साहित्यिक जनतंत्र के प्रणेता : राजेन्द्र यादव

फाइल फोटो

राजेन्द्र यादव बड़े जीवट वाले व्यक्ति थे. बचपन में नाटक में अभिनय के दौरान वाण लगने से उनकी एक आंख चली गयी. हाॅकी के खेल में चोट लगने से एक पैर फैक्चर हो गया. पर इन तकलीफों पर सोचने का उनके पास वक्त नहीं था. उनके मन-मस्तिष्क में कुछ और चल रहा था. वे जिद्दी स्वभाव के थे. इसीलिए अपनी तकलीफों पर वे ज्यादा नहीं सोचते थे. कहते थे ‘इससे मानसिक अशांति पैदा होगी, मुझे मानसिक रूप से उतनी फुर्सत नहीं है कि तकलीफों पर सोच सकूं.’ वे बेहद पढ़ाकू थे. उन पर लिखने की धून सवार थी.

शुरू में वे ‘चेखव’ से काफी प्रभावित थे, पर जल्द ही उससे मुक्त हो गए. फिर ‘कफ्का’ ने उन्हें गहरे रूप से प्रभावित किया. वैसे हिमिंग्वे, स्वाइग, कामू, सात्र्र, मार्खेज, हेराल्ड, पिंटर, बर्नार्ड शाॅ, बर्टेड रसेल, टैगोर, बच्चन, रेणु, फैज, मार्क ट्वेन, आॅस्कर वाइल्ड, दाॅस्तोव्स्की, टाॅलस्टाॅय, ब्लादिमीर नोबोकोव जैसे दर्जनों साहित्याकारों और विचारकों की रचनाओं व विचारों का उन्होंने अध्ययन किया था. पर इनमें से उनका कोई रोल माॅडल नहीं था. वे स्वतंत्र लेखकीय व्यक्तित्व में विश्वास रखते थे.

राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त, 1929 को आगरा में हुआ था. 1951 में उन्होंने लिखना शुरू किया. उस समय तक पश्चिमी अभिजात्यवाद, नव-अभिजात्यवाद ;छमू ब्संेेपबपेउद्धए स्वच्छंदतावाद ;त्वउंदजपबपेउद्ध तथा भारतीय छायावाद जैसी साहित्यिक विचारधाराएं तो गौण हो गईं थीं. चाल्र्स डार्विन का विकासवाद, सिग्मंड फ्रायड, एल्फेड एडलर एवं कार्ल गुस्ताफ युंग (जुंग) का मनोविश्लेषणवाद तथा माक्र्स, माओत्से तुंग तथा ग्राम्शी की प्रगतिवादी विचारधाराएं साहित्य सृजन को प्रभावित कर रही थीं. राजेन्द्र यादव भी इन नवीन विचारधाराओं से अछूते नहीं थे वे कहते थे कि ‘ऐसा साहित्य जो प्रश्न नहीं उठाता, असहमति नहीं पैदा करतेा है, वह समाज में रचाना में, बदलाव नहीं आने देगा. ऐसे साहित्य का उद्देश्य क्या हो सकता है? मेरे लिए साहित्य का मतलब यथास्थिति का कहीं न कहीं प्रतिरोध करना है.’ निश्चित रूप से ‘प्रतिरोध’ की यह शक्ति उन्हें माक्र्सवाद से ही मिली. वे मानते थे कि साहित्य की पारंपरिक विधा ‘कविता’के माध्यम से इस ‘प्रतिरोध’ को वर्तमान परिपे्रक्ष्य में अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता. यह विधा अब पुरानी पड़ चुकी है. ‘आज की भाषा या किसी औद्योगिक समाज की भाषा, दूसरे शब्दों में जनतांत्रिक समाज की भाषा, कविता नहीं, गद्य ही होती है. …कविता ने छायावाद तक तो मुख्यधारा बनाए रखी, उसके बाद नहीं. कविता सवाल नहीं उठाती है. आप देखो कि मौथिलीशरणगुप्त एक समय में कितने बड़े कवि थे, आज कहीं हैं ही नहीं. तमाम पौराणिक चीजों को उन्होंने नए तरह से व्याख्यायित करने की तो केशिश की, उन पर सवाल नहीं उठाए. उन चीजों में उनकी श्रद्धा फिर भी रही. और श्रद्धा से तो आप ‘विनय पत्रिका’ ही लिख सकते हैं.’ (‘कथादेश’, दिसम्बर 2013, पृ. 21-22)

