उत्तर प्रदेश में गंगा नदी में लाशों के अंबार से हड़कंप मच गया है। पिछले दिनों बिहार के बक्सर में गंगा नदी में तैरती लाशें देखी गई थी, तो वहीं अब उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में नदी में तैरती लाशें दिखने से कोहराम मच गया है। सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें और वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिसमें तैरती लाशें दिख रही हैं। ये लाशें कहां से आई है, आधिकारिक तौर पर कहने से हर कोई बच रहा है, लेकिन चर्चा है कि कोरोना से हुई मौतों के बाद कई लोग अपने परिजनों की लाशों को बहा दे रहे हैं।
उत्तर प्रदेश से बिहार में प्रवेश करने वाली गंगा नदी में बिहार के बक्सर जिले के चौसा गांव में बड़ी संख्या में लाशें तैरती हुई देखी गई। यह बात सामने आने पर बक्सर के डिस्टिक मजिस्ट्रेट ने सोमवार 10 मई कोएक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान 30 लाशों के गंगा नदी में पाए जाने की बात स्वीकार की थी और इनका विधिवत अंतिम संस्कार करने के इंतजाम किए। इन लाशों का अंतिम संस्कार चौसा गांव के चरित्र-वन और चौसा महादेव घाट पर किया जा रहा है।
एक हिंदी-पत्रकार के तौर पर अपने लगभग चालीस वर्ष के अनुभव और देश-विदेश के अपने भ्रमण से अर्जित समझ के आधार पर पिछले कुछ वर्षो से यह बात मैं लगातार कहता आ रहा हूं, उसे आज फिर दोहराऊंगा। इस महामारी में भी नये सिरे से इसे कहने की जरुरत है। हमारा साफ शब्दों में कहना है कि अब उत्तर भारत के हिंदी-भाषी इलाकों के गरीबों और उत्पीड़ित समाज के लोगों को अपने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी में शिक्षित करने का प्रबंध करना चाहिए। खर्च में कटौती करना पड़े तो भी बच्चों की अच्छी शिक्षा पर कोई समझौता नहीं कीजिये। सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक संगठनों को गांव-गांव ऐसे स्कूल खोलने चाहिए, जहां बच्चों को शुरु से ही अंग्रेजी में शिक्षित किया जा सके। बेशक, वे एक भाषा के तौर पर हिंदी भी पढें-समझें!
अपने को आपका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं से भी यह सुनिश्चित कराइये कि वे सरकार में आने पर आपके बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह अंग्रेजी में शिक्षा का प्रबंध करेंगे। हर चुनाव में आम लोग अपने नेताओं पर इसके लिए दबाव बनायें। याद रखिये, हर प्रमुख नेता (वह चाहे जिस जाति या धर्म का हो!) का बेटा अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा होता है या पढ़ रहा होता है।
इस महामारी (कोविड-19) के बाद जब हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को। अंग्रेजी के बगैर होम-डिलीवरी वाली कंपनियों की साधारण नौकरी भी नहीं मिलेगी। मामला सिर्फ नौकरी का नहीं है। सूचना, ज्ञान और विज्ञान की दुनिया से बेहतर परिचय के लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान ज़रूरी है। हिंदी में पढ़कर आपके बच्चे सूचना के लिए हिंदी उन अखबारों को पढ़ने और, टीवीपुरम् के कथित न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए अभिशप्त होंगे, जिनका न्यूज़ की दुनिया से अब कोई वास्ता नहीं, वे सब एक अमानवीय सोच, एक जनविरोधी राजनीतिक धारा और कारपोरेट प्रोपगेन्डा के संगठित मंच भर हैं। आपके बच्चे अगर फर्राटेदारअंग्रेजी नहीं जानेंगे तो देश-विदेश के अपेक्षाकृत अच्छे मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नहीं कर सकेंगे। घटिया प्रोपगेन्डा के घटिया मंच उनके दिमाग में घटिया विचार इंजेक्ट करेंगे।
अब इस महामारी में ही देख लीजिये। हर जरूरी चीज का नाम अंग्रेजी में है: टीका का नाम सब भूल चुके हैं। अब उसे ‘हिंदी’, ‘हिंदू’ और ‘हिन्दुस्थान’ वाले भी ‘वैक्सीन’ कहते हैं। देश के हिंदी अखबारों में भी ‘वैक्सीन’ और ‘वैक्सीनेशन’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं। इसे वे ‘अप-मार्केट’ की भाषा ‘हिंग्लिश’ कहते हैं। फिर आपके बच्चे ऐसी घटिया भाषा क्यों बोलें? वे सीधे अंग्रेजी ही क्यों न बोलें? महामारी के बारे में हिंदी अखबारों में सार्थक और ज़रूरी खबरें बहुत कम छप रही हैं। हिंदी के न्यूज़ चैनल इतना सब सामने होता देखकर भी सरकारी भोंपू बने हुए हैं- पूरे के पूरे टीवीपुरम्! उनमें काम करने वाले भी ज्यादातर कुछ ही समुदायों के होते हैं।
विदेश के अंग्रेजी अखबार-न्यूज चैनल ही आज भारत का सच बताते दिख रहे हैं। अगर देश में यह काम कोई कर रहा है तो वे भारत की अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट हैं। इनमें कुछ दो भाषाओं में भी हैं। देश के कुछेक अंग्रेजी चैनलों के कुछेक एंकर और विश्लेषक भी अच्छे कार्यक्रम पेश कर रहे हैं। वेबसाइटों की पहुंच अभी हमारे यहां ज़्यादा नहीं है।
लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि ज्ञान-विज्ञान का बड़ा खजाना अंग्रेजी में है। हमारी सरकारों ने बीते 73 वर्षो में हिंदी को इस लायक बनाया ही नहीं। सरकारों के असल संचालक अंग्रेजी में सोचते और करते रहे, नेता हिंदी भाषी क्षेत्रों की गरीब और उत्पीड़ित जनता खो हिंदी के नाम पर बेवकूफ़ बनाते रहे! आज गरीबों के बच्चे हिंदी में क्यों पढें? क्या तर्क है
हिंदी-वादियो के पास? क्या सिर्फ मजदूरी करने के लिए हिंदी में पढ़ें? रिक्शा या टेम्पो चलाने के लिए? या कुछ ‘शक्तिशाली लोगों’ के इशारे पर काम करने वाली दंगाइयो की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए ?
