बहने दो नदी को

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 जून 2021 के तीसरे सप्ताह में अलीगढ़ से गृह जनपद महराजगंज जाना हुआ। समय से पूर्व मानसून आ चुका था और 16 से 20 जून तक मूसलाधार बारिश से सब नदी नाले उफान पर आ गये। धान की नर्सरी और रोपाई वाले सभी खेत तालाब की तरह भर गये। इस साल अच्छी बात ये हुई है कि नालों और छोटी नदियों से पोकलेन मशीनों से गहरी सफाई हुई है जिसके कारण उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ गयी है और वे सभी बारिश के अतिरिक्त पानी को लेकर तेजी से बहे जा रहे थे। यह एक सकारात्मक कार्य हुआ है क्योंकि किसानों और भूमाफियाओं द्वारा जो अतिक्रमण नदी/नालों के प्रवाह क्षेत्र पर हुआ था उसको कुछ हद तक कम किया जा सका है और बाढ़ से फसलों के नुकसान का खतरा कम हुआ है। उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में स्थित अत्यधिक वर्षा प्राप्त करने वाले अपने गृह जनपद में मेरे अपने गाँव की सीमा पर बहने वाली कुंवरवर्ती नदी/हिरना नाला में हमने पिछले दो दशकों में जल प्रवाह में लगातार कमी आते देखा है। साल भर बहने वाली यह नदी अब गर्मियों में लगभग सूख जाती है। कुंवरवर्ती जैसी छोटी नदियों का संकट बढ़ता जा रहा है अतः इनकी विशेष चिंता करने का समय आ चुका है।

इसी दौरान हमने मध्य प्रदेश और गुजरात राज्यों से होकर बहने वाली अत्यंत महत्वपूर्ण नर्मदा नदी के बारे में एक चिंताजनक खबर पढ़ी। नर्मदा नदी के उद्गम क्षेत्र में मानवीय दखल बढ़ने से जल प्रवाह में लगातार कमी हो रही है। वन क्षेत्रों में कमी और आवासों के निर्माण के कारण अमरकंटक उद्गम स्थल में जल की मात्रा कम होती जा रही है। निवेदिता खांडेकर लिखती हैं, ‘’नर्मदा उद्गम स्थल पर लोगों की बढती आबादी, निर्माण और जंगल ह्रास से नदी के अस्तित्व पर संकट मडराने लगा है। घास के मैदानों के ह्रास और प्रदूषण की वजह से नदी दम तोड़ने लगी है। नर्मदा के उद्गम के पहले तीन किलोमीटर में पांच चेक डैम और बैराज बनाये गए हैं जिससे नदी के कुदरती बहाव पर बुरा असर हुआ है’’। जर्नल ऑफ़ किंग साउद यूनिवर्सिटी के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित अध्ययन में नर्मदा नदी के अस्तित्व पर आ रहे खतरों के बारे में विस्तृत वर्णन दिया गया है। किसी भी नदी के कैचमेंट में स्थित जंगल ही नदी को सदानीरा बनाते हैं। नदियों के राईपरियन ज़ोन में स्थित वृक्ष नदी जल की गुणवत्ता और प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जंगलों के कटान और बड़े बांधों के निर्माण से नदियों के अस्तित्व और कुदरती स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

केन्या की विश्वविख्यात पर्यावरणविद एवं नोबल पुरस्कार विजेता वांगरी मथाई ने भी अपनी आत्मकथा में 1950 से आगे पचास वर्षों तक के काल में अपने देश की नदियों गुरा, तुचा और चानिया नदियों की जलप्रवाह में कमी होते जाने का उल्लेख किया है। वे चानिया नदी के बारे में बताते हुए लिखती हैं कि, ‘’बचपन में जब वे इस नदी को पार करती थीं यह बहुत चौड़ी थी तथा इसके पानी से शोर उठता था लेकिन अब (2005) यह अन्य नदियों की तरह सिकुड़ चुकी है और शांत होकर बहती है’’। ग्रीन बेल्ट मूवमेंट की चैंपियन वांगरी मथाई स्थानीय वनों में बाहर से लाये गये पेड़ों को हानिकारक बताती हैं। वृक्षों और वनों के महत्व को बताते हुए वे कहती हैं कि किस तरह उनके घर के पास के पहाड़ों में अंजीर के पेड़ों की गहरी जड़ों के पास से कमजोर मिटटी को फाडकर एक छोटी सी पानी की धारा निकलती थी। प्राकृतिक वनों को बचाकर ही हम जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक परिवर्तनों से मानवता को बचा सकते हैं तथा नदियों को विलुप्त होने से बचा सकते हैं।

