5वीं की दलित छात्रा का अपहरण कर रेप

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प्रतिकात्मक फोटो

पलवल। सुबह-सुबह दौड़ने निकली एक 5वीं की दलित छात्रा से रेप का मामला सामने आया है. बताया गया कि आरापित ने पहले तो पीड़िता का अपहरण किया और उसके बाद वारदात को अंजाम दिया. विरोध करने पर जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया और जान से मारने की धमकी दी. महिला थाना पुलिस ने इस मामले में 19 साल के युवक के खिलाफ अपहरण, रेप और एससी-एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज किया है. मेडिकल जांच के दौरान रेप की पुष्टि हुई है.

डीएसपी विजय पाल ने बताया कि छात्रा अपनी बड़ी बहन के साथ रोजाना दौड़ की प्रेक्टिस करती है. 8 दिसंबर को छात्रा अकेली ही प्रैक्टिस के लिए अपने घर से करीब चार बजे निकली. इस दौरान छात्रा को 19 साल के एक युवक ने पकड़ लिया और घसीट कर अपने घर ले गया. विरोध करने पर छात्रा को जाति सूचक शब्दों से अपमानित करते हुए जान से मारने की धमकी दी और उसके बाद उससे रेप किया. वारदात कर युवक छात्रा को बेहोशी की हालत में छोड़कर फरार हो गया. होश में आने पर छात्रा को युवक के परिजनों व अन्य लोगों ने घर पहुंचाया. घर जाकर छात्रा ने घटना की जानकारी अपने परिवार के सदस्यों को दी. आरोपी युवक के डर की वजह से पीड़ित छात्रा डरी और सहमी रही. बुधवार को छात्रा और उसके परिजनों ने महिला थाना पुलिस को शिकायत दी. पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच मेडिकल जांच करवाई, जिसमें रेप की पुष्टि हुई.

डीएसपी के मुताबिक छात्रा ने रेप का आरोप शमशाबाद निवासी 19 वर्षीय सोनू नामक युवक पर लगाया है. आरोपी को अरेस्ट करने के लिए पुलिस दबिश दी, लेकिन वह अपने घर से फरार हो गया. पुलिस का कहना है कि आरोपी युवक को अरेस्ट करने के लिए पुलिस लगातार दबिश दे रही है.

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दलित दस्तक मैग्जीन का दिसम्बर 2018 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2018 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए सांतवें साल का सातवां अंक लेकर आए हैं. इस अंक के साथ ही दलित दस्तक ने एक नया बदलाव किया है. इसके तहत अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

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एटा में दलित की बारात में जातिवादियों ने की जमकर मारपीट

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हाथरस से आई दलित की बारात में दबंगों ने जमकर हुड़दंग काटा, मारपीट की. दलित पक्ष ने विरोध किया. जब तक लोग इसे शांत करा पाते, दोनों ओर से तीन लोग घायल हो चुके थे. दलित पक्ष ने गांव के ही दबंगों पर मारपीट का मुकदमा दर्ज कराया है. वहीं दबंग पक्ष ने भी मारपीट की रिपोर्ट दर्ज कराई है. गांव में एहतियातन फोर्स तैनात कर दिया गया है.

कोतवाली देहात में दलित पक्ष के रिंकू ने शिकायत दर्ज कराई कि बुधवार की रात गांव असरौली अमर सिंह की बेटी दीपक की शादी थी. हाथरस से बारात आई थी. गांव के ही दबंग परिवार के घर भी बारात आई थी. आरोप है कि दलित की बारात में डॉ. भीमराव आंबेडकर का फोटो देखकर दबंग भड़क गए. बारातियों की पिटाई कर दी. फोटो को क्षति पहुंचाई. बारात चढ़ने से रोक दी गई. इसमें दबंग अतेंद्र पुत्र अमर सिंह, ठाकुर और रामू पुत्रगण ब्रजेश, बहोरन सिंह व अन्य पर मारपीट, हुड़दंग, आंबेडकर के पोस्टर फाड़ दिए. बाद में दलित की बारात को सामान्य ढंग से ही ले जाना पड़ा.

वहीं ठाकुर वीरेंद्र सिंह ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि गांव में रिटायर्ड कांस्टेबल चंद्रपाल सिंह की बेटी की शादी थी. बारात आई तो दलित पक्ष के रिंकू और उनके साथियों ने बारातियों से मारपीट की. इसमें रामू व एक अन्य घायल हो गए. दोनों के कान और नाक में चोट आई है. रामू को जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है. दोनों पक्षों की ओर से मारपीट की शिकायत के बाद दोनों पक्षों के नेताओं ने बैठकर समझौते की बात कराई, लेकिन काफी देर वार्ता के बाद भी कोई पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ और दोनों पक्षों का मुकदमा दर्ज कराया गया.

एएसपी क्राइम ओपी सिंह ने बताया की दोनों पक्षों की शिकायत के आधार पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया है. घटना की जानकारी मिलते ही थाना प्रभारी को मौके पर भेजा गया था. गांव में एहतियातन पुलिसबल तैनात कर दिया गया है.

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दलितों का हनुमान मंदिर पर कब्जा ब्राह्मणशाही के खात्मे की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल

हाल ही में एक चुनावी सभा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा किया कि हनुमान दलित थे. प्राख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव द्वारा हनुमान को विश्व का पहला आतंकवादी घोषित किये जाने के वर्षों बाद रामदास हनुमान को लेकर योगी द्वारा की गयी टिपण्णी सबसे ज्यादा चांचल्य सृष्टि की है. उनके बयान के बाद हिन्दू देवी-देवताओं की जाति चिन्हीकरण का एक नया दौर शुरू हो गया है.इसे लेकर योगी खुद अपनी जमात अर्थात साधु –संतों के निशाने पर आ गए हैं. दूसरी ओर उनके बयान के जारी होने के बाद आगरा के एक हनुमान मंदिर पर दलितों ने अपना कब्ज़ा जमा लिया है. दलितों द्वारा मंदिर पर कब्जे ज़माने के बाद यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि जिस जाति के जो देवता है, उस जाति देवता के मंदिरों का पूजा- पाठ सहित सम्पूर्ण का नियंत्रण उस जाति से सम्बद्ध समुदायों को सौंप दिया जाय. इस क्रम में विश्वकर्मा मंदिर लोहारों को, कृष्ण मंदिर यादवों को,राममंदिर क्षत्रियों इत्यादि को सौपने की बात सोशल मीडिया में उठ रही है. इससे उन लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गयी है, जो मंदिरों पर ब्राह्मणों के एकाधिकार के ध्वस्त होने का वर्षों से सपना देख रहे थे. किन्तु भारी आश्चर्य की बात यह है कि मंदिरों पर गैर-ब्राह्मणों के कब्जे को लेकर सर्वाधिक आपत्ति ब्राह्मणों में नहीं, उन दलितों में है, जिनके लिए सदियों से देवालयों के द्वार बंद रहे हैं और आज भी हैं. इसलिए इस समुदाय के बुद्धिजीवी मंदिरों पर कब्ज़ा ज़माने के लिए आमादा जातियों, खासकर दलितों को हतोत्साहित करने के लिए सोशल मीडिया पर तरह-तरह की युक्ति खड़ी करते हुए प्रचारित कर हैं कि बाबा साहेब ने मंदिरों पर, नहीं संसद पर कब्ज़ा करने का निर्देश दिया था. इनके इस अभियान में गैर-दलित बहुजनों के साथ प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का भी खासा सहयोग मिल रहा है.

बहरहाल गैर-ब्राह्मण जातियों द्वारा मंदिरों पर कब्जे के अभियान को हतोत्साहित करने जुटे बहुजन और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने बता दिया है कि वे क्यों अबतक भारत में सामाजिक परिवर्तन तथा वर्ण-व्यवस्था के वंचित दलित, आदिवासी, पिछड़े और आधी आबादी के सशक्तिकरण में अबतक व्यर्थ रहे हैं. वे अपनी बौद्धिक दारिद्र्ता के चलते यह जान ही नहीं पाए कि दुनिया के दूसरे वंचित समुदाय अश्वेतों, महिलाओं इत्यादि की भांति ही भारत के वंचितों की दुर्दशा व अ-शक्तिकरण का एकमेव कारण शासकों द्वारा उनका शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक) बहिष्कार है और बिना शक्ति के समस्त स्रोतों में इनकी वाजिब हिस्सेदारी सुलभ कराये इनका मुकम्मल सशक्तिकरण हो ही नहीं सकता. वे यह समझने में व्यर्थ रहे हैं कि समाज के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों के असमान बंटवारे से ही आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की सृष्टि होती है. अगर इसकी थोड़ी उपलब्धि किया भी तो वे धर्म को शक्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत समझने में पूरी तरह व्यर्थ रहे. धर्म को विषमता का बड़ा कारक न मानने के कारण ही अधिकांश संगठन वंचितों को मात्र आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में हिस्सेदारी दिलाने तक अपनी गतिविधियों को महदूद रखे.

