immediately need Rs 60 lakh to complete post-production and to pay for the expenses already incurred on production. Remaining funds will be used for distribution. The campaign on gocrowdera.comhas so far raised around Rs 9.5 lakh.

“We should support the films that wereally want to see. People are contributing forJayanti because of its content, while some are finding it as an opportunity to Payback to Society. We are hopeful that more people will come forward to make this film a reality,” Shailesh concluded.

You can contribute to this film on: www.gocrowdera.com/jayantiafilm

You can write to film’s writer-director Shailesh Narwade on sbnarwade@gmail.com

जनहित में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रिटायर कर दिया जाना चाहिए

Written by- डॉ. सिद्धार्थ
केंद्र सरकार ने निर्णय लिया है कि अकुशल केंद्रीय कर्मचारियों को 50-55 साल में या 30 साल का सेवाकाल पूरा होने पर जनहित में रिटायर किया जा सकता है। यहां सवाल यह है कि यदि केंद्रीय कर्मचारियों को अकुशल होने पर रिटायर किया जा सकता है, तो प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी चौतरफा अकुशलता के चलते क्यों न रिटायर कर दिया जाए।
नरेंद्र मोदी सभी बुनियादी मुद्दों पर अकुशल साबित हुए हैं, जो निम्न हैं-
1. किसी अर्थव्यवस्था उस देश की रीढ़ होती,क्योंकि उसी से जीवन चलता है यानि उसी से रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, देश की आंतरिक-बाह्य सुरक्षा और अन्य संसाधनों के लिए धन जुटाया जाता है। पिछले वर्षों में मोदी जी अकुशलता के चलते देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो गई है, आम आदमी की कौन कहे, मध्य वर्ग, उच्च मध्यवर्ग और छोटे-मझोले व्यापारियों भी कंगाली और दिवालिएपन की ओर बढ़ रहे हैं। आर्थिक विकास दर नकारात्मक हो गई है, बेरोजागारी सारे आंकड़े रिकार्ड तोड़ रही है। लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं।
आर्थिक मामलों में मोदी जी अकुशलता के साथ सनक का भी परिचय देते रहे हैं, नोटबंदी एक सनक थी, जिसने देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी यानि मोदी जी अर्थव्यवस्था के मामले में अकुशलता के साथ सनकी भी साबित हुए हैं।
2. मोदी कोविड-19 से निपटने के मामले में दुनिया में सबसे बदत्तर साबित हुए हैं, पड़ोसी देश बाग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान भी बेहतर साबित हुए हैं।
3. मोदी जी की विदेश नीति पूरी तरह असफल रही है, चीन ने देश के एक हिस्से पर नियंत्रण कर लिया है, नेपाल से रिश्ते खराब हो चुके हैं, बाग्लादेश भी चीन की तरफ जा रहा है,पाकिस्तान से पहले ही ताना-तानी है।
4. मोदी जी ने देश का सामाजिक-तानाबाना छिन्न-भिन्न कर दिया है, देश को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करके बांट दिया है और चारो तरफ वैमनस्व का बीज बोया है।
तो क्या यह सही नहीं होगा कि यदि अकुशलता के आधार पर केंद्रीय कर्मचारियों को रिटायर किया जा सकता है, तो देश चलाने के मामले में पूरी तरह अकुशल साबित हुए नरेंद्र मोदी को क्यों न रिटायर कर दिया जाए?

दलितों-आदिवासियों के मामले में इंसाफ क्यों नहीं कर पाती न्याय व्यवस्था

अभी प्रशांत भूषण के मामले में न्यायपालिका का रुख काफी चर्चा में रहा। देश की शीर्ष अदालत और प्रशांत भूषण के बीच महीने भर से ऊपर रस्सा-कस्सी चलती रही। प्रशांत भूषण पर आरोप था कि उन्होंने अदालत की अवमानना की है। अदालत ने उनसे माफी मांगने को कहा, प्रशांत भूषण ने इंकार कर दिया। आखिरकार तमाम उठापठक के बाद अदालत ने जैसे मजबूरी में प्रशांत भूषण पर एक रुपये का जुर्माना लगाया और मामले को खत्म किया गया।

इस मामले के दौरान ही दलित-बहुजन समाज की ओर से यह आवाज उठी कि इसी अदालत ने जस्टिस कर्णन के मामले में ऐसी उदारता क्यों नहीं दिखाई और अपने ही सिस्टम के भीतर के एक जज को लेकर इतनी सख्त क्यों रही। जस्टिस कर्णन को शीर्ष अदालत की अवमानना के मामले में छह महीने के जेल की सजा सुनाई गई थी। यानी एक ही तरह के दो मामले में अदालत का पक्ष अलग-अलग रहा। दोनों में अंतर सिर्फ यह था कि प्रशांत भूषण एक प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य हैं और उनके पिता शशि भूषण सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील हैं और देश के कानून मंत्री भी रहे हैं। जबकि जस्टिस सी.  एस. कर्णन राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त एक शिक्षक पिता की संतान हैं और उनका जन्म एक दलित परिवार में हुआ। न तो उनके परिवार में कोई मंत्री था और न ही कोई वो ऐसे मजबूत सामाजिक परिवेश से आते थे, जैसे की प्रशांत भूषण।

karnan जस्टिस कर्णन के मामले में चौंकाने वाली बात यह थी कि वह देश के पहले ऐसे हाईकोर्ट जज रहे हैं, जिनको सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने की सजा सुनाई। यह तब हुआ जब जस्टिस काटजू और सुप्रीम कोर्ट के दिवंगत वकील रामजेठमलानी जैसे कई लोग अदालत के खिलाफ बहुत कड़वी बातें कह कर भी बचकर निकल जाते रहे हैं। जबकि जस्टिस कर्णन ने देश की न्याय व्यवस्था को सुधारने की कोशिश की थी। देश की न्यायपालिका में बैठे कुछ करप्ट जजों की पोल खोलने को लेकर कवायद की थी। उन्होंने प्रधानमंत्री तक को इन तमाम बातों के बारे में चिट्ठी लिखी। लेकिन अदालत ने अपने भीतर झांकने और चीजों को दुरुस्त करने की बजाय जस्टिस कर्णन की कवायद को अदालत की अवमानना मानकर उनके खिलाफ मुकदमा शुरू कर दिया। जबकि जस्टिस कर्णन प्रकरण के कुछ महीने बाद ही सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने जब मीडिया के सामने आकर उन्हीं सवालों को उठाया तो सबने उनके हिम्मत की खूब सराहना की गई।

प्रशांत भूषण और जस्टिस कर्णन के मामले की तह में जाने और उसे समझने के बाद आपके जहन में यह सवाल जरूर आएगा कि क्या इस देश की अदालत अलग-अलग लोगों के बारे में अलग तरीके से सोचती है।

इस मामले के तुरंत बाद एक ऐसा आंकड़ा सामने आया है, जिसने भारतीय न्याय प्रणाली पर एक बार फिर सवाल उठा दिया है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकॉर्ड (NCRB) द्वारा जारी ताजा आंकड़ों में पता चला है कि जेलों में बंद दलितों और आदिवासियों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से अधिक है। जबकि सवर्णों की बात करें तो इस जाति के लोग उनकी आबादी की अनुपात से कम संख्या में जेलों में हैं।  राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकॉर्ड (NCRB) द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताकि 2019 के अंत में जेल में बंद कुल दोषियों में से 21.7 प्रतिशत दलित थे। वहीं विचाराधीन कैदियों में से 21 प्रतिशत अनुसूचित जातियों से संबंधित हैं। वहीं जेल में बंद दोषियों में आदिवासी समाज के 13.6 प्रतिशत कैदी हैं जबकि विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत 10.5 प्रतिशत हैं। अब हम इन दोनों समुदायों की आबादी की बात करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल जनसंख्या में दलित समाज की आबादी 16.6 प्रतिशत है, जबकि अनुसूचित जनजाति यानि आदिवासी समाज की आबादी 8.6 प्रतिशत है।

 अन्य समुदायों की बात करें तो आंकड़े बताते हैं कि मोटे तौर पर उच्च जाति के हिंदू और दूसरे समुदायों का संपन्न वर्ग आता है। आबादी में इनका हिस्सा 19.6 प्रतिशत है। वहीं दोषी कैदियों में इनकी संख्या 13 प्रतिशत है, जबकि विचाराधीन कैदी 16 प्रतिशत हैं। वहीं जेल में बंद कुल कैदियों में से 35 प्रतिशत दोषी और 34 प्रतिशत विचाराधीन कैदी OBC से संबंध रखते हैं।

इन आंकड़ों के सामने आने के बाद साफ है कि एससी-एसटी समाज को सरकार द्वारा बेहतर कानूनी मदद नहीं मिल पाती, और न ही उनके पास इतने पैसे होते हैं कि वह खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए बेहतर वकील कर सकें। ऐसे में एक बार किसी मामले में उनका नाम आने के बाद वह कानूनी जटिलताओं में उलझ कर रह जाते हैं। या तो वह दोषी करार दिये जाते हैं या फिर विचाराधीन कैदी बन कर सालों जेल की सलाखों के पीछे रहने को मजबूर होते हैं।

मई 2020 में रिटायर होने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने भी अपने रिटायरमेंट के बाद फेयरवेल स्पीच में यही सवाल उठाया था। जस्टिस गुप्ता ने कहा था कि कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है लेकिन गरीबों के मुकदमों में देरी होती है। अमीर लोग तो जल्द सुनवाई के लिए उच्च अदालतों में पहुंच जाते हैं लेकिन, गरीब ऐसा नहीं कर पाते। दूसरी ओर कोई अमीर जमानत पर है तो वह मुकदमे में देरी करवाने के लिए भी उच्च अदालतों में जाने का खर्च उठा सकता है।

साफ है कि जब शीर्ष अदालत का कोई जज इस तरह के सवाल उठाता है तो सवाल वाजिब और दमदार है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस स्थिति को सुधारने की दिशा में देश की न्याय व्यवस्था गंभीर कोशिश करना कब शुरू करेगी? या फिर क्या देश के वंचित तबके को यह मान लेना चाहिए कि देश की न्याय व्यवस्था उनको न्याय दिलाने को लेकर गंभीर नहीं है। 

कंगना जातिवाद मिटाने की जगह आरक्षण हटाने की बात करती हैं, सवर्ण परिवारों में यही सिखाया जाता है

जाति को लेकर सिर्फ आरक्षण की चर्चा करने की ट्रेनिंग सवर्ण परिवारों में अक्सर बचपन में ही दे दी जाती है. ऐसे बच्चों और बच्चियों के लिए समस्या जातिवाद नहीं, आरक्षण है, जबकि राष्ट्र निर्माताओ ने संविधान में आरक्षण का प्रावधान जाति समस्या के इलाज के तौर पर इसलिए किया है, ताकि तमाम समुदायों, खासकर सामाजिक रूप से वंचित समुदायों को राजकाज में हिस्सेदारी देकर उन्हें राष्ट्रनिर्माण का हिस्सा बनाया जा सके. ऐसे बच्चे जब जाति की बात आने पर फौरन आरक्षण की बात करने लगते हैं और सारी समस्याओं की जड़ इसे ही बताने लगते हैं, तो दरअसल वे अपनी जानकारी में कोई झूठ नहीं बोल रहे होते हैं. दरअसल इस मसले पर उनको सिर्फ यही तर्क सिखाया जाता है. सिखाने वालों में माता-पिता, रिश्तेदार, दोस्त आदि होते हैं, जो भारतीय स्थितियों में अक्सर अपनी ही जाति या अपने ही जाति समूह के होते हैं. कंगना रानौत जाति के बारे में जो बोल रही हैं, वह इस मायने में सच है कि इसके अलावा कोई सच उनको आज तक किसी ने बताया ही नहीं है. द प्रिंट में प्रकाशित दिलीप मंडल के इस आर्टिकल को पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं।

वर्तमान बहुजन राजनीति की विवशता

भारतीय राजनीति गजब दौर में है। यहां विपक्ष में कौन होगा, विपक्ष के मुद्दे क्या होंगे, और विपक्ष किस करवट बैठेगा, यह सारी बातें सत्ता पक्ष के लोग तय कर रहे हैं। देश में या किसी प्रदेश में चुनाव किस मुद्दे पर होंगे, यह केंद्र और भारतीय जनता पार्टी तय कर रही है। बाकी तकरीबन सभी विपक्षी दल उसी मुद्दे पर खेल रहे हैं। चूंकि यह खेल भाजपा का है, सो बाकी दल इसमें या तो उलझ जा रहे हैं, या फिर मुंह के बल गिर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की सियासत में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भाजपा के इसी खेल में उलझ गई है। यही वजह रही कि पिछले दिनों भाजपा के ही एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए ब्राह्मणों को लुभाने के लिए सपा और बसपा ने प्रदेश में परशुराम की प्रतिमा बनाने का दावा कर दिया। दोनों दलों ने परशुराम भक्ति में कोई कसर नहीं छोड़ा। तो इसके बाद समाजवादी पार्टी ने हाल ही में एक ऐसा फैसला लिया है, जिससे एक बार फिर, उसकी रणनीति पर सवाल उठने लगे हैं।    हाल ही में समाजवादी पार्टी ने फिर से एक ऐसा फैसला लिया है, जिससे वह एक बार फिर से सत्ता पक्ष के एजेंडे पर खेलती हुई दिख रही है। समाजवादी पार्टी ने 24 अगस्त को पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष लोटन राम निषाद को पद से बर्खास्त कर दिया है। उनकी जगह राजपाल कश्यप को इस प्रकोष्ठ का नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। लोटन राम निषाद को इसलिए पद से बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि निषाद ने राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। उन्होंने राम को काल्पनिक पात्र बताते हुए कहा था कि राम तो थे ही नहीं. जैसे फिल्मों और कहानियों में पात्र होते हैं, उसी तरह राम भी एक काल्पनिक पात्र मात्र हैं। निषाद के इस बयान के बाद राम के मुद्दे को लेकर सियासी घमासान मच गया था। और चूंकि अयोध्या में राम मंदिर के भूमिपूजन से साफ है कि भाजपा यूपी से लेकर केंद्र तक अगला चुनाव राम के ही नाम पर लड़ेगी, राम को लेकर निषाद का बयान देना सपा मुखिया अखिलेश यादव को परेशान कर गया। जिसके बाद अखिलेश यादव के आदेश पर जुझारू नेता लोटन राम निषाद को पद से बर्खास्त कर दिया गया। अब यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्ष के पास अपने मुद्दे नहीं हैं, और विपक्ष अब भाजपा और संघ के बनाए एजेंडे पर नाचता रहेगा? क्या यह मान लिया जाए कि उत्तर प्रदेश के विपक्ष के पास अपना ऐसा कोई थिंक टैंक नहीं है, जो सत्ता पक्ष को अपने बनाए मुद्दों पर घेर सके और प्रदेश की जनता को सत्ता पक्ष के खिलाफ मुद्दे दे सके। जहां तक विचारधारा का सवाल है तो बहुजन दलों की सबसे बड़ी कमजोरी उनका अपनी बहुजन विचारधारा और संस्कृति को छोड़कर उधार की संस्कृति के बूते जीने की आदत रही है। बहुजन संस्कृति, जिसका अपना शानदार और गरिमापूर्ण इतिहास रहा है, ओबीसी नेतृत्व वाले राजनैतिक दल उससे कोसो दूर हैं। ये दल बहुजन विचारधारा के नाम पर अपने समाज के मतदाताओं को जोड़ने की बजाय सवर्णों की संस्कृति को ढोने में ही व्यस्त रहते हैं। यही वजह है कि ये दल ज्यादातर मौकों पर सत्ता पक्ष के मुद्दों पर खेल रहे होते हैं और अपनी लकीर नहीं खींच पाते।

ओबीसी नेतृत्व वाले तमाम राजनैतिक दल कई राज्यों में काफी मजबूत हैं। यह वर्ग खुद को सबसे बड़ी संख्या वाला वर्ग बताता है, जोकि सच भी है। इनकी सारी चुनावी राजनीति भी सिर्फ अपने वर्ग और अल्पसंख्यक समाज के बूते टिकी हुई है। बावजूद इसके क्या वजह है कि सपा और राजद जैसी पार्टियां यह नहीं सोच पाती कि पांच साल सत्ता की लड़ाई से दूर रह कर वह सिर्फ बहुजन संस्कृति और इतिहास के नाम पर बड़ी संख्या वाले इस पिछड़े वर्ग को एकजुट करेगी। क्योंकि अगर यह रणनीति सफल होती है तो यह बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यक मतों के सहारे प्रदेश और देश की सत्ता तक आसानी से पहुंच सकती है। यह तब है जबकि बिहार में लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी दोनों मुख्यमंत्री रहें, तो तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे। इसी तरह यूपी में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव दोनों पिता-पुत्र सत्ता के शीर्ष मुख्यमंत्री पद पर रहें। मान्यवर कांशीराम जी ने बहुजन समाज की सफल राजनीति कर यह साबित भी किया है कि बहुजन समाज के बूते राजनीति करना संभव है और इसके जरिए सत्ता में आया जा सकता है। बड़ा सवाल यह है कि आखिर पिछड़े समाज के नेतृत्व वाले दल ऐसा क्यों नहीं सोच पाते? बहुजन समाज आखिर कब तक धार्मिक और राजनैतिक गुलाम बना रहेगा? आखिर वर्तमान बहुजन राजनीति इतनी विवश क्यों दिखती है?