इसलिए, हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्पीड़ित समाजों के लोगों, अब आप अपने बच्चों को वैज्ञानिक, प्रोफेसर, रिसर्चर, समाज विज्ञानी, न्यायविद्, लेखक, आईआईटियन, कम्प्यूटर विज्ञानी और अंतरिक्ष विज्ञानी बनाने के लिए अंग्रेजी को उनकी शिक्षा का माध्यम बनाइये। पढ़-लिखकर वे स्वयं भी बदलेंगे और अपने समाजों में बदलाव का प्रेरक भी बनेंगे।
इस बारे में हिंदी क्षेत्र के कुछ बुजुर्ग होते नेताओं या कुछ आत्ममुग्ध हिंदी लेखकों-बुद्धिजीवियों की फ़ालतू और बासी दलीलो से कन्फ्यूज होने की जरूरत नहीं है। यही न कि वो आपसे कहने आयेंगे कि आप अपनी प्यारी हिंदी छोड़कर अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा क्यों दिलाने लगे? आप पूछियेगा उनसे, उनमें कितनों के बच्चे निगम या पंचायत संचालित हिंदी वाले स्कूलों में पढ़ते हैं? फिर वे आपको बेवजह हिंदी-भक्त क्यों बनाये रखना चाहते हैं?
सोचिये और बदलिये, वरना बहुत देर हो जायेगी!
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में सार्वजनिक जीवन में सबसे अगली पंक्ति में काम करने वाले लोगों एवं उनके परिवारों को टीकाकरण में प्राथमिकता देने की घोषणा की है। छत्तीसगढ़ के पत्रकारों, वकीलों, सरकारी कर्मचारियों एवं सरकारी कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों सहित उनके परिवारों को भी फ्रंटलाइन वर्कर के रूप में देखा जाएगा। इस प्रकार ना केवल इन कर्मचारियों को बल्कि उनके परिवारजनों को भी टीकाकरण अभियान में पहली प्राथमिकता दी जाएगी।
इसे एक बड़ी रणनीतिक पहल के रूप में देखा जा रहा है। कोरोना से युद्ध में फ्रंट लाइन पर काम करने वाले लोगों की शिकायत रहती थी कि उन्हें स्वयं को टीका लगने के बावजूद उनके घर वालों में संक्रमण का खतरा बना रहता था। सिर्फ एक व्यक्ति को टीका लग जाने से पूरा परिवार सुरक्षित नहीं हो जाता है, छत्तीसगढ़ में फ्रंटलाइन वर्कर्स अपने काम के दौरान एवं अपने पारिवारिक जीवन में बहुत अधिक तनाव का सामना कर रहे थे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने इस बात को समझा एवं इसके लिए जरूरी उपाय किए हैं। अब छत्तीसगढ़ राज्य के कोरोनावायरस एवं फ्रंटलाइन वर्कर्स स्वयं की एवं परिवार की चिंताओं से मुक्त होकर अधिक ऊर्जा एवं लगन के साथ काम कर सकेंगे।
प्राप्त जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ प्रशासन के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सामने यह मांग रखी थी। छत्तीसगढ़ प्रशासन की तरफ से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के कई राज्यों में पत्रकारों एवं वकीलों को फ्रंटलाइन वर्कर्स की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने इन वकीलों एवं पत्रकारों के परिवारों को भी इस श्रेणी में शामिल कर लिया है।
2021 के शुरुआत में जनवरी महीने में कोरोना के दौर में एक बार फिर से भारत की सफाई व्यवस्था की पोल खुल चुकी है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि भारत में साफ-सफाई एवं सैनिटेशन की सुविधाओं के बारे में गलत आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। सैनिटेशन के विशेषज्ञ आसिफ वानी का कहना है कि भारत को पब्लिक हेल्थ और विशेष रूप से ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा एवं सैनिटेशन पर बहुत ध्यान देना पड़ेगा।
उनका कहना है कि फरवरी 2020 में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में 1404 लोगों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 10926 लोगों पर एक डॉक्टर मौजूद है। इस आंकड़े के हिसाब से देखा जाए तो भारत स्वास्थ्य के मामले में दुनिया में बहुत पीछे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 नागरिकों पर एक डॉक्टर की उपलब्धि होनी चाहिए। इस लिहाज से देखा जाए तो ब्राजील कितनी भारत से बहुत अच्छी है, इसके बावजूद वहां पुराना की महामारी ने कहर बरपा रखा है।
भारत की सैनिटेशन और पब्लिक हेल्थ की स्थिति बहुत ही खराब है। भारत में लगभग 60 लाख लोग लोग हर साल, संक्रामक बीमारियों से मर जाते हैं, इसके अलावा 1000 नए जन्मे बच्चों में से 33 बच्चे 1 साल की उम्र तक पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं। यह स्थिति है जो कोरोना बीमारी के आने के पहले बनी हुई थी। आज कोरोना की महामारी के दौर में हम कल्पना कर सकते हैं कि जब सारा स्वास्थ्य का इंफ्रास्ट्रक्चर कोरोना के पीछे लगा हुआ है, सब सामान्य संक्रामक बीमारियों एवं गैर संक्रामक बीमारियों से पीड़ित लोगों को किस तरह का इलाज एवं सुविधाएं मिल पा रही होंगी। इस नजरिए से देखा जाए तो कोराना ने भारत की स्वास्थ्य एवं सेनिटेशन व्यवस्था को दुनिया के सामने नंगा कर दिया है।
कोरोना की इस वैश्विक महामारी के बीच संक्रमण, मौत और अभाव सहित अव्यवस्था की सबसे बुरी मार भारत का वंचित तबका झेल रहा है। यह समाज ना केवल आर्थिक रूप से कमजोर होता है, बल्कि वे सामाजिक एवं शासन प्रशासन से मिलने वाली सहायता भी हासिल नहीं कर पाते हैं। ऐसे में बीमारियां एवं प्राकृतिक आपदाओं का सबसे ज्यादा असर भारत के दलितों एवं आदिवासियों पर ही होता है। ऐसे लोगों की मदद के लिए अमेरिका के बोस्टन से प्रयास शुरू किए गए हैं और यह प्रयास शुरू किया है, अमेरिका बोस्टन में बसी कुमारी अर्जुन और उनके साथियों ने।
कुमारी अर्जुन और हेल्थ वर्कर साथी टेलीफोन, इंटरनेट और टेलीमेडिसिन के जरिए भारत के दलित एवं आदिवासी परिवारों में कोरोना से संक्रमित हो रहे मरीजों की मदद कर रहे हैं। लगभग 10 साल पहले अर्जुन ने भारत के आदिवासियों के लिए टेलीहेल्थ प्रोग्राम बनाया था। इसका उद्देश्य दूरदराज में बसे हुए आदिवासियों को इंटरनेट और मोबाइल फोन के जरिए चिकित्सकीय परामर्श उपलब्ध कराना था। उनका कहना है कि एक साल पहले जब कोविड-19 की बीमारी शुरू हुई उन्हें अपने इस प्रयास की सार्थकता नए स्तर पर दिखाई दी। उन्होंने अनुभव किया कि आदिवासियों एवं दलितों को भारत में वैसे भी देखना या छूना पसंद नहीं किया जाता है, ऐसे में कोरोना की बीमारी होने के बाद उनके खिलाफ सबसे गंदा भेदभाव शुरू होगा। इसीलिए उन्होंने अपने मूल कार्यक्रम को कोरोना की बीमारी के लक्षणों के निदान एवं जरूरी दवाइयों की सलाहकारी की तरफ मोड़ दिया।
