मंदिर में लगे गुब्बारे छुए तो 5 बच्चों ने की 12 साल के लड़के की पिटाई, मौत

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अलीगढ़। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में 10 से 12 साल के पांच बच्चों द्वारा 12 साल के दलित बच्चे की पीट-पीटकर हत्या किए जाने का मामला सामने आया है. बताया जा रहा है कि दलित लड़के ने नदरोई गांव के चामंडा मंदिर में सजावट के लिए लगाए गए गुब्बारों के छू लिया था. ये गुब्बारे जन्माष्टमी के पर्व पर सजाए गए थे. इसी से गुस्साए पांच नाबालिग लड़कों ने दलित लड़के की पिटाई की.

पुलिस ने इस घटना पर मंगलवार को पांचों नाबालिग लड़कों के खिलाफ गैर इरादतन हत्या और एससी-एसटी ऐक्ट के तहत केस दर्ज कर लिया है. एसपी क्राइम आशुतोष द्विवेदी ने बताया कि घटना की जांच की जा रही है. शव का पोस्टमॉर्टम हो चुका है. अभी रिपोर्ट नहीं आई है.

एसपी ने बताया कि पीड़ित का दोस्त सूरज का दावा है कि जब आरोपी पीड़ित को पीट रहे थे तो वह घटनास्थल पर मौजूद था. उसने बताया कि 10 से 12 वर्ष की उम्र के पांच लड़कों ने उसके दोस्त को मना किया कि वह मंदिर में लगे गुब्बारे न छुए. इधर अचानक एक गुब्बारा फूट गया. पांचों गुस्से में उसके दोस्त के ऊपर टूट पड़े.

पेट में किए कई वार सूरज ने बताया कि पांचों आरोपियों में से एक ने उसके दोस्त के हाथ पकड़े और दो ने उसके दोनों पैर पकड़ लिए. बाकी के दो ने उसके पेट में लगातार वार करने शुरू कर दिए. वह डरकर और वहां से भागकर घर आया और पीड़ित बच्चे की मां को घटना की जानकारी दी.

पीड़ित बच्चे के चचेरे भाई चंद्रपाल ने बताया कि सूरज ने जैसे ही बच्ची की मां सावित्री देवी को सूचना दी, वह मंदिर की ओर भागीं. वहां उन्होंने देखा कि उनका बेटा जमीन पर पड़ा है. वह उसे उठाकर घर लाईं और गांव के प्रधान श्याम सुंदर उपाध्याय को घटना की जानकारी दी लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया.

चंद्रपाल ने बताया कि रात में लगभग ढाई बजे उनके भाई के पेट में तेज दर्द हुआ वह उसे लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे यहां उसे कोई फायदा नहीं हुआ. शाम को लगभग चार बजे उसे जिला अस्पताल में रेफर कर दिया गया. उनलोगों ने उसे बुधवार को लगभग 11 बजे अलीगढ़ जिला अस्पताल में भर्ती कराया. लगभग डेढ़ घंटे में उसकी मौत हो गई. चंद्रपाल ने बताया कि सावित्री के पति की आठ साल पहले मौत हो गई थी. वह मजदूरी करके परिवार चलाती हैं. उनकी एक बेटी और तीन बेटे हैं. मृतक उनका सबसे छोटा बेटा था.

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सवर्णों के बंद पर मायावती ने चुप्पी तोड़ी, बनाया यह मास्टर प्लॉन

नई दिल्ली। 6 अगस्त को सवर्ण समाज के बंद को लेकर बसपा सुप्रीमों सुश्री मायावती ने अपनी चुप्पी तोड़ दी है. मायावती ने इस बंद के बहाने ओबीसी और सवर्ण समाज को अपने पाले में करने की कोशिश शुरू कर दी है. अपने बयान के दौरान वह सवर्ण जातियों का नाम लेने से सीधे तौर पर बचती रहीं और बंद को भाजपा और आरएसएस का जातिवादी व चुनावी षड़यंत्र बताया. उन्होंने भाजपा पर सवाल दागते हुए कहा कि जिस प्रकार से बीजेपी एण्ड कम्पनी के लोग एस.सी-एस.टी. कानून का विरोध कर रहे हैं, पूर्व में उसी प्रकार का तीव्र विरोध इन्होंने ओ.बी.सी. वर्ग को सरकारी नौकरियों व शिक्षा आदि में 27 प्रतिशत आरक्षण देने के विरुद्ध भी किया था, जब बसपा की कोशिशों से देश में मण्डल आयोग की सिफारिशों को 1990 में लागू किया गया था.

सवर्ण समाज पर डोरे डालते हुए बसपा प्रमुख ने कहा कि बी.एस.पी. सर्वसमाज के हित का ध्यान रखने वाली पार्टी है और इसीलिये देश में सबसे पहले अपरकास्ट समाज के ग़रीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिये केन्द्र सरकार को चिट्ठी लिखी तथा संसद के भीतर व संसद के बाहर भी लगातार इसके लिये संघर्ष भी करती रही हैं. यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री ने बीजेपी सरकारों द्वारा प्रायोजित बंद को जनता के असली ज्वलन्त मुद्दों पर से सरकार का ध्यान बांटने का प्रयास कहा.

हालांकि बसपा प्रमुख ने एससी-एसटी कानून को लेकर सवर्ण समाज में फैले भ्रम को भी दूर करने की कोशिश की. उन्होंने कहा – “जो लोग इस कानून की बहाली को लेकर अपने दिल व दिमाग में यह गलत धारणा बनाये हुये हैं कि अब इस कानून का ‘‘दुरूपयोग’’ होगा और अब इस कानून की बहाली की आड़ में दलितों व आदिवासियों को छोड़कर बाकी अन्य सभी समाज के लोगों का बड़े पैमाने पर ‘‘शोषण व उत्पीड़न’’ आदि होगा तो इससे हमारी पार्टी कतई भी सहमत नहीं है क्योंकि इस कानून का दुरूपयोग होना व ना होना, यह सब कुछ केन्द्र व राज्य सरकारों की खासकर एस.सी.-एस.टी. वर्गों के प्रति उनकी सही व ईमानदार सोच, नीति, नियत व कार्य-प्रणाली आदि पर ही निर्भर करता है.

और इस बात का खास सबूत, उत्तर प्रदेश में बी.एस.पी. के नेतृत्व में, वहाँ का चार बार का रहा हमारा ‘‘सही व ईमानदार, जातिविहीन व सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय’’ की नीतियों पर आधारित शासनकाल का होना रहा है जिसमें इस कानून का बिल्कुल भी दुरूपयोग नहीं होने दिया गया था.

बसपा प्रमुख ने आरोप लगाया कि भारत बंद बीजेपी व आर.एस.एस. का जातिवादी व अपने राजनैतिक स्वार्थ एवं लाभ के लिये किया गया कोरा चुनावी षडयंत्र है. क्योंकि बन्द का ज्यादातर असर हमें उन्हीं राज्यों में देखने के लिये मिला है जिन राज्यों में बीजेपी की अकेले या फिर बीजेपी व इनके सहयोगी दलों की मिली-जुली सरकारें चल रही हैं. कुल मिलाकर एससी-एसटी एक्ट के कारण भाजपा से नाराज चल रहे सवर्णों को मायावती अपने शासनकाल की याद दिलाते हुए अपने पाले में करने की कोशिश में जुट गई हैं तो वहीं पिछड़े वर्ग को मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के दौरान सवर्णों के गुस्से की याद दिलाकर भाजपा से दूर रहने का संदेश दे दिया है.

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बहुजन छात्र मृदुल ने महात्मा फुले,बाबासाहेब अंबेडकर को दिया अपनी सफलता का श्रेय

नई दिल्ली। संघ लोक सेवा आयोग नई दिल्ली द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित श्रम प्रवर्तन अधिकारी (लेबरइन्फ़ोर्सेमेंटऑफिसर) परीक्षा में मृदुल पाल पुत्र दिवंगत श्री शिवचरण पाल ने शानदार सफलता प्राप्त करके पूरे बहुजन समाज का नाम रोशन किया है.

वाराणसी जनपद के कर्माजीतपुर (आदित्यनगर) के निवासी मृदुल पाल के पिता दुग्ध व्यवसाय से जुड़े हुये थे. उन्होंने कठिन आर्थिक परिस्थितियों एवं सामाजिक चुनौतियों का सामना करते हुये अपने बच्चों का पालन पोषण किया.

मृदुल पाल बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, इनकी प्रारम्भिक शिक्षा डैलिम्ससनबीम स्कूल रोहनिया वाराणसी से हुआ यहाँ से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा अर्जित करने के बाद इन्होंने UIET(CSJM विश्वविद्यालय कानपुर) से इन्फॉर्मेशनटेक्नोंलॉजी में बीटेक की डिग्री हासिल किया. इसके पश्चात इनका चयन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशलसाइन्सेज मुंबई (TISS) व इंटरनेशनल लेबरऑर्गेनाएजेशनजेनेवा के संयुक्त स्कॉलरशिप के लिए हुआ. इसके तहत ही इन्होंने चयन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशलसाइन्सेज मुंबई (TISS) से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त किया.

मृदुल का चयन छत्तीसगढ़ शासन के अंतर्गत पंचायती राजमंत्रालय में डिस्ट्रिक्ट सोशलऑडिटफैसिलेटर के पद पर हुआ, परंतु पाँच माह सेवा देने के पश्चात त्यागपत्र देकर यूपीएससी की परीक्षाओं की तैयारी करने लगे. इस  दौरान इन्होंने चार बार यूजीसीद्वारा आयोजित नेट एवं दो बार जेआरएफ़ की परीक्षा उतीर्ण की.

मृदुल पाल ने अपनी सफलता का श्रेय महात्मा फुले,बाबासाहेब अंबेडकर को दिया है, और इन्होंने अपने पिता दिवगंत श्री शिवचरण पाल व माता श्रीमती सुदामा देवी को यह सफलता समर्पित की. मृदुल पाल ने बताया कि इनके पिता जी ने इन्हें ईमानदारी सच्चाई व कठिन परिश्रम के लिए सदैव प्रेरित किया जिसे मृदुल ने अपनी सफलता का मूलमंत्र बताया. मृदुल ने अपनी सफलता में अपने भाई-बहन, गुरुजनों व मित्रों का सहयोग बताया है.

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हकमार कौन !

गत 23 अगस्त, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह दलितों के आरक्षित तबकों के संपन्न लोगों के बच्चों को प्रमोशन में आरक्षण पर दिए जाने पर सवाल उठाया है, उससे भारत में एक नए वर्ग,‘हकमार वर्ग’ को लेकर एक नया विमर्श शुरू हो गया है. हालाँकि ऐसा नहीं कि इससे पहले ऐसा नहीं होता रहा: होता रहा पर, एससी/एसटी के आरक्षित वर्ग की तुलनामूलक रूप से थोड़ी सी अग्रसर तीन –चार जातियों को हकमार वर्ग के रूप में चिन्हित करने का जैसा प्रयास सुप्रीम कोर्ट द्वारा सवाल उठाये जाने के अगले दिन से शुरू हुआ, वह अभूतपूर्व है. और इसके पीछे परोक्ष भूमिका वर्तमान सत्ताधारी पार्टी की है, जिसका प्रश्रय पाकर ही अब मीडिया और न्यायिक सेवा इत्यादि से जुड़े लोग हकमार जातियों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने में सक्रिय हो गए हैं. बहरहाल जिन कथित अग्रसर जातियों पर आरक्षण छोड़ने का नैतिक दबाव बनाया जा रहा है क्या वे इतनी संपन्न बन चुकी हैं कि उन पर आरक्षण छोड़ने का दबाव बनाया जाय? इनको रिजर्वेशन से दूर धकेलने की मुहिम क्या युक्तिसंगत है? बहरहाल युक्तिसंगत न होने के बावजूद अगर पिछड़ों की भाँति दलितों की कुछ कथित संपन्न जातियों को हकमार बताते हुए आरक्षण से दूर धकेलने की मुहिम चल रही तो उसके पीछे एकाधिक कारण है.

