भारत की महान बौद्ध विरासत बार-बार सामने आती रहती है। बौद्ध धर्म भारत का पहला वैश्विक धर्म रहा है जिसने भारत में सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान का विकास किया था। इस बात के सबूत पत्थरों की मूर्तियों, शिलालेखों और अन्य प्राचीन साहित्यिक रिकार्ड्स में देखने को मिलते हैं। भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के कई सदियों बाद ब्राह्मण धर्म का भारत में व्यापक प्रसार हुआ। ब्राह्मण धर्म द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण के बाद भारत में श्रमण बौद्ध एवं श्रमण जैन धर्म का पतन हुआ। इसके बाद भारत के श्रमण धर्मों की भाषा और साहित्य को ब्राह्मणों द्वारा बदल दिया गया। लेकिन चूंकि श्रमणों की पत्थर की मूर्तियाँ, शिलालेख, मंदिर एवं मठ पूरी तरह से मिटाए नहीं जा सके। इसीलिए में जब भी कोई पुरातात्विक खोज होती है तब तब भारत की महान बौद्ध विरासत की पूंजी धरती और इतिहास का सीना चीरकर निकाल आती है।
हाल ही में झारखंड में हजारीबाग़ जिले के एक पहाड़ी इलाके में एक गाँव में एक बौद्ध मठ का पता चला है। इससे भारत में नागरी और देवनागी लिपि के जन्म और विकास के बारे में एक नई जानकारी सामने आई है। इस खोज से पता चलता है कि नागरी एवं देवनागरी लिपि का संबंध बौद्ध धर्म से है। इस गाँव में एक पुराने टीले के नीचे दबे 900 साल पुराने बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं। इसके दो महीने पहले इसी जगह से लगभग 100 मीटर की दूरी पर एक अन्य बौद्ध मंदिर की खोज हुई थी। इस तरह दो मेहीने के भीतर इस गाँव में यह दूसरी बड़ी खोज है। पूरे भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक इस तरह की खोजें हो रही हैं।
पिछले साल 2020 में भी खुदाई के दौरान इसी इलाके में चार-पांच शब्दों की एक स्क्रिप्ट मिली थी। इस ऐतिहासिक पांडुलिपि को समझने के लिए इसका सैंपल पैलियोग्राफिक डेटिंग के लिए मैसूर भेजा गया था। वहाँ यह पता चला था कि यह एक नागरी लिपि में लिखी गई पंक्तियाँ है जो कि 10 वीं से 12 वीं सदी की हैं। यह नागरी लिपि असल में आज मौजूद देवनागरी लिपि का की माँ है। इससे पता चलता है कि नागरी और देवनागरी दोनों बौद्ध धर्म से जुड़ी हुई हैं। हजारीबाग़ में अभी जो भगवती तारा की मूर्ति मिली है उसपर भी नागरी लिपि अंकित है। इससे पुनः स्पष्ट होता है कि आज की देवनागरी लिपि असल में बौद्धों द्वारा विकसित की गई नागरी लिपि से जन्मी है।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक असल में भारत का चप्पा चप्पा बौद्ध विरासत से भरा हुआ है। जहां कहीं भी ऐतिहासिक, व्यापारिक या धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण कोई नगर या स्थान मिलता है तो उसका संबंध बौद्ध धर्म और परंपरा से निकाल ही आता है। ठीक यही खोजें अयोध्या और मथुरा से भी आ रही हैं। हाल ही में अयोध्या में खुदाई के दौरान बौद्ध अवशेष मिले थे और इसके पहले भी बीते कई दशकों में केवल मथुरा इलाके में पाँच हजार छोटी बड़ी बुद्ध की मूर्तियाँ मिलीं हैं। इस तरह आज नजर आने वाले सभी मंदिर या तीर्थ स्थल असल में बौद्ध स्थल रहे हैं।
इसी कड़ी में पिछले दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पटना शाखा इस स्थान पर खुदाई कर रही थी। इस टीम ने जिला मुख्यालय हजारीबाग से करीब 12 किमी दूर सीतागढ़ी पहाड़ियों के जुलजुल पहाड़ के पास बुरहानी गांव खुदाई की। इस खुदाई में बौद्ध देवी तारा और भगवान बुद्ध की दस पत्थर की मूर्तियाँ मिलीं हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों ने कहा है कि, 25 फरवरी को उन्हें एक मूर्ति मिली जो शैव देवी महेश्वरी की तरह नजर आती है। इस मूर्ति में एक कुंडलित मुकुट और चक्र साथ साथ नजर आते हैं।
इसके बारे में अनुमान लगाया जा रहा है कि यह असल में प्राचीन बौद्ध देवी भगवती तारा को बाद में वैदिक ब्राह्मण धर्म द्वारा महेश्वरी बनाकर अपने धर्म में मिला लिए जाने का संकेत है। यह कोई नई बात नहीं है, इसी तरह पूरे भारत में बौद्ध देवी देवताओं को ही नहीं बल्कि भगवान बुद्ध की मूर्तियों को भी थोड़ी तोड़ फोड़ करके रूप रंग बदलकर दूसरे धर्म के देवी देवता बना दिया जाता है। पूरे भारत में ऐसे लाखों मूर्तियाँ हैं जो मूल रूप से भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ हैं लेकिन उन्हे किसी अन्य देवी या देवता की मूर्ति की तरह दिखाया जाता है।
