महू (इंदौर)। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्मस्थान महू दलित वोटों को साधने का एक बड़ा मंच बन चुका है. तीन दशकों से चुनावों को दौरान अकसर बड़े नेता महू का रुख करते रहे हैं. इनमें कांशीराम, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राजीव गांधी, नरेंद्र मोदी, मायावती जैसे कई बड़े नाम शामिल हैं.
बाबा साहेब आंबेडकर भले ही जन्म के बाद कुछ ही समय महू में रहे हों, लेकिन इस शहर का नाम उनके साथ ही दलित अस्मिता का प्रतीक बन चुका है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से हर बड़ा नेता इस मंच से देशभर के दलितों तक पहुंचना चाहता है.
इसी उम्मीद में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी 30 अक्टूबर को यहां आने वाले हैं. वे सभा संबोधित करने से पहले आंबेडकर स्मारक पहुंचेंगे. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वे यहां पहली बार आ रहे हैं. हालांकि साढ़े तीन साल पहले भी वे यहां आ चुके हैं. विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी नजर मध्य प्रदेश के करीब 80 लाख दलित वोटों पर है. महू में ही करीब तीस हजार दलित मतदाता हैं.
इस विधानसभा चुनाव की बात करें तो इसी 22 अक्टूबर को पाटीदार नेता हार्दिक पटेल महू में थे. अपने रोड शो के बाद वे आंबेडकर स्मारक गए, वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इसी दिन अपनी जन आशीर्वाद यात्रा के बाद आंबेडकर स्मारक पहुंचकर शीश नवाया.
यूं तो महू में चुनाव प्रचार के लिए वाजपेयी और नरसिम्हाराव जैसे नेता पहले भी आते रहे हैं लेकिन 80 के दशक के अंत में आंबेडकर मूवमेंट जोर पकड़ रहा था. इसके बाद यहां सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की ओर से आंबेडकर अनुयायी आते थे. 90 का दशक आते-आते महू शहर का नाम पूरी तरह बाबा साहेब की जन्मस्थली के रूप में जाना जाने लगा था. इसके बाद राजनेताओं के यहां आने का सिलसिला शुरू हुआ.
वर्ष 1991 के आम चुनाव के समय जब प्रदेश में भाजपा की पटवा सरकार थी, तब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, कांशीराम, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, मायावती यहां आए थे. इसके बाद प्रदेश में कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार के दौरान भी नेताओं के आने का सिलसिला जारी रहा.
2008 में आचार संहिता लगने से कुछ पहले लालकृष्ण आडवाणी ने आंबेडकर स्मारक का लोकार्पण किया. वहीं 2013 में आंबेडकर स्मारक में पांच प्रतिमाओं का अनावरण हुआ. इसके बाद 2 जून 2015 को राहुल गांधी और 14 अप्रैल 2016 (आंबेडकर जयंती) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और 14 अप्रैल 2018 को राष्ट्रपति डॉ. रामनाथ कोविंद भी यहां आए.
नई दिल्ली। टीम इंडिया के पूर्व कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी को वेस्टइंडीज के साथ भारत में होने वाली टी-20 मैचों के लिए चुनी गई टीम में शामिल नहीं किया गया है. इसके अलावा धोनी ऑस्ट्रेलिया दौरे पर भी टी-20 टीम का हिस्सा नहीं होंगे. जानकार धोनी को ड्रॉप किए जाने की कई वजह बता रहे हैं.
जानकारों की मानें तो ड्रॉप करने की पहली बड़ी वजह यह है कि बीते एक साल से महेंद्र सिंह धोनी के फॉर्म पर बहस हो रही थी. यह बात गौर करने वाली है कि एमएस धोनी ने साल 2018 में महज 70.47 के स्ट्राइक रेट से रन बनाए हैं. एक कैलेंडर ईयर में ये उनका सबसे खराब प्रदर्शन है.
दूसरी बड़ी वजह बीते दिनों वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ खेली गई वनडे सीरीज भी है जिसमें धोनी कुछ खास कमाल नहीं कर पाए. उनके बल्ले से रन नहीं निकले. इंग्लैंड में उन्होंने दो वनडे पारियों में बल्लेबाजी की और वहां उनका स्ट्राइक रेट 63.20 रहा. इंग्लैंड में धोनी को चौके-छक्के लगाने में खासी मशक्कत करनी पड़ी. ऐसे में इस बात की संभावना है कि सेलेक्टर्स ने उनके मौजूदा फॉर्म को देखते हुए यह फैसला किया हो.
इस सीरीज से ड्रॉप किए जाने की तीसरी बड़ी वजह ऋषभ पंत का मौजूदा फॉर्म भी है. जानकार बताते हैं कि ऋषभ पंत को धोनी के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है. इंग्लैंड की सीरीज में ऋषभ ने कमाल का प्रदर्शन किया. इसके साथ ही सेलेक्टर्स उन्हें वनडे में भी आजमा रहे हैं. ऐसे में उन्हें टी-20 फॉर्मेट में भी मौका दिया गया है. पंत एक युवा क्रिकेटर हैं. सेलेक्टर्स भविष्य की ओर देख रहे हैं. ऐसे में अब धोनी के वनडे करियर पर भी सवाल उठने लगे हैं.
वर्धा। 26 अक्टूबर. ऑल इंडिया दलितआदिवासी- बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के द्वारा 25 अक्टूबर लार्ड मैकाले का जयंती मनाया गया.
भारत में आधुनिक शिक्षा एवं सामाजिक न्याय पर आधारित कानून व्यवस्था की नींव रखने वाले लॉर्ड मैकाले का जन्मदिवस विश्वविद्यालय में छात्र-संवाद के माध्यम से मनाया गया. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के शोधार्थी व छात्र-छात्राओं ने बढ़-चढ़ कर परिचर्चा में भागीदार बन कर अपनी बातों को रखा. लार्ड मैकाले के जन्म से लेकर भारत में आने के बाद भारत में शिक्षा व न्याय प्रणाली को लेकर किए गए बदलाव व सामाजिक आंदोलन रूप में याद किया गया.
जिसके फलस्वरूप दलित, आदिवासी व बहुजन समाज में जागृति दिखाई पड़ा व भारत मजबूत राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हुआ है. कार्यक्रम की शुरुआत राष्ट्रगाण गाकर किया गया इसके बाद संविधान की प्रस्तावना की शपथ लिया गया. इस अवसर पर रमेश कुमार, आकाश खोब्रागड़े, आकाश मेश्राम, दर्शना मेश्राम,सुजीत बोधि बनकर, भंते राकेशआनंद, जितेंद्र सोनकर, नरेश कुमार साहू, सुधीर ज़िंदे, डॉ. अस्मिता राजुरकर, रजनीश अंबेडकर, रविचन्द आशा, क्रांति कुमार, कृष्ण कुमार निषाद, सुहास कमलाकर, नीलूराम कोर्राम एवं मुकुल भैसारे आदि वक्ता शामिल हुये. मंच संचालन रामदेव जुर्री एवं धन्यवाद ज्ञापन श्रेयात ने किया. संवाद कार्यक्रम का समापन केक काटकर व एक दूसरे को बधाई देकर किया गया.
मेरे कई पाठक/पाठिकाओं ने मुझे मैसेज करके कहा की मुझे सबरीमाला विवाद पर लिखना चाहियें. पर मैं सोचता हूँ मेरे लिखने या न लिखने से क्या होगा? वैसे हुआ तो कुछ सबसे बड़ी अदालत के लिखने के बाद भी नहीं. खैर लिखने या कहने से होता भी क्या हैं..?
कहने को तो वो कहते थे की हम सब एक हैं. वो कहते थे लड़के-लड़कियों को बराबर पढ़ाओ.
वो कहते थे मंदिर में भगवान रहते थे और वो ये भी कहते थे कि भगवन की नज़र में सब एक हैं.जो बस आपको आपके कर्मों से तोलते हैं.
फिर अचानक वो कहने लगे लड़कियाँ बचाओं, उन्हें गर्भ में मत मारों, लड़कियाँ पढ़ाओं, फ्री में पढाओ, एक ही बेटी है तो बाल्टी भर योजनाओं का लाभ उठाओ. फिर उन्होंने तैंतीस परसेंट आरक्षण तक दे दिया. फिर एक दिन उसके साथ बुरा हुआ तो वो सड़क पर आ गए एक मोमबत्ती लेकर और इन्साफ की मांग की. हम तो सिर्फ इतना जानते थे कि व्रत रखना, भगवन की पूजा करना, चौथ से लेकर एकादशी तक सब के सब नारी के हिस्से हैं, उन्ही के बस में है, उन्ही के लिए बने हैं. पर नहीं साहब, नहीं..!! माफ़ करें ज़िन्दगी हर कदम एक नई जंग है. फिर एक दिन पता चला कि साहब अभी तो कुछ हुआ ही नहीं. नारी के नाम पर इतना ढोंग रचने वाले वो और उनका समाज सिर्फ आईआईटी का फॉर्म फ्री करवा पाया है, और कुछ नहीं, कुछ भी नहीं. यकीन मानिये एक औरत कढ़ाई में तेल डालते ही खाने को स्वादिष्ट बना देती है, एक माँ ही सिर में तेल डाल थके हुए दिमाग को ताज़गी दे सकती है, जब शनि देव घर आते थे तो माँ ही तेल डालकर एक-दो रूपए दान देती थी, हमे तो समझ ही नहीं आया ये सब आज तक. पर फिर उधर वो कहते हैं नारी ने तेल डाल दिया है शुद्धिकरण करो. अरे साहब! तेल तो वही था सरसों का था कि रिफाइंड, इस से एक बार को फिर भी फ़र्क़ पड़ सकता है? वो कहते हैं जिस महिला को पीरियड्स होता है उसके मन्दिर में घुसते ही मन्दिर अपवित्र हो जाएगा. सब खत्म हो जाएगा. महिला के घूसते ही दरगाहें कब्रगाह बन जाएँगी.
और एक दिन कानून की मोटी मोटी किताबों में दबा खुद कानून नींद से जागा और उसने कहा : “कानून कहता है कि स्त्री पुरुष सब एक समान. स्त्रियों को मन्दिर जाने से कोई नहीं रोक सकता “
क्या समाज बदल गया है? या हम बदल गए?
नही !उस देश में औरत का रुतबा कैसे बुलंद हो सकता है.जहाँ मर्दों की लड़ाई में गालियां मां -बहन को दी जाती है.