शक्ति के स्रोत के रूप में धर्म की उपेक्षा दुनिया के तमाम चिन्तक,जिनमें मार्क्स भी रहे, ही किये और आज भी किये जा रहे हैं. यह एकमात्र बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर थे जिन्होंने जोर गले से कहा था कि धर्म भी शक्ति का एक स्रोत होता है और शक्ति के रूप में ‘धर्म की शक्ति’ का महत्त्व ‘आर्थिक शक्ति’ से ज्यादा नहीं तो किसी प्रकार कम भी नहीं. प्रमाण देते हुए उन्होंने बताया था कि प्राचीन रोमन गणराज्य में प्लेबियन बहुसंख्य होकर भी अगर अपने अधिकारों से वंचित रहे तो इसलिए कि धार्मिक शक्ति डेल्फी के मंदिर के पुजारी के पास होती थी, जो शासक पैट्रीशियन जाति का होता था. भारत में धार्मिक शक्ति की महत्ता प्रमाणित करते हुए उन्होंने कहा था ,’क्यों बड़े से बड़े लोग साधु-फकीरों के पैर छूते हैं ? क्या कारण है कि भारत के लाखों लोग अंगूठी-छल्ला बेंचकर काशी व मक्का जाते हैं?भारत का तो इतिहास इस बात का साक्षी है कि यहां पुरोहित का शासन,मजिस्ट्रेट के शासन से बढ़कर है.’

बहरहाल जो धर्म शक्ति के स्रोत के रूप में आर्थिक शक्ति के समतुल्य है, सारी दुनिया में ही उसका लाभ पुरोहित वर्ग जरुर उठाता रहा है, किन्तु एक सामाजिक समूह के रूप इसका लाभार्थी वर्ग केवल भारत में ही विकसित हुआ. शेष धर्मों में पुरोहितों को इसका लाभ व्यक्तिगत रूप से मिलता रहा. कारण, हिन्दू धर्म को छोड़कर बाकी धर्मों में पुरोहित बनने के दरवाजे सभी समूहों के लिए मुक्त रहे,सिवाय उनकी महिलाओं के. हालांकि 1886 भागों में बंटे ब्राह्मणों में सभी को पौरोहित्य का अधिकार कभी नहीं रहा. पर, चूँकि भारत के विभिन्न अंचलों में फैले छोटे-बड़े असंख्य मंदिरों के पुजारी वहां के कुछ खास ब्राह्मण ही हो सकते थे, इसलिए असंख्य भागों में बंटे ब्राह्मण पुरोहित वर्ग में तब्दील हो गए. इससे जिन ब्राह्मणों को पौरोहित्य का अधिकार नहीं रहा, वे भी आम लोगों में पुरोहित ब्राह्मणों के समान ही सम्मान पाने लगे. पौरोहित्य के अधिकार ने ही ब्राहमणों को ‘भूदेव’ के आसन पर बिठा दिया: हिन्दू समाज में सर्वोच्च बना दिया.

इस अधिकार से वंचित होने के कारण ही क्षत्रिय ‘जन-अरण्य का सिंह’ होकर भी दस वर्ष तक के बालक ब्राह्मण को पिता समान सम्मान देने के लिए विवश रहे. इस क्षेत्र का अनाधिकारी होने के नाते ही सदियों से भारतीय नारी हर जुल्म सहते हुए पति के चरणों में, पति चाहे लम्पट व कुष्ठ रोगी ही क्यों हो, स्वर्ग तलाशने के लिए ही अभिशप्त रही. वैसे तो पौरोहित्य के अधिकार से वंचित रहने के कारण तमाम अब्राह्मण जातियों की हैसियत ब्राह्मणों के समक्ष निहायत ही तुच्छ रही, किन्तु सर्वाधिक बदतर स्थिति दलितों की हुई. पुरोहित बनना तो दूर उन्हें मंदिरों में घुसकर ईश्वर के समक्ष हाथ जोड़कर प्रार्थना करने तक का अधिकार नहीं रहा. अगर ब्राह्मणों की भांति दलितों को भी अबाध रूप से मंदिरों में प्रवेश और पौरोहित्य का अधिकार रहता तब क्या वे मानवेतर प्राणी में तब्दील होते? क्या तब भी हिन्दू उनके साथ अस्पृश्यता मूलक व्यवहार करते? सच तो यह है कि धार्मिक सेक्टर से सम्पूर्ण बहिष्कार ही दलितों के प्रति अस्पृश्यतामूलक व्यवहार का प्रधान कारण है. हिन्दू सोचते है जब दलित देवालयों से ही अछूत के रूप में बहिष्कृत हैं तो हम उनसे सछूत जैसे व्यवहार क्यों करें!

बहरहाल कल्पना किया जाय कोई चमत्कार घटित हो जाता है और समस्त आर्थिक गतिविधियों, राजनीति की संस्थाओं तथा ज्ञान के क्षेत्र मे ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रातिशूद्र और उनकी महिलाओं को वाजिब हिस्सेदारी मिल जाति है.पर, अगर पौरोहित्य पर ब्राह्मणों का एकाधिकार पूर्ववत रहता है, क्या हिन्दू समाज में समता आ पायेगी? हरगिज नहीं ! हिन्दू समाज को समतावादी बनाने के लिए पौरोहित्य का प्रजातंत्रीकरण करना ही होगा. अर्थात जिस समाज की जितनी संख्या है, उस अनुपात में पौरोहित्य में उसके स्त्री और पुरुषों को भागीदारी सुनिश्चित करनी ही होगी. अगर ऐसा नहीं किया गया तो तमाम तरह की बराबरी हासिल करने के बादजूद तमाम गैर-ब्राह्मण जातियां ब्राह्मणों के कदमों में लोटती रहेगी. ऐसे में हर हाल में धार्मिक शक्ति का बंटवारा जरुरी है. अगर भारतीय समाज धार्मिक शक्ति के बंटवारे के लिए मन बनाता है तो इसमें डॉ. आंबेडकर का यह सुझाव काफी कारगर हो सकता है,जो उन्होंने अपनी बेहतरीन रचना ‘जाति का विनाश’ में सुझाया है.

‘हिन्दुओं के पुरोहिती पेशे को अच्छा हो कि समाप्त ही कर दिया जाय, लेकिन यह असम्भव प्रतीत होता है. अतः यह आवश्यक है कि इसे कमसे कम वंश-परम्परा से न रहने दिया जाय. कानून के द्वारा ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि वही व्यक्ति पुरोहिताई कर सकेगा, जो राज्य द्वारा निर्धारित परीक्षा पास कर ले. गैर-सनदयाफ्ता पुरोहितों द्वारा कराये गए कर्मकांड क़ानून की दृष्टि में अमान्य होने चाहिए, और बिना लाइसेंस पुरोहिताई करना अपराध माना जाना चाहिए. पुरोहित राज्य का कर्मचारी होना चाहिए और उस पर राज्य सरकार का अनुशासन लागू होना चाहिए. आई.सी.एस.अधिकारियों की तरह पुरोहितों की संख्या भी राज्य द्वारा निर्धारित होनी चाहिए. भारतवर्ष में लगभग सभी व्यवसाय विनियर्मित हैं. डॉक्टरों, इंजीनियरों व वकीलों को अपना पेशा आरम्भ करने से पहले अपने विषय में दक्षता प्राप्त करनी पड़ती है. इन लोगों को अपने जीवन में न केवल देश के नागरिक व अन्य कानूनों के पाबंद रहना पड़ता है, वरन अपने विशिष्ट पेशे से सम्बंधित विशिष्ट नियम व नैतिकता का पालन भी करना पड़ता है. .. हिन्दुओं का पुरोहित वर्ग न किसी कानून की बंदिश में है न किसी नैतिकता में बंधा हुआ है. वह केवल अधिकार व सुविधाओं को पहचानता है, कर्तव्य शब्द की उसे कोई कल्पना ही नहीं है. यह एक ऐसा परजीवी कीड़ा है जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है. अतः इस पुरोहित वर्ग को मेरे द्वारा सुझाई गयी नीति से कानून बनाकर नियंत्रित किये जाना आवश्यक है. कानून इस पेशे का द्वार सबके लिए खोलकर इसे प्रजातान्त्रिक रूप प्रदान कर देगा. ऐसे कानून से निश्चय ही ब्राह्मणशाही समाप्त हो जायेगी. इससे जातिवाद, जो ब्राह्मणवाद की उपज है, समाप्त करने में सहायता मिलेगी.’

बहरहाल सदियों की भांति स्वाधीन भारत में भी ब्राह्मणशाही से त्रस्त अ-ब्राह्मण जातियों के बुद्धिजीवियों ने डॉ. आंबेडकर से ब्राह्मणशाही के खात्मे का अचूक मन्त्र पाकर भी कभी ‘पौरोहित्य के पेशे के प्रजातांत्रिकरण की मांग नहीं उठाया ,इसलिए ब्राह्मण आज भी आर्थिक शक्ति के समतुल्य धार्मिक शक्ति पर कुंडली मारे बैठे हैं. किन्तु आज जबकि दलितों ने हनुमान के मंदिर पर कब्ज़ा जमाकर, ब्राह्मणशाही के खात्मे की अभिनव पहल की है, हमें उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सामने आना चाहिए. ऐसा होना पर दूसरी जातियां भी अपने-अपने जातियों के देवताओं के मंदिरों पर कब्ज़ा जमाने के लिए आगे आएँगी. इससे ऐसे दिन आ सकते हैं, जब हम पाएंगे कि रावण-परशुराम के मंदिरों को छोड़कर शेष मंदिर ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त हो चुके हैं.

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… ऐसा हुआ तो 2019 में हार जाएगी भाजपा

नई दिल्ली। 2019 चुनाव में भाजपा हारेगी या जीतेगी, यह ये पांच राज्य तय करेंगे. 2019 के लोकसभा चुनाव की सत्ता की चाबी पांच राज्यों के पास होगी. इनमें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु शामिल हैं. देश के ये ऐसे पांच राज्य हैं, जहां सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं. इन राज्यों में कुल 249 संसदीय सीटें है. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी गठबंधन को 148 सीटें मिली थीं. जबकि कांग्रेस को महज 10 सीटें और अन्य के खाते में 91 सीटें आई थीं.

