दलित साहित्य को “दलित साहित्य” ही कहिए, जनाब

  विमर्शों की दुनिया में “दलित विमर्श” अर्थात् “दलित साहित्य” का लगभग पिछले चार- पाँच दशकों से परचम लहरा रहा है। बोधिसत्व बाबासाहब की वैचारिकी पर आधारित दलित समाज की अन्तर्वेदना-आक्रोश तथा उत्पीड़न, इच्छा, आकांक्षा को इस साहित्य में समाविष्ट किया गया है। इस समय वैश्विक पटल पर दलित साहित्य, सुर्खियाँ बटोर रहा है। देश-विदेश के तमाम विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य का अध्ययन-अध्यापन और गंभीर शोध कार्य हो रहे हैं। सैकड़ों शोधार्थी, डाक्टरेट कर अकादमिक दुनिया में अपनी धाक जमा चुके हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली द्वारा सैकड़ों अध्यापकों तथा शोध अध्येताओं को शोध परियोजनाओं के नाम पर करोड़ों रुपए अनुदान के रूप में दिए जा चुके हैं, साथ ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों के लिए भी लगातार वित्तीय अनुदान दिया जा रहा है। देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित पुस्तक प्रकाशकों द्वारा दलित साहित्य का व्यापक प्रकाशन किया जा रहा है। देश-विदेश के पुस्तकालय, दलित साहित्य की पुस्तकों से अटे पड़े हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने बड़ी संख्या में दलित साहित्य पर केन्द्रित विशेषांक प्रकाशित किए गए हैं। दलित साहित्य ने हिन्दी साहित्य के साथ ही भारतीय भाषाओं के साहित्य को जीवंतता प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। विदेशी भाषाओं में दलित साहित्य तथा अन्य विमर्श मूलक साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों के बड़ी संख्या में अनुवाद किए जा रहे हैं। कुल मिलाकर इस समय दलित साहित्य, साहित्य की दुनिया में केंद्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। इस साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज को संविधान के अनुरूप ढालने की भरपूर कोशिश जारी है। कुछ लोग, ऐसे वक्त में दलित साहित्य के नामकरण को लेकर अनेक भ्रम फैला रहे हैं तथा कृतिम बहस चलाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं, उन से सचेत रहने की आवश्यकता है। एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि- “सरजी, अब हम दलित नहीं हैं, हमें दलित शब्द, अपमानजनक लगता है, इसलिए इसका नाम बदल दिया जाए।” मैंने उनसे कहा है कि आपके पिता जी का क्या नाम है? उन्होंने बताया कि मेरे पिता जी का नाम कड़ोरे लाल है। मैंने पूछा और आपके दादा जी का नाम क्या है? वे बोले मेरे दादा जी का नाम राम गुलाम है। मैंने उनसे कहा कि क्या आपको यह नाम सम्मानजनक लगते हैं? वे बोले नहीं। तो मैंने कहा कि क्या आप इन नामों को बदल सकते हैं? वे बोले नहीं। मैने कहा क्यों?? उनका उत्तर था, सर जी उनके नाम तो जो खेती योग्य जमीन तथा अन्य सम्पत्ति है, उसमें यही नाम दर्ज है, यदि हम नाम बदलेंगे तो उस सबसे बेदखल हो जाएँगे। तब मैंने कहा कि यही हाल इस समय ‘दलित’ या “दलित साहित्य” का नाम बदलने से हो जाएगा। आप अपनी साहित्यिक विरासत से बेदखल हो जाएँगे। मैंने उनसे अपना नाम बताते हुए कहा कि देखो, मेरा नाम “काली चरण” है। मेरे पोते-पोतियाँ कहते है कि दादा जी, आप तो काले नहीं हैं, ना ही आप काली माँ को मानते हैं। आप एक प्रोफेसर भी हैं, आपका यह नाम हमें अच्छा नहीं लगाता है। अब बताओ, मैं उन्हें क्या उत्तर दूँ???? मेरे एक कट्टर अंबेडकरवादी मित्र हैं- राम गुलाम जाटव। रेलवे में बड़े अधिकारी हैं। वे राम और राम चरित्र, दोनों को कतई पसंद नहीं करते हैं। हाँ, उन्होंने अपने नाम को अंग्रेजी के “आर.जी” अक्षरों से ढँकने की कोशिश की है, पर उनके सरकारी अभिलेखों में तो रामगुलाम ही है, तथा उनके जानने वाले उन्हें रामगुलाम के नाम से ही जानते-पहचानते हैं। आरजी कहने पर उनके लोगों को अटपटा सा लगता है। कुछ लोगों के नाम में व्याकरणिक दोष होता है, पर वह उनकी हाई स्कूल की मार्कसीट में अंकित हो चुका होता है, इसलिए वे उसे अब नहीं बदल सकते हैं। जबकि “दलित साहित्य”, नामकरण तो हमारे पूर्वजों ने सुविचारित तरीके से ही रखा है। इसे हम नहीं बदल सकते हैं। अब यह नाम, हमारे दलित समुदाय की अस्मिता का प्रतीक बन चुका है, हमारे साहित्य की वैश्विक पहचान, दलित साहित्य के रूप में ही स्थापित हो चुकी है। ऐसे में अब इसको कोई नया नाम देना पूरी तरह से असंभव और बेमतलब है।

बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म को लेकर क्या ओशो और दलाई लामा दोषी नहीं?

 बौद्ध धर्म पर पुनर्जन्म का आरोप मढ़ने वाले अक्सर तिब्बत के दलाई लामा का उदाहरण देते हैं। आधुनिक भारत के ‘शंकराचार्य’ अर्थात ओशो रजनीश जैसे वेदांती पोंगा पंडित ने भी बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म को प्रक्षेपति करके बुद्ध का ब्राह्मणीकरण करने का सबसे बड़ा प्रयोग किया है। ओशो ने बारदो नामक अन्धविश्वास की व्याख्या करते हुए दलाई लामा के और खुद के तिब्बती अवतार की चर्चा की है। उनके भक्त इसे सर माथे पर लिए घूमते हैं। आइए आपको बताता हूँ दलाई लामा और ओशो रजनीश के तर्कों को कैसे उधेड़ा जाये, ये सभी तार्किकों और मुक्तिकामियों सहित दलितों बहुजनों के काम की बात है। ध्यान से समझियेगा। दलाई लामा अपने को पूर्व दलाई लामा का अवतार बताते हैं। उसी व्यक्ति की आत्मा का अक्षरशः पुनर्जन्म जो पहले राजा या राष्ट्र प्रमुख था। इसे समझिये। ये धर्म और राजनीति के षड्यंत्र का सबसे लंबा और जहरीला प्रयोग है। जब आप पुराने राजा के अवतार हैं तो आपको एक वैधता और निरंकुश अधिकार अपने आप मिल जाता है। और चूँकि सारा समाज ध्यान, समाधि, निर्वाण और पुनर्जन्म की चर्चा में डूबा है तो कोई सवाल भी नहीं उठा सकता। न विरोध होगा न विद्रोह न परिवर्तन, क्रांति या लोकतंत्र की मांग उठेगी। राजसत्ता मस्ती से अपना काम करती रहेगी। गरीब मजदूर अपने अवतार के लिए रात दिन खटते रहेंगे। न कोई शिक्षा मांगेगा, न चिकित्सा, न रोजगार मांगेगा। और न सभ्यता या विज्ञान का विकास ही हो सकेगा। इसीलिये तिब्बत पर जब आक्रमण हुआ तो वो आत्मरक्षा न कर सका और ढह गया। कोई संघर्ष भी न कर सका चीन के खिलाफ। और सबसे मजेदार बात ये कि जादू टोने रिद्धि सिद्धि और चमत्कार के नाम पर पूरे मुल्क पर शासन करने वाले लामा को खुद भी दल बल सहित पलायन करना पड़ा। कोई शक्ति या सिद्धि काम न आई। ये तो हुई राजा द्वारा अपना पद सुरक्षित करने की बात, अब आइये पुनर्जन्म की टेक्नोलॉजी पर। तिब्बती दलाई लामा अगर पिछले राजा की ही आत्मा का पुनर्जन्म है, उसी के संस्कार, विचार, शिक्षण, अनुभव और ज्ञान लेकर आ रहा है तो उन्हें इस जन्म में देश के सबसे कुशल और महंगे शिक्षकों की जरूरत क्यों होती है? उन्हें अंग्रेजी, गणित, राजनीति, इतिहास ही नहीं बल्कि उनका अपना पेटेंट विषय “अध्यात्म” सीखने के लिए भी दूसरे टीचर चाहिए। टीचर क्यों चाहिए? अपने पिछले जन्मों में जाकर वहीं से डाऊनलोड क्यों नहीं कर लेते भाई ? क्या दिक्कत है? दूसरों को जो सिखा रहे हो वो खुद क्यों नहीं आजमाते? शिक्षकों की फ़ौज पर पच्चीस साल तक करोड़ों अरबों का खर्चा क्यों करते हैं? आप समझे कुछ? ये पुनर्जन्म की जहरीली खिचड़ी सिर्फ दूसरों को खिलाने के लिए है ताकि गरीब जनता नये लामा अर्थात नये राष्ट्राध्यक्ष की वैधता और निर्णयों पर प्रश्न न उठाये। लेकिन यहां ध्यान रखिएगा कि इसका ये मतलब नहीं है कि दलाई लामा बुरे व्यक्ति हैं। वे सज्जन पुरुष हैं, उनका पूरा सम्मान है। वे जगत के शुभ हेतु शक्तिभर प्रयास कर रहे हैं लेकिन अपनी संस्था और संस्कृति के अतीत में जो अन्धविश्वास फैलाकर एक पूरे मुल्क का सत्यानाश किया है उसको वे इंकार नहीं कर सकते। इससे हमें सबक लेना चाहिए।

“हमने सदियों तक एससी-एसटी के लोगों के साथ खराब व्यवहार किया, हमें अपना सिर शर्म से झुका लेना चाहिए- मद्रास हाईकोर्ट

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मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने एक ऐसा बयान दिया है, जिससे आने वाले समय में दलित समाज को लेकर न्यायपालिका के रवैये पर एक नई बहस छि़ड़ सकती है। एक अहम मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने दलितों को लेकर बड़ा बयान दिया। हाईकोर्ट ने कहा, “हमने सदियों तक एससी-एसटी के लोगों के साथ खराब व्यवहार किया। आज भी उनके साथ ठीक व्यवहार नहीं हो रहा है। इसके लिए हमें अपना सिर शर्म से झुका लेना चाहिए।”

 दरअसल कोर्ट ने तमिल दैनिक अखबार ‘दिनकरन’ में प्रकाशित एक खबर का खुद संज्ञान लेते हुए यह बयान दिया है। इसी खबर को हिन्दी अखबार दैनिक भास्कर ने भी प्रकाशित किया है।

तमिल दैनिक में 21 दिसंबर को एक खबर प्रकाशित हुई थी, जिसमें बताया गया था कि मेलूर तालुक की मरुथुर कॉलोनी से एक दलित परिवार को अपने परिजन का अंतिम संस्कार करने के लिए खेतों से गुजरकर कब्रिस्तान जाना पड़ा। क्योंकि वहां तक पहुंचने के लिए सड़क नहीं थी। अदालत ने इस खबर पर खुद ही संज्ञान लेते हुए इसे जनहित याचिका मानकर सुनवाई की।

 सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा, अन्य वर्गों की तरह अनुसुचित जाति वर्ग के लोगों को भी कब्रिस्तान/विश्राम घाट घाट तक पहुंचने के लिए अच्छी सड़कों की सुविधा मिलनी चाहिए। लेकिन इस खबर से पता चलता है कि उनके पास ऐसी सुविधा, अब भी कई जगह नहीं है।

इस दौरान अदालत ने राज्य के अफसरों से दलित-आदिवासी समाज की स्थिति को लेकर कई सवाल पूछ डाले। कोर्ट ने अफसरों से पूछा-

  • तमिलनाडु में एससी के लोगों की कितनी बस्तियां हैं?
  • क्या अनुसूचित जाति की सभी रिहाइशों में साफ पानी, स्ट्रीट लाइट, शौचालय, कब्रिस्तान तक पहुंचने के लिए सड़क आदि की सुविधा है?
  • इस तरह की ऐसी कितनी बस्तियां हैं, जहां कब्रिस्तान तक पहुंचने के लिए सड़क आदि की सुविधा है।
  • इस तरह की ऐसी कितनी बस्तियां हैं, जहां कब्रिस्तान तक पुहंचने के लिए सड़क नहीं हैं?
  • इन लोगों को परिजनों के शव के साथ कब्रिस्तान तक पहुंचने के लिए सड़क की सुविधा मिले, इसके लिए अब तक क्या कदम उठाए गए?
  • ऐसी सभी रिहाइशों में साफ पानी, शौचालय, सड़क आदि की सुविधा कब तक मिल जाएगी?

इस मामले में, अदालत ने राज्य के मुख्य सचिव के साथ-साथ आदिवासी कल्याण, राजस्व, शहरी निकायों और जल आपूर्ति विभागों के प्रमुख सचिवों को भी पार्टियों के रूप में मांगा है। अधिकारियों से अनुसूचित जाति की बस्तियों में मौजूद सुविधाओं के बारे में भी सवाल पूछे गए थे। तमाम मामलों में जब यह आरोप लगने लगा है कि देश में इंसाफ भी उन्हीं को मिलता है, जिनके पास सत्ता और रुतबा है। जब देश के कई रिटायर जज भी अदालत की भूमिका पर सवाल उठा चुके हैं, ऐसे में मद्रास हाईकोर्ट का दलितों से जुड़े मामले का स्वतः संज्ञान लेना और शासन-प्रशासन से सवाल पूछना निश्चित तौर पर देश की न्याय व्यवस्था का एक बेहतर कदम है।

मनुस्मृति दहन दिवस पर देश भर के बहुजन संगठनों ने किया कार्यक्रम, जलाए काले कानून

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मनुस्मृति दहन दिवस (25 दिसंबर) के मौके पर देश भर में बहुजन समाज के संगठनों ने काले कानून का दहन किया। दिल्ली में भीम ज्ञान चर्चा के बैनर तले बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया तो उत्तर प्रदेश, बिहार सहित देश के तमाम राज्यों में इस दिन बहुजन संगठनों ने मनुस्मृति के विरोध में कार्यक्रम आय़ोजित किया। यूपी के मऊ में मनुस्मृति दहन दिवस कार्यक्रम के मौके पर रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव और किसान नेता बलवंत यादव ने कहा कि मनुस्मृति भारत के अतीत का मसला नहीं है, यह वर्तमान का मसला भी है। आज भी भारत में मनुसंहिता पर आधारित वर्ण-जाति व्यवस्था का श्रेणीक्रम पूरी तरह लागू है। भारत में बहुसंख्यकों की नियति आज भी इससे तय होती है कि उन्होंने किस वर्ण-जाति में जन्म लिया है। वर्तमान लोकसभा में 21 प्रतिशत सवर्णों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व 42.7 प्रतिशत है। ग्रुप-ए के कुल नौकरियों के 66.67 प्रतिशत पर 21 प्रतिशत सवर्णों का कब्जा है। ग्रुप बी के कुल पदों के 61 प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज हैं। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में शिक्षक से लेकर प्रिंसिपल-कुलपति तक के पद पर सवर्णों का दबदबा है। न्यायपालिका (हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट) में 90 प्रतिशत से अधिक जज सवर्ण हैं। मीडिया भी सवर्णों के कब्जे में ही है। राष्ट्रीय संपदा में सवर्णों की हिस्सदारी 45 प्रतिशत है। कुल भू-संपदा का 41 प्रतिशत सवर्णों के पास है। नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से सवर्ण वर्चस्व और बहुजनों की चौतरफा बेदखली का अभियान बढ़ रहा है। इस मौके पर बिहार के भागलपुर में कार्यक्रम को संबोधित करते हु डॉ. विलक्षण रविदास ने कहा कि 25 दिसंबर 1927 को डॉ. अंबेडकर ने पहली बार मनुस्मृति में दहन का कार्यक्रम किया था। डॉ. आंबेडकर मनुस्मृति को ब्राह्मणवाद की मूल संहिता मानते थे। उनका कहना था कि भारतीय समाज में जो कानून चल रहा है, वह मनुस्मृति के आधार पर है। सामाजिक न्याय आंदोलन (बिहार) के रिंकु यादव और बिहार फुले-अंबेडकर युवा मंच के विपिन कुमार ने कहा है कि वर्तमान मोदी राज ‘मनु राज’ का पर्याय बन चुका है। संविधान तोड़ कर मनुविधान थोपा जा रहा है। मनुविधान के आधार पर देश को चलाने के लिए लोकतंत्र को खत्म किया जा रहा है। आज के दौर में मनुस्मृति दहन दिवस ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठा है।

बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन (बिहार) के सोनम राव और मिथिलेश विश्वास ने कहा कि नई शिक्षा नीति-2020 सामाजिक न्याय विरोधी-बहुजन विरोधी है। शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने वाला है। संत रविदास महासभा के महेश अंबेडकर और सामाजिक न्याय आंदोलन (बिहार) के गौतम कुमार प्रीतम ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम का होना मनुस्मृति के अस्तित्व का प्रमाण है। ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर प्रावधान के साथ ही मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर सवर्णों को दिया गया 10 प्रतिशत आरक्षण संविधान विरोधी है, मनुवादी वर्ण-जाति व्यवस्था को मजबूत करता है। अन्य संगठनों में सामाजिक न्याय आंदोलन (बिहार) ने भी कार्यक्रम आयोजित किया। भागलपुर जिला के बिहपुर प्रखंड में गौतम कुमार प्रीतम की पहलकदमी से दीपक रविदास, गौरव पासवान, अनुपम आशीष, रूपक यादव, अनुपम रविदास, रविकांत रविदास,दिवाकर दास के नेतृत्व में आज के दिन दर्जन से ज्यादा गांवों में मनुस्मृति दहन दिवस पर कार्यक्रम आयोजित हुआ।

आरएसएस आदिवासियों को वनवासी क्यों कहती है?

इस पर काफी लंबे समय से बड़ी बहस चलती आ रही है कि सेकुलर मायने क्या? धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष? धर्म क्या है? पंथ क्या है? अंग्रेजी में जो ‘रिलीजन’ है, वह हिन्दी में क्या है- धर्म कि पंथ? हिन्दू धर्म है या हिन्दू पंथ? इस्लाम धर्म है या इस्लाम पंथ? ईसाई धर्म है या ईसाई पंथ? बहस नयी नहीं है. गाहे-बगाहे इस कोने से, उस कोने से उठती रही है, लेकिन वह कभी कोनों से आगे बढ़ नहीं पायी!

 आम्बेडकर के बहाने, कई निशाने  इधर बहस कोने से नहीं, केन्द्र से उठी है। और बहस केन्द्र से उठी है, तो चलेगी भी, चलायी जायेगी। अब समझ में आया कि बीजेपी ने संविधान दिवस यों ही नहीं मनाया था। मामला सिर्फ 26 जनवरी के सामने 26 नवम्बर की एक नयी लकीर खींचने का नहीं था। और आम्बेडकर को अपने ‘शो-केस’ में सजाने का आयोजन सिर्फ दलितों का दिल गुदगुदाने और ‘समावेशी’ पैकेजिंग के लिए नहीं था। तीर एक, निशाने कई हैं। आगे-आगे देखिए होता है क्या? गहरी बात है। आदिवासी नहीं, वनवासी क्यों? और गहरी बात यह भी है कि बीजेपी और संघ के लोग ‘सेकुलर’ को ‘धर्म-निरपेक्ष’ क्यों नहीं कहते? दिक़्क़त क्या है? और कभी आपका ध्यान इस बात पर गया कि संघ परिवार के शब्दकोश में ‘आदिवासी’ शब्द क्यों नहीं होता? वह उन्हें ‘वनवासी’ क्यों कहते हैं? आदिवासी कहने में दिक़्क़त क्या है? गहरे मतलब हैं।

आरएसएस आदिवासियों को वनवासी क्यों कहती है? आदि’ यानी प्रारम्भ से। इसलिए ‘आदिवासी’ का मतलब हुआ जो प्रारम्भ से वास करता हो। संघ परिवार को समस्या यहीं है। वह कैसे मान ले कि आदिवासी इस भारत भूमि पर शुरू से रहते आये हैं? मतलब ‘आर्य’ शुरू से यहां नहीं रहते थे? तो सवाल उठेगा कि वह यहां कब से रहने लगे? कहां से आये? बाहर से कहीं आ कर यहां बसे? यानी आदिवासियों को ‘आदिवासी’ कहने से संघ की यह ‘थ्योरी’ ध्वस्त हो जाती है कि आर्य यहां के मूल निवासी थे और ‘वैदिक संस्कृति’ यहां शुरू से थी। और इसलिए ‘हिन्दू राष्ट्र’ की उसकी थ्योरी भी ध्वस्त हो जायेगी क्योंकि इस थ्योरी का आधार ही यही है कि आर्य यहां के मूल निवासी थे, इसलिए यह ‘प्राचीन हिन्दू राष्ट्र’ हैं। इसलिए जिन्हें हम ‘आदिवासी’ कहते हैं, संघ उन्हें ‘वनवासी’ कहता है यानी जो वन में रहता हो। ताकि इस सवाल की गुंजाइश ही न बचे कि शुरू से यहां की धरती पर कौन रहता था। है न गहरे मतलब की बात।