दलितों की अग्रसर जातियों को क्रीमी लेयर और अन्यान्य तरीकों से आरक्षण के दायरे से बाहर रखने के पीछे का खास मकसद अनग्रसर जातियों को अवसर प्रदान करना नहीं, बल्कि प्रकारांतर में ‘योग्य कैंडिडेट उपलब्ध नहीं हैं’ के जरिये वह सीटें उन 15% अनारक्षित वर्ग के लोगों को शिफ्ट कराना है, जिनका अघोषित रूप से 50% से ज्यादा आरक्षण है. लेकिन आज दलितों के आरक्षित वर्ग की संपन्न जातियों को निशाने पर लेने के पीछे जो कारण प्रमुख रूप से क्रियाशील है, वह है बहुजन एकता से निजात पाना.

वैदिक काल से ही हिन्दू आरक्षण का लाभ उठाने वाली जातियों के समक्ष आतंक का अन्यतम विषय रहा है, वर्ण-व्यवस्था की वंचित जातियों की एकता, जिसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट आने के बाद लम्बवत विकास हो गया. मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के साथ ही वर्ण-व्यवस्था के अर्थशास्त्र के तहत सदियों से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक) से बहिष्कृत दलित-आदिवासी-पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित समूह परस्पर घृणा और शत्रुता की प्राचीर तोड़कर एक दूसरे के निकट आने लगे. वंचितों की एकता और उनकी जाति चेतना का राजनीतिकरण हजारों साल की विशेषाधिकारयुक्त और सुविधाभोगी जातियों को राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया. इस कारण ही बहुजन एकता इनके लिए आतंक का विषय बन गयी. इस आतंक से निजात पाने के लिए ही शासक दलों की ओर से तरह-तरह की तरकीबें की गयीं, जिनमें प्रधान थी 24 जुलाई, 1991 को गृहित ‘नवउदारवादी अर्थनीति’. इस अर्थनीति में दलित-आदिवासी-पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबकों को मंडल पूर्व स्थिति पंहुचाने का भरपूर सामान देखते हुए ही देश के दोनों प्रमुख दलों के प्रधानमंत्रियों ने अपना वैचारिक मतभेद भुलाकर निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण, भूमंडलीकारण की अर्थनीति को आगे बढाने में एक दूसरे से होड़ लगाया, जिनमें सबसे आगे निकल गए वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.

आज मोदी की नीतियों के कारण देश की टॉप की 10% आबादी का शासन-प्रशासन के साथ देश की धन-दौलत पर 9० प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो गया है. यही नहीं जो शिक्षा आरक्षण के अवसरों का लाभ उठाने का मुख्य जरिया है, मोदी राज में उस शिक्षा से आरक्षित वर्गों को पूरी तरह दूर धकेलने की तैयारी मुक्कमल हो चुकी है. अतः विगत चार वर्षों में मंडल से हिन्दू आरक्षणवादियों की हुई क्षति की भरपाई का जो बलिष्ठ प्रयास मोदी राज में हुआ, उससे बहुजन, विशेषकर दलित समुदाय शर्तिया तौर पर विशुद्ध गुलाम में परिणत होने जा रहा है. इस स्थिति को देखते को हुए आरक्षित वर्गों के बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट मोदी सरकार को 2019 में सत्ता से आउट करने और धनार्जन के समस्त स्रोतों में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी – उसकी उतनी हिस्सेदारी’ लागू करवाने की निर्णायक लड़ाई के लिए नए सिरे से संगठित होना शुरू कर दिए.

किन्तु बहुत पहले से ही 2019 की तैयारियों में जुटी मोदी सरकार ने आरक्षित वर्गों बुद्धिजीवियों की तैयारियों का इल्म हो चुका था. लिहाजा आरक्षित वर्गों की एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए वह अगस्त 2017 में पिछड़ों के आरक्षण को तीन भागों में विभाजित करने की दिशा में अग्रसर हुई. तब बहुत से पत्रकारों ने सवाल किया था क्या सरकार दलितों के आरक्षण में भी ओबीसी की तरह विभाजन करेगी. उस समय सरकार की ओर से साफ इंकार कर दिया गया था. किन्तु 2018 में मोदी की अतिसवर्ण-परस्त नीतियों के कारण 2019 में सम्भावना और धूमिल हो गयी लिहाजा सरकर को ओबीसी की भांति दलित आरक्षण में भी कुछ करना जरुरी हो गया. उसी का परिणाम है हकमार वर्ग का नया सामाजिक-राजनीतिक विमर्श, जिसके जरिये दलितों के उन सक्षम जातियों को आरक्षित वर्ग के दायरे से अलग-थलग करने का उपक्रम शुरू हो चुका है, जो सामान्यतया शोषकों के खिलाफ चलाये जाने वाले आंदोलनों में पहली कतार में दिखती हैं. तो कहा जा सकता है भारत के असल हकमार मार्ग, जिनका वर्तमान सरकार की नीतियों के सौजन्य से शासन-प्रशासन सहित देश की धन दौलत पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो चुका है, की स्थिति सुरक्षित करने के मकसद से ही आरक्षित वर्गों की सबसे जुझारू जातियों को हकमार बताकर अलग-थलग करने की बड़ी साजिश शुरू हो गयी है.

दलितों में विभाजन से जो असर हो सकता है, भाजपा नेता नीतीश कुमार के साथ मिलकर उसका सफल प्रयोग बिहार में कर चुके हैं, जहां महा-दलितों को नाममात्र की सुविधाएँ दिला कर मंडल उत्तरकाल में दलितों में विकसित हुई चट्टानी एकता में गहरी दरार पैदा की जा चुकी है. और जिस तरह बहुजन नेतृत्व निष्क्रिय है, मुमकिन है सरकार का प्रश्रय पाकर न्यायिक और मीडिया जगत तथा संघ परिवार से जुड़े लोग आरक्षित वर्गों की कथित संपन्न जातियों को ‘हकमार वर्ग’ के रूप में स्थापित करने में सफल हो जांय. ऐसे में आरक्षित वर्गों की पिछड़ी जातियों के बुद्धिजीवीयों पर एक अतिरिक्त जिम्मेवारी आन पड़ी है.

इसमें कोई शक नहीं कि आरक्षण के अवसरों का असमान बंटवारा एक समस्या है, लेकिन इससे कई-कई गुना बड़ी समस्या है संपदा-संसाधनों का असमान बंटवारा. आज हजारों साल से शक्ति के समस्त स्रोतों पर एकाधिकार रखने वाले भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का पुनः मोदी राज में हर जगह 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है. आधुनिक विश्व में कोई ऐसा देश नहीं है जहां परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग का इस तरह कब्ज़ा हो. यह यूं ही नहीं हुआ है : इसे सुपरिकल्पित रूप में अंजाम दिया गया है. आजाद भारत के शासकों ने जो महा-लोकतंत्र व मानवता-विरोधी काम अंजाम दिया, वह यह कि उन्होंने जन्मजात वंचितों-दलित,आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित- को सरकारी नौकरियों को छोड़कर धनार्जन के बाकी स्रोतों- भूमि, सप्लाई, डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग, परिवहन, फिल्म-मीडिया-में बिलकुल ही हिस्सेदारी नहीं दिया. और सरकारी नौकरियों में दिया भी तो मंडल उत्तरकाल में उसे ख़त्म करने में सारी ताकत झोंक दी. इस मामले में मोदी सरकार का कोई जवाब नहीं.

मोदी सरकार आरक्षित वर्गों के प्रति इतनी निर्मम रही है कि एक ओर जहाँ यह निजीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि के जरिये सरकारी नौकरियों के खात्मे में पूरी तरह मुस्तैद रही, वहीँ दूसरी ओर बची-खुची सरकारी नौकरियों की वैकेन्सी निकालने में तरह-तरह का षड्यंत्र करती रही. खुद मोदी सरकार ने मार्च 2016 में माना कि 2013 से 2015 के बीच केंद्र सरकार की नौकरियों में करीब 89 प्रतिशत गिरावट आई है. तब राज्य मंत्री जितेन्द्र कुमार ने संसद में बताया था कि 2013 में 1,51,841 सीधी नौकरिया दी गयीं थी, जो 2014 में घटकर 1,26,261 रह गयीं और 2015 में केवल 15,877 लोगों की सीधी भर्ती की गयी. इसका मतलब यह हुआ कि 2013 से 2015 के बीच आरक्षित वर्ग की नौकरियों में 90 प्रतिशत की गिरावट आई. एससी/एसटी और पिछड़े वर्गों के लिए निर्धारित आरक्षण के जरिये 2013 में 92,928 लोगों को नौकरी मिली थी. 2014 में यह तादाद 72,077 थी जो 2015 में महज 8,436 तक सिमट कर रह गयी. अब भाजपा के केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 5 अगस्त, 2018 को स्पष्ट घोषणा कर दिया है कि सरकारी नौकरियां नहीं हैं और जब नौकरियां ही नहीं हैं तो आरक्षण का भी कोई अर्थ नहीं है!. तो यह है उस मोदी सरकार की कारगुजारी जो आरक्षण को पूरी तरह कागजों की शोभा बनाने के साथ सरकारी नौकरियों को कपूर की भाँति उड़ा चुकी हैं. कागजों की शोभा बन चुके उसी आरक्षण में आरक्षित वर्गों की अनग्रसर जातियों को वाजिब हिस्सेदारी दिलाने के लिए मोदी आज आरक्षण में विभाजन कर सामाजिक न्याय के नए मसीहा बनने की तैयारियों में जुट गए हैं. और अगर उनके सामाजिक न्याय की मुहिम सफल हो जाती है तो उसका हस्र एक रोटी के लिए कलहरत उन दो बिल्लियों जैसा हो जायेगा, जिनके मध्य रोटी का वाजिब बंटवारा करते-करते जज बना एक बन्दर पूरी रोटी ही खा गया और बिल्लियाँ देखती रह गयीं.

ऐसे में अब ओबीसी और एससी/एसटी के आरक्षित वगों की पिछड़ी जातियों के समक्ष दो ही ठोस विकल्प रह गए हैं.पहला, वे सामाजिक न्याय के नए मसीहा मोदी के साथ मिलकर अपने हकमार भाइयों को अलग-थलग करने की मुहिम में जुट जाएँ, ताकि कागजों की शोभा बन चुके आरक्षण में अपना वाजिब हिस्सा पा सकें. दूसरा, अपने हकमार भाइयों के साथ मिलकर धनार्जन के समस्त स्रोतों में- जिसकी जितनी सख्या भारी,उसकी उतनी भागीदारी- की नीति लागू करवाने की लड़ाई लड़ें और यह लड़ाई जीतने के बाद फिर आपस में मिलकर नए सिरे से आरक्षण बंटवारा कर लें.!और यदि क्रांतिकारी बदलाव की इच्छाशक्ति हो तो संगठित होकर भारत को आज का दक्षिण अफ्रीका बनाने प्रयास करें.स्मरण रहे दक्षिण अफ्रीका में भारत के बहुजनों सादृश्य मूलनिवासी कालों की तानाशाही सत्ता कायम होने के बाद वहां शक्ति के समस्त स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा रखने वाले गोरे आज हर क्षेत्र में 9-10 प्रतिशत पर सिमटने के लिए मजबूर हो चुके हैं. भारत को आज का दक्षिण अफ्रीका बनाने का परिणाम क्या हो सकता है, आरक्षित वर्गों की अन्ग्रसर जातियों के लिए इसकी कल्पना करना कोई कठिन काम नहीं है.