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के साथ आने की स्थिति में भाजपा को फिर से उतनी बड़ी सफलता मिल पाना मुश्किल है. तो ऐसे ही पश्चिम बंगाल और तामिलनाडु में भी भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में नहीं है. बंगाल में ममता बनर्जी तो तामिलनाडु में DMK और AIADMK भाजपा की राह में बड़ा रोड़ा हैं. बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यू के साथ मिलकर भाजपा बेहतर परिणाम की उम्मीद कर सकती है लेकिन यह बहुत आसान नहीं होगा.

बिहार में तेजस्वी यादव की भी मजबूत दावेदारी है. ऐसे ही महाराष्ट्र में भाजपा की सहयोगी शिवसेना ही उसके लिए बड़ा अड़ंगा है. कांग्रेस को राज्यों में मिली जीत के बाद महाराष्ट्र में कांग्रेस के एक बार फिर उभर कर आने से इंकार नहीं किया जा सकता. फिलहाल तीन राज्यों की हार ने भाजपा के 2019 में केंद्र में वापसी पर संदेह तो पैदा कर ही दिया है.

ऐसे ही अगर तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भी अगर विधानसभा की तर्ज पर चुनाव होते हैं और लोग इसी तरह वोटिंग करते हैं तो फिर भाजपा की राह और ज्यादा मुश्किल हो जाएगी. इसी तर्ज पर अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी वोटिंग और नतीजे हुए तो बीजेपी 63 सीटों से घटकर 23 पर आ जाएगी और कांग्रेस 6 से बढ़कर 40 पर पहुंच जाएगी.

राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के लिए विधानसभा चुनाव के नतीजों के क्या मायने है?

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नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद कांग्रेस पार्टी में ख़ुशी की लहर है, तो भारतीय जनता पार्टी के कैंप में निराशा है. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है. हालांकि मध्य प्रदेश में कड़ा मुक़ाबला रहा और कांग्रेस बहुमत से कुछ दूर रह गई, लेकिन निर्दलीय, बसपा और सपा के समर्थन के बाद वहाँ भी सरकार बनाने का रास्ता साफ़ हो गया है. इन विधानसभा चुनाव के नतीजे राहुल गांधी और कांग्रेस के साथ-साथ नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए क्या मायने रखते हैं? वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव बताते हैं कि मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी की लोकप्रियता में कमी आई है. वे कहते हैं, “नरेंद्र मोदी आज भी इस देश के सबसे बड़े नेता हैं. लेकिन जब उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर थी तो बीजेपी का कुल वोट शेयर 31 फीसदी था. अब साढ़े चार साल बाद उनकी लोकप्रियता में काफ़ी कमी आई है. ज़मीन पर लोग सवाल पूछते हैं कि मोदी जी ने जो वादे किए थे उनका क्या हुआ.” “2013 से 2017 तक भारतीय राजनीति में मोदी की टक्कर का कोई नेता नहीं था. लेकिन आज उनसे ये ख़िताब छिन गया है. चुनाव जिताऊ नेता वाली उनकी छवि को धक्का लगा है. ये तो साफ है कि लोगों का मोदी से मोहभंग हो रहा है लेकिन आगामी संसदीय चुनाव में मतदान पर इसका क्या असर पड़ेगा ये तो वक़्त ही बताएगा.” इन चुनावी नतीजों से एक सवाल ये भी उठता है कि क्या अब बीजेपी में मोदी विरोध के स्वर उभरना शुरू होंगे. इस सवाल पर संजय श्रीवास्तव ने कहा, “बीजेपी में मोदी के ख़िलाफ़ आवाज़ें अभी उठना शुरू नहीं होंगी. लेकिन बीजेपी में एक धड़ा ऐसा भी है जो कि उस दिन का इंतज़ार कर रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी 170 लोकसभा सीटों पर सिमट जाती है तो मोदी जी सहयोगी दलों को कैसे जुटा पाएंगे. लेकिन ये भी संभव है कि मोदी और अमित शाह में चुनावी गणित के चक्कर में थोड़ी विनम्रता आ जाए.” राहुल गांधी ने बीते साल 11 दिसंबर, 2017 को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान संभाली थी. संजीव श्रीवास्तव कहते हैं कि इसके ठीक एक साल बाद आए चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि राहुल गांधी परिपक्वता से फैसले लेने के लिए सक्षम हैं. बीबीसी हिन्दी के फ़ेसबुक लाइव के दौरान उन्होंने कहा, “लेकिन कई विपक्षी दलों ने अभी तक राहुल गांधी को अपने नेता के रूप में स्वीकार नहीं किया है. कई दलों के नेता निजी बातचीतों में बताते हैं कि राहुल गांधी व्यक्ति तो बेहतरीन हैं लेकिन उनके अंदर वोट हासिल करने की क्षमता नहीं है.” ऐसे में सवाल उठता है कि इन विधानसभा चुनावों के नतीजों के राहुल गांधी के लिए क्या मायने हैं. बीबीसी संवाददाता सरोज सिंह ने जब वरिष्ठ पत्रकार स्मिता गुप्ता से यही सवाल पूछा तो उन्होंने कहा, “राहुल गांधी ने पांच में से तीन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया है. इससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल काफ़ी बढ़ जाएगा. चुनावी रणनीति की बात करें तो राहुल गांधी ने इन चुनावों में दो तरह की रणनीति को अपनाया है.” “राहुल की रणनीति में एक चीज साफ़ दिखाई दी है कि हिन्दी भाषी प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी ने अकेले ही चुनाव लड़ा. कांग्रेस ने बसपा, समाजवादी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे दलों के साथ समझौता नहीं किया जिससे सपा-बसपा काफ़ी नाराज़ हैं.” “कांग्रेस ने ये सोचा कि ये राज्य कभी उसके गढ़ हुआ करते थे. ऐसे में एक शक्ति परीक्षण करना चाहिए. कांग्रेस की इस रणनीति का एक पहलू ये भी है कि कांग्रेस ने तेलंगाना में टीडीपी और एक अन्य दल के साथ गठबंधन किया. इस तरह कांग्रेस ने अलग-अलग चुनावी रणनीतियों का इस्तेमाल किया.” राहुल का हिंदुत्व कार्ड गुजरात के चुनाव से लेकर इन चुनावों में भी राहुल गांधी मंदिर-मंदिर जाने के साथ-साथ उन्होंने अपना गोत्र भी बताया. स्मिता गुप्ता राहुल की इस रणनीति पर बताती हैं, “कांग्रेस ने हिंदी भाषी प्रदेशों में विचारधारा के तौर पर एक नया प्रयोग किया है. 90 के दशक से देश की राजनीति में दक्षिणपंथ प्रवेश कर रहा था. लेकिन कांग्रेस के पास इसकी टक्कर में कुछ नहीं था. बीजेपी भी कांग्रेस को अल्पसंख्यकों की पार्टी कहती आई है. लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस ने खुद को हिंदू बताने से लेकर ब्राह्मण होने पर भी ज़ोर दिया. इस सबके बावजूद कांग्रेस खुद को एक सेकुलर पार्टी बताती है.” कांग्रेस पार्टी इन चुनावी नतीजों का श्रेय राहुल गांधी के नेतृत्व को देगी कि उनके कुशल नेतृत्व में कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में शानदार प्रदर्शन कर सकी. वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव के मुताबिक़, राहुल गांधी को बस इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने मध्य प्रदेश और राजस्थान के कांग्रेस नेतृत्व में आपसी झगड़े को रोकने की भरसक कोशिश की. वह बताते हैं, “राहुल गांधी ने पार्टी को एकजुट रखा है. हालांकि, खुद के नाम पर वोट बटोरने का करिश्मा अभी भी उनमें नहीं है. लेकिन अब वो दिन लद गए हैं कि कोई राहुल गांधी का मजाक उड़ा सके. क्योंकि राहुल गांधी ने खुद को साबित करके दिखा दिया है.” स्रोतः बीबीसी हिन्दी