अर्जुन का कहना है कि ‘यह एक मानवीय आवश्यकता है, अक्सर दलितों आदिवासियों के कोरोना से पीड़ित मरीजों को कह दिया जाता है कि तुम्हें कोरोना हो गया है अब तो तुम मरने वाले हो, ऐसी स्थिति में न केवल मरीज बल्कि उसका पूरा परिवार असहाय हो जाता है।’ ऐसी स्थिति में आ चुके परिवार फेसबुक और व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए अर्जुन द्वारा शुरू की गयी ‘टेली हेल्थ फैसिलिटी’ से संपर्क करके आवश्यक जानकारी हासिल करते हैं। इस कार्यक्रम में भारत के कई राज्यों एवं इलाकों के स्थानीय कार्यकर्ता जुड़े हुए हैं जो स्थानीय भाषा का इंग्लिश में अनुवाद करते हैं, और अर्जुन के काम को आसान बनाते हैं। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि कुमारी अर्जुन स्वयं दलित परिवार से आती है।
कोरोना महामारी से एक तरफ पूरी दुनिया पीड़ित है और सरकारों की लापरवाही के कारण भारत में भी अब यह गांव-गांव तक पहुंच रहा है। भारत के छोटे-छोटे गांव से भी इंफेक्शन और मौतों की खबरें आने लगी है। ऐसे में ऑक्सफैम अमेरिका एवं ऑक्सफेम इंडिया की तरफ से आए बयानों में भारत से गरीब दलित आबादी पर कोरोना महामारी के भयानक परिणामों का अंदाजा होता है। देश की राजधानी दिल्ली में जिस तरह की हालात बन रहे हैं उन के मद्देनजर ऑक्सफैम अमेरिका की डायरेक्टर अलीवैलू रामी शेट्टी का कहना है कि ‘एंबुलेंस के लिए लंबी कतारें लग रही हैं, दौड़ते भागते लोगों की सांसें उखड़ने लगी हैं, और आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था लगभग असहाय हो चुकी है… ऐसे में सबसे गरीब एवं हाशिये पर डाल दिए गए समुदायों की स्थिति सबसे खराब है।’
ऑक्सफैम इंडिया के अधिकारियों का कहना है कि ‘इस महामारी ने पूरे भारत के गरीबों को और दलितों को एक बार फिर से अनिश्चितता और गरीबी के दलदल में धकेल दिया है, इस स्थिति में ना केवल वे सेहत से जुड़ी समस्याएं झेल रहे हैं बल्कि गरीबी की मार भी सबसे ज्यादा उन्हीं पर पड़ रही है’। ऑक्सफैम इंडिया के डायरेक्टर पंकज आनंद का कहना है कि ‘हमारी जानकारी में जितने भी लोग हैं उनमें से एक भी ऐसा परिवार नहीं है जिसमें कोई एक व्यक्ति इनफेक्टेड ना हुआ हो… ऐसी स्थिति में महिलाएं और दलित समुदाय के लोग बहुत अधिक तकलीफ उठा रहे हैं।’ ऑक्सफेम अमेरिका की डाइरेक्टर रामशेट्टी का कहना है कि ‘दलित समुदाय इस महामारी के दौर में सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, जातिगत भेदभाव एवं गरीबी के कारण उन्हें मामूली सी आर्थिक एवं स्वास्थ्य सेवाओं की मदद भी नहीं मिल पा रही है।’
कोरोना महामारी से जूझ रहे कश्मीर में सांप्रदायिक सद्भाव एवं मानवता की मिसाल पेश करने वाली एक नई घटना सामने आई है। कश्मीरी पंडितों के परिवार में में मृत्यु होने के बाद, अंतिम संस्कार के लिए स्थानीय मुस्लिम युवाओं ने हाथ आगे बढ़ाया है। इस संकट की घड़ी में जबकि पवित्र रमजान माह भी चल रहा है, और सभी मुस्लिम युवा रोजेदार हैं, अपनी भूख प्यास एवं कोरोना बीमारी के इंफेक्शन की चिंता किए बिना ब्राह्मण परिवारों की मदद की पहल करना एक सुकून का अहसास देती है।
खबरों के मुताबिक पुलवामा जिले के कश्मीरी पंडित परिवार के 70 वर्षीय चमन लाल की कुछ दिन पहले कोरोना से हुई मृत्यु के बाद आसपास के मुस्लिम गांव में भी खबर फैल गई। खबर मिलते ही मुस्लिम परिवारों के लोग बड़ी संख्या में शोक व्यक्त करने के लिए चमन लाल के घर इकट्ठा हुए। जब मुस्लिम भाइयों ने देखा कि चमनलाल के परिवार में बहुत ही कम सदस्य हैं तो अंतिम संस्कार में मदद करने के लिए उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। इस प्रकार की खबरें घाटी के कई अन्य जिलों से भी आ रही हैं।
गौरतलब है कि पूरे भारत से इस तरह की खबरें कई महीनों से आ रही हैं, लेकिन मुस्लिम बहुल कश्मीर राज्य से ऐसी खबरों का आना विशेष महत्व रखता है क्योंकि हिंदुत्ववादी शक्तियों ने यह प्रचार किया है कि जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं वहां मुस्लिम समुदाय भाईचारे का प्रदर्शन नहीं करता है। कश्मीर घाटी से आ रही सांप्रदायिक सद्भाव की यह खबरें भारत की महान गंगा जमुनी संस्कृति की झलक दिखाती है।
जुझारु युवा दलित नेता और आजाद समाज पार्टी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद ने बीजेपी सरकार को फेल बताया है। उन्होंने कहा है कि बिगड़ती स्थिति को सुधारने के लिए सुप्रीम कोर्ट को अब तेजी से हस्तक्षेप करना चाहिए और भारतीय सेना को हालात से निपटने के लिए बुलाया जाना चाहिए। चंद्रशेखर का कहना है कि ‘केंद्र की बीजेपी सरकार कोरोना महामारी को रोकने में पूरी तरह अक्षम साबित हुई है, राष्ट्रपति एवं सुप्रीम कोर्ट को आगे होकर संज्ञान लेना चाहिए और भारत के 130 करोड़ लोगों जीवन की रक्षा करने के लिए सेना को बुलाया जाना चाहिए।’
आजाद ने विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी एवं बीजेपी पर आरोप लगाते हुए कहा कि इस सरकार ने पांच राज्यों में और विशेष रूप से बंगाल में चुनाव जीतने के लिए भारत के 130 करोड़ लोगों की जान दांव पर लगा दी है। विशेषज्ञों की राय को आधार बनाते हुए उन्होंने कहा ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन यूरोप अमेरिका और अफ्रीका के कई विशेषज्ञों ने भारत को बराबर चेतावनी दी थी कि दूसरी लहराने वाली है, और यह पहली से कहीं अधिक खतरनाक साबित होगी, लेकिन मोदी सरकार ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे सिर्फ चुनाव में लगे रहे।’ चंद्रशेखर आजाद ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी स्थिति में व्यवस्था को सेना के हवाले कर देना चाहिए। चंद्रशेखर आजाद का यह बयान 8 मई को सामने आया।
