समान नागरिक संहिता : हवा का रुख देख रही मोदी सरकार

(लेखक -मुस्ताअली बोहरा) तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और अयोध्या मंदिर के बाद मोदी सरकार का अगला कदम यूनिफॉर्म सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने का है। कामन सिविल कोड के बाद केन्द्र की भाजपा सरकार एनआरसी को पूरे देश में लागू करेगी। समान नागरिक संहिता पर सुप्रीम कोर्ट भी वक्त-वक्त पर टिप्पणी कर चुका है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता का समर्थन किया है और केंद्र सरकार से इस मामले में जरूरी कदम उठाने को कहा है। कोर्ट ने कहा कि आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे सजातीय हो रहा है, धर्म, समुदाय और जाति की पारंपरिक बाधाएं खत्म हो रही है, और इन बदलावों के मद्देनजर समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है।

हालांकि, केंद्र की बीजेपी सरकार अपने पहले ही कार्यकाल से यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की कोशिश कर करती रही है। तीन तलाक और 370 की तरह यूनिफॉर्म सिविल कोड को भी विरोध और विवाद का सामना करना पड़ा था लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। दरअसल, राजनीति में जो दिखता है वो होता नहीं है। इसे भी राजनीति से प्रेरित इसलिए माना जा रहा है क्योंकि मोदी सरकार के अब तक फैसलों से यही परिदृश्य उभरकर सामने आ रहा है। तीन तलाक, अनुच्छेद 370, नोटबंदी आदि की तरह ही समान नागरिक संहिता को भी छदम देशभक्ति से जोडकर देखा जाएगा। आपको बता दें कि देश में तमाम मामलों में यूनिफॉर्म कानून हैं, लेकिन शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर अभी भी फैसला पर्सनल लॉ के हिसाब से फैसला होता है। यह मसला ऐसे समय में उठा है जब केंद्र की मोदी सरकार तीन तलाक और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर ऐतिहासिक फैसला ले चुकी है। बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत करते आए हैं।

दरअसल, केन्द्र की सत्त्सीन सरकार अपने उस एजेण्डे पर आगे बढ रही है जिसका उसने वादा किया था। केन्द्र सरकार पूरे देश में एक संविधान लागू करना चाहती है यानि हर शख्स के लिए एक ही कानून फिर चाहे वह किसी भी मजहब का हो। तीन तलाक को खत्म कर केन्द्र सरकार ने समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढा दिए हैं। इसके बाद राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा जो अभी असम में लागू है। समान नागरिक संहिता के लिए ठीक वैसा ही माहौल तैयार हो रहा है जैसा पहले तीन तलाक और फिर अनुच्छेद 370 को लेकर हुआ था।

समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है विवाह, तलाक, संपत्ति बटवारे, उत्तराधिकार और बच्चा गोद लेने जैसे मामलों में सभी लोगों के लिए एक जैसे ही नियम। यानि जाति-धर्म अथवा परंपरा के आधार पर किसी को कोई रियायत नहीं मिलेगी। यहां बता दें कि देश में धर्म और परंपरा के नाम पर अलग नियमों का प्रचलन है। जैसे किसी समुदाय में पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने की इजाजत है तो कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने की परंपरा है। ऐसे मामलों में पर्सनल लॉ के हिसाब से निर्णय लिया जाता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्रक्रिया के तहत तलाक के बाद मुस्लिम पुरुष तुरंत शादी कर सकता है लेकिन महिला को 4 महीने 10 दिन तक यानी इद्दत पीरियड पूरा होने तक इंतजार करना होता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ चार शादियों की इजाजत देता है, जबकि हिंदू सहित अन्य धर्मों में एक शादी का नियम है।

शादी की न्यूनतम उम्र क्या हो? इस पर भी अलग-अलग व्यवस्था है। मुस्लिम लड़कियां जब शारीरिक तौर पर बालिग हो जाएं (पीरियड आने शुरू हो जाएं) तो उन्हें निकाह के काबिल माना जाता है। अन्य धर्मों में शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है। जहां तक तलाक का सवाल है तो हिंदू, ईसाई और पारसी में कपल कोर्ट के माध्यम से ही तलाक ले सकते हैं, लेकिन मुस्लिम धर्म में तलाक शरीयत लॉ के हिसाब से होता है। हिंदू मैरिज ऐक्ट के तहत हिंदू कपल शादी के साल भर बाद तलाक की अर्जी आपसी सहमति से डाल सकते हैं। अगर पति को असाध्य रोग हो या वह संबंध बनाने में अक्षम हो तो शादी के तुरंत बाद तलाक की अर्जी दाखिल की जा सकती है। क्रिश्चियन कपल शादी के दो साल बाद तलाक की अर्जी दाखिल कर सकते है उससे पहले नहीं।

