पंजाब विधानसभा चुनावः अकाली-बसपा गठबंधन; आशा की एक किरण

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पंजाब कई संदर्भों में भारत का विलक्षण राज्य है। इसकी सामाजिक संरचना धर्म और जाति के लिहाज से भारत के राष्ट्रीय प्रारुप या अधिकांश राज्यों से बिल्कुल भिन्न है। राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में बहुसंख्यक हिन्दू पंजाब में अल्पसंख्यक हैं। पंजाब में सिख धर्म के मानने वालो की संख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 58 प्रतिशत है जो आश्चर्यजनक रूप से 1961 के 61 प्रतिशत से तीन प्रतिशत कम है। पंजाब में अनुसूचित जाति की संख्या पूरे भारत में प्रतिशत के हिसाब से सर्वाधिक है, 2011 की जनसंख्या के अनुसार पंजाब में अनुसूचित जातियों की कुल संख्या का 32 प्रतिशत थी जिसकी पूरी संभावना है कि 2021 में यह बढ़कर प्रतिशत हो चुकी है। पंजाब में कुल सिखों का कम से कम प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति से संबंध रखता है। आज भी अनुसूचित जाति के प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं। पंजाब के तकरीबन 57 गाँव ऐसे हैं जिनमें 100 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं। अगर एक दो उदाहरणों को छोड़ दें तो ऐसा शायद ही किसी और प्रदेश में देखने को मिलेगा।

शहीद भगत सिंह नगर, श्रीमुक्तसर नगर, फरीदकोट, फिरोजपुर तथा जलंधर ऐसे जिले हैं जिनमें अनुसूचित जाति की संख्या 40% या उससे अधिक है। वहीं दूसरी और पंजाब की कुल जमीन का सिर्फ 6% हिस्सा ही अनुसूचित जाति के लोगों के पास है। प्रदेश में अनुसूचित जाति के कुल 2 प्रतिशत लोग ही स्नातक या उससे अधिक पढ़े लिखे हैं। राज्य विधान सभा की 117 सीटो में से 32 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं हालांकि संवैधानिक प्रावधान के अनुसार कम से कम 39 सीटे अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होनी चाहिए। प्रदेश में अनुसूचित जाति की कमजोर राजनैतिक स्थिति एवं चुने हुए आरक्षित प्रतिनिधियों की अकर्मण्यता, हैसियत एवं उपयोगिता पर यह एक ज़बरदस्त आक्षेप है। संसाधनों के अभाव में कई जगह पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद यहाँ की अनुसूचित जाति की राजनीति के लाचार एवं निर्भर होने पर पूना पैक्ट का दुष्प्रभाव साफ नज़र आता है।

पंजाब में जाट सिख समुदाय राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक रूप से वर्चस्वशाली रहा है। प्रदेश में कभी किसी और समुदाय के पास इतना प्रभाव या शक्ति नहीं रही है। इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि ज्ञानी जैल सिंह (1972-1977) जो बाद में केन्द्रीय गृह मंत्री एवं राष्ट्रपति भी बने, पंजाब के अंतिम गैर सिख जाट मुख्यमंत्री थे। उसके बाद पिछले 43 वर्षों से पंजाब का हर मुख्यमंत्री जाट सिख रहा है। सभी अकाली दलों और कांग्रेस या आम आदमी पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हमेशा से जाट सिखों के हाथ में ही रहा है। यही सच्चाई अकाल तख़्त या शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की भी रही है। हालाँकि पंजाब की कुल जनसंख्या में मात्र 20 प्रतिशत के आसपास ही जाट सिख हैं लेकिन उनका रुतबा सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में कही अधिक है। लेकिन भारतीय समाज एवं लोकतंत्र में संख्या का महत्व ही कब रहा है। अमूमन हर मामले में संख्या का प्रभाव विपरीत ही रहा है। शिरोमणि अकाली दल आज इस समुदाय का प्रतिनिधि राजनीतिक दल है, 1966 में हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश से अलग होने के बाद यह दल छह बार पंजाब में अपनी सरकार बना चुका है। वर्तमान कांग्रेसी सरकार से पहले मार्च 2017 तक प्रकाश सिंह बदल के नेतृत्व में इनकी सरकार चल रही थी, वर्तमान विधानसभा में SAD के 15 विधायक हैं जिन्हें कुल 31% वोट मिले थे।

पंजाब में 1992 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करते हुए 17 प्रतिशत मत, 9 सीटें और मुख्य विपक्षी पार्टी की मान्यता हासिल की थी। फिर 1996 के लोकसभा चुनाव में SAD से लोकसभा गठबंधन में 100 स्ट्राइक

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रेट के साथ अपनी लड़ी तीनों सीटो के साथ 13 में से 11 सीटें जीत ली थी। लेकिन उसके बाद पंजाब में बसपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है। 1997 के विधानसभा चुनावों में बसपा को सिर्फ एक सीट मिली थी और पिछले चार विधानसभा चुनावों (2002, 2007, 2012, 2017) में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई है जबकि बसपा हर बार लगभग सभी सीटो पर अपने प्रत्याशी उतारती रही है। पिछले विधान सभा चुनाव में बसपा को कुल 1 करोड़ 55 लाख वोटों में से 2 लाख 35 हजार वोट प्राप्त हुए थे जो कि सिर्फ कुल वोट का मात्र 1.52 प्रतिशत ही था। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी राज्य में अपनी खोई हुई राजनैतिक जमीन को दुबारा से प्राप्त करने की पूरी कोशिश कर रही है। अपनी स्थापना के 12 साल में ही जब 1996 में बसपा ने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल किया था उसमें पंजाब में बसपा को 1992 प्राप्त मतों (16.3%) का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था।