धर्म-निरपेक्षता के बजाय पंथ-निरपेक्षता क्यों? धर्म और पंथ का मामला भी यही है। संघ और बीजेपी के लोग सिर्फ़ ‘सेकुलर’ के अर्थ में ‘धर्म’ के बजाय ‘पंथ’ शब्द क्यों बोलते हैं? क्यों ‘धर्म-निरपेक्ष’ को ‘पंथ-निरपेक्ष’ कहना और कहलाना चाहते हैं? वैसे कभी आपने संघ या संघ परिवार या बीजेपी के किसी नेता को ‘हिन्दू धर्म’ के बजाय ‘हिन्दू पंथ’ बोलते सुना है? नहीं न! और कभी आपने उन्हें किसी हिन्दू ‘धर्म-ग्रन्थ’ को ‘पंथ-ग्रन्थ’ कहते सुना है? और अक्सर आहत ‘धार्मिक भावनाएं’ होती हैं या ‘पंथिक भावनाएँ?’ ‘भारतीय राष्ट्र’ के तीन विश्वास क्यों? इसलिए कि संघ की नजर में केवल हिन्दू धर्म ही धर्म है, और बाकी सारे धर्म, धर्म नहीं बल्कि पंथ हैं। और हिन्दू और हिन्दुत्व की परिभाषा क्या है? सुविधानुसार कभी कुछ, कभी कुछ। मसलन, एक परिभाषा यह भी है कि जो भी हिन्दुस्तान (या हिन्दूस्थान) में रहता है, वह हिन्दू है, चाहे वह किसी भी पंथ (यानी धर्म) को माननेवाला हो। यानी भारत में रहनेवाले सभी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और अन्य किसी भी धर्म के लोग हिन्दू ही हैं। और एक दूसरी परिभाषा तो बड़ी ही उदार दिखती है। वह यह कि हिन्दुत्व विविधताओं का सम्मान करता है और तमाम विविधताओं के बीच सामंजस्य बैठा कर एकता स्थापित करना ही हिन्दुत्व है। यह बात संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दशहरे के अपने पिछले भाषण में कही थी। लेकिन यह एकता कैसे होगी? अपने इसी भाषण में संघ प्रमुख आगे कहते हैं कि संघ ने ‘भारतीय राष्ट्र’ के तीन विश्वासों ‘हिन्दू संस्कृति’, ‘हिन्दू पूर्वजों’ और ‘हिन्दू भूमि’ के आधार पर समाज को एकजुट किया और यही ‘एकमात्र’ तरीक़ा है।

तब क्या होगा सरकार का धर्म? यानी भारतीय समाज ‘हिन्दू संस्कृति’ के आधार पर ही बन सकता है, कोई सेकुलर संस्कृति उसका आधार नहीं हो सकती। और जब यह आधार ‘हिन्दू संस्कृति’, ‘हिन्दू पूर्वज’ और ‘हिन्दू भूमि’ ही है, तो ज़ाहिर है कि देश की सरकार का आधार भी यही ‘हिन्दुत्व’ होगा। यानी सरकार का ‘धर्म’ (यानी ड्यूटी) या यों कहें कि उसका ‘राजधर्म’ तो हिन्दुत्व की रक्षा, उसका पोषण ही होगा, बाकी सारे ‘पंथों’ से सरकार ‘निरपेक्ष’ रहेगी? हो गया सेकुलरिज़्म! और मोहन भागवत ने यह बात कोई पहली बार नहीं कही है। इसके पहले का भी उनका एक बयान है, जिसमें वह कहते हैं कि ‘भारत में हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ते-भिड़ते एक दिन साथ रहना सीख जायेंगे, और साथ रहने का यह तरीक़ा ‘हिन्दू तरीक़ा’ होगा। तो अब पता चला आपको कि सेकुलर का अर्थ अगर ‘पंथ-निरपेक्ष’ लिया जाये तो संघ को क्यों सेकुलर शब्द से परेशानी नहीं है, लेकिन ‘धर्म-निरपेक्ष’ होने पर सारी समस्या खड़ी हो जाती है।

गोलवलकर और भागवत अब ज़रा माधव सदाशिव गोलवलकर के विचार भी जान लीजिए, जो संघ के दूसरे सरसंघचालक थे। अपनी विवादास्पद पुस्तक ‘वी, आर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में वह कहते हैं कि हिन्दुस्तान अनिवार्य रूप से एक प्राचीन हिन्दू राष्ट्र है और इसे हिन्दू राष्ट्र के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए। जो लोग इस ‘राष्ट्रीयता’ यानी हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा के नहीं हैं, वे स्वाभाविक रूप से (यहाँ के) वास्तविक राष्ट्रीय जीवन का हिस्सा नहीं हैं। ऐसे सभी विदेशी नस्लवालों को या तो हिन्दू संस्कृति को अपनाना चाहिए और अपने को हिन्दू नस्ल में विलय कर लेना चाहिए या फिर उन्हें ‘हीन दर्जे’ के साथ और यहां तक कि बिना नागरिक अधिकारों के यहां रहना होगा। तो गोलवलकर और भागवत की बातों में अन्तर कहाँ है?


(यह आलेख फेसबुक से प्राप्त हुआ है, लेखक अज्ञात है, इसलिए मूल लेखक इसका क्रेडिट खुद लेने को स्वतंत्र हैं।)

किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्यों है, और सरकार क्यों नहीं लेना चाहती वापस

पिछले 25 दिनों से चल रहा किसान आंदोलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने उपस्थित सबसे बड़ी चुनौती क्यों है? 1- पूरे पंजाब में यह एक जनांदोलन है। जिसे पंजाब के बहुलांश जनता का समर्थन प्राप्त है और यह समर्थन बढ़ता ही जा रहा है। 2- हरियाणा में भी यह तेजी से जनांदोलन की शक्ल ले रहा है। 3- देश के कोने-कोने से धीरे-धीरे इस आंदोलन को बड़े पैमान पर समर्थन प्राप्त हो रहा है और यह एक देशव्यापी जनांदोलन बनने की ओर बढ़ रहा है। 4- अभी तक इस जनांदोलन की बागडोर उन किसानों और किसान नेताओं के हाथ में है, जो झुकने को तैयार नहीं हैं। 5- इस आंदोलन को खालिस्तानी और नक्सली-माओवादी कहकर बदनाम करने की कोशिश नाकाम साबित हुई है, बल्कि इसका उलटा असर पड़ा है। 6- इस आंदोलन की रीढ़ पंजाबी सिख हैं, जो गहरे स्तर पर मानवतावादी होने के साथ ही अपने मान-सम्मान के लिए लडाकू कौम रही है। अत्याचारी शासकों के खिलाफ संघर्ष और कुर्बानी की इनकी करीब 500 वर्षों की परंपरा है। 7- यह मेहनतकश किसानों का जनांदोलन है, जो खुद अपने खेतों में अपने परिवार सहित कठिन श्रम करते हैं, भले ही इसके साथ वे मजदूरों का उपयोग करते हों। वे अपने खेतों में अपने पूरे परिवार सहित काम करते हैं, जिसमें महिला-पुरूष दोनों शामिल हैं। 8- इस आंदोलन की रीढ़ मूलत: पंजाब-हरियाणा के वे किसान हैं, जिनकी समृद्धि एवं संपन्नता का मूल आधार उनकी खेती है। 9- यह आंदोलन उन किसानों का आंदोलन है, जो अपने आर्थिक संसाधनों के बलबूते इस आंदोलन को महीनों-वर्षों टिकाए रख सकते हैं। 10- प्राकृतिक आपदा, युद्ध, जनसंघर्षों-जनांदोलनों आदि में देश-दुनिया के हर क्षेत्र में हर समुदाय के लिए सहायता पहुंचाने वाले सिखों के देशव्यापी एवं विश्वव्यापी समूह इस आंदोलन की हर तरह से मानवीय सहायता कर रहे हैं। 11- कुछ जड़सूत्रवादी वामपंथियों को छोड़कर हर तरह के जनवादी-प्रगतिशील समूह इस आंदोलन के साथ हैं, वे अपने तरीके से हर संभव मदद इस आंदोलन को पहुंचा रहे हैं। 12- देश के किसानों, विशेषकर पंजाब-हरियाण के किसानों को इस बिल से यह संंदेश गया है कि मोदी सरकार किसानों की फसल और जमीन अपने कार्पोरेट मित्रों ( अंबानी-अडानी) को सौंपना चाहती है और उन्हें इन कार्पोरेट घरानों का गुलाम किसान या मजदूर बना देना चाहती है। उनकी सोच आधार है, क्योंकि दुनिया के कई सारे देशों में ऐसा हुआ और इसकी तरीके से कार्पोरेटे को खेती की जमीन सौंपी गई। 13- सिंघू बार्डर और टिकरी बार्डर पर मौजूद किसान इस आंदोलन को अपने जीवन-मरण के प्रश्न के रूप में देखने लगे हैं। उन्हें यह विश्वास हो गया है कि यदि ये कानून लागू हो गए तो उनकी जितनी भी और जैसी संपन्नता एवं समृद्धि है, वह खत्म ही हो जाएगी, इसके साथ आने वाली पीढियां भी बर्बाद हो जायेंगी। 14- यह एक ऐसा जनांदोलन है, जिसके निशान पर कार्पोरेट घराने और उनके मीडिया हाउस भी हैं। 15- इस जनांदोलन में शामिल अधिकांश किसानों को यह विश्वास हो गया है कि मोदी सिर्फ कार्पोरेट घरानों के लिए काम करते हैं, वे उनके हाथ की कठपुतली हैं। अंबानी-अडानी जो चाहते हैं, वही होता है। यह मोदी की सरकार नहीं अंबानी-अड़ानी की सरकार है। उनका कहना है कि यह कानून भी अंबानी-अडानी के हितों के लिए बनाया गया है। 16- इस जनांदोलन को बहुलांश वैकल्पिक मीडिया का खुला समर्थन प्राप्त है और सोशल मीडिया भी इस जनांदोलन को समर्थन दे रही है। 17- इस जनांदोलन को मोदी जी हिंदू-मुस्लिम का एंगल या पाकिस्तान का एंगल नहीं दे पा रहे हैं। सिर्फ उनके पास कोसने के लिए विपक्षी पार्टियां हैं। विपक्षी पार्टियां किसानों को गुमराह कर रही हैं यह तर्क अधिकांश लोगों के गले नहीं उतर रहा है। शायद भीतर से मोदी सरकार को भी इस पर भरोसा नहीं। 18- भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के वादों को पूरा करने में मोदी जितन भी सफल हुए हो, लेकिन आर्थिक मामलों में उन्होंने जितने भी वादे किए उन सभी में वे अविश्वसनीय साबित हुए हैं। जिसके चलते मोदी जी के किसी भी वादे पर किसानों को भरोसा नहीं है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि वे किसानों के नहीं कार्पोरेट के दोस्त हैं और उनके द्वारा पाले-पासे गए हैं। 19- इस आंदोलन को धीरे-धीरे मजदूरों का भी समर्थन प्राप्त हो रहा है, क्योंकि जिन कार्पोरेट मित्रों के लिए ये तीन कृषि कानून बने हैं, उन्हीं कार्पोरेट मित्रों के लिए मोदी सरकार तीन बड़े लेबर लॉ भी पास कर चुकी है। 20- आम गरीब जनता में भी यह संदेश जा रहा है कि यदि गेहू-चावल पैदा करने वाले किसानों की खेती कार्पोरेटे के हाथ में चली गई, तो उन्हें सस्ते गल्ले की दुकानों से मिलने वाला सस्ता अनाज मिलना भी बंद हो जाएगा और उनकी भूखमरी और कंगाली और बढ़ जाएगी।