केंद्र सरकार के वह अध्यादेश, जिसके खिलाफ किसान और व्यापारी दोनों उठा रहे हैं आवाज

विगत 3 जून को केंद्र सरकार ने दो नए अध्यादेशों पर मुहर लगाई थी। सरकार द्वारा इन अध्यादेशों को कृषि सुधार की दिशा में सबसे बड़ा कदम बताया गया था। लेकिन अब किसान और व्यापारी समाज के लोग इसी के खिलाफ खड़े हो गए हैं। इसी का नतीजा है कि पहले पंजाब और हरियाणा में आंदोलन करने के बाद अब व्यापारियों ने चार राज्यों की मंडियों में हड़ताल करवा दिया है। इस विश्लेषण में हम आपको यह बताएंगे कि आखिर वो कौन से प्वाइंट हैं, जिसको लेकर किसान और व्यापारी दोनों मोदी सरकार के विरोधी हो गए हैं। इस खबर को पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

अम्बेडकरवादी तैराक सत्येंन्द्र सिंह के हिस्से एक और बड़ा अवार्ड, बधाई सतेन्द्र

अम्बेडकरी समाज से ताल्लुक रखने वाले अंतरराष्ट्रीय स्तर के दिव्यांग तैराक सतेन्द्र सिंह लोहिया के पदकों की लिस्ट में एक और महत्वपूर्ण सम्मान जुड़ गया है। युवा एवं खेल मंत्रालय ने सतेन्द्र सिंह को तेनजिंग नौरगे नेशनल एडवेंचर अवार्ड (Tenzing Norgay National Award) 2019 देने की घोषणा की है। यह अवार्ड अर्जुन अवार्ड के समकक्ष होता है। आमतौर पर यह अवार्ड सेना के जवानों (जल, थल और वायु) को दिया जाता है। लेकिन खास बात यह है कि देश में पहली बार किसी पैरा खिलाड़ी को यह अवार्ड देने की घोषणा की गई है।

यह भी देखिए- सतेन्द्र पर दलित दस्तक ने कवर स्टोरी प्रकाशित की थी, इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 

इस अवार्ड की घोषणा 18 अगस्त को की गई। हर साल दिया जाने वाला यह अवार्ड खेल दिवस (मेजर ध्यानचंद जयंती) के मौके पर 29 अगस्त को राष्ट्रपति द्वारा दरबार भवन में दिया जाता है। यह अवार्ड तीन कैटेगरी में दिया जाता है, जिसमें एडवेंचरस स्पोर्ट्स शामिल होता है। पहली बार यह पैरा खिलाड़ी को मिल रहा है। इस अवार्ड में अर्जुन अवार्ड की तरह ही पांच लाख रुपये नकद, एक शिल्ड और ब्लेजर दिया जाएगा। साथ ही प्रसस्ति पत्र भी दिया जाता है।

ये भी पढ़ें- इंग्लिश चैनल पार करने वाले सतेन्द्र बने एशिया के पहले दिव्यांग तैराक

गौरतलब है कि सतेन्द्र जाटव को इससे पहले मध्यप्रदेश सरकार का सबसे प्रतिष्ठित विक्रम अवार्ड (2014) में और भारत सरकार द्वारा बेस्ट स्पोर्ट्स पर्सन ऑफ द ईयर (दिव्यांग कैटेगरी) अवार्ड (2019) में मिल चुका है। विशेष बात यह है कि सतेन्द्र सिंह व्हीलचेयर पर रहते हैं और 70 फीसदी दिव्यांग हैं। ऐसे में सतेन्द्र का जीवन कईयों के लिए प्रेरणा स्रोत है। हालांकि सतेन्द्र सिंह अपना प्रेरणास्रोत कांशीराम जी को मानते हैं। सतेन्द्र सिंह का कहना है कि मान्यवर कांशीराम जी हमेशा कहा करते थे कि जिसकी तमन्ना सच्ची हो उसे रास्ते मिल जाते हैं, और जिसकी तमन्ना सच्ची नहीं हो उसे बहाने मिल जाते हैं। इस वाक्य को जीवन में उतारते हुए सतेन्द्र सिंह ने दिव्यांगता को कभी अपनी कमी नहीं मानी और हर मुकाम हासिल किया। सतेन्द्र इसके पहले इंग्लिश चैनल और कैटलिना चैनल को भी पार कर चुके हैं। आप भी सतेन्द्र जी से प्रेरणा ले सकते हैं। बधाई सतेन्द्र।

बर्बाद हो रही है गांव की बहुजन युवा पीढ़ी

गांव की पूरी की पूरी युवा आबादी, घोर लंपटई की गिरफ्त में है। पढ़ाई -लिखाई से नाता टूट चुका है। देश-दुनिया की कुल समझ व्हाट्सएप से बनी है। वहां पाकिस्तान माफ़ी मांगता है और चीन थरथर कांपता है। दहेज में बाइक मिली है, भले ही तेल महंगा हैं, धान-गेंहू बेच, एक लीटर भरा ही लेते हैं और गांव में एक बार फटाफटा लेते हैं। गांवई माफिया उनका इस्तेमाल करते हैं। उन्हें आखेट कर किसी न किसी धार्मिक सेनाओं के पदाधिकारी बना कर, अपनी गिरफ्त में रखते हैं। हमारे गांव के उत्तर में बढ़ई टोला है। वहां से अक्सर कुछ युवाओं के फ्रेंड रिक्वेस्ट आते हैं। उनकी हिस्ट्री देखिए तो सिर पर रंगीन कपड़ा बांधे , जयकारा लगाते, मूर्ति विसर्जन में दारू पीते फोटो मिलेगी। यह है नई पीढ़ी! इसी पर है देश का भविष्य। एक बीमार समाज। ऐसी पीढ़ी अपने बच्चों को कहां ले जा रही?जमीन-जायदाद इतनी नहीं कि ठीक से घर चला सकें या बीमारी पर इलाज हो। तो इनके लिए बेहतर जीवन क्या है? ये किसी औघड़ सेना के सचिव हैं तो किसी धार्मिक संगठनों में फंसा दिए गए हैं। इनकी पीढियां अब उबरने वाली नहीं। दास बनने को अभिशप्त हैं ये। इन्हें हम जैसों की बातें सबसे ज्यादा बुरी लगती हैं। इनका कोई स्वप्न नहीं।घमण्ड इतना कि IAS , PCS उनकी जेब में होते हैं। एक अपाहिज बाप के जवान बेटे को दिनभर चिलम और नशा करते देख कर टोका था तो उसकी मां बोली- हमार बेटा, जवन मन करी उ करी, केहू से मांग के त पिये ला ना? (मेरे बेटे के मन में जो होगा करेगा, किसी से मांग के तो नहीं पीता न?) अब ऐसे मर रहे समाज में जान फूंकना आसान काम नहीं है? शिक्षा बिना बात का असर नहीं हो सकता। अब सवाल उठता है कि जिस समाज को सचेतन ढंग से बर्बाद किया गया हो, शिक्षा से वंचित किया गया हो तो यह सचेतन गुलाम बनाने का कृत्य है। यह अमानवीय भी है और शातिराना भी। गुलाम बाहुल्य समाज, दुनियाभर में निम्न ही रहेगा, बेशक कुछ की कुंठाएं तृप्त हों। फिलहाल ये उबरने से रहे।

  • वरिष्ठ साहित्यकार सुभाष चंद्र कुशवाहा जी के फेसबुक पेज से

जयंती विशेषः पिछड़े समाज को रामस्वरूप वर्मा के नायकत्व से सीख लेनी चाहिए

Written By- दयानाथ निगम देश का सबसे बड़ा सूबा है उत्तर प्रदेश। इस प्रदेश ने कई नायकों को जन्म दिया। यही वह प्रदेश है, जहां से पिछड़े समाज को जगाने वाले नायक बड़ी संख्या में निकले। राम स्वरूप वर्मा का नाम उसमें प्रमुखता से शामिल है। यूपी के कानपुर देहात के गौरी करन गाँव में 22 अगस्त 1923 को एक साधारण कुर्मी किसान परिवार में रामस्वरूप वर्मा का जन्म हुआ। माता पिता की इच्छा थी कि उनका बेटा उच्च शिक्षा ग्रहण करे, सो उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए॰ और आगरा विश्विद्यालय से एल॰एल॰बी॰ की डिग्री प्राप्त की। यह उस समय की बात है जब ब्रिटिश हुकूमत के कारण शूद्रों और महिलाओं की शिक्षा का रास्ता प्रशस्त हो रहा था जिसका लाभ माननीय रामस्वरूप वर्मा को मिला। रामस्वरूप वर्मा की जयंती और परिनिर्वाण की तारीख चार दिनों के भीतर ही आती है। उनकी जयंती 22 अगस्त को होती है, जबकि परिनिर्वाण दिवस 19 अगस्त को होता है। इस नाते यह हफ्ता रामस्वरूप वर्मा जी के नाम होता है।

पढ़ाई पूरी करने के बाद उनके सामने तीन विकल्प थे। पहला विकल्प प्रशासनिक सेवा में जाना, दूसरा वकालत करना तथा तीसरा विकल्प था राजनीति के द्वारा मूलनिवासी बहुजनों व देश की सेवा करना। वर्मा जी ने आई॰ए॰एस॰ की लिखित परीक्षा भी उर्त्तीण कर ली थी किन्तु साक्षात्कार के पूर्व ही वे निर्णय ले चुके थे कि प्रशासनिक सेवा में रहकर वे ऐशो आराम की जिन्दगी तो व्यतीत कर सकते हैं पर मूलनिवासी बहुजन समाज के लिए कुछ नहीं कर सकते।

मा॰ रामस्वरूप वर्मा में राजनैतिक चेतना का प्रार्दुभाव डॉ॰ अम्बेडकर के उस भाषण से हुआ, जिसे उन्होंने मद्रास के पार्क टाउन मैदान में 1944 में शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन द्वारा आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया था। डॉ॰ अम्बेडकर ने कहा था, ‘तुम अपनी दीवारों पर जाकर लिख दो कि तुम्हें कल इस देश का शासक जमात बनना है जिसे आते जाते समय तुम्हें हमेशा याद रहे।’

माननीय रामस्वरूप वर्मा पर डॉ॰ अम्बेडकर के उस भाषण का भी बहुत ही प्रभाव पड़ा जिसे उन्होंने 25 अप्रैल 1948 को बेगम हजरत महल पार्क में दिया था। डॉ॰ अम्बेडकर ने कहा था, ‘जिस दिन अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग एक मंच पर होंगे उस दिन वे सरदार बल्लभ भाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू का स्थान ग्रहण कर सकते हैं।’ यही वजह रही कि एस॰सी॰, एस॰टी॰ एवं ओ॰बी॰सी॰ के बीच सामाजिक चेतना और जागृति पैदा करने के लिए उन्होंने 1 जून 1968 को सामाजिक संगठन ‘अर्जक संघ’ की स्थापना की।

मेरे लिये महामना रामस्वरूप वर्मा जी का नाम लेना अक्सर भावुक कर जाता है। आज सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मेरी जो भी पहचान बनी है, उसका श्रेय महामना रामस्वरूप वर्मा जी को ही जाता है. मेरे सामाजिक जीवन के प्रारम्भ का किस्सा भी शानदार है। मुझे वर्मा जी द्वारा संपादित साप्ताहिक वैचारिक पत्र ‘‘अर्जक’’ एक गाँव में गोबर (खाद) के गढ्ढे में दिखा। मैंने उसे उठाया और किसी तरह से उसमें मिट्टी गोबर को साफ कर लेकर चल दिया। उसको पढ़ने के बाद सम्पादक/प्रकाशक का ढूंढ़ा तो लिखा था- रामस्वरूप वर्मा, बंगला नं. 3, दारूल सफा, लखनऊ। सामाचार पत्र पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में आया कि अर्जक के सम्पादक/प्रकाशक से मिलना चाहिए। तब तक मैं कभी लखनऊ नहीं आया था। लेकिन वर्मा जी से मिलने की उत्सुकता इतनी ज्यादा थी कि मैं खुद को रोक न पाया। अपने गांव तमकुहीराज जो उस समय देवरिया जनपद के अंतर्गत (अब कुशीनगर) आता था, से लखनऊ जंक्शन के लिये 13 रूपये का टिकट लेकर निकल पड़ा। वह 1972 का साल था। बंगला नं. 3 दारूल सफा, जो कि वर्मा जी का निवास था, वहाँ पहुंच कर अपना परिचय दिया। जिला-जवार के बारे में बताया। वर्मा जी ने मेरा हाथ पकड़ा तो शरीर बुखार से तप रहा था। मेरी हालत देख वर्माजी ने मुझे अपने बिस्तर पर ही सोने के लिये कहा। मेरे कपड़े बेहद गन्दे थे और उनका बिस्तक एकदम साथ, ऐसे में मैं उस पर सोने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। लेकिन वर्माजी बार-बार मुझे बिस्तर पर सोने के लिये निर्देशित करते रहे। उनके दबाव के बाद मैं बिस्तर पर लेट तो गया परन्तु हमारी हिम्मत हार रही थी। इस बीच दो घण्टे के बाद वर्मा जी द्वारा प्रदत्त होमियो दवा के चलते मैं बुखार से मुक्त हो गया था। इस तरह मैं इस महान हस्ती के संपर्क में आया और उनके द्वारा स्थापित सामाजिक संगठन अर्जक संघ से जुड़ गया। मुझे अर्जक संघ जनपद देवरिया का जिला मंत्री का कार्यभार मिल गया। उनके सानिध्य में रहते हुए मैंने लंबे समय तक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया। महामना रामस्वरूप वर्मा जी ने सामाजिक परिवर्तन के लिये तमाम विचार प्रदान किये हैं। कुछ यूं है- ‘‘जिसमें समता की चाह नहीं वह बढ़िया इन्सान नही’’ ‘‘मानववाद की क्या पहचान ब्राह्मण-भंगी एक समान’’

इस तरह के नारे देकर उन्होंने समाज में ज्योति जलाई। महामना वर्मा जी ने वैचारिक क्रांति के लिये वैचारिक पुस्तकों का प्रकाशन किया। इसमें क्रांति क्यों और कैसे, ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे? ‘‘मानवतावाद बनाम ब्राह्मणवाद’’, ‘‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’’ आदि पुस्तकें शामिल हैं। माननीय रामस्वरूप वर्मा सम्पूर्ण क्रांति के पक्षधर थे। उनकी सम्पूर्ण क्रांति में भ्रांति का कोई स्थान नहीं था। वर्मा जी के अनुसार, जीवन के चार क्षेत्र होते हैं। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक। उनका मानना था कि इन चारों क्षेत्रों में गैरबराबरी समाप्त करके ही हम सच्ची और वास्तविक क्रान्ति निरूपित कर सकते हैं। रामस्वरूप वर्मा निःसन्देह डॉ॰ राम मनोहर लोहिया के राजनैतिक दल संसोपा से जुड़े थे, किन्तु लोहिया जी के साथ वर्मा जी का वैचारिक मतभेद था। लोहिया गान्धीवादी थे, वर्मा जी अम्बेडकरवादी। लोहिया के आर्दश मर्यादा पुरूषोत्तम राम और मोहन दास करमचन्द गांधी थे, जबकि रामस्वरूप वर्मा के आदर्श भगवान बुद्ध, फूले, अम्बेडकर और पेरियार थे।