आज जब बसपा राष्ट्रीय स्तर पर अपने उस दर्जे को बनाये रखने की जद्दोजहद कर रही है, लगता है पंजाब एक बार फिर बसपा की इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहा है। हालांकि जमीनी सच्चाई से दूर बैठे हुए कुछ लोगों को यह लग सकता हैं कि SAD-BSP गठबंधन में बसपा के हिस्से में मात्र 20 सीटें आई हैं और SAD को 97 मिली हैं लेकिन पिछले चुनावों में दोनों दलों के तुलनात्मक प्रदर्शन से यह साफ हो जाता है कि यह समझौता काफी सम्मानजनक एवं राजनैतिक सूझबूझ भरा है BSP और SAD दोनों ही इस समझौते से अपनी राजनीतिक जमीन हासिल कर सकते है।

इस बार जिस तरह की सुदृढ़ तैयारी ऊर्जावान एवं युवा प्रदेश बसपा संगठन की पंजाब में दिख रही है, जिसका प्रदर्शन उसने स्थानीय निकायों के चुनावों में अच्छी सफलता प्राप्त करके दिया है। और केन्द्रीय नेतृत्व ने समय रहते शिरोमणि अकाली दल से अपना गठबंधन घोषित किया है उससे निश्चित ही 1992 के अपने मत प्रतिशत एवं सीटो के मामले में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने की संभावना दिख रही है। क्योंकि यह गठबंधन चुनावों से लगभग आठ महीने पहले हुआ हैं इससे संगठन के स्तर पर दोनों दलों को तालमेल बैठाने का पर्याप्त समय भी मिल गया है। प्रदेश की राजनीति में खासतौर पर अनुसूचित जाति की महत्वपूर्ण संख्या को देखते हुए यह चुनावी गठबंधन बसपा को यह दीर्घकालीन मजबूती प्रदान कर सकता है।

अगर सामाजिक संबंधों के सन्दर्भ में अकाली बसपा गठबंधन का आकलन किया जाये तो यह राजनैतिक प्रक्रिया भविष्य के सामाजिक गठबंधन एवं वैचारिक एकता की बुनियाद बन सकती है। दोनों दल जिन सामाजिक समुदायों का राजनीतिक एवं वैचारिक प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, ये समुदाय पंजाब में पिछले 500 वर्षों के सभी सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक आंदोलनों एवं क्रांतियों की धुरी रहे हैं। वह चाहे खालसा क्रांति से लेकर आदि धर्मी एवं वर्तमान किसान तक। कांशीराम साहब कहा करते थे कि जाट सिख एक क्रांतिकारी कौम है जिसने इतिहास में कभी भी ब्राह्मण वादी वर्चस्व या उसके सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को स्वीकार नहीं किया।

दोनों समुदाय खेती से जुड़े है और अधिकतर खेतिहर मजदूर जहाँ अनुसूचित जाति वर्ग से आते है वही जाट अधिकतर खेती योग्य जमीन पर मालिकाना हक़ रखते हैं। जाहिर है दोनों समुदायों में आर्थिक संबंधों की वजह से तनाव की स्थिति बन जाना सहज है, लेकिन इस बीच बहुत से अनुसूचित जाति के लोग विदेशों में जाकर अपना कारोबार कर रहे हैं, जिसने लाखों लोगों आर्थिक मजबूती प्रदान की है। वही दूसरी तरफ पिछले तीन दशकों में कृषि के साथ सरकारों के सौतेले व्यवहार, कृषि सहित चारों और बढ़ते निजी-करण का खतरा, बढ़ते एवं पढ़ते परिवार, बिचौलियों की मुनाफाखोरी तथा घटती जमीनों के आकर ने किसानों एवं खेती से जुड़े समुदायों पर ज़बरदस्त दबाव बढाया हैं जिस कारण सैकड़ों जमींदार अपनी जमींदारियों के साथ गुम-नामी के अंधकार में विलीन हो गये और आज भी हो रहे हैं। यह गठबंधन इस तनाव से गुजर रहे दोनों समूहों को राजनीतिक रूप से नजदीक लाकर परम्परागत संबंधों को बराबरी के स्तर पर लाकर ऐतिहासिक शुरुआत कर सकता है।

इस गठबंधन के साथ ही विधानसभा के फरवरी 2022 में होने वाले चुनाव में SAD-BSP सरकार बनाने के प्रमुख दावेदार बन गये हैं। कृषि कानून के खिलाफ चल रहे ऐतिहासिक आन्दोलन के चलते, पंजाब में किसानों, युवाओं एवं व्यापारियों में केंद्र की भाजपा सरकार एवं अपने ढुलमुल रवैये के कारण राज्य की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जन आक्रोश चरम पर है। ऐसे में पंजाब का चुनाव भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित हो सकता है न सिर्फ पंजाब के लिए बल्कि आने वाले अप्रैल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए और फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भी।


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