1954-55 में विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिन्दू कोड बिल लाए। इसके आधार पर हिन्दू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून बने। मतलब हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे नियम संसद ने तय कर दिए। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर चलने की रियायत दी गई। ऐसी छूट नगा सहित कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है, वो अपनी परंपरा के हिसाब से चलते हैं। यानी हिंदू, मुस्लिम और ईसाई के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ है। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने के बाद भी निकाह या विवाह की रस्म मौलवी या पंडित अदा करवाते रहेंगे, ये परंपराएं जारी रहेंगी।

यूनिफॉर्म सिविल कोड के विरोध में कहा जा रहा है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने की तरह है। मुस्लिम समुदाय के लोग तीन तलाक की तरह इस पर भी तर्क देते हैं कि वह अपने धार्मिक कानूनों के तहत ही मामले का निपटारा करेंगे। अभी कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। दूसरी तरफ कॉमन सिविल कोड के समर्थकों का कहना है कि सभी के लिए कानून एक समान होने से देश में एकता बढ़ेगी।

शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, विवादित विचार धाराओं से अलग एक कॉमन सिविल कोड होने से राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा। इसी केस में अदालत ने गुजारा भत्ता दिए जाने का आदेश दिया था। सरला मुदगल केस में कोर्ट ने कहा था, जब 80 फीसदी लोग को पर्सनल लॉ के दायरे में लाया गया है कि तो सभी नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड न बनाने का कोई औचित्य नहीं है। अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई तलाक कानून में बदलाव की मांग वाली याचिका की सुनवाई करते हुए कहा था, देश में अलग अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बनी रहती है। सरकार चाहे तो एक जैसा कानून बना कर इसे दूर कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने लॉ कमीशन को मामले पर रिपोर्ट देने के लिए कहा था। लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में यूनिफार्म सिविल कोड और पर्सनल लॉ में सुधार पर सुझाव दिए। लोगों से बात की और कानूनी, सामाजिक स्थितियों की समीक्षा के आधार पर लॉ कमीशन ने कहा कि अभी समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसकी बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जाना चाहिए। मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाया जाए। पारिवारिक मसलों से जुड़े पर्सनल लॉ को संसद कोडिफाई करने पर विचार करे। सभी समुदायों में समानता लाने से पहले एक समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के अधिकारों में समानता लाने की कोशिश हो।

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने कहा कि अदालतों को बार-बार पर्सनल लॉ कानूनों में उत्पन्न होने वाले संघर्षों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा, भारत के युवाओं को जो अलग समुदायों, जातियों या जनजातियों में शादी करते हैं, उन्हें अलग-अलग पर्सनल लॉ में होने वाले टकरावों से उत्तपन्न मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, खासकर शादी और तलाक के मामलों में। दिल्ली हाई कोर्ट की जज ने कहा कि भारत में समान नागरिक संहिता, संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत परिकल्पित है, सुप्रीम कोर्ट की ओर से समय-समय पर दोहराया गया है। कोर्ट ने कहा, ऐसा सिविल कोड सभी के लिए एक जैसा होगा और शादी, तलाक और उत्तराधिकार के मामले में समान सिद्धांतों को लागू करेगा। कोर्ट ने कहा कि इससे समाज में झगड़े और विरोधाभासों में कमी आएगी, जो कि अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से उत्पन्न होते हैं।

विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल मार्च में केंद्र सरकार से भारत में धर्म-तटस्थ विरासत और उत्तराधिकार कानून को लेकर जवाब मांगा था। सर्वोच्च अदालत में वकील और भारतीय जनता पार्टी के नेता अश्विनी उपाध्याय सर्वोच्च अदालत में इस तरह की पांच याचिकाओं को स्वीकार कराने में सफल रहे हैं, इसे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है।
विधिवेत्ताओं के अनुसार अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था, व्यवहारिक रूप से इस देश में एक नागरिक संहिता है, जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। लेकिन विवाह-उत्तराधिकार का क्षेत्र ऐसा है, जहां एक समान कानून लागू नहीं है। इसके लिए हम समान कानून नहीं बना सके हैं। उन्होंने कहा था कि इस दिशा में भी धीरे-धीरे सकारात्मक बदलाव लाया जाए।

बहरहाल, तीन तलाक, अयोध्या मंदिर, अनुच्छेद 370 के बीच देश से कई अहम मसले गायब हो गए जो लोकसभा चुनाव के दौरान चर्चाओं में थे। बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, शिक्षा-स्वास्थ्य, गरीबी आदि मुददों की बजाए कामन सिविल कोड, एनआरसी और जनसंख्या नियंत्रण कानून बडा मुददा बनकर उभरेगा।


लेखक मुस्ताअली बोहरा पेशे से अधिवक्ता हैं, जन मुद्दों पर लगातार लिखते रहते हैं।

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