जब राजभवन भी झोपड़ी बन जाए : माता प्रसाद का जीवन

1877

  20 जनवरी 2021 को सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी, लेखक, राजनेता और अरूणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल डॉ.माता प्रसाद का लखनऊ का एसजीपीजीआई, लखनऊ में निधन हो गया। माता प्रसाद का जन्म जौनपुर जिले के मछलीशहर तहसील क्षेत्र के कजियाना मोहल्ले में 11 अक्टूबर 1924 को हुआ था। साल 1942-43 में मछलीशहर से उन्होंने हिंदी-उर्दू में मिडिल परीक्षा पास की। गोरखपुर के एक स्कूल से ट्रेनिंग के बाद वह यहां के मड़ियाहूं के प्राइमरी स्कूल बेलवा में सहायक अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। इस दौरान उन्होंने गोविंद, विशारद के अलावा हिंदी साहित्य की परीक्षा पास की। उन्हें लोकगीत और गाने का शौक था। उनकी कुशलता को देखते हुए उन्हें 1955 में जिला कांग्रेस कांग्रेस कमेटी का सचिव बनाया गया।

 माता प्रसाद जिले के जौनपुर के शाहगंज (सुरक्षित) विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर 1957 से 1974 तक लगातार पांच बार विधायक रहे। वे 1980 से 1992 करीब 12 वर्ष तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी रहे। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी सरकार में वह राजस्व मंत्री रह चुके थे। केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने 21 अक्टूबर 1993 को माता प्रसाद को अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया था। इसके अलावा वह भारत सरकार की अनेक समितियों में भी रहे।

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साहित्यकार राज्यपाल 
वे कभी रुके नहीं, कभी थके नहीं, जब भी दिखे हाथ में एक फोल्डर वाली फ़ाइल, उसमें कुछ पत्रिकाएँ, कुछ किताबें और टाइप कराने के लिए कुछ लेख लिए हुए ही विधायक निवास, दारुल सफा हजरतगंज लखनऊ में मिले। मैं उनसे कभी इत्मीनान से बात नहीं कर पाया लेकिन लखनऊ की साहित्यिक और सांस्कृतिक सम्मेलनों में उनको कई बार सुना और देखा। इन साहित्यिक और सांस्कृतिक सम्मेलनों में कभी वह वक्ता के तौर पर और कभी श्रोता के रूप में उपस्थित रहते। एक बड़े राजनेता और सार्वजनिक जीवन को जीते हुए उनके लिए पद- प्रतिष्ठा, बड़ा-छोटा, आगे की कुर्सियां-पीछे की कुर्सियां– यह सब मायने नहीं रखता था। उन्हें बड़े पदों पर होने और रहने का गुमान भी नहीं था। माता प्रसाद के जीवन में जो भी था, उसमें व्यक्तिगत कुछ था ही नहीं। जो भी था वह पूरे समुदाय के लिए सार्वजानिक था।

 हमारे लिए वे क्यों महत्वपूर्ण हैं?
समाजशास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण जब मैंने शोधछात्र के रूप में एम.फिल. समाज विज्ञान की डिग्री हेतु डिजर्टेशन लिखने के लिए विषय का चुनाव किया तो ‘उत्तर प्रदेश में दलित प्रस्थिति और आरक्षण’ पर काम करना शुरू किया। इस दौरान तमाम तरह के साहित्य की छानबीन करने के बाद कुछ हाथ नहीं लग रहा था। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था जब आँकड़े ही नहीं हैं तो इस काम को आगे कैसे बढ़ाया जाये? यह स्थिति हिन्दी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश में एक निराशाजनक स्थिति की तरफ इशारा है कि सरकारों के तमाम तरह के दावों के बावजूद लोगों-समुदायों की जानकारी का आंकड़ा ही नहीं है। यह स्थिति सरकार, राजनेताओं, नौकरशाही के नजरिये और कार्यों की प्राथमिकताओं को उजागर करती है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या और वह कर क्या रहे हैं? जब राज्य और सरकार की पहुँच समाज सबसे जरूरतमंद व्यक्ति और अंतिम तबके तक होनी चाहिए तो उनके पास आंकड़ा ही नहीं है।
यही स्थिति अकादमिक जगत में भी देखने को मिली, तमाम तरह के साहित्य की छानबीन करने के बाद बहुत कुछ हाथ नहीं लगा क्योंकि हमारे विश्वविद्यालय और शिक्षक इस तरह के शोध कार्यों से बहुत दूर रहे हैं। फिर इसके बाद बड़ी मशक्कत के बाद मुझे माता प्रसाद की एक किताब उत्तर प्रदेश की दलित जातियों का दस्तावेज हाथ लगी। इस पतली सी किताब में उन्होंने उत्तर प्रदेश की दलित जातियों की सामजिक-आर्थिक सांस्कृतिक प्रस्थिति का शोधपूर्ण तरीके से वर्गीकरण किया था।