राजेन्द्र यादव ने अपनी सूक्षम अंतर्दृष्टि से यह जान लिया था कि कविता में प्रतिरोध की अब शक्ति नहीं रही, सो उन्होंने ‘गद्य’ का चुनाव किया. अपने लेखक मित्रों मोहन रोकश एवं कमलेश्वर के साथ ‘नयी कहानी’ की सूत्रपात की. उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए. देवताओं की मूर्तियां (1951), खेल-खिलौने (1953), जहां लक्ष्मी कैद है (1957), अभिमन्यु की आत्महत्या (1959), छोटे-छोटे ताजमहल (1961), किनारे से किनारे तक (1962), टूटना (1966), चैखटें तोड़ते त्रिकोण (1987), यहां तकः पड़ाव-1, पड़ाव-2 (1989), श्रेष्ठ कहानियां, प्रिय कहानियां, प्रतिनिधि कहानियां, प्रेम कहानियां, चर्चित कहानियां, मेरी पच्चीस कहानियां तथा हैं जो आतिश गालिब (2008). इन कहानियों के माध्यम से उन्होंने सामाकजिक रूढ़ियों, विषमताओं, विडम्बनाओं को न सिर्फ रेखांकित किया है, बल्कि सामाजिक-नैतिक मूल्यों पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं.

राजेन्द्र यादव के उपन्यासः प्रेत बोलते हैं (1951) (बाद में यह ‘सार आकाश’ के नाम से 1959 में प्रकाशित हुआ), उखड़े हुए लोग (1956), कुलटा (1958), शह और मात (1959), अनदेखे अनजान पुल (1963), एक इंच मुस्कान (1963, पत्नी के साथ) मंत्रविद्ध (1967) तथा एक था शैलेंद्र (2007) में भी सामाजिक-नैतिक प्रतिरोध पूरी समग्रता के साथ उपस्थित हुआ है.

प्रतिरोध की यह शक्ति उनकी औपन्यासिक आलोचना-दृष्टि में भी दिखाई पड़ता है. ‘अठारह उपन्यास’ (1981) उनकी एक लम्बी आलोचनात्मक यात्रा का चिंतन है, जो 1951 से प्रारंभ होकर 1981 तक फैला हुआ है. प्रेमचंदोत्तर उपन्यासों की आलोचना में उनहोंने आलोचना की परंपरागत पद्धति को स्वीकार नहीं किया. ‘उपन्यासः स्वरूप और संवेदना’ (1998) में उन्होंने आधुनिक प्रतिमानों का समावेश किया है. इस दृष्टि से ‘कहानीः स्वरूप और संवेदना’ (1968), ‘प्रेमचंद की विरासत’ (1978), ‘ औरों के बहाने’ (1981) भी उल्लेखनीय आलोचनात्मक कृतियां हैं. ‘एक दुनिया समानांतर’ (1967) की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. अन्य आलोचनात्मक कृतियों-निबंधों: कांटे की बात (1994), मेरा साक्षात्कार (1994), कहानीः अनुभव और अभिव्यक्ति (1996), आदमी की निगाह में औरत (2001), वे देवता नहीं हैं (2001), मुड़-मुड़ के देखता हूं (2002), नरक ले जाने वाली लिफ्ट (2002), मैं ‘हंस’ नहीं पढ़ता (2006), अब वे वहां नहीं रहते (2007), काश मैं राष्ट्रद्रोही होता (2008), स्वस्थ आदमी के बीमार विचार (2012) में भी उन्होंने गंभीर प्रश्न उठाए हैं.