बीते कई दिनों फिजाओं में शोर हैं, लाख कान बंद करो पर ये शोर छन छन के पर्दों को फाड़ रहा हैं.
शोर का नाम हैं “ केरल के सबरीमाला मन्दिर में एक उम्र की लडकियों या महिलाओं का प्रवेश. “ सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी किसी महिला का प्रवेश मन्दिर में नहीं हो सका. बड़ी आसानी से कानून, समानता, इन्सनित जैसे शब्द हार गये और धार्मिक प्रोपोगंडा जीत गया.और ये उसी देश में हुआ जहां हम स्त्री को देवी रूप में पूजते हैं.
… इस व्यवस्था के समर्थक ये तर्क दे रहे है की ये परम्परा सदियों से चली आ रही है, इस लिए इसका निर्वहन जरुरी है. मासिक धर्म के समय मन्दिर में प्रवेश से मंदिर की पवित्रता खत्म हो जाएगी. और हजारो मन्दिर भी तो हैं जहां महिलाएं आसानी से जा सकती है तो उन्हें सिर्फ सबरीमाला ही जाना जरूरी है क्या?
सच कहूँ आपके सदियों पुराने सड गल चुके धर्मों ने या आपके कथित देवताओ, अल्लाह,यीशु,पैगम्बरों और संतो ने ( इंद्र से ले कर आशाराम और रामपाल तक, मौलाना से लेकर पॉप तक ) महिलो के साथ साथ हमेशा दोयम दर्जे का व्यवहार किया है. तो अब जब हम 21वी सदी में खड़े है तो थोडा तार्किक बनिए, सालो पहले अपने ऊपर लाद दी गयी फालतू की मान्यताओ ( वैसे पागलपन ज्यादा अच्छा शब्द है ) से बहार निकालिए. सोचिये जिस सनातन के नाम पर ये कर रहे है उसका मूल क्या हैं? आपके सनातन धर्म ने ही सदियों से चली आ रही रुढियों को थोड़ा है, चाहे वो सती प्रथा हो या बालविवाह या विधवा विवाह.
मंदिर के बाबाओ ( मैनेजरों, माफियाओ ) को समझना होगा की जब हमारा संविधान स्त्री और पुरुष में कोई फर्क नही करता तो आपकी आँखों में सिर्फ और सिर्फ परमात्मा की भक्ति होनी चाहिए, स्त्री या किसी समुदाय के लिए भेदभाव नही.
इस विषय में सबसे शर्मनाक बात हैं, मंदिर प्रवेश को महिला के मासिक धर्म से जोड़ देना. मैं कभी नहीं समझ पाता हूँ की एक स्त्री जो देवी का रूप है वो एकदम से महीनों के कुछ दिनों के लिए अछुत सी क्यों हो जाती हैं? ये तो एक सामन्य शारीरिक प्रक्रिया भर हैं, जिसकी वजह से ही हम और आप इस दुनियां में आ सकें हैं. तो एक शारीरिक प्रकिया के लिए किसी इन्सान से ये भेदभाव क्यों?तो क्यों हम उन दिनों में स्त्री को उ देवी तो क्या इंसान तक नहीं समझते हैं. जिस वजह से हमारा वजूद है हम क्यों उस पर ही सवाल उठाते हैं?
धर्म के नाम पर अपना लंगोट कस कर मर्दानगी दिखाने वाले सिर्फ एक दिन उस दर्द और उलझन को जी कर देखिये जिसे स्त्रिया हर महीने सालों साल जीती हैं.
लेकिन मैं ये भी जानता हूँ की ये समझने और होने में अभी वक्त लगेगा.
सच बात तो ये है कि महिलाएं पुरुषों से अधिक धर्मभीरू होती है. किसी भी धर्मिक आयोजन में महिलाओं की संख्या देख आसानी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता हैं. और अपनी इसी धर्मभीरुता की वजह से वो धर्मिक शिकारियों की आसान शिकार होती हैं. वो खुद महीनों के उन दिनों में खुद को अलग सी कर लेती हैं, वो अपने घर के मन्दिर तक नहीं जाती हैं. तो भला वो वहाँ क्यों जायेंगी जहां उन्हें मालुम की इस अवस्था में नहीं जाना हैं.
पर जरा सोचिये कोई महिला पूरे साल आपके और आपके बच्चो कि सलामती की लिए उपवास रखे ( भले ही आप बाहर मुर्गा उड़ाते रहे हो ), पूजा करे और जब आप उसके साथ इस मंदिर में जायेगे तो उसे बाहर बैठना पड़े, वो भी इस लिए की वो एक अपवित्र महिला है और आप पीला कपडा पहन कर अंदर जाने का टिकट थाम ले क्युकी आप पवित्र पुरुष है.
हाँ, ये सच है की सबरीमाला में प्रवेश की अनुमति मिल जाने के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदलने वाला. अभी वो कोख में मारी जायेंगी,हर दिन उनका रेप होगा, हर दिन उनकी बोली लगेगी, कभी इज्जत, कभी दहेज, कभी दंगे कभी युद्ध के नाम पर मारी जाएंगी. कुछ भी नहीं बदलेगा कुछ वैसे ही जैसे शनि शिंगणापुर प्रवेश के बाद कुछ नहीं बदला.
या शायद कुछ बदले भी…!!लेकिन क्या आपको नहीं लगता है की धर्म की आड़ पर बनाई गयी इन बेहूदा दीवारों का गिरना आवश्यक हैं? आवश्यक है इंसान इंसान होना.
मेरा हर धर्म के ठेकेदारों से एक ही सवाल है की क्या आपका धर्म इतना कमजोर है की किसी के छू देने से, पूजा कर देने या उसके के बारे में कुछ सच बोल देने से, उसके कार्टून बना देने से वो गिर जायेगा,खत्म हो जायेगा???
..
और यदि ऐसा है तो माफ़ करियेगा हमे आपके धर्म की कोई जरूरत नही है. तुम्हारी है तुम ही सम्हालों ये दुनियां.
मेरे देशवासियों!
जश्न के अवसर पर
रोना वाला मनहूस होता है
मैं भी उन मनहूस लोगों में से एक हूं
जब पूरा देश
31 अक्टूबर के जश्न में डूबने के लिए उतावला है
तो मैं मनहूस
31 अक्टबूर के लिए
शोकगीत लिख रहा हूं
मेरे लिए तो यह खुशी का दिन होना चाहिए
मेरे प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट पूरा हो रहा है
विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा
हमारे देश में बनी है
वह भी सरदार पटेल की
गांधी के प्रिय शिष्य की
एकता-अंखडता के प्रतीक की
गर्व और जश्न के अवसर पर शोकगीत
लेकिन क्या करूं?
मुझे यह पता है कि
72 आदिवासी गांवों को उजाड़कर
बना है, पटेल का यह स्मारक
आप के लिए, दुनिया के लिए
यह पर्यटन स्थल होगा
मगर यह आदिवासियों के सपनों की कब्र है
आप कहेंगे कोई नई बात थोड़ी है
कब्रों पर तो ही सभ्यताएं विकसित हुई हैं
विकास परवान चढ़ा है,
आपको पता है,
31 अक्टूबर को
75 हजार आदिवासी घरों में चूल्हे नहीं जलेंगे
खाना नहीं बनेगा
ऐसा वे तब करते हैं,
जब किसी की मृत्यु होती है,
31 अक्टूबर को वे
सामूहिक मृत्यु दिवस मनाएंगे
मातम दिवस मनाएंगे
जब 31 अक्टूबर को
रंगारंग का कार्यक्रम हो रहा होगा
जश्न परवान पर होगा
प्रधानमंत्री जी
इस महान उपलब्धि पर गर्व कर रहे होंगे
मीडिया इस महान उपलब्धि का
ढिंढोरा पीट रही होगी
तब अपने घरों से उजाड़े गए हजाराें आदिवासी
दर-बदर भटक रहे होंगे
जहां उन्हाेंने अपना सारा जीवन गुजारा
उस जगह के लिए
हुड़क रहे होंगे
यह वही जगह है,
जहां सरदार पटेल की
विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा खड़ी की गई
उनका स्मारक बनाया गया है
मैं अपने उजाड़े गए आदिवासी
भाई-बहनों, चाचा-चाचियों के लिए
कुछ नहीं कर सकता
रो तो सकता ही हूं,
मातम तो मना ही सकता हूं
एक दिन उनके सामूहिक मृत्यु दिवस पर
उनके साथ भूखा तो रह ही सकता हूं
आपका जश्न आपको मुबारक
मैं उनके मातम में शामिल होऊंगा
भले आप मुझे मनहूस कहें
ताे कहते रहें
रामू सिद्धार्थRead it also-एक दैत्य अथवा महान उदार द्रविड़ शासक, जिसने अपने लोगों की लुटेरे-हत्यारे आर्यो से रक्षा की
राजेन्द्र यादव बड़े जीवट वाले व्यक्ति थे. बचपन में नाटक में अभिनय के दौरान वाण लगने से उनकी एक आंख चली गयी. हाॅकी के खेल में चोट लगने से एक पैर फैक्चर हो गया. पर इन तकलीफों पर सोचने का उनके पास वक्त नहीं था. उनके मन-मस्तिष्क में कुछ और चल रहा था. वे जिद्दी स्वभाव के थे. इसीलिए अपनी तकलीफों पर वे ज्यादा नहीं सोचते थे. कहते थे ‘इससे मानसिक अशांति पैदा होगी, मुझे मानसिक रूप से उतनी फुर्सत नहीं है कि तकलीफों पर सोच सकूं.’ वे बेहद पढ़ाकू थे. उन पर लिखने की धून सवार थी.
शुरू में वे ‘चेखव’ से काफी प्रभावित थे, पर जल्द ही उससे मुक्त हो गए. फिर ‘कफ्का’ ने उन्हें गहरे रूप से प्रभावित किया. वैसे हिमिंग्वे, स्वाइग, कामू, सात्र्र, मार्खेज, हेराल्ड, पिंटर, बर्नार्ड शाॅ, बर्टेड रसेल, टैगोर, बच्चन, रेणु, फैज, मार्क ट्वेन, आॅस्कर वाइल्ड, दाॅस्तोव्स्की, टाॅलस्टाॅय, ब्लादिमीर नोबोकोव जैसे दर्जनों साहित्याकारों और विचारकों की रचनाओं व विचारों का उन्होंने अध्ययन किया था. पर इनमें से उनका कोई रोल माॅडल नहीं था. वे स्वतंत्र लेखकीय व्यक्तित्व में विश्वास रखते थे.
