अमेरिका के मिनेसोटा में अश्वेत जार्ज फ्लायड की हत्या के मामले में फ्लायड के परिवार को न्याय मिल गया है। अदालत ने 26 जून को दोषी पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन को साढ़े बाइस साल की सजा सुनाई है। सजा जज पीटर ए काहिल ने सुनाई। यह मिनेसोटा के किसी पुलिस अधिकारी को सुनाई जाने वाली अब तक की सबसे लंबी सजा है। हालांकि फ्लायड के वकील ने अदालत से तीस साल की सजा दिए जाने का अनुरोध किया था। अमेरिका के मिनेसोटा में अश्वेत जार्ज फ्लायड की पिछले साल 25 अप्रैल को एक गोरे पुलिस के अधिकारी के घुटने के नीचे दबे रहने के कारण मौत हो गई थी। पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन ने नौ मिनट तक अपने घुटने से फ्लायड का गला दबाए रखा, जिससे उनकी मौत हो गई थी। सजा के ऐलान क साथ साफ है कि सिर्फ एक साल दो महीने में इस मामले में पीड़ित जार्ज फ्लायड और उनके परिवार को न्याय मिल गया।
पुलिस के मुताबिक, जॉर्ज पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 20 डॉलर यानी करीब 1500 रुपये के फर्जी नोट के जरिए एक दुकान से खरीदारी की कोशिश की। अगर ऐसा था तो यह गलत था और इस मामले की जांच होनी चाहिए थी, लेकिन जिस तरह से जार्ज फ्लायड को गोरे पुलिस अधिकारी ने बेरहमी से अपने घुटनों के नीचे दबा तक मार डाला था, उसका वीडियो वायरल होने के बाद पूरे अमेरिका में नस्ली भेदभाव को लेकर उग्र आंदोलन शुरु हो गया था। 46 साल के अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय के थे।
इस घटना के खिलाफ अमेरिका के 140 शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए। अमेरिकी समाज में ब्लैक लिव्स मैटर की गूंज सुनाई पड़ने लगी थी। जॉर्ज फ्लॉयड अमेरिका में न्यांय और बराबरी मांग के प्रतीक बन गए हैं। यहां तक की ब्लैक समुदाय के साथ अमेरिकी गोरे लोग भी जार्ज फ्लायड के लिए इंसाफ की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे। इसमें कई जानी-मानी हस्तियां भी थीं। यह विरोध रंग लाया और जितनी जल्दी सिर्फ एक साल दो महीने में जार्ज फ्लॉयट को इंसाफ मिला है, वह नस्ली भेदभाव करने वालों के लिए एक बड़ा सबक है।
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि भारत में किसी जातीय हमले में पीड़ित को इतनी जल्दी न्याय मिल सकता है? क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि हमारे देश में दलित अत्याचार के मामले में यहां का सवर्ण समुदाय इसी तरह इंसाफ की मांग करेगा? क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि हमारे देश में कभी सड़कों पर अगड़ी जाति के सैकड़ों लोग अपने हाथों में ‘दलित लिव्स मैटर’ की तख्तियां लिए इंसाफ की मांग करेंगे। फिलहाल का जवाब तो यही है, शायद नहीं।….