हिमालय पर्वत से निकलने वाली गंगा जैसी सदानीरा नदी में भी पानी की मात्रा साल दर साल कम होती जा रही है। हजारो की संख्या में छोटी नदियाँ सूख चुकी हैं या बरसाती नाला मात्र रह गयी हैं। पहाड़ों में बढ़ते मानवीय दखल और पक्के निर्माण कार्यों के कारण बादलों के फटने, ग्लेसियरों के टूटकर गिरने की घटनाएँ बढती जा रही हैं। सुन्दरलाल बहुगुणा अपनी पुस्तक ‘धरती की पुकार’ में पहाड़ों के जंगलों और नदियों के प्राकृतिक स्वरूप से किसी भी तरह के छेड़छाड़ को विनाशकारी मानते हैं। वे बार-बार जंगल के उपकारों की याद दिलाते हैं:
जंगल के क्या उपकार?/ मिट्टी पानी और बयार,
मिट्टी पानी और बयार/ जीवन के हैं आधार

कैसे बनती है एक नदी
नदी एक नाजुक एवं जटिल संरचना का नाम है। भूगर्भ जल का एक हिस्सा ‘जल प्रवाह प्रणाली’का निर्माण करता है। पृथ्वी की सतहों के बीच जल का संग्रहण करने वाली संरचनाएं जलाशय और बहाव के लिए पाइपलाइन का निर्माण करती हैं। इन्ही जलाशयों में जल का संग्रहित होना ‘ग्राउंड वाटर रिचार्ज’कहलाता है। जमीन के सतह का पानी रिसकर नीचे भूगर्भ जल के भंडार में पहुँचता है।यह पानी दूर तक जमीन के नीचे की प्राकृतिक पाइपलाइन के सहारे धीमी गति से यात्रा करता रहता है और फिर किसी स्थान पर यह पानी पुनः भूतल पर गुरुत्वाकर्षण के माध्यम से प्राकृतिक प्रवाह में परिवर्तित हो जाता है। भूगर्भ जल और सतह पर स्थित जल के प्रवाह में काफी अंतर होता है। जहाँ भूतल पर प्रवाहित जल एक दिन में कई किलोमीटर की दूरी तय करता है वही जमीन के नीचे जल केवल कुछ मीटर तक जा पाता है।

 भू-आकृति विज्ञान में अपवाह बेसिन को एक जीवित जीव के रूप में लिया जाता, क्योंकि इसमें सरिता जाल द्वारा जल का संचरण होता रहता है। अतः अपवाह बेसिन की तुलना जीव से की जाती है (सिंह2020:359)। भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार नदी का अपवाह बेसिन एक भू आकृतिक इकाई है। विलियम मोरिस डेविस (1899) ने नदियों के महत्व को उजागर करते हुए लिखा है, ‘’सामान्य रूप में नदियाँ, किसी पत्ती की नसें होती हैं, व्यापक रूप में समग्र पत्ती होती है’’। देशों के अंदर प्रदेशों, जनपदों के बंटवारे का कार्य नदियों के द्वारा किया जाता है। जीन ब्रून्स (1920) के अनुसार,“नदियाँ धरातल एवं मानव क्रियाकलापों के मध्य कड़ी का कार्य करती हैं, क्योंकि जल किसी राष्ट्र एवं उसके निवासियों की प्रभुत्व सम्पन्न संपत्ति होता है।