निम्न कारणों से मोदी जी इस कानून को वापस नहीं लेना चाहते है या नहीं ले पा रहे हैं- 1- देशी-विदेशी कार्पोरेट घरानों की निगाह देश के किसानों की फसल और जमीन पर है और यह कानून देश के किसानों की फसल और जमीन पर कार्पोरेट के कब्जे का रास्ता खोलता है, जो कार्पोरेट के मुनाफे और संपदा में बेहतहाशा वृद्धि करेगा 2- खेती पर निर्भर करीब 75 करोड़ लोगों के बड़े हिस्स की तबाही उन्हें शहरी स्लम बस्तियों में जाने के लिए बाध्य करेगी, जो कार्पोरेटे घरानों के लिए बहुत ही सस्ते मजदूर के रूप में उपलब्ध होंगे। यही कार्पोरेट घराने चाहते हैं. 3- खाद्य उत्पादों पर कार्पोरेट का नियंत्रण उन्हें बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं से मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करेगा। 4- चुनाव जीतने के लिए कार्पोरेट घरानों द्वारा भाजपा को मुहैया कराए गए अकूत धन की वसूली के लिए कृषि क्षेत्र को कार्पोरेट घरानों को सौंपना नरेंद्र मोदी की बाध्यता है, जैसे आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन को और बैंकों एवं भारतीय जीवन बीमा निगम की पूंजी को। 5- इसके साथ मोदी का व्यक्तिगत अहंकार भी इसके आड़े आ रहा होगा,जिस व्यक्ति ने देश को तबाह कर देने वाली नोटबंदी को भी आज तक अपनी गलती नहीं मानी, वह कैसे मान लेगा कि ये तीन कृषि कानून गलत हैं और उन्हें वापस लिया जा रहा है। मोदी जी इन कृषि कानूनों को वापस लेने या स्थगित करने की जगह गुरु तेगबहादुर के शहदी दिवस पर उन्हें माथा टेकने का भावात्मक खेल खेल रहे हैं। लेकिन इस जनांदोलन में शामिल किसान इस पाखंड कह रहे हैं।

किसान आर-पार की लडाई की तैयारी के साथ बार्डर पर डटे हुए हैं, पीछे से उन्हें रसद मुहैया हो रही है, देखना है कि इन जाबांज किसानों के सामने मोदी सरकार कितने देर टिकती है और अपने बचाव के लिए कौन सा रास्ता निकालती है।अबकी बार मोदी सरकार का सामने योद्धाओं की कौम से है, जिन्हें शहीद होना तो आता है, लेकिन झुकना नहीं आता। उन्हें झुकाना एक बहुत मुश्किल भरा काम है। वो भी तब, जब उनका सबकुछ दांव पर लगा हुआ है।

बैंक में सलेक्शन हुआ तो युवती ने क्यों किया बाबासाहब को याद

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 बधाई दीजिए बड़ी बहन (सुमन रानी) का सिलेक्शन इंडियन बैंक में हुआ है। सरकारी बैंक में नौकरी लगना कोई बड़ी बात नहीं है, ये बड़ी बात तब बन जाती है; जब आप शादी के बाद भी पढ़ाई जारी रखते हुए अपने घर-परिवार की जिम्मेदारी को संभालते हुए, बिना किसी कोचिंग के, एक ऐसे छोटे से गांव से निकल कर आते हो, जहां तक जाने के लिए कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट या कोई ऑटो भी ना चलता हो। ऐसे हालातों से निकल कर उच्च शिक्षा प्राप्त करना व तमाम सुविधाओं से लैस कैंडिडेट्स से कॉम्पिटिशन करना आसान नहीं है।

सब कुछ जानते हुए भी कुछ मेरिट धारी छपाक से बोल देते है कि ‘पता नहीं आरक्षण की बदौलत कहां-कहां से उठकर आ जाते हैं’। ऐसे लोग आपको डिमोटिवेट करने, नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन मुझे पता है ऐसे निगेटिव लोगों से निपटना आपके बाएं हाथ का खेल है।

आप वाकई कमाल हो, अधिकतर लड़कियां शादी के बाद अपने कैरियर की तरफ ध्यान नहीं दे पाती, शादी के बाद वो पति, बच्चो में ही उलझ कर रह जाती हैं, लेकिन आपने सब जिम्मेदारियों को बखूबी संभाला, आप उन सब लड़कियों के लिए प्रेरणस्रोत हो, जो सोचती हैं कि शादी के बाद आगे बढ़ पाना मुश्किल है।

आपको एक बार फिर से बधाई, साथ ही मुबारकबाद जीजा जी को, जो हमेशा आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहें, आपको तमाम सुविधाएं उपलब्ध करवाई। थैंक यू बाबा साहेब, आपको कोटि कोटि प्रणाम। आपके बिना हर खुशी अधूरी है, आप ना होते तो ये सब असंभव था।


फेसबुक पर यह पोस्ट अंजु गौतम ने डाला है। अंजू अम्बेडकवादी हैं। उन्होंने अपनी बहन की सफलता पर उनके संघर्ष को और बाबासाहब को याद किया है। बाबासाहब का सपना भी यही था कि हर बेटी पढ़े, आगे बढ़े, आत्मनिर्भर बने। दलित दस्तक भी यह मानता है कि सुमन रानी जी की सफलता समाज की उन लड़कियों को प्रेरणा देने वाली है, जो आगे बढ़ने, सपने देखने का माद्दा रखती हैं। आप ठान लिजिए, पढ़िए, याद रखिए, जहां चाह है, वहां राह है। सुमन रानी जी की सफलता इसको साबित भी करती है। बधाई। 

 भारत का दार्शनिक और नैतिक पतन आश्चर्यचकित करता है

 भारत का दार्शनिक और नैतिक पतन आश्चर्यचकित करता है। भारतीय दर्शन के आदिपुरुषों को देखें तो लगता है कि उन्होंने ठीक वहीं से शुरुआत की थी जहां आधुनिक पश्चिमी दर्शन ने अपनी यात्रा समाप्त की है।

हालाँकि इसे पश्चिमी दर्शन की समाप्ति नहीं बल्कि अभी तक का शिखर कहना ज्यादा ठीक होगा। कपिल कणाद और पतंजली भी एक नास्तिक दर्शन की भाषा में आरंभ करते हैं, महावीर की परम्परा भी इश्वर को नकारती है।इन सबसे आगे निकलते हुए बुद्ध न सिर्फ इश्वर या ब्रह्म को बल्कि स्वयं आत्मा को भी निरस्त कर देते हैं। एक गहरे नास्तिक या निरीश्वरवादी वातावरण में भारत सैकड़ों साल तक प्रगति करता है। लेकिन वेदान्त के उभार के बाद भारत का जो पतन शुरू होता है तो आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है।

पश्चिम में आधुनिक समय में खासकर पुनर्जागरण के बाद जो दर्शन मजबूत हुए या शिखर पर पहुंचे हैं और जिन्होंने विज्ञान, तकनीक, लोकतंत्र आदी को संभव बनाया है वे भी ईश्वर और आत्मा को नकारते हैं। कपिल, कणाद और बुद्ध की तरह वे भी एक सृष्टिकर्ता और सृष्टि के कांसेप्ट को नकारते हैं और प्रकृति या सब्सटेंस को ही महत्व देते हैं। इसके बाद चेतना, रीजन और ”विल” को अपनी खोजों और विश्लेषण का आधार बनाते हैं।

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ये मजेदार बात है। भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने जहां से शुरू किया था वहां आज का पश्चिमी दर्शन पहुँच रहा है। लेकिन भारत में उस तरह का विज्ञान और सभ्यता या नैतिकता नहीं पैदा हो सकी जो आज पश्चिम ने पैदा की है। ये एक भयानक और चकरा देने वाली सच्चाई है।

इसका एक ही कारण नजर आता है। प्राचीन भारतीय दार्शनिको की स्थापनाओं को सामाजिक और राजनीतिक आधार नहीं मिल पाया। उनकी शिक्षाओं को institutionalise नहीं किया जा सका, किसी संस्थागत ढाँचे में (सामाजिक या राजनीतिक) में नहीं बांधा जा सका। कुछ प्रयास हुए भी अशोक या चन्द्रगुप्त के काल में लेकिन वे भी ब्राह्मणी षड्यंत्रों की बलि चढ़ गये। कपिल, कणाद महावीर या बुद्ध से आ रहा एक ख़ास किस्म का भौतिकवाद और इस भौतिकवाद पर खड़ी नैतिकता भारतीय समाज और राजनीति का केंद्र नहीं बन पायी। बाद के आस्तिक दर्शनों और वेदान्त ने इश्वर-आत्मा-पुनर्जन्म की दलदल में दर्शन और समाज दोनों को घसीटकर बर्बाद कर दिया।

कपिल कणाद के बाद बुद्ध और महावीर की परम्पराओं में भी भीतर से ही परलोकवाद और वैराग्यवाद उभरता है और अपने ही स्त्रोत को जहरीला करके ब्राह्मणवादी पाखंड के आगे घुटने टेक देता है। फिर सुधार की रही सही संभावना भी खत्म हो जाती है। इसीलिये आश्चर्य की बात नहीं कि ओशो रजनीश जैसे धूर्त बाबा अपने परलोक और पुनर्जन्मवादी षड्यंत्र को बुनते हुए बुद्ध और महावीर सहित कबीर को भी अपनी चर्चाओं में बड़ा उंचा मुकाम देते हैं। इन्हें अपनी प्रेरणाओं का स्त्रोत बताते हुए इनके मुंह में फिर से वेद वेदान्त का जहर ठूंसते जाते हैं और सिद्ध करते जाते हैं कि बुद्ध महावीर कपिल कणाद कबीर आदि सब इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म को मानते थे।

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गौर से देखें तो पश्चिमी देशों में प्राचीन शास्त्रों और प्राचीन दर्शन के साथ ऐसी गहरी चालबाजी करने की कोई परंपरा नहीं है। वहां हर दार्शनिक अपनी नयी बात लेकर आता है। दयानन्द,अरबिंदो या विवेकानन्द या राधाकृष्णन, गांधी या महाधूर्त ओशो की तरह वे वेद-वेदान्त से समर्थन नहीं मांगते बल्कि पश्चिमी दार्शनिक अपने से पुराने दार्शनिकों को कड़ी टक्कर देते हुए आगे बढ़ते हैं। भारत के ओशो रजनीश और अरबिंदो घोष जैसे पोंगा पंडित इसी काम में लगे रहते हैं कि उनका दर्शन किसी तरह वेद वेदान्त या अन्य प्राचीन शास्त्रों से अनिवार्य रूप से जुड़ जाए।

इस एक विवशता के कारण उनका जोर स्वयं दर्शन या समाज को बदलने पर नहीं होता बल्कि समाज के मनोविज्ञान और उपलब्ध या ज्ञात इतिहास को मनचाहे ढंग से बदलने पर होता है। यही इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। इसी कारण भारतीय दार्शनिक कितनी भी ऊँची उड़ान भर लें, वे प्राचीन ग्रंथों से अपने लिए समर्थन मांगने की विवशता के कारण समाज की रोजमर्रा की नैतिकता और जीवन की व्यवस्था को बदलने की कोई बात नहीं करते, वहां वे बहुत सावधान रहते हैं।

