संविधान के 70 साल बाद भी  मैला ढोता भारत

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 जिस देश में संविधान को लागू हुए 70 वर्ष हो गए हों और फिर भी उस देश के नागरिक मैला ढोने जैसे अमानवीय कार्य में लगे हों तो उस देश के विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। हम भले ही मंगलयान और चंद्रयान भेज कर गदगद होते रहें, अपनी पीठ थपथपाते रहें पर इससे देश की अंदरूनी वास्तविकता बदल नहीं जाएगी। इसका भी क्या लाभ कि एक तरफ हम स्वच्छ भारत अभियान चलाते रहें और दूसरी ओर देश के नागरिक मानव मल-मूत्र अपने हाथों से साफ़ करते रहें और ढोते रहें। हमारा संविधान हमें गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। फिर भी देश की आबादी का एक तबका अभी भी शुष्क शौचालयों से मानव मल साफ़ करके अपनी जीविका चला रहा है। यह न केवल देश के लिए बल्कि देश के सभ्य नागरिकों के लिए भी शर्मनाक है।

क्यों जारी है देश में मानव मल ढोने की अमानवीय प्रथा

मानव मल ढोने की अमानवीय प्रथा इस देश के लिए कोई नई बात नहीं है। पिछले पांच हजार सालों से ये बदस्तूर जारी है। समाज का एक समुदाय इस प्रथा का इतना आदी हो चुका है कि वह स्वयं कहने लगा है की यह हमारा काम है। विडंबना यह है कि जो समुदाय हमारी साफ़-सफाई करके हमें स्वच्छ रखता है, हमें बीमारियों से बचाता है, वही हमारी नजर में नीच है, घृणास्पद है। क्यों है ऐसा? क्योंकि हमारे समाज में हजारों सालों से छुआछूत की प्रथा रही है। भेदभाव की प्रथा रही है। बाद में 1950 में देश में जब संविधान लागू हुआ तब इसके अनुच्छेद 17 में छुआछूत या अस्पृश्यता का अंत संविधान के स्तर पर हुआ पर समाज में यह अभी भी विद्यमान है। आज़ादी के 74 साल बाद भी देश का एक तबका हाथ से मानव मल साफ़ करने में लगा है जाहिर है उसके लिए ये आज़ादी बेमानी है।

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 26 जनवरी के दिन हम पूरी  दुनिया को अपनी समृद्धि, अपना गौरव दिखाते हैं। पर इस मैला प्रथा को कारपेट के नीचे छिपाते हैं जबकि लाखों सफाई कर्मचारी इस अमानवीय प्रथा में लगे हैं। हम अपने विकास की ऐसी-ऐसी झांकी दिखाते हैं कि विश्व हमारे वैभव पर मुग्ध हो जाता है। हमारे शक्ति प्रदर्शन पर हैरान होता है। हम अपनी इस उज्जवल छवि पर इतराते हैं। पर कभी नहीं सोचते कि हमारे जैसा ही इंसान मानव मल साफ़ करने और ढोने का काम कर रहे हैं। हम उन्हें देखते हैं तो घृणा से मुहं फेर लेते हैं।

कैसे हो इस  मैला प्रथा का खात्मा

मैला प्रथा को खत्म करने की नीयत भारत की सरकारों की नहीं लगती। गौरतलब है कि किसान आन्दोलन के दौरान अब तक 60 से 70 किसान मर चुके हैं पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक शब्द तक नहीं बोला। इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी के अब तक के शासन काल में अनेक सफाई कर्मचारी सीवर सफाई के दौरान दम घुटने से अपनी जान गवां चुके हैं। पर प्रधानमंत्री ने एक शब्द भी नहीं बोला। इन दलितों और गरीबों की वे भला क्यों चिंता करें ये कोई अडानी या अम्बानी तो हैं नहीं। प्रशासन के लिए मैला प्रथा कोई मुद्दा ही नहीं है। कुछ प्रशासनिक अधिकारी तो यह तक कहते हैं कि सफाई का काम सफाई समुदाय नहीं करेगा तो कौन करेगा। इनका तो ये काम ही है। हां, देश के प्रधानमंत्री दिखावे और वोट के लिए इस समाज के पैर जरूर धो सकते हैं।

 मैला प्रथा उन्मूलन पर सरकार ने औपचारिकतावश दो-दो क़ानून बनाए हैं। एक वर्ष 1993 में और दूसरा 2013 में। इन कानूनों के अनुसार मैला प्रथा दंडनीय अपराध है। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से मैला ढुलवाने का काम करवाता है तो वह कानून के अनुसार अपराधी है। उसके लिए दो साल की जेल और दो लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। पर अभी तक इस प्रकार के किसी अपराधी को कोई सजा नहीं मिली। क्यों? कारण साफ़ है प्रशासन का उदासीन रवैया। यक्ष प्रश्न यही कि फिर कैसे मिटेगी मैला प्रथा? इसके लिए सरकार पर दबाब बनाना जरूरी है। कैसे बनेगा यह दबाब? इसके लिए देश के संवेदनशील नागरिकों को पहल करनी होगी। हर स्तर पर दबाब बनाना होगा – संसद से सड़क तक।

