कौन और किस आधार पर कहता है कि वर्ण व्यवस्था आधारित बंटवार टूटा है? देखिए तथ्य क्या कह रहे हैं?

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 आज भी भारतीय समाज में आर्थिक संसाधनों, निर्णायक पदों पर नियंत्रण और सामाजिक हैसियत वर्ण-जाति व्यवस्था पर ही आधारित है और राजनीति और प्रशासन पर भी उच्च जातियों का नियंत्रण है। इसे निम्न तथ्यों के आलोक में देख सकते हैं। आइए तथ्यों की रोशनी में वर्ण-जाति आधारित असमानता के श्रेणीक्रम को देखते हैं।

राजनीति
सबसे पहले देश की संसद को लेते हैं। संसद देश का सर्वोच्च निकाय ही नहीं, सबसे ताकतवर संस्था है, क्योंकि उसे ही संविधान में संशोधन करने एवं कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यह जनता के प्रतिनिधियों की सर्वोच्च निकाय है, जिस जनता में भारत की संप्रभुता निहित है। देखते हैं इसमें किसका कितना प्रतिनिधित्व है। वर्तमान लोकसभा (2019) में चुनकर आए कुल 543 सांसदों में 120 ओबीसी, 86 अनुसूचित जाति और 52 अनुसूचित जनजाति के हैं और हिंदू सवर्ण जाति से जीतकर आए सांसदों की संख्या 232 है। आनुपातिक तौर देखें, तो ओबीसी का लोकसभा में अनुपात 22.09 प्रतिशत है, जबकि मंडल कमीशन और अन्य आंकड़ों के अनुसार आबादी में इनका अनुपात 52 प्रतिशत है।

आबादी में करीब 21 प्रतिशत के बीच हिस्सेदारी रखने वाले सवर्णों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी करीब दो गुना 42.7 प्रतिशत है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को उनकी आबादी के अनुपात से थोड़ा अधिक ही लोकसभा में प्रतिनिधित्व प्राप्त है। आखिर 52 प्रतिशत ओबीसी को अपने आबादी के अनुपात से आधे से भी कम और सवर्णों को उनकी आबादी से दो गुना प्रतिनिधित्व क्यों मिला हुआ है। इसका सीधा कारण है, भारतीय समाज में उच्च जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कुछ अन्य) का वर्ण-जाति आधारित वर्चस्व। एससी-एसटी को उनकी आबादी के अनुपात में लोकसभा में इसलिए प्रतिनिधित्व मिला हुआ है, क्योंकि उनके लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण है। इस बात की पूरी संभावना है कि यदि एससी-एसटी के लिए आरक्षण नहीं होता,तो उनका लोकसभा में प्रतिनिधित्व ओबीसी से भी बहुत कम होता और ओबीसी के लिए उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं, क्योंकि उन्हें आबादी के अनुपात में लोकसभा में आरक्षण प्राप्त नहीं है।

नौकरशाही
अब इसे नौकरशाही के संदर्भ में देखिए। भले ही संसद विधान बनाती हो, लेकिन नौकरशाही नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन के मामले में सबसे निर्णायक संस्था है। उसमें विभिन्न मंत्रालयों के सचिव से सबसे निर्णायक होते हैं। 2019 में पीएमओ साहित केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में कुल 89 शीर्ष आईएएस अधिकारियों (सचिवों) में एक भी ओबीसी समुदाय से नहीं था और इनमें केवल एक एससी और 3 एसटी समुदाय के थे। क्योंकि इन पदों पर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं है। अब जरा विस्तार से केंद्रीय नौकरशाही को देखते हैं।
1 जनवरी 2016 को केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि ग्रुप-ए के कुल पदों 84 हजार 521 में से 57 हजार 202 सामान्य वर्गों (उच्च जातियों) का कब्जा था यानि कुल नौकरियों के 66.67 प्रतिशत पर 21 प्रतिशत सवर्णों का नियंत्रण था। इसमें सबसे बदत्तर स्थिति 52 प्रतिशत आबादी वाले ओबीसी की थी। इस वर्ग के पास ग्रुप-ए के सिर्फ 13.1 प्रतिशत पद थे यानि आबादी सिर्फ एक तिहाई, जबकि उच्च जातियों के पास आबादी से ढाई गुना पद थे। कमोवेश यही स्थिति ग्रुप-बी पदों के संदर्भ में भी थी। ग्रुप बी के कुल पदों के 61 प्रतिशत दों पर सवर्ण काबिज थे।

उच्च शिक्षा
यही स्थिति विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के शिक्षक पदों पर थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की वार्षिक रिपोर्ट (2016-17) के अनुसार 30 केंद्रीय विश्वविद्यालय 82 राज्यों के विश्वविद्यालय (सरकारी) में प्रोफेसरों के कुल 31 हजार 446 पदों में सिर्फ 9 हजार 130 पदों पर ही ओबीसी, एससी-एसटी के शिक्षक है यानि सिर्फ 29.03 प्रतिशत। यहां 52 प्रतिशत ओबीसी की हिस्सेदारी बहुत ही कम है।

