हरियाणा में दलित नेता कुमारी शैलजा को क्यों नहीं चाहते जाट भूपेन्द्र सिंह हुड्डा

उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी में शक्ति के लिए अंदरूनी घमासान चल रहा है। बात चाहे राजस्थान की हो, पंजाब की हो या मध्यप्रदेश की, लगभग हर प्रदेश में यही हाल है। अभी हाल ही में हरियाणा में भी ये संघर्ष सामने आया है। अन्य राज्यों में इस संघर्ष का कारण केवल सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर है परन्तु हरियाणा में ये संघर्ष नए रूप में सामने आया है और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर हुडा ने प्रदेशाध्यक्ष कुमारी शैलजा, जो कि दलित समुदाय से सम्बन्ध रखती है, को हटाने की कवायद शुरू की है और ये केवल शक्ति के लिए नहीं किया जा रहा बल्कि इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि भूपिंदर हुडा अपनी जातीय और पितृसत्तात्मक संकीर्ण सोच की वजह से एक दलित और महिला नेता कुमारी शैलजा का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पा रहे।

इसके साथ-साथ अब किसान आंदोलन के चलते इन्हें लग रहा है कि सारा जाट समुदाय उनके पक्ष में आ गया और वो पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं और दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के बिना भी राजनीति में सफलता अर्जित कर सकते हैं। परंतु जमीनी हकीकत यह है कि केवल जाट वोटों के सहारे सत्ता प्राप्त नहीं की जा सकती है। जैसे इंडियन नेशनल लोकदल प्रदेश में जाटों का एकमात्र सबसे मजबूत राजनीतिक दल था और उन्होंने अपनी सरकारों में मुख्य ध्यान केवल जाट समुदाय के उत्थान पर लगाया परन्तु जैसे ही दलितों और पिछड़ों को इस बात कि समझ आयी कि वोट उनका और उत्थान केवल जाटों का तो उस समय से लेकर आज मौजूदा समय में इंडियन नेशनल लोकदल अपने सबसे निम्नतम स्तर पर है। क्योंकि अब केवल जाटों के सहारे कोई भी व्यक्ति या राजनीतिक दल प्रदेश में सरकार नहीं बना सकता। क्यूंकि जाटों में कई मजबूत नेता है जो सभी अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखते हैं इसलिए अब सभी जाटों का वोट केवल एक नेता के पक्ष में नहीं गिरता और यही सबसे मुख्य कारण है कि प्रदेश में सरकार बनाने के लिए हर हालत में दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को अपने पक्ष में करना पड़ता है।

बीजेपी ने हरियाणा के मतदाता की इस नब्ज को पकड़ा और प्रदेश में सरकार बनाई, क्योंकि इन्होंने पिछड़ों, दलितों व महिलाओं पर ज्यादा ध्यान दिया और जाटों पर बहुत कम। इतिहास से भूपिंदर हुडा को सीखना चाहिए कि उनकी तरह प्रदेश में पहले भी मजबूत जाट मुख्यमंत्री रहें हैं, परन्तु उनका क्या हश्र हुआ है, ये हम सब देख सकते हैं। जैसे हरियाणा में एक समय ऐसा था जब बंसीलाल की कांग्रेस में तूती बोलती थी, उनके नाम का कोई विकल्प नजर नहीं आता था और वो खुद को पार्टी समझने लगे तो उनका विकल्प बन कर आए भजन लाल, फिर एक ऐसा समय आया जब भजनलाल ही सबसे ज्यादा मजबूत हो गए तो उन्हे कमज़ोर करने के लिए विकल्प के रूप में भूपिंदर सिंह हुडा को प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कमान सौंपी गई। इन उदाहरणों से भूपिंदर हुडा को सीखना चाहिए कि पार्टी किसी नेता की वजह से नहीं होती, बल्कि नेता पार्टी की वजह से होता है।

साहब कांशीराम ने कहा था कि, जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते, फिर इतिहास उन्हें सबक सिखाता है। हरियाणा में जातीय समीकरणों को देखें तो लगभग 24 फीसदी जाट मतदाता हैं,और इनका नेतृत्व भूपिंदर हुडा, दुष्यंत चौटाला, अभय चौटाला, चौधरी बीरेंद्र सिंह, रणदीप सिंह सुरजेवाला, किरण चौधरी आदि जाट नेता कर रहे हैं। वहीं प्रदेश में लगभग 19 फीसदी के आसपास दलित मतदाता है, इनका नेतृत्व केवल कुमारी शैलजा कर रही हैं। प्रदेश में शैलजा के मुकाबले का कोई अन्य दलित नेता नहीं है जिसका अपना खुद का जनाधार हो,और दलितों के साथ-साथ पिछड़े समुदाय में भी पहुंच हो। कुमारी शैलजा केवल जाति और लिंग को छोड़ कर बाकी हर पक्ष में, चाहे बात अनुभव की हो, चाहे बात प्रदेश में मतदाता पर पकड़ की हो, हुड्डा से आगे नजर आती हैं।