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भीमा कोरेगांव: 12 सितंबर तक नज़रबंद रहेंगे सामाजिक कार्यकर्ता

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नई दिल्ली। भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार किए गए पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अब महाराष्ट्र पुलिस ने अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट में रखा है. फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पांचों सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनके घर में नज़रबंद रखा गया.

गुरुवार को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र पुलिस को कड़ी फटकार लगाई. हालांकि उनके घर में नज़रबंदी को लेकर बहस अभी जारी रहेगी और अगली सुनवाई 12 सितंबर को होगी. समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार महाराष्ट्र पुलिस ने एक हलफ़नामा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया. जिसमें कहा गया है कि ‘इन कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ ऐसे सबूत हैं जो बताते हैं कि इनका संबंध प्रतिबंधित माओवादी संगठन के साथ था.’

महाराष्ट्र पुलिस ने इसके साथ ही साफ़ किया है कि इन कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी इस वजह से नहीं हुई कि इनके और सरकार के बीच विचारों में मतभेद थे. गौर करने वाली बात है कि 29 अगस्त को इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ”लोकतंत्र में असहमति एक सेफ़्टी वॉल्व की तरह होती है.”

महाराष्ट्र पुलिस ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा दाखिल किया है वह दरअसल कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील के जवाब में किया गया है. इतिहासकार रोमिला थापर सहित पांच लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में इन गिरफ़्तारियों को चुनौती देते हुए जनहित याचिका दायर की है. इस हलफ़नामे में महाराष्ट्र पुलिस ने याचिकाकर्ताओं पर भी सवाल उठाए हैं. पुलिस ने कहा है कि ये सभी याचिकाकर्ता इस मामले में हुई जांच से पूरी तरह अवगत नहीं हैं. साथ ही पुलिस ने कहा है कि ‘गिरफ़्तार किए गए पांचों कार्यकर्ता समाज में अराजकता फ़ैलाने की कोशिश कर रहे थे, इन सभी के ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत मिले हैं जिनके आधार पर ये गिरफ़्तारियां की गई हैं.’

महाराष्ट्र पुलिस ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा दाखिल किया है वह दरअसल कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील के जवाब में किया गया है. इतिहासकार रोमिला थापर सहित पांच लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में इन गिरफ़्तारियों को चुनौती देते हुए जनहित याचिका दायर की है.

इस हलफ़नामे में महाराष्ट्र पुलिस ने याचिकाकर्ताओं पर भी सवाल उठाए हैं. पुलिस ने कहा है कि ये सभी याचिकाकर्ता इस मामले में हुई जांच से पूरी तरह अवगत नहीं हैं. साथ ही पुलिस ने कहा है कि ‘गिरफ़्तार किए गए पांचों कार्यकर्ता समाज में अराजकता फ़ैलाने की कोशिश कर रहे थे, इन सभी के ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत मिले हैं जिनके आधार पर ये गिरफ़्तारियां की गई हैं.’

गिरफ़्तार किए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं में वामपंथी विचारक और कवि वरवर राव, वकील सुधा भारद्वाज, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंज़ाल्विस शामिल हैं. इन सभी की गिरफ़्तारी इस साल जनवरी में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा की जांच के सिलसिले में की गई थी. गिरफ़्तारी के बाद पुलिस ने अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा था कि उनकी जांच से पता चला है कि माओवादी संगठन एक बड़ी साजिश रच रहे थे.

प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान महाराष्ट्र पुलिस ने मीडिया के सामने कई पत्र भी पढ़े जिसके ज़रिए यह बताया गया कि ये सभी सामाजिक कार्यकर्ता माओवादी सेंट्रल कमेटी के संपर्क में थे. पुलिस ने यह आरोप भी लगाए थे कि इन कार्यकर्ताओं के संपर्क कश्मीर में मौजूद अलगाववादियों के साथ भी हैं. इसके बाद गिरफ़्तार सामाजिक कार्यकर्ताओं में से एक वरिष्ठ वकील सुधा भारद्वाज ने अपनी वकील वृंदा ग्रोवर के ज़रिए एक चिट्ठी सार्वजनिक की और पुलिस के लगाए तमाम आरोपों को निराधार बताया था.

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केरल: पहचान छिपाकर बाढ़ पीड़ितों के लिए काम करता रहा यह IAS अफसर

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तिरुवनंतपुरम। हाल ही में केरल में आई बाढ़ ने जहां एक ओर भारी तबाही मचाई, वहीं इसी तबाही के बीच कई मानवीय घटनाएं और कहानियां भी निकलकर सामने आईं। क्या बड़े अधिकारी और क्या मंत्री, हर कोई लोगों को राहत पहुंचाने के लिए दिन-रात काम करता दिखा। आपको मिलवाते हैं ऐसे ही एक आईएएस अफसर से जिन्होंने मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 8 दिन तक लगातार राहत काम में एक साधारण शख्स के तौर पर हिस्सा लिया, मगर कोई उन्हें पहचान तक नहीं पाया।

यह ऑफिसर हैं कन्नन गोपीनाथन। 2012 बैच के एजीएमयूटी कैडर के ऑफिसर कन्नन केरल के कोट्टयम के रहने वाले हैं और इस वक्त दादरा ऐंड नगर हवेली के कलेक्टर हैं।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, केरल में बाढ़ की खबर पर कन्नन ने छुट्टी ली और तुरंत अपने गृह राज्य आ गए। यहां उन्होंने पहले दादरा ऐंड नगर हवेली प्रशासन की ओर से 1 करोड़ रुपए का चेक केरल सीएम आपदा राहत कोष में दिया और फिर राहत कार्य में लग गए। उन्होंने बिना अपनी पहचान जाहिर किए कुछ दिन अलपुझा में काम किया और फिर एर्नाकुलम रवाना हो गए। गोपीनाथन ने राहत कार्य के दौरान की पूरी कहानी कई ट्वीट्स में शेयर की है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, कन्नन की पहचान एर्नाकुलम में उजागर हुई जब केबीपीएस प्रेस सेंटर पहुंचे एर्नाकुलम के कलेक्टर ने काम कर रहे कन्नन को पहचान लिया। वहा मौजूद सभी लोग हैरान रह गए कि जिसके साथ वह इतने दिनों से काम कर रहे थे वह एक सीनियर आईएएस ऑफिसर हैं।

उनकी इस कहानी को सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया जा रहा है और सराहा जा रहा है। आईएएस असोसिएशन ने भी ट्विटर पर उनकी जमकर सराहना की है

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भारत बंद का जातिशास्त्र

आखिर सवर्ण समाज ने दिखा दिया कि वो भी भारत बंद कर सकते हैं. 6 सितंबर को सवर्णों का भारत बंद था. यानि कि ऐसा दावा किया गया कि सवर्ण समाज ने भारत बंद किया है. ये बंद एससी-एसटी एक्ट में केंद्र सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश के विरोध में बुलाया गया था. हालांकि सोशल मीडिया पर देश भऱ के लोग यह बताते रहें कि बंद का असर उतना भर है, जितना दिन विशेष पर बाजार के बंद होने पर रहता है.

लेकिन दाद देनी होगी मीडिया कि… ज्यादातर ने जिस तरह से बंद दिखाया और लिखा… लगा कि 6 सितंबर को भारत ठहर गया है. तमाम चैनलों और वेबसाइटों में खूब खबर चली. अखबारों में भी छपेगी.

आज चल रही खबरें मीडिया में सवर्णों की ताकत को साफ दिखाती है, क्योंकि बंद जमीन से ज्यादा मीडिया में दिखा. यहां हैरान करने वाली बात यह है कि जब 2 अप्रैल को देश के वंचित तबके द्वारा भारत बंद किया गया था तो इसी मीडिया ने चुप्पी साध रखी थी, बल्कि इस खबर को ब्लैक आउट किया गया. लेकिन बंद का असर इतना व्यापक था कि सरकार हिल गई. यहां तक की मीडिया को भी इसकी खबर चलाने को मजबूर होना पड़ा. 2 अप्रैल के बंद को लेकर जो भी खबरें आईं, 2 अप्रैल के बाद आईं.

6 सितंबर के बंद ने यह बता दिया है कि सवर्ण समाज ने किस तरह सत्ता की तमाम संस्थाओं पर कब्जा कर रखा है. आप गूगल पर जाकर भारत बंद सर्च करिए, शुरुआती 10 पन्नों में आज के बंद की खबर चल रही है. ये मीडिया के भीतर का जातिवाद बताने के लिए काफी है. लेकिन देश के वंचितों के पास नंबर की ताकत है, जो हर शीर्ष सत्ता को अपने पक्ष में फैसला लेने को मजबूर कर सकती है. 2 अप्रैल के आंदोलन के बाद एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ अध्यादेश लाने के लिए सरकार को बाध्य कर देना इस बात का सबूत है.

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दलित शब्द से क्यों डर गई है मोदी सरकार

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नई दिल्ली। भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया संस्थानों से कहा है कि वो दलित शब्दावली का इस्तेमाल ना करें. मंत्रालय का कहना है कि अनुसूचित जाति एक संवैधानिक शब्दावली है और इसी का इस्तेमाल किया जाए. मंत्रालय के इस फ़ैसले का देश भर के कई दलित संगठन और बुद्धिजीवी विरोध कर रहे हैं. इनका कहना है कि दलित शब्दावली का राजनीतिक महत्व है और यह पहचान का बोध कराता है.

इसी साल मार्च महीने में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने भी ऐसा ही आदेश जारी किया था. मंत्रालय ने सभी राज्यों के सरकारों को निर्देश दिया था कि सरकारी संवाद में दलित शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाए. मंत्रालय का कहना है कि दलित शब्दावली का ज़िक्र संविधान में नहीं है. सूचना प्रसारण मंत्रालय का कहना है कि यह आदेश बॉम्बे हाई कोर्ट के निर्देश पर दिया गया है. सवाल है कि मोदी सरकार आखिर दलित शब्द से क्यों डरी है? और दलितों के लिए इस ‘शब्द’ के क्या मायने हैं?