कोरोना संक्रमण के बीच विभिन्न अस्पतालों में हो रही ऑक्सीजन की कमी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को 12 सदस्यीय टास्क फोर्स का गठन किया है। जस्टिस डी. वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा बनाई गई इस नेशनल टास्क फोर्स का काम पूरे देश में ऑक्सीजन की व्यवस्था को देखा जाएगा। इस टास्क फोर्स में देशभर के नामी-गिरामी अस्पतालों के प्रमुख डॉक्टरों को शामिल किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए गए नेशनल टास्क फोर्स में वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेस के पूर्व वाइस चांसलर डॉ. भाभातोश बिस्वास, दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल के चेयरपर्सन डॉ. देवेंद्र सिंह राणा, नारायणा हेल्थ केयर के चेयरपर्सन डॉ. देवीशेट्टी, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (वेल्लोर) के प्रोफेसर डॉ. गगनदीप कांग, डॉ. जेवी पीटर, मेदांता अस्पताल के चेयरपर्सन डॉ. नरेश त्रेहन, फोर्टिस अस्पताल के डॉ. राहुल पंडित, सर गंगाराम अस्पताल के डॉ. सौमित्र रावत, इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बायलरी साइंस (दिल्ली) के डॉ. शिव कुमार, मुंबई स्थित ब्रीच कैंडी अस्पताल के डॉ. जरीर एफ. शामिल हैं। इसके अलावा टॉस्क फोर्स में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव और नेशनल टास्क फोर्स के संयोजक जोकि सरकार में कैबिनेट सचिव स्तर के अधिकारी शामिल हैं, इसमें शामिल होंगे।
कोरोना के कोहराम के बीच देश की शीर्ष अदालतें लगातार मामले पर नजर बनाए हुए हैं और व्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में चिंतित दिख रही हैं। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नसीहत देते हुए पिछले दिनों कहा था कि आप हमें कड़े फैसले के लिए मजबूर न करें। कोर्ट ने यह भी कहा था कि यदि कुछ भी छिपाने के लिए नहीं है तो फिर सरकार आगे आकर देश को यह बताना चाहिए कि किस तरह से केंद्र सरकार की ओर से ऑक्सीजन का आवंटन किया जा रहा है।
शिवसेना ने केंद्र की बीजेपी सरकार पर गंभीर लापरवाही एवं असंवेदनशीलता का आरोप लगाया है। पार्टी ने अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि केंद्र की बीजेपी सरकार कोरोना महामारी के दौरान बड़ी संख्या में हो रही मौतों के बीच फिजूलखर्ची का एक ऐसा उदाहरण पेश कर रही है जो पूरी दुनिया में भारत की बहुत गलत छवि पेश करता है। पार्टी ने कहा है कि बीते 70 सालों में पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक अलग-अलग प्रधानमंत्रियों ने जो सिस्टम बनाया था वही आज देश के काम आ रहा है। आज की सरकार ने ना तो कोई सिस्टम बनाया है और ना कोई उपाय किया है जिसके जरिए इस महामारी का सामना किया जा सके।
इसके अलावा शिवसेना ने केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में लागू किए जा रहे सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट पर भी गंभीर सवाल उठाएं। शिवसेना का कहना है कि ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, वैक्सीन और अन्य आवश्यक दवाइयों सहित तालमेल की कमी से जूझ रहे इस देश में बीस हजार करोड रुपए सिर्फ नए संसद भवन और प्रधानमंत्री आवास के लिए खर्च करना एक भयानक फिजूलखर्ची है। आज जबकि देश को कोरोना महामारी से निपटने के लिए पैसों और संसाधनों की आवश्यकता है ऐसे समय में इतने बड़ी धनराशि को गैर जरूरी काम में खर्च करना भारत के नागरिकों के जीवन से खिलवाड़ करने के समान है।
शिवसेना ने यह भी कहा कि एक तरफ आज भारत बांग्लादेश श्रीलंका और भूटान जैसे देशों से मदद मांग रहा है, और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी हजारों करोड रुपए अपना नया घर बनाने के लिए खर्च कर रहे हैं। यह एक विचित्र स्थिति है और अगर यह जारी रहती है तो भारत के नागरिकों का अपनी सरकार से विश्वास उठेगा बल्कि वे भारत की नौकरशाही और न्यायपालिका में भी विश्वास खो देंगे।
कोरोना महामारी के बीच दिल्ली एवं देश के अन्य राज्यों में नागरिकों की बढ़ती हुई तकलीफ के मद्देनजर बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा है कि देश के नेता काम कम कर रहे हैं एवं काम करते हुए अतिशयोक्ति पूर्ण प्रतिक्रिया देते हुए काम का दिखावा ज्यादा कर रहे हैं। मायावती ने दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल पर आरोप लगाया है कि वे ‘काम कम और नौटंकी ज्यादा कर रहे हैं’ हमारे लोग दिल्ली छोड़कर जाने के लिए मजबूर हैं और यह घटना केवल दिल्ली ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र और हरियाणा सहित पंजाब में भी हो रही है।
ऐसी ज्यादातर घटनाओं में दलित एवं बहुजन समाज के लोगों को कष्ट उठाना पड़ रहा है। उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की है कि पूरे देश में गरीबों दलितों आदिवासियों एवं सब तरह के कमजोर व वंचित समाज के लोगों के लिए मुफ्त और अनिवार्य टीकाकरण का अभियान चलाया जाना चाहिए। हिंदी में एक के बाद एक ट्वीट करते हुए उन्होंने कहा है की दिल्ली के मुख्यमंत्री हाथ बांधे हुए खड़े हैं और लोगों से अपील कर रहे हैं कि दिल्ली छोड़कर ना जाएं। मायावती के अनुसार यह केवल एक नौटंकी है क्योंकि केजरीवाल कोरोना की स्थिति में सुधार के लिए कुछ खास काम नहीं कर रहे हैं। अगर वह वाकई कुछ ठोस काम कर रहे हैं तो दिल्ली में रहने वाले गरीब लोग दिल्ली छोड़कर क्यों भाग रहे हैं?
