आए दिन देश-दुनिया से जुड़े तमाम मामलों पर अपनी राय जाहिर करने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने कोरोना से निपटने को लेकर एक आईडिया दिया है। कोरोना को मात देने के लिए बसपा सुप्रीमों ने ऐसा आइडिया दिया है, जिसे अगर सरकारें मान लें और देश सामने आ जाए तो उससे निपटने में जरूर मदद मिल सकती है। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और देश की कद्दावर नेता सुश्री मायावती ने कोविड-19 का टीका लगाए जाने की मुहिम में सभी सरकारों से दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सामने आने की अपील की। साथ ही उन्होंने पूंजीपतियों से अभियान में आर्थिक सहयोग देने की भी अपील की है।
बसपा प्रमुख ने शनिवार को अपने ट्वीट में कहा, “देश में 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाए जाने के आज (एक मई) से प्रारंभ हुए कार्यक्रम को सभी सरकारें दलगत राजनीति एवं स्वार्थ से ऊपर उठकर पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी के साथ सफल बनाने के लिए खुलकर सामने आऐं। ”उन्होंने कहा कि देश और आम जनता की इन दलों से यही अपेक्षा है।
पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, “ इस कोरोना वैक्सीन कार्यक्रम में देश के बड़े-बड़े पूंजीपतियों को भी बढ़-चढ़कर जरूर भाग लेना चाहिए तथा उसी प्रकार की उदारता के साथ इनको केन्द्र व राज्य सरकारों की मदद करनी चाहिए जिस प्रकार वे चुनावी बॉण्ड आदि के माध्यम से पार्टियों को चंदा देते हैं।” बहन मायावती ने विदेशी मदद की पेशकशों की भी सराहना की।
2.इस कोरोना वैक्सीन प्रोग्राम में देश के बड़े-बड़े पूंजीपतियों व धन्नासेठों आदि को भी काफी बढ़-चढ़कर जरूर भाग लेना चाहिए तथा उसी प्रकार की उदारता के साथ इनको केन्द्र व राज्य सरकारों की मदद करनी चाहिए जिस प्रकार वे ’चुनावी बाण्ड’ आदि के माध्यम से पार्टियों को फण्डिंग करते रहे हैं।
इस मुद्दे पर अपने एक-के-बाद एक ट्वीट में मायावती ने कहा,“देश में कोरोना प्रकोप की बेकाबू होती जा रही स्थिति के परिणामस्वरूप वर्षों बाद विदेश से अनुदान एवं चिकित्सीय आपूर्ति लेने को लेकर किए गए भारत के नीतिगत परिवर्तन के बाद जो भी देश भारत की मदद को आगे आ रहे हैं, वह सराहनीय है।
दरअसल कोरोना संकट से हर कोई हलकान है। ऐसे में इससे निपटने के लिए एक मजबूत साझेदारी के साथ लड़ाई की जरूरत है। साफ है कि देश की सरकारें, चिकित्सा व्यवस्था में लगे लोग और देश के पूंजीपति अगर एक साथ मिलकर कोरोना के खिलाफ जंग छेड़ दे तभी हालात को काबू में किया जा सकता है।
पंजाब के शिरोमणी अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के बीच राजनीतिक गठबंधन होने की संभावना जताई जा रही है। शिरोमणी अकाली दल और कांग्रेस के बीच चल रही खटपट के बीच शिरोमणि अकाली दल के नेताओं ने बहुजन समाज पार्टी से संपर्क किया है। दोनों दलों ने फिलहाल गठबंधन को लेकर साकारात्मक रुख दिखाया है, हालांकि आखिरी फैसला बसपा प्रमुख का होगा। बीते कुछ सालों में यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पंजाब की राजनीति में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिल सकता है। ऐसी स्थिति में बहुदलीय गठबंधन चुनावी विजय के लिए आवश्यक होता जा रहा है। खबर है कि हाल ही में दोनों दलों के उच्च स्तरीय नेताओं के बीच रणनीतिक चर्चा हुई है और इस विषय में अंतिम निर्णय सुश्री मायावती द्वारा लिया जाएगा।
गौरतलब है कि सन 1989 में बीएसपी ने जब सिमरनजीत सिंह मान के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन किया था तब पंजाब में बीएसपी का पहला सांसद चुना गया था। यह बहुजन समाज पार्टी के लिए पहली सफलता थी। इसके बाद सन् 1996 में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाले अकाली दल के साथ गठबंधन द्वारा बीएसपी के तीन सांसद चुने गए थे। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल एवं बहुजन समाज पार्टी दोनों की अपने-अपने इलाकों में अपनी खास ताकत है। शिरोमणि अकाली दल ने पिछले कुछ दशकों में पंजाब के दलितों में भी पैठ बनाई है। शिरोमणि अकाली दल के दोआबा क्षेत्र के चार विधायकों में से तीन विधायक आरक्षित क्षेत्र से आते हैं।
उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी बसपा प्रमुख सुश्री मायावती प्रदेश में कर्मचारियों की कोरोना से मौत को लेकर काफी चिंतित हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य सरकार से शुक्रवार को मांग की कि वह उन सरकारी कर्मियों के आश्रितों को नौकरी एवं आर्थिक मदद मुहैया कराए, जिनकी पंचायत चुनाव में तैनाती के दौरान कोरोना वायरस से संक्रमित होने के कारण मौत हो गई। मायावती ने उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया, ”कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के चलते यदि उत्तर प्रदेश सरकार पंचायत चुनाव टाल देती, अर्थात उन्हें थोड़ा आगे बढ़ा देती, तो यह उचित होता और चुनाव ड्यूटी में लगे कई कर्मचारियों की मौत नहीं होती। इन कमियों की मौत होना अत्यंत दुःखद है।”
1. कोरोना के बढ़ते प्रकोप के चलते यदि यू.पी. सरकार पंचायत चुनाव टाल देती, अर्थात् थोड़ा आगे बढ़ा देती तो यह उचित होता और फिर चुनाव डयूटी में लगे काफी कर्मचारियों की मृत्यु नहीं होती, जो अति-दुःखद। 1/2
मायावती ने मांग की कि राज्य सरकार उन सरकारी कर्मियों के आश्रितों को नौकरी एवं आर्थिक मदद मुहैया कराए, जिनकी पंचायत चुनाव में तैनाती के दौरान कोरोना वायरस से संक्रमित होने के कारण मौत हो गई।
2. यू.पी. सरकार ऐसे सभी मृतक कर्मचारियों के आश्रित परिवार को उचित आर्थिक मदद करने के साथ ही उनके एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी जरूर दे, बी.एस.पी. की यह माँग। 2/2
उन्होंने कहा, ”इसके साथ ही, अब कोरोना वायरस प्रकोप के गांव-देहात में भी काफी फैलने की आशंका है। ऐसी स्थिति में बसपा की सलाह है कि उत्तर प्रदेश सरकार शहरों के साथ-साथ देहात में भी कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए जरूरी कदम उठाए।”
गौरतलब है कि मायावती लगातार पंचायत चुनाव को टालने की मांग करती रही हैं। लेकिन सरकार ने हर किसी की मांग को ताक पर रख कर जिस तरह पंचायत चुनाव कराया, उससे कर्मचारियों में काफी रोष है। पूरे प्रदेश से लगातार कर्मचारियों की मृत्यु की खबरें आ रही है। ऐसे में बड़ा सवाल उनके आश्रितों का है कि आखिर अब उनका भरण-पोषण कैसे हो पाएगा।
केवल चुनावी राजनीति से देश नहीं चलता है। देश सिस्टम से, जिम्मेदारी से व जवाबदेही से चलता है, जो कि बनाना पड़ता है। देश का दुर्भाग्य रहा है कि आजादी के बाद से ही सरकारों का जोर सिस्टम बनाने पर नहीं रहा, जिम्मेदारी लेने पर नहीं रहा और न ही जवाबदेही तय करने पर रहा। बड़ी से बड़ी आपदा आई, सरकारों ने सबक नहीं लिया। सरकारों ने कभी भी देश में पारदर्शी, समावेशी, जिम्मेदार व जवाबदेह सिस्टम बनाने की जहमत नहीं उठाई। देश में हमेशा चुनावी राजनीति हावी रही, जिसके लिए लोलुभावन वादे किए जाते रहे, जाति-धर्म-क्षेत्र के बंटवारे की सियासत होती रही, सत्तासीन दलों का समूचा ध्यान चुनाव जीतने के लिए फैसले पर रहने लगा।
चुनावी राजनीति दिनों-दिन इस कदर नीचे गिरती गई कि मतदाताओं को टीवी, फ्रीज, साड़ी, साइकिल, लैपटॉप, गेहूं-चावल, नकदी आदि फ्रीबिज ऑफर किए जाने लगे।… और सत्ता में आने पर सरकारों का फोकस इसी फ्रीबिज के बंदरबांट पर रहने लगा। इसका खामियाजा आज देश भुगत रहा है। देश में स्वास्थ्य व शिक्षा व्यवस्था का ढांचा मजबूत ही नहीं हो पाया। सड़क, रेल, बिजली, पानी, रोजगार जैसे मुद्दे गौण होते गए। आज जब देश कोरोना महामारी से गुजर रहा है, तो पता चल रहा है कि हमारी सरकारी स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह चरमराई हुई है। निजी स्वास्थ्य व्यवस्था किसी नैतिकता से संचालित नहीं है। सरकार का पूरा तंत्र संकट के समय कोविड मरीजों को आसानी से ऑक्सीजन तक उपलब्ध नहीं करा पा रहा है। ऑक्सीजन की कमी से सैंकड़ों लोगों की जान चली गई है।
यह भी देखें-https://www.youtube.com/watch?v=YgYA8zbpph0
देश में कोविड से नित हो रही मौतों से त्राहिमाम मचा हुआ है, लगातार बढ़ रहे संक्रमण से हर तरफ निराशा है, लोग डरे हुए हैं, बेबस हैं। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्टों को दखल देना पड़ा है। कोविड के नियंत्रण में विफलता व अस्पतालों की बदहाली से आहत सुप्रीम कोर्ट ने पहले केंद्र सरकार से नेशनल प्लान मांगा, सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी, तो शीर्ष कोर्ट ने कोविड-19 मामलों में बेतहाशा बढ़ोतरी को ‘राष्ट्रीय संकट’बताते हुए कहा कि वह ऐसी स्थितियों में मूक दर्शक बना नहीं रह सकता। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि राष्ट्रीय मुद्दों में हस्तक्षेप की जरूरत है, क्योंकि कुछ मामले राज्यों के बीच समन्वय से संबंधित हो सकते हैं। हम पूरक भूमिका निभा रहे हैं। कोविड मामले में सुप्रीम कोर्ट का स्वत: संज्ञान लेना बताता है कि देश की सरकारें ठीक से अपना काम नहीं कर रही हैं।
विदेशी मीडिया में कोविड नियंत्रण में भारत की लापरवाहियां सुर्खियों में हैं। हमारी सरकार को इसकी चिंता होनी चाहिए। कोविड महामारी के समय कुंभ का आयोजन, बड़ी-बड़ी चुनावी रैली, भीड़-भाड़ पर नियंत्रण नहीं, आवाजाही नियंत्रित नहीं आदि के चलते देश एक बार फिर संकट में घिर गया है। मद्रास हाईकोर्ट ने तो कोरोना की दूसरी तहर के लिए चुनाव आयोग को कसूरवार ठहरा दिया है। दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार व केंद्र की राजग सरकार को निशाने पर लिया है, सरकारों को ऑक्सीजन आपूर्ति दुरुस्त करने को कहा है। हाईकोर्ट ने ऑक्सीजन निर्माता कंपनियों को आईना दिखाया है कि संकट के समय गिद्ध जैसा बर्ताव ना करें। इससे पहले भी हाईकोर्ट ने ऑक्सीजन आपूर्ति में बाधा डालने वालों को लटकाने की सख्त टिप्पणी की थी। दरअसल, कोरोना के प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय नीति की जरूरत है, केवल बैठकों, निर्देशों व अपीलों से ठोस रिजल्ट नहीं आएगा। प्राथमिकता के स्तर पर देश की स्वास्थ्य सेवा में भी आमूल-चूल परिवर्तन लाना पड़ेगा।