रामस्वरूप वर्मा संसोपा से सन् 1957 में कानपुर के रामपुर क्षेत्र से चुनाव लड़े और विधान सभा के सदस्य चुने गये। इसके बाद 1967, 1969,1980,1989, और 1991 में सदस्य विधान सभा के चुनाव में विजयी रहे। माननीय वर्मा जी के तर्क के सामने विधान सभा में शासक जातियों की घिग्घी बंध जाती थी। सन 1967 की संबिदा सरकार में वर्मा जी डॉ॰ लोहिया की पार्टी संसोपा से जीतकर उ॰प्र॰ विधान सभा में पहुंचे। चौधरी चरण सिंह के मन्त्रीमण्डल के वह वित्त मन्त्री बनाये गये, जहां उन्होंने मुनाफे का बजट पेश किया। वर्मा जी ने उ॰प्र॰ विधानसभा में सभी धार्मिक स्थलों को सरकार के अधीन करने का बिल पेश किया। सवर्णों ने बिल का विरोध किया कि ऐसा करने से साम्प्रदायिकता बढ़ेगी। वर्मा जी ने उन्हें उत्तर देते हुए कहा, “इस बिल में तो यह है कि जितने पूजा स्थल हैं उनको सरकार अपने नियन्त्रण में ले और हर पूजा स्थल पर जो चढ़ावा चढ़ेगा वह सरकार को मिलेगा। पुजारी रखने के बाद जो बचता है वह धर्म हित कार्यों में खर्च किया जाये। इसमें साम्प्रदायिकता लेश मात्र भी नहीं हैं।” रामस्वरूप वर्मा के तर्क सुनकर उनके विरोधी भी बंगले झांकने लगते थे। इतना ही नहीं वर्मा जी ने उत्तर प्रदेश के सरकारी और गैरसरकारी पुस्तकालयों में बाबासाहब डॉ॰ अम्बेडकर का साहित्य रखवाया, जिसके कारण मूलनिवासी बहुजनों में स्वाभिमान जागने लगा। तत्पश्चात शासक जातियों ने बाबासाहब द्वारा लिखित- ‘जातिभेद का उच्छेद’ और ‘धर्म परिवर्तन करें’ दोनों पुस्तकों को जप्त करने का आदेश जारी कर दिया। इसकी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद ललई सिंह यादव ने इलाहाबाद हाईकोर्ट से दोनों पुस्तकों को बहाल करवाया। इतना ही नहीं उन्होंने उ॰प्र॰ सरकार पर मानहानि का मुकदमा दायर कर उ॰प्र॰ सरकार से पूरे मुकदमे का हर्जाना और खर्चा भी वसूल किया। उनसे जुड़ा एक संस्मरण मुझे अक्सर भावुक बना देता है। लखनऊ में एक प्रदेश स्तरीय बैठक आयोजित किया गया था। उस बैठक में मैं उपस्थित नहीं हो सका क्योंकि उसी दौरान मैं पिता बनने वाला था और मेरी पत्नी अस्पताल में भर्ती थी। बैठक में अनुपस्थिति के कारण मेरे बारे में महामना वर्मा जी ने जानना चाहा तब मैंने उन्हें बच्चे की बता बताई। मा. वर्मा जी ने यह सुनते ही तत्काल कहा “क्रांति पैदा हो गया.” इस तरह मेरे प्रथम पुत्र का नाम क्रांति कुमार, मा. वर्मा जी का दिया हुआ नाम है। महामना रामस्वरूप वर्मा जी ने बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर के विचारों को प्रसारित करने का महान योगदान है ‘‘विचारों पर ताला और मूर्तियों पर माला’’ की चर्चा करते हुये बाबा साहब के विचारों को जन-जन तक ले जाने का प्रयास किया। वर्मा जी ने नारा दिया था, ‘मारेंगे मर जायेंगे हिन्दू नहीं कहलायेंगे।’ ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में रामस्वरूप वर्मा आजीवन संघर्ष करते रहे। लोहिया से वैचारिक मतभेद के कारण बाद के दिनों में उन्होंने संसोपा से अलविदा कर मूलनिवासी बहुजन समाज के शुभ चिन्तकों चौ॰ महाराज सिंह भारती, बाबू जगदेव प्रसाद, प्रो॰ जयराम प्रसाद सिंह, लक्ष्मण चौधरी, नन्द किशोर सिंह से सम्पर्क कर 7 अगस्त 1972 को शोषित समाज दल की स्थापना की और नारा दिया- ”देश का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा नहीं चलेगा। सौ में नब्बे शोषित हैं नब्बे भाग हमारा है।“ शोषितों का राज, शोषितों के लिए शोषितों के द्वारा होगा।

Video- मनुवाद को धूल चटाने वाले नायक थे रामस्वरूप वर्मा

मा॰ रामस्वरूप वर्मा का मानना था सामाजिक चेतना से ही सामाजिक परिवर्तन होगा और सामाजिक परिवर्तन के बगैर राजनैतिक परिवर्तन सम्भव नहीं। अगर येन केन प्रकारेण राजनैतिक परिवर्तन हो भी गया तो वह ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं होगा। रामस्वरूप वर्मा सामाजिक सुधार के पक्षधर नहीं थे। वे सामाजिक परिवर्तन चाहते थे। वे हमेशा समझाया करते थे जिस प्रकार दूध से भरे टब में यदि पोटेशियम साइनाइट का टुकड़ा पड़ जाये तो उस टुकड़े को दूध के टब से निकालने के बाद भी दूध का प्रयोग करना जानलेवा होगा। इसलिए ब्राह्मणवादी मूल्यों में सुधार की कोई गुंजाइश नही हैं। ब्राह्मणवाद सुधारा नहीं जा सकता बल्कि नकारा ही जा सकता है। माननीय रामस्वरूप वर्मा ने कभी भी सिद्धांतो से समझौता नहीं किया। रामस्वरूप वर्मा ने बाबासाहब डॉ. आम्बेडकर की तरह 22 प्रतिज्ञाओं के साथ बौद्ध धर्म तो स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्होंने विवाह संस्कार, यशाकायी दिवस, त्यौहार आदि को लेकर समाज में अपनी अर्जक पद्धति विकसित की। जैसे एक जून अर्जक संघ स्थापना दिवस को समता दिवस, बाबासाहब डॉ. आम्बेडकर जन्म दिवस 14 अप्रैल को चेतना दिवस, तथागत बुद्ध जयंती को मानवता दिवस के रूप में मनाना शुरू किया। रामस्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ के कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि पूरे देश में जहां-जहां अर्जक संघ के कार्यकर्ता हैं वे बाबासाहब डॉ॰ अम्बेडकर के जन्मदिन के दिन मूलनिवासी बहुजनों को जगाने के लिए 14 अप्रैल से 30 अप्रैल तक पूरे महीने रामायण और मनुस्मृति का दहन करें। अर्जक संघ के कार्यकर्ताओं ने रामस्वरूप वर्मा के आदेशों का पालन करते हुए रामायण और मनुस्मृति को घोषणा के साथ जलाया। उन्होंने वैवाहिक संस्कार की भी पद्धति बनाकर अपनी संस्कृति स्थापित की। उन्होंने ताउम्र अपने सिद्धांतों की राजनीति की। 19 अगस्त 1998 को उनका परिनिर्वाण हो गया।
  • लेखक दयानाथ निगम उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से प्रकाशित “अम्बेडकर इन इंडिया” मासिक पत्रिका के संपादक हैं। संपर्क- 9450469420

दलित उत्पीड़न और सवर्ण जातियों की चुप्पी

– Written By- सुरेश कुमार इसमें कोई दो राय नहीं है कि सवर्णों की प्रताड़ना का बिंदु दलित समाज है। यह उच्च श्रेणी की मानसिकता वाला समाज दलितों पर अन्याय और जुल्म करने के मामले में इतिहास के पन्ने काले से काले करते आया है। अभी पिछले दिनों आगरा के अछनेरा तहसील के रायभा गांव में जिस तरह से एक दलित महिला के शव को उच्च जाति के सवर्णों ने श्मशान में अंतिम संस्कार नहीं करने दिया, उस से पता चलता है कि देश में जातिवाद की जड़े कितनी गहरी और अंदर तक धंसी हुई है। इस तरह की घटनाओं और सवर्णों का जातिगत भेदभाव दलितों को मनुकाल में ले जाकर धकेल देता हैं। उच्च श्रेणी के सवर्णों द्वारा दलितों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि इस देश में तुम्हारे लिये कोई जगह नहीं है। यहां तक दलितों लिये मरने के बाद दो गज जमीन उनकी नहीं है। कमाल की बात यह है कि संविधान और लोकतंत्रवादी व्यवस्था के भीतर भी सवर्णों का जातीय दंभ और उच्च श्रेणी की मानसिकता कमजोर होने के बजाय बलवती होती जा रही है। दलितों को अपमानित करने वाली घटनायें समाज के सभी हलको में दिन प्रतिदिन घटती रहती है। अभी हाल में ही कानपुर देहात के मगतापुर गांव में दलित समाज के लोग सनातन कथा कराने के बजाय बौद्ध या भीम कथा करवा रहे थे। यह बात गांव के उच्च श्रेणी के लोगों को इतनी नगवार लगी कि उन्होंने पूरे गांव के दलितों की जमकर पिटाई कर दी थी। उच्च श्रेणी की मानसिकता और सामंती ठसक दलितों के संस्कृति क्षेत्र को भी नियंत्रण करने का उपक्रम करती आई है। बौद्ध कथा या बाबासाहब की कथा कराने से सवर्णों को लगता है की उनके वर्चस्व को चुनौती दी जा रही है। और, उनके नायकों और प्रतिमानों के समक्ष दलित अपने नायक या प्रमिमान क्यों स्थापित कर रहें है? दलित के नायक और प्रमिमान स्थापित न हो जाये इसलिए उनके संस्कृतिक क्षेत्र को नियंत्रित करने की कोशिस की जाती रही है। उच्च श्रेणी की मानसिकता और दंभ दलितों को मनुकाल की याद दिलाये रखने के लिये उनकों प्रताड़ित और अपमानित करने का उपक्रम करता रहता है।

बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि दलित की कोई मातृभूमि नहीं है। इस कथन के पीछे उनकी गहरी चिंता और पीड़ा महसूस की जा सकती है। बाबासाहब के कहने का अर्थ था कि इस देश में दलितों का कुछ नहीं है। यहां के सवर्ण दलितों को देश का नागरिक नहीं बल्कि गुलाम और अछूत के सिवा कुछ नहीं समझते है। दलित न तो सार्वजनिक संपत्ति का प्रयोग कर सकते थे, और न तो मन्दिर जा सकते, और न ही वे शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। बाबासाहब ने यह भले यह बात बीसवीं सदी के तीसरे दशक में कही हो लेकिन सच्चाई यह है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी सवर्णों की मानसिकता में ज्याद बदलाव नहीं हुआ है। 21वीं सदी में भी दलितों के साथ वैसा ही सलूक देखने को मिल रहा है जैसा उनके साथ मनुकाल में होता था। आज भी सवर्ण मानसिकता के लोग दलितों के साथ बड़ी क्रूरता और निर्ममता से पेश आते हैं। यह कटु सच्चाई है कि दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार देखकर सवर्ण मानसिकता से भरे लोगों को खून खौल जाता है। सवर्णवादी संरचना दलितों को अछूत और बंधुवा गुलाम के तौर देखने की अभ्यस्त रही है। वर्णगत और सवर्णवादी व्यवस्था की ओर से तय की गयी परिभाषा पर जो दलित नहीं चलता है, उसको सवर्णों के द्वारा सबक सिखा दिया जाता है। दलितों के लिये इस से बड़ी त्रासदी और पीड़ा क्या हो सकती है कि वे जिस मिट्टी में पैदा हुये, जिसके लिये अपना खून पसीना एक कर दिया हो, और, मारने के बाद सवर्णों के द्वारा उनके शव को चिता से उठवा दिया जाये। डॉ. आंबेडकर की चिंता थीं कि हिन्दुओं के शासन में दलितों को प्रताड़ित और अपमानित किया जायेगा। आज बाबासाहब की बात शत प्रतिशत सही साबित हुई है। जहां जातिगत और वर्णगत व्यवस्था का ढांचा सवर्णों को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलवाता है, वहीं दलित और स्त्रियों को सम्मान और अधिकारों से वंचित करने का काम भी करता है। देखा जाय तो जातिगत संरचना दलितों और स्त्रियों के लिये मरण-व्यवस्था की तरह है। इसकी संरचना जहां दलितों के अधिकारों का दायरा सीमित कर देती है वहीं उच्च श्रेणी के हिंदुओं को विशेष अधिकारों का समर्थन करती है। वर्ण-व्यवस्था की संरचना दलितों को संसाधनों से भी वंचित कर देती है। संसाधनों से वंचित हो जाने पर दलित समाज की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति की कमर टूट गई है। जमीन से लेकर संस्थाओं तक के सारे संसधानों पर सवर्णों का कब्जा है। दलित के पास जमा पूंजी के नाम पर भूख और सवर्णों की प्रताड़ना के सिवा और क्या है? भूमि विहीन दलित आखिर अपने मृत शरीर को कहां दफन करें। यदि दलितों के प्रति सवर्णों का रवैया नहीं बदल रहा है, और वे दलितों के शव को अपने शमशान में जलाने नहीं दे रहें है, तो सरकार बहादुर को दलितों के लिये अलग से श्मशान भूमि के आवंटन की ओर ध्यान देना चाहिये।

भारतीय समाज का सवर्ण तबका जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और रुढ़ियों का पोषक और रक्षक रहा है। यह समाज शास्त्रों और पुरोहितों के दिशा निर्देश में संचालित होता आ रहा है। पुरोहित और पोथाधारी शास्त्रों और स्मृतियों का हवाला देकर दलित विरोधी वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका निभाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि सवर्ण समाज का पढ़ा लिखा तपका भी जाति के जामे को पहना ओढ़ना और बिछना अब तक नहीं छोड़ सका है। संविधान और ज्ञान-विज्ञान की छत्रछाया में भी सवर्ण समाज जातिवाद और भेदभाव की संस्कृति का त्याग नहीं कर सका है। 21वीं सदी में भी दलितों के साथ यह समाज वैसे ही पेश आता है, जैसे मनुकाल में दलितों के साथ व्यवहार किया जाता था। दलितों के प्रति घृणा का भाव चेतन और अवचेतन के स्तर पर हावी रहता है; जिसके फलस्वरुप दलितों के ऊपर जुल्म और अत्याचार किया जाता है। सवर्णों का श्रेष्ठता का भाव ही दलितों की गरिमा को लांक्षित और अपमानित करने का काम करता है। संविधान और लोकतंत्र की व्यवस्था किसी भी व्यक्ति और समाज को यह अधिकार नहीं देता है कि वह किसी मनुष्य के साथ भेदभाव और उसकी गरिमा को लांक्षित और अपमानित करने का उपक्रम करे। हमारे देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का वर्चस्व रहा है। इनके वर्चस्व ने दलितों और स्त्रियों के साथ घोर सामाजिक अन्याय किया है। उच्च श्रेणी के लोगों की संवेदनायें दलितों के साथ नहीं बल्कि वर्णवादियों के साथ रही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने जातिगत वर्चस्व को कायम रखने के लिये दलितों के साथ बड़ी निर्ममता और संवेदनहीनता से पेश आते रहे हैं। जातिवादी वर्चस्व ने दलित शोषण और प्रताड़ना की एक अंतहीन जमीन तैयार की है। वर्णवादी शाक्तियां समाज का वातावरण दलितों के अनुकूल नहीं होने देती है।

सवर्णवादी मानसिकता के लोग संविधानवादी व्यवस्था को ताक पर रखकर दलितों को मनुकाल की याद तरोताजा कराने का कोई अवसर नहीं छोड़ते है। वर्णवादी लोग समता और सामाजिक न्याय की सदा धज्जिया उड़ाते आयें है। दलितों पर अत्याचार करने में संवदेनहीनता की सारे हदे पार कर जाते हैं। श्मशान भूमि से दलित स्त्री का शव चिता से उठवा देना, यह सवर्णवाद और सामन्ती ठसक की संवेदनहीनता की पराकष्ठा का उत्कर्ष नहीं तो और क्या है? सवर्णवादी मानसिकता दलितों और पिछड़ों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में सदैव अवरोध पैदा करती रही है। इसी मानसिकता के पक्षधर और समर्थकों ने दलितों को बुनियादी हकों से वंचित करने का काम किया है। यह तय है कि वर्णगत और जातिगत जुगलबंदी जब तक कायम है, तब तक दलितों को अधिकार और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती है। दलितों के सर्वजानिक क्षेत्र के विकास के लिये जातिवाद और वर्णवाद का खात्मा होना निहायत ही जरुरी है। समाज के नियंताओं और बुद्धिजीवियों को वर्णगत और जातिगत संरचना के खि़लाफ विमर्श का माहौल तैयार करना होगा। सबसे पहले सवर्णो को जातीय दंभ और सामन्ती ठसक के खोल से मुक्त करना होगा। जब तक सवर्ण समाज के लोग अपने भीतर बैठे जातिवाद के दानव को नहीं खत्म करेगें, तब तक समाज के भीतर बदलाव की लहर नहीं आ सकती है। क्योंकि सवर्णवादी मानसिकता ही दलितों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में सर्वाधिक बाधा को तौर पर उपस्थिति होती है। सवर्ण समाज को अमेरिका के रंगभेद आंदोलन से सीख लेनी चाहिये। यदि वहां कोई स्वेत अस्वेतों के साथ भेदभाव करता है तो सबसे पहले मुखर विरोध स्वेतों की ओर से होता है। लेकिन भारत में दलितों के साथ जो अत्याचार और जुल्म होता उसको लेकर सवर्ण समाज के अधिकांश बु़द्धिजीवि चुप्पी साध लेते हैं। सवर्ण समाज के बुद्धिजीवियों को जातिवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों के प्रति ‘गैर-आलोचनात्मक’ नहीं होना है। उन्हें दलित समाज पर अत्याचार और जुर्म करने वालों अपने स्वजातीय लोगों की सर्वजानिक तौर पर भर्स्ाना करने की पहल शुरु करनी होगी। सवर्ण बुद्धिजीवियों को जाति विरोधी गोलबंदी में दलितों का साथ देना होगा। मिल जुलकर दलित दलित शोषण के विरुद्ध विमर्श का माहौल तैयार करना होगा, तभी समाज समतावादी व्यवस्था कायम होगी।