यह पोषक तत्व होता है, उर्वरक होता है, यह उर्जा तथा शक्ति होता, यह परिवहन होता है”। वर्षा जल को एकत्र करके विभिन्न मार्गों से अपने क्षेत्र की विभिन्न सरिताओं को पानी पहुंचाने का कार्य जो स्थलीय क्षेत्र करता है उसे वाटरशेड या जलग्रहण क्षेत्र भी कहते हैं। किसी भी प्रमुख सरिता तथा उसकी सहायक सरिताओं के जाल को सामूहिक रूप से अपवाह जाल या ड्रेनेज नेटवर्क कह्ते हैं जिसके अंतर्गत सतत, मौसमी, अस्थायी सभी तरह की नदियाँ सम्मिलित होती है। नदी का उद्गम पहाड़, झील, ताल, कुआं जिस भी स्थान से हो वह अकेले नहीं बहती अपने मार्ग के वाटरशेड से आकर मिलने वाले छोटी नदियों, बरसाती नालों, अदृश्य वाटर चैनल को खुद में समेटकर वह अपनी जलराशि को समृद्ध करती रहती है। ‘नदी को अपने बहाव मार्ग में बरसात के पानी के अतिरिक्त भूजल से भी आदान-प्रदान की प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। नदी कही भूजल भंडारों से पानी प्राप्त करती है तो कहीं-कहीं उसके पानी का एक हिस्सा, रिसकर भूजल भण्डारों को मिलता है। नदी, दोनों ही स्थितियों का सामना करते हुए आगे बढ़ती है।

स्याही मुक्ति अभियान
देवरिया जनपद में बिहार राज्य की सीमा पर स्थित ‘स्याही नदी’ अपने नाम और वर्तमान स्थिति के कारण एक अनोखी नदी है। सन1916-17 में अंग्रेजों के जमाने में की गयी चकबंदी में बीस किमी लम्बाई में लगभग 300 मीटर चौड़ाई वाली महानदी स्याही के समस्त प्रवाह क्षेत्र को एक राजस्व ग्राम ‘मोहाल स्याही नदी’ के रूप में दर्ज कर उसके भीतर किसानों के कृषि कार्य हेतु चक आवंटन करना आश्चर्यचकित करने वाली प्रघटना है। नदी के प्रवाह मार्ग को किसानों की कृषि भूमि के रूप में दर्ज होने के कारण इस नदी में सिल्ट, घास और झाड़ियों की सफाई का कार्य करके पुनर्जीवित करना आसान नहीं था। हमने इसके राजस्व रिकार्ड को उर्दू से हिंदी में अनुवाद कराया तथा उसका सम्पूर्ण भू-चित्र तैयार कराया। नदी के दोनों किनारों पर बसे ग्रामीणों की सहमति मिलनी आसन न थी।