लोकसभा में भी ऐसे ही रहा तो ये होंगे नतीजे

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नई दिल्ली। देश के 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव को 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल मना जा रहा था. इन चुनाव में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. ऐसे में अगर 2019 लोकसभा चुनाव में वोटिंग ट्रेंड ऐसा ही रहा तो फिर बीजेपी और मोदी की सत्ता में वापसी की राह मुश्किल हो जाएगी. मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोराम में कुल 83 लोकसभा सीटें है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन किया था. पांच राज्यों की 83 लोकसभा सीटों में से बीजेपी के पास 63 सीटें हैं. जबकि कांग्रेस को महज 6 और अन्य को 14 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए बेहतर रहे हैं. जबकि बीजेपी के खिलाफ था. इसी तर्ज पर अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी वोटिंग और नतीजे रहे तो कांग्रेस बीजेपी 63 सीटों से घटकर 23 पर आ जाएगी और कांग्रेस 6 से बढ़कर 40 पर पहुंच जाएगी. बाकी सीटें अन्य के खाते में जा सकती है. राजस्थान राजस्थान विधानसभा में 200 सीटें में से 199 पर चुनाव हुए है, जिनमें से कांग्रेस को 99, बीजेपी को 73, बसपा को 6 और अन्य को 18 सीटें मिली है. लोकसभा की 25 सीटें राज्य में हैं. बीजेपी ने 2014 के चुनाव में सभी सीटों पर जीत हासिल की थी. विधानसभा चुनाव के नतीजों को लोकसभा से तुलना की जाए तो कांग्रेस को 12 सीटें मिल सकती है. वहीं, बीजेपी को 9 सीटों से संतोष करना पड़ सकती है. जबकि बाकी सीटें अन्य के खाते में जा सकती है. मध्य प्रदेश मध्य प्रदेश में 230 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को 114, बीजेपी को 109 और 7 सीटें अन्य को मिली हैं. सूबे में कुल 29 लोकसभा सीटें है. 2014 के चुनाव में बीजेपी को 27 सीटें और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थी. विधानसभा चुनाव की तर्ज पर अगर 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे रहे तो कांग्रेस को 16 और बीजेपी 13 सीटें मिल सकती हैं. छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव 90 सीटों में से कांग्रेस को 68, बीजेपी को 15 और अन्य को 7 सीटें मिली हैं. राज्य में कुल 11 लोकसभा सीटें है. 2014 के चुनाव में बीजेपी ने बीजेपी को 10 और कांग्रेस को 1 सीट मिली थी. विधानसभा चुनाव की तर्ज पर लोकसभा के नतीजे रहे तो कांग्रेस को 9 और बीजेपी व अन्य को 1-1 सीटें मिल सकती है. तेलंगाना तेलंगाना में विधानसभा चुनाव 119 सीटों में से कांग्रेस गठबंधन को 21 सीटें, केसीआर को 88, AIMIM को 7 और अन्य को 3 सीटें मिली है. राज्य में 17 लोकसभा सीटें है. 2014 के चुनाव में बीजेपी को 2, कांग्रेस को 2 और टीआरएस को 11 सीटें मिली थी. विधानसभा की तर्ज पर लोकसभा चुनाव के नतीजे रहे तो बीजेपी का खाता भी नहीं खुलेगा. जबकि कांग्रेस को 3 और केसीआर 13 सीटें जीत सकते हैं. मिजोरम मिजोरम में विधानसभा चुनाव 40 सीटों में से कांग्रेस को 5 और बीजेपी को 1 सीटें मिली है. जबकि एमएनएफ को 29 सीटें मिली है. राज्य में एक लोकसभा सीटें है और वो कांग्रेस के पास है. लेकिन ऐसे ही नतीजे रहे तो कांग्रेस को वो सीट गंवानी पड़ सकती है. स्रोतः आज तक

राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बसपा का क्या हुआ, यहां देखिए

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File Photo

नई दिल्ली। पांच राज्यों के चुनाव नतीजें साफ हो चुके हैं। अब बहस इस पर हो रही है कि कौन मुख्यमंत्री बनेगा और कौन मंत्री। इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के अलावा जिस तीसरी पार्टी पर सबकी नजर थी, वो बहुजन समाज पार्टी है। ऐसे में इस बात का भी विश्लेषण करना जरूरी है कि आखिर इन चुनावों में बसपा कहां ठहरती है।

चुनाव से पहले माना जा रहा था कि बहुजन समाज पार्टी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पूरी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने में कामयाब रहेगी। इसकी जायज वजह भी थी। मध्य प्रदेश में बसपा एक मजबूत ताकत मानी जाती है और प्रदेश के कुछ खास हिस्सों में उसकी अच्छी पकड़ है। जबकि छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी से गठबंधन के बाद बसपा को तीसरी ताकत के तौर पर देखा जा रहा था। क्योंकि इसके पहले कर्नाटक में जेडीएस के साथ गठबंधन कर बसपा यह साबित कर चुकी थी। लेकिन नतीजों को देखें तो बसपा की उम्मीदों को सबसे बड़ा झटका छत्तीसगढ़ में ही लगा है। तो वहीं मध्यप्रदेश में 2008 के बाद लगातार फिसल रही बसपा इस बार भी नहीं संभल सकी और ज्यादा नीचे चली गई।

आईए आंकड़ों के जरिए समझते हैं कि इन तीनों राज्यों में बसपा का क्या हाल रहा। सबसे पहले बात सीटों की।

 बसपा ने सबसे अच्छा प्रदर्शन राजस्थान में किया, जहां उसने 6 सीटें जीती है। जबकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसके दो-दो विधायक जीते हैं।

फायदे नुकसान की बात करें तो बसपा को सीटों और वोट प्रतिशत के लिहाज से राजस्थान में बड़ा फायदा हुआ है। 2013 में बसपा यहां 3 सीटें जीती थी, जो बढ़कर 6 हो गई हैं। उसे 4 फीसदी वोट मिले हैं।

छ्त्तीसगढ़ में बसपा के पास एक विधायक था। इस चुनाव में उसे एक सीट का फायदा हुआ है। लेकिन बसपा का वोट प्रतिशत 2013 के 4.45 प्रतिशत से गिरकर 3.8 प्रतिशत पर आ गया है।

मध्यप्रदेश में बसपा के लिए चिंतन की स्थिति है। 2008 के बाद बसपा यहां संभल नहीं पाई है। राज्य में उसकी सीटें एक बार फिर कम हो गई हैं और वोट शेयर भी गिरा है। 2013 के विधानसभा चुनाव में बसपा को यहां 6.29 प्रतिशत वोट मिला था और उसने 4 सीटें जीती थी। इस बार उसकी सीटें दो हो गई हैं और वोट प्रतिशत भी घटकर 4.9 प्रतिशत हो गया है।

जिन सीटों पर बसपा जीती है

अब हम आपको बताते हैं कि बसपा ने कौन-कौन सी सीट जीती है। मध्यप्रदेश में बसपा ने भिंड और पथरिया सीट जीती है,भिंड से बसपा उम्मीदवार संजीव सिंह ‘संजू’ ने जीत हासिल की है। उन्होंने भाजपा को हराया है।

उऩ्हें 69107 वोट मिले हैं,जबकि पथरिया विधानसभा से रामबाई गोविंद सिंह ने भी भाजपा को हराकर जीत दर्ज की है। रामबाई गोविंद सिंह को 39267 वोट मिले हैं।

 राजस्थान में बसपा के 6 उम्मीदवार जीते हैं। इसमें

–    नगर विधानसभा से – वाजीब अली

–    करौली विधानसभा से – लाखन सिंह मीणा

–    नदवई विधानसभा से – जोगेन्द्र अवाना

–    किशनगढ़ वास विधानसभा से – दीपचंद खेड़िया

–    तिजारा विधानसभा से – संदीप कुमार यादव

–    उदयपुर वाटी विधानसभा से – राजेन्द्र गूढ़ा

जबकि छत्तीसगढ़ में बसपा ने पामगढ़ और जैजेपुर की सीट जीती है। पामगढ से इंदू बंजारे ने जीत हासिल की है, जबकि जैजैपुर सीट को बसपा ने बरकरार रखा है। यहां से पार्टी के सिटिंग एमएलए केशव चंद्र दुबारा जीत कर आए हैं।

चुनाव परिणाम के बाद बसपा अध्यक्ष मायावती ने मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को अपना समर्थन देने का ऐलान किया है। मायावती ने 13 दिसंबर को सभी विजयी विधायकों और चुनावी प्रदेशों के पदाधिकारियों को दिल्ली तलब किया है, जहां वह चुनाव परिणाम पर मंथन करेंगी। बहरहाल 2019 के पहले यह चुनाव परिणाम बसपा के लिए भी एक सबक है।

गुजरात में सड़क पर क्यों उतरे हजारों अम्बेडकरवादी

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जूनागढ़ (गुजरात)। डॉ बाबा साहब आंबेडकर जी के 63 वे महापरिनिर्वाण दिन पर गुजरात राज्य के जूनागढ स्थित शहर मे गुजरात भर और अन्य राज्य के आए हुवे स्वयम सैनिक दल परिवार के सैनिक द्वारा डॉ बाबा साहब जी को मान वंदना और सलामी दी गई और साथ मे उनके कार्य को याद किया गया और बडे ही पैमाने मे आए हुवे सभी सैनिक को द्वारा मानवंदना के साथ सामुहिक तौर पर राज्यस्तरीय अधिवेशन मे उनके कार्य को लेकर विचार-विमर्श किया गया और किस तरह बहुजन समाज मे से कुरीतिया व्यसन, और जो सामाजिक बुराई या को नाबुद किया जाए उस पर सामाजिक जागृति के माध्यम से किस तरह यह समाज अपनी हर क्षेत्र मे अग्रसर हो उस पर बाते सभी सैनिक द्वारा रखी गई.

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उर्जित पटेल के बाद एक और अर्थशास्त्री का इस्तीफा

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नई दिल्ली। भारत के जाने माने अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद से इस्तीफ़ा दे दिया है. रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे के अगले ही दिन यह खबर सामने आई है. ख़ास बात ये है कि उन्होंने अपना इस्तीफ़ा एक दिसंबर को दिया था, लेकिन इसकी जानकारी 11 दिसंबर को तब सार्वजनिक हुई जब उन्होंने इस बारे में ट्वीट किया है. सुरजीत भल्ला ने ट्वीट में कहा है कि, “मैंने प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद की पार्ट टाइम सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया है.” भल्ला ने इस्तीफ़ा क्यों दिया है, इसको लेकर उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी है.

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उर्जित पटेल के इस्तीफा मोदी सरकार के लिए कितना बड़ा झटका

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नई दिल्ली। आमतौर पर भारतीय समाज क्रिकेट और राजनीति तक की सीमित रहता है. आर्थिक मुद्दों पर उसकी रुचि कम ही रहती है. हालांकि देश की अर्थव्यवस्था एक ऐसा पहलू है, जिसका प्रभाव हर एक व्यक्ति पर पड़ता है. इसी से जुड़ी एक बड़ी खबर सोमवार 10 दिसंबर को सामने आई, जब भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. पटेल रिजर्व बैंक के 24वें गवर्नर थे. उनका कार्यकाल अगले साल 4 सितंबर को खत्म होना था. कार्यकाल खत्म होने के 9 महीने पहले इस्तीफा देने के उर्जित पटेल के फैसले से सरकार को बड़ा झटका लगा है. पटेल ने 4 सितंबर 2016 से प्रभार संभाला जो जनवरी 2013 से डिप्टी गवर्नर पद पर थे.