कोरोना को लेकर फैली अव्यवस्था के बीच सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर स्वतः संज्ञान लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कोरोना महामारी के प्रबंधन से संबंधित ऑक्सीजन की कमी और अन्य मुद्दों के मामले में सुनवाई की। इस दौरान कोर्ट ने वैक्सीन के दाम, टीकों की उपलब्धता, ऑक्सीजन समेत कुछ मुद्दों पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा। तीन जजों की बेंच ने शुक्रवार तक सरकार से जवाब मांगा, साथ ही कहा कि वह इस मामले पर शुक्रवार यानी 30 अप्रैल को दोपहर 12 बजे सुनवाई करेगी।
कोरोना संकट से निपटने के लिए राष्ट्रीय योजना को लेकर मंगलवार को सुनवाई करते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘जब हमें लगेगा कि लोगों की जिंदगियां बचाने के लिए हमें हस्तक्षेप करना चाहिए, तब हम ऐसा करेंगे।’ सुनवाई के दौरान जस्टिस एस रवींद्र चंद ने केंद्र से पूछा, ‘संकट से निपटने के लिए आपकी राष्ट्रीय योजना (Covid-19 National Plan) क्या है? क्या इससे निपटने के लिए टीकाकरण मुख्य विकल्प है?’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘राष्ट्रीय संकट के समय यह अदालत मूकदर्शक नहीं रह सकती। हमारा मकसद है कि हम हाईकोर्ट्स की मदद के साथ अपनी भूमिका अदा करें। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना से बिगड़े हालात पर स्वतः संज्ञान लिया था और केंद्र सरकार से महामारी को लेकर क्या तैयारियां की गई हैं इसका जवाब मांगा था।
दरअसल कोरोना की रोकथाम में तमाम सरकारों के विफल हो जाने के कारण जहां हाईकोर्ट भी सख्त है तो वहीं सुप्रीम कोर्ट भी मामले पर नजर बनाए हुए है।
झारखंड उच्च न्यायालय ने शनिवार को चारा घोटाला मामले में सजा काट रहे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को जमानत दे दी। लालू अब जेल से बाहर आ जाएंगे। झारखंड उच्च न्यायालय ने आधी सजा पूरी करने के आधार पर लालू प्रसाद यादव को सशर्त जमानत दी है। उन्हें एक लाख के निजी मुचलके का बांड भरना होगा। उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि लालू यादव बिना अनुमति के वे देश से बाहर नहीं जाएंगे और ना ही अपना पता और मोबाइल नंबर बदलेंगे। फिलहाल, राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष का दिल्ली के एम्स में इलाज चल रहा है।
लालू की जमानत याचिका पर फैसला सुनाते हुए उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि जमानत के लिए लालू को एक लाख रुपये का मुचलका देना होगा। साथ ही 10 लाख रुपये का जुर्माना भरना होगा। इसके अलावा उन्हें अपना पासपोर्ट जमा कराना होगा। बिना अदालत की अनुमति के लालू विदेश नहीं जा सकेंगे। गौरतलब है कि दुमका कोषागार से अवैध निकासी के मामले में लालू प्रसाद ने जमानत के लिए आधी सजा पूरी करने का दावा करते हुए याचिका दायर की थी। इस मामले में सीबीआई की अदालत ने लालू प्रसाद को सात-सात साल की सजा दो अलग अलग धाराओं में सुनाई थी।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत अनुसूचित जाति आयोग का गठन किया गया था। इसका उद्देश्य किसी भी कानून के तहत अनुसूचित जाति के लिए प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जांच और निगरानी करना है। ऐसे में दलित समाज के लोग अनुसुचित जाति एवं जनजाति आयोग की ओर आशा की नजर से देखते हैं। उन्हें लगता है कि अगर कोई जातीय आधार पर या किसी भी कारण से उनके साथ अन्याय करता है तो यह आयोग उन्हें न्याय दिलवाएगा। दरअसल इस आयोग का काम भी यही है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो अनुसूचित जाति आय़ोग की भूमिका से यह वर्ग बहुत खुश नहीं रहा है। तमाम लोग आयोग पर सत्ता के दबाव में न्याय नहीं मिलने का आरोप लगाते रहे हैं तो वहीं आयोग का दावा रहता है कि वह पीड़ितों के पक्ष में खड़ा रहता है। हालांकि इसका कोई ऑनलाइन लेखा-जोखा नहीं होने के कारण गलती किसकी है, यह सामने नहीं आ पा रहा था।
लेकिन अब अनुसूचित जाति आयोग के हाल ही में बने अध्यक्ष विजय सांपला ने अंबेडकर जयंती पर एक बड़ी पहल की है। दलित समाज के लोगों की इस लंबी मांग को मानते हुए एक शिकायत पोर्टल लांच किया गया है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की 130वीं जयंती पर संचार एवं आईटी और कानून एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आयोग के अध्यक्ष विजय सांपला, आयोग के सदस्यों और सामाजिक न्याय राज्य मंत्री रतन लाला कटारिया की उपस्थिति में यह पोर्टल लांच किया।
खास बात यह है कि इस पोर्टल के जरिए अनुसूचित जाति का कोई भी व्यक्ति देश के किसी भी हिस्से से अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है। शिकायतों के अंत में ई-फाइलिंग की सुविधा भी है, और किसी शिकायत की वर्तमान स्थिति क्या है, उसे भी देखा जा सकेगा। इस पोर्टल के माध्यम के जरिए आप दस्तावेज़ और ऑडियो / वीडियो फ़ाइलों को भी अपलोड कर सकते हैं। पोर्टल के लांचिंग के दौरान आयोग के अध्यक्ष विजय सांपला ने कहा कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का उद्देश्य इस पोर्टल के माध्यम से विशेष रूप से अनुसूचित जाति की आबादी की शिकायतों और उसके निवारण को व्यवस्थित करना है। सांपला ने 24 फरवरी 2021 को अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन का पद संभाला, जिसके बाद वो खासे सक्रिय है।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की जयंती के ठीक पहले दलित दस्तक के हिस्से में एक और उपलब्धि आई है। खबर यह है कि ‘दलित दस्तक ग्रुप के यू-ट्यूब चैनल पर शोध कार्य हुआ है। हाशिये के समाज की आवाज़ को प्रमुखता से उठाने वाले यू-ट्यूब चैनल ‘दलित दस्तक’ पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के क्षेत्रीय केंद्र, कोलकाता में शोध कार्य हुआ है। केंद्र में जनसंचार विभाग की छात्रा पूजा साव ने अपने परियोजना कार्य के तहत ‘’दलित दस्तक (यू-ट्यूब चैनल) में खबरों के प्रस्तुतीकरण का विवेचन’’ विषय पर अपना शोध कार्य प्रस्तुत किया है।
कोलकाता केंद्र के प्रभारी और सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’ के निर्देशन में यह परियोजना कार्य सम्पन्न किया गया है। इसके अंतर्गत छात्रा ने अपने अध्यायों में मुख्य रूप से ‘दलित दस्तक’ में प्रसारित होने वाली राजनीतिक खबरों तथा जाति-धर्म व जेंडर से जुड़े मुद्दों पर प्रसारित सामग्रियों का संदर्भों सहित मूल्यांकन किया है। छात्रा पूजा साव ने ‘दलित दस्तक’ के प्रसारण संबंधी तकनीकी पक्षों पर भी अपना सोदाहरण अध्ययन-विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस परियोजना शोध कार्य में ‘परिशिष्ट’ के अंतर्गत चैनल के प्रधान संपादक अशोक दास का पूजा साव द्वारा लिया गया साक्षात्कार भी शामिल किया गया है तथा चैनल से जुड़ी तस्वीरें दी गई हैं।
निश्चित तौर पर यह दलित दस्तक समूह के लिए और उसके सभी पाठकों और दर्शकों के लिए बड़ी खबर है। हाल ही में सिंगापुर से प्रकाशित सबसे बड़े मीडिया संस्थान The Straits Times ने 12 अप्रैल को दलित दस्तक और इसके संपादक अशोक दास के विचारों को प्रकाशित किया था।
आज भारतरत्न उस डॉ.बी.आर. आंबेडकर की 130 वीं जयंती है, जिनके विषय में बहुत से नास्तिक बुद्धिजीवियों की राय है कि बहुजनों का यदि कोई भगवान हो सकता है तो वह डॉ. आंबेडकर ही हो सकते हैं, जिनकी तुलना लिंकन, बुकर टी . वाशिंग्टन, मोजेज इत्यादि से की जाती है। मानवता की मुक्ति में अविस्मरणीय योगदान देने वाले ढेरों महापुरुषों का व्यक्तित्व और कृतित्व समय के साथ म्लान पड़ते जा रहा है पर, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर वह महामानव हैं, जिनकी स्वीकृति समय के बढ़ती ही जा रही है। यही कारण है इंग्लैंड की महारानी तथा राष्ट्रमंडल देशों की प्रमुख एलिज़ाबेथ द्वितीय ने बीते दिनों 14 अप्रैल,2021 को ‘डॉ.बी.आर.आंबेडकर इक्वेलिटी डे’ के रूप में मनाने का फरमान जारी किया है।
रानी एलिज़ाबेथ द्वितीय का यह फरमान इस बात का संकेतक है कि डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति समय के साथ-साथ विश्वमय फैलती जा रही है। उनकी इस घोषणा से कोरोना के दहशत भरे माहौल में घरों में बैठकर आंबेडकर जयंती मनाने के लिए विवश आंबेडकरवादियों में एक नए उत्साह का संचार हुआ है। बहरहाल समय के साथ-साथ आंबेडकर और उनके वाद की स्वीकृति भले ही नित नयी उंचाई छूती जा रही हो, किन्तु देश-विदेश में फैले कोटि-कोटि आंबेडकरवादियों में बहुत कम लोगों को इस बात का इल्म है कि खुद भारत में आंबेडकरवाद बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है। ऐसे में आज इतिहास ने आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने की बड़ी जिम्मेवारी बहुजनवादी दलों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के कन्धों पर डाल दिया है। इसे देखते हुए आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने में होड़ लगाना सामाजिक न्यायवादी दलों, बहुजन बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों का अत्याज्य कर्तव्य बन गया है। ऐसे में इस दिशा में अपना कर्तव्य निर्धारित करने के पहले आंबेडकरवादियों को आंबेडकरवाद और इस पर आये संकट को ठीक से समझ लेना जरुरी है।
वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति, नस्ल, लिंग इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही आंबेडकरवाद है और इस वाद का औजार है- आरक्षण। भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत किये गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है। बहरहाल दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया। ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से धर्म के आवरण में लिपटी उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही। इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, भूस्वामित्व, राज्य संचालन, सैन्य वृत्ति, उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं।