भारत में कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में गुजरात भी शामिल है। केंद्र और राज्य दोनों में बीजेपी की सरकार होने के कारण गुजरात की जमीनी स्थिति की खबर नहीं हो पा रही है। जिस तरह भारत सरकार पूरे देश में इंफेक्शन और मृत्यु का आंकड़ा छुपा रही है, उससे कहीं अधिक आगे बढ़कर गुजरात राज्य के इंफेक्शन एवं मृत्यु के आंकड़े छुपाए जा रहे हैं। हाल ही में विभिन्न पत्रकारों द्वारा उजागर किए गए आंकड़ों के आधार पर पता चल रहा है कि गुजरात राज्य की स्थिति उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से बहुत बेहतर नहीं है।
8 मई को आइ एक खबर के अनुसार कोरोना महामारी की शुरुआत से लेकर अभी तक गुजरात राज्य के 60% कैबिनेट मंत्री कोरोना संक्रमित हुए हैं। मुख्यमंत्री विजय रुपाणी और उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल के साथ 23 में से 14 कैबिनेट मंत्री कोरोना संक्रमित हो चुके हैं। हालांकि यह सभी अब संक्रमण से बाहर आ चुके हैं। कोरोना की पहली लहर के दौरान दिवाली के पहले गुजरात के कुछ मंत्री कोरोना संक्रमित हुए थे। लेकिन इस बात से कोई शिक्षा नहीं ली गई और अब दूसरी लहर जब आई है तब संक्रमण रोकने एवं मरीजों का इलाज करने के लिए उचित उपाय नहीं किए गए हैं।
गुजरात सरकार के मंत्रियों का इस तरह से संक्रमित होना एवं इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होना बहुत कुछ बताता है। इससे पता चलता है कि वहां पर आम आदमी की क्या हालत हो रही होगी। गुजरात के उप मुख्य मंत्री अभी भी अस्पताल में भर्ती हैं। इनके अलावा शिक्षा मंत्री भूपेंद्रसिंह चूड़ासामा अस्पताल से छुट्टी लेने के बाद एक हफ्ते से होम आइसोलेशन में है। उनके अलावा राज्य के गृह मंत्रालय एवं न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी देखने वाले प्रदीप सिंह जडेजा अभी अभी अस्पताल से बाहर आए हैं।
उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के नतीजे सामने आ गए हैं। ऐसे में सभी पार्टियां अपनी जीत का दावा कर रही है और अपना प्रदर्शन बेहतर बता रही है। इसी क्रम में बहुजन समाज पार्टी ने बयान जारी कर पंचायत चुनाव में अपनी पार्टी के प्रदर्शन की सराहना की है। बसपा ने कहा है कि उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव में सत्ता व सरकारी मशीनरी का भारी दुरुपयोग एवं विरोधी पार्टियों द्वारा अपार धनबल के अनुचित इस्तेमाल के बावजूद बहुजन समाज पार्टी ने लगभग पूरे प्रदेश में जो रिज़ल्ट प्रदर्शित किया है वह अति-उत्साहवर्द्धक है तथा यहाँ होने वाले अगामी विधानसभा आमचुनाव के लिए लोगों में नई उर्जा, जोश भरने व हौंसले बुलन्द करने वाला है।
सुश्री मायावती जी ने इसके लिए प्रदेश की जनता का तहेदिल से आभार प्रकट करते हुए तथा पार्टी के हर स्तर के सभी छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं को हार्दिक बधाई देते हुए कहा कि जितने भी निर्दलीय उम्मीदवार कामयाब हुए हैं उनमें से ज्यादातर वास्तव में बी.एस.पी. से ही जुड़े हुए लोग हैं, जिन्होंने खासकर रिजर्व सीटों पर आम सहमति नहीं बन पाने पर अपने- अपने बूते पर ही चुनाव लड़कर जीत हासिल की है।
कुल मिलाकर, यूपी के जिन ज़िलों में बी.एस.पी-समर्थित उम्मीदवार के लिए आम सहमति बन गई वहाँ बी.एस.पी. का अच्छा रिजल्ट आया तथा जिन जिलो में आम सहमति नहीं बनने के कारण, एक-एक सीट पर कई लोग बी.एस.पी. का झण्डा-बैनर आदि लेकर चुनाव लड़ते रहे, वहाँ सामान्य सीटो पर तो पार्टी को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, लेकिन सुरक्षित सीटो पर पार्टी के कई-कई उम्मीदवार खड़े होने की वजह से ऐसा नहीं हो सका, जिसका फिर ज्यादातर लाभ विरोधी पार्टियों को पहुँच गया।
सुश्री मायावती जी ने चुनाव परिणामों के सम्बंध में कहा कि यू.पी. पंचायत चुनाव में बी.एस.पी. का पूरे प्रदेश में विशेषकर बड़े जिलो में से कुछ जिलो को छोड़कर अधिकांश जिलो में प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है। और खासकर आगरा, मथुरा, मेरठ, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, सहारनपुर, मुरादाबाद, हापुड़, शाहजहाँपुर, कानपुर देहात, जालौन, बाँदा, चित्रकूट, लखीमपुर खीरी, हरदोई, सुल्तानपुर, बलरामपुर, सन्तकबीर नगर, महाराजगंज, आजमगढ़, मऊ, प्रयागराज, भदोही, मिर्जापुर, चन्दौली आदि जिलो में बी.एस.पी का काफी बेहतरीन रिजल्ट आया है।
बसपा ने कहा है कि बी.एस.पी के कई-कई उम्मीदवार एक सीट पर खड़े नहीं होते तो निश्चय ही बी.एस.पी. का प्रदर्शन और भी ज्यादा बेहतर हो सकता था, फिर भी पार्टी के लोगों द्वारा विरोधियों के साम, दाम, दण्ड, भेद आदि हथकण्डों का सामना करते हुए अपने अति-सीमित संसाधनों से अच्छी सफलता अर्जित करना जीत की खुशी को दोगुणा करता है। बसपा ने पंचायत चुनाव परिणाम को उत्साहवर्द्धक और अगामी विधानसभा आमचुनाव के लिए लोगों में नई उर्जा, जोश भरने व हौंसले बुलन्द करने वाला कहा है।
कालीकट विश्वविद्यालय के एक सिंडिकेट सदस्य ने ‘जीवन विज्ञान विभाग’ में पीएचडी कार्यक्रम में दलित छात्र को प्रवेश देने से कथित रूप से इनकार करने के खिलाफ केरल के राज्यपाल और विश्वविद्यालय के कुलाधिपति आरिफ मोहम्मद खान से संपर्क किया है। केरल के यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट समर्थित सिंडिकेट सदस्य पी रशीद अहमद ने श्री खान को अपने ई-मेल में दावा कियाकि कालीकट विश्वविद्यालय के दलित छात्र केपी लिजिथ चंद्रन ने 2020 में विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित पीएचडी प्रवेश परीक्षा में दूसरा स्थान हासिल किया था। नियमानुसार चंद्रयान को एक साल के भीतर किसी भी पीएचडी में प्रवेश करने की पात्रता है इसके बावजूद उन्हें जाति आधारित भेदभाव के चलते पीएचडी पाठ्यक्रम में प्रवेश नहीं दिया गया।
श्री अहमद ने श्री चंद्रन का हवाला देते हुए यह भी आरोप लगाया कि पीएचडी कार्यक्रम के लिए केरल के इस विश्वविद्यालय में चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है। प्रवेश परीक्षा के लिए प्रश्न पत्र तैयार करने के बाद जो परीक्षा हुई उसका मूल्यांकन भी इसी विभाग के शिक्षकों ने किया था, जो कि नियमों के खिलाफ था। उन्होंने यह भी दावा किया कि विश्वविद्यालय में आरक्षण नियम अस्पष्ट हैं और इस मामले में जानबूझकर दलित छात्र के खिलाफ षड्यन्त्र किये जाने की आशंका है। इस शिकायत के बाद आवश्यक कार्यवाही करते हुए प्रवेश प्रक्रिया के निदेशक को नियमों के संभावित उल्लंघन पर विभिन्न विभागों से स्टेटस रिपोर्ट एकत्र करनी थी। लेकिन जो जानकारी मिल रही है उससे पता चलता है कि निदेशक द्वारा यह कार्यवाही नहीं की गयी है। इसके अलावा श्री अहमद ने यह भी आरोप लगाया कि चंद्रन कांग्रेस की स्टूडेंट विंग केरल स्टूडेंट्स यूनियन के मलप्पुरम जिला अध्यक्ष रहे हैं एवं एक दलित समुदाय से आते हैं, इसीलिए विश्वविद्यालय प्रशासन उनके खिलाफ षड्यन्त्र कर रहा है।