उधर पश्चिम में कोई भी दर्शन हो वो तुरंत समाज और जीवन का हिस्सा बन जाता है। आधुनिक काल में जन्मा भौतिकवादी दर्शन वहां समाज, शिक्षा, राजनीति, विज्ञान, साहित्य आदि में तुरंत ट्रांसलेट होता है और इस दर्शन को सुरक्षित गर्भ देकर विकसित होने के लिए सामाजिक राजनीतिक वातावरण बनाता है। डार्विन, फ्रायड और मार्क्स के आते ही पश्चिमी दुनिया बदल जाती है, उनके सोचने का ढंग उनकी जीवनशैली, उनकी राजनीति, व्यापार सब बदल जाता है।

इधर भारत में कोई भी आ जाए, कुछ नहीं बदलता, एक सनातन पाषाण सी स्थिति है औंधे घड़े पे कितना भी पानी डालो, भरता ही नहीं। भारत में दर्शन सिर्फ खोपड़ी में या शास्त्रों में रहता है। वो समाज की रोजमर्रा की जीवन शैली को बदलने में बिलकुल असमर्थ रहता है।

भारत में दार्शनिक उड़ान एक भांग के नशे जैसी स्थिति है, उस नशे की उड़ान में कल्पनालोक में या शास्त्रार्थ के दौरान आप जमीन आसमान एक कर सकते हैं लेकिन सामाजिक नियम और सामाजिक नैतिकता में रत्ती भर का बदलाव नहीं आने दिया जाता, यहाँ पंडितों के रोजगार को सुरक्षित रखने के लिए कर्मकांडीय नैतिकता का जो जाल बुना गया है वो असल में दार्शनिक नैतिकता के उभार की संभावना की ह्त्या करने के लिए ही बुना गया है। इसीलिये भारत में दर्शन या विचार के क्षेत्र में भी कोई बदलाव हो जाए, लेकिन समाज में मौलिक रूप से कोई बदलाव नहीं होता।

ये बदलाव रोकने के लिए ही भारत में शिक्षा, विवाह, राजनीति, व्यापार आदि को एक लोहे के ढाँचे में बांधा गया है। यही लोहे का ढांचा वर्ण, आश्रम और जाति के नाम से जाना जाता है। पश्चिम में ये ढांचा नहीं था, ये लोहे की दीवारें नहीं थीं। इसलिए वहां के भौतिकवादी दार्शनिकों ने पांच सौ साल में वो कर दिखाया जो भारत में हजारों साल तक नहीं हुआ। जिस तरह से परलोकवादी बाबाओं का बुखार छाया हुआ है उसे देखकर लगता है कि आगे भी होने की कोई उम्मीद नहीं है।

भारतीय समाज के कर्मकांड और इनसे जुडी परलोकवादी धारणाएं जब तक चलती रहेंगी भारत में सभ्यता और नैतिकता की संभावना ऐसे ही क्षीण होती रहेंगी।

जब विश्व के दार्शनिक मानव सभ्यता का इतिहास लिख रहे थे, भारतीय दार्शनिक क्या कर रहे थे?

मानव इतिहास की महान विदुषी एरियल ड्यूरेंट जब अपने पति विल ड्यूरेंट के साथ मिलकर विश्व इतिहास और सभ्यता सहित दर्शन के विकास का अत्यंत विस्तृत लेखा जोखा लिख रही थीं, उसी दौर में बर्ट्रेंड रसल भी दर्शन का इतिहास लिख रहे थे। फ्रायड मनोविज्ञान के रहस्य खोल रहे थे, फ्रेडरिक नीत्शे मूल्यों को और ईश्वर को चुनौती दे रहे थे, लुडविन वित्गिस्तीन पूरे तर्कशास्त्र को ही नया रूप दे रहे थे, डार्विन इसी समय में क्रमविकास की खोज करते हुए इंसान की उत्पत्ति और विकास की पूरी समझ ही बदल डाल रहे थे, हीगल के प्रवाह में मार्क्स और एंगेल्स पूरे इतिहास और मानव समाज के काम करने के ढंग को एकदम वैज्ञानिक दृष्टि से समझा रहे थे। आइन्स्टीन, मेक्स प्लांक, नील्स बोर और श्रोडीन्जर अपनी अजूबी प्रतिभा से क्लासिकल न्यूटोनियन फिजिक्स और यूक्लिडीयन जियोमेट्री सहित भौतिकशास्त्र की पूरी समझ को एक नए स्तर पर ले जा रहे थे।
उस समय भारतीय चिन्तक क्या कर रहे थे?
उन्नीसवी सदी के आरंभ से बीसवीं सदी के अंत तक भारतीय पंडित पश्चिमी विद्वानों से शर्मिन्दा होते हुए या तो अन्टार्कटिका में अपने पूर्वजों की खोज कर रहे थे या फिर फर्जी राष्ट्रवाद के लिए गणेश-उत्सव का कर्मकांड रच रहे थे।बंगाल के कुछ चिंतक इसाइयत की कापी करके नियो-वेदांत की और मिशनरी स्टाइल समाज सेवा की रचना कर रहे थे, अपने ब्रिटिश आर्य बंधुओं के “आर्य-आक्रमण” को अपने लिए वरदान मानते हुए भरत मिलाप सिद्ध कर रहे थे और पश्चिमी स्त्री की स्वतन्त्रता से शर्माते हुए सती प्रथा से पिंड छुडाने के लिए पहला सभ्य प्रयास कर रहे थे।
इसी दौर के दुसरे संस्कारी पंडित जन भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री फुले पर गोबर और पत्थर फेंक रहे थे, ज्योतिबा फूले के बालिका स्कूल और विधवा आश्रम को बंद कराने के लिए सब तरह के षड्यंत्र कर रहे थे, अंबेडकर को पढने लिखने से रोकने की सनातनी चाल चल रहे थे, कुछ चिन्तक-योगी नीत्शे और डार्विन की खिचड़ी बनाकर अतिमानस और पूर्ण-योग की रचना कर रहे थे।
आजादी के बाद हमारे महानुभाव फिलहाल क्या कर रहे हैं?
एक महर्षि बीस मिनट के ध्यान से हवा में उड़ने की तकनीक सिखा रहे थे। एक योगानन्द जी क्रियायोग के बीस बरस के अभ्यास से बीस करोड़ सालों का क्रमविकास सिद्ध करने का दावा कर रहे थे। कुछ महान दार्शनिक अपने ही शिष्य की थीसिस चुराकर शिक्षक दिवस पर लड्डू बाँटने का इन्तेजाम कर रहे थे। एक रजिस्टर्ड भगवान पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों जैसे फ्रायड जुंग और विल्हेम रेख की जूठन की भेल पूरी बनाकर बुद्ध और कबीर के मुंह में वेदान्त ठूंस रहे थे। इस षड्यंत्र से वे जोरबा-द-बुद्धा की रचना करके अभी अभी गए हैं। हाल ही में एक बाबाजी हरी लाल चटनी और रसगुल्ले खिलाकर किरपा बरसा रहे हैं।
एक अन्य महाराज जमुना का उद्धार कर ही चुके हैं और एक गुरूजी देश भर की नदियों को बचाने के लिए सडकों की ख़ाक छानकर फिलहाल सुस्ता रहे हैं, जल्द ही किसी नए अभियान पे निकलेंगे। वहीं एक अन्य बाबाजी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में प्राणायाम का विश्वरिकार्ड बनाकर च्यवनप्राश बाँट रहे हैं, व्यवस्था परिवर्तन और क्रान्ति से शुरुआत करके आजकल दन्तकान्ति, केशकान्ति बेच रहे हैं।
नतीजा सामने है। पश्चिम में वे नई सभ्यता और नैतिकता सहित ज्ञान विज्ञान साहित्य, कला दर्शन, फेशन, फिल्मों, कपडे लत्ते, चिकित्सा, भोजन, भाषा, संस्कृति और हर जरुरी चीज का विकास और निर्यात कर रहे हैं और हम सबकुछ आयात करते हुए, खरीदते हुए जहालत के रिकार्ड तोड़ते हुए गोबर के ढेर में धंसते जा रहे हैं।
और अब तो गाय के गोबर से मामला गधे की लीद तक पहुँच गया है। विकास रुक ही नहीं रहा।

अखिलेश और योगी पर क्यों भड़कीं बहनजी

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बसपा पर अक्सर विपक्षी पार्टियां जाति की राजनीति का आरोप लगाती हैं। दरअसल ये वो दल हैं जो खुद जाति और धर्म की राजनीति में गहरे तक डूबे हुए हैं। हालांकि बसपा के शासनकाल में पूरे प्रदेश के लोगों के लिए विकास के जो काम हुए उसने बसपा, उसके प्रमुख नेताओं और उनकी विकास की सोच को जिस तरह देश भर में स्थापित किया, उसने बसपा की राजनीति को नई पहचान दी। बात चाहे यमुना एक्सप्रेस वे की हो, फार्मूला वन रेसकोर्स बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट की या फिर एक शानदार शहर ग्रेटर नोएडा बसाने की, यह काम मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार ने ही किया। 2012 में बसपा सरकार जाने के बाद भी बसपा शासनकाल में बनी तमाम योजनाओं को बाद की सरकारों ने अपना नाम देकर काम किया और उसका श्रेय भी खुद लिया। बसपा के बाद आई सपा और फिर भाजपा सरकार के इसी रवैये पर बहनजी ने हाल ही में दोनों दलों और इसके नेताओं को आड़े हाथों लिया है। बहन मायावती ने 18 दिसंबर को एक के बाद एक तीन ट्विट कर सपा और भाजपा सरकार पर जमकर भड़ास निकाली। बहनजी ने कहा, यूपी में खासकर गंगा एक्सप्रेस-वे हो या विकास के अन्य प्रोजेक्ट अथवा जेवर में बनने वाला नया एयरपोर्ट, जग-जाहिर है कि ये सभी बीएसपी की मेरी सरकार में ही तैयार किए गए विकास के वे प्रख्यात मॉडल हैं जिसको लेकर पहले सपा व अब वर्तमान बीजेपी सरकार अपनी पीठ आप थपथपाती रहती है।

अपने दूसरे ट्विट में बहनजी ने कहा, साथ ही मेट्रो एवं अयोध्या, वाराणसी, मथुरा, कन्नौज सहित यूपी के प्रचीन व प्रमुख शहरों में बुनियादी जनसुविधाओं की नई स्कीमें व इनको रिकार्ड समय में पूरा करने का काम भी बीएसपी का ही विकास मॉडल है जो कानून द्वारा कानून के राज के साथ प्राथमिकता में रहा, जिससे सर्वसमाज को लाभ मिला।

बहनजी ने अपने तीसरे ट्विट में लिखा कि इस प्रकार मेरी सरकार के सन 2012 में जाने के बाद यूपी में जो कुछ भी थोड़ा विकास संभव हुआ है वे अधिकांश बीएसपी की सोच के ही फल हैं। मेरी सरकार में ये काम और अधिक तेजी से होते अगर तब कांग्रेस की रही केन्द्र सरकार पर्यावरण आदि के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ की अड़ंगेबाजी नहीं करती।