हिन्दू आरक्षण ने चिरस्थाई तौर पर भारत को दो वर्गों में बांट कर रख दिया: एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी सवर्ण वर्ग और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे। इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए, लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा। इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं, जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया। यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा। इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही। वे गुलामों के गुलाम रहे। इन्ही गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया।
अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी। इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई। हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे। इससे धीरे-धीरे वे सांसद-विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे। दलित–आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए। संविधान में डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे पिछड़ी जातियों के लिए भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। और उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए। लेकिन 7 अगस्त, 1990 को प्रकाशित मंडल की जिस रिपोर्ट के बाद आंबेडकरवाद ने जरुर नित नई ऊंचाइयां छूना शुरू किया, उसी रिपोर्ट से इसके संकटग्रस्त होने का सिलसिला भी शुरू हुआ।
मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही हिन्दू आरक्षण का सुविधाभोगी तबका शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया। इसके प्रकाशित होने के साल भर के अन्दर ही 24 जुलाई,1991 हिन्दू आरक्षणवादियों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप ही आज आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हो गया है। 24 जुलाई, 1991 के बाद शासकों की सारी आर्थिक नीतियाँ सिर्फ आंबेडकरवाद की धार कम करने अर्थात आरक्षण के खात्मे और धनार्जन के सारे स्रोतों हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शिफ्ट करने पर केन्द्रित रहीं। इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों में किया, आंबेडकर प्रेम के दिखावे में सबको बौना बना चुके नरेंद्र मोदी ने उतना प्रधानमंत्री के रूप में पिछले कुछ सालों में कर डाला है।
बहरहाल आरक्षण के खात्मे के मकसद से नरसिंह राव ने जिस नवउदारवादी अर्थनीति की शुरुआत किया एवं जिसे आगे बढ़ाने में उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने एक दूसरे से होड़ लगाया, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी जैसा शक्ति के स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है। आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हैं। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की है। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल व पोर्टल्स प्राय इन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है। संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है। मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं। शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व के मध्य जिस तरह विनिवेशीकरण और निजीकरण के लैट्रल इंट्री को जूनून की हद तक प्रोत्साहित करते हुए रेल, हवाई अड्डे, चिकित्सालय, शिक्षालय इत्यादि सहित ब्यूरोक्रेसी के निर्णायक पद सवर्णों को सौपें जा रहे हैं उससे डॉ। आंबेडकर द्वारा रचित संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक – पूरी तरह एक सपना बनते जा रहे है।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्र को संविधान सौपने के पूर्व 25 नवम्बर, 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से चेतावनी देते हुए कहा था,’ संविधान लागू होने के बाद हम एक विपरीत जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति के क्षेत्र में मिलेगी समानता: प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार मिलेगा और उस वोट का समान मूल्य होगा। किन्तु राजनीति के विपरीत आर्थिक और सामजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता। हमें इस असमानता को निकटतम भविष्य में ख़त्म कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।’ डॉ. आंबेडकर की उस चेतवानी को ध्यान में रखते हुए आजाद भारत के शासकों ने शुरुआत के प्रायः चार दशकों तक विषमता के खात्मे की दिशा में कुछ काम काम किया । इसी क्रम में ढेरों सरकारी उपक्रम खड़े हुए: बैंको, कोयला खानों इत्यादि का राष्ट्रीयकारण हुआ। किन्तु 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने का बाद जब देश का शासक वर्ग आंबेडकरवाद को संकटग्रस्त करने की दिशा में अग्रसर हुआ, मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या (आर्थिक और सामजिक –गैर-बराबरी) भारत में विस्फोटक बिंदु पर पहुच गयी। आज आर्थिक और सामाजिक विषमता की विस्फोटक स्थिति के मध्य, जिस तरह विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैट्रल इंट्री के जरिये शक्ति के समस्त स्रोतों से वंचित बहुजनों के बहिष्कार का एक तरह से अभियान चल रहा है, उसके फलस्वरूप, जिन वंचित जातियों को विश्व प्राचीनतम शोषकों से आजादी दिलाने के लिए डॉ। आंबेडकर ने वह संग्राम चलाया जिसके फलस्वरूप वह मोजेज, लिंकन, बुकर टी। वाशिंग्टन की कतार में पहुँच गए: वह जातियां आज विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुकी हैं।ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था।
बहरहाल भारत में आज वर्ग संघर्ष का खुला खेल खेलते हुए शासक दलों ने आंबेडकरवाद को संकटग्रस्त करने के क्रम में जिन स्थितियों और परिस्थितियों का निर्माण किया है , उसमें बहुजनों को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की लड़ाई की तरह एक नए स्वाधीनता संग्राम छेड़ने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है। और इस संग्राम का लक्ष्य होना चाहिए आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा, जिसका सपना सिर्फ बाबा साहेब ही नहीं लोहिया, सर छोटू राम, बाबू जगदेव प्रसाद, मान्यवर कांशीराम इत्यादि ने भी देखा था। चूँकि सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि शक्ति के स्रोतों के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य अन्यायपूर्ण बंटवारे से होती रही है, इसलिए बहुजनों के स्वाधीनता संग्राम का एजेंडा शक्ति के स्रोतों का भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों – सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के मध्य न्यायपूर्ण बंटवारे पर केन्द्रित होना चाहिए। ऐसे में अगर आंबेडकरवाद के संकटग्रस्त होने से भारत सहित यहाँ की तमाम वंचित जातियों का भविष्य संकटग्रस्त नजर आता है तो आंबेडकरवादियों को आज से ही अपने स्वाधीनता संग्राम को अंजाम तक पहुँचाने की परिकल्पना में निमग्न हो जाना चाहिए।
भारत-रत्न बाबा साहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जी की आज 130वीं जयंती है। उनके जीवन और कामकाज को देख कर हैरानी होती है। बचपन में ही मैंने एक बार बाबासाहेब की जीवनी पढ़ी तो उनको पढ़ता गया और इस बात को थोड़ा देर से समझ पाया कि जिस व्यक्ति के पास न तो मजबूत संगठन था, न संसाधन थे उसकी काया का विस्तार पूरी दुनिया में कैसे होता चला गया है। बाबा साहेब से जुड़ी तमाम जगहों की यात्राएं मैंने की हैं। बौद्धों के सभी प्रमुख स्थलों पर भी गया हूं। लेकिन मुझे नागपुर में उनकी यादों को जिस तरह सहेजा गया है, उसने बहुत प्रभावित किया।
वे विधिवेत्ता, असाधारण अर्थशास्त्री, पत्रकार और लेखक और समाज सुधारक होने के साथ ऐसे आंदोलनकारी थे जिन्होने हजारों सालों से कमजोरों के हकों पर कुंडली मार कर बैठे लोगों को खुली चुनौती दी। वे जानवरों को तो बेहतर समझते थे लेकिन अपने जैसे मनुष्य को नहीं। बाबा साहेब का साहित्य पढ़ने पर बगावत पैदा होती है। वे कौन लोग थे जिनके सरोवर जानवरों के लिए खुले थे लेकिन मनुष्य के लिए नहीं। वे कौन लोग थे जिन्होंने प्राकृतिक संपदाओं को हड़प लिया और एक बड़ी आबादी को किनारे कर दिया। मेरे हिसाब से इस समाज को जगा कर अपने पांवों पर खड़े होने की जो ताकत बाबा साहेब ने दी वह आजाद भारत की एक ऐसी बड़ी घटना है, जिन पर शायद हमारी निगाह कम जाती है।
बाबा साहेब ने संविधान बनाते समय समता या समानता के पक्ष में संविधान सभा में जो माहौल बनाया वह एक बड़ी बात थी। वे कहते थे कि शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो। वे शिक्षा को सबसे अधिक महत्व देते थे। वे खुद इतने शिक्षित न होते तो शायद इतना कुछ कर न पाते। उन लोगों का विचार अपनी इसी ताकत से न बदल पाते जो उनका तब तक विरोध करते रहे जब तक उनको बाबा साहेब के विचार की ताकत का अंदाजा नहीं हुआ। लेकिन संविधान सभा के अपने आखिरी वक्तव्य में बाबा साहेब ने जो बातें कहीं थी, जो चेतावनी दी थी वे आज भी प्रासंगिक हैं।
“मैं महसूस करता हूँ कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को चलाने का काम सौंपा जाएगा, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि उसे चलाने वाले अच्छे लोग हुए तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।”
The year 2021 has been a difficult time due to the Covid-19 pandemic. Many countries are on the 3rd or 4th wave of a Covid-19 lockdown and due to this lot of local gatherings of any physical kind are strictly prohibited. The worldwide Bahujan Indian community celebrates an online Cyber celebration to commemorate Equality day & Knowledge dayon the occasion of the 194thRashtrapitaMahatma Jyotirao Phule’s birth anniversary & Bharat Ratna Dr. B R Ambedkar’s 130th birth anniversary.