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सामाजिक विज्ञान का विद्यार्थी होने की वजह से मेरा जोर इस किताब पर अधिक इसलिए है क्योंकि दलित समुदायों पर जो लोग शोध कार्य कर रहे हैं, मैंने जितना भी देखा है इस किताब का सन्दर्भ हमेशा ही देखने को मिल जाता है। इस किताब को देखने पर लगता है कि एक ही किताब में एक साथ कितनी सारी सूचनाएं सम्मिलित की गई हैं। सरकारों, नौकरशाही और अकादमिक जगत ने ऐसा कोई काम किया ही नहीं तो यह काम माता प्रसाद जी ने किया था। जो समाज विज्ञान के लिए और हम सबके लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है।

झोपड़ी से राजभवन : जब राजभवन भी झोपड़ी बन जाए
माता प्रसाद जी ने अपनी आत्मकथा ‘झोपड़ी से राजभवन’ नाम से लिखी है। जो लोग उनके अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल (1993 से 1999) रहते हुए अरुणाचल प्रदेश घूमकर आये है, वे लोग यह किस्सा सुनाते हैं कि राजभवन के दरवाजे साहित्यकारों, लेखकों, विद्वानों और संस्कृतिकर्मियों के लिए हमेशा खुले रहते थे। इसलिए इस किस्से को जिस तरह से मैंने सुना है या जानता हूँ तो मैं यह कहता हूँ कि झोपड़ी से राजभवन तो माता प्रसाद जी की अपनी कहानी है लेकिन जब माताप्रसाद जी ने राज्यपाल रहते हुए सभी के साथ इतना सादगीपूर्ण और सरल व्यवहार किया हो और जब झोपड़ी से निकले लेखकों, साहित्यकारों, विद्वानों के लिए राजभवन के दरवाजे खुले रहते थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिस ‘पे बैक टू सोसायटी’ की बात की थी, उसके लिए माता प्रसाद जी ने अपना जीवन लगा दिया।
लखनऊ की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में वह हमेशा ही सबके साथ होते। उन्होंने एक लेखक बुद्धिजीवी के रूप में दलित साहित्य और दलित अन्दोलन को अपनी किताबों में दर्ज किया है। सार्वजानिक जीवन की नैतिकताओं के पतन की आजकल जो कहानियाँ और खबरे सुनने को मिलती हैं, उनमें माता प्रसाद जी का सार्वजानिक जीवन सुकून देता है। अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैं:
‘सन् 1957 ई. में प्रथम बार जब मैं विधानसभा का चुनाव लड़ने लगा तो मेरे पास कुछ भी पैसा नहीं था। श्रीमती जी के चार- पाँच चाँदी के गहने को बेचा गया जिससे पौने पाँच सौ रुपये मिले। इसी रुपये से जमानत राशि 125 रूपये जमा की गई। श्रीमती जी के गहने एक बार जो गए तो आज तक मैं उन्हें बनवा न सका। कभी- कभी इसका उलाहना सुनना पड़ता है। उस समय हमारे समाज में यह प्रवृत्ति चल रही थी कि पढ़े -लिखे लोगों की स्त्रियाँ यदि अशिक्षित हैं तो उन्हें छोड़कर दूसरी पढ़ी-लिखी लड़की से विवाह कर लेते रहे । इनमें अध्यापक नेता व दूसरे कर्मचारी भी थे। मैं समझता हूँ यह बहुत खराब बात थी। जब हम कुछ नहीं थे, अनपढ़ पत्नी ने मजदूरी करके घर का सारा काम करते हुए कष्ट उठाया। हमारे लोग पढ़-लिखकर ऊँचे स्थान पर पहुँच गये तो उस पत्नी का बहिष्कार कर देते हैं, इससे उनके मन पर क्या गुजरती होगी? यह विचारने की बात है। मेरा तो विश्वास है मैं जो कुछ हूँ समाज में जो कुछ सम्मान मिला है, वह मेरी पत्नी के ही त्याग तपस्या का परिणाम है।