जेएनयू में समाज शास्त्र विभाग के प्रो. विवेक कुमार कहते हैं, दलित शब्द राष्ट्र की नवीन अवधारणा गढ़ रही है. हालांकि सरकार के इस निर्देश पर केंद्र की एनडीए सरकार में ही मतभेद हो गया है. आरपीआई के नेता और मोदी कैबिनेट में सामाजिक न्याय राज्य मंत्री रामदास अठावले ने सरकार के इस फैसले से नाखुशी जाहिर की है. अठावले का कहना है कि दलित शब्दावली गर्व से जुड़ी रही है. तो उदित राज ने भी सरकार के फैसले का विरोध किया है. उदित राज कहते हैं, ”दलित शब्द इस्तेमाल होना चाहिए क्योंकि ये देश-विदेश में प्रयोग में आ चुका है, सारे डॉक्युमेंट्स, लिखने-पढ़ने और किताबों में भी प्रयोग में आ चुका है. ये शब्द संघर्ष और एकता का प्रतीक बन गया है. और जब यही सच्चाई है तो ये शब्द रहना चाहिए.” दलित शब्द का प्रयोग महज राजनीति तक ही सीमित नहीं है, बल्कि साहित्य में भी यह व्यापक तौर पर प्रचलित शब्द है. मुख्यधारा के साहित्य से इतर दलित साहित्य ने अपनी अलग पहचान बनाई है. साहित्य में दलित शब्द के प्रयोग पर वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम कहते हैं कि सालों तक संघर्ष के बाद दलित शब्द ने अपना एक वजूद, अपनी एक पहचान बनाई है. इस शब्द से जो ताकत बनकर उभरी है, उसे खत्म करने की कोशिश की जा रही है. इस पूरे मामले में दलित शब्द को संविधान का हवाला देकर असंवैधानिक ठहरा कर इसके इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है, हालांकि यहां एक तथ्य यह भी देखना होगा कि भारतीय संविधान में हिन्दुस्तान शब्द भी मौजूद नहीं है. संविधान में साफ लिखा है… इंडिया…. दैट इज भारत.. बावजूद इसके लाल किला के प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री तक हिन्दुस्तान शब्द बोलते सुने जा चुके हैं. ऐसे में जब सरकार और अदालत संविधान का हवाला देकर ‘दलित’ शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा रही है तो उसे ‘हिन्दुस्तान’ शब्द के इस्तेमाल पर भी रोक लगाना चाहिए. अगर सरकार ऐसा करने को राजी नहीं है तो उसे दलित शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है.

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OBC ने सवर्णों का मोहरा बनने से किया इंकार

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नई दिल्ली। पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर घूमती तस्वीरें बहस का हिस्सा बनती जा रही हैं. ये तस्वीरें दुकानों के बाहर लगी हैं, जिसमें लिखा स्लोगन लोगों का ध्यान खिंच रहा है. इन पोस्टरों में यह लिखा गया है कि “हमारा परिवार सामान्य वर्ग का परिवार है। हम SC/ST एक्ट संशोधन बिल का विरोध करते हैं.” दरअसल ये तस्वीरें सरकार द्वारा संसद के भीतर एस-एसटी एक्ट बिल में संशोधन के बाद सामने आई हैं.

एससी-एसटी एक्ट बिल में संशोधन के बाद से ही सामान्य तबका भड़का हुआ है. देश के कई हिस्सों में इसके विरोध में प्रदर्शन निकाला जा चुका है. खासकर ब्राह्मण महासभा और क्षत्रिय महासभा जैसे बैनरों के तहत खूब विरोध प्रदर्शनों का आयोजन हो रहा है. एक सितंबर को राष्ट्रवादी युवा वाहिनी नाम के संगठन ने एक पत्र जारी कर सवर्ण समाज के लोगों से एससी-एसटी समाज के लोगों का बहिष्कार करने की अपील की है. इस पत्र में लिखा गया है कि “जब तब भाजपा सरकार एससी-एसटी एक्ट में संशोधन बिल को वापस नहीं लेती है तब तक सवर्ण समाज के सभी लोग एससी-एसटी समाज का बहिष्कार करें. उन्हें अपनी कंपनियों में नौकरी न दें और इनके साथ सामाजिक व्यवहार न रखें.”

खास बात यह है कि विरोध प्रदर्शन के दौरान ओबीसी समाज के साथ होने का झूठा प्रचार किया जा रहा है. तमाम विरोध प्रदर्शन में ओबीसी द्वारा भी बिल के विरोध किए जाने की विज्ञप्ति समाचार पत्रों को दी जा रही है. लेकिन इसकी कहानी कुछ और है. आप अखबारों में छपी इन खबरों को ध्यान से देखेंगे तो इसमें आपको ओबीसी समाज के संगठनों का नाम कहीं नहीं मिलेगा.

सोशल मीडिया पर 5 सितंबर को सवर्णों द्वारा आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन करने की खबर भी चली तो भी ओबीसी समाज ने इसका साफ जवाब दिया. सवर्णों की इस साजिश को समझते हुए ओबीसी समाज अपने नाम का इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ अब खुल कर सामने आ गया है. ओबीसी के संगठनों ने पत्र जारी कर ओबीसी समाज से अपील की है कि वो किसी भी आरक्षण विरोधी या एससी-एसटी एक्ट विरोधी रैली में शामिल न हों. पिछड़े समाज का कहना है, “देश में ओबीसी की आबादी 65 प्रतिशत है और उसे 65 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए. और वो अपने छोटे भाई एससी-एसटी के साथ मिलकर आरक्षण की यह लड़ाई लड़ेंगे.”

ओबीसी समाज को अब यह समझ आने लगा है कि हर वक्त में सवर्णों ने उन्हें अपना ढाल बनाकर अपनी लड़ाई लड़ी है. हाल तक ओबीसी समाज सवर्णों के साथ खड़ा दिखता था, लेकिन अब ओबीसी समाज के लोग सवर्णों की चाल को समझने लगे हैं. ओबीसी समाज के एससी-एसटी वर्ग के साथ आने से सवर्ण तबका जहां सकते में है तो वहीं देश के मूलनिवासी वाली धारणा मजबूत हो चली है.

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कर्नाटक निकाय चुनाव में BSP के शानदार प्रदर्शन के मायने

नई दिल्ली। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जेडीएस के साथ मिलकर प्रदेश की राजनीति को नया मोड़ देने वाली बसपा ने अब निकाय चुनाव में भी धमाकेदार प्रदर्शन किया है. कर्नाटक के शहरी निकाय चुनाव में बसपा ने चौंकाने वाला प्रदर्शन किया है. पार्टी ने 13 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की है. विधानसभा चुनाव में बसपा उम्मीदवार एन. महेश ने जीत हासिल की थी. वो फिलहाल सरकार में मंत्री भी हैं.

कर्नाटक में 21 जिलों की 102 शहरी निकायों के 2664 वार्डों के लिए 31 अगस्त को मतदान हुआ था. सोमवार को इसके नतीजे सामने आ गए. इसमें कांग्रेस 982 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. दूसरे नंबर पर बीजेपी है जिसके खाते में 929 सीटें गई हैं. वहीं कांग्रेस के साथ प्रदेश सत्ता चला रही जेडीएस को 375 सीटों पर जीत मिली है. अन्य के खाते में 328 सीटें गई हैं.

चुनावी नतीजों ने 2019 लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में बेहतर प्रदर्शन की आस लगाए भाजपा को सकते में डाल दिया है. जिस तरह कांग्रेस और जेडीएस ने 50 फीसदी सीटों पर कब्जा कर लिया है, उसने भाजपा को परेशान कर दिया है. दूसरी ओर 13 सीटें जीतने वाली बसपा का कद प्रदेश की राजनीति में और बढ़ गया है. इस जीत के बाद 2019 चुनाव में बसपा गठबंधन में मजबूत साझीदार के रूप में सामने आई है. वह इस जीत का लाभ लोकसभा चुनाव में गठबंधन में अपनी सीटें बढ़ाने के लिए कर सकती है.

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने जेडीएस के साथ गठबंधन किया था. इसका असर भी उस चुनाव में दिखाई दिया और बहुजन समाज पार्टी ने एक सीट जीत कर अहम कामयाबी हासिल की थी. उसके बाद अब मायावती की पार्टी ने कर्नाटक निकाय चुनाव में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बीएसपी की ये जीत बेहद अहम मानी जा रही है. खास तौर से मायावती के लिए उत्तर प्रदेश से बाहर अपनी पार्टी को लेकर जाने के लिए ये नतीजे काफी अहम साबित हो सकते हैं.

ग्लोबल होते डॉ. आम्बेडकर, आस्ट्रेलिया की इस बड़ी युनिवर्सिटी ने लगाई प्रतिमा

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नई दिल्ली। बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर भारत के उन गिने-चुने विद्वानों में हैं, जिनकी विद्वता का डंका दुनिया के तमाम देशों में बजता है. खास बात यह है कि बाबासाहेब के परिनिर्वाण के छह दशक बाद भी उनकी प्रतिभा को लगातार सम्मान मिलना जारी है. यही वजह है कि विश्व विख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय सहित तमाम अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में भी डॉ. अम्बेडकर का बस्त लगाया गया है. इसी कड़ी में विगत 24 अगस्त को आस्ट्रेलिया के मेलबोर्न युनिवर्सिटी में डॉ. अम्बेडकर का बस्त लगाया गया है. यह प्रतिमा युनिवर्सिटी के इंडिया इंस्टीट्यूट में लगाया गया है. इस इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर क्रेग जैफरी हैं.

खास बात यह है कि मेलबोर्न युनिवर्सिटी आस्ट्रेलिया का दूसरा विश्वविद्यालय है जहां बाबासाहेब का बस्त लगाया गया है. इसके पहले आस्ट्रेलिया की क्विंसलैंड युनिवर्सिटी में भी बाबासाहेब का बस्त लगाया जा चुका है.

कुल मिलाकर मेलबोर्न युनिवर्सिटी विश्व का नौवां विश्वविद्यालय है, जहां बाबासाहेब का बस्त लगा है. यह भारत के उन लोगों के मुंह पर एक जोरदार तमाचा है जो आए दिन भारत रत्न डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा को खंडित करने में जुटे हैं.

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मध्यप्रदेश चुनाव की बड़ी खबर, जायस ने की 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा

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भोपाल। ‘अबकी बार आदिवासी सरकार’ का बिगूल फूंकने वाले मध्यप्रदेश में तेजी से उभरते आदिवासी समाज के संगठन जयस ने प्रदेश की आदिवासी बहुल 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. जायस की घोषणा के बाद कांग्रेस और भाजपा में हलचल तेज हो गई है. जयस ने यह घोषणा 31 अगस्त को जबलपुर में अपने अधिकारों के लिए निकाली गई यात्रा के समापन समारोह के मौके पर की. जयस ने 29 जुलाई, 2018 को मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के सातरुण्डा से अपनी यात्रा शुरू की थी.

इस दौरान ‘अबकी बार आदिवासी सरकार के नारे से धार जिले के कुक्षी तहसील का मंडी प्रांगण गूंज उठा। इस ऐतिहासिक आयोजन में आदिवासी समाज के 25 हजार से अधिक लोग शामिल हुए। इस दौरान आदिवासी समाज के लोगों ने तय किया कि वो अब किसी के बहकावे में नहीं आएंगे। यह यात्रा ‘आदिवासी अधिकार महारैली’ आदिवासियों में राजनीतिक-सामाजिक चेतना के विकास एवं नये युवा आदिवासी नेतृत्व पैदा करने के उद्देश्य से निकाली गयी थी. मध्यप्रदेश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब आदिवासी बहुल 20 जिलों के गाँव-जंगल होते हुए इतने बड़े भूभाग में कोई महारैली निकाली गई. महारैली में आत्मसम्मान एवं संबैधानिक अधिकार के मुद्दे पर आदिवासियों को एकजुट होने का आह्वान किया गया. इस दौरान जयस के संरक्षक डॉ हीरालाल अलावा ने आदिवासी युवाओं से वादा लिया कि मध्य प्रदेश के आगामी चुनाव में सत्ता मूलनिवासियों के हाथ में होगी. यह रैली इस मायनों में भी ऐतिहासिक रही क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ जब मध्यप्रदेश में आदिवासी समाज में बिनी किसी राजनीतिक सहयोग के अपने दम पर इतना बड़ा आयोजन किया.