लेखक सुरेश कुमार स्वतंत्र रूप से नियमित लेखन करते हैं। संपर्क- 8009824098

“सुप्रीम कोर्ट 2014 से ही संघ के आंगन में नाच रहा है”

Written By- डॉ. सिद्धार्थ
सुप्रीम कोर्ट की अवमानना मामले में सीनियर वकील प्रशांत भूषण दोषी ठहराया गया है। न्यायपालिका के प्रति कथित रूप से दो अपमानजनक ट्वीट करने को लेकर अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ स्वत: शुरू की गई अवमानना कार्यवाही में आज सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने इस मामले में अधिवक्ता प्रशांत भूषण को दोषी करार दिया। अब सजा पर सुनवाई 20 अगस्त को होगी।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सबसे सटीक टिप्पणी वरिष्ठ पत्रकार करन थापर ने की है। उन्होंने लिखा- “सुप्रीम कोर्ट न्याय स्थापित करने के लिए बनाया गया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट 2014 से ही संघ के आंगन में नाच रहा है।”
कल दी इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने विस्तार से बताया है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट सत्ता न्याय एवं लोकतंत्र के रक्षक की जगह सत्ता के उपकरण के रूप में काम कर रहा है।
यह वही सुप्रीम कोर्ट है, जो निरंतर आरक्षण विरोधी फैसले दे रहा है, आर्थिक आधार पर सर्वणों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण उसे संविधान विरोधी नहीं दिखता, जबकि ओबीसी के आरक्षण (मंडल आयोग) को 2 सालों तक रोके रखा। यह वही सुप्रीकोर्ट है, जिसने बिना किसी सबूत के संघ के आंगन में नाचते हुए बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि घोषित कर दिया। यह वही सुप्रीम कोर्ट है, जो कश्मीर से अनुच्छेद -370 हटाया जाना वैधानिक है या नहीं उस पर 1 वर्ष से कुंडली मारे बैठा है।
यह वही सुप्रीम कोर्ट है, जिसे कश्मीर में और वर्षों से लोगों को हिरासत में रखने वाले मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ याचिकाओं को सुनने का वक्त नहीं है।
करीब हर मामले में सुप्रीम कोर्ट संघ-भाजपा ( सत्ता) के आंगन में नाच रहा है। यह देश की सबसे बड़ी अलोकतांत्रिक संस्था है, जिसमें बिना किसी चुनाव या परीक्षा के जज नियुक्त होते हैं और ज्यादातर कुछ परिवारों और कुछ जातियों (उच्च जातियों- विशेषकर ब्राह्मण) में से नियुक्त होते हैं।
यह मट्टीभर उच्च जातीय मर्दों की कुलीनतंत्रीय मनुवादी-ब्राह्मणवादी संस्था है, जो अब खुलकर संघ के आंगन में नाच रही है। यह असहमति की आवाजों को कुचलने में पूरी तरह संघ-भाजपा के साथ खड़ी है। प्रशांत भूषण को दोषी ठहराना संघ-भाजपा के आंगन में उसके नाचने का एक और सबूत भर है।
– स्वतंत्र पत्रकार रामू सिद्धार्थ के फेसबुक वॉल से साभार

बहुजन शोधार्थियों के लिए बना मंच, पीएचडी में मदद करेंगे बहुजन विद्वान

मेरी एक मित्र मुंबई मे रहती हैं। लॉकडाउन से ठीक एक हफ्ता पहले एक लड़की ने उन्हे महाराष्ट्र के किसी गाँव से फोन किया। वह लड़की लगभग रोते हुए उनसे बोली कि मैं पीएचडी कर रही हूँ और बहुत परेशान हूँ। उसके पीएचडी गाइड ने बीते तीन सालों मे ना तो उसका प्रपोजल पढ़ा न पढ़ने के लिए कोई किताब या पेपर सजेस्ट किया ना ही मीटिंग के लिए टाइम दिया है। वह लड़की एक छोटे से गाँव से आती है, उसके माता पिता दूसरों के खेत पर मजदूरी करते हैं उसके सरनेम से ही पता चलता है कि वह तथाकथित नीचली जाति से आते है। गाइड महोदय इस बेचारी को तीन साल से टाल रहे हैं। अपने थीसिस चैप्टर के ड्राफ्ट लेकर उनके आगे पीछे डोलती रहती है लेकिन ‘महामहिम’ को देखने तक की फुरसत नहीं है। यह लड़की आत्महत्या के विचारों से घिर गयी, बहुत उदास रहने लगी और फेसबुक पर उखड़ी-उखड़ी पोस्ट लिखने लगी। मेरी मित्र ने इस लड़की को हिम्मत बंधाई और आगे का रास्ता समझाया। यह लड़की ज्योतिबा फूले के विचारों पर पीएचडी कर रही है इसके गाइड महोदय ने अपने जमाने मे राजा राममोहन रॉय पर पीएचडी की है और वे ज्योतिबा या अंबेडकर को नहीं पढ़ना चाहते। रिसर्च कमेटी और पीएचडी गाइड समझाते रहे कि राममोहन रॉय पर शोध करो, लेकिन लड़की अड़ी रही। लेकिन अपने इस निर्णय का परिणाम उसे अब भुगतना पड़ रहा है। Video- विदेशों में पढ़ाई और नौकरी कैसे हासिल करें, देखे यह वीडियो  मेरी मित्र ने इस लड़की को मेरा फोन नंबर दिया, वह जानती है कि मैंने ज्योतिबा पर किताब लिखी है। कुछ समय पहले इस लड़की ने मुझे फोन किया। उसकी बातें सुनकर लगा कि अगर इसके रिसर्च गाइड इसे सिर्फ आधा घंटा समय दे दें और सहानुभूति से इसकी बातें सुन लें तो ना सिर्फ यह अवसाद और आत्महत्या के विचारों से बाहर निकल जाएगी बल्कि उसकी पीएचडी भी पटरी पर आ जाएगी। लेकिन गाइड को ना फुरसत है ना ही रुचि है। बीते दस सालों मे मैंने ऐसी सैकड़ों कहानियाँ सुनीं है, पता चलता है कि न केवल छात्रों की उपेक्षा की जाती है बल्कि लड़कियों का शारीरिक शोषण भी पीएचडी गाइड द्वारा किया जाता है। लड़कों को मजदूरों की तरह इस्तेमाल करके घर की साफ सफाई तक करवाई जाती है। ऐसी हालत मे ना केवल गरीब बच्चे पढ़ाई छोड़कर भाग जाते हैं बल्कि कई तो आत्महत्या के विचारों और अवसाद मे भी फस जाते हैं। इस विषय मे मैंने कुछ अकादमिक मित्रों से बात की है, सभी मित्र यह महसूस करते हैं कि बहुजन बच्चों को तानाशाह और शोषक गाइड्स की तानाशाही से बचाने की जरूरत है। इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि एक अलग से मंच बनाया जाए जहां कुछ मित्र इकट्ठे होकर सभी बच्चों की समस्याओं पर विचार किया जा सके। इसीलिए हम नालंदा पीएचडी कंसल्टेंसी की शुरुआत कर रहे हैं। इसके जरिए छात्रों को उनके विषय और पीएचडी की प्रक्रिया सहित विश्लेषण, लेखन, प्रकाशन आदि से जुड़े मुद्दों पर जानकारी दी जाएगी। यह मंच एक तरह से खुली चर्चा का मंच होगा जहां अनुभवी छात्र या शिक्षक नए लोगों से संवाद कर सकेंगे और जरूरी सलाह ले-दे सकेंगे। इस बेहतरीन मंच के फेसबुक पेज को देखने के लिए आप इस लिंक पर जाएं- https://www.facebook.com/Nalanda-PhD-Consultancy-Services-105884247896685/ संपर्क के लिए यह लिंक देखें- https://www.facebook.com/Nalanda-PhD-Consultancy-Services-105884247896685/about/?ref=page_internal

राष्ट्र के रूप में भारत दलितों का कर्जदार है

Written By- सूरज येंगड़े आरक्षण और भूमि सुधारों के माध्यम से संवैधानिक वादे हमें इकठ्ठा करने के लिए कुछेक तरीकों में से एक थे। किन्तु ये बहुत ज़्यादा विवादित रहे हैं। सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए भूल-सुधार/क्षतिपूर्ति का माध्यम सबसे व्यवहारिक तरीकों में से एक है। एक राष्ट्र के रूप में भारत दलितों का कर्ज़दार है- जिनके कन्धों पर उसके सभ्यतागत स्तंभ खड़े किए गए हैं। दलित प्रतिभा, कौशल और आंतरिक-बल आदि भारत को अंग्रेजों सहित बाहरी लोगों के लिए सबसे वांछनीय स्थानों में से एक बनाता है। कला के विभिन्न स्वरुप, साहित्य, संगीत, कविता इत्यादि की उत्पत्ति दलित, आदिवासी और शूद्रों के जन-जीवन से हुई है। अपने आविष्कारशील प्रतिभा और प्रदर्शन के उत्साह में, दलितों ने अपनी त्रासदियों को एक लय में पिरोया है, तथा अस्पृश्यता की यातनाओं के बीच अपनी संस्कृति को संरक्षित किया है। वे रोये हैं, और आग्रह किया, विरोध-प्रदर्शन किये और लड़ाई भी की है। इस सबके द्वारा उन्होंने संवेदी अनुभवों के नए स्वरूपों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। लगभग सभी “प्रतिष्ठित और शास्त्रीय” भारतीय कला के स्वरूपों का उद्गम दलितों के जन-जीवन में दिखता है। दलित कला की चोरी और उसके ब्रह्मणिकरण के बहुत से उदाहरण मौजूद हैं। इसके बावजूद दलितों के दावों को रोकने के लिए, उन्हें विभिन्न कलाओं में भाग लेने और अभ्यास करने से रोक दिया गया। इसने दलित प्रतिभा की किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त को समाप्त किया है। यही कारण है कि आज भी, कई उत्कृष्ट और प्रतिष्ठित कलाओं में दलितों की भागीदारी नहीं है। अन्य नयी खोजों में भी, दलितों ने विज्ञान को फलने-फूलने और तर्कवाद को तरजीह/प्रधानता हासिल करने में मदद की है। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक गतिविधियों और प्रार्थनाओं में, आत्मज्ञान के सार को सर्वशक्तिमान माना है। ऐसे में, हम दलित अस्मिता और अस्तित्व की हत्या करने की अपनी पिछली गलतियों को कैसे सुलझाएं ताकि भविष्य के लिए स्थिति को ठीक किया जा सके? इस सवाल का उत्तर, “जिनके साथ गलत हुआ है उन्हें आर्थिक सहायता या किसी अन्य तरीके से सहयोग करके अपनी गलतियों को सुधार कर” भूल-सुधार/क्षतिपूर्ति के बारे में सोचने का एक संभावित तरीका है। यह अतीत और आगे बढ़ने वाले अन्याय को ठीक करने का एक माध्यम है। भूल-सुधारों को तीन व्यापक प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:- नैतिक भूल-सुधार:- ज़ख़्मी दिलों और दिमागों के उपचार करने हेतु पिछली गलतियों को स्वीकारना और क्षमा माँगना। आध्यात्मिक भूल-सुधार:- उन समुदायों को नेतृत्व और सम्मान देना, जिनके अध्यात्म के प्रति प्रयासों को अपराध घोषित कर दिया गया। सशर्त भूल-सुधार:- यह धन और भौतिक सामग्री की अदायगी के रूप में एक मुआवज़ा/भूल-सुधार है। यह उन सामाजिक और आर्थिक कारकों से निकलता है जो एक पूरे समुदाय की भूमि, श्रम और मूल्य लूटते हैं। क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार उपनिवेश देशों की एक अंतरराष्ट्रीय मांग है। “क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार और पुनर्वितरणवादी न्याय के विभिन्न वैश्विक दावों के लिए नैतिक, कानूनी, आर्थिक, ऐतिहासिक, और राजनीतिक साक्ष्यों” की जांच करने के लिए हार्वर्ड के मेडिकल स्कूल में लैंसेट कमीशन ऑन रेपरेशंस की स्थापना की गई जहाँ अफ्रीकी अमरीकियों, रोमन, कैरेबियन दासता के साथ साथ, भारत की जाति व्यवस्था के पीड़ितों को भी सुना गया। इसमें भारतीय सन्दर्भ को अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट और अमित थोरात ने पेश किया था। क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार का यह माध्यम, दलितों, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने में खेत से लेकर उद्योगों तक अपना खून-पसीना एक किया, के अवैतनिक श्रम के भारी बोझ के बारे में चिंतन-मनन करने के लिए, देश के समक्ष अवसर मुहैया कराता है। देश की आत्मा लगातार नष्ट की जा रही है, जिसके पुनः जीर्णोद्धार के लिए पुनर्वितरणकारी न्याय और क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार का ऐसा प्रावधान करना आवश्यक है। दलित महिलाओं के कोख-संबंधी कठोर श्रम को ध्यान में रखते हुए और भूमि पुनर्वितरण के रूप में पुनर्वितरणकारी न्याय करना ज़रूरी है। विरोध-प्रदर्शनों और न्याय के आंदोलनों के पक्ष में, दलित अभी तक भूल-सुधार/मुआवज़े की मांग के करीब भी नहीं आये हैं। यह एक मौका है उस समाज को एक आईना दिखाने का, जो अपनी आंतरिक असुरक्षा की भावना के कारण दलितों के खिलाफ निरंतर हिंसा और उनसे घृणा करता है। असुरक्षा की ये भावनाएं पीढ़ी दर पीढ़ी निर्मित हुई हैं। क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार की यह प्रक्रिया हमारे लिए एक राष्ट्र के रूप में एक-साथ आने और स्वतंत्रता के खंडित वादों के पुनर्निर्माण में सहयोग का एक अवसर है। इस देश का प्रत्येक संस्थान दलित हिंसा के इस अपराध में संलिप्त है। यह बहुत आसानी से, देश को एक रखने वाली संरचनाओं में स्थानांतरित हो गया है। आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व दलित जातियों, जिनका श्रम और सम्मान भारत की सत्तारूढ़ जातियों द्वारा शून्य कर दिया गया, को न्याय प्रदान करने का महज़ एक तरीका है। एक राष्ट्र के रूप में, खुद को साबित करने के लिए हमें सामूहिक रूप से शोक मनाने या दुःखों को साझा करने में सक्षम होने की बहुत जरूरत है। यह देश नाज़ी नरसंहार के पीड़ितों, यहां तक कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के पीड़ितों के लिए शोक मना सकता है, लेकिन दलितों के खिलाफ अत्याचारों पर पत्थर की तरह कठोर हो जाता है। इस बड़ी उदासीनता को बदलने या खत्म करने के लिए, हमें नए सिरे से शुरुआत करने की जरूरत है। आरक्षण और भूमि सुधारों के माध्यम से संवैधानिक वादे हमें इकठ्ठा करने के लिए कुछ तरीकों में से एक थे। लेकिन ये सर्वाधिक विवादित रहे हैं। सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार सबसे व्यवहिरिक तरीकों में से एक हैं।
  • लेखक सूरज येंगड़े अंबेडकरवादी युवा हैं। वर्तमान में हार्वर्ड युनिवर्सिटी में पोस्ट डाक्ट्रेट फेलो हैं। “कॉस्ट मैटर्स” किताब के लेखक हैं। हिन्दी अनुवाद- कोमल रजक (डॉक्टोरल स्कॉलर, दिल्ली विश्वविद्यालय)