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त, 1929 को आगरा में हुआ था. 1951 में उन्होंने लिखना शुरू किया. उस समय तक पश्चिमी अभिजात्यवाद, नव-अभिजात्यवाद ;छमू ब्संेेपबपेउद्धए स्वच्छंदतावाद ;त्वउंदजपबपेउद्ध तथा भारतीय छायावाद जैसी साहित्यिक विचारधाराएं तो गौण हो गईं थीं. चाल्र्स डार्विन का विकासवाद, सिग्मंड फ्रायड, एल्फेड एडलर एवं कार्ल गुस्ताफ युंग (जुंग) का मनोविश्लेषणवाद तथा माक्र्स, माओत्से तुंग तथा ग्राम्शी की प्रगतिवादी विचारधाराएं साहित्य सृजन को प्रभावित कर रही थीं. राजेन्द्र यादव भी इन नवीन विचारधाराओं से अछूते नहीं थे वे कहते थे कि ‘ऐसा साहित्य जो प्रश्न नहीं उठाता, असहमति नहीं पैदा करतेा है, वह समाज में रचाना में, बदलाव नहीं आने देगा. ऐसे साहित्य का उद्देश्य क्या हो सकता है? मेरे लिए साहित्य का मतलब यथास्थिति का कहीं न कहीं प्रतिरोध करना है.’ निश्चित रूप से ‘प्रतिरोध’ की यह शक्ति उन्हें माक्र्सवाद से ही मिली. वे मानते थे कि साहित्य की पारंपरिक विधा ‘कविता’के माध्यम से इस ‘प्रतिरोध’ को वर्तमान परिपे्रक्ष्य में अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता. यह विधा अब पुरानी पड़ चुकी है. ‘आज की भाषा या किसी औद्योगिक समाज की भाषा, दूसरे शब्दों में जनतांत्रिक समाज की भाषा, कविता नहीं, गद्य ही होती है. …कविता ने छायावाद तक तो मुख्यधारा बनाए रखी, उसके बाद नहीं. कविता सवाल नहीं उठाती है. आप देखो कि मौथिलीशरणगुप्त एक समय में कितने बड़े कवि थे, आज कहीं हैं ही नहीं. तमाम पौराणिक चीजों को उन्होंने नए तरह से व्याख्यायित करने की तो केशिश की, उन पर सवाल नहीं उठाए. उन चीजों में उनकी श्रद्धा फिर भी रही. और श्रद्धा से तो आप ‘विनय पत्रिका’ ही लिख सकते हैं.’ (‘कथादेश’, दिसम्बर 2013, पृ. 21-22)
राजेन्द्र यादव ने अपनी सूक्षम अंतर्दृष्टि से यह जान लिया था कि कविता में प्रतिरोध की अब शक्ति नहीं रही, सो उन्होंने ‘गद्य’ का चुनाव किया. अपने लेखक मित्रों मोहन रोकश एवं कमलेश्वर के साथ ‘नयी कहानी’ की सूत्रपात की. उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए. देवताओं की मूर्तियां (1951), खेल-खिलौने (1953), जहां लक्ष्मी कैद है (1957), अभिमन्यु की आत्महत्या (1959), छोटे-छोटे ताजमहल (1961), किनारे से किनारे तक (1962), टूटना (1966), चैखटें तोड़ते त्रिकोण (1987), यहां तकः पड़ाव-1, पड़ाव-2 (1989), श्रेष्ठ कहानियां, प्रिय कहानियां, प्रतिनिधि कहानियां, प्रेम कहानियां, चर्चित कहानियां, मेरी पच्चीस कहानियां तथा हैं जो आतिश गालिब (2008). इन कहानियों के माध्यम से उन्होंने सामाकजिक रूढ़ियों, विषमताओं, विडम्बनाओं को न सिर्फ रेखांकित किया है, बल्कि सामाजिक-नैतिक मूल्यों पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं.
राजेन्द्र यादव के उपन्यासः प्रेत बोलते हैं (1951) (बाद में यह ‘सार आकाश’ के नाम से 1959 में प्रकाशित हुआ), उखड़े हुए लोग (1956), कुलटा (1958), शह और मात (1959), अनदेखे अनजान पुल (1963), एक इंच मुस्कान (1963, पत्नी के साथ) मंत्रविद्ध (1967) तथा एक था शैलेंद्र (2007) में भी सामाजिक-नैतिक प्रतिरोध पूरी समग्रता के साथ उपस्थित हुआ है.
प्रतिरोध की यह शक्ति उनकी औपन्यासिक आलोचना-दृष्टि में भी दिखाई पड़ता है. ‘अठारह उपन्यास’ (1981) उनकी एक लम्बी आलोचनात्मक यात्रा का चिंतन है, जो 1951 से प्रारंभ होकर 1981 तक फैला हुआ है. प्रेमचंदोत्तर उपन्यासों की आलोचना में उनहोंने आलोचना की परंपरागत पद्धति को स्वीकार नहीं किया. ‘उपन्यासः स्वरूप और संवेदना’ (1998) में उन्होंने आधुनिक प्रतिमानों का समावेश किया है. इस दृष्टि से ‘कहानीः स्वरूप और संवेदना’ (1968), ‘प्रेमचंद की विरासत’ (1978), ‘ औरों के बहाने’ (1981) भी उल्लेखनीय आलोचनात्मक कृतियां हैं. ‘एक दुनिया समानांतर’ (1967) की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. अन्य आलोचनात्मक कृतियों-निबंधों: कांटे की बात (1994), मेरा साक्षात्कार (1994), कहानीः अनुभव और अभिव्यक्ति (1996), आदमी की निगाह में औरत (2001), वे देवता नहीं हैं (2001), मुड़-मुड़ के देखता हूं (2002), नरक ले जाने वाली लिफ्ट (2002), मैं ‘हंस’ नहीं पढ़ता (2006), अब वे वहां नहीं रहते (2007), काश मैं राष्ट्रद्रोही होता (2008), स्वस्थ आदमी के बीमार विचार (2012) में भी उन्होंने गंभीर प्रश्न उठाए हैं.
राजेन्द्र यादव ने न सिर्फ कहानी एवं उपन्यास लेखन के पारंपरिक पद्धति में बदलाव किया, बल्कि हिंदी साहित्य के जनतंत्रीकरण में भी महत्वपूर्ण रोल अदा किया. उन्होंने हांशिये के लोगों को साहित्य के केन्द्र में लाकर एक नई वैचारिकी निर्मित की. वे कहते थे कि हमारा साहित्य कुलीन लोगों का साहित्य रहा है, इसमें हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज छूट गई है. यही वजह है कि उन्होंने ‘हंस’ के माध्यम से ‘स्त्री विमर्श’ एवं ‘दलित विमर्श’ को काफी बढ़ावा दिया. दलित चिंतक कंवल भारती कहते हैं कि ‘वे हिंदी साहित्य में नए विमर्श के सम्राट थे. साहित्य में प्रगतिशील चिंतन तो पहले भी था, लेकिन वह ब्राह्मणवादी विचारधारा से प्रभावित था. राजेन्द्र यादव ने उस चिंतन को ब्राह्मणवाद से मुक्त करने में जो भूमिका निभायी, वह अद्वितीय है. ‘हंस’ में अपने संपादकीय लेखों के माध्यम से जिस सामाजिक परिवर्तन की धारा चलायी उसका मुकाबला कोई संपादक और कोई लेखक नहीं कर सकता. …अपने स्त्री-विमर्श में जिन खौलते हुए सवालों को उन्होंने उठाया था, उसके लिए उन्हें भारतीय संस्कृति के ‘रक्षकों’ से क्या-क्या नहीं सुनने को मिला. यहां तक कि तथाकथित नारीवादियों तक ने उन्हें खरी-खोटी सुनाई. बावजूद इसके उन्होंने अपनी हट आलोचना और हर कुतर्क का जवाब और भी विचारोत्तेजक और नए-नए तर्कों के साथ दिया. (‘प्रभात खबर’, पटना, 30 अक्तूबर 2013)
वरिष्ठ साहित्यकार वीरेन्द्र यादव कहते हैं कि ‘यह स्वीकार करना होगा कि राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के माध्यम से साहित्यिक कुलीनतावाद और कलावाद को सशक्त चुनौती दी थी. जब समूची हिन्दी पट्टी में सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरतावाद की आंधी चल रही थी, तब ऐसे दौर में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में ही नहीं, बल्कि धार्मिक कूढ़मगजता के विरुद्ध भी अभियान छेड़ा था. परिणामस्वरूप उन्हें मुकदमे, अदालतों और जमानत आदि के खतरों और झंझटों से भी गुजरना पड़ा था. सही अर्थों में राजेन्द्र यादव एक ऐसा ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ थे, जो राजनीति संस्कृति और समाज के हर पहलू पर प्रगतिशील दृष्टिकोण रखते थे. यह सचमुच विस्मयकारी है कि वे यह सब अपनी उस बढ़ी हुई उम्र में कर सके थे, जब सामान्यतः लोग संन्यास की आरामदायक मुद्रा में यथास्थितिवाद के पैरोकार और वर्चस्व की सत्ता के मुखापेक्षी हो जाते हैं.