डॉ अलावा ने शिवराज सरकार पर आदिवासियों से धोखा करने और मारने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि शिवराज कंस मामा है, जो अभी तक सो रहा था। अभी तक संविधान की पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून और वनाधिकार कानून का पालन न करके आदिवासियों को 70 साल पीछे धकेल दिया. डॉ अलावा ने वादा किया कि हमारी सरकार बनने के बाद 6 महीने के अंदर अंदर इन सभी नियमों का पालन कर आदिवासियों का उद्धार करेंगे. उन्होंने कहा कि जयस आदिवासी ओबीसी दलित और समाज के आखिरी पंक्ति में खड़े हर व्यक्ति के साथ हैं. कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मध्यप्रदेश के भूतपूर्व एडवोकेट जनरल ऑफ हाईकोर्ट, आनंद मोहन माथुर ने कहा कि इस सरकार ने आदिवासियों के जल जंगल जमीन को लूटा है और तबाह कर दिया है. अब समय आ गया है कि इस सरकार की विदाई कर दी जाए. जयस के आदिवासी अधिकार महारैली में आदिवासियों की उमड़ी भीड़ से भाजपा-कांग्रेस पहले से ही सहमी हुई थी और आज के कार्यक्रम में भाजपा-कांग्रेस के सारे समीकरण फेल हो चुके हैं। आदिवासी वोट खिसकने से जहां भाजपा बेचैन है, वहीं सरकार बनाने के सपने देखने वाली कांग्रेस की परेशानी बढ़ गई. है. अगर आदिवासी समाज जयस के दावों पर मुहर लगा देगा तो मध्यप्रदेश के चुनाव के बाद जयस एक महत्वपूर्ण फैक्टर बन कर सामने आ सकता है. ज्ञात हो कि आदिवासी अधिकार महारैली के प्रथम चरण की शुरुआत 29 जुलाई, 2018 को मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के सातरुण्डा से शुरू हुई थी, जो– झाबुआ, आलीराजपुर, धार, बड़वानी, खरगोन, बुरहानपुर, खंडवा, देवास होते हुए हरदा तक कुल 10 जिलों में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई थी. दूसरा चरण 16 अगस्त, 2018 को होशंगाबाद से शुरू होकर बैतूल होते हुए रायसेन के अब्दुल्लागंज में 18 अगस्त, 2018 को सफलतापूर्वक संपन्न हुई. इसका तीसरा चरण 28 अगस्त, 2018 को शहडोल जिले से शुरू होकर अनूपपुर, सीधी, उमरिया, डिंडोरी, मंडला होते हुए 31 अगस्त, 2018 को जबलपुर में संपन्न हुई और एक इतिहास रच दिया.

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शोधार्थियों व समाज कर्मियों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ भरी हुंकार.

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के प्रगतिशील छात्र संगठनों और स्थानीय न्याय पसंद लोगों ने देश के मौजूदा हालात के खिलाफ प्रतिरोध सभा का आयोजन किया. सभा में विश्वविद्यालय के समस्त सामाजिक न्याय पसंद छात्र-छात्राओं ने एक मंच पर आकर प्रतिरोध दर्ज किया. देश में चौतरफा जारी फांसीवादी हमलों के खिलाफ एकजुटता का इजहार किया. उक्त अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि देश को ऐसे मार्ग पर धकेला जा रहा है जिसमें अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित-महिलाओं के साथ-साथ अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने वाला हर व्यक्ति असुरक्षित हो गया है. आज देश में एक तरफ दलितों-आदिवासियों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों पर चौतरफा हमले बढ़ते जा रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ कॉर्पोरेट घरानों को खनिज संसाधनों को लूटने की खुली छूट दे दी गई है. इन हमलावरों- लूटेरों को सत्ता का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त है. और जो भी इस बर्बरता व लूट के खिलाफ आवाज बन रहा है, उन्हें या तो हमेशा के लिए खामोश कर दिया जा रहा है या फिर उन्हें षड्यंत्रपूर्वक जेलों में डाला जा रहा है.

नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसरे, एस.एम. कलबुर्गी व गौरी लंकेश जैसे जन पक्षधर लोगों की बर्बर हत्या को भुलाया नहीं जा सकता है. यूपी के सहारनपुर में दलितों पर हमला करने वाले छुट्टा घूम रहे हैं, जबकि दलितों के हक-अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने वाले चंद्रशेखर(रावण)को अवैध तरीके से जेल में डाल दिया गया है. पिछले दिनों महाराष्ट्र और झारखंड के कई मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह का झूठा आरोप लगाकर उन्हें जेलों में ठूँस दिया गया है. आज से कुछ दिन पूर्व मुंबई, गोवा, रांची, हैदराबाद, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में एक ही समय में देश के प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, कवि-लेखक-पत्रकार और वकालत के पेशे से जुड़े आधा दर्जन लोगों के घरों पर पुलिस ने छापेमारी की और वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरनोन गोंजाल्वेश को गिरफ्तार कर लिया गया. स्टेन स्वामी, आनंद तेलतुमड़े, अरुण फ़रेरा एवं सुषेण अब्राहम के घर पर छापेमारी की. इन सभी पर भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा को भड़काने का झूठा आरोप मढ़ा जा रहा है. जबकि भीमा कोरेगांव में दलितों पर हुए हमले के सूत्रधार व हमलावरों को सत्ता का खुला संरक्षण दे रही है.

वक्ताओं ने कहा कि सत्ता प्रतिरोध की तमाम आवाजों को राष्ट्रद्रोह, माओवादी व् नक्सली करार देकर दबाती रही है. अब ‘अरबन नक्सलाइट’ का आरोप मढ़कर दलित-आदिवासी नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों- कवि-लेखकों-पत्रकारों पर दमन-चक्र चलाया जा रहा है.

सत्ता ने लोकतंत्र को कुचलने का खुला अभियान छेड़ रखा है. केंद्र सरकार के साथ-साथ बीजेपी शासित राज्यों की सरकार अपनी नाकामी को छिपाने के लिए असहमति-आलोचना के तमाम स्वर को हत्या, मोब लींचिंग, गिरफ्तारी आदि के जरिये दबा देने पर अमादा है. लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं, यह दमन और भी तेज होता जा रहा है जो समाज और मानवता के लिए अत्यंत ही खतरनाक है. आज भारतीय समाज के पूरे ताने-बाने को नष्ट करने की लगातार कोशिश की जा रही है.

वक्ताओं ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार जनता से किए वायदों को पूरा करने में नाकाम साबित हुई है. विदेशों में जमा काले धन को देश में लाने की बात तो दूर, ललित मोदी, विजय माल्या और नीरव मोदी जैसों को भारत से हजारों करोड़ रुपये लेकर फरार करने में सहयोग किया गया. दो करोड़ युवाओं को प्रत्येक वर्ष रोजगार देने के वायदे के उलट मोदी सरकार जीएसटी-नोटबन्दी और छंटनी के नाम पर रोजगार में लगे लोगों को बेरोजगार बना चुकी है. नोटबन्दी के बड़े-बड़े फायदे गिनाए गए थे, किन्तु सारे पुराने नोट रिजर्व बैंक के पास जमा हो गए. डीजल-पेट्रोल और डॉलर की कीमत आज जितनी ऊंचाई पर पहुंच गई है, उतनी पहले कभी नहीं थी. इससे घबराकर सरकार सवाल उठाने वाले लोगों का ही मुंह बंद कर रही है. जनता के बुनियादी सवालों को हल करने में मोदी सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है और फर्जी मुद्दों को खड़ा करके असल सवालों से जनता का ध्यान भटकाते हुए 2019 में पुनः सत्ता में वापस आना चाहती है. वक्ताओं ने सरकार के इस मनसूबे को नाकाम करने की जरूरत को रेखांकित किया. वक्ताओं ने कहा कि पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ‘साइलेंट मॉड’ में थे, जबकि मोदी सरकार ‘फ्लाइट मॉड’ में चली गई है.

प्रतिरोध सभा को संबोधित करते हुए सत्यशोधक महिला प्रबोधिनी, वर्धा की वरिष्ठ समाजकर्मी नूतन मालवीय ने कहा कि आज सत्ता पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है और हर उस इंसान के खिलाफ काम कर रही है, जो सत्ता की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहा है, उसे या तो मार दिया जा रहा है या नजरबंद कर दिया जा रहा है हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जो आपातकाल से कहीं से भी कम नहीं है बल्कि और भी खतरनाक है. प्रतिरोध सभा को रजनीश कुमार अम्बेडकर, साकेत बिहारी, नीरज कुमार, वैभव आदि ने संबोधित किया.

कार्यक्रम में प्रतिरोध गीत का भी गायन किया गया, जिसमें तुषार, ममता, धर्मराज, राकेश विश्वकर्मा, प्रियंका आदि ने अपना योगदान दिया तथा कौशल, पुष्पेन्द्र, तुषार ने प्रतिरोध की कविताओं का पाठ किया. प्रतिरोध सभा का संचालन चन्दन सरोज और समन्वय नरेश गौतम ने किया. उक्त अवसर पर राजेश सारथी, प्रेरित बाथरी, गुंजन सिंह, डीडी भाष्कर, सुधीर कुमार, अनुराधा सिंह, सोनम बौद्ध, आशु बौद्ध, भूषण सूर्यवंशी, आकाश, रविचंद्र, मनोज गुप्ता सहित दर्जनों छात्र-छात्राएं मौजूद थे.

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फेसबुक पर लिखने के कारण एक आदिवासी असिस्टेंट प्रोफेसर को देशद्रोही घोषित किया गया !