भारतीय जनता पार्टी की देश भर में जमकर फजीहत हो रही है। कोरोना के कोहराम से निपटने की व्यवस्था में पूरी तरह फेल हो चुकी भाजपा पर हर किसी का गुस्सा सामने आ रहा है। उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भी भाजपा को बुरी तरह हार का मुंह देखना पड़ा है। खासतौर पर धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा को अयोध्या से लेकर मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी और मथुरा तक में करारी शिकस्त मिली है।
अयोध्या में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है। अयोध्या जनपद में कुल जिला पंचायत सदस्य की 40 सीटें हैं, जिसमें से 24 सीटों पर समाजवादी पार्टी ने जीत दर्ज करने का दावा किया है। यहां की 12 सीटों पर निर्दलीयों ने जीत दर्ज की है, जबकि भाजपा को महज 6 सीटें मिली है। हालांकि भाजपा दावा कर रही है कि उसके साथ निर्दलीय हैं। ऐसे में जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर सपा और भाजपा के बीच जबरदस्त मुकाबला देखने को मिल सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वर्तमान लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में भी भाजपा की हालत पतली है। यहां जिला पंचायत की 40 सीटों में से बीजेपी के खाते में महज 8 सीटें आई है। जबकि सपा 14 सीटें जीतने का दावा कर रही है। काशी में बसपा के हिस्से में 5 सीटें आने की बात सामने आई है, जबकि तीन निर्दलीय प्रत्याशियों को जीत मिली है।
मथुरा में बाजी बसपा के हाथ रही है। यहां की 33 के करीब सीटों में बसपा उम्मीदवारों के 12 सीटों पर जीतने की सूचना है। दूसरे नंबर पर आरएलडी है, जिसके 8 उम्मीदवारों के जीत दर्ज करने की बात सामने आई है, जबकि भाजपा के हिस्से में 9 सीटें आने की खबर है। इन नतीजों को भाजपा के साथ-साथ योगी आदित्यनाथ के लिए भी बड़ा झटका माना जा रहा है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है। और पंचायत चुनाव को कहीं न कहीं सभी पर्टियां अपने शक्ति परीक्षण के तौर पर देख रही थी। और जिस तरह के नतीजे सामने आए हैं, वह निश्चित तौर पर भाजपा के लिए बड़ी चिंता की बात है।
देश में कोरोना की विकट स्थिति को देखते हुए भारत की सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने मिलजुल कर केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। रविवार 2 मई को देश की 13 प्रमुख विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने संयुक्त रूप से कोरोना महामारी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विशेष अपील की है। इन लोगों ने मिलजुल कर कहा है कि पूरे भारत में गरीबों एवं सामान्य नागरिकों के स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, देशभर में मुफ्त टीकाकरण की आवश्यकता है।
विपक्षी पार्टियों के इन नेताओं ने अपील जारी की है कि केंद्र सरकार को देशभर के अस्पतालों में ना केवल मुफ़्त व निर्बाध ऑक्सीजन सुनिश्चित करना चाहिए बल्कि देश के सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर निशुल्क एवं अनिवार्य टीकाकरण करवाना चाहिए। औपचारिक अपील जारी करते हुए उन्होंने कहा है कि “हमारे देश में महामारी के बेकाबू ढंग से बढ़ते जाने के समय हम केंद्र सरकार से देशभर के सभी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में ऑक्सीजन की आपूर्ति के निर्बाध प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।”
सोनिया गांधी, एचडी देवेगौड़ा, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ममता बनर्जी एवं हेमंत सोरेन जैसे महत्वपूर्ण नेताओं सहित डीएमके प्रमुख स्टालिन एवं बहुजन समाज पार्टी की तरफ से मायावती ने भी या मांग रखी है। इनके अलावा फारूक अब्दुल्लाह, अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी और डी के राजा ने संयुक्त बयान जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि मुफ्त और अनिवार्य टीकाकरण के लिए 35000 करोड रुपए का बजट आवंटित किया जाना चाहिए।
सुप्रसिद्ध बहुजन रंगमंच कलाकार ‘सांची जिवाने’ को 11वें दादासाहेब फाल्के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह 2021 में ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री’ का पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। सांची ने मराठी फिल्म ‘पैदागीर’ में अपने सशक्त अभिनय के लिए यह पुरस्कार जीता है। फिल्म ‘पैदागीर’ को अन्य फिल्म समारोहों में ‘बेस्ट एजुकेशनल मूवी’ का पुरस्कार भी मिला है। फिल्म को भारत भर से आई 310 अन्य फिल्मों के बीच से चुना गया है। 30 अप्रैल को इस पुरस्कार की घोषणा की गई।
बहुजन समाज से आने वाली अभिनेत्री सांची जिवानेनागपुर के वीएमवी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर भी रही हैं। उन्होंने मात्र 9 साल की उम्र में सिनेमा और अभिनय की दुनिया में हाथ आजमाना शुरू कर दिया था। पिछले 25 वर्षों में उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर दो फिल्मों और कई मंच नाटकों में अभिनय किया है, लेकिन, सांची का मानना है कि उनकी तीसरी फिल्म ‘पैदागीर’ जो एक शैक्षिक जागरूकता फिल्म है, अभी तक उनके जीवन कि सर्वश्रेष्ठ फिल्म है।
सांची ने कहा कि इस फिल्म की रिलीज के बाद हमें अपने दर्शकों से जो सराहना मिली, वह मेरे लिए बड़ी उपलब्धि रही। उन्होंने नागपुर शहर के कलाकारों, अपने माता-पिता, दोस्तों, निर्माता, निर्देशक, सह-कलाकारों और ‘पैदागीर’ की पूरी टीम के साथ इस उपलब्धि का शुक्रिया अदा किया है। उन्होंने कहा कि यह पुरस्कार मेरे जैसे थिएटर आर्टिस्ट के लिए बहुत बड़ी और प्रतिष्ठित उपलब्धि है।
चुनावी नतीजे आये तो सर्वाधिक ध्यान बंगाल ने खींचा। यह स्वाभाविक भी था। बड़ी लड़ाई थी। उसके महत्व को मैं भी मंज़ूर करता हूं। पर विचार की दृष्टि से देखें तो ये दो तस्वीरें भी कुछ कम महत्वपूर्ण नही हैं। ये तमिलनाडु और केरल के विजयी नेताओं की तस्वीरें हैं। मत भूलिये कि बीते कई सालों से केंद्र के सत्ताधारी ही रिमोट से तमिलनाडु को चला रहे थे, और केरल ने भी कुछ कम चमत्कार नही किया। यह अच्छे काम, जन-कल्याणकारी शासन और व्यापक सामाजिक सोच की जन-स्वीकृति है।
मुझे समझ में नहीं आता, उत्तर और मध्य भारत के लोग कब तक इस गुमान में रहेंगे कि देश उन्हीं की मर्जी से चलता है और चलता रहेगा! चाहे, वे देश भर में जितना कूड़ा-करकट फैलाते रहें! सोचिये, इस गुमान और बहुसंख्यकवाद के नशे में चूर हिंदी-भाषी क्षेत्र के फैसलों ने देश को आज कहां पहुंचा दिया? उनकी चुनी सरकारों का किसानों की बेहद जेनुइन मांग और प्रतिरोध को लेकर क्या रवैया रहा? क्या इस महामारी में भी इस क्षेत्र के राजनीतिक-गुनाह आपको नज़र नही आ रहे हैं?