राजेन्द्र यादव अपने सामाजिक सरोकारों और लेखन में ही नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व में भी पूरी तरह जनतांत्रिक थे. जिस तरह ‘हंस’ के पृष्ठों पर असहमति और बहस की पूरी छूट थी, उसी तरह ‘हंस’ के कार्यालय की अड्डेबाजी में भी. राजेन्द्रजी युवतम लेखकों को भी बहस और असहमति की पूरी छूट ही नहीं देते थे, बल्कि उसका सम्मान भी करते थे. यही कारण था कि ‘हंस’ जितना एक पत्रिका का कार्यालय था, उससे कहीं अधिक साहित्यिक अड्डेबाजी का केन्द्र. समूचे देश में साहित्यकारों के लिए ‘हंस’ कार्यालय दिल्ली पहुंचने पर अनिवार्य गंतव्य होता था. राजेन्द्र जी के ठहाकों से गुंजायमान इस अड्डे पर पहुंचते ही उम्र और पीढ़ियों की दूरियां पल भर में तिरोहित हो जाती थीं. (वही)
दलित साहित्यकार श्योराज सिंह बेचैन, जो रोन्द्र यादव से खासा प्रभावित रहे हैं, कहते हैं कि ‘राजेन्द्र यादव ने दलित अधिकार को सैद्धांतिक विमर्श का विषय बनाने का बड़ा काम ‘हंस’ के जरिए किया. उन्होंने ‘हंस’ की विषय-वस्तु को अधिक लोकतांत्रिक और विविधतासम्पन्न बनाया, जिससे दलितों में राजेन्द्र यादव को सिर-माथे रखने वाला ‘हंस’ का बड़ा पाठक वर्ग पैदा हुआ. रोजन्द्र यादव और ‘हंस’ के कारण दलित लेखकों को मुख्यधारा में पहचाना जाने लगा, जो इससे पहले अपनी सामुदायिक पत्रिकाओं के सीमित पाठकीय दायरे में ही पढ़े जाते थे. ‘हंस’ सामाजिक दृष्टि से अगड़ों, पिछड़ों, हिंदू, मुस्लिमों, ब्राह्मणों, दलितों-सब में जाती रही है. यहां तक कि वह मराठी, पंजाबी आदि गैर-हिंदी क्षेत्रों में और साहित्येतर विषयों- जैसे रानीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र आदि से जुड़े लोगों के बीच भी पढ़ी जाती रही है. ऐसी पत्रिका जिसमें दलित साहित्य को जगह देकर राजेंद्र यादव ने पहचान का बड़ा क्षितिज उपलब्ध कराया. दलित रचनाओं की मार्फत एक बड़ा पाठक वर्ग दलित जीवन और उसकी समस्याओं से परिचित हुआ.
अस्पृश्यता का भाव रखने वाले और जातिगत अभिमान और ज्ञान के गुरुर में डूबे संपादक दलित लेखकों को अपने कक्ष में घुसने तक नहीं देते थे, जबकि राजेन्द्र यादव उनके साथ एक ही थाली में खाते और खिलाते थे. दलित लेखकों के घर जाते थे. सारी दूरियां मिटाते थे. दलितों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध कितने ही संपादकीय उन्होंने लिखे, वे साहित्य और चिंतन में दलितों के खुद के नेतृत्व को प्रेरित कर रहे थे और उसे व्यापक स्तर पर स्वीकार्य बनाने की राह बना रहे थे.
दलित साहित्य के विरोधी यादवजी के साथ ‘हंस’ के सहयोगियों तक में मौजूद थे, जो दलित रचना को पूर्वाग्रह से देखते/देखती थीं. राजेन्द्र यादव छापते तो वे कहते कि यह आरक्षण दिया जा रहा है और आरक्षण का मतलब मैरिट का न होना था, जबकि हंस में दलितों की भी कच्ची रचना वे नहीं छापते थे. उन्होंने मुझसे कितनी ही बार प्रतिप्रश्न किया था कि क्या तुम पांचवीं पासको यूनिवर्सिटी में एडमिशन दिला दोगे? नहीं न! …तो मान लो ‘हंस’ साहित्य की यूनिवर्सिटी है.’ (‘हंस’ दिसम्बर 2013, पृ. 81) हालांकि राजेन्द्र यादव ने यह स्वीकार किया था कि जो जैन्युन है हम उन्हें कुछ रियायत देते हैं. वे इसे ‘डेमोक्रेटिक राइट’ के रूप में देखते थे.
इस प्रकार हम देखते हैं राजेन्द्र यादव का पूरा उद्यम हिन्दी साहित्य के लोकतंत्रीकरण का उद्यम है. उनका व्यक्तित्व कबीर-फुले आम्बेडकर के वैचारिकी से निर्मित था. उन्होंने अभिजात्य हिन्दी साहित्य की न सिर्फ बखिया उधेड़ी, बल्कि हिन्दी साहित्य में सभी वर्गों का समावेश कर लोकतंत्रीकरण किया. यही वजह है कि कुछ लोग उन्हें साहित्य का बीपी सिंह कहते हैं. हालांकि बीपी सिंह को वंचित वर्ग को शासन में भागीदारी (आरक्षण) देने के तुरंत बाद सत्ता गवांनी पड़ी थी, पर राजेन्द्र यादव की सत्ता को चुनौती देने की हैसियत किसी में नहीं थी. वे जबतक रहे तबतक शीर्षस्थ रहे. उन्होंने अपने युग का मजबूती से नेतृत्व किया.
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है. बसपा ने 50 प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की है. बसपा ने मध्य प्रदेश में किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं किया है और सभी सीटों पर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया है.
बसपा के प्रदेश प्रभारी राम अचल राजभर ने पार्टी की पहली सूची जारी की. इसमें प्रदेश के सभी चारों विधायकों को दोबारा से टिकट दिया गया है. इसके अलावा दो पूर्व विधायकों को फिर से पार्टी ने भरोसा करते हुए टिकट दिया है.
बसपा ने सत्यप्रकाश को अम्बाह विधानसभा से, उषा चौधरी को सतना की रैगांव सीट से, शीला त्यागी को रीवा के मनगंवा से और बलवीर सिंह दंडोतिया को मुरैना सीट से टिकट दिया गया है. जबकि दंडोतिया पहले मुरैना के दिमनी विधानसभा चुनाव जीतकर विधायक बने थे.
इन चारों विधायकों को अलावा रामलखन सिंह पटेल को सतना की रामपुर बघेलान और रामगरीब कोल को रीवा की सिरमौर से प्रत्याशी घोषित किया है. दोनों नेता पूर्व विधायक हैं. बसपा ने जो सूची जारी की है उसमें मुरैना, रीवा, दमोह, सतना सहित अपने प्रभाव वाले अन्य इलाके की सीटें शामिल हैं.
बता दें कि चुनाव घोषणा से पहले बसपा ने 22 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी थी. जिनमें पार्टी ने अपने विधायक बलवीर सिंह दंडोतिया के नाम की घोषणा नहीं की थी. हालांकि पहली लिस्ट वाले उम्मीदवारों के नाम भी दूसरी लिस्ट में शामिल हैं.
2013 में मध्यप्रदेश में बीएसपी ने 230 सीटों में से 227 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. बसपा यहां 6.42 फीसदी वोट के साथ चार सीटें जीतने में सफल रही थी. राज्य 75 से 80 सीटों पर बसपा प्रत्याशियों ने 10 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए थे. जबकि बीजेपी और कांग्रेस के बीच 8.4 फीसदी वोट शेयर का अंतर था. बीजेपी को 165 सीटें और कांग्रेस को 58 सीटें मिली थीं.
मध्य प्रदेश में बसपा का आधार यूपी से सटे इलाकों में अच्छा खासा है. चंबल, बुंदेलखंड और बघेलखंड के क्षेत्र में बसपा की अच्छी खासी पकड़ है. कांग्रेस के साथ बसपा का न उतरना शिवराज के लिए अच्छे संकेत माने जा रहे हैं.
लखनऊ। पांच चुनावी राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना) में अपनी छाप छोड़ने के लिए बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की चीफ मायावती हर जतन कर रही हैं. ऐसे में अगले दो महीने में मायावती इन चुनावी राज्यों में ताबड़तोड़ रैलियां करेंगी. पार्टी सूत्रों की मानें तो मायावती इन राज्यों में 30 रैलियां करेंगी. इन रैलियों की शुरुआत नवंबर से होगी और दिसंबर तक लगातार जारी रहेंगी, जब तक राजस्थान और तेलंगाना में मतदान नहीं हो जाते.
बीएसपी के एक नेता ने बताया कि 4 नंवबर को मायावती छत्तीसगढ़ पहुंचेंगी. यहां वह दो रैलियों को संबोधित करेंगी. दो रैलियों में से एक रैली अंबिकापुर में आयोजित की जाएगी. वहां से वापस आकर वह फिर से 16 नवंबर को यहां आएंगी और दो दिनों के अंदर नवागढ़, बिलाईगढ़, रायपुर और जांजगीर चम्पा में आयोजित चार रैलियों में हिस्सा लेंगी.
अजीत जोगी की पार्टी से गठबंधन
छत्तीसगढ़ चुनाव में मायावती की पार्टी बीएसपी का पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ है. यहां के जांजगीर चम्पा विधानसभा सीट से बीएसपी ने जोगी की बहू ऋचा को टिकट दिया है.
छत्तीसगढ़ के बाद मायावती राजस्थान की जनसभाओं को संबोधित करेंगी. राज्य में 7 दिसंबर को चुनाव होने हैं. उसके पहले मायावती पूरे प्रदेश में आठ बड़ी रैलियां करेंगी. मध्य प्रदेश में मायावती की 10-12 रैलियां प्रस्तावित हैं. राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित मिजोरम में बीएसपी अकेले चुनाव लड़ रही है.
तेलंगाना में बीएसपी ने 20-25 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. यहां पर मायावती की पवन कल्याण की पार्टी जन सेना पार्टी से गठबंधन की बात चल रही है. मायावती का सारा जोर अभी छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश है इसलिए फिलहाल उन्होंने मिजोरम और तेलंगाना में कोई रैली तय नहीं है. हालांकि सूत्रों ने बताया कि पांचों राज्यों में उनकी 30 रैलियां प्रस्तावित हैं.
इन राज्यों में होने हैं चुनाव
चुनाव आयोग ने छत्तीसगढ़ में दो चरणों में चुनाव कराने की घोषणा की है. इसके अलावा मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना में एक चरण में ही चुनाव कराए जाएंगे. छत्तीसगढ़ में पहले चरण में 18 सीटों पर 12 नवंबर को वोटिंग होगी. इसके बाद दूसरे चरण में 72 विधानसभा क्षेत्रों में 20 नवंबर को चुनाव होंगे.
आयोग ने मध्य प्रदेश और मिजोरम में एक ही चरण में 28 नवंबर को वोटिंग कराने का ऐलान किया है. राजस्थाना और तेलंगाना में सात दिसंबर को वोटिंग होगी. मतगणना 11 दिसंबर को होगी और उसी दिन परिणाम आ जाएंगे. चुनावों की घोषणा के साथ ही सभी 5 राज्यों में आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है.