लेकिन पिछले कई सालों से अच्छी बरसात न होने के कारण एवं पानी की कमी से उत्पन्न कठिनाईयों का भुक्तभोगी होने के कारण ग्रामीणों का सहयोग मिला जिसने ‘स्याही मुक्ति अभियान को’ आगे बढाने में मदद की। इस नदी के लिए कार्य करने के साथ ही ग्राम प्रधानों, क्षेत्र के प्रबुद्ध जनों और ग्रामीणों को लगातार प्रदेश के अन्य जनपदों में किये गए नदी पुनर्जीवन के कार्यों और सक्सेस स्टोरी के बारे में बताकर प्रोत्साहित किया गया। उदाहरण के तौर पर फतेहपुर की ससुर खदेरी और अम्बेडकर नगर और आजमगढ़ की तमसा नदी को मनरेगा योजना से पुनर्जीवित किये जाने की भी चर्चा की गयी। स्याही नदी देवरिया (उत्तर प्रदेश) और गोपालगंज और सीवान (बिहार) सीमा पर बहती है जिसे लोग ‘महानदी स्याही’ भी कहते हैं। इस नदी के दोनो किनारे राईपरियन ज़ोन और बंधे बड़ी संख्या में पेड़ भी मौजूद हैं। इसमें मुख्य रूप से पीपल बरगद, शीशम, जामुन और गुटेल हैं। स्याही नदी के साथ दो नकारात्मक चीजें जुडी हैं पहली यह कि इस नदी की गहराई बहुत कम है, दूसरे चकबंदी, बाढ़ एवं सिंचाई और राजस्व विभाग की लापरवाही के कारण इसके 20 किमी लम्बे प्रवाह क्षेत्र में लगातार अतिक्रमण होने तथा सिल्ट सफाई न होने के कारण यह नदी सूख चुकी थी। एक दशक से कम बारिश होने से भी नदी के जल भण्डार में कमी आयी है। क्षेत्रीय संगठनों और नागरिकों के प्रयासों के कारण अधिकारियों का ध्यान स्याही नदी की तरफ गया। नदी के कैचमेंट एरिया में स्थित गाँवों में पिछले एक दशक से पेयजल और सिंचाई को लेकर आ रही मुश्किलों के समाधान की तरफ कदम बढ़े। परिणामस्वरूप वर्ष 2020 में मनरेगा योजना के तहत नदी के प्रवाह मार्ग की सफाई और गहराई बढाने का कार्य किया जा रहा है ताकि खोई हुई नदी को एक आकार मिल सके। वर्ष 2019 से 2021 तक लगातार अच्छी बारिश भी नदी को पुनर्जीवित करने में सहयोग मिल रहा है।

उपसंहार
नदियों और प्राकृतिक नालों की जीआइएस मैपिंग कराकर उनका रिकॉर्ड राजस्व विभाग एवं पर्यावरण और वन विभाग के पास रखा जाना चाहिए ताकि लोग नदी के अपवाह क्षेत्र और रिवर बेड पर अतिक्रमण न कर सकें। प्रत्येक वर्ष उनकी पड़ताल और निगरानी करके प्रत्येक तरह के अतिक्रमण रोकना होगा। जल अधिनियम और जल परिषद की गतिविधियों को प्रत्येक जल निकाय तक पहुँच बाढ, सिंचाई और नेशनल और स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट के सहयोग से किया जाना। पुलिस, प्रशासन, सिंचाई और वन विभाग के अधिकारीयों को लगातार ट्रेनिंग देकर जागरूक एवं सचेत करना कि नदियाँ और जल पृथ्वी जीवन के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं इनके स्रोतों की सुरक्षा करना हमारा प्राथमिक दायित्व है। नदियों के निर्माण और प्रवाह सम्बन्धी जानकारियों को विश्वविद्यालयों एवं तकनीकी संस्थानों के भूगोल विभागों और अर्थसाइंस के विभागों से निकाल कर जनता के बीच ले जाने हेतु वृहद कार्यक्रम बनाना जिसमे पोस्ट ग्रेजुएट तथा शोध छात्र गाँवों में जाकर तालाब झील और नदी के महत्व और उनके बीच अंतर्निहित सम्बन्धों को समझाते हुए जल संरक्षण की मुहिम चला सकें। यह समस्त कार्यक्रम भारत सरकार के जलशक्ति मंत्रालय की निगरानी में सम्पूर्ण देश में हो तो इस दिशा में बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।

सन्दर्भ
बहुगुणा, सुन्दरलाल (1996) धरती की पुकार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
खांडेकर, निवेदिता (2021) नर्मदा के उद्गम से ही शुरू हो रही है नदी को खत्म करने की कोशिश, इन हिंदी।मोंगाबे।कॉम आन 3 फरवरी 2021।
मथाई, वांगरी (2006) अनबोड : ए मेमोयर, एंकर बुक्स, न्यू यॉर्क।
सिंह, सविन्द्र (2020) भू-आकृति विज्ञान,वसुंधरा प्रकाशन गोरखपुर।
सिंह, सविन्द्र (2020) जलवायु विज्ञान, प्रवालिका प्रकाशन, इलाहाबाद।

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