डॉ आशुतोष मीना (फाइल फोटो)
( राजकीय पीजी कॉलेज आबूरोड में कार्यरत असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ आशुतोष मीना को सिरोही जिला कलेक्टर ने चार्जशीट दी, जिसमें कहा गया है कि उनकी फेसबुक टिप्पणियां समाज विरोधी, धर्म विरोधी ,सरकार विरोधी और राष्ट्र विरोधी है ) राजकीय पीजी महाविद्यालय आबूरोड़ में पदस्थापित असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ आशुतोष मीना को ज़िला कलेक्टर सिरोही ने फेसबुक पर लिखने के कारण राष्ट्रविरोधी मानते हुये चार्जशीट दी है तथा साथ ही आयुक्त, कॉलेज शिक्षा को भी बिना जाँच किए सख़्त कार्यवाही की अनुशंसा भी की है. देशद्रोही का आरोप लगाना अब इस देश मे इतना आसान हो चुका है कि बिना किसी मापदंड और प्रक्रिया के ,बिना जाँच के ही एक लोकसेवक को ,वो भी एक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर को तुरंत राष्ट्रविरोधी के तमग़े से नवाज़ दिया गया है.   जिला कलेक्टर सिरोही ने 12 फरवरी 2018 के अपने आदेश में लिखा है कि – “आशुतोष मीणा ने फेसबुक पर 10 से 20 सितंबर 2017 के मध्य राष्ट्र विरोधी एवं सरकार के विरुद्ध अनर्गल टिप्पणियां की है जो समाज विरोधी एवं धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली है .” हालांकि डॉ मीना का कहना है कि -” मेरी उपरोक्त दिनांकों की फेसबुक पर की गई पोस्ट को आज भी देखा जा सकता है ,मेरे द्वारा कोई भी राष्ट्र विरोधी, समाज विरोधी व धार्मिक भावना भड़काने वाली पोस्ट नहीं की गई है ,मैं संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला जिम्मेदार नागरिक हूँ, मेरी हर पोस्ट का अंत ‘जय संविधान’ से किया गया है .” डॉ आशुतोष मीना बताते है कि -” यह विचारधारा का संघर्ष है ,राजस्थान की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दो शिक्षक संगठन सक्रिय है ,Ructa और Ructa (rashtriya) .मैं Ructa के साथ सक्रिय हूँ, खुलकर उसकी गतिविधियों में हिस्सा लेता हूँ ,जो कुछ लोगों को बर्दाश्त नहीं है ,16 सितम्बर 2017 से मैं राजस्थान शिक्षक संघ अम्बेडकर का सिरोही जिले का निर्वाचित जिलाध्यक्ष भी हूँ,इसके बाद से ही मैं एकदम निशाने पर हूँ, मुझे बार बार निशाना बनाया जाता है,प्रताड़ित किया जाता है और मारने की कोशिश की जा रही है ,दुर्भावनापूर्ण तरीके से मेरे खिलाफ हर प्रकार की कार्यवाही की जा रही है .” कौन है डॉ आशुतोष ? डॉ आशुतोष मीना वर्तमान में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर-लोकप्रशासन ,राजकीय महाविद्यालय आबूरोड में पदस्थापित है , उनका राजस्थान लोकसेवा आयोग से 2006 में चयन हुआ . मूलतः भरतपुर जिले की नदबई तहसील के पीली गांव के निवासी मीना विगत 10 वर्षों से राजकीय महाविद्यालय आबूरोड में कार्यरत है . वर्ष 2016 में उन्हें पीएचडी डिग्री अवार्ड हुई . स्कूली शिक्षा के समय से ही आशुतोष मीना की रुचि आर्टिकल लिखने की रही,10 वीं क्लास से ही अखबारों के लिए लिखना शुरू कर दिया,जो अब तक जारी है . उनकी एक पुस्तक ‘पर्यटन एवं स्थानीय स्वशासन’ भी प्रकाशित हुई है. वे सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय रहे है ,विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार खुलकर रखते है . क्या है पूरा मामला ? दरअसल मामला 12 दिसम्बर 2017 को शुरू होता है ,जब कुछ लोग हाथ में भगवाझंडा लेकर राजकीय महाविद्यालय आबूरोड में ज़बर्दस्ती नारे लगाते हुए घुस गए और तिरंगा लगाने के स्थान पर भगवा झंडा फहरा दिया. इस कार्यवाही को डॉक्टर मीना ने असंवैधानिक कहा ,हालांकि उस दिन डॉ आशुतोष मीना अवकाश पर थे, किंतु इस घटना के बारे में देश भर को जानकारी पहुंची. इसके लिए डॉ मीना को दोषी मानते हुए उसी शाम को 6 बजे विश्व हिंदू परिषद के किसी स्थानीय नेता ने मीना को फ़ोन पर धमकी दी है और नतीजा भुगतने को तैयार रहने को कहा . पहले से ही निशाने पर चल रहे डॉ मीना के पीछे पूरा कट्टरपंथी खेमा पड़ गया ,भगवा फहराने की घटना के चौथे दिन 16 दिसंबर 2017 को सोशल मीडिया पर हिंदूवादी संगठनों से जुड़े कुछ लोगों ने डॉ मीना को देशद्रोही क़रार देते हुए धमकी दी कि -” मीना को राडार पर रखें, लाठियों में तेल पिलाकर पीटेंगे, आबूरोड कॉलेज को जेएनयू नही बनने देंगे” इसके बाद जांच के नाम पर दमन चक्र प्रारंभ हुआ ,हालांकि कार्यवाही 28.12.2017 को ही शुरू कर दी गयी ,जबकि शिकायत बाद में 1जनवरी 2018 दर्ज की गई . संघ के एक स्थानीय पदाधिकारी सुरेश कोठारी ने दिनांक 1जनवरी 2018 डॉ मीना के ख़िलाफ़ जिला कलेक्टर सिरोही को पत्र लिखा कि इस प्रोफ़ेसर पर कार्यवाही की जाये, आरोप लगाया गया कि मीना की सोशल मीडिया पर टिप्पणियाँ समाज विरोधी व धर्मविरोधी हैं,माहौल नकारात्मक हो रहा है .” बताया जाता है कि डॉ आशुतोष मीना नामकी एक अन्य आईडी से “दीनदयाल तुम्हारा बाप है ,हमारा बाप क्यूँ बना रहे हो” इस टिप्पणी को आधार मानते हुए ज़िला कलेक्टर सिरोही ने पहला पत्र क़्र. 946/17 ,28 दिसम्बर 2017 आयुक्त कॉलेज शिक्षा को लिखा कि आशुतोष मीना के विरुद्ध सख़्त कार्यवाही की जावे , वहीं दूसरा पत्र क़्र. 947/17 उसी दिन डॉ आशुतोष मीना को देशद्रोही, समाज द्रोही, धर्मविरोधी व सरकार विरोधी का आरोप पत्र लगाते हुए 17 CC का नोटिस जारी किया और जवाब माँगा. यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि जिला कलेक्टर ने पहले सख़्त कार्यवाही की सिफ़ारिश बिना जाँच के विभाग को कर दी और बाद में डॉ मीना से जवाब माँगा. डॉ मीना ने 18 जनवरी 2018 को लिखित जवाब प्रस्तुत किया, उसके बाद कलेक्टर ने 7 फरवरी 2018 को व्यक्तिगत सुनवाई के लिए भी बुलाया और सुनवाई के बाद संतुष्ट होते हुए प्रकरण ड्रोप कर दिया. अंधेरगर्दी की हद तो यह है कि एक तरफ जिला कलेक्टर ने अपने स्तर पर मामला ड्रोप कर दिया है और दूसरी तरफ कॉलेज एज्यूकेशन के कमिश्नर को आरोपी व्याख्याता के विरुद्ध कार्यवाही की अनुशंसा भी कर दी ,फलतः आयुक्तालय में कलेक्टर द्वारा की गयी अनुशंसा पर कार्यवाही शुरू हो चुकी थी, आयुक्त ने अप्रेल 2018 में डॉ मीना के विरुद्ध राजकीय पीजी महाविद्यालय सिरोही के प्राचार्य के के शर्मा को जाँच अधिकारी नियुक्त किया. अप्रेल में डॉ मीना की प्रतिनियुक्ति बायतू थी. जुलाई के प्रथम सप्ताह में मीना का तबादला आबूरोड से डीडवाना कर दिया गया. तब जाँचकर्ता अपनी टीम के साथ आबूरोड कॉलेज आयी और मीना को बुलाकर उनके बयान लिए व मामले की जाँच की. जाँच अभी भी चल रही है. तो यह हाल है राजस्थान प्रदेश में उच्च शिक्षण संस्थानों के ,वहां के प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर अपने विचारों की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति भी नहीं कर सकते है ,अगर कोई शिक्षक आरएसएस -भाजपा की विचारधारा के विरुद्ध टिप्पणी कर दे तो उसे समाज ,धर्म और राष्ट्र का विरोधी घोषित करते हुए उसको प्रताड़ित करने की साज़िश शुरू हो जाती है . डॉ आशुतोष मीना काफी लंबे समय से दक्षिण पश्चिमी राजस्थान के इस सामंती मनुवादी क्षेत्र में साम्प्रदायिक ताकतों से अकेले लौहा ले रहे है ,राजस्थान की सिविल सोसायटी, प्रगतिशील वामपंथी संगठन ,दलित आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन्स और लोकतंत्र व सेकुलरिज्म के समर्थक अन्य संस्था ,संगठन ,दल कोई भी उनके पक्ष में खुलकर आने का साहस नहीं कर पा रहा है . आखिर कैसा कायर समाज बना लिया है हमने ? क्यों नहीं बोलते हम सब मिलकर ? अपने विचार फेसबुक पर व्यक्त करना भी अगर राष्ट्रद्रोह बना दिया जाएगा तो फिर कैसे कोई किसी अन्याय की मुखालफत करेगा ,असहमतियों को इतनी निर्ममता से कुचला जाएगा तो हमारा लोकतंत्र कैसे ज़िंदा रहेगा . यह वक़्त ‘स्टैंड विथ डॉ आशुतोष मीना ‘ कहने का है,साथ खड़े होने का है . -भंवर मेघवंशी Read It Also-भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में डॉ. आंबेडकर की क्या राय थी
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संविधान का अपमान देश का अपमान

एक बार हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने कहा था कि हमारे देश का संविधान ही पवित्र ग्रंथ है. संविधान से बढ़कर और कोई पवित्र ग्रंथ नहीं है. लेकिन कुछ मनवादियों ने 9 अगस्त, 2018 को दिल्ली में उस महान पवित्र ग्रंथ को ही जला दिया तथा उस महापुरूष बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के फोटो का अपमान किया. उन गुण्डों का नारा था कि रिर्जेवेशन बन्द करो तथा संविधान जलाओ और मनुस्मृति लाओ. बाबा साहब अम्बेडकर को ऐसी अशंका थी कि मनुवादी एक दिन संविधान से जरूर छेड़छाड़ करेंगे क्योंकि संविधान में सबको बराबर के अधिकार दिए हैं. जो मनुवादियों को पसन्द नहीं हैं क्योंकि वो दलितों को, पिछड़े वर्ग को तथा स्त्रियों को गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं. जैसा कि मनुस्मृति में हैं.

आगे उन्होंने कहा कि जब तक संविधान सम्प्रदायिकता से उपर है तब तक देश की रक्षा हो सकती है, दलितों की रक्षा हो सकती है, पिछड़ों की रक्षा हो सकती है तथा देश के हर नागरिक की रक्षा हो सकती है. मगर जिस दिन सम्प्रदायिकता संविधान से उपर होगी तब न संविधान बच सकता है, न देश बच सकता है और न देश में रहने वाला गरीब वर्ग बच सकता है. अतः संविधान की रक्षा करना देश के हर नागरिक का कर्तव्य बनता है. अगर संविधान बचाने में किसी की जान भी जाती है तो जान की चिंता मत करना. मगर किसी भी तरह संविधान को बचा कर रखना क्योंकि जब तक संविधान बचा है तब तक तुम सब बचे हो. अतः किसी भी सूरत में संविधान को मिटने नहीं देना है.

पहली महत्वपूर्ण घटना 20 मार्च 2018 को हुई. जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट के प्रभाव को निष्क्रिय कर दिया. इस घटना से प्रभावित होकर एससी-एसटी समाज ने 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद कर दिया, जिसमें हजारों बेकसूर बच्चों को तथा लोगों को सरकार ने जेल में बंद कर दिया और बहुत से बच्चे आज भी जेल में बन्द हैं. मगर बगैर किसी नेता के एक ऐतिहासिक घटना रही जिसे एस सी / एस टी के लोगों ने पहली बार अपने अधिकारों के लिए करके दिखाया. इस बंद के कारण दबाव में आई सरकार को एससी-एसटी एक्ट को लेकर संशोधन बिल पास करना पड़ा. बिल के पार्लियामेंट में पास होने के बाद कुछ संस्थाओं ने 9 अगस्त 2018 को भारत बंद में भाग नहीं लिया. लेकिन कुछ संस्थाओं द्वारा जारी रखा गया. क्योंकि हजारों दलितों को जेल से नहीं छोड़ा था. जिन्होंने 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद में मुख्य भूमिका निभाई थी तथा चन्द्रशेखर आजाद रावण एडवोकेट को भी जेल से नहीं छोड़ा था. जिसको एन. एस. ए (रासुका) के अन्तर्गत बंद करके रखा है.