पत्राचार ही एक ऐसा साधन है, जो दूरस्थ व्यक्तियों को भावना की एक संगमभूमि पर ला खड़ा करता है और दोनों में आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करता है. व्यावहारिक जीवन में पत्राचार वह सेतु है, जिससे मानवीय सम्बन्धों की परस्परता सिद्ध होती है. अतएव पत्राचार का बड़ा महत्व है. साहित्य में भी इनका उपयोग होने लगा है. जिस पत्र में जितनी स्वाभाविकता होगी, वह उतना ही प्रभावकारी होगा. पत्र लेखन के विविध रूप होते हैं… जैसे: सामाजिक, व्यावसायिक, शासकीय और प्रशासकीय आदि. जैसे-जैसे भाषा का विकास हुआ, उसी के साथ पत्र लेखन का भी विकास होता गया. इस प्रकार यह माना जा सकता है की पत्र लेखन का इतिहास बहुत पुराना है. आज के युग में मोबाइल, इंटरनेट जैसे संचार के साधन होने के बावजूद भी पत्र लेखन का महत्व वैसे ही बना हुआ है. समय के साथ पत्र लेखन की कला में भी अनेक परिवर्तन आये हैं. ई-मेल भी इन्हीं परिवर्तनों में से एक है. उल्लेखनीय है कि पत्रिकारिता भी एक प्रकार का पत्र लेखन ही है. इसलिए पत्र लेखन को पत्रिकारिता से अलग करके नहीं देखा जा सकता.
यथोक्त की आलोक में, दलित साहित्य में भी पत्र लेखन की महत्वपूर्ण भूमिका देखने को मिलती है. दलित लेखकों ने नाना प्रकार से पत्र लेखन की विधा को अपनाया है. पत्र-पत्रिकारिता के जरिए दलित लेखकों ने सामाजिक/ आर्थिक/ धार्मिक मुद्दों को आवाज देने का जो काम किया है वह उल्लेखनीय है. जब कभी राष्ट्रीय अखबारों मे दलित उत्पीडन/ नरसंहार या अन्य प्रकार की घटनाएं देश के किसी कोने मे घटित होती थीं तो कुछ लेखक अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी स्वरुप समाचार पत्रों में भेजते थे और उनके प्रतिक्रियात्मक पत्र पाठको के कालम मे प्रमुखता से छपते थे, जिन्हें मैं अपने कालेज छात्र जीवन अर्थात 1972 से ही पढ़ता चला आ रहा था. जिनमें हिमांशु राय/ एन.आर.सागर/ आनंद स्वरूप/ धनदेवी/ जसवंत सिंह जनमेजय/ राजपाल सिंह ‘राज’/ डा.सोहनपाल सुमनाक्षर/ इन्द्र सिंह धिगान/ आर.सी.विवेक/ डा.के.के.कुसुम/ शेखर पंवार आदि प्रमुख रहे थे. हिमांशु राय जी ने ‘भारतीय पत्र लेखक संघ’ भी बनाया था जिसकी बैठक अम्बेडकर भवन, नयी दिल्ली व आर.के.पुरम में स्थित निर्वाण बुध्द विहार/ रविदास टेम्पल पर तो कभी बोट क्लब पर हुआ करती थी. किंतु हिमांशु राय जी के निधन के बाद भारतीय पत्र लेखक संघ चल न सका. बाद के दिनों में तेजपाल सिंह ‘तेज’ अपनी तीखी टिप्पणियों के लिए जाने-पहचाने जाने लगे| इतना ही नहीं उनके गद्य लेखन में भी उनकी गजलों/गीतों/कविताओं जैसा ही तेवर मौजूद पाया. उनकी लेखन शैली और तीक्षणता कुछ अलग ही दिखती है. ‘तेज’ ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च-शिक्षा का सवाल हो या हिन्दी को राजभाषा बनाने का सवाल या दलितों, पिछड़ों, महिलाओं के उत्थान के नाम पर सरकारी मशीनरी के रवैये पर ईमानदारी से व्यंग्यात्मक रूप में बराबर सवाल उठाएं हैं.
1984 के बाद सभी उपरोक्त लेखक ‘भारतीय दलित साहित्य मंच दिल्ली’ (रजि.) से जुड़ गये और डा. राज के संगठनात्मक प्रयास से नये-नये कवि/लेखक जुड़ते रहे और दलित साहित्य आंदोलन अपना व्यापक आधार तैयार करता रहा जिसके संरक्षक बतौर आचार्य जनकवि बिहारी लाल हरित की भूमिका प्रमुख थी.
पत्रकारिता में डा.सोहनपाल सुमनाक्षर अपना ‘हिमायती’ पत्र स्वंय निकालते थे तो मोहनदास नैमिशराय ने अपने संपादकत्व में 1978 ‘बहुजन अधिकार’ अखबार निकलता था. बाद के दिनों में वे काशीराम साहब की बामसेफ यूनिट की अंग्रेजी पत्रिका The Oppressed India व हिंदी अखबार बहुजन संगठक से जुडे हुए थे, जिनमे हम स्वयं लेख व समाज हित कविताएं लिखा करते थे. इधर ‘भीम भारती’ पाक्षिक अखबार भी हमारे द्वारा निकाला जाता था जिसके मुख्य संपादक प्रो. डा.एल.बी.राम अनंत व मैं स्वंय तथा प्रो. आर.डी.जाटव उप-संपादक रहे थे. उन्हीं दिनों ‘काला भारत’ पाक्षिक खजान सिंह गौतम के संपादन मे निकलता था. इसके बाद ‘ग्रीन सत्ता’ अखबार के संपादक/ उप संपादक खजान सिंह गौतम व तेजपाल सिंह ‘तेज’ रहे. डा. तेज सिंह के सम्पादकत्व में निकलने वाली ‘अपेक्षा’ काफी चर्चित रही. ईशकुमार गंगानिया के प्रयासों से जून 2008 में ‘आजीवक विजन’ (मासिक व बाईलिंग्विल) नामक पत्रिका निकाली गई जिसके अपेक्षित लेखकीय और आर्थिक सहयोग न मिलने के कारण केवल पांच अंक ही प्रकाशित हो पाए. विदित हो कि तेजपाल सिंह ‘तेज’ इस पत्रिका के भी प्रधान संपादक रहे. इसी क्रम में दलित इंटेलेक्चुयल फोरम फार ह्यूमन राइट्स के अध्यक्ष परमजीत सिंह की प्रधानता में ‘अधिकार दर्पण’ नामक पत्रिका का मार्च 2012 में प्रकाशन आरम्भ किया गया जिसके संपादक तेजपाल सिंह ‘तेज’ व उपसंपादक ईश कुमार गंगानिया रहे. यद्यपि इस पत्रिका का प्रकाशन भी मार्च 2015 तक ही हो पाया तथापि मानवाधिकारों को उठाने वाली पत्रिका के रूप में खासा काम किया. आज और भी अनेक पत्र-पत्रिकाएं का प्रकाशन हो रहा है, लेकिन एक लेख में सबका उल्लेख करना संभव नहीं है. आने वाले दिनों में उनपर भी काम किया जाएगा.
इससे पूर्व 1976 में दिल्ली की एक मात्र त्रैमासिक पत्रिका ‘धम्म-दर्पण’ भारतीय बौध्द महासभा के मातहत प्रो. कैन के संपादन मे निकलती थी. महासभा का जो भी दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष होता था, वह इस पत्रिका का मुख्य संपादक तथा अन्य चार सदस्य संपादन मंडल में हुआ करते थे. जिसका वैचारिक केन्द्र डा. अम्बेडकर भवन, रानी झांसी रोड, नयी दिल्ली हुआ करता था. इसी स्थल से दिल्ली की सामाजिक, सांस्कृतिक व बौध्द आंदोलन की गतिविधियों का संचालन होता था. दलित सांसद मंत्रियों का आना-जाना निरन्तर लगा रहता था. वैसे भी अम्बेडकर भवन भूमि स्वयं बाबासाहब डा.अम्बेडकर ने ‘शैडयूल्ड कास्ट वेलफेयर एसोसिएशन’ के नाम से खरीद कर समाज को सौंप दी थी, जंहा से अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र बना करते थे, रोजगार कार्यालय व हायर सैकेंडरी स्कूल भी खुला जो आजतक चल रहा है. पत्रिका का संपादक कार्यालय,भारतीय बौद्ध महासभा का आफिस ही होता था जो अम्बेडकर भवन पर ही था. आज महासभा में आपसी गुटबाजी के कारण दो गुट हो गए फलत: धम्म-दर्पण अब मृतप्रायः है.
महासभा के फाड़ होने के कारण सी.एम.पीपल के संपादन मे ‘सधम्म दर्पण’ निकालने का 2017 में पुन: प्रयास हुआ जिसका पहला अंक अक्टूबर, 2017 – मार्च 2018 (संयुक्तांक) छपा. देखना यह है कि यह पत्रिका कब तक चलेगी. स्मरणीय है कि सी.एम.पीपल भारतीय बौध्द महासभा का नया रजिस्ट्रेशन दिल्ली से कराकर महासभा पर काबिज हो गए. पूर्व ‘धम्म-दर्पण’ में पाठकों के लेख, पत्र व प्रतिक्रियाएं लगातार छपती थीं. पत्र लेखन की जो स्वस्थ परम्परा दलित साहित्य आंदोलन मे उभरी, उसका श्रेय बाबा डा.अम्बेडकर के पत्र-लेखन को जाता है. डा.अम्बेडकर की पत्र-पत्रकारिता से पढ़ा-लिखा समाज अधिक प्रभावित हुआ और सरकारी नौकरियों में रहते स्वयं ही पढ़े-लिखे लोग दलित लेखन मे उतरते गये और इस तरह दलित साहित्य आंदोलन खड़ा होता चला गया. पत्र लेखन में एक महत्वपूर्ण नाम का उल्लेख ना करना मेरे लिए एक बडा अपराध होगा… वह शीर्षस्थ नाम है रतनलाल कैन. पत्र लेखन व सरकार की किसी भी अप्रसांगिक कार्यशैली पर टिप्पणी करने में रतन लाल कैन जो स्वयं दानिक्स अधिकारी रहे थे, आज भी लिखते-लिखाते रहते हैं. रतन लाल कैन भारतीय संविधान के मर्मज्ञ ही नही अपितु प्रख्यात आर.टी.आई.एक्टीविस्ट भी हैं. सभी सरकारों से जितना पत्र-व्यवहार भारत में रतन लाल कैन ने किया है, शायद ही किसी और ने किया हो. पत्र लेखन समझदार व जागरुक व्यक्ति ही कर सकता है अन्य कोई नहीं.