हालांकि उन्होंने इस्तीफे का कारण व्यक्तिगत बताया है लेकिन पिछले काफी समय से सरकार के साथ उनका मतभेद चल रहा था. सरकार के साथ कथित मतभेद के कारण कार्यकाल के बीच में ही पद छोडऩे वाले वह देश के दूसरे गवर्नर हैं. इससे पहले बेनेगल रामा राव ने तत्कालीन वित्त मंत्री के साथ विवाद की वजह से 1957 में इस्तीफा दे दिया था.

मोदी सरकार के साथ कई मसलों पर लंबी तनातनी के बाद उनके इस्तीफ़े की अटकलें लगाई जा रही थी, हालांकि ऐसे इस्तीफे को व्यक्तिगत कारणों से दिया गया ही बताया जाता है लेकिन माना जा रहा है कि रिज़र्व बैंक की स्वायत्ता, कैश फ्लो और ब्याज दरों में कमी नहीं करने को लेकर उनका सरकार के साथ टकराव था.

पटेल के इस्तीफ़े की टाइमिंग भी अहम है. पटेल का इस्तीफ़ा ऐसे समय पर आया है, जब पूरा देश पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम का इंतजार कर रहा था. तो वहीं एक दिन बाद ही संसद का शीतकालीन सत्र भी शुरू होना था. इसके अलावा चार दिन बाद यानी 14 दिसंबर को रिज़र्व बैंक की बोर्ड बैठक निर्धारित है.

रिज़र्व बैंक और मोदी सरकार के बीच तनातनी पहली बार तब उभर कर सामने आई थी जब डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने 26 अक्टूबर को एक कार्यक्रम में रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता की वक़ालत की थी. विरल आचार्य ने मुंबई में देश के बड़े उद्योगपतियों के एक इवेंट में कहा था, ‘केंद्रीय बैंक की आज़ादी को कमज़ोर करना त्रासदी जैसा हो सकता है. जो सरकार केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता की अनदेखी करती हैं, उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है.’

इस्तीफे के पीछे का एक कारण रिजर्व बैंक के खजाने पर सरकार की नजर होना भी है. सरकार आरबीआई के खज़ाने में पड़ी जमा राशि में बड़ा हिस्सा चाहती थी. इसको लेकर सरकार के साथ रिजर्व बैंक के गवर्नर का विवाद चल रहा था. हालाँकि सरकार की तरफ से स्पष्ट किया गया था कि उसे अभी किसी तरह की रकम की ज़रूरत नहीं है. केन्द्र सरकार और आरबीआई के बीच विवाद का एक और विषय आरबीआई एक्ट का सेक्शन 7 था. इस सेक्शन के तहत केन्द्र सरकार जनहित में अहम मुद्दों पर आरबीआई को निर्देश दे सकती है. हालांकि केन्द्र सरकार ने कहा था कि उसने इस सेक्शन का इस्तेमाल नहीं किया है.

अब सवाल है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से इस्तीफे का कितना प्रभाव पड़ेगा.

विश्लेषकों की राय

ऑर्गनाइजेशन फोर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट यानी OECD ने 2019 के लिए भारत का जीडीपी ग्रोथ अनुमान 7.3 फ़ीसदी रखा है. ऐसे में आर्थिक मामलों के जानकार सुदीप बंद्योपाध्याय का कहना है कि ग्रोथ रेट घटाने की ख़बरों के बीच गवर्नर का पूरा कार्यकाल किए बगैर बीच में पद छोड़ देना रेटिंग एजेंसियों को और चौकन्ना कर देगा.

बंद्योपाध्याय कहते हैं, “सबसे बड़ी मुश्किल ये होगी कि भारत की ग्रोथ स्टोरी से विदेशी निवेशकों का डिग सकता है. वैसे भी रेटिंग एजेंसियां भारत को लेकर बहुत सकारात्मक नहीं हैं और इस घटनाक्रम के बाद हालत और बदतर होंगे.”

विश्लेषकों का कहना है कि इस ख़बर का बेहद नकारात्मक असर आने वाले दिनों में देखने को मिल सकता है. इलारा कैपिटल की वाइस प्रेसिडेंट गरिमा कपूर का कहन है, “भारत के लिए ये बेहद नकारात्मक ख़बर है. भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख़राब होगी. विदेशी संस्थागत निवेशक भी इसे सकारात्मक रूप से नहीं लेंगे. आखिरकार केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता का सवाल है. अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिहाज से ये नकारात्मक होगा.”

दूसरी ओर सरकार के सामने दूसरी सबसे बड़ी समस्या ये आने वाली है कि वो इस पद पर किसे बिठाते हैं. पहले रघुराम राजन और फिर उर्जित पटेल, दोनों ही गवर्नरों के कार्यकाल में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जिससे ये लगा है कि सरकार रिज़र्व बैंक पर दबाव बनाना चाहती है. निश्चित तौर पर भारत में निवेश कर मुनाफ़ा कमाने की इच्छा रखने वाले विदेशी निवेशकों का सेंटिमेंट बिगड़ेगा.”

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी कहा है कि उर्जित का इस्तीफ़ा अर्थव्यवस्था पर गहरा आघात है. जो भी हो रिजर्व बैंक के प्रमुख पद से गवर्नर का इस्तीफा देश की सत्ता पर सवाल खड़े करने वाला है.

गौरतलब है कि पटेल ने ब्रिक्स देशों के बीच अंतर-सरकार संधि और इन देशों के केंद्रीय बैंकों के बीच अंतर बैंक समझौते (आईसीबीए) की प्रक्रिया में बड़ी भूमिका निभाई थी. इससे इन देशों के केंद्रीय बैंकों के बीच आरक्षित विदेशी मुद्रा व्यवस्था (सीआरए) तथा विदेशी मुद्रा की अदला-बदली की सुविधा के नियम निर्धारित किए जा सके.’ पटेल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) में भी काम कर चुके हैं. वो 1996-1997 के दौरान आईएमएफ से प्रतिनियुक्ति पर भारत आए थे.

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विपक्षी मंच से सपा-बसपा के गायब रहने के मायने

नई दिल्ली। तीन राज्यों के चुनावी नतीजों में भाजपा के पिछड़ने की खबर भऱ से ही विपक्ष की बांछे खिल गई है. चुनाव परिणाम आने से एक दिन पहले ही जहां ज्यादातर विपक्षी दलों ने एक साथ आकर भाजपा के खिलाफ मोर्चे की कवायद शुरू कर दी तो वहीं बिहार से एनडीए में शामिल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. कुशवाहा के महागठबंधन में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही है.

गठबंधन से अलग होते ही कुशवाहा को मोदी के द्वारा बिहार के लिए किए गए वादों की याद आ गई. तो चार साल से ज्यादा समय तक सत्ता की मलाई खाने के बाद कुशवाहा को सामाजिक न्याय का एजेंडा भी याद आ गया है. उन्होंने आरोप लगाया कि सामाजिक न्याय के एजेंडे से हटकर RSS के एजेंडे को लागू किया जा रहा है. इससे पहले कुशवाहा तेजस्वी यादव औऱ शरद यादव से भी मुलाकात कर चुके थे.

हालांकि महागठबंधन की कवायद को मायावती और अखिलेश यादव के शामिल नहीं होने से झटका लगा. अखिलेश यादव ने चुनावी नतीजों से पहले महागठबंधन की कवायद को जल्दबाजी बताया. तो वहीं मायावती पहले ही कह चुकी हैं कि जब तक सीटों को लेकर कोई पुख्ता बातचीत नहीं हो जाती, तब तक गठबंधन बनाने का कोई फायदा नहीं है. पिछले दिनों एक प्रेस विज्ञप्ति में बसपा प्रमुख ने कहा था कि चुनाव पूर्व बने गठबंधन अक्सर सीटों के तालमेल के समय टूट जाते हैं, इसलिए सीटों पर सहमति के बाद ही बसपा किसी गठबंधन में घोषित तौर पर शामिल होगी.

दोनों प्रमुख दलों के महागठबंधन की बैठक में शामिल नहीं होने की एक वजह  दोनों की कांग्रेस पार्टी से नाराजगी भी है. अखिलेश यादव खुलकर कांग्रेस से अपनी नाराजगी जता चुके हैं। तो वहीं मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव से पूर्व कांग्रेस के अड़ियल रवैये के कारण गठबंधन की बात नहीं बनने पर बसपा प्रमुख मायावती भी कांग्रेस से नाराज हैं.

उत्तर प्रदेश के इन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं के महागठबंधन की बैठक में शामिल नहीं होने से जहां विपक्षी उम्मीदों को झटका लगा है तो वहीं भाजपा इसे अधूरे विपक्ष की गोलबंदी बता रही है. जो भी हो सत्ता और विपक्ष की असली लड़ाई पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ही तय करेंगे. इन परिणामों के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का रुख क्या होगा, यह भी बड़ा सवाल है.

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10 साल बाद भारत ने ऑस्ट्रेलिया को उसी की ज़मीन पर हराया

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एडिलेड में खेले गए पहले टेस्ट मैच में भारत ने ऑस्ट्रेलिया को 31 रनों से हरा दिया है. खेल के आख़िरी दिन ऑस्ट्रेलिया के सारे बल्लेबाज़ 291 रन पर ही आउट हो गए. इससे पहले भारत ने एडिलेड ओवल में 2003 में टेस्ट मैच जीता था.