भारत में यूं तो दलितों पर हिंसा के तमाम मामले आए दिन होते रहते हैं। लेकिन कई मामले हमें झकझोर कर रख देते हैं। और यहां कमजोर वर्ग के पीड़ित तबके को इंसाफ मिलना तो दूर सहानुभूति तक नहीं मिल पाती। ऐसे मामलों में भारतीय समाज से लेकर न्याय व्यवस्था तक का रवैया कैसा रहता है, यह तीन घटनाओं से समझा जा सकता है।
भंवरी देवी कांड
भंवरी देवी मामला भारतीय समाज की कहानी कहता है। और कहीं न कहीं, भारत की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाता है। राजस्थान में जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर भटेरी गांवकी रहने वाली भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार 22 सितंबर, 1992 को हुआ था। उन्होंने अगड़ी जाति के लोगों पर इसका आरोप लगाया था। लापरवाही का आलम यह रहा कि उनकी मेडिकल जांच 52 घंटे बाद की गई जबकि ये 24 घंटे के भीतर किया जाना चाहिए था।
भंवरी देवी चुप रहने की बजाय इंसाफ मांगने अदालत पहुंची, लेकिन निचली अदालत ने आरोपियों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया।निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भंवरी देवी की अपील हाई कोर्ट में लंबित है।1993 में एक बार उम्मीद की किरण दिखी, जब राजस्थान हाई कोर्ट के जस्टिस एनएम तिबरेवाल ने आरोपियों को जमानत देने से इंकार कर दिया और गैंग रेप को माना। लेकिन चीजें यहां से बिगड़ती चली गईं। ट्रायल के दौरान बिना कोई कारण बताये पांच बार जज बदले गए और नवंबर, 1995 में अभियुक्तों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया गया। अभियुक्तों को रिहा करने वाले अदालती फैसले में जो दलील दी गई उसमें अजीबो गरीब तर्क देते हुए कहा गया था कि-
गांव का प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता.
- अलग-अलग जाति के पुरुष गैंग रेप में शामिल नहीं हो सकते.
- 60-70 साल के ‘बुजुर्ग’ बलात्कार नहीं कर सकते.
- एक पुरुष अपने किसी रिश्तेदार के सामने रेप नहीं कर सकता.
- और सबसे अजीब बयान यह था कि अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला का रेप नहीं कर सकता क्योंकि वह ‘अशुद्ध’ होती है।
अदालत के यह तर्क हंसने को मजबूत करते हैं, क्योंकि यह उस देश में कहा जाता है, जिस देश में देवदासी प्रथा का और अगड़ी जातियों द्वारा पिछड़ी और कमजोर जातियों की औरतों के शोषण का लंबा इतिहास रहा है।
https://www.youtube.com/watch?v=QWpeYwUju2k
खैरलांजी मामला
महाराष्ट्र के खैरलांजी में जो हुआ, वह मानवता पर धब्बा जैसा था। सुरेखा भोतमांगे महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले के खैरलांजी गांव में रहती थीं। उनका परिवार ‘महार’ जाति का था, जिसे ‘छोटी’ जाति माना जाता है। अपनी जैसी और दलित महिलाओं की तुलना में उनके हालात काफ़ी बेहतर थे। वे शिक्षित थीं और अपने पैसों से अपना घर चलाती थीं। 45 साल की सुरेखा के परिवार में थे उनके 51 साल के पति भैयालाल, उनके दो बेटे एक बेटी थी, जो 12वीं की टॉपर भी थी।
खैरलांजी गांव के कुनबी मराठाओं से ये बर्दाश्त नहीं होता था कि दलित होने के बावजूद सुरेखा काफ़ी संभ्रांत थी। और वे सुरेखा को परेशान करने का मौका ढूंढ़ते रहते थे। उन्हें मौका तब मिल गया जब उन्होंने सुरेखा के खेतों पर सड़क बनाने का फ़ैसला किया। सुरेखा ने इसका विरोध किया तो उन्होंने खेतों पर बैलगाड़ियां चलवा दीं। उसी दिन सुरेखा ने थाने में शिकायत दर्ज कर दी, जिससे कुनबी मराठे बौखला गए। 29 सितंबर 2006 को शाम के 6 बजे, ट्रैक्टर में लगभग 70 लोगों ने सुरेखा के घर को घेर लिया।