शैलजा अपने परिवार की विरासत से राजनीति में आई। वो 90 के दशक से सक्रिय राजनीति में हैं, केंद्र में दो बार मंत्री रह चुकी हैं, वो अविवाहित हैं इसलिए उन पर परिवारवाद का कोई आरोप नहीं है, भ्रष्टाचार का कोई भी मुकदमा आज तक उन पर नहीं लगा है, साफ सुथरी छवि के सहारे वो प्रदेश की सबसे ताकतवर नेता हैं। भूपिंदर सिंह हुड्डा कुमारी शैलजा को अशोक तंवर समझने की भूल कतई ना करें क्योंकि तंवर के पास अनुभव कम था, कांग्रेस हाई कमान में पकड़ कमज़ोर थी, आम जनता में पहुंच बहुत कम थी,और इसके साथ-साथ उस समय प्रदेश में कुमारी सैलजा के रूप में कांग्रेस के पास मजबूत दलित नेता का विकल्प था, ऐसे अनेकों कारण रहे जिनकी वजह से भूपिंदर हुडा अशोक तंवर को प्रदेशाध्यक्ष से हटा पाए, परंतु कुमारी शैलजा की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। इनके पास एक लम्बा अनुभव है, पार्टी हाई कमान में बहुत मजबूत पहुंच है, इनकी ना केवल दलित बल्कि पिछड़ी जातियों में भी शानदार पकड़ है और अब पार्टी के पास इनके कद का कोई दूसरा दलित नेता भी नहीं है इसलिए साफ है कि इन्हे हटा कर कांग्रेस हाई कमान एक और प्रदेश गंवाना नहीं चाहती।

 पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी 31 विधानसभा सीटें कुमारी शैलजा के प्रदेशाध्यक्ष बनने और कड़ी मेहनत और सहयोग से ही जीत पाई, क्योंकि दलितों और पिछड़ों ने शैलजा के कारण बड़ी संख्या में कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। इसलिए ये देखा जा सकता है कि प्रदेश में सत्ता उन्हीं की आती है जिनके पक्ष में दलित और पिछड़े होते हैं और अब आप इन्हे बरगला नहीं सकते।

कुमारी शैलजा ने प्रदेशाध्यक्ष के लिए राज्यसभा सीट छोड़ी थी, हालांकि उसके पीछे एक कारण ये भी था कि कहीं पिछली बार की तरह हुडा समर्थित विधायक कोई स्याही कांड ना कर दे, क्यूंकि एक दलित महिला के पक्ष में मतदान करना उच्च जाति व पितृसत्तात्मक सोच के पुरुष विधायकों को पसंद नहीं है। और ये भी देखने को मिला कि जब तक कुमारी शैलजा के चुनाव लड़ने की बात चल रही थी तब तक बीजेपी राज्यसभा की दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बात कर रही थी, क्यूंकि बीजेपी को भरोसा था कि हुडा के समर्थक विधायक कुमारी शैलजा को नहीं जीतवाएंगे परंतु जैसे ही दीपेंदर हुड्डा का नाम आया वैसे ही भाजपा ने केवल एक उम्मीदवार उतारने की घोषणा की और इससे दो सीटों के लिए केवल दो उम्मीदवार थे इसलिए बिना चुनाव के ही दीपेंदर हुडा सांसद बन गए।

प्रदेश के दलित व पिछड़े समुदाय के मतदाता अपनी नेता के इस अपमान को भूले नहीं है और अब जब इनसे प्रदेशाध्यक्ष का पद भी छीनेने की कोशिश की जा रही है, तब हुडा को ये नहीं भूलना चाहिए कि यदि दलित और पिछड़े समुदाय ने कांग्रेस पार्टी से अपना हाथ पीछे खींचा तो कांग्रेस प्रदेश में कभी सत्ता में नहीं आ पाएगी और आपका एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने का सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा। हुड्डा जी को लगता है कि गीता भुक्कल, शकुंतला खटक जैसे दलित विधायकों के सहारे दलितों का वोट प्राप्त कर लाएंगे तो ये उनका वहम है, क्यूंकि ये दोनों विधायक सिर्फ इसलिए बन पाते हैं क्योंकि ये जाट बहुमत क्षेत्र है और यहां भूपिंदर हुडा की मजबूत पकड़ है, परन्तु इन दोनों दलित विधायकों को अपने क्षेत्र से बाहर कोई जानता तक नहीं है। दूसरा, अब प्रत्येक व्यक्ति को इस बात कि समझ आ गई है कि उनका असल नेता कौन है, आप किसी दलित नेता को अपना रबर स्टैम्प बना कर दलित समाज का वोट नहीं ले सकते, दलित व पिछड़े अब अपने मजबूत व सक्रिय नेता के नाम पर मतदान करता है और कुमारी शैलजा की वजह से कांग्रेस पार्टी के पक्ष में करते हैं। इसलिए अब भूपिंदर सिंह हुड्डा के पास एक ही विकल्प है कि वह कुमारी शैलजा से सुलह कर उनका नेतृत्व स्वीकारते हुए प्रदेश में पार्टी को मजबूत करने का प्रयास करना चाहिए ताकि आगामी चुनावों में प्रदेश वासियों को बीजेपी से छुटकारा मिल सके।

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