कोरोना के दौर में डॉक्टरों की अग्निपरीक्षा

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देश भर में साढ़े तीन लाख डॉक्टरों का प्रतिनिधित्व करने वाले भारतीय चिकित्सक संघ यानी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में कोविड के मरीजों के इलाज में लगे डॉक्टरों के खस्ता हाल का मुद्दा उठाया गया है। संस्था ने पत्र के साथ प्रधानमंत्री को एक सूची भेजी है। इसमें सात अगस्त 2020 तक कोविड का शिकार हो चुके 196 डॉक्टरों के नाम तथा अन्य विवरण हैं। एसोसिएशन ने पत्र में ध्यान दिलाया है, “कोविड से संक्रमित हुए डॉक्टरों और उनके परिजनों को बेड उपलब्ध न होने से उन्हें अस्पतालों में एडमिट नहीं किया जा रहा है, और अधिकांश डॉक्टरों को दवाएं तक नहीं मिल पा रही हैं।” पत्र में मांग की गई है कि प्रधानमंत्री जी तत्काल यह सुनिश्चित करें कि स्वास्थ्यकर्मियों और उनके परिजनों को संक्रमित होने के बाद समय से और मानक स्तर की स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों। एसोसिएशन ने लिखा है, “प्रधानमंत्री जी, यह जरूरी है कि हम आपको ध्यान दिलाएं कि इन हालात का स्वास्थ्यकर्मियों के समुदाय पर बहुत ही हतोत्साहित करने वाला असर पड़ रहा है।” एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजन शर्मा ने कहा है, “हम चाहते हैं कि महामारी में काम कर रहे डॉक्टरों की सुरक्षा और कल्याण पर ध्यान दिया जाए।” एसोसिएशन के मानद महासचिव आरवी अशोकन ने पत्र के माध्यम से कहा है, “डॉक्टरों को बीमार पड़ने पर अस्पताल में एडमिट किया जाना और बेड तथा दवाएं उपलब्ध कराया जाना हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह महामारी डॉक्टरों की जान लेने के मामले में एक खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। ये डॉक्टर कोरोना के खिलाफ लड़ाई में सबसे अगली क़तार के योद्धा हैं, एक डॉक्टर की जान पर खतरे का मतलब उस पर निर्भर हजारों मरीजों को असुरक्षा में डाल देना है।” हमारा आत्ममुग्ध शीर्ष नेतृत्व व्यवस्था में किसी भी तरह की कमी की कोई बात स्वीकार करने को भी तैयार नहीं है, लेकिन हालात यह हैं कि कोरोना पॉजिटिव होने वाले लगभग सभी राजनेताओं और वीआईपी लोगों ने अपना इलाज प्राइवेट अस्पतालों में ही कराया है, और शायद इसीलिए उनके बीच मृत्युदर भी न के बराबर है, जबकि देश में अब तक लगभग 44 हजार गैर वीआईपी लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। अभी हाल में ही गृहमंत्री अमित शाह ने भी संक्रमित होने के बाद राजधानी स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) या सफदरजंग जैसे सरकारी अस्पतालों के बजाय हरियाणा के गुरुग्राम स्थित पांच सितारा निजी अस्पताल मेदांता का चुनाव किया और यहां तक कि मेदांता में भी उनकी देखरेख के लिए साथ ही साथ एम्स के डॉक्टरों की भी ड्यूटी लग रही है। सवाल है कि ऐसा क्या हो गया कि खुद गृहमंत्री जी का अपनी ही व्यवस्था से विश्वास उठ गया? एक अगस्त को तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित का कोविड टेस्ट प्राइवेट कावेरी अस्पताल में हुआ और पॉजिटिव आने पर वे प्राइवेट अपोलो अस्पताल में भर्ती हुए। इसी तरह से तमिलनाडु के ऊर्जा मंत्री पी थंगमानी, उच्चशिक्षा मंत्री केपी अनबालागन और सहकारिता मंत्री सेलुर के राजू ने भी कोविड होने के बाद सुख-सुविधाओं वाले प्राइवेट उस्पताल में ही भर्ती होना पसंद किया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपना कोविड का इलाज भोपाल के चिरायु प्राइवेट अस्पताल में और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा ने बंगलुरु के मणिपाल प्राइवेट अस्पताल में कराया। मध्य प्रदेश के ग्रामीण विकास मंत्री राम खेलावन पटेल और सहकारिता मंत्री अरविंद सिंह भदोरिया ने भी अपने नेताजी का अनुसरण करते हुए अपना इलाज चिरायु अस्पताल में ही कराया। भाजपा के राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का इलाज भी गुड़गांव के मैक्स अस्पताल में हुआ। सवाल है कि आखिर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कब सुधरेगी। सवाल यह भी है कि देश के भीतर आम और खास के लिए अलग-अलग स्वास्थ सुविधाएं कब तक चलती रहेगी। सवाल यह भी है कि कोविड को हराने में जुटे डाक्टरों की सुविधाओं का इंतजाम कब हो सकेगा। और बड़ा सवाल यह भी है कि इस दौरान बीमार हो रहे डॉक्टरों के लिए सरकार विशेष इंतजाम कब करेगी।
  • By- डॉ. सिद्धार्थ

जब ब्राह्मण युवक ने फोन कर कहा, आपने दलित दरोगा कि ब्राह्मणों से मारपीट की खबर क्यों नहीं चलाई

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गाज़ीपुर जिले के ग्राम नूरपुर स्थित हाल्ट थाने की घटना परेशान करने वाली है। यहां आरोप है कि थाने के एक दारोगा ने जो कि दलित समाज का है, ब्राह्मण समाज के लोगों पर बर्बरता की है। जो तस्वीरें और वीडियो सामने आए हैं, वह किसी भी सभ्य इंसान को परेशान कर सकते हैं। दारोगा के इस मार-पीट का जमकर विरोध होना चाहिए। कल मेरे पास इस संबंध में एक अपरिचित ब्राह्मण समाज के युवक का फोन भी आया। गुस्से में उसने कहा भी कि अब मैं इस पर खबर क्यों नहीं बना रहा? उसका आरोप था कि मैं सिर्फ दलित उत्पीड़न की खबरें ही बनाता हूं। हालांकि उसका यह आरोप ठीक नहीं था, क्योंकि सरकारी आंकड़े कहते हैं कि हर 18 मिनट में किसी न किसी रूप में दलित उत्पीड़न होता है, यानी एक घंटे में तकरीबन 3 घटनाएं। यानी कि 24 घंटे में तकरीबन 72 घटनाएं। और मैं हर दिन दलित उत्पीड़न की 72 घटनाओं की रिपोर्टिंग नहीं करता, कर भी नहीं सकता। क्योंकि कईयों के पास उत्पीड़न का साक्ष्य नहीं होता, कईयों की FIR यही पुलिस महकमा नहीं लिखता। थाने में बैठे कथित ऊंची जाति के तमाम अधिकारी दलितों को गाली-गलौच कर थाने से भगा देते हैं। और बिना साक्ष्य के मैं खबर बनाने से बचता हूं। मेरे पास यह भी खबरें आती है कि कई लोगों के घरों की लड़कियों का अपहरण हुआ है और पुलिस मामले को दर्ज नहीं कर रही है, दर्ज कर भी लिया है तो आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं कर रही है। ज्यादा क्या कहूं आप भी इसी देश में रहते हैं, जानते ही होंगे। तो ब्राह्मण युवक के फोन पर आते हैं। दलित पत्रकारिता से जुड़ने के बाद बीते आठ सालों में मुझे किसी ब्राह्मण या किसी भी ऊंची जाति या फिर मजबूत ओबीसी जाति के भी किसी व्यक्ति ने आज तक फोन कर के यह नहीं कहा कि फलां गांव या शहर में मेरे समाज के लोगों ने दलितों पर बहुत अत्याचार किया है, आप खबर बनाइए, या फिर फलां सवर्ण पुलिस अधिकारी दलितों की रिपोर्ट नहीं लिख रहा है, आप खबर बनाइए। आरोप लगाने वालों को खुद से यह भी पूछना चाहिए कि दलित/आदिवासी उत्पीड़न की तमाम बड़ी खबरें दबा जाने या फिर दलित/आदिवासी समाज के हितों से जुड़ी तमाम खबरें नहीं चलाने को लेकर उन्होंने अब तक कितने समाचार समूहों को फोन किया, या ई-मेल लिखा है। महाराष्ट्र के खैरलांजी से लेकर हरियाणा के मिर्चपुर या फिर गुजरात के ऊना जैसी घटनाओं में पुलिस और भारतीय मीडिया की अनदेखी के कारण पीड़ितों को इंसान न मिलने से वो कितने चिंतित हुए थे? लेकिन मेरे पास गुस्से में यह फोन जरूर आता है कि आप दलितों द्वारा सवर्ण उत्पीड़न की खबरें नहीं चलातें। हालांकि इस तरह कि घटनाएं सालों में एकाध ही आती है। जिनको पता हो कि दलित आदतन सवर्णों पर अत्याचार करता है तो थेथरई से पहले मुझे साल में दस ऐसी घटनाओं के खबरों का लिंक साझा जरूर करे। खैर, गाजीपुर की घटना पर आते हैं। दलित समाज के दारोगा ने जो भी किया, वह निंदनिय है। उसकी जांच होनी चाहिए, दोषी पाए जाने पर उसपर कार्रवाई होनी चाहिए। क्योंकि हमें ऐसा समाज बिल्कुल नहीं चाहिए जहां एक इंसान दूसरे इंसान पर अत्याचार करे। मुझे ऐसा समाज बिल्कुल नहीं चाहिए कि एक समुदाय विशेष के हाथ में कोई भी मांस हो, उसे गाय का मांस बताकर पीटकर अधमरा कर दिया जाए। मुझे ऐसा देश और समाज बिल्कुल नहीं चाहिए जहां गरीबों और कमजोरों को न्याय न मिले, चाहे वह किसी धर्म और जाति से ताल्लुक रखता हो। मुझे ऐसा देश और समाज बिल्कुल नहीं चाहिए, जहां कोई भी व्यक्ति किसी भी निर्दोष पर अत्याचार कर बच जाए। मैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मांग करता हूं कि जिस पुलिस अधिकारी पर यह आरोप हो कि उसने किसी भी निर्दोष व्यक्ति पर जुल्म किया है, या जाति के आधार पर किसी व्यक्ति से भेदभाव किया है, उसको तुरंत नौकरी से बर्खास्त किया जाए। मैं ऐसी तमाम घटनाओं की निंदा करता हूं। हालांकि इस खबर के संदर्भ में बाद में साफ हो गया कि दलित पुलिस अधिकारी को ब्राह्मण समाज के कुछ लोगों द्वारा फसाने की कोशिश हो रही थी। देखे लिंक  लेकिन सवाल फिर वही है कि आखिर दलितों के साथ अत्याचार पर सवर्णों के मुंह में दही क्यों जम जाता है। उन्हें तब दर्द क्यों नहीं होता??  

नई शिक्षा नीति से उठते सवाल

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Written By- प्रेमकुमार मणि जुलाई महीने की 29 तारीख को केंद्रीय सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की है। इसके पूर्व 1986 में राजीव गाँधी सरकार ने इस विभाग में एक बदलाव लाया था, जिसमे दिखने लायक बात यही थी कि शिक्षा विभाग का नाम बदल कर मानव संसाधन विभाग कर दिया गया था। कल की घोषणा में पुनर्मूसिको भव, अर्थात फिर से इस विभाग का नाम शिक्षा मंत्रालय हो गया। कुछ बड़ी तब्दीलियां की गयी हैं। 10 +2 प्रणाली को ख़त्म कर के 5 +3 +3 +4 प्रणाली अपनायी गयी है। स्कूल से पहले ही बच्चों की शिक्षा आरम्भ हो जाएगी। इसे आंगनबाड़ियाँ अंजाम देंगी और यह फाउंडेशन कोर्स होगा। यह तीन साल को होगा। प्री -स्कूलिंग दो साल का होगा – कक्षा एक और दो। इस तरह फाउंडेशन और प्री मिल कर आरंभिक पांच। फिर कक्षा तीन से पांच तक का तीन वर्षीय मिडिल कोर्स। इसके बाद छह, सात,आठ का सेकंडरी और आखिर में नौ, दस, ग्यारह,बारह का हायर सेकंडरी कोर्स। खास बात यह है कि मिडिल कोर्स से ही कौशल विकास पर जोर दिया जायेगा। उम्मीद की गयी है कि हर छात्र किसी न किसी हुनर के साथ, यानी हुनरमंद होकर ही स्कूल से बाहर निकलेगा। इस लक्ष्य की सराहना कौन नहीं करना चाहेगा। लेकिन, यह इतना आसान नहीं है। वीडियो देखिए- बाबासाहेब की नई पीढ़ी का धमाल, देश, प्रदेश, जिलों में बने टॉपर इस पूरे प्रयोग को समझना थोड़ा मुश्किल है। हालांकि इस नीति को अंजाम देने के लिए सुब्रह्मण्यम और कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली अलग-अलग समितियों ने मिहनत की है। निचले स्तरों से भी काफी कुछ अध्ययन किये जाने की बात कही गयी है। फिर भी बहुत से सवाल उठते हैं। मेरी जानकारी के अनुसार आंगनबाड़ी अभी भी बच्चों की देखभाल करती है। इस घोषणा ने उसे बाल कल्याण से उठा कर शिक्षा विभाग के अंतर्गत ला दिया है। बाकी बारह कक्षाओं की व्यवस्था है ही। मेरी समझ से पुरानी व्यवस्था 10 +2 अधिक सही थी। दो सोपानीय की जगह चार सोपानीय का अर्थ कुछ समझ में नहीं आया। क्या सरकार चाहती है कि बच्चे बीच में पढाई का सिलसिला तोड़ें? यानी पहले, दूसरे या तीसरे सोपान पर भी स्कूल छोड़ सकते हैं।अनिवार्य शिक्षा के वातावरण को यह कमजोर करता प्रतीत होता है। ग़रीबों को शिक्षा से दूर रखने की छुपी और शातिर कोशिश के रूप में भी इसे देखा जायेगा। उच्च शिक्षा में डिग्री कोर्स को चार साल का किया गया है। इसके बाद पोस्ट ग्रेजुएट, यानि मास्टर डिग्री। मास्टर डिग्री के बाद बिना एम् फिल के पीएचडी। डिग्री कोर्स को ऐसा बनाया गया है कि छात्र बीच में भी यदि पढाई छोड़ते हैं, तो उन्हें सर्टिफ़िकेट मिलेगा। पहला साल पूरा करने के बाद सर्टिफिकेट, दूसरे साल के बाद छोड़ने पर डिप्लोमा और तीसरे -चौथे साल के बाद डिग्री दे दिए जाने की व्यवस्था है। इसे मल्टीपल एंट्री और मल्टीपल एग्जिट सिस्टम कहा गया है। वीडियो- एक दलित कारसेवक से सुनिए अयोध्या आंदोलन की सच्चाई आरंभिक शिक्षा में पहले भी मादरी-जुबानों पर जोर था। इस व्यवस्था में भी है। उच्च शिक्षा में निजी और सरकारी क्षेत्र के संस्थानों को एक ही शिक्षा नीति के तहत चलने की बात कही गयी है। यह सराहनीय है। लेकिन प्राथमिक और उच्च दोनों स्तरों पर यह नीति छात्रों को ड्रॉप-आउट के लिए उत्साहित करती प्रतीत होती हैं। इस लिए मैं इसकी सराहना करने में स्वयं को रोकना चाहूँगा। प्रेस को जानकारी देते हुए केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर उत्साहित थे। मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और उनसे भी बढ़ कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्साहित थे। लेकिन मैंने इसे उलट -पुलट कर जो देखा उससे उत्साहित होने की जगह भयभीत हो रहा हूँ। यह पूरी तरह एक पाखंड सृजित करता है। उदाहरण देखिए। कहा गया है शिक्षा-बजट 4.43 फीसदी से बढ़ा कर 6 फीसदी किया जा रहा है। यानी 1.57 फीसदी बढ़ाया जा रहा है। किसकी आँख में धूल झोंक रहे हो मोदी जी? आप पहले यह बतलाइये कि बाल कल्याण विभाग द्वारा संचालित आंगनबाड़ी का खर्च कितना है? आप उसे शिक्षा में जोड़ दे रहे हो। यह तो पहले ही खर्च हो रहा था। यदि इसके अलावा शिक्षा का व्यय बढ़ाया गया है, तब मैं आपकी थोड़ी -सी तारीफ़ करूँगा। अधिक नहीं, क्योंकि आज भी इस देश में शिक्षा का व्यय प्रतिरक्षा व्यय (15.5% )से बहुत कम है,और उसे उस से बहुत अधिक होना चाहिए। वीडियो देखिए- वो दलित साहित्यकार, जिसके बारे में रूस के लोगों ने प्रधानमंत्री नेहरू से पूछा था यह शिक्षा नीति मेरी समझ से उलझावकारी है। नई सदी की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करने का इसके पास कोई विजन नहीं है। हमारा देश संस्कृति -बहुल और भाषा -बहुल है। इस बहुरंगेपन को एक इंद्रधनुषी राष्ट्रीयता में विकसित करना, अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करते हुए एक वैश्विक चेतना सम्पन्न नागरिक का निर्माण और आर्थिक-सामाजिक तौर पर आत्मनिर्भर और भविष्योन्मुख इंसान बनाना हमारी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। यह देखना होगा कि हम समान स्कूल प्रणाली को अपना रहे हैं या नहीं। देश में कई स्तर के स्कूल नहीं होने चाहिए, इसे सुनिश्चित करना होगा। उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्रों का प्रवेश भले हो, स्कूल स्तर तक सभी तरह के प्राइवेट स्कूल को बंद करना होगा। यह नहीं होता है तब शिक्षा पर बात करना फिजूल है, बकवास है।

तो क्या अंततः ब्राह्मण ही तय करेंगे मूल-निवासी और विदेशी की पहचान!