ऐसे में क्या लोगों को अब दक्षिण की तरफ़ नहीं झाँकना चाहिए? दक्षिण के पास सोच, समझ, और संस्कृति का बड़ा मानवीय दायरा है, जो हमेशा दिखता रहा है और वह आज इस महामारी में भी दिखाई दे रहा है। दक्षिण की धारा उत्तर और मध्य भारत को जाति-वर्ण और कारपोरेट-हिंदुत्व की जकड़ से मुक्त कराने में ज़्यादा समर्थ है। संकीर्णताओं से मुक्ति के संघर्ष की उसके पास समृद्ध विरासत भी है। जानता हूं, हिंदी-भाषी क्षेत्र का सबसे प्रभावी चिंतन इतनी आसानी से खत्म नहीं होने वाला। मेरी इस छोटी सी टिप्पणी से तो हरगिज़ नहीं, पर अंतिम सांस तक यह सच कहना और लिखना जारी रखना चाहता हूं कि कारपोरेट-हिंदुत्व और मनुवाद के ज़हरीले चंगुल से मुक्ति के लिए नया विचार चाहिए। मुझे विश्वास है, एक दिन लोग जागेंगे! शायद जगाने वालों की कमी है लोगों की नहीं!
हाल ही के पंचायत चुनावों में उत्तर प्रदेश में दलितों के पक्ष में कुछ अच्छी खबरें आ रही हैं। गांव की प्रधानी के चुनाव हमेशा ही स्थानीय स्तर पर शक्ति संतुलन की नई एवं ठोस इबारत लिखते आए हैं। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से परे स्थानीय स्तर की अपनी राजनीति होती है। इस राजनीति में भारत के दलितों को स्तर पर प्रतिनिधित्व के अवसर मिलना भविष्य में आने वाले परिवर्तन की सूचना देता है। इस परिवर्तन की सूचना देने वाली दो महत्वपूर्ण खबरें उत्तर प्रदेश से आ रही हैं। समाजवादी पार्टी के काडर एवं पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का गढ़ माने जाने वाले सैफई गांव में 48 साल के लंबे अंतराल के बाद पहली बार हुए चुनाव में एक दलित व्यक्ति ने गांव की प्रधानी का चुनाव जीता है। वाल्मीकि समाज से आने वाले रामफल बाल्मीकि जो मुलायम कुनबे के विश्वासपात्र माने जाते हैं, वे अब क्षेत्र से मुलायम सिंह यादव समर्थित राजनीति का चेहरा बनेंगे।
वहीं दूसरी तरफ कानपुर के ‘बिकरू’ गांव में मधु नाम की एक दलित महिला ने गांव की प्रधानी का चुनाव जीता है। यह वही गांव है जहां पर पिछले साल गैंगस्टर विकास दुबे ने उत्पात मचाया था। मधु के द्वारा चुनाव जीतने के बाद इस इलाके में लोकतांत्रिक व्यवस्था के बहाल होने की उम्मीद की जा रही है। विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा की दिशा में बेहतर काम की यहा बड़ी आवश्यकता बताई जा रही है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्तर पर सामाजिक ताने-बाने एवं बदलती भी राजनीति का एक संकेत प्राप्त होता है। बहुत सारे नकारात्मक बातों के बीच में उत्तर प्रदेश से आने वाली यह खबरें बहुजन समाज के लिए एक उम्मीद की किरण दिखाती हैं। हालांकि ये सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें हैं, लेकिन इसके बावजूद बीते कुछ सालों में दलितों के खिलाफ बढ़ते हुए अत्याचार के बीच एक तरफ समाजवादी पार्टी द्वारा समर्थित दलित उम्मीदवार का उभरना और दूसरी तरफ युवा दलित महिला का एक नेता के रूप में उभरना अंधेरे में एक दीपक जलने के समान है।
कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने बाजी मार ली है और 2011 के बाद से लगातार तीसरी बार प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने में सफल हुई है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने 2019 लोकसभा चुनावों में भारी हार का सामना किया था, तब से (मई,2019 से लेकर मई,2021 तक) ममता और उनके चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर ने जबरदस्त मेहनत करते हुए मतदाताओं को भरोसा दिलाया कि ममता ही बंगाल के मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है और इसी भरोसे के सहारे वो इस चुनाव में जबरदस्त वापसी करने में सफल हुए।
पश्चिम बंगाल में 1977 से 2011 तक लगातार 34 वर्षो तक लेफ्ट ने शासन किया, 2011 में जब तृणमूल कांग्रेस ने पहली बार विधानसभा चुनाव जीता और सत्ता पर काबिज हुई तो इस जीत की भूमिका कई वर्षों पूर्व में बनना शुरू हुई थी। सर्वप्रथम वर्ष 2008 में पश्चिम बंगाल में संपन्न हुए पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज की, उसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में भी तृणमूल कांग्रेस ने लेफ्ट को भारी पराजय का सामना करवाया और अंततः 2011 विधानसभा चुनावों में लेफ्ट को सत्ता से बाहर कर दिया। बिल्कुल इसी पैटर्न पर भाजपा चल रही थी। वह 2008 व 2009 की तरह 2018 के पंचायत व 2019 के लोकसभा चुनावों में भारी जीत हासिल करने में कामयाब रही थी और इसी आधार पर कुछ राजनीतिक व चुनावी विश्लेषकों का मानना था कि बंगाल 2011 के इतिहास को दोहराएगा और भाजपा तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर पाने में सफल हो पाएगी, परन्तु ममता बनर्जी की कड़ी मेहनत ने इसे होने नहीं दिया, भाजपा व अन्य चुनावी राजनीतिक विश्लेषकों को जिन्हें लगता था कि पंचायत और लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधानसभा चुनाव भी जीतने में सफल हो पाएगी, वो सब ग़लत साबित हुए हैं।
ममता बनर्जी की जीत में उनके चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर की सबसे अहम भूमिका रही है, उन्होंने न केवल ममता दीदी को चुनाव जीतने में सहयोग किया है बल्कि चुनाव से पांच महीने पहले कही बात कि भाजपा दो डिजिट पार नहीं करेगी, को भी सच साबित किया है। यहां प्रशांत के लिए दोहरी चुनौती थी, परन्तु वो इस चुनौती को भेद पाने में कामयाब रहे है। प्रशांत किशोर के अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण बिंदु ऐसे है जिन्होंने ममता के चुनाव जीतने में अहम भूमिका निभाई है, उनका जिक्र इस प्रकार है –