दरअसल भाजपा के विरोधी हों या फिर समर्थक, हर कोई बेहिचक बसपा शासनकाल में हुए कई कामों के लिए आज भी बहनजी को याद करता है। ऐसे में जब बसपा शासनकाल की योजनाओं को बाद की सरकारें बिना बसपा को क्रेडिट दिए उसका ढिंढ़ोरा पीटती हैं, तो बहनजी को गुस्सा आना स्वाभाविक है।

किसान आंदोलन पर बहनजी का बड़ा बयान

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 नए कृषि बिल के खिलाफ किसानों के आंदोलन को बसपा प्रमुख मायावती लगातार समर्थन दे रही हैं। किसानों के आंदोलन को बहनजी न सिर्फ लगातार समर्थन दे रही हैं, बल्कि इस मुद्दे पर लगातार किसानों के पक्ष में मुखर हैं। हाल ही में 19 दिसंबर को बसपा प्रमुख ने एक ट्विट कर फिर से इस मुद्दे पर बड़ा बयान दिया है। बहनजी ने अपने बयान में कहा, “बसपा यह मांग करती है कि केन्द्र की सरकार को, हाल ही में देश में लागू तीन नए कृषि कानूनों को लेकर आन्दोलित किसानों के साथ हठधर्मी वाला नहीं बल्कि उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाकर उनकी माँगों को स्वीकार करके, उक्त तीनों कानूनों को तत्काल वापस ले लेना चाहिए।”

इससे पहले 7 दिसंबर को भी बहनजी ने कृषि कानून को लेकर किसानों के साथ अपनी सहमति जताई थी। और 8 दिसंबर को किसानों द्वारा किये गए भारत बंद को अपना समर्थन दिया था। 7 दिसंबर को किए अपने ट्विट में बहनजी ने कहा था, “कृषि से सम्बंधित तीन नये कानूनों की वापसी को लेकर पूरे देश भर में किसान आन्दोलित हैं व उनके संगठनों ने दिनांक 8 दिसम्बर को ’’भारत बंद’’ का जो एलान किया है, बी.एस.पी उसका समर्थन करती है। साथ ही, केन्द्र से किसानों की माँगों को मानने की भी पुनः अपील करती है।”

किसानों के आंदोलन को लेकर बसपा प्रमुख ने शुरुआती ट्विट 29 नवंबर को किया था, जिसमें उन्होंने केंद्र की मोदी सरकार को घेरा था। बहनजी ने कहा था, “केन्द्र सरकार द्वारा कृषि से सम्बन्धित हाल में लागू किए गए तीन कानूनों को लेकर अपनी असहमति जताते हुए पूरे देश में किसान काफी आक्रोशित व आन्दोलित भी हैं। इसके मद्देनजर, किसानों की आम सहमति के बिना बनाए गए इन कानूनों पर केन्द्र सरकार अगर पुनर्विचार कर ले तो बेहतर।”

दरअसल किसानों के आंदोलन और उनकी मांगों के साथ बसपा लगतार खड़ी है। बसपा प्रमुख न सिर्फ आंदोलन के हर दिन की प्रगति को देख रही हैं, बल्कि अपना पक्ष भी रख रही हैं। बसपा अपने शासनकाल में भी किसानों के मुद्दों को लेकर काफी संवेदनशील रही हैं। बसपा के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति काफी बेहतर थी। गन्ना किसानों को जो मूल्य दिया गया था, वह आज भी एक रिकार्ड है तो वहीं बहन मायावती के नेतृत्व वाले बसपा शासनकाल में भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार को देश में सबसे ज्यादा पैदावार के लिए मेडल दिया। अनाज उत्पादन में प्रदेश नंबर वन रहा था।

हाथरस मामले में सीबीआई ने दाखिल की चार्जशीट, नजर अब अदालत पर

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भाजपा शासित उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में वाल्मीकि समाज की लड़की के साथ गैंगरेप और उसके बाद हत्या के मामले में सीबीआई ने आज (18 दिसंबर 2020) को चार्जशीट दाखिल कर दिया है। सीबीआई के अधिकारियों ने यह चार्जशीट एससी/एसटी कोर्ट में दाखिल की है। इसके बाद कोर्ट ने इस चार्जशीट पर संज्ञान लिया है। सीबीआई ने जो चार्जशीट दाखिल की है, उसमें 22 सितंबर को दिए गए पीड़िता के आखिरी बयान को आधार बनाया गया है। चार्जशीट दाखिल होने के बाद अब सबकी नजर अदालत पर टिकी है।

केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) ने 11 अक्टूबर 2020 को उत्तर प्रदेश सरकार के अनुरोध पर और भारत सरकार से आगे की अधिसूचना पर केस दर्ज किया। हाथरस केस में चारों आरोपियों के खिलाफ हत्या, गैंगरेप और एससी-एसटी एक्ट की धाराओं में चार्जशीट दाखिल की गई है। आरोपियों पर धारा- 325, एससी-एसटी एक्ट 376A और 376 D (गैंगरेप) और धारा 302 के तहत चार्जशीट दाखिल की गई है। गौरतलब है कि हाथरस में वाल्मीकि समाज की एक लड़की के साथ 14 सितंबर के साथ गैंगरेप के बाद उसकी हत्या कर दी गई थी। इस मामले में चार लड़कों को गिरफ्तार किया गया है।

किसानों के नाम कृषि मंत्री का पत्र, योगेन्द्र यादव ने पकड़ा 20 झूठ

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 कृषि बिल के खिलाफ सड़क पर उतरे किसानों ने मोदी सरकार की नाक में दम कर दिया है। सरकार कृषि बिल के खिलाफ किसानों के आंदोलन से इतना परेशान हो गई है कि सरकार के सभी नेता-मंत्री इन दिनों या तो किसानों को समझाने में लगे हैं, या फिर किसानों के आंदोलन को बदनाम करने में जुटे हैं। आंदोलन से बौखलाई केंद्र सरकार के कृषि मंत्री ने किसानों को संबोधित करते हुए 17 दिसंबर को किसानों के नाम एक पत्र लिखा है। यह पत्र आठ पन्नों का है, जिसको लेकर सामाजिक कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव का दावा है कि इसमें 20 झूठ हैं।

चिट्ठी की शुरुआत में कृषि मंत्री ने लिखा है कि कृषि मंत्री के तौर पर मेरे लिए यह बहुत संतोष की बात है कि नए कानून लागू होने के बाद इस बार MSP पर सरकारी खरीद के भी पिछले सारे रिकार्ड टूट गए हैं। ऐसे समय में जब हमारी सरकार MSP पर खरीद के नए रिकार्ड बना रही है, खरीद केंद्रों की संख्या बढ़ा रही है, कुछ लोग किसानों से झूठ बोल रहे हैं कि MSP बंद कर दी जाएगी।

मेरा किसानों से आग्रह है कि राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित कुछ लोगों द्वारा फैलाए जा रहे इस सफेद झूठ को पहचानें और इसे सिरे से खारिज करें। जिस सरकार ने किसानों को लागत का डेढ़ गुना MSP दिया, जिस सरकार ने पिछले 6 सालों में MSP के जरिए लगभग दोगुनी राशि किसानों के खाते में पहुंचाई, वह सरकार MSP कभी बंद नहीं करेगी। MSP जारी है और जारी रहेगी।

हालांकि कृषि मंत्री की आखिरी लाइन कि सरकार MSP कभी बंद नहीं करेगी, MSP जारी है, और जारी रहेगी, को पढ़ते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वह भाषण याद आता है, जिसमें वह टेबल ठोक कर रेलवे के नहीं बिकने का दावा करते थे, लेकिन हुआ क्या? रेलवे निजीकरण के चक्र में फंस चुकी है और इस पर देश के पूंजीपतियों का कब्जा शुरू हो चुका है।

इस चिट्ठी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने ट्विटर से शेयर किया है। 17 दिसंबर की शाम 8 बजे पीएम मोदी ने इस चिट्ठी को अपने ट्विटर हैंडल से शेयर करते हुए लिखा कि,  कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर जी ने किसान भाई-बहनों को पत्र लिखकर अपनी भावनाएं प्रकट की है, एक विनम्र संवाद करने का प्रयास किया है। सभी अन्नदाताओं से मेरा आग्रह है कि वे इसे जरूर पढ़ें। देशवासियों से आग्रह है कि वे इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएँ।

प्रधानमंत्री मोदी के अलावा इस चिट्ठी को गृहमंत्री अमित शाह और सरकार के अन्य तमाम मंत्रियों ने भी शेयर किया है। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस चिट्ठी को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की अपील के बाद सरकार के मंत्री से लेकर भाजपा कार्यकर्ता तक इसे लोगों तक पहुंचाने में जुट गए हैं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव ने कृषि मंत्री की इस चिठ्ठी में 20 झूठ पकड़ा है। योगन्द्र यादव ने एक वीडियो जारी कर कृषि मंत्री और सरकार के झूठ का फांडाफोड़ किया है।

इस वीडियो में योगेन्द्र यादव ने कृषि मंत्री और सरकार की मंशा पर सवाल उठाया है तो साथ ही किसानों से झूठ बोलने को लेकर कृषि मंत्री को आड़े हाथों लिया है।

दरअसल किसानों के लगातार विरोध से मोदी सरकार भारी दबाव में हैं। सामने बंगाल का चुनाव होने से सरकार की मुश्किलें ज्यादा बढ़ी हुई है। भाजपा और संघ को डर है कि अगर किसानों का आंदोलन नहीं रुका और यह मुद्दा बड़ा हो गया तो उन्हें बंगाल चुनाव में नुकसान उठाना पर सकता है। दूसरी ओर किसान अपनी मांग पूरा हुए बिना पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या अब सरकार किसानों से यह लड़ाई झूठ और छल की बदौलत जीतना चाहती है।