Written By- आरिफ हुसैन

असम में पिछले साल से नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) पर चल रही कारवाई और अमित शाह की घोषणा ने, कि NRC पुरे देश में लागू की जायेगी, नागरिकता और राष्ट्रीय पहचान के मुद्दे की बहस को नई ऊर्जा दे दी है। आज के राजनीतिक युग में, जिसे ट्रम्प-पुतिन-एर्दोगान-बोलसेनारो-दुतेर्ते-मोदी युग भी कहा जा रहा है, ये बहस और भी सामयिक हो गई है, क्योंकि इन सभी महानुभावों की राजनीति कहीं न कहीं राष्ट्रीय पहचान के मुद्दे पर टिकी है।

वैसे तो किसी भी क्षेत्र में, जहाँ हज़ारों सालों से बसाहट हो, ये तय करना की कौन स्थानीय है और कौन विदेशी काफी कठिन है। दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्र में, जो सहस्राब्दियों से पूर्व और पश्चिम एशिया के बीच एक सम्पर्क-सूत्र रहा है और जहाँ अनगिनत मानव समूहों का सम्मिश्रण होता रहा है ये प्रश्न और भी जटिल बन जाता है और वैज्ञानिक रूप से इसका उत्तर देना लगभग असंभव है। अतः NRC सरीखे किसी भी प्रयोजन का उद्देश्य राजनीतिक के अलावा कुछ भी होना अकल्पनीय है।

ये भी देखिए- अयोध्या मामले में बौद्ध पक्ष पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाया एक लाख का जुर्माना

भारतीय उपमहाद्वीप में स्थानीय बनाम विदेशी की राजनीति और उसके पीछे के कारकों को समझने के लिये दो विशेष व्यक्तियों के इतिहास और उनकी समकालीन छवि के सरसरी विश्लेषण से कुछ संकेत मिलते हैं। वो दो व्यक्ति हैं; अहोम वंश का संस्थापक सुकाफा और मुग़ल वंश का संस्थापक बाबर। सुकाफा और बाबर दोनों ही दक्षिण एशियाई सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र के बाहर से आये थे और दक्षिण एशिया में प्रचलित उस समय की सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यताओं से उनका पूर्व परिचय अधिक नहीं था। अतः सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टिकोण से दोनों ही बाहरी थे।

सुकाफा चीन के यूनान क्षेत्र का निवासी था और अपने पिता के राज्य मोंग-माओ में उत्तराधिकार न मिलने और नामित उत्तराधिकारी सुखानफा के हमले से बचने के लिये नये इलाके की खोज में पटकइ पर्वत को पार कर ब्रह्मपुत्र घाटी में आया और सन 1228 ईस्वीं में नामरूप में अहोम राज्य की स्थापना की। दूसरी ओर सन 1501 ईस्वीं में बाबर अपनी पुश्तैनी रियासत फ़रग़ना और ख़ुद का जीता हुआ समरकन्द दोनों ही उज़्बेक लड़ाकू मोहम्मद शेबानी ख़ान के हाथों हार जाता है। सन 1504 ईस्वीं में क़ाबुल जीतने के बाद बाबर ईरानी सफ़ाविदों के साथ संधि कर समरकन्द फ़िर से जीत लेता है लेकिन 1512 ईस्वीं में शेबानी उज़्बेक उसे फ़िर मात दे देतें हैं और इस बार अपनी जान बचाने के लिये बाबर दिल्ली का रुख़ करता है। सन 1526 ईस्वीं में पानीपत की पहली लड़ाई में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हरा कर बाबर दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा कर लेता है जिसे मुग़ल वंश की स्थापना भी माना जाता है।

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इस तरह अगर देखा जाये तो सुकाफा और बाबर के राज्य स्थापना की प्रक्रिया में काफी समानता थी। लेकिन आज के समय में, अकादमिक और लोकस्मृतियों की अवधारणाओं में बाबर और सुकाफा को बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण से देखा जाता है। जहाँ एक और सुकाफा को धीरे-धीरे भूमिपुत्र की संज्ञा दे दी गई, और उसके राज्य अहोम के ही नाम पर स्थानीय लोगों को अहोम/असमिया नाम से जाना जाने लगा, वहीं बाबर और उसके द्वारा स्थापित मुग़ल वंश को विदेशियों की श्रेणी में रखा गया। जहाँ एक ओर सन 1996 से असम में हर साल 2 दिसंबर को सुकाफा दिवस (असम दिवस) मनाया जाने लगा, वहीं संघ परिवार का ब्राह्मण-बनिया नेतृत्व बाबर को लगातार विदेशी आक्रांता के रूप में प्रस्तुत करता रहा।

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यदि मध्यकालीन भारतीय इतिहास के मद्देनज़र देखा जाये तो बाबर और उसके वंशजो का पाप यही था की उन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का हिस्सा बनने और परिणामतः ब्राह्मणों की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभुता को मानने से इंकार कर दिया। वहीं दूसरी ओर अहोम वंश के 14वें राजा सुहंगमुंग (1497–1539) ने ब्राह्मणों की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभुता को मानते हुये ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में सम्मिलित होना स्वीकार किया और बदले में ब्राह्मणों ने उनके लिये एक नई क्षत्रिय वंशावली ‘इन्द्रवँशी’ का आविष्कार कर दिया, जिसे इन्द्र और एक शूद्र स्त्री के सम्मिलन से उत्पन्न बताया गया। इस प्रकार चीन से आये सुकाफा द्वारा स्थापित अहोम राज्य का ब्राह्मणीकरण पूरा हुआ और अहोम वंश के स्थानीयकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। ऐसा ही कुछ 17 वी शताब्दी में भी देखने में आया जब शूद्र राजा शिवाजी भोंसले ने गद्दी संभाली लेकिन स्थानीय ब्राह्मणों ने यह कहते हुए उनका राज्याभिषेक करने से इंकार कर दिया कि वह क्षत्रिय कुल के नहीं है, अंततः शिवाजी को अपने राज्याभिषेक के लिए बनारस से पण्डे बुलवाये जिन्होंने भारी दक्षिणा के एवज में, उनके शूद्र कुल का सम्बन्ध सिसोदिया राजपूतों से जोड़ते हुये उन्हें क्षत्रिय वंशावली का घोषित किया और औपचारिक उपनयन संस्कार और पुनर्विवाह के बाद उनका राज्याभिषेक किया।

लब्बो-लुबाब यही है कि दक्षिण एशिया में इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप कहाँ से आए हैं, आपका धर्म क्या है, आप कौन सी भाषा बोलते हैं। अगर आप ब्राह्मणों की सामाजिक-साँस्कृतिक सत्ता और उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार करने को राज़ी हैं, तो आप यहाँ ग्राह्य हैं। लेकिन अगर आप उस ब्राह्मणवादी सत्ता को चुनौती देते हैं तब फिर आपको एक सतत युद्ध के लिए तैयार रहना पड़ेगा और जैसे ही ब्राह्मणवादी शक्तियों को बढ़त मिलेगी और उनके पास सत्ता आयेगी वह आप को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।


पटना में पले-बढ़े-पढ़े आरिफ हुसैन एक स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं। सामाजिक सरोकार के आंदोलन से जुड़े आरिफ आजकल अमरीका के पूर्वी तट पर स्थित शहर केम्ब्रिज में रहते हैं।

वंचितों के हक की लड़ाई लड़ने वाले हैनी बाबू की गिरफ्तारी के मायने

Written By-प्रमोद रंजन दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के अध्यापक हैनी बाबू मुसलीयारवेटिल थारायिल (हैनी बाबू, 54 वर्ष) को नेशनल इन्विस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने गिरफ्तार कर लिया है। एनआईए ने कहा है कि उन्हें भी भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किया गया है। इस प्रकार, वे इस मामले में गिरफ्तार होने वाले 12 वें बुद्धिजीवी हो गए हैं, जिनमें से कम से कम आधे पिछड़े अथवा दलित समुदाय से आते हैं। इस मामले में पहले गिरफ़्तार होने वालों में  रोना विल्सन, शोमा सेन, सुधीर धावले, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, पी वरवर राव, सुधा भारद्वाज, वरनोन गोंसालविस, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबडे और अरुण फेरेरा शामिल हैं। उपरोक्त में से कई की तरह हैनी बाबू का भी भीमा-कोरेगांव में आयोजित यलगार परिषद के कार्यक्रम से कोई सीधा संबंध नहीं था। न वे इसके आयोजकों में थे, न वहां आमंत्रित थे, न ही उनका इस आयोजन से कोई जुड़ाव था। लेकिन उनकी गिरफ्तारी इस मामले में दिखाई गई है। हालांकि अगर ऐसा कोई जुड़ाव होता, तब भी वह कोई अपराध नहीं था। भीमा-कोरे गांव में हर साल होने वाला वह आयोजन भारत की सबसे वंचित आबादी के आत्मसम्मान का आयोजन रहा है, जो हमारे देश में सामाजिक-लोकतंत्र के निर्माण की प्रक्रिया का संकेत है। लेकिन जिस तरह से उसे शहरी मध्यमवर्ग के समक्ष देशद्रोही गतिविधि के रूप में प्रसारित किया गया, वह अपने आप हैरतअंगेज़ और बहुत खौफनाक है। हैनी बाबू को छह दिन लंबी पूछताछ के बाद गिरफ्तार करने के बाद एनआईए ने प्रेस को कहा है कि आरोपी हैनी बाबू नक्सली गतिविधियों और माओवादी विचारधारा का प्रचार कर रहे थे और इस मामले में गिरफ्तार अन्य अभियुक्तों के साथ सह-साजिशकर्ता थे। इससे पहले, जून 2018 में पुणे पुलिस ने कहा था कि भीमा-कोरेगांव मामले में  गिरफ्तार रोना विल्सन से एक पत्र (संभवत: पंपलेट) बरामद किया गया है, जिसमें  “एक संदिग्ध अंडर कवर माओवादी नेता” कॉमरेड साई (जीएन साई बाबा) के लिए समर्थन जुटाने की अपील की गई है। पुलिस का कहना था कि चूंकि उस पत्र में एक जगह “कामरेड एच.बी.” का उल्लेख है, इसलिए उन्हें संदेह है कि वे एच.बी. – हैनी बाबू ही हैं। इसी सबूत के आधार पर सितंबर, 2019 में पुणे पुलिस ने हैनी बाबू के नोएडा स्थित घर पर छापा मारा था तथा उनका लैपटॉप, पेन ड्राइव, ईमेल एकाउंट का पासवर्ड व दो किताबें और साई बाबा की रक्षा और रिहाई की मांग के लिए गठित समित द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकाएं जब्त की थीं। पुलिस द्वारा जब्त की गई दो किताबें थीं From Varna to Jati: Political Economy of Caste in Indian Social Formation (यलवर्थी नवीन बाबू) और  Understanding Maoists: Notes of a Participant Observer from Andhra Pradesh (एन. वेणुगोपाल)। इनमें से पहली किताब जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे  यलवर्थी नवीन बाबू की एम.फिल. की थिसिस है, जिसे उन्होंने पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया है, जबकि दूसरी किताब आंध्रप्रदेश के माओवादी आंदोलन का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करती है। विभिन्न अखबारों में प्रकाशित एनआईए के बयानों से जाहिर है कि हैनी बाबू की गिरफ्तारी का आधार जीएन साई बाबा की रक्षा और  रिहाई के लिए गठित समिति में सक्रियता के कारण हुई है, जिसका भीमा-कोरेगांव की घटना से कोई संबंध नहीं है। इसलिए इस प्रकरण में यह समझना आवश्यक है कि साई बाबा और हैनी  बाबू का सामाजिक और बौद्धिक रिश्ता क्या है। केरल के हैनी बाबू दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं जबकि आंध्रप्रदेश के साईबाबा भी आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने तक इसी यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। शारीरिक रूप से 90 प्रतिशत अक्षम साई बाबा को 2014 में प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। मार्च, 2017 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिला न्यायालय ने साई बाबा, जेएनयू के शोधार्थी हेम मिश्र और पत्रकार प्रशांत राही को देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिसके बाद से वे जेल में बंद हैं। हैनी बाबू “राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए समिति” के प्रेस सचिव हैं। इस नाते वे साई बाबा की रिहाई के जारी होने वाली अपीलों, प्रदर्शनों आदि में भी सक्रिय रहते थे। इससे संबंधित उनके प्रेस नोट निरंतर मीडिया-संस्थानों को मिलते थे। मार्च, 2019 में साई बाबा की रक्षा और बचाव के लिए  एक 17 सदस्यीय समिति का गठन किया गया था, जिसमें प्रोफेसर एके रामकृष्णन, अमित भादुड़ी, आनंद तेलतुंबडे, अरुंधति राय, अशोक भौमिक, जी. हरगोपाल, जगमोहन सिंह, करेन गेब्रियल, एन रघुराम, नंदिता नारायण, पीके विजयन, संजय काक, सीमा आजाद, कृष्णदेव राव, सुधीर ढवले, सुमित चक्रवर्ती और विकास गुप्ता थे। हालांकि इस समिति के सदस्यों में हैनी बाबू का नाम नहीं था, लेकिन यह सच है कि वे साई बाबा के बिगड़ते स्वास्थ्य और उन्हें जेल में दी जा रही प्रताड़ना से लगातार चिंतित थे। संभवत: इसी  समिति ने साई बाबा के मामले से संबंधित जानकारी देने वाली वे पुस्तकाएं प्रकाशित की थीं, जिन्हें  हैनी बाबू के घर पर छापे के दौरान पुलिस ने जब्त किया था। दक्षिण भारत से आने के नाते, एक ही यूनिवर्सिटी, एक ही विषय का शिक्षक होने के नाते भी हैनी बाबू का साई बाबा के पक्ष में खड़ा होना होना अनूठी बात नहीं थी। लेकिन उनके बीच एक और रिश्ता था, जिस पर एनआईए की नजर भले ही रही हो, लेकिन जिस तबके के लिए वे काम करते रहे हैं, उनमें से अधिकांश को इससे कोई लेना-देना नहीं है। साई बाबा और हैनी बाबू अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से आते हैं तथा इस तबके को उसका जायज हक दिलाने के लिए इन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी है। आंध्रप्रदेश के अमलापुरम् में जन्मे जीएन साई बाबा का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा था, उनके घर में बिजली तक नहीं थी। छुटपन में उनके पिता के पास तीन एकड़ जमीन थी, जिसमें धान की फसल लहलहाया करती थी, लेकिन साई बाबा के 10 वीं कक्षा में पहुंचने से पहले ही वे खेत कर्ज देने वाले साहूकार की भेंट चढ़ गए थे। विलक्षण मेधा के धनी साई बाबा ने अपनी पढ़ाई फ़ेलोशिप और पत्नी वसंथा (उस समय मित्र) के सहयोग से पूरी की थी। वसंथा से उनकी मित्रता 10 वीं कक्षा में ही गणित का होम-वर्क करते समय हुई थी। साई बाबा कॉलेज में नामांकन के लिए वसंथा द्वारा उपलब्ध करवाए गए टिकट के पैसे से जब पहली बार हैदराबाद गए तो उन्होंने पहली बार ट्रेन देखी। बचपन से लेकर युवावस्था का एक लंबा चरण पार हो जाने तक उनके पास व्हील चेयर तक नहीं थी और वे घुटनों के बल पर जमीन पर घिसट कर चला करते थे। 2003 में दिल्ली आने के बाद उन्होंने पहली बार व्हील चेयर खरीदी। दिल्ली ने उन्हें बहुत कुछ दिया। उनकी प्रतिभा पर देश-विदेश के अध्येताओं की नजर गई और उनके शोध-पत्रों को विश्व के अनेक प्रतिष्ठित मंचों पर जगह मिली। उन्होंने इस दौरान पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के लिए आवाज उठाना जारी रखा तथा कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में जारी विभिन्न आंदोलनों में भागीदारी की। एक अखबार को दिए गए साक्षात्कार में साई बाबा ने बताया था कि हैदराबाद में मेरा राजनीतिक जीवन मंडल आयोग और आरक्षण की लड़ाई से शुरू हुआ। जिसमें वसंथा  भी उनके साथ शामिल थीं। उसी दौरान मार्च, 1991 में उन्होंने विवाह भी किया। वह लड़ाई वे आजीवन लड़ते रहे। इसी प्रकार हैनी बाबू ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग के हितों की अनेक  बड़ी लड़ाईयां, जिस प्रकार बिना किसी आत्मप्रचार के, बहुत धैर्य और परिश्रम से लड़ीं और जीतीं वह अपने आप में एक मिसाल है। उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 2006 में ही 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया था, लेकिन  2016 तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों ने अन्य पिछड़ा वर्गों के विद्यार्थियों का नामांकन नहीं करने के लिए अघोषित रूप से तरह-तरह के नियम बना रखे थे। नतीजा यह होता था कि सामान्य वर्ग में ओबीसी के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का नामांकन तो दूर, 27 प्रतिशत आरक्षित सीटों में आधी से अधिक सीटें भी खाली रह जाती थीं तथा उन पर बाद में सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों का नामांकन कर लिया जाता था। हैनी बाबू ने इसे रोकने के लिए दलित एवं पिछड़े वर्गों तथा अल्पसंख्यक समुदायों के अध्यापकों और विद्यार्थियों के फोरम एकैडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिसके तहत सक्रिय रहते हुए अथक परिश्रम किया। उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत सैकड़ों आवेदन किए, अपील पर अपीलें की और उन आंकड़ों का संधान कर दिल्ली यूनिवर्सिटी में आरक्षण की स्थिति की वह तस्वीर पेश की, जिसे देखकर हम सब हैरान रह गए। उन दिनों मैं बहुजन मुद्दों पर केंद्रित एक मासिक पत्रिका का संपादन किया करता था। हमने अपनी पत्रिका में उनके द्वारा पेश किए गए आंकड़ों को प्रकाशित करते हुए शीर्षक दिया था – “ओबीसी सीटों की लूट”! ओबीसी आरक्षण के नाम पर केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में सरकार ने विद्यार्थियों की भर्ती 54 प्रतिशत बढ़ा दी थी, ताकि अनारक्षित वर्ग को जाने वाली सीटों में कमी न हो और उन्हें इसके लिए सैकड़ों करोड़ रूपए का अनुदान भी मिला था, लेकिन हैनी बाबू द्वारा जमा किए गए आंकड़े साफ तौर पर बता रहे थे इसका फायदा वास्तव में द्विज समुदाय से आने वाले विद्यार्थियों को हो रहा था और अन्य पिछड़ा वर्ग के हजारों विद्यार्थियों को साल दर साल उनके वाजिब हक से वंचित किया जा रहा था। हैनी बाबू द्वारा जमा किए गए इन आंकड़ों को उनके संगठन ने ओबीसी की राजनीति करने वाले नेताओं तक पहुंचाया, जिससे उसकी गूंज संसद में भी पहुंची। हैनी बाबू की इस मुहिम में उनके संगठन के एक और पिछड़े वर्ग से आने वाले शिक्षक केदार मंडल निरंतर शामिल रहते थे। केदार भी साई बाबा की तरह शारीरिक रूप से अक्षम हैं। दो वर्ष पहले उन पर भी हिंदू भावनाओं के अपमान के आरोप में मुकदमा दर्ज करवाया गया था तथा उन्हें नौकरी से निलंबित कर दिया गया था। हैनी बाबू द्वारा संकलित उन आंकड़ों के प्रकाश में आने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों के लिए ओबीसी सीटों की लूट जारी रखना संभव नहीं रह गया। 2016 के बाद से हर साल दूर-दराज क्षेत्रों से आने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के हजारों अतिरिक्त विद्यार्थी देश के दिल्ली यूनिवर्सिटी के विभिन्न प्रतिष्ठित कॉलेजों में नामांकन पाकर अपना भविष्य संवार रहे हैं। लेकिन उनमें से बहुत कम को ही हैनी बाबू के नाम की भी जानकारी होगी। इसी प्रकार 2018 में जब केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए आरक्षण रोस्टर में बदलाव कर दिया गया, जिससे दलित व अन्य पिछड़ा वर्ग की हजारों सीटें कम हो गईं तो उसके विरोध को व्यवस्थित करने में हैनी बाबू का बहुत बड़ा योगदान था। इन संघर्षों ने उन्हें आरक्षण संबंधी जटिल नियमों का इनसाक्लोपीडिया बना दिया था। जिसे भी इससे कोई भी जानकारी चाहिए होती, वह उन्हें ही फोन लगाता और वे हरसंभव जानकारी देते। उन्होंने उस दौरान विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा जारी विज्ञापनों में दलित, ओबीसी और आदिवासी सीटों की गणना करके बताया कि किस प्रकार रोस्टर में होने वाला यह परिवर्तन इन वर्गों के हितों पर भारी कुठराघात है। उस लड़ाई में भी बहुजन तबक़ों की जीत हुई और सरकार को आरक्षण बहाल करने के लिए नए नियम बनाने पड़े। बहरहाल, हैनी बाबू और साई बाबा जैसे लोगों द्वारा किए गए संघर्ष और उनकी प्रताड़ना का एक और ऐसा पहलू है, जिस पर प्राय: नजर नहीं जाती। साई बाबा के मामले पर नजर रखने वाले अनेक पत्रकारों ने लिखा है कि उन्हें जिस प्रकार आजीवन कारावास की सजा हुई वह अपने आप में न्यायपालिक का एक “इतिहास” है। ऐसा संभवत: पहली बार हुआ था कि किसी मामले में पुलिस द्वारा लगाई गई सभी की सभी धाराओं को कोर्ट ने स्वीकार कर लिया और मामले में आरोपित सभी व्यक्तियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि साई बाबा जैसे लोग उस कमजोर सामाजिक समुदाय का हिस्सा थे, जिसमें इस प्रकार की लड़ाइयों में अपने लोगों के साथ खड़ा होने की क्षमता नहीं है। साई बाबा के मामले को नजदीक से देखने वाले पी. विक्टर विजय ने अपने एक लेख में लिखा है कि प्रोफेसर साई बाबा ने अपने श्रम और मेधा से बहुत मूल्यवान बौद्धिक पूंजी का निर्माण किया, लेकिन वह उनकी लुटी-पिटी सामाजिक पूंजी से मेल नहीं खाती थी। वे देशी-विदेशी अकादमिक दायरे में सबसे संतुलित और तीक्ष्ण विचारों वाले बौद्धिक के रूप में जाने जाने लगे थे। लेकिन  उनके समुदाय के पास वास्तव में उतनी सामाजिक पूंजी थी ही नहीं, जितनी कि इस प्रकार की सक्रियता के लिए आवश्यक होती है। यही कारण था कि वे समान आरोपों में समय-समय पर फंसाए जाते रहे  द्विज बौद्धिकों की तुलना में उन्हें अपनी जनपक्षधर सक्रियता की बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ी। साई बाबा को मुकदमे के दौरान कानूनी-परामर्श की कमी का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सीमाओं में इसके लिए बहुत कोशिश की, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उनके प्रयास एक सीमा से आगे जाने में असमर्थ थे। हैनी बाबू की गिरफ्तारी पर विचार करते हुए हमें इन पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए। बहुजन तबके से आने वाले अन्य लोगों की ही तरह उन्हें भी समान आरोपों से घिरे अनेक लोगों की तुलना में अधिक आर्थिक, नैतिक और कानूनी संबल की आवश्यकता होगी।
[फारवर्ड प्रेस नामक पत्रिका के प्रबंध संपादक रहे प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास  में रही है। पेरियार के लेखन और भाषणों का उनके द्वारा संपादित संकलन तीन खंड में हाल ही में प्रकाशित हुआ है।  संपर्क: 9811884495, janvikalp@gmail.com   