These online celebrations help the Bahujan community to come together and pay respectsto tribute the beloved leaders like RashtrapitaMahatma Jyotirao Phule and Babasaheb Ambedkar by garlanding statues, light candles in front of their photographs, read their favorites quotes, and even cheer slogans such as “’JAI PHULE, JAI BHIM’, ‘Mahatma Phule Amar Rahe, and Dr. Ambedkar Amar Rahe’” from their respective homes.
The Bahujan community comes together from all over the world like The United States, Canada, United Kingdom, Germany, France, Italy, Switzerland, Spain, Portugal, Greece, Holland, Austria, Belgium, Lebanon, Japan, Singapore, Australia, New Zealand, Saudi Arabia, United Arab Emirates, Brunei, Oman, Qatar, Dubai, Bahrain, Kuwait, Malaysia, and of course India.
These online cyber celebrations are telecasted live on Bahujan media networks like AwaazTV, MaitriTV, KanshiTV, Samyak India TV, BahujanTV, MNT News Network, MN Live, Dalit Dastak, and YouTube channels.They have used multiple online meeting platforms like skype, google hangout, Facebook, YouTube, Zoom, WebEx, Free-conference call, webinar jam, and GoToMeeting.
There was a huge Twitter presence with international followers of #JyotibaPhule, #ज्योतिबा_फुले_जयंती, Dr. Ambedkar emoji, #AmbedkarJayanti, #JaiBhim and #जयभीम,#अंबेडकरजयंती.
Nowadays, these online celebrations are getting overwhelming responses from all levels, all ages, andbackgrounds of participants. There were multiple cultural activities performed by children, women, online Kahoot quizzes, inspirational song competitions, speeches, book launches, blood donation camps, wheelchair donation camps, free food community kitchen, and paintings done to commemorate the celebration.
“A symbol of humanistic thought and sacrifice by these leaders is a source of motivation and inspiration to all Bahujan community.” These cyber celebrations are continuing from the 1st week of May till the end of it at multiple locations across the globe.
The listed organization with their fliers online Jayanti celebration.
ज्योतिबा फुले के जन्मदिन पर आप एक बात गौर से देख पाएंंगे। गैर बहुजनों के बीच में ही नहीं बल्कि बहुजनों अर्थात ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लोगों के बीच भी ज्योतिबा फुले को उनके वास्तविक रूप में पेश करने में एक खास किस्म की कमजोरी नजर आती है। ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के जितने भी महानायक हुए हैं लगभग उनके सभी के साथ यह समस्या नजर आती है।
भारत में ब्राह्मणवाद का जो षड्यंत्र सदियों से चला आ रहा है यह समस्या उस यंत्र से जुड़ती है। भारत के वे विद्वान और महापुरुष जो तथाकथित ऊंची जातियों में जन्म लेते हैं वे अखिल भारतीय स्तर के महानायक मान लिए जाते हैं। और ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति से आने वाले महानायक उनके अपनी जातीय श्रेणी के अंदर विद्वान या महान माने जाते हैं। इस बात को ज्यादातर ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग ठीक से समझते नहीं हैं। इसीलिए भारत में इतनी शिक्षा, इंटरनेट और टेक्नोलॉजी के आने के बावजूद भारत का ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति का बड़ा समुदाय अपने नेरेटिव और ग्रैंड नेरेटिव का निर्माण नहीं कर पा रहा है।
आप बाबा साहेब आंबेडकर का उदाहरण लिजिए, गैर बहुजन समाज ही नहीं बल्कि बहुजन समाज भी ज्यादातर उन्हें संविधान के निर्माता के रूप में देखता है। डॉक्टर आंबेडकर ने अपनी महान विद्वता का इस्तेमाल करते हुए सिर्फ संविधान की रचना नहीं की थी। संविधान और कानून के अलावा ना केवल उन्होंने अर्थशास्त्र और भारत के इतिहास के बारे में बहुत कुछ लिखा है बल्कि उन्होंने पूरे भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक नए बौद्ध धर्म को भी जन्म दिया है। लेकिन दुख की बात है कि खुद बहुजनों में इस बात को ज्यादातर लोग नहीं जानते। आज आप किसी भी शहर में या गांव में किसी बस्ती में जाकर पूछ लीजिए कि बाबासाहेब आंबेडकर ने क्या काम किया था? ज्यादातर लोग यह जवाब देंगे कि उनका सबसे बड़ा काम संविधान की रचना करना था।
अगर आप पूछें कि बाबा साहब अंबेडकर ने कोई नया धर्म बनाया था क्या? तो ज्यादातर लोग इस तथ्य से अंजान मिलेंगे। जो लोग यह जानते हैं कि बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, वे भी यही कहते हैं कि उन्होंने किसी पुराने रंग रूप के बौद्ध धर्म को अपना लिया था। इस तरह बाबा साहेब का जो वास्तविक विराट स्वरूप है वह ना सिर्फ दुनिया के सामने नहीं आ पाता बल्कि अपने ही प्रेम करने वाले लोगों के बीच में भी बहुत छोटा होकर और सिकुड़ कर रह जाता है।
कल्पना कीजिए कि बाबासाहेब आंबेडकर को भारत में धम्मक्रांति का जनक कहकर प्रचारित किया जाए। या धम्म चक्र प्रवर्तन करने वाले महापुरुष या नए बौद्ध गुरु की तरह प्रचारित किया जाए तो क्या होगा?