देश के हर हिस्से में वंचित समाज के बीच पहुंचना चाहता हूं

14-15 फरवरी, 2020 को हार्वर्ड युनिवर्सिटी, अमेरिका में इंडिया कांफ्रेंस में ‘कास्ट एंड मीडिया’ विषय पर वक्ता के तौर पर शामिल हुआ
जन्म लेना शुभ है, मृत्यु होना अशुभ। हर दिन कोई न कोई जन्म लेता है, और हर दिन किसी न किसी की मृत्यु होती है। इसलिए मैं हर दिन को एक समान मानता आया हूं। मैंने 17 दिसंबर को जन्म लिया था। साल नहीं बताऊंगा, क्योंकि आप यकीन नहीं करेंगे और मुझसे युवा बने रहने का नुस्खा पूछने लगेंगे। लेकिन अब मैं खुद को सीनियर घोषित कर सकता हूं। मैंने यह मान लिया है कि मैं बचपने से बाहर आ चुका हूं और युवावस्था के शीर्ष पर हूं।
तो मैं बात कर रहा था, जन्म और मृत्यु की। इन दोनों बिन्दुओं के बीच का जो वक्त होता है, उसे जीवन कहते हैं। हम अपना जीवन कैसे जीयें ये कुछ परिवार की पृष्ठभूमि तय करती है, कुछ शिक्षा और मित्रों के प्रभाव में तय होता है, कुछ हालात तय करते हैं, और इन सबके बाद भी अगर थोड़ी-बहुत संभावना बचती है, उसमें हम तय करते हैं कि हमें क्या करना है।
मैं आज जो कर रहा हूं, मैं हमेशा से यह करना चाहता था। मैं जब यह समझ पाया कि लिखना पढ़ना भी पेशा हो सकता है, मैं हमेशा से लिखना-पढ़ना चाहता था। लेकिन इसमें हालात और वक्त ने भी बड़ी भूमिका निभाई। बाबासाहेब के मूवमेंट से कुछ बहुत सोच कर नहीं जुड़ा। काम करते-करते, लिखते-पढ़ते, कुछ वरिष्ठों के संपर्क में आकर एक वक्त मैंने महसूस किया कि मैं बाबासाहेब का सिपाही बन चुका हूं। आंबेडकरी मिशन का हिस्सा बन चुका हूं।
अमेरिकी यात्रा के दौरान कोलंबिया युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में लगे बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के बस्त के साथ
आज पहली बार है जब जन्मदिन पर कुछ लिख रहा हूं। हाशिये के समाज से ताल्लुक रखने वाले करोड़ों लोगों की तरह हमारे घर में जन्मदिन मनाने का कभी चलन नहीं रहा। चमरौटी के एक कोने में फूस के घेरे (जिसे हमारे पूर्वज घर कहते थे) में हमारी कई पीढ़ियां पेट भरने को गेहूं की रोटी को तरसती रही। दादा-परदादा कलकत्ता गए, वहां अंग्रेजों/ पूंजीपतियों के जूट मिल में मजदूरी की तो पिता और परिवार का पेट भरा। पिता परिवार के पहले ग्रेजुएट बने, तब तक देश आजाद हो गया था, बाबासाहेब ने संविधान लिखा, उसमें आरक्षण की व्यवस्था की, तब जाकर इस देश के हर संसाधन पर कब्जा कर के बैठे लोगों ने हमारे लिए कुछ नौकरियां मजबूरी में छोड़ी। पापा अशर्फी दास खानदार के पहले व्यक्ति थे, जो सिविल कोर्ट में लिपिक (क्लर्क) बनें।
तो सम्मान के साथ रोटी कमाने की जुगत में कई पीढ़ियां बीत गई। माता-पिता की परवरिश की बदौलत आज हम जन्मदिन को उत्सव के रूप में मनाने और केट काटने के लायक हो पाए हैं। हां, अब घर के बच्चों का जन्मदिन मनाने का चलन जरूर शुरू हो गया है। आज जीवन में पहली बार मां ने फोन पर थोड़ा हंसते हुए, थोड़े गौरव के साथ जन्मदिन की बधाई दी। मैंने मुझे जन्म देने के लिए मां को शुक्रिया कहा।
खैर, आंबेडकरी आंदोलन से जुड़ना मेरे जीवन की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस आंदोलन ने मुझे मान दिलाया, सम्मान दिलाया, देश के हर हिस्से में हजारों-लाखों लोगों का बड़ा परिवार दिलाया। इस आंदोलन की बदौलत मैं बिहार के एक छोटे से कस्बे से अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी तक पहुंच पाया। मैं इस आंदोलन का कर्जदार हूं। ये जीवन इसी आंदोलन को समर्पित कर चुका हूं।
मुझे नहीं पता कि आंबेडकरी आंदोलन में मैं कितना योगदान दे पाया हूं, या इस आंदोलन में मेरे होने से क्या फर्क पड़ता है। और सच कहूं तो यह सोचना मेरा काम है भी नहीं। मैं बस हर दिन इस आंदोलन के लिए जितना कर पाऊं, करते रहना चाहता हूं। मेरे काम का, योगदान का आंकलन आपलोग करेंगे। मुझे तो बस काम करना है। मैं ऐसा बने रहना चाहता हूं कि मैं प्रशंसा और चापलूसी से खुश न हो जाऊं, किसी की आलोचना या निंदा से निराश न हो जाऊं।
मैग्जीन, वेबसाइट, यू-ट्यूब, प्रकाशन आदि के जरिए जितना कर सकता हूं, करता रहूं। मैं संचार का आदमी हूं, संचार यानी कम्यूनिकेशन यानी संवाद करने वाला। यह संवाद मैग्जीन के जरिए भी करता हूं, यू-ट्यूब के जरिए भी, वेबसाइट पर लिख कर भी, किताबें प्रकाशित कर के भी और नए साल का कैलेंडर प्रकाशित कर के भी। तमाम माध्यमों से कुछ भी कहने का सिर्फ एक उद्देश्य होता है, संवाद करना। हां, यह जरूर स्वीकार करता हूं कि जितना कर रहा हूं, उससे ज्यादा करने की ऊर्जा मुझमें है। उससे ज्यादा करना चाहता हूं।
अगर आप पूछेंगे कि आगे क्या करना है, तो मेरा जवाब होगा देश के हर हिस्से में वंचित समाज के बीच पहुंचना मेरे जीवन का उद्देश्य है। दलित-आदिवासी समाज के भीतर भी कई रंग हैं। हर प्रदेश में इस समाज का अपना इतिहास, अपनी परंपरा, जीवन जीने का अपना तरीका है। उन सारी कहानियों, परंपराओं, लोक गीतों, रिवाजों को आप सब को दिखाना चाहता हूं। दिल्ली में बैठे-बैठे मन उकताने लगा है। जीवन एकरस लगने लगा है, इसको तोड़ना चाहता हूं। बस भ्रमण पर निकल जाता चाहता हूं। बहुत सारे अनुभव समेटना चाहता हूं। आपलोगों से उन अनुभवों को बांटना चाहता हूं। उम्मीद है कि आपके गांव-शहर आऊंगा तो आप छत और रोटी जरूर देंगे। देंगे न??
बाकी, आप सबका दिया मान-सम्मान और स्नेह मेरे होने को सार्थक करता है। किसी व्यक्ति को समाज महत्वपूर्ण बनाता है। मैं आपलोगों के प्यार से अभिभूत हूं, नतमस्तक हूं। इसके बावजूद मैं यह मुगालता कभी नहीं पालता कि मैं बहुत महान काम कर रहा हूं या फिर मैं कोई “महत्वपूर्ण” व्यक्ति हूं और मुझे हर कोई जानता है। हम सब अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं, और हमसे ज्यादा महत्वपूर्ण हमारा काम है। क्योंकि यही हमारी पहचान है। यही वजह है कि थोड़ा छिपा रहता हूं, थोड़ा कम बोलता हूं। क्योंकि जरूरी है कि हमारा काम बोले। आखिर में जन्मदिन की बधाई देने वाले सभी मित्रों, शुभचिंतकों का धन्यवाद, बड़ों से आशीर्वाद की अपेक्षा करता हूं और मित्रों से स्नेह की। उम्मीद करता हूं कि मैं भविष्य में अपने सपनों को पूरा करने के लिए जो फैसला करूं, मेरे नजदीकी, मेरे परिवार के लोग मेरा साथ देंगे।

कविताः मुझे बदलाव चाहिए, सुधार नहीं

सदियों से तुम्हारे
शास्त्रों, शस्त्रों और बहियों का बोझ
मेरी जर्जर देह ने ही उठाया है
बैलगाड़ी में जुते बीमार बैल की तरह
मैं ही वाहक रहा हूँ तुम्हारी सब कामनाओं का
अब तुम्हारा बैल मर ही न जाए
गिर कर चूर ही न हो जाए
इसलिए तुम देते आये हो उसे कुछ टुकड़े
जिन्दा भर रहने को
अब जब तुम्हारी कामनाएं और लक्ष्य
अधिक विशाल हुए जा रहे हैं
तुम्हें चाहिए एक मजबूत बैल
इसलिए अब तुम उछाले जा रहे
उन टुकड़ों का आकार बढ़ा रहे हो
यही तुम्हारा सुधार है
लेकिन मुझे टुकड़े टुकड़े सुधार नहीं
एकमुश्त बदलाव चाहिए
मैं बैलगाड़ी के जुए से आजाद हो
तुमसे नजरे मिलाकर चलना चाहता हूँ
तुम्हारे शास्त्रों, शस्त्रों का बोझ फेंककर
अपने शास्त्र और शस्त्र रचना चाहता हूँ
मैं तुम्हारी यात्रा का साधन नहीं
बल्कि अपने लक्ष्य का साधक बनना चाहता हूँ
अपने गंतव्य और मार्ग
स्वयं चुनना चाहता हूँ
– संजय श्रमण

संसद का शीतकालीन सत्र रद्दः क्या किसानों से डरी हुई है मोदी सरकार

 आमतौर पर साल के नवंबर-दिसंबर महीने में होने वाला संसद का शीतकालीन सत्र इस साल नहीं होने जा रहा है। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सदन में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी को पत्र लिखकर बताया है कि कोविड-19 के कारण तमाम दलों की सहमति को देखते हुए इस बार संसद सत्र नहीं होगा। जनवरी 2021 में बजट सत्र होने की बात कही जा रही है।

सरकार का यह फैसला चौंकाने वाला और सवालों से भागने वाला है। हाल ही में बिहार में चुनाव हो गया, बंगाल में तमाम नेता मुंह झोके हैं, खासकर सत्ता दल के नेता। भूमि पूजन, उद्धाटन सब हो रहा है। राजनीतिक माइलेज लेने के लिए किसान आंदोलन में हर दिन जाकर फोटो खिंचवाया जा रहा है, लेकिन संसद सत्र नहीं होगा। जो नेता रोज सैकड़ों अंजान लोगों से मिल रहे हैं, भीड़ का सामना कर रहे हैं। चुनाव के दौरान हजारों अंजान कार्यकर्ताओं के बीच से गुजर रहे हैं, वो 550 सांसदों के साथ बैठना नहीं चाहते हैं। यह तब है जब कांग्रेस पार्टी चाहती थी कि संसद सत्र बुलाया जाए और किसानों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कर कृषि कानून में संशोधन किया जा सके। लेकिन किसान आंदोलन को दबाने और उलझाने में जुटी और हर सवाल से भागने की आदि हो चुकी केंद्र सरकार ने सत्र को टाल दिया है।

देश का अन्नदाता सड़कों पर है। कड़ाके की ठंड के बावजूद किसान कृषि बिल के विरोध में डटे हुए हैं। इस बीच किसानों की मौत की खबरें आनी शुरू हो गई है। किसानों के आंदोलन को देश भर में समर्थन मिल रहा है। देश का आमजन कह रहा है कि सरकार को किसानों की बात सुननी चाहिए। लेकिन दूसरी ओर सरकार के मंत्री तक किसानों को कभी आतंकवादी, कभी खालिस्तानी, कभी विदेशी ताकतों का मोहरा तो कभी टुकड़े गैंग का सदस्य तक कह रहे हैं। भाजपा के शासन वाले मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री कमल पटेल ने तो किसानों को कुकुरमुत्ता तक कह डाला। नया घटनाक्रम यह है कि देश के विभिन्न जगहों से उन किसान संगठनों से सरकार को समर्थन दिलवाया जा रहा है, उनके साथ फोटो खिंचवाई जा रही है, जिनका कोई नाम तक नहीं जानता था।

कुल मिलाकर सरकार ने ठान लिया है कि उन्हें किसानों की मांगों को नहीं मानना है। सरकार के सरगना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को कह रहे हैं कि कृषि कानून उनके हित के लिए है, लेकिन सवाल यह है कि अगर ऐसा है तो मोदी और उनकी सरकार किसानों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम क्यों हैं? इस बिल से किसानों का ऐसा कौन सा फायदा है, जो सरकार को तो दिख रहा है लेकिन किसानों को नहीं दिख रहा। आप किसी भी पेशे/ व्यवसाय की बात कर लिजिए, क्या यह संभव है कि उस पेशे/व्यवसाय में लगे लोगों को किसी नियम-कानून से फायदा हो और उन्हें समझ में नहीं आ रहा हो?