यद्यपि व्यक्तिगत पत्र लेखन की परम्परा आज दिन-प्रतिदिन अपना बजूद खोती जा रही है तथापि पत्रकारिता अपने चर्म पर हो रही है. पिछले वर्ष साहित्यकारों के आपसी पत्र-व्यवहारों का संपादन ” संवादों का सफर” डा.सुशीला टांकभोरे ने किया जो दलित साहित्य आंदोलन की दिशा और दशा समझने मे काफी महत्वपूर्ण कृति है. वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार मोहनदास नैमिशराय भी साहित्यकारों द्वारा किए गये आपसी पत्र व्यवहार का वृहत स्तर पर संपादन कार्य में जुटे हुए हैं. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दलित लेखकों में दिन प्रतिदिन पत्र-पत्रिकारिता के प्रति रुचि बलबती जा रही है और अब तो सोशल मीडिया के जरिए भी पत्रिकारिता भी अपने कदम जमाती जा रही है जो निसंदेह उत्साहवर्धक और प्रशंसनीय है.
भारत और वेस्टइंडीज के बीच विशाखापट्टनम वनडे टाई पर खत्म हुआ. पहले बल्लेबाजी करते हुए टीम इंडिया ने 50 ओवर में 321 रन बनाए. लक्ष्य का पीछा करने उतरी विंडीज की टीम एक समय आसानी से जीत हासिल करती दिख रही थी. हालांकि भारतीय गेंदबाजों ने वापसी तो की लेकिन वो मैच जीत नहीं सके. आखिरी गेंद पर शे होप ने उमेश यादव की गेंद पर चौका लगाकर अपनी टीम को हार से बचा लिया. शे होप ने नाबाद 123 रनों की पारी खेली. हेटमायर ने भी 94 रन बनाए. सीरीज में भारत अब भी 1-0 से आगे है.
मैच ऐसे हुआ टाई
आखिरी ओवर में वेस्टइंडीज को 14 रनों की दरकार थी. उमेश यादव की पहली गेंद पर शे होप सिर्फ एक रन बना पाए. दूसरी गेंद पर एश्ले नर्स के पैड पर लगकर गेंद बाउंड्री पार चली गई. वेस्टइंडीज को 4 रन मिले. तीसरी गेंद पर नर्स ने दो रन लिए. आखिरी तीन गेंदों पर विंडीज को 7 रनों की जरूरत थी. इसके बाद चौथी गेंद पर नर्स आउट हो गए. आखिरी दो गेंदों पर विंडीज टीम को 6 रन की दरकार थी. शे होप ने पांचवीं गेंद पर दो रन बटोरे. आखिरी गेंद पर विंडीज टीम को जीत के लिए 5 रन चाहिए थे. वो 5 रन तो नहीं बना सके लेकिन आखिरी गेंद पर उन्होंने चौका लगाकर मैच टाई करा दिया.
वेस्टइंडीज के लिए शाई होप ने 134 गेंदों में 10 चौके और तीन छक्कों की मदद से नाबाद 123 रन बनाए. उनके अलावा शेमरोन हेटमायेर ने 94 रनों की पारी खेली. उन्होंने 64 गेंदों की अपनी पारी में चार चौके और सात छक्के लगाए. इससे पहले, भारत के लिए कप्तान विराट कोहली ने सबसे ज्यादा नाबाद 157 रन बनाए. अंबाती रायडू ने 73 रनों की पारी खेली. कोहली ने वनडे में 37वां शतक जड़ा. इसी के साथ वह वनडे में सबसे तेजी से 10,000 रन बनाने वाले बल्लेबाज भी बन गए हैं.
कोहली ने अपनी पारी में 130 गेंदों का सामना किया और 13 चौकों के अलावा चार छक्के लगाए. रायडू ने 80 गेंदों की पारी में आठ चौके मारे. इन दोनों बल्लेबाजों ने तीसरे विकेट के लिए 139 रनों की साझेदारी की. विंडीज के लिए एशले नर्स और ओबेड मैक्कोय ने दो-दो विकेट अपने नाम किए. कीमार रोच और मार्लन सैमुएल्स को एक-एक सफलता मिली.
छत्तीसगढ़। छत्तीसगढ़विधानसभा के पहले चरण के लिए राजनीतिक पार्टियों पूरी तरह से चुनावी मैदान में उतरने के लिए तैयार हो गई हैं. इस बार बसपा भी अपने दम-खम के साथ चुनावी मैदान में उतरने की पूरी तैयारी में है. पहले चरण में बसपा के गठबंधन को बंटवारे से मिली 33 सीटों में से 6 सीटों पर अपनी किस्मत अजमा रही है, जिसमें से 4 बस्तर संभाग और 2 राजनांदगांव जिले की सीटों पर बसपा ताल ठोक रही है.
पहले चरण के अलावा दूसरे चरण के लिए बसपा ने 14 प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है. और शेष बची सीटों पर बसपा सुप्रीमों मायावती और गठबंधन के साथ मंथन करके जल्द घोषणा करेगी. बसपा के प्रदेश अध्यक्ष ओपी बाजपेयी का कहना है कि इस बार बसपा को पिछले चुनावों की अपेक्षा ज्यादा सीटें मिलेंगी. इसके लिए बसपा पूरा जोर लगा रही है.
सूबे में गठबंधन की ताकत को मजबूत करने के लिए फायरब्रांड नेता अजीत जोगी लगातार बस्तर का दौरा कर रहे हैं. बस्तर संभाग की सभी 12 सीटों पर अपना तूफानी दौरा करके गठबंधन के पक्ष में प्रचार करने की कमान अपने हाथों में ले ली है. पहले चरण के चुनाव के लिए जोगी ने भी अपनी कमर कस ली है. बहरहाल चुनावी समर में राजनीतिक दल अपनी जीत के लिए चुनावी मैदान में पसीना खूब पसीना बहा रहे हैं, लेकिन यह तो जनता ही तय करेगी कि कौन सा दल उनके लिए कितना पसीना बहाया है.
मेरठ। उत्तर प्रदेश के मेरठ में स्वामी विवेकानंद सुभारती यूनिवर्सिटी में बुधवार को सैकड़ों लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया. इस आयोजन में छह हजार लोगों ने हिस्सा लिया. सुभारती यूनिवर्सिटी के मालिक डॉक्टर अतुल कृष्ण ने जहां इसे अहिंसा और प्रेम के संदेश देने के मसकद से उठाया गया कदम बताया. वहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने आए कई लोगों ने इसको दलित हिंसा में हुए उत्पीड़न से जोड़ा. उनका कहना था कि दलितों पर हुए अत्याचार खासकर दो अप्रैल की हिंसा से वह परेशान हैं. बौध विद्वान डॉक्टर चंन्द्रकीर्ति भंते का कहना है कि लोगों ने स्वेच्छा से बौध धर्म की दीक्षा ली है. जातिविहीन समाज की स्थापना की कोशिश सरकार को करनी चाहिए.
दरअसल, सुभारती यूनिवर्सिटी के बौद्ध उपवन में बुधवार मेरठ और आसपास के जिलों से सैकड़ों लोग पहुंचे. हिंदू धर्म से ताल्लुक रखने वाले इन लोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली. सुभारती यूनिवर्सिटी के सर्वेसर्वा डॉक्टर अतुल कृष्ण ने कई महीने पहले धर्मांतरण का यह अभियान छेड़ा था. आज डेढ़ हजार से ज्यादा लोग बौद्ध धम्म दीक्षा कार्यक्रम में शामिल हुए और उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं की मौजूदगी में हिंदू धर्म से अलग होकर डॉक्टर अतुल कृष्ण और उनके परिवार की अगुवाई में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया.
आयोजकों का दावा है कि यह एक अराजनीतिक आयोजन था और लोगों ने स्वेच्छा से बौद्ध धर्म स्वीकार किया. सुभारती की मीडिया टीम के सदस्य अनम कान शेरवानी ने बताया कि कुल छह हजार लोगों ने प्रोग्राम में हिस्सा लिया, जिसमें से 1500 से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली. अतुल कृष्ण का कहना है कि बौद्ध धर्म अनत्व, मैत्री, भाईचारे, करूणा प्रेम का है, यहां भेदभाव नहीं होता. इसमें इंसान का इंसान के प्रति प्रेम पर महत्व दिया गया है. उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने परिवार के साथ इस धर्म को अपनाया है. करीब 1500 और लोगों इसे अपनाने वाले शामिल रहे हैं. देश और समाज की एकता के लिए इस धर्म को अपनाया जाना चाहिए.’
बौद्ध धर्म अपनाने वाले एक बुजुर्ग मामराज ने कहा, ‘हम स्वेच्छा से धर्म बदल रहे हैं. हम दलित हैं. दो अप्रैल को हमारे समाज के लोगों के खिलाफ झूठे मुकदमे लिखकर जेल भेजा गया. उत्पीड़न किया गया.’ वहीं एक अन्य व्यक्ति रमेश का कहना था, ‘समाज में हमें हीन भावना से देखा जाता था. चंद साल पहले हमारे समाज के लोगों ने सिख धर्म स्वीकार कर लिया था. तब हर कोई सम्मान से सरदार जी कहकर पुकारता था. नहीं तो जातिवादी मानसिकता रखते हैं.’ बाकी लोगों के साथ मुजफ्फरनगर जिला निवासी सरदार अली ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली है.
धर्मांतरण अनुष्ठान का नेतृत्व कर रहे बौध विद्वान डॉ चंन्द्रकीर्ति ने कहा कि हालंकि इस आयोजन में लोग स्वेच्छा से शामिल हुए. लेकिन पिछले दिनों अनुसूचित जाति के लोगों पर हुए अत्याचार का असर भी धर्मांतरण के तौर पर दिखा है. उनका मानना है कि इतनी बड़ी तादात में हिंदुओं के धर्मांतरण के बाद सरकार पर भी इसका असर पड़ेगा और सरकार सोचने को मजबूर होगी. देश को विकसित करने के लिए सरकार और रातनीतिज्ञों को जातिविहीन समाज की स्थापना करनी चाहिए. विदेशों में नस्लभेद आदि कम हुआ है, कुछ जगह मिट गया है, ऐसे आयोजन से भारत में भी भेदभाव की स्थित में कमी आएगी.
नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय में शैक्षिक मामलों को देखने वाली स्थाई समिति (स्टैंडिंग कमेटी)की कांउन्सिल हॉल में बुधवार को बैठक हुई. इस बैठक में स्नाकोत्तर पाठ्यक्रमों में यूजीसी के निर्देशों को स्वीकार करते हुए चयन आधारित क्रेडिट पद्धति (सीबीसीएस)के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार करके इसे स्टैंडिंग कमेटी के बाद एकेडेमिक कांउन्सिल में पास करने के बाद ही लागू किया जा सकता है. आज की बैठक में विभिन्न विभागों में स्नाकोत्तर स्तर पर पढ़ाए जाने लगभग 9 विषयों को पास किया गया.
स्टैंडिंग कमेटी ऑन एकेडेमिक मेटर की मीटिंग में बुधवार को स्नातकोत्तर (एमए)के जिन विषयों पर चर्चा की गई, उनमें विषयों में अंग्रेजी, राजनीति विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, आधुनिक भारतीय भाषा और साहित्यिक अध्ययन, लायब्रेरी एंड इन्फॉर्मेशन साइंस, बुद्धिस्ट स्ट्रडिज हिस्ट्री, एलएलबी, एलएलएम आदि विषयों पर चर्चा करने के बाद ही पाठ्यक्रम को पास किया गया.
दरअसल सबसे ज्यादा बहस राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम को लेकर हुई. इसमें लेखक कांचा इलैया की तीन किताबें लगी हुईं थीं. लेकिन पिछले दिनों इन पर गम्भीर आरोप लगने की वजह से इनकी पुस्तकों को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया. इन पुस्तकों में व्हाय आई एम नॉट ए हिन्दू, पोस्ट हिन्दू इंडिया को रीडिंग मैटीरियल (संदर्भ ग्रन्थ सूची) से हटा दिया गया है.
वहीं, बैठक में कई नए स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों पर विचार किया गया.जिन पाठ्यक्रमों को स्वीकृति प्रदान की गई. अंग्रेजी विभाग का एक अपनी तरह का नवीनतम पाठ्यक्रम ‘विकलांगता अध्ययन एवं इसका साहित्यिक निरूपण’ (डिसेब्लड स्टडीज एंड लिटरेरी रिप्रजेंटेशन) को स्वीकृति प्रदान की गई.
प्रो.सुमन ने कहा कि इस पाठ्यक्रम में लुई ब्रेल और हेलेन केलर जैसे विकलांगता के आधार स्तम्भों के विचारों को भी शामिल किया जाना चाहिए. स्वतंत्रता उपरांत विकलांग व्यक्रियों, विशेषत: दृष्टिबाधित व्यक्तियों की उपलब्धियों को भी इसमें शामिल किया जाए.
पाठ्यक्रम को और उपयोगी एवं व्यवसायों उन्मुखी बनाने के लिए इसमें परियोजना कार्य (प्रोजेक्ट वर्क) भी सम्मिलित किया जाना चाहिए. आने वाले समय में यह पाठ्यक्रम कैरियर की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होगा, इसलिए छात्रों को इंटर्नशिप भी कराएं, जिसे कमेटी ने स्वीकार कर लिया.
राष्ट्रवाद से सम्बंधित पाठ्यक्रमों पर सुझाव देते हुए प्रो. सुमन ने ऐसे पाठ्यक्रमों में गांधी और अम्बेडकर के विचारों को विशेष स्थान देने की बात की. उन्होंने शिक्षण कार्यों में आधुनिक तकनीक जैसे की ऑडियो-विजुअल लैब की स्थापना पर भी जोर दिया.
स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य प्रो. हंसराज सुमन ने राजनीति विज्ञान विभाग के पाठ्यक्रम में दलित बहुजन पॉलिटिकल थॉट में दलित शब्द पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई. उन्होंने बताया कि पिछले दिनों दलित शब्द के प्रयोग को लेकर कई राज्यों में प्रतिबंध लगा दिया गया है. इसलिए इस शब्द को पाठ्यक्रम से तुरंत हटाया जाए.
कमेटी चेयरमैन और विभाग शिक्षकों ने अपने पाठ्यक्रम से दलित शब्द हटाने को स्वीकार कर लिया है और कहा कि अब इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाएगा. साथ ही दलित बहुजन क्रिटिक से भी दलित शब्द हटा दिया गया. इसके साथ ही मॉडर्न थिंकर इकाई में अंबेडकर को भी जोड़ लिया गया.
देहरादून। निकाय चुनाव में बसपा ने अल्पसंख्यक कार्ड खेला है. प्रदेश में सक्रिय राजनीतिक दलों में अल्पसंख्यकों को सबसे ज्यादा टिकट बसपा की ओर से दिये गये हैं. बसपा ने मैदान से लेकर पहाड़ तक अल्पसंख्यकों पर भरोसा जताया है.
प्रदेश में 84 नगर निकायों में चुनाव हो रहे हैं. बसपा की ओर से नगर निगम मेयर के साथ ही नगर पालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष की 45 सीटों पर प्रत्याशी घोषित किये गये हैं. बसपा ने 45 में से 14 टिकट अल्पसंख्यकों को दिये हैं. खास बात यह है कि मैदानी जिलाें के निकायों के अलावा बसपा ने पर्वतीय जिलों के कईं निकायों में भी अल्पसंख्यक उम्मीदवारों पर भरोसा जताया है. इन निकायों में जीत के लिए बसपा को दलित-मुस्लिम गठजोड़ को सहारा है.
हालांकि बसपा के प्रदेश पदाधिकारियों का कहना है कि उन्होंने स्थानीय समीकरणों के लिहाज से पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं को टिकट दिये हैं. कांग्रेस की ओर से 9 सीटों पर अल्पसंख्यक प्रत्याशी उतारे गये हैं. वहीं भाजपा ने दो अल्पसंख्यकों को टिकट दिये हैं. भाजपा ने यह दोनों टिकट हरिद्वार जिले के निकाय मंगलौर और पिरान कलियर में दिये हैं.
लखनऊ। सपा से अलग होकर समाजवादी सेक्युलर मोर्चा गठित करने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने मंगलवार को कहा कि उनकी पार्टी का चुनाव आयोग में पंजीयन हो गया है और उसे ‘प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया’ नाम मिला है. शिवपाल ने यहां आयोजित मोर्चा के एक कार्यक्रम में कहा ‘‘हमारी पार्टी का रजिस्ट्रेशन हो गया है. अब हमारी पार्टी का नाम प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया होगा.”जसवंतनगर सीट से अब भी सपा के विधायक शिवपाल ने सपा से अलग होने के कारणों का जिक्र करते हुए किसी का नाम लिये बगैर कहा कि वह हमेशा सपा में एकजुटता चाहते थे, लेकिन कुछ ‘चुगलखोरों और चापलूसों’ की वजह से उन्हें मजबूरन पार्टी से किनारा करना पड़ा.
उन्होंने कहा ‘‘हम तो हमेशा से परिवार और पार्टी में एकता चाहते थे. हमने लम्बे समय तक इंतजार किया लेकिन ना तो मुझे और ना ही नेताजी (सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव) को उचित सम्मान मिला. हमें तो धकेल कर निकाल दिया गया.‘‘ शिवपाल ने अपने समर्थकों से कहा ‘‘मैं आप सबसे कहता हूं कि चापलूसी ना करें. अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसके बारे में बताने के लिये आप स्वतंत्र हैं. मैं अपनी पार्टी को यह आजादी दूंगा.‘‘ मालूम हो कि पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सपा अध्यक्ष बनने के बाद हाशिये पर पहुंचे शिवपाल ने ‘उपेक्षा’ से नाराज होकर पिछली 29 अगस्त को समाजवादी सेक्युलर मोर्चे का गठन किया था. उन्होंने आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का एलान किया था.
लखनऊ छावनी विधानसभा क्षेत्र से सपा के टिकट पर पिछला चुनाव लड़ चुकी मुलायम की छोटी बहू अपर्णा यादव ने पिछले दिनों शिवपाल के साथ मंच साझा करते हुए कहा था कि वह ‘चाचा‘ के साथ हैं. व्यापक जनसमर्थन मिलने का दावा करने वाले शिवपाल ने कहा कि केन्द्र और उत्तर प्रदेश, दोनों ही जगह जनविरोधी सरकार है. उनकी गलत नीतियों और फैसलों से जनता परेशान है. नोटबंदी और जीएसटी ने व्यापारियों के साथ-साथ पूरी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है.
उन्होंने कहा कि भाजपा ने जनता से किये गये वादे पूरे नहीं किये हैं. अवाम उसे चुनाव में जवाब देगी. कार्यक्रम में पूर्व मंत्री शारदा प्रताप शुक्ला ने शिवपाल का स्वागत करते हुए कहा कि उनकी पार्टी आने वाले समय में उत्तर प्रदेश में बड़ी सियासी ताकत बनेगी.
नई दल्ली। गुजरात के फायरब्रांड दलित नेता जिग्नेश मेवाणी का कहना है कि देश में आज भी दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती ही हैं. 2019 के चुनाव में बीएसपी को लेकर उन्हें बहुत उम्मीदें हैं. चुनाव से पहले गठबंधन होगा. इसे कोई रोक नहीं सकता. मेवाणी मानते हैं कि भाजपा, संघ देश के संविधान पर संकट हैं.
मध्यप्रदेश में चुनाव अभियान शुरू कर चुके मेवाणी ने न्यूज 18 से खास बातचीत में कहा कि पूरे देशभर में दलित चेतना की शुरुआत हो चुकी है. जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं. ये भविष्य की तस्वीरें हैं. आज़ादी के बाद पहली बार दलितों में एक किस्म का अंडर करंट दिख रहा है. ये एक नया बदलाव लेकर आएगा.
मेवाणी दावा करते हैं कि आने वाले 10 साल में दलित समाज पूरी तरह से भाजपा से दूर हो जाएगा. हम इस पर काम कर रहे हैं. एट्रोसिटी एक्ट पर हुए संशोधन का कोई असर दलित समाज पर नहीं है. भाजपा भले ही उन्हें इस एक्ट के माध्यम से लुभाने का प्रयास कर रही है लेकिन इसका कोई असर 2019 के चुनाव पर नहीं होगा. इसका कारण है भाजपा के शासन में दलितों पर जितने जु़ल्म हुए हैं, उन्हें बांटने की कोशिश की गई है. ये सब बातें उनके ख़िलाफ जा रही हैं.