भारत ने कभी भी एक टेस्ट सिरीज़ में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ पहला मैच नहीं जीता था. इस जीत के साथ ही यह रिकॉर्ड भी टूट गया. भारत ने दूसरी पारी के बाद ऑस्ट्रेलिया को 323 रनों का लक्ष्य दिया था. इस जीत के साथ ही भारत ने चार मैचों की टेस्ट सिरीज़ में 1-0 की बढ़त ले ली है. ऑस्ट्रेलिया की तरफ़ से एस मार्श ने दूसरी पारी में सबसे ज़्यादा 60 रन बनाए. दूसरी पारी में मार्श के अलावा किसी भी खिलाड़ी का निजी स्कोर 50 तक भी नहीं पहुंच पाया. मार्श के बाद कप्तान टिम पेन ने सबसे ज़्यादा 41 रन बनाए. चेतेश्वर पुजारा को मैन ऑफ द मैच मिला. पुजारा ने पहली पारी में 123 और दूसरी पारी में 71 रनों की शानदार पारी खेली थी. इस मैच में पुजारा ने 16वां शतक मारा.

मैच के चौथे दिन भारत ने 307 रन बनाए थे. भारत को पहली पारी में 15 रनों की बढ़त मिली थी और इस आधार पर ऑस्ट्रेलिया को जीत के लिए 323 रनों का टारगेट मिला था. चौथे दिन ऑस्ट्रेलिया ने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की लेकिन भारतीय गेंदबाज़ों ने खेल ख़त्म होने तक चार विकेट चटका दिए थे और स्कोर 104 का था.

पाँचवे दिन ऑस्ट्रेलिया ने खेलना शुरू किया तो मोहम्मद शामी और ईशांत शर्मा ने हैंडस्कॉम्ब और ट्रैविस हेड को 14-14 रन के निजी स्कोर पर ही आउट कर दिया. बुमराह ने टिम पेन का सबसे अहम विकेट लिया. टिम पेन ने ऑस्ट्रेलिया की उम्मीद जगा दी थी, लेकिन बुमराह ने 41 रन के निजी स्कोर पर उन्हें चलता कर दिया.

इस मैच में ऋषभ पंत ने रिकॉर्ड 11 कैच लिए. पंत ने ऐसा कर जैक रसल और एबी डिविलियर्स की बराबरी कर ली है. जीत के बाद विराट कोहली ने अपने गेंजबाज़ों की जमकर तारीफ़ की. कोहली ने कहा कि गेंदबाज़ों ने मौक़ों का फ़ायदा उठाया. इसके साथ ही कोहली ने पुजारा और रहाणे की बल्लेबाज़ी की प्रशंसा की. कोहली ने कहा कि पुजारा और रहाणे ने जीत की बुनियाद रखी दी थी. भारतीय कप्तान ने बैटिंग में मिडल ऑर्डर के बाद के प्रदर्शन पर चिंता जताई है. इस जीत के बाद सुनील गावसकर ने कहा कि भारत ने पहली पारी में 15 रन का लीड लेकर आत्मविश्वास हासिल कर लिया था. गावसकर का मानना है कि इस हार के बाद ऑस्ट्रेलिया दबाव में होगा.

आख़िर विकेट के लिए भारतीय गेंदबाज़ों को जूझना पड़ा, लेकिन आर अश्विन ने हेज़लवुड के रूप में 10वां विकेट लेकर ऐतिहासिक जीत दिला दी. इस जी के साथ ही विराट कोहली भारत के पहले कप्तान बन गए हैं, जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में टेस्ट मैच जीता. इस जीत से भारत दूसरा एशियाई देश बन गया है जिसने ऑस्ट्रेलियाई ज़मीन पर टेस्ट सिरीज़ का पहला मैच जीता. इससे पहले पाकिस्तान ने ही ऐसा किया था. अश्विन ने कुल 6 विकेट लिए और ऑस्ट्रेलिया में उनका यह बेहतरीन प्रदर्शन था.

2003 में राहुल द्रविड़ के बाद विराट कोहली की टीम ने यह इतिहास रचा है. इस जीत में भारतीय गेंदबाज़ों की ख़ूब सराहना हो रही है. आख़िरी पारी में जसप्रीत बुमराह, मोहम्मद शामी और अश्विन ने तीन-तीन विकेट लिए. पहली पारी में भारत ने 250 रन बनाए थे. इसके जवाब में ऑस्ट्रेलिया 235 रन ही बना पाया और भारत को 15 रनों की बढ़त मिली थी.

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सांसद सावित्री बाई फुले का मायावती कनेक्शन

उत्तर प्रदेश में बहराइच से सांसद सावित्री बाई फुले ने भारतीय जनता पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. चर्चा है कि सावित्रीबाई फुले बहुजन समाज पार्टी में जाना चाहती हैं. जब मायावती राज्यसभा की सांसद थीं, तब संसद के गलियारे में भी फुले ने बहनजी से मिलकर उनसे बसपा में शामिल होने की इच्छा जताई थी, हालांकि तब मायावती ने उन्हें अपने सांसद का कार्यकाल खत्म करने का सुझाव दिया था. मायावती और बहुजन समाज पार्टी को लेकर सावित्री बाई फुले का झुकाव कोई नया नहीं है, बल्कि फुले का मायावती से पुराना लगाव रहा है. हम आपको बताते हैं कि आखिर क्या है, सावित्री बाई फुले का मायावती कनेक्शन.

सावित्री बाई फुले कई मामलों में बसपा प्रमुख को फॉलो करती हैं. मसलन उनकी कद-काठी से लेकर हेयर स्टाइल तक बसपा प्रमुख जैसा ही हैं. फुले ने भी संन्यास ले लिया है और बहुजन आंदोलन के हित के लिए अपना जीवन देने की घोषणा कर चुकी हैं.

बहरहाल राजनीति से इतर सावित्री बाई का जीवन भी संघर्षों भरा रहा है. जब वह 6वीं में थीं तो उनके शिक्षक ने उनका वजीफा हड़प लिया और विरोध करने पर उन्हें स्कूल से बाहर कर दिया. दिलचस्प बात ये है कि तब उन्हें बसपा सुप्रीमो मायावती से सीधे बड़ी सहायता मिली थी.

सावित्री बाई फुले ने एक इंटरव्यू में एक घटना का जिक्र किया था. फुले के मुताबिक, “जब मैं कक्षा 6 पास हुई थीं. तब मुझे 480 रुपए वजीफा मिला था. पहले छात्रवृत्ति खाते में नहीं आती थी. मास्टर के खाते में आती थी. मैंने उनसे वजीफा मांगा लेकिन उन्होंने कहा कि चूंकि मैंने तुम्हें पास किया है, इसलिए मैं वजीफा नहीं दे सकता. यही नहीं उन्होंने मेरा नाम काटकर स्कूल से भगा दिया. साफ कह दिया कि मैं नहीं पढ़ाऊंगा.”

इसके बाद मजबूरन सावित्री बाई फुले की पढ़ाई रुक गई. सावित्री ने एक इंटरव्यू में कहा था, “इसके बाद अचलेंद्र नाथ कनौजिया मुझे लखनऊ लेकर गए. उस समय मायावतीजी यूपी की मुख्यमंत्री थीं. वहां मुझे जनता दरबार में पेश किया गया. इसके बाद मैंने सीधे मायावती जी से बात की. मैंने उनसे कहा कि मेरे टीचर ने नाम काट दिया है. कई सालों से मैं घर बैठी हूं. अब आगे पढ़ना चाहती हूं. इसके बाद मायावतीजी ने उनसे पूछा कि कहां पढ़ना चाहती हैं? इस पर मैंने बताया कि नानपारा के इंटर कॉलेज में पढ़ना चाहती हूं. इसके बाद मायावती ने तुरंत डीएम को फोन किया और डीएम से मेरी टीसी, मार्कशीट मंगवाई और सीधे मेरा एडमिशन इंटर कॉलेज में करवा दिया.”

भाजपा छोड़ने के बाद अब फुले एक बड़ी रैली की तैयारी में हैं जहां वह अपनी आगामी रणनीति का खुलासा करेंगी. देखना यह होगा कि आखिर उनकी यह रणनीति क्या होगी. और यह बसपा और बसपा प्रमुख मायावती के कितने करीब होगी.

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संसद का शीतकालीन सत्र कल से, ये होंगे प्रमुख मुद्दे

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संसद का शीतकालीन सत्र हंगामेदार रहने के आसार हैं. मंगलवार से शुरू होने वाले इस सत्र के दौरान सरकार तीन तलाक, उपभोक्ता संरक्षण, चिट फंड, डीएनए, गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम जैसे विधेयकों सहित करीब तीन दर्जन विधेयक पारित कराना चाहती है. इनमें 20 विधेयक नये हैं जबकि बाकी सदन में पहले ही पेश किये जा चुके विधेयक हैं.

कांग्रेस सहित विपक्षी दल राफेल मुद्दा, कृषि एवं किसानों की समस्याओं, सीबीआई में उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों के बीच झगड़े जैसे मुद्दे उठाकर सरकार को घेरने का प्रयास करेंगे. राज्यसभा में कांग्रेस के नेता भुवनेश्वर कालिता ने ‘हम संसद सत्र के दौरान राफेल समेत अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे उठायेंगे और सरकार से जवाब मांगेंगे.’