 थोड़ा पीछे चलिए, इसी सरकार ने कहा था कि पुराने नोटों को बंद कर नया नोट आने से कालाबजारी रुक जाएगी। इसका फायदा किसको हुआ, और नुकसान किसको, यह तो जनता के सामने आ चुका है, लेकिन नोटबंदी की लाइन में लगे जिन लोगों की जान चली गई वो देश का मध्यम वर्ग का आम आदमी था। अब जीएसटी पर आते हैं। कहा गया कि एक देश एक टैक्स होगा। लेकिन जीएसटी के बाद आप और हम जब भी खरीददारी करने गए हमें पहले से ज्यादा भुगतान करना पड़ा। व्यापारियों के बीच तो ‘कमल का फूल, बड़ी भूल’ नाम से कहावत खूब वायरल हुआ था। ऐसे ही अब कृषि बिल को लेकर सरकार कह रही है कि इससे किसानों का फायदा होगा।

यह सरकार अपने और अपने ‘हितैषियों’ के फायदे के लिए एक के बाद एक फैसले ले रही है और देश के बड़े वर्ग को राम नाम, धर्म और सांप्रदाय में उलझा कर रखे हुए हैं। और देश का वह सभ्य समाज जो खुद को ज्यादा पढ़ा लिखा और समझदार मानता है, वह इस झांसे में आकर कुछ भी समझने को तैयार नहीं है। लेकिन इस सरकार के पिछले वायदों और जुमलों को देखते हुए वह अन्नदाता उसके झांसे में आने से इंकार कर रहा है, जिसे सबसे भोला भाला माना जाता है।

 अगर इस आंदोलन के राजनैतिक रूप को देखें तो सड़क पर मौजूद ज्यादातर किसान पंजाब, राजस्थान और हरियाणा के हैं। पंजाब और राजस्थान में कांग्रेस सरकार है और भाजपा कृषि बिल के लिए हरियाणा को कुर्बान करने को तैयार दिख रही है, क्योंकि अगर उसे हरियाणा की कीमत पर अपने पूंजीपति मित्रों के हित को सहेजना हो, तो भी भाजपा पीछे हटती नहीं दिख रही है। लड़ाई लंबी चलेगी। सड़क पर किसान और संसद में विपक्ष इसको कैसे लड़ेगा, इसकी सफलता और असफलता इसी पर निर्भर है। फिलहाल तो सरकार ने शीतकालीन सत्र को रद्द कर सवालों से भागने की अपनी परंपरा को कायम रखा है।

 

एम्स में हड़ताल पर नर्सिंग स्टॉफ, सरकार और एम्स प्रशासन के खिलाफ खोला मोर्चा

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देश के सबसे बड़े अस्पताल दिल्ली के एम्स का नर्सिंग स्टॉफ अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चला गया है। दरअसल नर्स युनियन ने सरकार और एम्स प्रशासन के सामने वेतन बढ़ोतरी समेत अन्य मांगे रखी थी। एक महीने पहले रखी गई  मांगों पर कोई साकारात्मक जवाब नहीं मिलने के बाद नर्सिंग स्टॉफ हड़ताल पर चला गया है। एम्स नर्सिंग युनियन का कहना है कि सरकार और एम्स प्रशासन हमारी मांग नहीं मान रहा है, ऐसे में हमारे पास और कोई चारा नहीं था। नर्सिंग यूनियन का यह भी आरोप है कि AIIMS प्रशासन उनसे बात करने को भी तैयार नहीं है। मामले को सुलझाने की बजाय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कड़ा रुख अपनाया है। मंत्रालय का कहना है कि हाईकोर्ट का आदेश नहीं मानने वालों पर कार्रवाई होगी। तो दूसरी ओर एम्स प्रशासन ने संविदा यानी कांट्रैक्ट पर नर्सों की भर्ती शुरू कर दी है और इसके लिए अखबारों में विज्ञापन दे दिया गया है। एम्स नर्सिंग यूनियन (AIIMS Nursing Union) के अध्यक्ष हरीश कुमार काजला ने चेतावनी दी है कि जब तक उनकी मांगें मानी नहीं जाएंगी, तब तक हड़ताल जारी रहेगी। नर्सों के हड़ताल पर जाने से डॉक्टरों और मरीजों की परेशानी भी बढ़ गई है और देश के सबसे बड़े अस्पताल में स्वास्थ्य सुविधाएं चरमराने लगी है। लेकिन एम्स प्रशासन ने जिस तरह कड़ा रुख अपनाया है, उससे साफ है कि बीच में मुश्किलों का सामना सिर्फ मरीजों को ही करना पड़ेगा।

यूपी में AAP का बड़ा राजनैतिक फैसला, दलित नेता राजेंद्र पाल गौतम को बड़ी जिम्मेदारी

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आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने कदम बढ़ाने लगी है। पहले हाथरस मामले में संजय सिंह को आगे कर पार्टी ने आक्रामक रुख दिखाया तो अब पार्टी पंचायत चुनाव में उतरने जा रही है। पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने इसका ऐलान करते हुए अपनी रणनीति भी साफ कर दी।

केजरीवाल ने कहा, ‘यूपी के लोग दिल्ली क्यों आ रहे हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि वहां सुविधाएं नहीं हैं। अगर दिल्ली में सुविधाएं तैयार की जा सकती है तो UP में ऐसा क्यों नहीं हो सकता है। UP में अब तक गंदी राजनीति देखी है। ऐसे में अब उसे नया मौका मिलना चाहिए।’

दरअसल आम आदमी पार्टी 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव में उतरने जा रही है। पंचायत चुनाव के बहाने पार्टी प्रदेश में अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश कर रही है। साथ ही जमीन पर पार्टी कितनी मजबूत है, और अब तक प्रदेश में कितने कार्यकर्ताओं को जोर पाई है, यह उसे यह भी देखना है।

 यूपी में केजरीवाल अपनी पार्टी के दलित नेताओं के भरोसे आगे बढ़ रहे हैं। इसके लिए दलित समाज से आने वाले मंत्री राजेंद्र पाल गौतम को चुनाव प्रभारी बनाया गया है। जबकि डिप्टी स्पीकर राखी बिड़ला और विधायक सुरेंद्र कुमार को सह प्रभारी बनाया गया है। राजेंद्र पाल ने 65 जिलों में प्रभारियों की नियुक्ति भी कर दी है। बाकी के जिलों में भी प्रभारी जल्द नियुक्त होंगे। गौरतलब है कि राजेंद्र पाल गौतम की गिनती तेज तर्रार नेता के तौर पर होती है। वह दिल्ली की सीमापुरी से लगातार दूसरी बार विधायक बने। दिल्ली सरकार में उनके जिम्मे सामाजिक न्याय मंत्रालय की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।

ज्योतिबा फुले से हिन्दी जगत का परिचय कराने वाले बौद्ध विद्वान डॉ. विमलकीर्ति नहीं रहें

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वरिष्ठ बौद्ध साहित्यकार और चिंतक डॉ. (प्रो.) विमलकीर्ति नहीं रहें। 71 साल (जन्मतिथिः 5 फरवरी, 1949) की उम्र में उनका परिनिर्वाण आज 14 दिसंबर को हो गया। वह नागपुर युनिवर्सिटी में पालि और बौद्ध विभाग के प्रोफेसर थे। बौद्ध धर्म दर्शन और पालि भाषा पर उनका अधिकार था। पालि भाषा शब्दकोष पर उन्होंने काम किया। साथ ही सामाजिक विषयों पर भी काम किया। वो बड़े चिंतक थे और तमाम विषयों पर उन्होंने अपनी अहम राय समाज के बीच रखी और समाज का मार्गदर्शन किया। महामना ज्योतिबा फुले के साहित्य को हिन्दी में पहली बार उन्होंने ही अनुवाद किया और प्रकाशित करवाया। जिससे उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्रों में लाखों-करोड़ों लोग ज्योतिबा फुले के सामाजिक योगदान को जान सकें। उनकी नवीनतम पुस्तक थी ब्राह्मण संस्कृति बनाम श्रमण संस्कृति

वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम ने प्रो. विमलकीर्ति जी को श्रद्धांजलि दी है। उनको याद करते हुए कर्दम जी ने कहा कि विमलकीर्ति जी के साथ पिछले 20 सालों से रिश्ता था। अनेक आयोजनों में हम एक साथ रहे। बौद्ध साहित्य और पालि भाषा में दिया गया उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकेगा। शांति स्वरूप बौद्ध के बाद विमलकीर्ति जी का जाना बौद्ध आंदोलन और बौद्ध साहित्य के लिए बहुत बड़ी क्षति है।

Video- वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम ने प्रो. विमलकीर्ति को किया याद

बिरसा मुंडा ट्राइबल युनिवर्सिटी को मिला कुलपति

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आखिरकार लंबे इंतजार के बाद गुजरात सरकार ने डॉ. मधुकर पदवी को बिरसा मुंडा ट्राइबल युनिवर्सिटी, राजपिपला का कुलपति नियुक्त किया है। यह नियुक्ति युनिवर्सिटी के निर्माण के तीन साल बाद हुई है। डॉ. पदवी का संबंध गुजरात के आदिवासी समुदाय से है। गुजरात सरकार ने तीन वर्ष पहले यानी 2017 में बिरसा मुंडा ट्राइबल युनिवर्सिटी की स्थापना की थी, तभी से यह पद खाली था।

विद्यार्थियों की बात करें तो वर्तमान में यहां स्नातक पाठ्यक्रमों के कुल 469 छात्र व छात्राएं अध्ययनरत है। अपना परिसर नहीं होने के चलते यह विश्वविद्यालय वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर के परिसर में चलाया जा रहा है। गौरतलब है कि मध्य प्रदेश के अमरकंटक में स्थापित इंदिरा गांधी ट्राइबल युनिवर्सिटी देश का पहला केंद्रीय ट्राइबल यूनिवर्सिटी है। वर्तमान में इसके कुलपति प्रो. प्रकाश मणि त्रिपाठी हैं। राजस्थान के बांसवाड़ा में मानगढ़ आंदोलन के प्रणेता गोविंदगुरू ट्राइबल युनिवर्सिटी के कुलपति आई. वी. त्रिवेदी हैं। वहीं केंद्रीय आदिवासी विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के कुलपति प्रो. टी. वी. कटिमनी हैं।A