आप सीधे-सीधे दो तरह के प्रचार की कल्पना कीजिए। मैं एक राज्य में पचास हजार बच्चों के बीच दस सालों तक यह प्रचारित करूं कि बाबासाहेब आंबेडकर भारत में धर्म क्रांति के जनक हैं और उन्होंने भारत के संविधान का भी निर्माण किया है। और कोई दूसरा आदमी दूसरे राज्य में दस सालों तक पचास हजार बच्चों के बीच तक यह प्रचारित करें कि बाबासाहेब केवल एक वकील और संविधान के निर्माता थे। आप आसानी से समझ सकते हैं कि मैं जिस राज्य में मैंने बाबा साहब को धम्मक्रांति का जनक और संविधान निर्माता दोनों बता रहा हूं वहां के बच्चों के मन में अपने भविष्य के निर्माण की कितनी विराट योजना अचानक से प्रवेश कर जाएगी। और जिस राज्य में दस सालों तक केवल उन्हें संविधान का निर्माता बताया जा रहा है उस राज्य के बच्चे धर्म संस्कृति इतिहास और राजनीति के महत्व के बारे में बिल्कुल भी जागृत नहीं हो पाएंगे।
जैसे ही धर्म के निर्माण की बात आती है, धर्म के साथ इतिहास संस्कृति कर्मकांड और सब तरह की सृजनात्मक प्रक्रियाएं अचानक जुड़ जाती है। लेकिन अपने महापुरुष को अगर सिर्फ संविधान और कानून तक सीमित कर दिया जाए, बाबा साहेब को आप सिर्फ एक काले कोट पहने वकील के रूप में ही कल्पना कर पाएंगे। आज भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों में बाबा साहेब की जो कल्पना है वह सिर्फ काला कोट पहने और मोटी सी किताब पकड़े एक बैरिस्टर की कल्पना है। यह छवि और यह कल्पना भी बहुत अच्छी है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। अगर बाबा साहेब को भारत के भविष्य के ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक नए धर्म के जन्मदाता के रूप में या धम्म चक्र प्रवर्तन करने वाले आधुनिक बौद्ध गुरु की तरह चित्रित किया जाए तो क्या प्रभाव होगा आप सोच सकते हैं।
अब आप ज्योतिबा फुले पर आइए। ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को सिर्फ शिक्षा और समाज सुधार से जोड़कर देखा और दिखाया जाता है। न केवल गैर बहुजनों में बल्कि ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकांश लोगों में भी उन्हें सिर्फ शिक्षक और शिक्षिका बताने की बीमारी पाई जाती है। जिस तरह भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति बाबासाहेब आंबेडकर को उनके विराट रूप में प्रस्तुत नहीं करते, उसी तरह ज्योतिबा फुले को भी बहुत ही सीमित रूप में पेश किया जाता है। ज्योतिबा फुले के साथ शिक्षा और ज्ञान को जोड़ देना अच्छी बात है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के अलावा और भी बहुत सारे काम किए हैं जिसका कि लोगों को पता नहीं है। उन्होंने एक नई सत्यशोधक समाज जैसा संगठन बनाया था जिसका धर्म, जिसकी संस्कृति कर्मकांड और प्रतीक बहुत ही अलग थे और नए थे। उन्होंने लगभग एक नए पंथ की ही रचना कर डाली थी।
ज्योतिबा फुले ने ना सिर्फ शिक्षा के लिए काम किया था बल्कि, अनुसूचित जाति जनजाति और ओबीसी की महिलाओं के लिए और बच्चियों के लिए स्कूल खोला था। इतना ही नहीं बल्कि तथाकथित ऊंची जाति की विधवा एवं गर्भवती महिलाओं के लिए मुफ्त में बच्चा पैदा करने और बच्चा पालने के लिए एक आश्रम भी खोला था। उन्होंने महिलाओं के अधिकार के लिए सरकार से लड़ाई की और स्थानीय संस्थाओं से भी लड़ाई की। उस जमाने में ब्रिटिश गवर्नमेंट जब हंटर कमीशन लेकर आई थी तब ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए स्कूल एवं शिक्षा का प्रावधान करने के लिए उन्होंने आवाज उठाई थी। उस समय उन्होंने शराबबंदी को लेकर महिलाओं का एक आंदोलन चलाया था। उन्होंने मजदूरों और किसानों के लिए आंदोलन चलाए थे। अपने लेखन में उन्होंने ना सिर्फ अंधविश्वासों का विरोध किया था बल्कि ब्राह्मणों और बनियों के बीच जिस तरीके का षड्यंत्र बनाया जाता है और जिस तरीके से भारत की ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति को लोगों का शोषण होता है, उस पूरी तकनीक को उन्होंने उजागर किया था।
ज्योतिबा फुले ने जिस तरीके से भारत के पौराणिक शास्त्रों और उनकी कहानियों का विश्लेषण किया था, वह बिल्कुल डांटे की डिवाइन कॉमेडी के महत्व से मिलता-जुलता है। यूरोप मे डांटे की डिवाइन कॉमेडी एक बहुत महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है जिसने की सेमेटिक परंपराओं में ईश्वर स्वर्ग नर्क और इस तरह की अंधविश्वासों का खूब मजाक उड़ाया गया है। आज भी यूरोप में डांटे को एक महान पुनर्जागरण के मसीहा के रूप में देखा जाता है। लेकिन भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग अपने ही सबसे बड़ी मसीहा को सिर्फ एक शिक्षक बनाकर छोड़ देते हैं। यह भारत की तथाकथित ऊंची जाति के लोगों का षड्यंत्र भी हो सकता है। लेकिन भारत के ओबीसी समाज एवं बहुजन समाज के लोगों को तो कम से कम हजार बार सोच कर निर्णय लेना चाहिए। ज्योतिबा फुले खुद माली समाज से आते थे, खेती किसानी फूलों का धंधा और फूल सजाकर बेचना उनका पुश्तैनी काम था। इस तरह माली ओबीसी समाज से आने वाले इतने विराट महापुरुष को स्वयं ओबीसी समाज ने ही भुला दिया है।
जो समाज अपने ही पिता को, अपने ही महान पूर्वज को अपने हाथों से बौना बनाकर पेश करता है वह दूसरों से क्या उम्मीद कर सकता है? कल्पना कीजिए कि आप स्वयं अपने पिता को अनपढ़ और गंवार साबित कर देते हैं, तो आपका पड़ोसी जो आपका शोषण कर रहा है वह आपके पिता को विद्वान साबित क्यों करना चाहेगा? इस बात को ध्यान से समझने की कोशिश कीजिए। अगर आप अपने पिता और अपने पूर्वजों को महान साबित नहीं करना जानते तो आपके बच्चे भी कभी महान नहीं हो पाएंगे। इसलिए सारी संस्कृतियों में उन सभी धर्मों में आप देखेंगे कि वे अपने पूर्वजों को महानतम रूप में पेश करते आए हैं। भारत में एक विचित्र की परंपरा है। भारत के काल्पनिक और या पौराणिक इतिहास में जिन लोगों ने यहां के मूल निवासियों की बड़े पैमाने पर हत्या की है, उन्हे जगत का पिता और पूरी दुनिया का पालनहार बताया जाता है। कम से कम इसी बात से भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को कुछ सीख लेना चाहिए।
ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को अपने पूर्वजों को सम्मान देना सीख लेना चाहिए। भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के पूर्वजों ने कभी भी बड़े पैमाने पर हत्याकांड नहीं किए, ना ही बलात्कार किए, ना ही महिलाओं का अपमान किया और ना गांव और शहरों को जलाया। इसके विपरीत इन श्रमशील जातियों से आने वाले महानायकों ने महिला सशक्तिकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, जागरूकता, आधुनिकता इत्यादि के लिए अनेक अनेक काम किए हैं। ज्योतिबा फुले बाबासाहेब आंबेडकर परियार जैसे लोग भारत को आधुनिक जगत में ले जाने वाले सबसे बड़े नाम हैं। इन जैसे लोगों ने काल्पनिक देवी देवताओं की तरह ना तो बड़े हत्याकांड रचे न ही नगरों और राजधानियां को जलाया बल्कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की तरफ पूरे देश को ले जाने का बड़ा काम किया।
बहुजन और गैर बहुजन की बात निकलते ही अक्सर लोग कहने लगते हैं कि यह तो अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की समस्या है। उन्हें यह पता ही नहीं है कि भारत के ओबीसी जो कि यादव किसान काश्तकार कुम्हार विश्वकर्मा कुर्मी कुनबी सुतार इत्यादि जातियों के लोग होते हैं लोग भारतीय धर्मशास्त्रों में शूद्र कहे गए हैं। ज्योतिबा फुले स्वयं माली समाज से आते थे और स्वयं को शूद्र कहते थे, भारत के दलित लोग अतिशूद्र या पंचम माने जाते हैं। शूद्र का मतलब ओबीसी होता है और दलित का मतलब अस्पृश्य होता है, ज्यादातर बहुजन लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है। इसीलिए ज्यादातर ओबीसी अपने आप को किसी ना किसी तरीके से क्षत्रिय या वैश्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं। हालांकि जो क्षत्रिय और वैश्य समुदाय हैं वे इन ओबीसी लोगों के साथ न शादी करते हैं न खाना खाते हैं और ना इनके घर में आना-जाना करते हैं।
ऐसे में भारत के ओबीसी लोगों को अपने भीतर छुपा आत्मसम्मान जगाते हुए इस तरह के नाटक बंद कर देना चाहिए। जिस तरह ज्योतिबा फुले ने अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान से समझौता ना करते हुए अपने आपको शूद्र मानकर अपने इतिहास की खोज की थी, उसी तरह भारत के शेष ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को अपनी महान परंपरा और शास्त्रों का फिर से अध्ययन करना चाहिए। बाबासाहेब आंबेडकर ने भी यही काम किया था। उत्तर भारत में ललई सिंह यादव ने पेरियार के शिक्षाओं पर चलते हुए यही काम किया था, बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाह ने भी यही काम किया था। झारखंड से आने वाले महान जयपाल सिंह मुंडा ने भी यही काम किया था। उनके पहले महान टंट्या भील और महान बिरसा मुंडा ने भी यही काम किया था।