ऐसे थे माता प्रसाद जी।

दलित लेखक जयप्रकाश कर्दम झोपड़ी से राजभवन के ब्लर्ब पर लिखते है कि… ‘झोपड़ी से राजभवन’ माता प्रसाद जी की राजनीतिक जीवन यात्रा का वृतांत भर नहीं है अपितु यह आत्मकथा अभाव और उत्पीड़न के शिकार दलित समाज की पीड़ा, दर्द, संघर्ष, स्वाभिमान और जिजीविषा की कहानी है।

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भारत में दलित जागरण और उसके अग्रदूत: दलित अन्दोलन के इतिहास और वर्तमान का लेखा जोखा प्रस्तुत करती हुई माता प्रसाद जी यह किताब उनके लिए जो लोग दलित अन्दोलन के इतिहास और उसके नेतृत्व पर शोधपूर्ण कार्य कर रहे हो। समाज विज्ञान का विद्यार्थी होने के तौर पर और सामाजिक अन्दोलनों की विचारधारा और नेतृत्व के अध्ययन में रूचि होने नजरिये से मेरे लिए यह किताब एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है। इसलिए इसकी चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। दलित आन्दोलन के इतिहास को समेटे इस किताब में भारत के अलग-अलग राज्यों के दलित अन्दोलन और उसके प्रमुख नेतृत्व का विवरण भी प्रस्तुत करती है। इस किताब की विषय सूची को देखकर लगता है कि यह किसी अकादमिक संस्थान के विद्वान ने शोधपूर्ण तरह से लिखी है। यह प्राक्कथन के साथ कुल मिलाकर 20 भागों में विभाजित की गयी है। इसमें माता प्रसाद जी ने दलित आन्दोलन की पृष्ठभूमि से लेकर अलग-अलग राज्यों में दलितों की स्थिति की राज्यवार जानकारी के साथ ही और राज्यों के जनपद स्तर पर कार्यरत कार्यकर्ताओं, दलित संगठनों, संस्थाओं का विवरण को सम्मिलित करने के साथ ही वह इसको और अधिक विस्तृत करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में दलितों की भागीदारी को प्रमुखता के साथ सम्मिलित करते हैं। इस किताब में भारत की आदिवासी जातियों के विवरण और उनके मुक्ति संघर्षों का विवरण भी शामिल है। इस किताब के अंतिम अध्याय में माता प्रसाद जी ने दलित साहित्य के विवरण को विस्तार पूर्वक जगह दी है जिसमें उन्होंने दलित साहित्य के उद्देश्यों के साथ ही राज्यवार दलित साहित्यकारों के विषय में विस्तारपूर्वक सामग्री को संजोया है।

माता प्रसाद जी के लेखन की गंभीरता उनकी हर पुस्तक में दिखती है चूँकि मेरे लिए यह लेखन समाज विज्ञान के नजरिये से एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य वाला लेखन है जो भारतीय समाज और उसकी सामाजिक संरचना की भीतरी कड़ियों की कमजोरी को उजागर करता है। इसलिए मैं माता प्रसाद जी को एक समाज विज्ञानी और उनके लेखन को समाज विज्ञान की कोटि में रखता हूँ। चूँकि एक लेख में बहुत सारी जानकारी देना और किताबों के विषय में सम्पूर्ण विवरण को प्रस्तुत करना एक मुश्किल कार्य है इसलिए मैं माता प्रसाद जी के साहित्य और रचना संसार के विवरण की एक सूची दे रहा हूँ।