टॉपर है डॉ. आंबेडकर की नई पीढ़ी

पिछले कुछ दिनों से आप सोशल मीडिया पर घूमती कुछ तस्वीरों को देख रहे होंगे। देश के तमाम राज्यों और जिले से टॉपरों की सूची में शामिल ये नाम गर्व करने वाले हैं। ये वो नाम हैं, जिन्होंने हाल ही में आए दसवीं और 12वीं की परीक्षाओं में टॉप किया है। कुछ ने अपने राज्य में तो कईयों ने अपने जिलों में। खास बात यह है कि इसमें कुछ नाम ऐसे भी शामिल हैं, जिन्होंने तमाम अभाव और गरीबी के बावजूद लाखों मेरिटधारियों को पछाड़ दिया है।

बात देश के टॉपर से शुरू करते हैं। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले तुषार कुमार सिंह ने सीबीएसई (CBSE) बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में सौ प्रतिशत अंक हासिल कर देश भर में टॉप किया है। तुषार ने 500 में से 500 अंक हासिल किए हैं। उनके माता पिता दोनों प्रोफेसर हैं। तुषार ने दो साल पहले 10वीं की परीक्षा में भी 97 प्रतिशत अंक हासिल किए थे। तुषार दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए कोर्स में दाखिला लेकर सिविल सेवा की तैयारी करना चाहते हैं। खास बात यह है कि तुषार के पिता ने अपने बच्चों को आंबेडकरवाद का पाठ पढ़ाया है और पूरा परिवार अंबेडकरवादी है। अब आपको झारखंड ले चलते हैं। झारखंड में लीजा उरांव सीबीएसई की 10वीं की परीक्षा में पूरे झारखंड में टॉपर बनी हैं। उन्होंने 99 फीसद अंक हासिल किया हैं। लीजा को इंग्लिश में 99, हिदी में 100, मैथ में 98, साइंस में 99, सोशल साइंस में 98 और आइटी में 100 अंक मिले हैं। कटहल मोड़ की रहने वाली लीजा उरांव के पिता दशरथ उरांव और माता संयुक्त कच्छप दोनों टीचर हैं। माता-पिता और नानी लीजा के प्रेरणास्रोत हैं। लीजा के दिल में अपने समाज के लिए काफी दर्द है, और वह उसकी बेहतरी के लिए काफी कुछ करना चाहती हैं। परिणाम आने के बाद स्थानीय मीडिया से बातचीत में लीजा ने कहा कि वह आगे चलकर आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ना चाहती हैं। लीजा भी तुषार की तरह सिविल सर्विस में जाना चाहती हैं। झारखंड बनने के बाद यह पहला मौका है जब आदिवासी समाज का कोई बच्चा स्टेट टॉपर बना है। अब पंजाब चलिए। पंजाब में इन दिनों जसप्रीत कौर का नाम चर्चा का विषय है। जसप्रीत ने पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में टॉप किया है। जसप्रीत ने अपनी मेहनत के बूते 99.5 प्रतिशत अंक हासिल किया है। जसप्रीत ने 450 अंकों में से 448 अंक हासिल किया है। बेहद गरीबी में पलने वाली जसप्रीत के पिता एक नाई हैं, और लोगों के बाल काटते हैं। जसप्रीत ने न तो कोई ट्यूशन किया और न ही उन्हें गाईड करने वाला ही कोई था, बावजूद इसके कड़ी मेहनत के बूते जसप्रीत ने यह मुकाम हासिल किया और बता दिया की नामुमकिन कुछ भी नहीं। जसप्रीत का सपना उच्च शिक्षा का है। वह एम.ए और एम.फिल के बाद इंग्लिश की टीचर बनना चाहती हैं। जसप्रीत के पिता बलदेव सिंह पिछले 24 साल से नाई का काम करते हैं। मां मनदीप कौर गृहणी हैं। परिवार गरीबी में जीता है। जसप्रीत ने 10वीं में 79 प्रतिशत अंक हासिल किया था। तब उन्हें पता था कि उनके पिता ट्यूशन कराने में सक्षम नहीं हैं, सो उन्होंने कड़ी मेहनत की, खुद पर भरोसा रखा और 12वीं में अव्वल आईँ। पंजाब के बाद राजस्थान में भी एससी समाज के युवा ने परचम लहराया है। राजस्थान बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजुकेशन, अजमेर द्वारा जारी 12वीं के परिणाम में प्रकाश फुलवारिया टॉपर बने हैं। प्रकाश 99.20 प्रतिशत लाते हुए 500 नंबरों में 496 अंक हासिल कर टॉपर बने हैं। प्रकाश की तैयारी इतनी शानदार थी कि 496 अंक आने के बावजूद वो असमंजस में हैं कि उनके 4 नंबर क्यों कट गए। उनके पिता का नाम चन्ना राम और मां का नाम संतोष देवी है। अब प्रकाश के नंबरों पर नजर डालते हैं। अपनी मेहनत के बूते प्रकाश ने हिन्दी में 100 अंक, इंग्लिश में 99 अंक, पोलिटिकल साइंस में 98, हिस्ट्री में 100 और हिन्दी साहित्य में 99 अंक हासिल किया है। प्रकाश के पिता चनणाराम कमठा एक मजदूर हैं। प्रकाश आईएएस बनना चाहते हैं। जिलों में भी बाबासाहेब के बच्चों ने शानदार सफलता हासिल की है। हरियाणा की प्रेरणा दयाल ने हरियाणा शिक्षा बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में गुरुग्राम जिले की टापर बनी हैं। प्रदेश में उनका स्थान पांचवा है। प्रेरणा ने 500 अंकों में से 493 अंक हासिल किए हैं। प्रेरणा का परिवार अंबेडकरवादी है। प्रेरणा आगे कानून की पढ़ाई कर जज बनना चाहती हैं। प्रेरणा के आदर्श बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर हैं। उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए प्रेरणा देशहित में और महिलाओं के उत्थान की दिशा में काम करना चाहती हैं। प्रेरणा के पिता राम किशोर दयाल और मां सीमा दयाल हैं। प्रेरणा के बड़े पिता आर. के दयाल तो अम्बेडकरी आंदोलन में खासे सक्रिय हैं। गुरुग्राम जिले में ही साईकिल रिपेयर करने वाले पिता की बेटी मीनू ने जिले में दूसरा स्थान हासिल किया है। तो दूसरी ओर यूपी के मेरठ जिले में आयुषि राज 99.2 प्रतिशत अंक हासिल कर जिले में टॉपर बनी हैं।

मैंने जिन बच्चों का भी जिक्र किया, उनमें दो बातें कॉमन है। पहली बात सभी टॉपर हैं। किसी ने प्रदेश में तो किसी ने अपने जिले में टॉप किया है। दूसरी बात सब के सब एससी-एसटी समाज के बच्चे हैं, जिन्हें आमतौर पर अंडरमेरिट मान कर खारिज कर देने का रिवाज रहा है। लेकिन इन बच्चों में कईयों ने अभाव के बीच सफलता हासिल कर बता दिया है कि वो बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के वंशज हैं, जिन्हें दुनिया विद्वान मानती है। वो ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के वंशज हैं, जिन्होंने शिक्षा को सबसे ऊपर रखा था। खासबात यह भी है कि इन टॉपर्स में लड़के भी हैं, लड़कियां भी हैं। और तमाम युवा बाबासाहेब सहित बहुजन नायकों को अपना आदर्श मानते हैं। साफ है कि यह बाबासाहेब आंबेडकर के समाज की नई पीढ़ी है, जिसने मौका मिलते ही साबित कर दिया है कि मेरिट किसी के घर की बपौती नहीं होती, बस मौका मिलना चाहिए।

हां, एक बार और, समाज को जसप्रीत और ऐसे ही अन्य मेधावी बच्चे जो अभाव में हैं, उनकी मदद को आगे आना चाहिए।