कुलपति
अब जरा कुछ उन निर्णायक पदों को देखते, जहां किसी समुदाय के लिए कोई आरक्षण नहीं। ऐसा ही एक पद विश्वविद्यलय के कुलपतियों का है। उच्च शिक्षा व्यवस्था में कुलपति सबसे निर्णायक होता है, विशेषकर नियुक्ति एवं पदोन्नति के मामले में। 5 जनवरी 2018 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा दी गई सूचना के अनुसार देश के (उस समय के) 496 कुलपतियों में 6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी समुदाय के थे। यानि उच्च जातियों के 90.33 प्रतिशत और ओबीसी 7.23 प्रतिशत, एसी 1.2 प्रतिशत और एसटी 1.2 प्रतिशत। यहां ओबीसी को अपनी आबादी का करीब आठवां हिस्सा प्राप्त है और एससी-एसटी को न्यूनतम से न्यूनतम, क्योंकि उनके लिए भी यहां आरक्षण का प्रावधान नहीं है। इसके पहले हम केंद्र सरकार के 89 सचिवों में एक के भी ओबीसी नहीं होने के तथ्य को देख चुके हैं, क्योंकि वहां भी आरक्षण नहीं है।

संपत्ति-संपदा
ओबीसी समुदाय के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के बहुत सारे अन्य तथ्य उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय संपदा में हिस्सेदारी के मामले में देखें तो पाते हैं कि (2013 के आंकड़े) कुल संपदा में ओबीसी की हिस्सेदारी सिर्फ 31 प्रतिशत है, जबकि उच्च जातियों की हिस्सदारी 45 प्रतिशत है, दलितों की हिस्सेदारी अत्यन्त कम सिर्फ 7 प्रतिशत है, क्योंकि वे वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम में सबसे नीचे हैं। कुल भूसंपदा का 41 प्रतिशत उच्च जातियों के पास है, ओबीसी का हिस्सा 35 प्रतिशत है और एससी के पास 7 प्रतिशत है। भवन संपदा का 53 प्रतिश सवर्णों के पास है, ओबीसी के पास 23 प्रतिशत और एसीसी के पास 7 प्रतिशत है। वित्तीय संपदा (शेयर और डिपाजिट) का 48 प्रतिशत उच्च जातियों के पास है, ओबीसी के पास 26 प्रतिशत और एससी के पास 8 प्रतिशत। भारत में प्रति परिवार औसत 15 लाख रूपया है, लेकिन सवर्ण परिवारों के संदर्भ में यह औसत 29 लाख रूपया है, ओबीसी के संदर्भ में 13 लाख और एससी के संदर्भ में 6 लाख रूपया है यानि उच्च जातियों की प्रति परिवार औसत संपदा ओबीसी से दो गुना से अधिक है। (सुखदेव थोराट)

मीडिया
एक नजर भारतीय समाज की सोच के नियंत्रित करने वाली मीडिया पर डालते हैं। गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम व न्यूजलॉन्ड्री नामक मीडिया संस्थान ने एक 2018 में सर्वे जारी किया। इसके मुताबिक मीडिया के सभी स्वरूपों फिर चाहे वे अखबार हों या न्यूज चैनल या फिर ऑनलाइन न्यूज पोर्टल सभी में वंचितों की हिस्सेदारी नगण्य है। “हू टेल्स अवर स्टोरीज़ मैटर्स: रिप्रेजेंटेशन ऑफ मार्जिनलाइज़्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन न्यूज़रूम्स” नाम की यह रिपोर्ट बताती है कि भारतीय मीडिया के तमाम न्यूज़रुम वंचितों की आवाज़ से वंचित हैं। यानि यहां काम करने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जिनके अपने सरोकार हैं। अपने अध्ययन में ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री ने पाया है कि भारतीय मीडिया में अनुसूचित जनजाति के लोग नज़र ही नहीं आते, जबकि अनुसूचित जातियों के लोगों का प्रतिनिधित्व भी बतौर पत्रकार न के बराबर है।
अपनी इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री ने अंग्रेज़ी के 6 और हिंदी के 7 अख़बारों का अध्ययन किया। इसके अलावा डिजिटल मीडिया से जुड़े 11 संस्थानों, 12 समाचार पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से ब्यौरा जुटाया। साथ ही अंग्रेज़ी के 7 और हिंदी के 7 प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित कार्यक्रमों में शामिल होने वाले रिपोर्टर, लेखक और पैनलिस्टों का ब्यौरा जुटाया। इसके बाद जो नतीजे सामने आए वे चौंकाने वाले थे।

न्यायपालिका
न्यायपालिका पर सवर्णों के पूर्ण वर्चस्व से हम सब वाकिफ हैं। 90 प्रतिशत जज सर्वण, उनमें से अधिकांश ब्राह्मण और कुछ परिवारों के ( उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय)।

मैंने यहां सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व और वर्ण-जाति आधारित भेद-भाव और हिंसा- बलात्कार का आंकड़ा नहीं देर रहा हूं। वह जगजाहिर है। पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री और दलित समाज के राष्ट्रपति की भूमिका राम की सेना के हनुमान और जामवंत की है। मेरा सवाल  है कि आखिर कौन और किस आधार पर कहता है कि वर्ण व्यवस्था आधारित बंटवार टूटा है?

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