इस बीच संविधान जलाने की घटना पुलिस के सामने की गई. इस शर्मसार करने वाली घटना ने पूरे देश को हिला दिया. भीम आर्मी सेना ने उसी दिन पर्लियामेन्ट स्ट्रीट पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई. दलित एवं सरकार के बीच लड़ाई जारी है. दलित संविधान बचाने में लगे हैं तथा अपने अधिकारों को बचाने में लगे हैं तथा अपने आप को बचाने में लगे हैं. मगर सरकार संविधान को मिटाने में लगी है तथा दलितों के अधिकार छीनने में लगी है. दोनों में लड़ाई जारी है. अन्तर इतना ही है कि सरकार के पास सारी शक्तियां है. मगर दलितों के पास वोट शक्ति है और वोट शक्ति से ही सारी शक्तियां प्राप्त की जाती है. दलितों की वोट शक्ति समझने के बावजूद भी भारतीय जनता पार्टी के नेता दलितों के विरोध में बेतुका तथा बेवकूफी जैसा ब्यान देते है. जैसे कि भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े 26-12-2017 को संविधान के बारे में बेतुका तथा शर्मसार करने वाला जवाब दिया कि भारतीय जनता पार्टी भारत का संविधान बदलने के लिए सत्ता में आई है. विश्व हिन्दू परिषद् की केन्द्रीय मार्गदर्शक मंडल की सदस्या साध्वी सरस्वती ने 15-06-2017 को कहा कि हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र बनाने से कोई ताकत रोक नहीं सकती.

बी.जे.पी की महिला विंग की मधु मिश्रा ने कहा कि जो आज हमारे ऊपर राज कर रहे हैं वो संविधान की वजह से कर रहे हैं, यही लोग कल तक हमारे जूते साफ किया करते थे. अतः हम संविधान को ही बदल देंगे. भारतीय जनता पार्टी की मिनिस्टर साध्वी रंजन ज्योति ने कहा कि देश में रामजादे ही राज करेंगे, हरामजादे नहीं.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक के प्रमुख मोहन भगवत ने कहा कि हम सब हिन्दुस्तान में रहने वाले हैं, अतः हिन्दुस्तान को 2025 तक हिन्दू, राष्ट्र घोषित कर देंगे. जबकि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने संविधान में भारत लिखा है हिन्दुस्तान कहीं लिखा ही नहीं है. क्योंकि हिन्दुस्तान शब्द न वेद शास्त्र में है, न गीता में और न रामायण में है. हमारा देश तो धर्म निष्पक्ष देश है. यहां सभी धर्मों की समान मान्यता है.

बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने अपने लोगों को समझाते हुए कहा था कि मैंने तुम्हारे अधिकारों की रक्षा संविधान में कर दी है. अतः इस संविधान की रक्षा करना, अगर संविधान की रक्षा हेतु जान भी जाय तो भी परवाह मत करना. मगर किसी भी तरह से संविधान को बचा कर रखना हैं क्योंकि मैं तभी तक जिन्दा हूं जब तक देश का संविधान जिन्दा है. इस संविधान के खातिर तथा तुम्हारी स्वतंत्रता के लिए मैंने अपने चार-चार बच्चों को बलि चढ़ाया है. आगे उन्होंने कहा कि खतरा मुझे अपने समाज के उन लोगों से है जो आरक्षण से पढ़ लिखकर नौकरी पाकर विधायक बनकर मंत्री बन कर दुश्मनों के तवले चाटते हैं और अपने समाज को धोखा देते हैं.

अतः वे परम्पराएँ जिन्होंने हमें गरीब बनाया हमारी गुलामी का कारण बनी, जिससे हमारा शोषण हुआ, उत्पीड़न हुआ, हमारा मनोबल टूटा, जो हमारी प्रगति में बाधक बनी, तोड़ो इन परम्पराओं को अपनी आजादी के लिए, अपनी उन्नति के लिए तथा अपने मान सम्मान की जिन्दगी जीने के लिए. मान सम्मान की जिन्दगी बौद्ध धर्म में ही मिल सकती है. हिन्दू धर्म में नहीं क्योंकि हिन्दू धर्म में दलितों के लिए समानता नहीं बल्कि गुलामी की जिन्दगी जीने को मजबूर किया जाता है.

एक कदम ऐसा चलो कि निशान बन जाए,                                                             काम ऐसा करो कि पहचान बन जाए, यहाँ जिन्दगी तो सभी जी लेते है, मगर जिन्दगी ऐसी जीयो कि सबके लिए मिसाल बन जाए.

इंजी. आर. सी. विवेक

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एससी-एसटी एक्ट न हुआ सांप-सीढ़ी का खेल हो गया

दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) 01.09.2018 के अनुसार नैनीताल हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार द्वारा  एससी-एसटी एक्ट को इसके मूल रूप में लागू करने के विधेयक पारित करने की दशा में  इस एक्ट में पुन: संशोधन करने  को चुनौती देती एक याचिका पर हाई कोर्ट ने सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं. अखबार में जनहित याचिका दायर करने वाले लोगों के नाम नहीं दिए गए हैं.
शुक्रवार को खंडपीठ में एक जनहित याचिका पर सुनवाई हुई. जिसमें केंद्र सरकार की ओर से 17 अगस्त को जारी अधिसूचना को चुनौती दी गई है. याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट के मामले में जांच के बाद उचित कानूनी कार्रवाई करने के आदेश पारित किए थे, मगर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी करने के उद्देश्य से संसद में विधेयक पारित करवाया, एससी-एसटी ऐक्ट में संशोधन के बिल को राज्यसभा से मंजूरी मिलने के बाद, जिसे राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी प्रदान कर दी गई.
इसके साथ ही अब सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस ऐक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान पर लगाई गई रोक भी समाप्त हो गई है. लोकसभा से इस संशोधन बिल को मंगलवार को मंजूरी दी जा चुकी थी. बता दें कि शीर्ष अदालत ने इसी साल 19 मई को एससी-एसटी ऐक्ट के तहत शिकायत मिलने पर तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. बड़े पैमाने पर इस कानून के बेजा इस्तेमाल का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला सुनाया था.
याचिका में कहा गया है कि केंद्र का यह कदम संविधान के अनुच्छेद-14, 19 व 21 के तहत असंवैधानिक हैं. जिसकी पुनर्विचार याचिका अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लिहाजा केंद्र ने जो संशोधन किया, वह असंवैधानिक है.  याचिका कर्त्तओं का तर्क ये हैं कि संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत नागरिकों को समानता का अधिकार, अनुच्छेद-19 में स्वतंत्रता का अधिकार व अनुच्छेद-21 व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार है. जिसकी पुनर्विचार याचिका अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लिहाजा केंद्र ने जो संशोधन किया, वह असंवैधानिक है.  यहाँ सवाल ये उठता है कि नैनीताल हाई कोर्ट ने जिन् धाराओं को केन्द्र में रखकर जनहित याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किया है क्या वे धाराएं केवल और गैरदलितों के हितों की रक्षार्थ ही हैं, क्या एसटी/एसटी के हितों के लिए नहीं? यह भी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई समीक्षा को सरकार द्वारा एक नया विधेयक/ अधिसूचना लाकर खारिज कर दिया और पुराने कानून को ही वैधता देकर नया कानून बना दिया  तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई व्यवस्था स्वत: ही निरस्त हो जाती है. हाई कोर्ट के माननीय जजों को ये पता नहीं कि न्यायपालिका के पास कोई कानून बनाने का अधिकार नहीं होता. हां. उसे सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के आधार पर न्याय प्रक्रिया को अंजाम दिए जाने का ही अधिकार प्राप्त है. यह भी कि यदि न्यायपालिका किसी पारित कानून की समीक्षा करके सरकार को अपनी राय से अवगत करा सकती है किंतु यह जरूरी नहीं कि सरकार उस सुझाव को मानने के लिए बाध्य ही हो.
न्यायाधीश काटजू ने कहा कि संविधान के तहत अधिकारों का व्यापक विभाजन है और इसीलिए राज्य की एक इकाई को दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दख़ल नहीं देना चाहिए. न्यायपालिका को विधायिका अथवा कार्यपालिका की जगह नहीं लेनी चाहिए. न्यायाधीश काटजू का विचार है कि अधिकारों के विभाजन का कड़ाई से पालन होना चाहिए. न्यायपालिका को विधायिका एवं कार्यपालिका के क्षेत्र में दख़ल नहीं देना चाहिए. वहीं जस्टिस गांगुली के मुताबिक़, अधिकारों का पूर्ण विभाजन न तो मुमकिन है और न ही व्यवहारिक. साथ ही संविधान निर्माता यह कभी नहीं चाहते थे कि अधिकारों के बंटवारे को लेकर तानाशाही रवैया अपनाया जाए.
संविधान सभा के विद्वान सदस्य ए कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि वैयक्तिक स्वतंत्रता की हिफाजत एवं संविधान के सही क्रियान्वयन हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता है, परंतु न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत को इस हद तक नहीं बढ़ाया जाए कि न्यायपालिका उच्च-विधायिका या उच्च-कार्यपालिका के रूप में कार्य करने लगे. स्पष्ट है कि नियंत्रण के प्रावधान के अभाव में इस तरह की आशंका का उसी वक्त अनुमान लगा लिया गया था पर कुछ सदस्य न्यायपालिका द्वारा दूसरे अंगों के अधिकारों के अतिक्रमण की कल्पना भी नहीं करते थे. संविधान सभा के सदस्य केएम मुंशी ने साफ तौर पर यह कहा था कि न्यायपालिका कभी संसद पर अपना प्रभुत्व नहीं थोपेगी. और संविधान की मूल भावना के अनुसार विधायिका और न्यायपालिका को एक दूसरे के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए एक दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण से बचना चाहिए.
इस हालत में नैनीताल हाईकोर्ट की दखलांदाजी को किस दृष्टिकोण से देखा जाय? प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से इस तमाशे में राजनीतिक ड्रामे की बू भी आती है. लगता है कि पहले तो सरकार ने अपने ही कुछ लोगों से सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका के जरिए एसटी/एसटी एक्ट को कमजोर बनवाया गया. और जब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के विरोध में देशव्यापि आन्दोलन हुआ तो 09.08.2018 दलितों द्वारा आयोजित सामाजिक आन्दोलन को ठंडा करने लिए भाजपा ने भाजपा के दलित सांसदों को मैदान में उतार दिया. परिणाम ये हुआ कि एससी/एसटी एक्ट को इसके असली रूप को बनाए रखने व सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी करने के उद्देश्य से संसद में विधेयक पारित करवाया, जिसे राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी प्रदान कर दी गई. सरकार के इस कार्य का सरकार द्वारा दलित वोटों को अपने हक में करने के सर्वत्र व्यापक तौर पर प्रचार – प्रसार किया गया. विरोध लगभग थमा ही है कि फिर से सरकार के निर्णय के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट को कमजोर करने के लिए नैनीताल हाई कोर्ट में जनहित याचिका डलवा दी गई. क्या इसमें सरकार की सहमति नहीं हो सकती? यदि नहीं तो इस प्रकार की सरकार विरोधी जनहित याचिकाओं के डालने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाया गया? इस प्रकार तो सरकार और राष्ट्रपति की कोई गरिमा ही नहीं जाती…. यह अति गंभीर मामला है.  एससी-एसटी एक्ट न हुआ सांप-सीढ़ी का खेल हो गया.]
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एशियन गेम्स के इतिहास में भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन, 15 गोल्ड आए खाते में…