माता प्रसाद का रचना संसार

 माता प्रसाद का एक लेखक के तौर रचना संसार बहुत ही व्यापक रहा जिनमें उन्होंने काव्य खण्ड, नाटक, आत्मकथा के साथ ही अनेक किताबों का सम्पादन भी किया। लोकगीतों में वेदना और विद्रोह के स्वर, हिंदी साहित्य में दलित काव्य धारा, भारत में दलित जागरण और उसके अग्रदूत, भारत में सामाजिक परिवर्तन के प्रेरणास्रोत (भाग-1), भारत में सामाजिक क्रांति के प्रेरणास्रोत (भाग-2), उत्तरांचल व उत्तर प्रदेश की दलित जातियों का दस्तावेज, दलित साहित्य में प्रमुख विधाएं, अन्तहीन बेड़ियां, स्वतंत्रता के बाद लखनऊ की, दलित-शोषित विभूतियां, उत्तर प्रदेश के संदर्भ में चमार जाति का इतिहास, प्रतिशोध, जातियों का जंजाल, दिल्ली की गद्दी पर खुसरो भंगी, राजनीतिक दलों में दलित एजेण्डा, एकलव्य (खण्ड काव्य), दलितों का दर्द। भीम शतक, घुटन, परिचय सतसई, अछूत का बेटा, महादानी राजा बलि (नाटक), धर्म के नाम पर धोखा, उत्तर भारत में दलित चेतना के प्रथम, अग्रदूत स्वामी अछूतानंद हरिहर, तड़प मुक्ति की, वीरांगना झलकारी बाई (नाटक), वीरांगना उदा देवी पासी (नाटक) उनकी आदि प्रमुख रचनायें हैं।

माता प्रसाद जी की उपलब्धियां:

राजनीतिक कार्य:
1. 1957-1977 ई. तक (पांच बार) उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य।
2. 1980-1992 ई. तक (दो बार) उत्तर प्रदेश विधान परिषद सदस्य।
3. 1988-1989 में उत्तर प्रदेश में राजस्व मंत्री।
4. 21 अक्टू. 1993 से 13 मई 1999 ई. तक अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल एवं पूर्वोत्तर परिषद के चेयरमैन रहे।

विशेष:
1. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर फिल्म निर्माण स्कृप्ट समिति के चेयर मैन, (भारत सरकार द्वारा 1994 में नामित) जब्बार पटेल ने उसी आधार पर डॉ. अम्बेडकर फिल्म बनाई है।
2. सन् 1996 ई. में पंचम विश्व हिंदी सम्मेलन, 1996, ट्रिनीडाड टुवैको (लैटिन अमेरिका) में भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व किया।
3. पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर ने डी.लिट् की मानाद उपाधि 7 फरवरी 1998 ई. में प्रदान की।
4. आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य।
5. सन् 2000 में द्वितीय विश्व दलित साहित्यकार सम्मेलन, यू.के. में मुख्य अतिथि।
6. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा साहित्य भूषण, 2003.
7. त्रिरत्न सम्मान, समता बुद्ध विहार, नई दिल्ली, 2007.
8. दलित साहित्य की प्रवृत्तियों के संदर्भ में माता प्रसाद के सृजनात्मक साहित्य का अनुशीलन विषय पर डॉ. बी.आर. आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा द्वारा श्रीमती सध्या अग्रवाल को पी- एच.डी. (2003) में मिली।
9. माता प्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा सुश्री बिन्दु कनौजिया को पी- एच.डी. (2007) में मिली।
10. अन्य गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा अनेक सम्मान।

मैं उनके सम्पूर्ण जीवन को नहीं जानता हूँ लेकिन जो सुना, देखा और उनकी किताबों के माध्यम से उनको जाना, उसके विषय में मैंने यह बातें आपसे साझा की हैं। अंतिम बात यही है कि उनका जो भी था वह सार्वजानिक था और उस झोपड़ी में रहने वाले समाज का था उस समाज के लिए अंतिम समय तक समर्पित रहा। अब वह किताबों और लेखन के मध्यम से हमेशा ही उस समाज में मौजूद रहेंगे जिसकी बेहतरी का सपना वे हमेशा देखते रहे।

(नोटः सभी तस्वीरें के लिए क्रेडिट- सम्यक प्रकाशन)

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