ज्योतिबा फुले के जन्मदिन पर हमें यह बात गौर करते हुए नोट करनी चाहिए। ज्योतिबा फुले को सिर्फ शिक्षक या समाज सुधारक बताने वाले लोग मासूम या फिर गलत लोग हैं। इन लोगों को मालूम नहीं है कि शिक्षा से भी बड़ा योगदान ज्योतिबा फुले ने इस देश को दिया है। ज्योतिबा फुले सही अर्थों में देखा जाए तो भारत की आधुनिकता के पिता है। ज्योतिबा फुले को “फादर ऑफ इंडियन मॉडर्निटी” कहा जाना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव अंबेडकर जयंती को लेकर दिए अपने बयान पर घिर गए हैं। अखिलेश यादव के इस बयान की निंदा हो रही है। खासकर अखिलेश अंबेडकरवादियों के निशाने पर हैं। अखिलेश यादव ने जो ट्विट किया, उसे देखिए।
भाजपा के राजनीतिक अमावस्या के काल में वो संविधान ख़तरे में है, जिससे मा. बाबासाहेब ने स्वतंत्र भारत को नयी रोशनी दी थी।
इसलिए मा. बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी की जयंती, 14 अप्रैल को समाजवादी पार्टी उप्र, देश व विदेश में ‘दलित दीवाली’ मनाने का आह्वान करती है।#दलित_दीवाली
दरअसल अखिलेश यादव द्वारा अंबेडकर जयंती को दलित दीवाली कहने से अंबेडकरवादी उनसे नाराज हैं। भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए ट्विट किया-
संविधान किसी भी जाति धर्म के साथ भेदभाव नहीं करता। संविधान निर्माता बाबा साहेब के जन्मदिन को "राष्ट्रीय उत्सव" की बजाय "दलित दिवाली" कहना निंदनीय है। संविधान से इतर भी वह एक महान अर्थशास्त्री, विधिवेत्ता, पत्रकार, श्रमिक नेता एवं महिला उद्धारक हैं। भारत के गौरव हैं बाबा साहेब।
— Chandra Shekhar Aazad (@BhimArmyChief) April 9, 2021
नैक्डोर के फाउंडर और प्रमुख अशोक भारती ने बिना किसी का नाम लिए ट्विट किया-
अम्बेडकर जयंती मानवता का मुक्ति-पर्व है. डॉ. अम्बेडकर एक वास्तविक व्यक्ति हैं. उन्होंने छुआछूत, लैंगिक असमानता और अन्याय की शिकार मानवता को अपने विचारों और संघर्ष से मुक्ति दिलाई. आइए, अम्बेडकर जयंती पर दिवाली के दिए छोड़ ज्ञान के दीपक जलाएँ. पढ़ें और पढ़ाएँ. #अंबेडकरजयंती
आम्बेडकरवाद को आप दलित मुक्ति के दर्शन के रूप में देखते हैं तथा दलित जातियों को आम्बेडकरवाद का हिमायती मानते हैं, तो आप को यह देखना भी जरूरी है कि क्या दलित जतियाँ आम्बेडकरवादी चिंतकों और क्रांतिकारियों का अनुसरण करती हैं। आज हर गाँव स्वार्थ में विभक्त है। सभी गाँवों में कई खेमे हैं। सवर्ण जातियाँ अपने वर्चस्व के मसले पर अनेक विभिन्नताओं के उपरांत भी एकमत हैं लेकिन दलित जातियाँ वर्चस्व कौन कहे, अपने मुक्ति के सवाल पर भी एकमत नहीं हैं और न एक ही हैं। सब के छोटे-छोटे स्वार्थ हैं। सभी के नाली, घूर व रास्ते के झगड़े हैं। इन झगड़ों के चलते दलितों में बहुत कटु मनमुटाव है। यहाँ तक कि दलित जातियों के लोग एक-दूसरे से किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। दलित जातियों के मध्य आपस में बहुत बड़ी ईर्ष्या कार्य करती रहती है। कोई भी दलित अपनी जातियों में किसी से छोटा नहीं बनना चाहता है। दलित जातियाँ किसी के सामने विनम्र रहकर अगले की बात स्वीकार कर लेना तौहीन समझते हैं।
दलित एक दूसरे को देखकर तने रहते हैं। दलितों में एक अजीब सी अकड़ रहती है। दलित हमेशा ताना मारते रहते हैं। दलित अपने पड़ोसी को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। जब दलित सामान्य रहन-सहन में एक नहीं हैं, तो आम्बेडकर साहब के उद्देश्य और बातों-विचारों पर एक कैसे रहेंगे। ‘जय भीम’ कह लेना एक बात है लेकिन ‘जय भीम’ के अर्थ को ग्रहण करना दूसरी बात है। सामान्य दलित इस परिवर्तन में वैसा विश्वास नहीं रखता है जैसा एक सुविचारित आम्बेडकरवादी करता है। सामान्य दलित अपने गाँव के आम्बेडकरवादी चिंतक, विचारक और क्रांतिकारी के ऊपर बिल्कुल विश्वास नहीं करता है और न ही उसका साथ देता है। एक तरह से गाँव का सामान्य दलित अपने पढ़े-लिखे नौकरी वाले वर्ग से चिढ़ता है। सामान्य दलित क्रांतिकारी दलित की टाँग खींचता है। कई बार कई जगहों पर यह भी देखा जाता है कि गाँव-समाज का दलित अपने पढ़े-लिखे व नौकरी वाले दलित को कौड़ी भर भी इज्जत नहीं करता है और किसी भी तरह उसकी बात भी सुनना पसंद नहीं करता है बल्कि उसे देखकर जलता है।
ऐसी स्थिति में आम्बेडकरवादी दलित क्या कर सकता है? किसके बल पर क्रांतिकारी आम्बेडकरवादी दलित वर्चस्ववादियों और जातिवादी गुंडों से पंगा लेगा, कैसे ब्राह्मणवाद खत्म करेगा, कैसे कोई हत्या-बलात्कार के विरुद्ध दलितों को न्याय दिलाने के लिए नेतृत्व का साहस करेगा? किसी भी गाँव में आम्बेडकरवाद के नाम पर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध चार दलित भी वैचारिक रूप से एकमत नहीं हैं, तो ईमानदारी, चरित्र और नैतिक रूप से वर्चस्ववादी सवर्णों के दर्शन ब्राह्मणवाद के उन्मूलन व जातिवादी अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए कितने दलित एकमत होंगे? दलितों को अपने एकता की हैसियत और जनता की ईर्ष्यालु अभिमत को समझना होगा।
दूसरी तरफ, बुद्धिजीवियों के अहमी अलगाववाद से हम सभी परिचित हैं। क्या बुद्धिजीवी दलित एक झंडे के नीचे अपने टकराव को छोड़कर आम्बेडकरवाद की एक सरल वैचारिकता के लिए एकमत हो सकते हैं? दलित साहित्य, आम्बेडकर साहित्य, आजीवक साहित्य, बहुजन साहित्य, मूलनिवासी साहित्य व अवर्णवादी साहित्य में दलितों का साहित्य बँटा हुआ है। दलितों के साहित्य के विभिन्न स्तरों पर बँटने का अर्थ हमारे अंदर एक भारी विखराव का होना है।
दलित राजनीतिक पार्टियाँ सिर्फ वोट लेने के लिए दलित जातियों को एकत्र करती हैं लेकिन इन पार्टियों का वास्तविक चरित्र तो गाँव से बनता है और गाँव जबरदस्त अलगाव और ईर्ष्या में जीवित है। दलित राजनीतिक पार्टियां संसदीय लोकतंत्र और संविधान का मोह छोड़कर भला जातिप्रथा व ब्राह्मणवाद उन्मूलन के लिए अपना जनाधार क्यों खराब करने लगीं। फिर, राजनीतिक स्तर पर भी अनेक पार्टियाँ इन्हीं दलितों को गुमराह करके अपनी-अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में पड़े रहते हैं। क्या कीजिएगा।
आखिर दलित जतियाँ सवर्ण जातियों के वर्चस्व, छुआछूत, ऊँचनीच की भावना की परिधि से कैसे मुक्त होंगे? आज भी गाँव की स्थिति यह है कि कोई भी दलित किसी भी सवर्ण को उसके अभद्र व्यवहार के उपरांत भी आँख नहीं दिखा सकता है जबकि सवर्ण जब चाहे किसी भी पढ़े-लिखे व नौकरी वाले दलित को अनायास भी आँखे दिखाना कौन कहे, पीट भी सकता है। तत्काल किसी भी प्रतिक्रिया की कोई संभावना नहीं है और जिन स्थानों पर विद्रोही प्रतिक्रियाएँ होती हैं, वहाँ हत्याएँ अपना जघन्य रूप ग्रहण कर लेती हैं।
सोचिए कि द्वन्द्व कहाँ है? सोचिए कि वैमनस्य कैसे खत्म हो सकता है? सोचिए कि सामान्य दलित आम्बेडकरवादी शिक्षित दलितों पर विश्वास कैसे करें और क्यों करें? इन अनेक सच्चाइयों को समझते हुए और गाँव वालों के नफ़रत को बर्दाश्त करते हुए जो साथी लगातार दलितों में वैचारिक विकास, उनके विकास और आम्बेडकरवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन पर विश्वास करते हुए उनके बीच कार्य कर रहे हैं, वे यकीकन बहुत महान हैं। मैं उनकी साहस, कर्तव्य और महानता के लिए नतमस्तक हूँ।
देश के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में शामिल दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जिसे आप जेएनयू के नाम से जानते हैं, वहां के प्रोफेसर विवेक कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा काम हुआ है, जिसकी चर्चा दुनिया भर के शिक्षा जगत में हो रही है। बीते दिनों प्रो. विवेक कुमार ने न सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धि हासिल की है, बल्कि कहीं न कहीं उनकी वजह से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम भी दुनिया भर के अकादमिक जगत में चर्चा में है।
जहां तक उनके व्यक्तिगत उपलब्धि की बात है तो वह सेज जर्नल्स के ‘साउथ ACN सर्वे जर्नल’ के ‘इंटरनेशनल एडवाइजरी बोर्ड’ के सदस्य का हिस्सा बने हैं। अकादमिक जगत में यह उपलब्धि काफी महत्वपूर्ण है। तो वहीं रिसर्च गेट अकादमिक वेबसाइट पर फरवरी महीने के दूसरे हफ्ते में प्रो. विवेक के लेख को समाजशास्त्र विभाग के अन्य प्रोफेसर्स से ज्यादा पढ़ा गया। भारत के साथ प्रोफेसर विवेक के लेख को यूएसए, यूके, जर्मनी, फ्रांस, आयरलैंड, ताइवान, सिंगापुर, फिलीपींस, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनीशिया आदि देशो में भी पढ़ा गया। प्रोफेसर विवेक कुमार वर्तमान में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंस सेंटर में समाजशास्त्र विभाग के हेड हैं।