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राजेन्द्र यादव ने न सिर्फ कहानी एवं उपन्यास लेखन के पारंपरिक पद्धति में बदलाव किया, बल्कि हिंदी साहित्य के जनतंत्रीकरण में भी महत्वपूर्ण रोल अदा किया. उन्होंने हांशिये के लोगों को साहित्य के केन्द्र में लाकर एक नई वैचारिकी निर्मित की. वे कहते थे कि हमारा साहित्य कुलीन लोगों का साहित्य रहा है, इसमें हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज छूट गई है. यही वजह है कि उन्होंने ‘हंस’ के माध्यम से ‘स्त्री विमर्श’ एवं ‘दलित विमर्श’ को काफी बढ़ावा दिया. दलित चिंतक कंवल भारती कहते हैं कि ‘वे हिंदी साहित्य में नए विमर्श के सम्राट थे. साहित्य में प्रगतिशील चिंतन तो पहले भी था, लेकिन वह ब्राह्मणवादी विचारधारा से प्रभावित था. राजेन्द्र यादव ने उस चिंतन को ब्राह्मणवाद से मुक्त करने में जो भूमिका निभायी, वह अद्वितीय है. ‘हंस’ में अपने संपादकीय लेखों के माध्यम से जिस सामाजिक परिवर्तन की धारा चलायी उसका मुकाबला कोई संपादक और कोई लेखक नहीं कर सकता. …अपने स्त्री-विमर्श में जिन खौलते हुए सवालों को उन्होंने उठाया था, उसके लिए उन्हें भारतीय संस्कृति के ‘रक्षकों’ से क्या-क्या नहीं सुनने को मिला. यहां तक कि तथाकथित नारीवादियों तक ने उन्हें खरी-खोटी सुनाई. बावजूद इसके उन्होंने अपनी हट आलोचना और हर कुतर्क का जवाब और भी विचारोत्तेजक और नए-नए तर्कों के साथ दिया. (‘प्रभात खबर’, पटना, 30 अक्तूबर 2013)

वरिष्ठ साहित्यकार वीरेन्द्र यादव कहते हैं कि ‘यह स्वीकार करना होगा कि राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के माध्यम से साहित्यिक कुलीनतावाद और कलावाद को सशक्त चुनौती दी थी. जब समूची हिन्दी पट्टी में सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरतावाद की आंधी चल रही थी, तब ऐसे दौर में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में ही नहीं, बल्कि धार्मिक कूढ़मगजता के विरुद्ध भी अभियान छेड़ा था. परिणामस्वरूप उन्हें मुकदमे, अदालतों और जमानत आदि के खतरों और झंझटों से भी गुजरना पड़ा था. सही अर्थों में राजेन्द्र यादव एक ऐसा ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ थे, जो राजनीति संस्कृति और समाज के हर पहलू पर प्रगतिशील दृष्टिकोण रखते थे. यह सचमुच विस्मयकारी है कि वे यह सब अपनी उस बढ़ी हुई उम्र में कर सके थे, जब सामान्यतः लोग संन्यास की आरामदायक मुद्रा में यथास्थितिवाद के पैरोकार और वर्चस्व की सत्ता के मुखापेक्षी हो जाते हैं.

राजेन्द्र यादव अपने सामाजिक सरोकारों और लेखन में ही नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व में भी पूरी तरह जनतांत्रिक थे. जिस तरह ‘हंस’ के पृष्ठों पर असहमति और बहस की पूरी छूट थी, उसी तरह ‘हंस’ के कार्यालय की अड्डेबाजी में भी. राजेन्द्रजी युवतम लेखकों को भी बहस और असहमति की पूरी छूट ही नहीं देते थे, बल्कि उसका सम्मान भी करते थे. यही कारण था कि ‘हंस’ जितना एक पत्रिका का कार्यालय था, उससे कहीं अधिक साहित्यिक अड्डेबाजी का केन्द्र. समूचे देश में साहित्यकारों के लिए ‘हंस’ कार्यालय दिल्ली पहुंचने पर अनिवार्य गंतव्य होता था. राजेन्द्र जी के ठहाकों से गुंजायमान इस अड्डे पर पहुंचते ही उम्र और पीढ़ियों की दूरियां पल भर में तिरोहित हो जाती थीं. (वही)