उन्होंने कहा कि संसद में उठाये जाने वाले विषयों की रूपरेखा पार्टी की बैठक में तय की जाएगी लेकिन किसानों के मुद्दे, सीबीआई में वर्तमान स्थिति, साम्प्रदायिक सौहार्द के समक्ष चुनौती जैसे विषय निश्चित तौर पर उठेंगे. वहीं, संसदीय कार्य राज्य मंत्री विजय गोयल ने कहा कि सरकार के लिये यह सत्र महत्वपूर्ण है. तीन अध्यादेश के संबंध में विधेयक आने हैं. ‘हम तीन तलाक संबंधी विधेयक पारित कराना चाहते हैं.’

उन्होंने कहा कि लोकसभा में पेश किये गए करीब 15 विधेयक और राज्यसभा में पेश 9 विधेयक पारित होने हैं. अन्य महत्वपूर्ण नये विधेयक भी पेश किये जाने हैं और पारित होने हैं.

यह पूछे जाने पर कि, विपक्ष राफेल समेत कई मुद्दों पर सरकार को घेरने का प्रयास करेगा, गोयल ने कहा कि विपक्ष नियमों के तहत कोई भी मुद्दा उठा सकता है और सरकार इसके लिये तैयार है. सरकार का दामन और नीयत दोनों साफ हैं. ‘हम नियमों के तहत चर्चा कराने को तैयार हैं.’

संसद का शीतकालीन सत्र ऐसे समय में शुरू हो रहा है जब पांच राज्यों, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना मिजोरम के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने वाले हैं. इनमें मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान सत्तारूढ़ बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस के लिये महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं. माना जा रहा है कि संसद सत्र पर चुनाव परिणाम का प्रभाव देखने को मिल सकता है.

सत्र के दौरान लोकसभा में पेश होने वाले नये विधेयकों में तीन तलाक संबंधी विधेयक, कंपनी संशोधन विधेयक, भारतीय चिकित्सा परिषद संशोधन विधेयक, भारतीय औषधि प्रणाली के लिये राष्ट्रीय आयोग संबंधी विधेयक, राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग विधेयक, राष्ट्रीय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा आयोग विधेयक, राष्ट्रीय विमान संशोधन विधेयक, जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक संशोधन विधेयक, सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन विधेयक, राष्ट्रीय जांच एजेंसी संशोधन विधेयक, गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम संशोधन विधेयक, बांध सुरक्षा विधेयक, एनसीईआरटी विधेयक आदि शामिल हैं.

श्रोत :- न्यूज18 Read it also-रिटायर होते ही मुख्य चुनाव आयुक्त ने खोली चुनावों की पोल

बदलेगा पाटीदार आंदोलन का चेहरा, हार्दिक पटेल लड़ेंगे लोकसभा चुनाव

पाटीदार आंदोलन का चेहरा अब हार्दिक नहीं होंगे. पाटीदार आंदोलन समिति ने अल्पेश कथिरिया को पाटीदार आंदोलन का नया चेहरा बनाने की क़वायद तेज कर दी है. अल्पेश कथिरिया के जेल से बाहर आते ही पाटीदार संस्थाओं के नेता एकजूट होंगे. हार्दिक अब सक्रिय राजनीति में जाने का मन बना चुके है. हार्दिक पटेल लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.

पाटीदार आंदोलन समिति का नियम यह है कि समिति में रहकर कोई भी राजनीति में नहीं जा सकता.ऐसे में अब अल्पेश कथिरिया जो कि हार्दिक के साथ राजद्रोह का आरोप झेल रहे हैं, वो पिछले तीन महीनों से जेल में थे. उनकी जमानत पर रिहाई के बाद अब पाटीदार आंदोलन का चेहरा अल्पेश को बनाया जा सकता है. गौरतलब है कि हार्दिक के बाकी साथी पहले ही हार्दिक को छोड़कर चले गए हैं, अल्पेश ही अभी तक उनके साथ जुड़े हुए थे.

श्रोत:- न्यूज18 Read it also-हिन्दुस्तान का गोत्र कॉपर है, जाति मर्करी और धर्म सल्फेट….  

गिनती से पहले स्ट्रांग रूम के बाहर वाई-फाई पर कांग्रेस का बवाल

नई दल्ली। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिए वोटों की गिनती मंगलवार को होनी है, लेकिन ईवीएम की सुरक्षा को लेकर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं. ताजा मामला मध्य प्रदेश के इंदौर और कुछ अन्य इलाकों में स्ट्रॉन्ग रूम के क्षेत्र में वाईफाई चलने का है. दरअसल, निर्वाचन आयोग ने सुरक्षा कारणों से स्ट्रॉन्ग रूम और आसपास वाईफाई और इंटरनेट सेवा पर प्रतिबंध लगाया हुआ है.

कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य विवेक तनखा ने चुनाव आयोग का ध्यान आकर्षित करते हुए ट्वीट किया, ‘इंदौर और कुछ अन्य जगहों पर जहां ईवीएम रखे गए हैं, वहां वाईफाई चल रहा है. इससे मतगणना की निष्पक्षता पर गंभीर संदेह खड़ा होता है. आखिर इस घड़ी में इसकी क्या जरूरत है. इससे आसानी से ईवीएम चिप तक पहुंचा जा सकता. बेहद गंभीर मामला.’कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी विवेक तनखा के ट्वीट को रीट्वीट करते हुए लिखा, ‘क्या चुनाव आयोग स्पष्ट करेगा? राज्य चुनाव आयोग ने वादा किया था कि स्ट्रॉन्ग रूम जहा ईवीएम रखे गए हैं और जहां गिनती होनी है उस जगह वाईफाई नहीं होगा.’

वहीं मध्य प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने मतगणना की वेबकास्टिंग न करने के निर्देश दिए हैं. साथ ही यह निर्देश जारी किए गए हैं कि काउंटिग हॉल में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं और मतगणना के दौरान वाईफाई का इस्तेमाल न हो.

गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के एक निजी होटल में ईवीएम मशीन और सागर जिले में बिना नंबर की स्कूल बस से स्ट्रॉन्ग रूम में ईवीएम पहुंचाए जाने का वीडियो जारी करते हुए कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि बीजेपी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जनादेश को पटलने की कोशिश कर रही है. वहीं, एक अन्य मामले में शुक्रवार को ही मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में लगभग एक घंटे के लिए बिजली नहीं होने की वजह से स्ट्रॉन्ग रूम का सीसीटीवी और एलईडी डिस्प्ले इस अवधि में काम नहीं कर पाया.

इन शिकायतों पर चुनाव आयोग ने भी माना है कि मध्य प्रदेश में ऐसी दो घटनाएं हुईं थीं जिसमें ईवीएम को लेकर नियमावली का पालन नहीं किया गया. लेकिन आयोग का कहना था कि यह गलती प्रक्रिया तक ही सीमित है और मशीनों से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई. लेकिन आयोग ने एक अधिकारी को मशीने देरी से जमा कराने के आरोप में सस्पेंड कर दिया.

चुनाव आयोग द्वारा जारी बयान में कहा गया कि मशीनों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई. मशीने देरी से पहुंचने के लिए नायब तहसीलदार राजेश मेहरा को सस्पेंड कर दिया गया है. वहीं, शुक्रवार को शाजापुर जिले में एक बीजेपी नेता के होटल में ईवीएम मशीनों के साथ अधिकारियों के वीडियो सामने आने पर भी चुनाव आयोग ने कहा कि अधिकारियों द्वारा होटल में ईवीएम मशीनों के साथ जाना नियमों की अनदेखी थी और जैसे ही खबर मिली संबंधित अधिकारियों को हटा दिया गया.

एक तरफ कांग्रेस के नेता लगातार ईवीएम की सुरक्षा पर सवाल उठा रहे हैं तो वहीं मध्य प्रदेश, छ्त्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी कार्यकर्ताओं स्ट्रॉन्ग रूम पर 11 दिसंबर तक नजर रखने के निर्देश दिए हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शुक्रवार को ट्वीट में लिखा, ‘कांग्रेस पार्टी कार्यकताओं, यह सतर्क रहने का समय है. मध्य प्रदेश में वोटिंग के बाद ईवीएम का व्यवहार अजीब रहा है. कुछ ने एक स्कूल बस चुराई और दो दिन के लिए गायब हो गईं. कुछ अन्य होटल में पीते हुए पाई गईं. मोदी के भारत में ईवीएम के पास रहस्यमयी ताकते हैं.’

वहीं, मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ ने ट्वीट में लिखा था कि, ‘सभी कांग्रेसजन , कांग्रेस प्रत्याशियों से अपील 11 दिसम्बर मतगणना तक स्ट्रॉन्ग रूम व ईवीएम पर निगरानी रखे, विशेष सावधानी रखे. कांग्रेस की सरकार बनना तय है.”

श्रोत:- आजतक

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गंगा मुक्ति आंदोलन

बिहार के दो बड़े सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश जी के नेतृत्व में और रामशरण जी की अगुआई में 22 फरवरी 1982 को संगठित रूप से कहलगांव, भागलपुर, बिहार की धरती से गंगा मुक्ति आंदोलन का शुरुआत होता है. आंदोलन का मुख्य मुद्दा था, ‘मछली मारने का हक़ मछुआरों को मिलना चाहिए’ और 80 किलो मीटर तक गंगा, पर जो दो जमींदारों के कब्जों से गंगा को मुक्त कराना. महाशय महेश घोष और मुसर्रफ़ हुसैन मानी ये दो जमींदार थे. जिसके अन्दर सुल्तानगंज से लेकर बरारी फिर बरारी से पीरपैती तक की जमींदारी थी. तीसरा बड़ा मुद्दा जो बाद में आंदोलन के साथ जुड़ा, वो नदी पार करने वाले से जबरन पैसा वसूलने का जो मामला था ये हाल-फिलहाल तक बिहार के विभिन्न भागों में देखने को मिलता रहा है.