नई दिल्ली। भारत ने जकार्ता में हो रहे एशियन गेम्स के 14वें दिन शनिवार को 2 गोल्ड और 1 सिल्वर मेडल अपनी झोली में डाल लिए. इसके साथ ही भारत के मेडलों की संख्या 15 गोल्ड और 24 सिल्वर मेडल समेत 68 हो गई है. टूर्नमेंट में 8वें नंबर पर मौजूद भारत का एशियन गेम्स के इतिहास में अब तक का यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. इससे पहले भारत ने 2010 में चीन के ग्वांगझू में हुए एशियन गेम्स में 65 मेडल हासिल कर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन अपने टॉप परफॉर्मेंस की बराबरी भारत ने शुक्रवार को ही कर ली थी लेकिन शनिवार को बॉक्सर अमित पंघल और फिर ब्रिज में शिवनाथ सरकार एवं प्रणव वर्धन की जोड़ी ने गोल्ड हासिल कर इस आंकड़े को 68 तक पहुंचा दिया. टूर्नमेंट में अब तक 123 गोल्ड मेडल के साथ कुल 273 पदक हासिल कर चीन पहले नंबर पर बना हुआ है. वहीं, जापान 70 गोल्ड मेडल जीतकर 195 पदकों के साथ दूसरे पायदान पर है.

रिपब्लिक ऑफ कोरिया 45 गोल्ड मेडल जीतकर 165 पदकों के साथ तीसरे नंबर पर है. पदक तालिका में इंडोनेशिया चौथे, उज्बेकिस्तान 5वें, ईरान छठे और चीनी ताइपे सातवें स्थान पर है. उज्बेकिस्तान 19 गोल्ड मेडल्स के साथ 5वें स्थान पर है. कुल मेडल्स के मामले में वह 67 पदकों के साथ भारत से 1 मेडल ही पीछे है.

इससे पहले 2014 में दक्षिण कोरिया के इंचयोन शहर में हुए एशियाई खेलों में 11 गोल्ड के साथ भारत ने 57 पदक जीते थे. पिछली बार भी भारत आठवें स्थान पर था. हालांकि इस बार भारत को पदक मिलने की संभावनाएं अभी खत्म नहीं हुई हैं. आज भारत को एक ब्रॉन्ज मिलने की संभावना है.

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एशिया कप 2018 के लिए विराट को आराम, रोहित को टीम इंडिया की कमान

नई दिल्ली। भारतीय चयनकर्ताओं ने कप्तान विराट कोहली को एशिया कप से विश्राम देकर उनके स्थान पर रोहित शर्मा को संयुक्त अरब अमीरात में होने वाले टूर्नमेंट के लिए शनिवार को 16 सदस्यीय टीम की कमान सौंपी. एशिया कप भारतीय टीम का इंग्लैंड दौरा समाप्त होने के केवल चार दिन बाद शुरू हो जाएगा. भारत और इंग्लैंड के बीच 5वां और अंतिम टेस्ट मैच सात से 11 सितंबर तक खेला जाएगा, जबकि एशिया कप कोहली की अनुपस्थिति में उपकप्तान रोहित भारतीय टीम की अगुवाई करेंगे, जिसमें राजस्थान के बाएं हाथ के तेज गेंदबाज खलील अहमद के रूप में नया चेहरा शामिल है. भारत इस टूर्नमेंट में अपने चिरप्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान से 3 बार (अगर दोनों टीमें फाइनल में पहुंची) भिड़ सकता है. लेकिन चयनकर्ताओं के दिमाग में निश्चिततौर पर ऑस्ट्रेलिया दौरा भी रहा होगा जिसमें भारत को चार टेस्ट मैच खेलने हैं और जहां कोहली अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहेंगे.

इंग्लैंड के खिलाफ आखिरी सीरीज में खेलने वाले जिन खिलाड़ियों को बाहर किया गया है उनमें सुरेश रैना, मध्यक्रम के बल्लेबाज श्रेयस अय्यर, तेज गेंदबाज उमेश यादव और सिद्धार्थ कौल शामिल हैं. रैना और अय्यर की जगह अंबाती रायुडु और ऑलराउंडर केदार जाधव को रखा गया है. रायुडु ने यो यो टेस्ट पास कर लिया है, जबकि जाधव अब पूरी तरह फिट हैं.

चयन समिति के अध्यक्ष एमएसके प्रसाद ने कहा, ‘बहुत अधिक व्यस्तता को देखते हुए हमने उन्हें (कोहली) विश्राम दिया है. पिछले कुछ समय से वह लगातार खेल रहे हैं. आईपीएल से ही वह लगातार खेल रहे हैं. इसलिए हमने उन्हें विश्राम दिया है.’ राजस्थान के टोंक के रहने वाले 20 वर्षीय खलील ने अब तक 17 लिस्ट A मैच खेले हैं, जिनमें उन्होंने 28 विकेट लिए हैं. राहुल द्रविड़ 2016 अंडर-19 वर्ल्ड कप से ही उन पर निगाह रखे हुए हैं. वह हाल में भारत A के साथ इंग्लैंड दौरे पर भी गए थे.

सलामी बल्लेबाज मयंक अग्रवाल को फिर से निराशा मिली. घरेलू क्रिकेट में हर प्रारूप में लगातार रन बनाने के बावजूद उन्हें टीम में नहीं चुना गया. प्रसाद ने हालांकि कहा कि उन्हें जल्द टीम में चुना जा सकता है. प्रसाद ने कहा, ‘मयंक अग्रवाल पिछले 10-12 महीनों से बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहा है. मुझे विश्वास है कि उसे सही समय पर मौका मिलेगा.’

टीम इस प्रकार है: रोहित शर्मा (कप्तान), शिखर धवन (उपकप्तान), केएल राहुल, अंबाती रायुडू, मनीष पांडे, केदार जाधव, महेंद्र सिंह धोनी (विकेटकीपर), दिनेश कार्तिक, हार्डिक पंड्या, कुलदीप यादव, युजवेंद्र चहल, अक्षर पटेल, भुवनेश्वर कुमार, जसप्रीत बुमराह, शार्दुल ठाकुर, खलील अहमद.

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छत्तीसगढ़ में बसपा का नया दांव

रायपुर। तीन चुनावी राज्यों यानि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कौन सा दल किसके साथ गठबंधन करेगा, यह साफ नहीं है. दोनों प्रमुख दल चुनाव जीतने और सरकार बनाने का दम भर रहे हैं तो बसपा सहित कुछ अन्य दल किंग मेकर की भूमिका निभाने का दावा ठोक रहे हैं. मध्यप्रदेश में आदिवासियों को प्रभावित करने वाले गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जायस जैसे दल भी चुनाव में अपनी भूमिका देख रहे हैं. लेकिन इस बीच जिस बात का सबसे ज्यादा इंतजार है, वह है बसपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन.

तीनों प्रदेशों की राजनीति में इस बात की चर्चा पिछले काफी दिनों से चल रही है, लेकिन अभी तक कुछ भी साफ नहीं है. बसपा की बात करें तो इन तीनों प्रदेशों में बसपा अपने लिए काफी बेहतर मौके देख रही है. इस बीच खबर है कि छत्तीसगढ़ में बसपा ने नई रणनीति बनाई है. प्रदेश की राजनीति में चर्चा है कि पार्टी अध्यक्ष मायावती सूबे की सभी 90 विधानसभा सीटों पर अपने स्तर पर गुप्त सर्वे करवा रही हैं. सूत्रों की मानें तो छत्तीसगढ़ में मायावती की नजरें उन्हीं सीटों पर हैं जो उन्हें चुनाव में जीत दिला सकें और साथ ही राजनीतिक समीकरण ऐसा बना सकें, जिससे उनके बिना किसी दूसरे राजनीतिक दल की सरकार सत्ता पर काबिज न हो सके.

दरअसल तीनों चुनावी राज्यों में पार्टी सुप्रीमो सुश्री मायावती खुद नजर रखे हुई हैं. छत्तीसगढ़ की हर सीट पर बसपा मजबूती से चुनाव लड़ने की पक्षधर है. पार्टी ने उम्मीदवारों की सूची तैयार करनी भी शुरू कर दी है. और संभावित प्रत्याशियों को चुनाव रण में उतरने के लिए तैयार रहने को कह दिया गया है. फिलहाल बसपा गुप्त सर्वे के जरिए कई अहम बातों की पड़ताल करने में जुटी है. इस सर्वे का बसपा को कितना लाभ मिलता है, ये चुनाव परिणाम आने पर ही पता चल पाएगा.

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जैन मुनि तरुण सागर का 51 साल की उम्र में निधन

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नई दिल्ली। जैन मुनि तरुण सागर का शनिवार को सुबह निधन हो गया. 51 वर्षीय जैन मुनि लंबे समय से बीमार चल रहे थे. पूर्वी दिल्ली के कृष्णा नगर इलाके में स्थित राधापुरी जैन मंदिर में सुबह करीब 3 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली. शनिवार को ही गाजियाबाद के मुरादनगर स्थित तरुणसागरम में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.

दिगंबर जैन मुनि को उनके प्रवचनों के लिए जाना जाता है. ‘कड़वे प्रवचन’ के नाम से समाज को वह संदेश देते थे. वह समाज और राष्ट्र जीवन के अहम मुद्दों पर तीखी शब्दों में अपनी राय दिया करते थे. जैन समाज में खासे लोकप्रिय रहे तरुण सागर बीते काफी दिनों से पीलिया से पीड़ित थे. करीब 20 दिनों पहले उन्हें इलाज के लिए एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था. इलाज के बावजूद स्वास्थ्य में सुधार न होने पर उन्होंने अपना इलाज बंद करा लिया था.

पीएम नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर तरुण सागर जी महाराज के निधन पर शोक व्यक्त किया है. उन्होंने लिखा, ‘मुनि तरुण सागर जी महाराज के असमय निधन से गहरा दुख हुआ है. उनके ऊंचे आदर्शों और समाज के प्रति योगदान के लिए हम उन्हें हमेशा याद रखेंगे. उनके विचार लोगों को प्रेरणा देते रहेंगे. जैन समुदाय और उनके असंख्य अनुयायियों के प्रति मेरी संवेदना है.’

कुछ दिनों से वह राधापुरी जैन मंदिर में ही संथारा कर रहे थे. संथारा जैन धर्म की वह परंपरा है, जिसके तहत संत मृत्यु तक अन्न त्याग कर देते हैं. मध्य प्रदेश में 1967 में जन्मे तरुण सागर महाराज का वास्तविक नाम पवन कुमार जैन था. जैन संत बनने के लिए उन्होंने 8 मार्च, 1981 को घर छोड़ दिया था. उन्हें हरियाणा विधानसभा में भी प्रवचन के लिए बुलाया गया था.

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