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दलित साहित्यकार श्योराज सिंह बेचैन, जो रोन्द्र यादव से खासा प्रभावित रहे हैं, कहते हैं कि ‘राजेन्द्र यादव ने दलित अधिकार को सैद्धांतिक विमर्श का विषय बनाने का बड़ा काम ‘हंस’ के जरिए किया. उन्होंने ‘हंस’ की विषय-वस्तु को अधिक लोकतांत्रिक और विविधतासम्पन्न बनाया, जिससे दलितों में राजेन्द्र यादव को सिर-माथे रखने वाला ‘हंस’ का बड़ा पाठक वर्ग पैदा हुआ. रोजन्द्र यादव और ‘हंस’ के कारण दलित लेखकों को मुख्यधारा में पहचाना जाने लगा, जो इससे पहले अपनी सामुदायिक पत्रिकाओं के सीमित पाठकीय दायरे में ही पढ़े जाते थे. ‘हंस’ सामाजिक दृष्टि से अगड़ों, पिछड़ों, हिंदू, मुस्लिमों, ब्राह्मणों, दलितों-सब में जाती रही है. यहां तक कि वह मराठी, पंजाबी आदि गैर-हिंदी क्षेत्रों में और साहित्येतर विषयों- जैसे रानीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र आदि से जुड़े लोगों के बीच भी पढ़ी जाती रही है. ऐसी पत्रिका जिसमें दलित साहित्य को जगह देकर राजेंद्र यादव ने पहचान का बड़ा क्षितिज उपलब्ध कराया. दलित रचनाओं की मार्फत एक बड़ा पाठक वर्ग दलित जीवन और उसकी समस्याओं से परिचित हुआ.

अस्पृश्यता का भाव रखने वाले और जातिगत अभिमान और ज्ञान के गुरुर में डूबे संपादक दलित लेखकों को अपने कक्ष में घुसने तक नहीं देते थे, जबकि राजेन्द्र यादव उनके साथ एक ही थाली में खाते और खिलाते थे. दलित लेखकों के घर जाते थे. सारी दूरियां मिटाते थे. दलितों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध कितने ही संपादकीय उन्होंने लिखे, वे साहित्य और चिंतन में दलितों के खुद के नेतृत्व को प्रेरित कर रहे थे और उसे व्यापक स्तर पर स्वीकार्य बनाने की राह बना रहे थे.

दलित साहित्य के विरोधी यादवजी के साथ ‘हंस’ के सहयोगियों तक में मौजूद थे, जो दलित रचना को पूर्वाग्रह से देखते/देखती थीं. राजेन्द्र यादव छापते तो वे कहते कि यह आरक्षण दिया जा रहा है और आरक्षण का मतलब मैरिट का न होना था, जबकि हंस में दलितों की भी कच्ची रचना वे नहीं छापते थे. उन्होंने मुझसे कितनी ही बार प्रतिप्रश्न किया था कि क्या तुम पांचवीं पासको यूनिवर्सिटी में एडमिशन दिला दोगे? नहीं न! …तो मान लो ‘हंस’ साहित्य की यूनिवर्सिटी है.’ (‘हंस’ दिसम्बर 2013, पृ. 81) हालांकि राजेन्द्र यादव ने यह स्वीकार किया था कि जो जैन्युन है हम उन्हें कुछ रियायत देते हैं. वे इसे ‘डेमोक्रेटिक राइट’ के रूप में देखते थे.

इस प्रकार हम देखते हैं राजेन्द्र यादव का पूरा उद्यम हिन्दी साहित्य के लोकतंत्रीकरण का उद्यम है. उनका व्यक्तित्व कबीर-फुले आम्बेडकर के वैचारिकी से निर्मित था. उन्होंने अभिजात्य हिन्दी साहित्य की न सिर्फ बखिया उधेड़ी, बल्कि हिन्दी साहित्य में सभी वर्गों का समावेश कर लोकतंत्रीकरण किया. यही वजह है कि कुछ लोग उन्हें साहित्य का बीपी सिंह कहते हैं. हालांकि बीपी सिंह को वंचित वर्ग को शासन में भागीदारी (आरक्षण) देने के तुरंत बाद सत्ता गवांनी पड़ी थी, पर राजेन्द्र यादव की सत्ता को चुनौती देने की हैसियत किसी में नहीं थी. वे जबतक रहे तबतक शीर्षस्थ रहे. उन्होंने अपने युग का मजबूती से नेतृत्व किया.

रामकृष्ण यादव

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