सुरेखा और प्रियंका को सरेआम नंगा करके एक बैलगाड़ी से बांधा गया और पूरे गांव में घुमाया गया। उनके दोनों बेटों को भी नंगा करके पीटने के बाद उन्हें अपनी मां और बहन का बलात्कार करने को कहा गया। जब वो नहीं माने तो उनके प्राइवेट पार्ट काट दिए गए और पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी गई। वहीं सुरेखा और प्रियंका का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उन्हें मार दिया गया और उन सबकी लाशें पास की सूखी नदी में फेंक दी गईं। सुरेखा के पति इसलिए बच गए क्योंकि वह घर पर मौजूद नहीं थे।
इस पूरे मामले में दलित समाज ने मीडिया से लेकर, पुलिस प्रशासन और न्ययापालिका की भूमिका पर सवाल उठाया। क्योंकि मीडिया ने जब खैरलांजी की इस घटना को कवर किया तो उसने जाति का कोई ज़िक्र ही नहीं किया और इस मुद्दे को सुरेखा के चरित्र से जोर दिया गया। अदालत ने भी एससी एसटी कानून लागू नहीं किया। सभी जानते थे कि इस मामले में 60 के करीब लोग शामिल थे, लेकिन उनमें से सिर्फ़ आठ लोग ही गिरफ़्तार हुए, जिनमें से अदालत ने छह लोगों को मौत और दो को उम्रकैद की सज़ा वसुनाई। लेकिन केस जब बंबई उच्च न्यायालय के नागपुर विभाग के सामने आया तो उन्होंने मौत की सज़ा की जगह 25 साल के कारावास की सज़ा सुना दी। केस अभी सुप्रीम कोर्ट में है और इसकी सुनवाई 2015 में होनी थी, पर नहीं हुई। 2017 के जनवरी में भैयालाल भोतमांगे 62 की उम्र में हार्ट अटैक से चल बसे। वे अपनी मृत पत्नी और बच्चों को इंसाफ़ नहीं दिला पाए।
लक्ष्मणपुर बाथे
बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मीणपुर बाथे गांव में एक दिसंबर 1997 को दलित बस्ती के 58 लोगों को मौत की घाट उतार दिया गया। मारे गए लोगों में तीन साल के बच्चे से लेकर 65 साल के बुज़ुर्ग तक शामिल थे। इस सामूहिक हत्याकांड में न्याय की बात करें तो सबसे खास बात यह है कि लोअर कोर्ट में जिन लोगों को इस घटना के लिए दोषी करार दिया गया था, उच्च न्यायालय ने उन सभी को सबूत के अभाव में बरी कर दिया।
हत्याकांड के एकमात्र गवाह लक्ष्मण बचे, जिन्होंने अपनी पत्नी, बहू और बेटी को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। लक्ष्मण ने बताया कि गांव की अगड़ी जाति के लोग घरों को चिन्हित कर रहे थे और हत्यारे उन्हें मारते जा रहे थे। इसमें रणबीर सेना का हाथ बताया गया। लक्ष्मण की गवाही पर दोषियों को निचली अदालत ने फांसी और उम्रकैद की सजा सुनाई। लेकिन लक्ष्मण का आरोप है कि हाईकोर्ट में एक करोड़ रुपये खर्च करके सब के सब बच गए। अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुई घटना भी बड़े सवाल खड़े करती है।
इन घटनाओं को देखते हुए आप समझ सकते हैं कि भारत में जातीय हिंसा के शिकार कमजोर वर्ग के किसी पीड़ित को न्याय मिलना कितना मुश्किल है। भारत में हालांकि समय-समय पर अगड़ी जातियों के कुछ लोग दलितों और पिछड़ों को इंसाफ दिलाने के लिए सामने आए हैं, लेकिन भारत में फिलहाल ऐसा संभव होता नहीं दिखता, जब यहां के सवर्ण अगड़ी जातियों के लोग दलितों के इंसाफ के लिए ‘दलित लिव्स मैटर’ की तख्तियां लिए सड़कों पर उतरेंगे। फिलहाल जार्ज फ्लायड के जिस तरह से इतनी जल्दी इंसाफ मिला, उससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले हमारे देश के सिस्टम को भी जरूर सिखना चाहिए।
अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.