उनके नेतृत्व में जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग ने अंतरराष्ट्रीय उपलब्धि हासिल की है। जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग को विश्व के तमाम विश्वविद्यालयों में मौजूद समाजशास्त्र विभाग में 107वां स्थान मिला है। इसको लेकर दुनिया के अकादमिक जगत में न सिर्फ जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग की चर्चा तेज हुई है, बल्कि विभागाध्यक्ष होने के कारण प्रो. विवेक कुमार को भी सराहा जा रहा है।
7 मार्च को फेसबुक पर दी गई एक सूचना में प्रोफेसर विवेक ने यह बात साझा की। उन्होंने लिखा- सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम/ स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज (जेएनयू) के दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र विभाग के बीच विश्व में 107वां स्थान बनाया है। यह अमेरिका की क्यूएस रैंकिंग के अनुसार है। यह दिलचस्प है कि SOAS, द यूनिवर्सिटी ऑफ़ शेफ़ील्ड, ट्रिनिटी कॉलेज डबलिन, यूनिवर्सिट डे मोंटेरेल, वाशिंगटन विश्वविद्यालय आदि जेएनयू पीछे हैं।
विश्व के तमाम देशों में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। न सिर्फ वहां बसे अंबेडकरवादी-मूलनिवासी समाज के लोग बल्कि वहां की सरकार भी अब बाबासाहेब के ज्ञान के आगे नतमस्तक हो रही है और उन्हें सम्मान दे रही है। भारत के अलावा दुनिया के अन्य देशों में भी बाबा साहब की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है, और उन देशों में भी अंबेडकर जयंती मनाई जाने लगी है। बड़ी खबर कनाडा से है। बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा जीवन भर मानवता के लिए किए गए संघर्ष को कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य ने यूनाइटेड किंगडम की रानी एवं कॉमनवेल्थ की प्रमुख एलिज़बेथ द्वितीय की सहमति से, 14 अप्रैल, 2021 को ‘डॉ बी आर आंबेडकर समता दिवस’ (Dr. B. R. Ambedkar Equality Day) घोषित किया है। यानी कनाडा में बाबासाहेब आंबेडकर के जन्मदिन को ‘समता दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा।
कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रोविंस ने एक पत्रक जारी करते हुए बाबासाहब के जन्मदिन 14 अप्रैल को ‘डॉक्टर अंबेडकर समता दिवस दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इससे पहले कनाडा के सिर्फ बरनबी नगरपालिका ने बाबासाहब की जयंती को डॉ. बी.आर. आंबेडकर द डे ऑफ इक्टविलिटी के रूप में मनाया था। लेकिन इस बार कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य ने यूनाइटेड किंगडम की रानी एवं कनाडा एवं कॉमनवेल्थ की प्रमुख एलिज़बेथ द्वितीय की मुहर लगी है। यानी पूरे कनाडा में बाबा साहब की जयंती को समता दिवस के रूप में मनाया जाएगा। निश्चित तौर पर यह कनाडा में बसे अंबेडकरवादियों के साथ दुनियाभर के अंबेडकरवादियों के लिए एक बड़ी खबर है। इससे जाहिर होता है कि भारत से बाहर बसे अंबेडकरवादियों सहित अन्य देशों के सभ्य समाज में बाबासाहेब आंबेडकर की शिक्षाओं को लेकर जानकारी बढ़ रही है।
उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में कॉमनवेल्थ में शामिल अन्य देशों में भी बाबासाहेब की जयंती 14 अप्रैल को मनाने की घोषणा हो सकती है।
बाबासाहेब आंबेडकर भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनीतिक चिंतकों में से एक माने जाते हैं। भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पी होने के नाते भारतीय संविधान एवं शासन व्यवस्था में लोकतंत्र से जुड़े जितनी भी बातें हम देखते हैं उनकी मूल कल्पना बाबासाहेब आंबेडकर के मस्तिष्क से निकली है। अमेरिका में अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने विश्व के एक महान दार्शनिक एवं अपने शिक्षक जॉन डूवी के साथ गुजारे अपना समय के दौरान लोकतंत्र की अपनी समझ को शिखर पर पहुंचाया था। जॉन डूवी स्वयं राजनीतिक चिंतन और दर्शनशास्त्र की दुनिया में एक जाना माना नाम थे, बाबासाहेब आंबेडकर को और उनके विचारों सहित भारत के दलितों की मुक्ति की उनकी योजना को बहुत सम्मान देते थे।
जान डूवी के समय पूरी दुनिया में विश्व युद्ध के कारण उथल-पुथल मची हुई थी, और साम्यवाद, समाजवाद, लोकतंत्र, पूंजीवाद, तानाशाही, धर्मनिरपेक्षता और अराजकता इत्यादि से जुड़े हुए बहुत सारे राजनीतिक विचार विश्व धर्म राजनीतिक चिंतन में उछल रहे थे। ऐसे समय में डॉक्टर आंबेडकर ने भारत के करोड़ों दलितों की मुक्ति के लिए लोकतंत्र को एक सर्वाधिक कारगर उपाय के रूप में देखा। यूरोप और अमेरिका में विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि के बीच लोकतंत्र के पक्ष में वातावरण बनता जा रहा था। इस समय स्वयं ब्रिटेन में एक विशेष किस्म की लोकतांत्रिक चेतना स्थापित हो चुकी थी और लोकतंत्र का एक राजनीतिक स्वरूप अमल में आ चुका था। ब्रिटेन में संसदीय प्रणाली एवं लोकतंत्र की अन्य आधारभूत प्रक्रियाओं को काफी सफलता मिल चुकी थी।
इन सबके बीच डॉक्टर आंबेडकर अमेरिका और ब्रिटेन में अपनी पढ़ाई के दौरान गुलाम भारत रहने वाले अपने करोड़ों दलितों के लिए सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति की योजना बना रहे थे। डॉक्टर आंबेडकर का मानना था कि गुलाम भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए जो आंदोलन चल रहा है वह अपने आप में जरूरी है, लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी है कि लोग जातिवाद से मुक्ति आंदोलन चलाएं। वे सामाजिक आजादी को राजनीतिक आजादी से बड़ा मानते थे (Ambedkar 1994)। वे लोकतंत्र की अपनी विशिष्ट कल्पना के अनुसार सामाजिक मुक्ति के उपकरण के रूप में देखते थे। वे बार-बार कहा करते थे कि अगर भारत को राजनीतिक मुक्ति मिल जाती है सभी लोगों को एक वोट डालने का अधिकार मिल जाता है तुमसे कुछ खास बदलने वाला नहीं है। इसलिए वे उपनिवेशवाद ब्रिटिश गुलामी को खत्म करने की योजना में जातिवाद को खत्म करने की योजना को अनिवार्य रूप से शामिल करते थे (Dwivedi and Sinha 2005)
उनके साथ जो अन्य राजनीतिक विचारक एवं नेता काम कर रहे थे वे स्वतंत्र भारत की जो कल्पना कर रहे थे उसमें राजनीतिक आजादी, और उपनिवेशवाद का खात्मा प्रमुख लक्ष्य थे। लेकिन इन विचारकों के लिए भारत के करोड़ों दलितों और महिलाओं की सामाजिक मुक्ति की योजना भारत की आजादी की योजना में शामिल नहीं थी (Khilnani 2016)। इसीलिए डॉक्टर आंबेडकर को अपनी पूरी ताकत जाति से मुक्ति के आंदोलन में लगानी पड़ी। अगर ठीक से देखा जाए तो यह अंतर गुलाम भारत में आजाद एवं लोकतांत्रिक भारत की योजना में अंतर के गर्भ से आता है। ठीक इसी समय रामास्वामी पेरियार भी जान चुके थे कि भारत आज नहीं तो कल आजाद होने वाला है। इसीलिए उन्होंने भी डॉ आंबेडकर की तरह भारत की सामाजिक मुक्ति की योजना में अधिक ऊर्जा और समय लगाया।
जाति के विनाश की योजना पर काम करते हुए गुलाम भारत में डॉक्टर आंबेडकर कुछ नए ढंग के सामाजिक आंदोलन की शैलियों का प्रयोग कर रहे थे। महाड़ चवदार आंदोलन और काला राम मंदिर आंदोलन के दौरान उन्होंने तत्कालीन बॉम्बे प्रोविंस लोगों को आंदोलन के माध्यम से लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया था। इन आंदोलनों पर बहुत शोध हो चुका है, अधिकांश शोधकर्ता यह मानते हैं कि मंदिर प्रवेश का आंदोलन वास्तव में मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार हासिल करने के लिए नहीं था (Omvedt 1993), बल्कि यह आंदोलन वास्तव में एक तरकीब थी जिसके जरिए भारत के अछूत एवं सवर्ण हिंदू समाज सहित तत्कालीन भारत के ब्रिटिश आकाओं को भारत की जाति व्यवस्था के बारे में पता चले। ठीक से देखा जाए तो महाड चावदार आंदोलन एवं कालाराम आंदोलन भारत के सबसे गरीब लोगों से लेकर ब्रिटेन की महारानी तक को भारत के सामाजिक लोकतंत्र की वास्तविक तस्वीर दिखाने का एक कारगर उपाय था।
गुलाम भारत में आजादी के पश्चात स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की जो कल्पना उभर रही थी उसमें राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक समानता, नागरिक अधिकार, मानव अधिकार और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य लगातार चर्चा में बने हुए थे। इतने भारी भरकम शब्दों की लगातार चर्चा होती रहती। लेकिन डॉक्टर अंबेडकर और रामास्वामी पेरियार दोनों अपने-अपने लोगों के बीच यह महसूस करते थे कि भारत के ब्राह्मण नेता यूरोप से आयातित किए गए इन शब्दों की चर्चा करते हुए भारत के दलित और महिलाओं के बारे में बिल्कुल बात नहीं करते हैं (Anaimuthu 1980)।