2019 के चुनाव और राजनीतिक हालातों पर मेवाणी कहते हैं कि उन्हें पूरा विश्वास है कि बसपा अपने फैसले को फिर बदलेगी. महागठबंधन होगा. आज भी जो चुनावी ताकत उनके पास है, दलितों वोट ट्रांसफर करने का जो पावर उनके पास है वो बहुत अहम भूमिका अदा करेगा. यह खुलकर स्वीकार करने वाली बात है कि आज भी दलितों के पास बहुत कम विकल्प हैं. और वे फिर घूमकर बसपा तक ही पहुंचते हैं.
जिग्नेश मेवाणी मानते हैं कि बसपा सुप्रीमो इस बात को समझती हैं और वो जानती हैं कि उन्हें वक्त के साथ बदलना होगा, वरना बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा. इस सवाल पर कि देश भर में दलितों के आंदोलन हो रहे हैं कई नेता उभर रहे हैं लेकिन देश के सारे दलित नेता एक मंच पर क्यों नहीं दिखाई देते? इस पर वे कहते हैं कि ये आंदोलन कई लोगों और नेताओं का हो चुका है. सबके अपने-अपने व्यक्तिगत अहंकार हैं. जिसे कथित तौर पर सैद्धांतिक लड़ाई बताया जा रहा है. हर कोई यह जताने का प्रयास भी कर रहा है कि वो बाबा साहेब का सच्चा उत्तराधिकारी है.
जिग्नेश मेवाणी राजस्थान की ही तरह मध्यप्रदेश में भी अपना कैंपेन शुरू कर रहे हैं. उनका कहना है राजस्थान में भाजपा के खिलाफ 23 हज़ार से ज़्यादा दलितों ने झंडा उठा लिया है और वो भाजपा को वोट ना देने की बात कर रहे हैं. यही ताकत हम मध्यप्रदेश में पैदा कर रहे हैं. हमारा लक्ष्य 50 हजार दलितों को एकजुट करने का है. ये सोशल मीडिया का ज़माना है और इसने देश के तमाम दलित युवाओं को आव्हान करते हुए एकजुट कर दिया है. मेवाणी कहते हैं कि उनका कैंपेन भाजपा-संघ जैसी फासीवादी ताकतों के ख़िलाफ है. वो कांग्रेस के लिए नहीं दलितों, दबे हुए वर्ग के लिए अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं.
अंबिकापुर| विधानसभा चुनाव के लिए महागठबंधन के नेता पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती 4 नवंबर को यहां एक साथ चुनावी सभा को संबोधित करेंगे. कलाकेंद्र ग्राउंड में सभा के लिए अनुमति मांगी गई है. यहां अनुमति नहीं मिलने पर पीजी काॅलेज ग्राउंड में सभा होगी. पार्टी नेताओं के अनुसार जोगी और मायावती अलग-अलग हेलीकाॅप्टर से यहां आ रहे हैं. जोगी कांग्रेस ने सरगुजा सहित सूरजपुर व बलरामपुर जिले की आठ में से पांच सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है जबकि अंबिकापुर, लुंड्रा व सामरी में अभी तक प्रत्याशी घोषित नहीं हुए हैं. तीनों सीटें गठबंधन में बीएसपी को दी गई हैं.
सीतापुर में मुन्ना टोपो की जगह सेतराम बड़ा पर दांव: जोगी कांग्रेस ने सरगुजा जिले की सीतापुर विधानसभा सीट पर अपने घोषित प्रत्याशी जिला पंचायत सदस्य मुन्ना टोप्पो को बदल दिया है. तीन दिन पहले ही प्रत्याशी की घोषणा हुई थी. मुन्ना टोप्पो की जगह मैनपाट क्षेत्र के कोटछाल पंचायत के उप सरपंच सेतराम बड़ा को प्रत्याशी बनाया गया है.
न्यू इंडिया की भयावह तस्वीर देखने आया हूँ,
उत्तर भारतीयों के लिए बन रहा दूसरा कश्मीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
सुना है मराठियों के बाद, गुजरातियों ने भी स्वतंत्र भारत के एक स्वतंत्र राज्य पर अपना दावा ठोंक दिया है,
मैं तुम्हारी वही कथित जागीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
हमेशा से सुनता आया था कि बहुत मीठे होते हैं गुजराती,
लेकिन मैं उनकी यह नई कड़वी तासीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
जो लक्ष्मण रेखा तुमने हम यू०पी०-बिहारियों के लिए गुजरात की बाहरी सीमा पर खींच रखी है,
लाओ दिखाओ मुझे भी, मैं वो लकीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
एक ज़माने में अंहिसा का पुजारी एक फ़कीर पैदा हुआ था यहाँ,
अब वो अहिंसा रूपी गाँधी तो बचा नहीं गुजरात में, मैं तो बस अब उनकी अश्क बहाती तस्वीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
देश की सीमा पर लड़ने वाले, खेतों में हल चलाने वाले और मजबूरी में यहाँ रहकर अपना पेट पालने वाले हम लोगों को तुम जो मार भगा रहे हो,
लाओ दिखाओं मुझे गुजरातियों, तुम्हारी बपौती में ये गुजरात कहाँ लिखा है ? मैं वो तहरीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 कि जो तुम धज्जियाँ उड़ा रहे हो, अखंड भारत को खंड-खंड जो तुम बना रहे हो,
कानून को अपने हाथों का खिलौना बनाए तुम गुजरातियों की भारतीय संविधान से हो रही हिंसक तकरीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
हमारे मेहनतकश मजदूरों और मजबूरों के जिस्मों को छलनी कर रही हैं जो तुम्हारी तलवारें,
कितनी धार है उसमें, ज़रा दिखाओ मुझे भी, मैं वो पूँजीवादी शमशीर देखने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
तुम्हारे शोषण और अत्याचार के दमन चक्र की बेड़ियों में जो जकड़े रहें हैं हमारे लोग,
इंतेहा हो गई है अब तुम्हारे ज़ुल्म की, इसलिए मैं वो जंज़ीर तोड़ने आया हूँ,
मैं गुजरात आया हूँ…
प्रतीक सत्यार्थRead it also-हिंदी दलित साहित्य का धारावी केन्द्र शाहदरा-दिल्ली
यूपी के महोबा जिले में बसपा के प्रदेश अध्यक्ष आर एस कुशवाहा ने शहर के गुलाब पैलेस में बसपा के सेक्टर और बूथ कमेटी की बैठक समीक्षा की. एक घंटे तक चली समीक्षा के दौरान बूथस्तर के कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनाव में टीम बनाकर जुटें. बिना नाम लिए भाजपा को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि हमारी लड़ाई एक ताकतवर से है. पता नहीं, वह कौन सा जुमला लेकर लोकसभा चुनाव में आए जाएं. इसलिए हमें होशियार रहने की जरूरत है. कहा कि भाजपा ने किसानों को कर्जमाफी के नाम पर धोखा दिया है.
प्रदेश अध्यक्ष गुलाब पैलेस में बसपा के विशाल कार्यकर्ता सम्मलेन को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि चंद्रशेखर, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल के पास थोड़े सांसद होने के बाद भी वह देश के प्रधानमंत्री बने तो मायावती देश की प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकती.
पूर्व राज्यमंत्री एवं बुंदेलखंड प्रभारी जीसी दिनकर ने कहा कि कुछ दल हिंदू-मुस्लिम भाइयों को लड़ाकर राजनैतिक रोटियां सेकने का काम कर रही है जबकि मायावती ने सभी जातियों का आपसी भाईचारा बनाने का काम किया है.
IGNOU B.Ed 2018: इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी(इग्नू) ने जनवरी 2019 सेशन के दो वर्षीय बीएड प्रोग्राम के लिए आवेदन मंगाए हैं. आवेदन इग्नू की ऑफिशियल वेबसाइट ignou.ac.in पर जाकर ऑनलाइन माध्यम से आवेदन कर सकते हैं. इग्नू के इस पाठ्यक्रम में एंट्रेंस टेस्ट के माध्यम से एडमिशन होगा. ये एंट्रेंस टेस्ट दिसंबर महीने में आयोजित किया जाएगा. बीएड पाठ्यक्रम में दाखिले के लिए आप 15 नवंबर तक अप्लाई कर सकते हैं.
योग्यता
आवेदक को साइंस/सोशल साइंस/कॉमर्स/आर्ट्स में 50 फीसदी अंकों को साथ बैचलर्स या मास्टर्स डिग्री होना जरूरी है. साइंस या मैथ्स के स्पेशलाइजेशन के साथ बीटेक किए हुए उम्मीदवारों के लिए 55 फीसदी अंक निर्धारित किए गए हैं. इसके अलवा प्राथमिक शिक्षण के लिए प्रशिक्षण प्राप्त और एनसीटीई से अधिकृत संस्थान से शिक्षक शिक्षण कार्यक्रम पूरा किए हुए उम्मीदवार भी अप्लाई कर सकते हैं.
इन्हें मिलेगी छूट
केंद्र सरकार के नियमों के मुताबिक एससी, एसटी, ओबीसी(नॉन क्रिमी लेयर) और दिव्यांग उम्मीदवारों को न्यूनतम शैक्षिक योग्यता में 5 प्रतिशत की छूट दी जाएगी. विश्वविद्यालय के नियमों के मुताबिक कश्मीरी माइग्रेंट्स और युद्ध विधवाओं को इसमें आरक्षण दिया जाएगा. आवेदन यूविरव्सिटी के पोर्टल पर केवल ऑनलाइन माध्यम से ही स्वीकार किए जाएंगे.
बता दें इग्नू का बीएड प्रोग्राम एनसीटीई(नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन) द्वारा संचालित किया जाता है. ये पाठ्यक्रम हिंदी और अंग्रेजी दोनों माध्यमों से आयोजित होता है. इग्नू के ऑफिशियल वेबसाइट के मुताबिक इग्नू से बीएड करने की फीस 50 हजार रुपए निर्धारित किया गया है.
ऐसे करें IGNOU B.Ed 2018 के लिए अप्लाई
इसके लिए आपको ऑनलाइन माध्यम से ही अप्लाई करना होगा. ऑनलाइन अप्लाई करने के लिए इग्नू के ऑफिशियल वेबसाइट पर एडमिशन टैब onlineadmission.ignou.ac.in/admission पर जाएं.