पुरातत्वविदों ने कहा कि यह निष्कर्ष महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मठ सारनाथ से 10 किमी दूर वाराणसी के पुराने मार्ग पर स्थित है। इस क्षेत्र में भगवान बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन दिया था जिसे कि धम्म चक्र प्रवर्तन कहा जाता है। पुरातत्वविदों का कहना है कि बौद्ध देवता तारा की मूर्तियों की उपस्थिति इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म की एक ताकतवर शाखा वज्रयान की मौजूदगी का संकेत देती है। इस बात कि संभावना है कि यहाँ पर वज्रयान का प्रसार हुआ हो। यहाँ यह भी नोट करना चाहिए कि झारखंड, ओरिसा, बंगाल, आसाम आदि में वज्रयान एक शक्तिशाली बौद्ध संप्रदाय था जिसमें देवियों की आराधना पर जोर दिया जाता था। इस संप्रदाय में भगवान बुद्ध के स्त्री रूप तारा को सर्वोच्च ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।
कई विद्वान कहते हैं कि इसी वज्रयान से ब्राह्मण धर्म के तंत्र एवं तांत्रिक संप्रदायों का जन्म हुआ है। इस प्रकार कई सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि योग का जन्म बौद्ध योगाचार संप्रदाय में एवं तंत्र का जन्म वजरायां संप्रदाय में हुआ है। झारखंड के हजारीबाग़ में मिले बौद्ध मंदिर और बौद्ध मठ के प्रमाण बहुत गहराई से यह सिद्ध कर रहे हैं कि भारत के इतिहास को बौद्ध इतिहास की तरह देखा चाहिए। पुरातत्व विभाग पटना के पुरातत्वविद् नीरज कुमार मिश्र ने बताया कि पिछले साल दिसंबर में उन्हें जुलजुल पहाड़ के पूर्वी हिस्से में एक कृषि भूमि के पास तीन कमरों के साथ एक बौद्ध मंदिर मिला था।
यहाँ पर मिले केंद्रीय मंदिर में तारा की मूर्ति थी और दो अन्य धार्मिक स्थलों में बुद्ध की मूर्ति स्थापित थी। उन्होंने कहा, “पहले, संदर्भ स्पष्ट नहीं था, उनका ध्यान फिर दूसरे टीले पर चला गया और 31 जनवरी को खुदाई शुरू कर दी गई । मिश्रा ने कहा, “हमने जुलजुल पहाड़ तलहटी के पास एक टीले पर ध्यान केंद्रित किया जहां हमें एक बौद्ध मठ और उसके साथ एक मंदिर के अवशेष मिले जहां किनारों पर कमरा बना है और साथ ही एक खुला आंगन भी नजर आता है। इस स्थान पर वरद मुद्रा में बौद्ध देवी तारा की चार मूर्तियां और भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की छह मूर्तियां मिलीं हैं। ये मुद्रा भगवान बुद्ध के ज्ञान का प्रतीक मानी जाती है जिसमें कि पृथ्वी की ओर दाहिने हाथ की पांच उंगलिया नजर आती हैं।
यह एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष है क्योंकि देवी तारा की मूर्तियों का मतलब है कि यह बौद्ध धर्म के वज्रयाना संप्रदाय का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। वज्रयान तांत्रिक बौद्ध धर्म का एक रूप है, जो भारत में 6 वीं से 11 वीं शताब्दी तक फला-फूला। मिश्रा ने कहा कि पुरातत्व विभाग ने अभी तक इन संरचनाओं की वैज्ञानिक कार्बन डेटिंग नहीं की है, लेकिन यह पहले के निष्कर्षों के आधार पर यह पाल राजवंश के समय के अवशेष नजर आते हैं।
ये सभी बातें भारत में बहुजनों के लिए विशेष रूप से महत्व रखती हैं। बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर ने अपनी जीवन भर की खोज के आधार पर सिद्ध किया था कि भारत का इतिहास असल में बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के संघर्ष का इतिहास मात्र है। प्राचीन काल में जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था तब असल में वह बौद्ध भारत था। इसी दौरान तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशीला इत्यादि शिक्षा केंद्रों कि शुरुआत हुई थी और भारत इस दौर में विषवगुरु बना था। उस बौद्ध भारत में दुनिया भर से लोग शिक्षा और ज्ञान हासिल करने आते थे। चीन, यूनान, और अरब से भारत आकार बौद्ध धर्म की शिक्षा लेने वाले यात्रियों की कहानियाँ दुनिया भर में मशहूर हैं।
आज हमारे बहुजन भाई बहनों को, विशेष रूप से ओबीसी और अनुसूचित जाति के लोगों को अपनी बौद्ध विरासत को पहचानकर भगवान बुद्ध के शांति और भाईचारे के संदेश को अपनाना चाहिए। इस तरह अगर हम अपनी वास्तविक भारतीय विरासत को अंगीकार करते हैं तो यह भविष्य में एक सुखी, समृद्ध और शांतिपूर्ण भारत के निर्माण की दिशा में एक आश्वासन होगा।
आभार TheIndianEXPRESS

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