रामास्वामी पेरियार दक्षिण भारत में द्रविड लोगों की सामाजिक और धार्मिक मुक्ति की बात करते हुए जाति उन्मूलन के बारे में बड़ा आंदोलन चला रहे थे। एक ही आंदोलन महाराष्ट्र में और उत्तर भारत में बाबासाहेब आंबेडकर चला रहे थे। इन दोनों के आंदोलन एक ही दिशा में जाते हुए नजर आते हैं, और ठीक से देखा जाए तो आजाद भारत में एक जिंदा लोकतंत्र की स्थापना के लिए ये आंदोलन चलाए गए थे। इन दोनों महापुरुषों के बीच में एक स्वर्णिम सूत्र काम कर रहा था दोनों मानते थे कि अगर भारत में सामाजिक लोकतंत्र नहीं आता है तो राजनीतिक लोकतंत्र किसी काम का नहीं होगा।
एक और जरूरी बात यहां यह भी है कि डॉक्टर आंबेडकर लोकतंत्र में भारत अछूतों के अलावा भारत के महिलाओं को भी समान अधिकार देना चाहते थे। उनका कहना था कि एक लोकतंत्र में एक इंसान का एक वोट होगा और वह आपस में बराबर होंगे। इतना ही नहीं बल्कि स्त्री और पुरुष का वोट भी बराबर होना चाहिए। आगे बढ़कर वे कहते थे कि सिर्फ वोट की बराबर नहीं होना चाहिए बल्कि वोट डालने वाले भी आपस में बराबर होने चाहिए। यही विचार दक्षिण में रामास्वामी पेरियार भी निर्मित कर रहे थे। उन्होंने सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट और सेल्फ रिस्पेक्ट मैरिज का नया विचार देकर दक्षिण भारत में सामाजिक लोकतंत्र की एक नई आवाज उठाई थी (Saraswathi 1994)।
इन दोनों के ठीक पहले महामना ज्योति राव फुले और सावित्रीबाई फुले इसी दिशा में अपना जीवन समर्पित कर चुके थे। फुले दंपत्ति ने जिस प्रकार बालिका शिक्षा और महिला शिक्षा के लिए काम किया वह गुलाम भारत में ही नहीं बल्कि भारत के हजारों साल के इतिहास में एक नई घटना थी। फूले दंपत्ति के आंदोलन को भी ठीक से समझा जाए तो यह लोकतंत्र की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होता है। लोकतांत्रिक चेतना एक शिक्षित समाज में ही संभव है। इसीलिए भारत को और भारत के करोड़ों ओबीसी, दलितों एवं महिलाओं को शिक्षित बनाने का बीड़ा उठाने वाले ज्योति राव फुले एवं सावित्रीबाई फुले ने पहली बार गुलाम भारत में शिक्षा के जगत में लोकतंत्र की बात उठाई थी। (Keer 1997)। उनका कहना था कि अगर भारत के करोड़ों दलित, पिछड़े और स्त्रियां अशिक्षित रहते हैं तो भारत एक विकसित समाज और एक लोकतंत्र नहीं बन सकता।
इस अंबेडकर माह में हमें इन बातों पर गौर करना चाहिए। पूरे बहुजन समाज की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुक्ति के लिए इस बहुजन विचारधारा की हम कल्पना करते हैं, वास्तव में फूले अंबेडकर पेरियार विचारधारा है। हालांकि इन तीनों में आपस में बहुत मतभेद हैं, लेकिन यह बिल्कुल स्वाभाविक बात है। तीन महान विचारक सामाजिक राजनीतिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर एक ही जैसा सोचेंगे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके विचारों में भिन्नता होने के बावजूद उनके लक्ष्य एक समान है। हमें अंबेडकर माह में ना केवल बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों को बल्कि रामास्वामी पेरियार हो ज्योति राव फुले के विचारों पर भी ध्यान देना चाहिए। बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों के जरिए रामास्वामी पेरियार और ज्योति राव फुले को समझना बहुत आसान है। इसलिए अंबेडकर माह में इस विशेष लेखों की श्रंखला के माध्यम से हम फुले-अंबेडकर-पेरियार विचारधारा से जुड़े मुद्दों को स्पष्ट करते रहेंगे।
संदर्भ ग्रंथ
Ambedkar, B. R. 1994. Dr Babasaheb Ambedkar Writings & Speeches. Vol. 2. 17 vols. New Delhi: Ministry of Social Justice & Empowerment, Government of India.
Anaimuthu, V. 1980. Contribution of Periyar E.V.R. to the Progress of Atheism. Chennai: Periyar Nūl Veliyittakam.
Dwivedi, H.S., and Ratan Sinha. 2005. ‘Dr. Ambedkar : The Pioneer of Social Democracy’. The Indian Journal of Political Science 66 (3): 661–66.
Keer, Dhananjay. 1997. Mahatma Jotirao Phooley: Father of the Indian Social Revolution. Mumbai: Popular Prakashan.
Khilnani, Sunil. 2016. Incarnations: History of India in 50 Lives. New Delhi: Penguin India.
Omvedt, G. 1993. Reinventing Revolution: New Social Movements and the Socialist Tradition in India. New York: M. E. Sharpe Incorporated.
Saraswathi, Srinivasan. 1994. Towards Self-Respect: Periyar EVR on a New World. Chennai: Institute of South Indian Studies.
आगामी सितंबर महीने में भीमा कोरेगांव पर एक फिल्म रिलिज होने जा रही है। भीमा कोरेगांव पर बनी यह अब तक की सबसे बड़ी फिल्म है, जो हिन्दी में बन रही है। फिल्म में मुख्य भूमिका में अर्जुन रामपाल हैं, तो उनके साथ कई दिग्गज कलाकार भी फिल्म का हिस्सा हैं। फिल्म के निर्माता-निर्देशक पूर्व आईएएस अधिकारी रमेश थेटे हैं। यह फिल्म रमेश थेटे फिल्मस के बैनर के तहत बनी है। फिल्म सितंबर महीने में रिलिज हो रही है। फिल्म को लेकर फिल्म के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर रमेश थेटे ने एक शानदार योजना बनाई है। जिससे फिल्म न सिर्फ ज्यादा से ज्यादा बहुजन समाज के लोगों तक पहुंचेगी, बल्कि फिल्म देखकर दर्शक करोड़पति भी बन सकते हैं। नीचे दिये यह वीडियो देखिए, जिसमें रमेश थेटे बता रहे हैं कि यह फिल्म आपको कैसे करोड़पति बना सकती है-
फिल्म में स्पेशल टिकट बुक करने के लिए आप नीचे दिए डिटेल को देखिए। बुकिंग करते समय दिये गए नंबर पर व्हाट्सएप करते हुए या फिर मेल करते हुए “दलित दस्तक” का उल्लेख जरूर करें।
भारतीय जनता पार्टी पर अक्सर ईवीएम से छेड़छाड़ को लेकर आरोप लगता रहा है। असम चुनाव के दौरान एक भाजपा उम्मीदवार की निजी गाड़ी से ईवीएम बरामद होने के बाद इस मामले ने और तूल पकड़ लिया है। सोमवार को असम में दूसरे चरण के चुनाव के बाद ही भाजपा के मौजूदा विधायक और उम्मीदवार कृष्णेंदु पाल की गाड़ी से ईवीएम बरामद हुआ। बेलेरो गाड़ी भाजपा नेता के पत्नी के नाम पर पंजीकृत है।
ईवीएम बरामद होने के मामले को लेकर राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं की कड़ी प्रतिक्रिया सामने आने के बाद चुनाव आयोग ने चार मतदान अधिकारियों को निलंबित कर दिया है। चुनाव आयोग ने ईवीएम विवाद को देखते हुए राताबाड़ी सीट के एक मतदान केंद्र में नए सिरे से मतदान कराने का आदेश दिया है।
दरअसल एक अप्रैल को 39 सीटों के लिए वोटिंग समाप्त होने के महज़ कुछ घंटे बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो सामने आया, जिसमें एक प्राइवेट कार में ईवीएम ले जाते हुए दिखाया जा रहा है। असम के वरिष्ठ पत्रकार अतानु भुयां ने यह वीडियो ट्विट किया। यह घटना बराक घाटी के करीमगंज के कानीसेल क्षेत्र की है, जहाँ स्थानीय लोगों ने गुरुवार की रात एक सफ़ेद बोलेरो कार को देखा, जिसमें कथित तौर पर ईवीएम मशीन थी।
EC की गाड़ी ख़राब, भाजपा की नीयत ख़राब, लोकतंत्र की हालत ख़राब!#EVMs
ईवीएम सामने आने के बाद भाजपा पर चौतरफा हमला शुरू हो गया है। साथ ही भाजपा पर ईवीएम से छेड़छाड़ को लेकर जो आरोप लगता रहा है, उसे भी बल मिला है। वहीं दूसरी ओर आलोचना के बीच गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि चुनाव आयोग इस बारे में कार्रवाई करे, उसे किसने रोका है।
सरकार और अदालत द्वारा एससी-एसटी एक्ट रद्द किये जाने के बाद 2 अप्रैल 2018 को दलित समाज ने बड़ा आंदोलन किया था। देश भर में दलित समाज के युवा अपने इस संवैधानिक अधिकार को बचाने के लिए सड़कों पर उतर आए थे। क्या गांव, क्या शहर हर ओर सड़कों पर सिर्फ नीले झंडे और बाबासाहब की तस्वीरें दिख रही थी। आखिरकार इस जोरदार विरोध प्रदर्शन से डर कर भाजप की केंद्र सरकार ने संसद में विशेष अधिनियम लाकर इस कानून को फिर से बहाल कर दिया। हालांकि इस आंदोलन में दर्जन भर से ज्यादा युवा शहीद हो गए थे, जबकि लाखों युवाओं पर मुकदमा हो गया था, जो अब तक चल रहा है।
2 अप्रैल की तीसरी वर्षगांठ पर बहुजन समाज ने इन शहीदों को याद किया और आंदोलन के जरिए जीत का जश्न मनाया। समाज के बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्ट आदि ने इस मौके पर ट्विट कर जहां शहीदों को श्रद्धांजली दी तो वहीं कहा कि आंदोलन किसी भी समाज के जिंदा रहने का प्रमाण है।
2 अप्रैल 2018 के #भारतबंद के दौरान अपने संवैधानिक हक़ों की सुरक्षा और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए जातिवादी तत्वों के अत्याचार और सरकार की हिंसा और अन्याय के शिकार हुए अमर शहीद नौजवानों को कोटि-कोटि नमन. pic.twitter.com/9cJ3BS9bJv
संविधान रक्षक शहीदों को नमन। एसी-एसटी एक्ट आज आपकी वजह से सुरक्षित है। वरना सरकार और न्यायपालिका ने इसे ख़त्म कर ही दिया था। आप हमारी यादों में हमेशा रहेंगे। #2अप्रैल_शहीदों_को_नमनpic.twitter.com/e1nfw5Sv23