सफाई कर्मचारी  आंदोलन की पहल

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सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने भी यह माना है कि एक लाख से अधिक सफाई कर्मचारी (जिनमे अधिकांश महिलायें हैं) शुष्क शौचालय साफ़ करने में लगे हैं। सटीक डेटा तो सरकार के पास भी नहीं है। सरकार की स्वीकार्यता के बावजूद शुष्क शौचालयों को जल चालित शौचालयों में बदलने और सफाई कर्मचारियों का पुनर्वास करने में सरकार रुचि नहीं ले रही है। ऐसे में सफाई कर्मचारी आंदोलन ने 100 दिन 100 जिलों में शुष्क शौचालयों को जल चालित शौचालयों में बदलने के लिए सरकार पर दबाब बनाने की पहल की है। गौरतलब है कि सफाई कर्मचारी आंदोलन एक राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन है। इस अभियान के अंतर्गत  सफाई कर्मचारी आंदोलन के कार्यकर्ता शुष्क शौचालयों का सर्वे करते हैं। उन्हें साफ़ करने वाले सफाई कर्मचारियों का सर्वे करते हैं। फिर ज्ञापन तैयार कर उस जिले के जिला अधिकारी को देते हैं। ज्ञापन में वे शुष्क शौचालयों को जल चालित शौचालयों में बदलने और सफाई कर्मचारियों को इज्जतदार पेशों में पुनर्वास की मांग एम.एस. एक्ट 2013 के अंतर्गत करते हैं।

इसके लिए सफाई कर्मचारी आंदोलन के कार्यकर्ता पदयात्रा, साइकिल यात्रा, मोटर साइकिल यात्रा और जीप यात्रा निकालने की भी तैयार कर रहे हैं। वे रैली निकालकर जिला अधिकारी को ज्ञापन सौंपते हैं। ज्ञापन में शुष्क शौचालयों की लोकेशन और उन्हें साफ़ करने वाली सफाई कर्मचारियों का विवरण होता है ताकि सरकार उन शौचालयों को जल चालित शौचालयों में बदल दे और सफाई कर्मचारियों का पुनर्वास कर दे। इस मामले में कार्यकर्त्ता शुष्क शौचालयों के मालिकों से मिलते हैं और उन्हें समझाते हैं कि वे शुष्क शौचालयों का इस्तेमाल न करें। इन्हें जल चालित में बदलवा लें।

संविधान में है गरिमा के साथ जीने का अधिकार

आज हम इक्कीसवीं सदी के तकनीक और आधुनिक समय में जी रहे हैं। शहर-शहर गाँव-गाँव घर-घर मोबाइल पहुँच गए हैं। संचार क्रांति ने इतिहास रच दिया है। लोग अन्तरिक्ष की सैर पर जाने लगे हैं। और एक हमारा सफाई कर्मचारी समुदाय है जो अभी भी अठारहवी सदी में जी रहा है। शुष्क शौचालयों से हाथ से मल-मूत्र साफ़ कर रही हैं हमारी महिलाएं!  जबकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार देश के हर नागरिक को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। गरिमापूर्ण आजीविका अपनाने का अधिकार है।

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सफाई समुदाय के लोगों को व्यवस्था ने अनपढ़ बनाए रखा। उन्हें आर्थिक दृष्टि से दीन-हीन रखा। सामाजिक दृष्टी से दलित रखा। राजनीति में इनका  प्रवेश वर्जित रखा। इन्हें सिर्फ वोट बैंक तक सीमित रखा। सांस्कृतिक दृष्टि से इन्हें अंधविश्वासों में डुबाए रखा। शराब पीना,  जुआ खेलना, भूत-प्रेतों में विश्वाश, दहेज़ प्रथा जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों में जकड़े रखा। ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता ने इन्हें कथित उच्च जातियों का गुलाम बनाए रखा। जन्म से ही इन पर गंदे पेशे थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि आज के आधुनिक समय में भी यह समुदाय अत्यधिक पिछड़ा हुआ है। क्या इनकी इस दयनीय स्थिति के लिए हम सब जिम्मेदार नहीं हैं? आखिर कब तक ये मानव मल ढोने जैसी अमानवीय एवं घृणित प्रथा में लिप्त रहेंगे? इन्हें इनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए कौन पहल करेगा – सभ्य समाज? सरकार?? और कब???

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