मजबूत नेतृत्व और साफ छवि- ममता हमेशा से जुझारू व मजबूत नेता रही हैं, इस चुनाव में भी उन्होंने व्हील चेयर पर होने के बावजूद सक्रिय भूमिका निभाई और हर जगह संघर्ष करते हुए नजर आई। इसके आलावा उनकी साफ छवि ने भी मतदाताओं को उनकी तरफ आकर्षित किया है, क्योंकि ममता सरकार में भ्रष्टाचार के सारे आरोप उनके मंत्रियों या विधायको के सिर पर रहें है और ऐसे लगभग सभी खराब और नकारत्मक छवि वाले लोगों को या तो पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर वो खुद पार्टी छोड़ कर चले गए । उनके जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस एक बार फिर साफ सुथरी हो गई और ममता की साफ छवि का आकर्षण मतदाताओं को अपनी तरफ खींच पाने में सफल हुआ। महिला नेतृत्व होने की वजह से महिलाओं के वोट को तृणमूल कांग्रेस अपनी तरफ कर पाने में सफल रही है, क्यूंकि दूसरी विरोधी पार्टी के पास महिला नेतृत्व का अभाव था।
सरकारी योजनाओं की आम जन तक पहुंच- लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद से लेकर पिछले दो वर्षो में ममता सरकार ने लगातार अनेक कार्यक्रम चलाए जिनसे सरकारी योजनाओं की आम जन तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सका, इनमें सबसे प्रमुख था, “ममता के बोलो”- इसमें एक फोन नंबर दिया गया और कोई भी व्यक्ति अपनी बात सीधा ममता को बता सकता था और हर व्यक्ति की बात को ममता की टीम द्वारा सुना गया और आम जन की हर समस्या को दूर करने का पूर्ण प्रयास किया, इसका मतदाताओं पर बहुत साकारात्मक प्रभाव पड़ा ।
बाहरी व अंदरूनी का प्रभाव- ममता ने इसको मुद्दा बनाया और बंगाली लोगों को ये समझा पाने में कामयाब रही कि मैं आपकी आपनी हूं और भाजपा वाले बाहरी है, इसलिए आप अपनों के लिए मतदान करें ना की बाहरी के लिए। इस सिलसिले में ममता की पार्टी ने कई नारे जैसे बंगाल की बेटी, बंगाल का सम्मान, बंगाली बनाम गैर बंगाली आदि दिया, जिनका ममता बनर्जी को पूरा फायदा मिला है।
सोशल इंजीनियरिंग- तृणमूल कांग्रेस लोकसभा चुनावों में जिन क्षेत्रों में हारी थी, बात चाहे जंगल महल क्षेत्र की करें या कूचबिहार की, वहां पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदाता ज्यादा संख्या में हैं। इसलिए विधानसभा चुनावों में ममता ने इन जातियों का खास ख्याल रखा, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बंगाल में 68 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है परन्तु तृणमूल कांग्रेस ने 79 सीटों पर अनुसूचित जाति के लोगों को चुनाव लड़वाया, वहीं अनुसूचित जनजाति की 16 सीटें आरक्षित है परन्तु तृणमूल कांग्रेस की तरफ से 17 सीटों पर अनुसूचित जनजाति के लोग चुनाव लड़े।
दूसरा उत्तरी बंगाल में (कूचबिहार, दार्जलिंग आदि क्षेत्र) एक महत्वपूर्ण अनुसूचित जाति है ‘राजवंशी’, उन्हें ये आश्वाशन दिया गया कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनने पर उनके मुख्य देवता के जन्मदिन पर प्रदेश में सरकारी अवकाश घोषित किया जाएगा। उनकी भाषा को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाएगा, उनकी जाति के नाम से एक नई पुलिस फोर्स बनाई जाएगी। इन आश्वासनों ने भी इस समुदाय को जो की लोकसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में गया था को वापिस तृणमूल कांग्रेस की तरफ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ममता ने अनुसूचित जातियों को फिर से विश्वास दिलवाया की वो ही उनकी सच्ची हितैषी हैं और अपने पक्ष में मतदान करवाने में सफल हो पाई।
तृणमूल कांग्रेस ध्रुवीकरण की राजनीति से दूर रही और पूरे चुनावों के दौरान उसने समग्र मतदाताओं पर ध्यान दिया, ममता ने हिन्दू – मुस्लिम, छोटे लोग – भद्र लोग, शहरी – ग्रामीण आदि कोई अंतर नहीं किया और सभी वर्गों पर पूरा ध्यान दिया जिसका फायदा ममता की पार्टी को मिला, क्यूंकि इस से हर समुदाय का कुछ ना कुछ वोट ममता के पक्ष में आया, वहीं दूसरी तरफ भाजपा ने मुस्लिम वोट, जो कि प्रदेश में 30 प्रतिशत के आसपास हैं को पार्टी से अलग थलग रखा, और केवल 70 प्रतिशत मतदाताओं के सहारे चुनाव लड़ रही थी वहीं दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस का ध्यान पूरे 100 प्रतिशत मतदाताओं पर था, और इसी का नतीजा है कि तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हो पाई है।
भाजपा बनाम भाजपा का फायदा भी ममता को मिला है, क्यूंकि भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर गए लोगों को पार्टी में अहम स्थान दिए और उन्हे चुनाव भी लड़वाए। इससे भाजपा का पुराना मतदाता नाराज़ हुआ क्यूंकि उस क्षेत्र में उनकी लड़ाई उसी व्यक्ति से थी परन्तु अब वो व्यक्ति भाजपा का उम्मीदवार हो गया था, जैसे बहुत से स्थानों पर मतदाताओं ने साफ साफ बोला कि वो तृणमूल कांग्रेस के इसी नेता के खिलाफ थे उनकी लड़ाई इसी के खिलाफ थी परन्तु अब वो भाजपा में आ गया है तो हम कैसे उसे वोट दे, हमारी लड़ाई आज भी उसी के खिलाफ है, इस प्रकार ऐसे लोगों ने भाजपा से नाराज होकर ममता के पक्ष में मतदान किया है।
और भी अन्य कई कारण है जिनकी सहायता से ममता चुनाव जीतने में सफल हो पाईं है इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उनका साधारण व्यक्तित्व और उनकी कड़ी मेहनत।