हिंदी पट्टी में पेरियार

पेरियार के मूल तमिल लेखन का हिंदी अनुवाद अभी तक उपलब्ध नहीं था, इस कारण उनकी वैचारिकी से हिंदी क्षेत्रों के दलित-बहुजन आंदोलन का उस तरह का सघन और सक्रिय रिश्ता विकसित नहीं हो पाया, जैसा कि डॉ. आम्बेडकर और बहुत हद तक जोतिराव फुले से हो सका है। इस कमी को बहुजन साहित्य के अध्येता प्रमोद रंजन ने पेरियार पर केंद्रित तीन पुस्तकों की ऋंखला का संपादन कर पूरा किया है, जिन्हें  राजकमल प्रकाशन समूह ने प्रकाशित किया है। 5 अगस्त को अयोध्या में राम-मंदिर के निर्माण के लिए भूमि-पूजन  होना है। उससे ठीक पहले आई इन किताबों, विशेषकर पेरियार कीसच्ची-रामायणके प्रकाशन को  सांप्रदायिक शक्तियों को प्रगतिशील व दलित-बहुजन समाज के एक सशक्त उत्तर के रूप में भी देखा  जा रहा है। यही कारण है कि इन किताबों के बाजार में आते ही हिंदी की द्विजवादी बौद्धिक दुनिया भड़क उठी है।  हम यहां ‘दलित-दस्तक’ के पाठकों के लिए पुस्तक श्रृंखला के संपादक प्रमोद रंजन की एक इससे संंबंधित टिप्पणी और पुस्तक का संपादकीय उपलब्ध करवा रहे हैं। रंजन ने अपनी टिप्पणी में हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के पेरियार संबंधी अज्ञान पर प्रकाश डाला है तथा पेरियार का विरोध करने वाले लेखकों की खबर ली है। संपादक, दलित-दस्तक
Written By- प्रमोद रंजन ‘हिंदी पट्टी में पेरियार’ विषय पर बात करनी हो तो, एक चालू वाक्य को उलट कर कहने पर बात अधिक तथ्यगत होगी। वह यह कि पेरियार के विचार हिंदी की दुनिया में परिचय के मोहताज हैं! उत्तर भारत, दक्षिण भारत के महान सामाजिक क्रांतिकारी, दार्शनिक और देश एक बड़े हिस्से में सामाजिक-संतुलन की विधियों और राजनीतिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले ईवी रामासामी पेरियार (17 सितम्बर, 1879-24 दिसम्बर, 1973) के बौद्धिक योगदान के विविध आयामों से अपरिचित हैं। यह सुनने में अजीब है, लेकिन सच है। जबकि स्वयं पेरियार चाहते थे कि उनके विचार उत्तर भारत के प्रबुद्ध लोगों तक पहुंचे। उन्होंने अपने जीवनकाल में उत्तर भारत के कई दौरे किए और विभिन्न जगहों पर भाषण दिए। इस दौरान उन्होंने अपने कुछ लेखों व एक पुस्तक को हिंदी में प्रकाशित करने का अधिकार भी उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख बहुजन कार्यकर्ताओं, क्रमशः चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु और ललई सिंह को दिए थे। लेकिन वह बात न हो सकी, जो पेरियार चाहते थे। उत्तर भारत में आज भी पेरियार को मुख्य रूप से नास्तिक और हिंदी विरोधी के रूप में जाना जाता है। यह गलत तो नहीं, लेकिन उनका एकांगी चित्रण अवश्य है। उन्होंने धर्म के आधार पर होने वाले शोषण की कड़ी आलोचना की, लेकिन उसे तार्किक परिणति तक पहुंचाया। डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म स्वीकार करने का उन्होंने स्वागत किया और उसे ऐतिहासिक दिन बताया। इसी तरह उनका हिंदी-विरोध सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का विरोध था, जिसने बाद के वर्षों में दक्षिण और उत्तर भारत में राजनीतिक संतुलन बनाया और देश की अखंडता को संभव किया। वे हिंदी भाषा के विरोधी नहीं थे। इन चीजों से इतर पेरियार ने विवाह संस्था, स्त्रियों की आजादी, साहित्य के महत्ता और उपयोग, भारतीय मार्क्सवाद की कमजोरियों, गांधीवाद और उदारवाद की असली मंशा और पाखंड आदि पर जिस मौलिकता से विचार किया है, उसकी आज हमें बहुत आवश्यकता है। वे अपने काल तक ही सीमित नहीं थे, उनसे दृष्टि निरंतर भविष्य पर बनी रही। विज्ञान और तकनीक भी उनके प्रिय विषय थे। यही कारण है कि आज के उत्तर सूचना-युग में भी हम उनकी भविष्यवाणियों को फलीभूत होते देख रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी क्षेत्र के सामाजिक आन्दोलनों व अकादमियों में समाज के वंचित तबकों से बड़ी संख्या में लोग आए हैं। वे सिर्फ ‘नास्तिक पेरियार’ से परिचित हैं। हालांकि उनके इस रूप के प्रति नई पीढ़ी में जबरदस्त आकर्षण भी है। लेकिन उसने वस्तुत: पेरियार को पढ़ा नहीं है। इस पीढ़ी के पास पेरियार के विचारों के बारे में कुछ सुनी-सुनाई, आधी-अधूरी बातें ही हैं। यह स्वभाविक है क्योंकि हिंदी में अब तक पेरियार का साहित्य उपलब्ध नहीं था। सकते में डाल देने वाली इस कमी का अहसास मुझे वर्ष 2011 में हुआ था। उन दिनाें मैं नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहा था। अपने एक लेख के लिए मुझे ई.वी. रामासामी पेरियार के विचारों को जानने की जरूरत महसूस हुई। लेकिन, यह जानकर हैरानी हुई कि ‘सच्ची रामायण’ के अतिरिक्त उनका कोई भी साहित्य हिंदी में उपलब्ध ही नहीं है। 1970 में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने ‘ई.वी. रामासामी पेरियार नायकर’ नाम पेरियार के कुछ लेखों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया था। वह भी अनुपलब्ध था। ‘सच्ची रामायण’ का जो अनुवाद उपलब्ध था, वह भी शुद्ध नहीं था। अंग्रेजी से मिलान करने पर साफ पता चल रहा था कि कई हिस्सों का अनुवाद ही नहीं किया गया है तथा कई स्थानों पर अनुवादक/प्रकाशक ने अपनी भावनाओं का समावेश कर दिया है। इस दिशा में खोजबीन करने पर सच्ची रामायण के हिंदी में प्रचार-प्रसार और राजनीतिक उपयोग-उपेक्षा के बारे कुछ अन्य रोचक जानकारियां भी मिलीं। राम-कथा की व्याख्या पर केन्द्रित पेरियार की रामायण मूल रूप से तमिल में 1944 में छपी थी। तमिल में इसका नाम था – ‘रामायण पातिरंगल (रामायण के चरित्र)’ अंग्रेजी में यह 1959 में ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, जिसका हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ शीर्षक से किन्हीं रामाधार ने किया था; जो 1968 में प्रकाशित हुआ। हिंदी में इसे अर्जक संघ से जुड़े लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक ललई सिंह (1 सितंबर, 1911- 7 फरवरी, 1993) ने प्रकाशित किया था। बाद के वर्षों में वे स्वयं भी अपने प्रशंसकों के बीच ‘पेरियार ललई सिंह’ और उत्तर भारत के पेरियार के नाम से जाने गए। उन्होंने सिर्फ इसे प्रकाशित ही नहीं किया बल्कि इसके प्रचार-प्रसार में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, जिससे राम-पूजक उत्तर प्रदेश में हड़कंप मच गया। दिसंबर, 1969 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस किताब को (सिर्फ हिंदी अनुवाद नहीं) हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में प्रतिबंधित कर दिया और हिंदी अनुवाद की प्रतियां जब्त कर ली। ललई सिंह यादव ने इसके खिलाफ लंबी न्यायिक लड़ाई लड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने 16 सितंबर, 1976 के अपने फैसले में इस किताब पर प्रतिबंध को गलत बताया एवं जब्त की गई प्रतियां ललई सिंह को लौटाने का निर्देश दिया। लेकिन, कोर्ट के आदेश के बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘सच्ची रामायण’ से प्रतिबंध नहीं हटाया। 1995 में प्रदेश में पेरियार को अपने प्रमुख आदर्शों में गिनने वाले कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सत्ता में आई, तब जाकर इससे प्रतिबंध हटा। उस समय बसपा कांशीराम के हाथ में थी और वे दलित-ओबीसी नायकों का राजनीतिक उपयोग करने की रणनीति पर काम कर रहे थे। लेकिन पेरियार के विचार तब भी हिंदी भाषी जनता तक नहीं पहुंच सके। कांशीराम की मुख्य प्रतिबद्धता दलित समुदाय की राजनीतिक हिस्सेदारी के प्रति थी। उन्होंने पेरियार मेला का भी आयोजन किया। नायकों की मूर्तियों की स्थापना, मेलों का आयोजन आदि शीघ्र फल देने वाले बहुत महत्वपूर्ण काम थे। लेकिन कांशीराम से इन नायकों के मूल विचारों को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठाने की उम्मीद करना अतिरेक ही कहा जाएगा। यह बीड़ा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रहे समतावादी कार्यकर्ताओं को उठाना चाहिए था। लेकिन यह नहीं हुआ। यही कारण था कि, 2007 में जब उत्तर प्रदेश में ‘सच्ची रामायण’ का एक बार फिर जोरदार विरोध हुआ था, तब बसपा को पेरियार से कन्नी काटनी पड़ी। विरोधियों के प्रश्नों का उसके पास सैद्धांतिक उत्तर नहीं था। उस समय भी बसपा उत्तर प्रदेश की सत्ता में थी और मायावती ही मुख्यमंत्री थीं। अक्टूबर, 2007 में भारतीय जनता पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी पर आरोप लगाया कि वह सरकार के सहयोग से ‘सच्ची रामायण’ का प्रचार-प्रसार कर रही है तथा बड़े पैमाने पर इसकी बिक्री की जा रही है। उस समय विधानसभा का सत्र चल रहा था। इसलिए यह मामला मीडिया में भी खूब गूंजा। भाजपा विधानमंडल दल के नेता ओमप्रकाश सिंह का कहना था कि हिंदू देवी-देवताओं के विरोधी तथा द्रविड़िस्तान की मांग करने वाले अलगाववादी पेरियार रामासामी की सरकार निंदा करे तथा उन्हें महापुरुषों की श्रेणी में न माने। इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती का उत्तर अप्रत्याशित था। मायावती ने कहा कि ‘‘बसपा तथा सरकार का पेरियार की सच्ची रामायण की बिक्री से कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा मामले का राजनीतिकरण कर रही है।’’ भाजपा के विरोध और बसपा द्वारा पेरियार से रणनीतिक दूरी बना लेने की इस घटना का एक आश्चर्यजनक पक्ष भी था; जिसका पता इंडियन एक्सप्रेस की एक ख़बर से लगता है। पत्रकार अलका पांडेय ने 7 नवंबर, 2007 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपनी खोजी रिपोर्ट में लिखा कि,जिससच्ची रामायणके लिए भाजपा और बसपा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही थीं उसकी प्रति न भाजपा के पास उपलब्ध है, न ही बसपा के पास। बसपा का सारा साहित्य बेचने वालेबहुजन चेतना मंडपके पास भी यह किताब उपलब्ध नहीं है।’’ भाजपा इस दौरान कई जगहों पर ‘सच्ची रामायण’ के दहन का आयोजन कर रही थी। लेकिन, जलाने के लिए भी पार्टी के पास किताब की प्रति नहीं थी। उसने जिस किताब का दहन किया, वह किताब के कथित आपत्तिजनक अंशों की फोटोकॉपी थी।”  अखबार  ने अपनी पड़ताल में पाया कि सिर्फ बसपा से जुड़े स्टॉलों पर ही नहीं, बल्कि पूरे लखनऊ में किसी भी दुकान परसच्ची रामायणउपलब्ध नहीं है।’’ लखनऊ के सबसे बड़े पुस्तक विक्रेतायूनिवर्सल बुक सेलरने भी अखबार को बताया कि “‘सच्ची रामायणकभी बिक्री के लिए उपलब्ध ही नहीं थी। वस्तुत: ‘बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज इंप्लाइज फेडरेशन’ (बामसेफ) से जुड़े ‘मूलनिवासी प्रचार-प्रसार केंद्र’ तथा ‘आंबेडकर प्रचार समिति’ आदि ने ‘सच्ची रामायण’ की लाखों प्रतियां अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं के बीच वितरित की थीं। लेकिन, इसकी पहुंच न तो विश्वविद्यालयों तक हो सकी थी, न ही उन दुकानों तक, जहां कथित ‘मुख्यधारा’ की किताबें पढ़ने वाले लोग जाते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। एक ओर बहुजन तबकों को ज्ञान की कथित मुख्यधारा से दूर रखने की कोशिश की जाती है, दूसरी ओर इन तबकों के पास उपलब्ध ज्ञान और उनके नायकों की यह सचेत उपेक्षा की जाती है। बहरहाल, इन स्थितियों से चिंतित होकर मैंने वर्ष 2014 में ही तमिलनाडु निवासी विश्वविद्यालय में अपने सहपाठी मनीवन्नन मुरुगेसन और तमिल पत्रिका कत्तारू के सदस्य टी. थमराईकन्नन   के साथ मिलकर पेरियार ग्रंथावली हिंदी में लाने की योजना बनाई थी। थोड़े विषयांतर का खतरा मोल लेते हुए भी, उपरोक्त तमिल पत्रिका की विशिष्टता का उल्लेख कर देना यहां प्रासंगिक होगा। कोयंबटूर से प्रकाशित ‘कात्तारू’अपने कलेवर, विषयों के चुनाव आदि में यह एक श्रेष्ठ और गंभीर मासिक पत्रिका है, जो आज भी नियमित प्रकाशित हो रही है। उत्तर भारत से जो साहित्यिक – वैचारिक अथवा  दलित-बहुजन मुद्दों पर केंद्रित लघु पत्रिकाएँ निकलती हैं, उनमें से अधिकांश के पीछे प्राय: कोई एक व्यक्ति मिशनरी भाव से जुड़ा होता है। कुछ मामलों में तो पत्रिका के माध्यम से स्वनामधन्य हो जाने की ख्वाहिश भी काम कर रही होती है। लेकिन, कोयंबटूर में ‘कात्तारू’ की युवा टीम इससे बिलकुल अलग है। ‘कात्तारू’ में किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं प्रकाशित होता है। सारा काम ‘टीम’ की ओर से किया जाता है। सबसे अधिक हैरान करने वाली बात है पत्रिका के प्रकाशन स्थल के निकटवर्ती गांव-कस्बों के परिवारों का इससे जुड़ाव। उस वार्षिकोत्सव के दौरान  ‘टीम कात्तारू’ ने मुझे बताया कि इससे आसपास के गांवों के लगभग 500 परिवार जुड़े हैं, जिनके अनुदान से यह चलती है। सम-सामयिक मुद्दों की इस  पत्रिका में कुछ पृष्ठ इन परिवारों में होने वाले जन्मदिन, विवाह व अन्य छोटी-बड़ी उपलब्धियों, शोक समाचार आदि के संक्षिप्त समाचारों व तस्वीरों के लिए सुरक्षित हैं। हिंदी की लघु पत्रिकाओं में इसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। पत्रिका के जिस समारोह में मैं शामिल हुआ था, उसमें पुरुषों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में किशोरियां, युवतियां, बहुएं, बच्चे, बुजुर्ग महिलाएं भी सक्रिय भागीदारी कर रहीं थीं। वे विविध वैचारिक मुद्दों पर सवाल पूछ रहीं थीं और वक्ताओं के भाषणों के बाद हस्तक्षेप कर रहीं थीं। पेरियार ने अपने आन्दोलन को महिलाओं से जोड़ने पर बहुत बल दिया था, जिसका असर उस समारोह में दिख रहा था। इसके विपरीत, आज उत्तर भारत के सारे जातिवाद-विरोधी आन्दोलन मुख्य रूप से सिर्फ पुरुषों के आन्दोलन हैं। जो महिलाएं इन आन्दोलनों में हमारे कंधे-से-कंधा मिला सकती थीं, उन्हें भी हमने विवश कर दिया है कि वे हमारे पुरुषवाद के विरोध में अपना अलग आन्दोलन चलाएँ। उत्तर भारत का ‘दलित स्त्रीवाद’ इसी का परिणाम है। बहरहाल, पेरियार को हिंदी में लाना इतना आसान नहीं था। धारा के खिलाफ जाने वाले कामों में ऐसे अप्रत्याशित विघ्न आ खड़े होते हैं, जिनसे पार पाना बहुत कठिन होता है। अंतत: कोविड:19 के इस दौर में पेरियार के विचार हिंदी में तीन पुस्तकों की ऋंखला के रूप में प्रकाशित हो गए हैं। इनमें संबंधित विषयों पर पेरियार के लेख और भाषण हैं। इसके अतिरिक्त सभी खंडों में संबंधित विषय के अध्येताओं के आलोचनात्मक लेख तथा पेरियार के जीवन का वर्ष वार लेखाजोखा दिया गया है। आज ये किताबों जिस रूप में प्रकाशित हो रही है, उसमें कई लोगों की भूमिका रही है। ललई सिंह द्वारा प्रकाशित सच्ची रामायण का अंग्रेजी संस्करण से मिलान और पुनः पूरी पुस्तक का नया और सटीक अनुवाद, तमिल भाषा के शब्दों के सही भावार्थ को समझने के लिए तमिल भाषी साथियों से निरंतर  संपर्क एक बहुत श्रम साध्य काम था, जिसे मित्र अशोक झा ने अपनी अनेक व्यस्तताओं के बीच पूरी प्रतिबद्धता से पूर्ण किया। कंवल भारती, ओमप्रकाश कश्यप युवा शोधार्थी धर्मवीर गगन के परामर्शों ने इस किताब को समृद्ध किया है। पेरियार की विलक्षण अध्येता व्ही.गीता, ब्रजरंजन मणि, टी मार्क्स, ललिता धारा, विद्याभूषण रावत, देवीना अक्षयवर, पूजा सिंह, संजय जोठे और ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन’ के निदेशक मित्र संजीव चंदन ने न सिर्फ इसमें अपना रचनात्मक योगदान दिया, बल्कि इसके प्रकाशन के दौरान आई बाधाओं को दूर करने में भी साथ खड़े रहें। इन मित्रों के लिए आभार शब्द तो पर्याप्त नहीं ही होगा। उम्मीद करता हूं कि अनेकानेक मित्रों के सहयोग से तैयार यह पुस्तक हिंदी पाठकों के लिए उपयोगी साबित होगी और हम अब कह सकेंगे कि पेरियार हिंदी पट्टी में भी परिचय के मोहताज नहीं हैं!
(राजकमल समूह द्वारा प्रकाशित पेरियार पुस्तक ऋंखला के संपादकीय का संपादित अंश) राजकमल समूह द्वारा  प्रकाशित पेरियार पुस्तक श्रंखला की तीन पुस्तकें
  1. धर्म और विश्वदृष्टि
  2. जाति व्यवस्था और पितृसत्ता
  3. सच्ची रामायणसंपादक : प्रमोद रंजन
    (यह दोनों किताब आप बहुजन बुक्स की वेबसाइट से बुक कर सकते हैं। सच्ची रामायण एवं धर्म और विश्व दृष्टि  पुस्तक बुक करने के लिए किताबों के नाम पर क्लिक करिए।