इन जमींदार के पास ये जमींदारी देवी-देवता के नाम पर सेवेत (अनुयायी) अधिकार मुग़लकाल से मिला हुआ था. जमींदारी उन्मुलन कानून लागू होने के 32 वर्ष बाद भी ये जमींदारी कायम रहना शोषण का प्रतीक ही था. स्थानीय स्तर पर संघर्ष करने वाले कुछ लोगों द्वारा ये लड़ाई जब कोर्ट में ले जाया गया तो जमीदारों का कोर्ट में कहना था कि हमलोग भैरवनाथ और देवी-देवता आदि-आदि का सेवेत (अनुयायी) है. ये हक़ हमलोगों को मुगलकाल से ही देख-रेख में दिया गया है. हमलोग तब से इसकी देख-रेख करते आ रहे हैं. और इसमें जो भी मछली आदि निकलता है, उस पर मेरा अधिकार है. इसलिए हमलोग इसका कमाई खाते हैं. जमींदार अपने पक्ष से यह तर्क दिया करते थे कि पानी पर मेरा अधिकार है. ये स्टेट नहीं है, परिसंपत्ति नहीं है. महाशय डेयहरी, नाथनगर, भागलपुर, बिहार में कई तरह के देवी-देवता है. जिसके नाम से सेवेत कायम था. उसका अपना नियम था, जो सामंतवाद के नीति की तरह होता था. ये लोग गंगा को पेटी कांटेक्टर के पास बेच देते थे. पेटी कांटेक्टर बड़ी रकम वसूलने के लिए क्षेत्र के आधार पर बोलवाला लोगों के माध्यम से उस इलाके में बड़ी रकम वसूलते थे. पेटी कांटेक्टर उस क्षेत्र के दबंग लोगों के माध्यम से नाव के साइज के हिसाब से टेक्स बसूल किया करते थे. जमींदारों तक तो बड़ी रकम पहुँचती ही नहीं थी. यानी हर जगह लठैत था. बड़े लठैत अपना कुछ हिस्सा लेकर छोटे-छोटे लठैत के बीच वसूली के लिए छोटा-छोटा इलाका दे दिया करता था. ये लोग बड़ी रकम मछुआरों से वसूलते थे. आंदोलन की एक वजह तो यह थी.

एक ख़ास जाति वर्ग समूह का जो लोग सदियों से गंगा पर ही अपना जीवन यापन किया करते थे. बिहार में जमींदारी उन्मुलन कानून लागू होने के बाद भी गंगा नदी पर 80 किमी तक दो व्यक्ति की जमीनदारी कायम रहना कानूनी रूप से गुलामी का प्रतीक था. जिसे कानूनी रूप से पानीदारी के नाम से जाना जाता है. कहलगांव के स्थानीय मछुआरे इस सवाल को उठाये जिसमें कई संगठन के लोग थे. जब उन लोगों को सफलता नहीं मिली तब वे लोग आंदोलन से वापस भी हो गए थे. मामला हायकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट तक गया. हाईकोर्ट में निषादसंघ केस हार चुके थे. लेकिन छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के स्थापना के तुरंत बाद छात्र- युवा संघर्ष वाहिनी ने बोधगया में मठ के खिलाफ भूमि मुक्ति आंदोलन शुरू किया था. उसकी प्रेरणा से भागलपुर के छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी के साथी ने पहल करके कहलगांव के साथियों को बोधगया मठ के खिलाफ संघर्ष में शामिल किया. भागलपुर के छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी के साथी कार्यकर्ता बोधगया भूमि आंदोलन से प्राप्त अनुभवों को, वहाँ के कामों के तर्ज पर भागलपुर में गंगा पर पानीदारी-जमीनदारी को खत्म करने के लिए आंदोलन करना चाहिए विचार किया. फिर रामशरण जी के अगुआई और अनिल प्रकाश जी के नेतृत्व में छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी से निकला बैनर ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ के बैनर तले लड़ाई की शुरुआत हुई. यहाँ छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी की भूमिका एक उत्प्रेरक की रूप में देखा जा सकता है. बोधगया का एक बड़ा आंदोलन था. पचमोनिया जैसी छोटी जगह पर भूमि के सवाल पर चल रहे आंदोलन वक्त साथी अनिल प्रकाश जो छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व कर रहे थे ने निर्णय किया कि जब छोटे से गाँव में आंदोलन हो तकता तो कहलगांव में भी कुछ किया जाय.

भग्गू सिंह और रत्नेश सिंह नाम का दो परिवार जो गंगा पार करने वाले से जबरन पैसा वसूला करता था. नाव से पार होने वाले जो पैसा देने से इनकार करता था. उसे घर में बंद कर दिया जाता था, और कुत्ते से कटवाया करता था. उसके खिलाफ लड़ाई शुरू हुई. साथ ही दियारे में कुछ बेनामी जमीन थी. लगभग 513 बीघा जमीन शंकरपुर दियारे में हुआ करती थी. उसके खिलाफ लड़ाई शुरू हुई. परिणाम स्वरूप जमीन दलित, अतिपिछड़े भूमिहीन के बीच बांटी गई. दबंगों-सामंतों के आतंक के खिलाफ ‘दियारा जागरण समिति’ के बैनर तले शुरू किया गया यह लड़ाई भी गंगा मुक्ति आंदोलन इकाई संगठन था. इसके तहत वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा दिया गया ‘जिसकी लड़ाई उसका नेतृत्व’ इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया. इसके कारण मछुआरे व झुग्गी-झोपडी के कम पढ़े लिखे लोगों का नेतृत्व आगे आया. बहुत सारे लोग आज नेतृत्व की भूमिका में है. एक तरह से गंगामुक्ति आंदोलन वह प्रशिक्षण स्कूल हो गया जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं का उस प्रशिक्षण से निकले हुए लोग आज नेतृत्वकारी भूमिका में अलग-अलग जगहों पर स्थापित हैं आज गंगामुक्ति आंदोलन के दरम्यान कई इस तरह के प्रयोग भी हुये हैं. जैसे कई बार मछुआरों का अपराधियों ने जाल छीन लिया. आंदोलन का असर इस कदर था कि लोग यानी मछुआरे सजग हो गए, जाल व नाव छिनने पर मछुआरे 250-300 की संख्या में अपराधियों का घर-घेर लिया करता था. गाँव के लोग और अपराधी के पिता छीने हुए जाल और नाव वापस करवाता था. अपराधियों का घर घेरने का काम महिलाओं द्वारा होता था. ‘घेरावारी उखाड़ेंगे, ऑक्सन नहीं होने देंगे’. ये नारा हुआ करता था. यानी जिस भी अपराधियों का घर घेरा जाता था. उसके पहले इसकी सूचना प्रशासन को दे दिया जाता था. तब कहलगांव के आस-पास जितनी भी शराब की भठ्ठी थी उन सभी को तोड़ डाला गया और अपने शराबी पति के खिलाफ सत्याग्रह शुरू कर दिया. जैसे खाना बंद, चुल्हा बंद, बात-चीत बंद, रिलेशनशिप बंद जैसे सत्याग्रह कर सहारा लेकर भारतीय समाज के जनमानस में वसा पुरुष सत्ता का प्रतिकार कर गंगा मुक्ति आंदोलन को सक्रियता प्रदान किया. ये शांतिमयता का प्रयोग गंगा मुक्ति आंदोलन के दरम्यान अलग-अलग क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा था. इस तरह लड़ाई को मुख्य सफलता मिली की पानी पर का जमींदारी 1991 में पूरी तरीके से समाप्त करने की घोषणा हुई. 80 किमी की जमींदारी खत्म हुई. उस समय बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार बन गई थी. उसने एक कदम आगे जाकर बिहार की तमाम नदियों को उस समय बिहार- झारखण्ड एक हुआ करता था. को कर मुक्त कर दिया. ये कॉपरेटिव अथवा सहकारी समितियों के हाथ में भी नहीं रहेगा. नदी-नाला, कोल-धाव सबको टेक्स फ्री कर दिया गाया. बाद में सचिव स्तर के अधिकारी ने बहुत ही चालाकी से मुख्य करेंट को प्रमुख धार (मैंन कैरेंट) से जुडी हुई यानी जिन्दाधार केवल वही फ्री रहेगा. बांकी जो डीसकनेक्ट होगा, उसका नहीं. उसे निलाम कर देंगे. गंगा के मुख्यधार से कटकर फोहा नाला और जमुनिया धार वो भी फ्री रहेगा. उसे बांधा नहीं जायेगा. लेकिन आज उसे बांधा जाने लगा है, उन माफियाओं-दंबंगों के खिलाफ आज भी आंदोलन चल रहा है. एक तो जमींदारी खत्म हुई, 80 किमी की… दूसरा की बिहार की तमाम नदियों की ट्रेक्स फ्री किया गया. ट्रेक्स फ्री हुआ पारम्पारिक मच्छुआरे के लिए… ये दो प्रमुख काम हुआ इस आंदोलन से… दियारे में 500 बीधा जमीन बांटी गई.

अनिरुद्ध जी जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता भी इस आंदोलन ने दिया जो आज तक कभी स्कूल नहीं गए लेकिन देश-दुनिया की सामाजिक-राजनीतिक समझ एक स्कॉलर की तरह है. विकासनीति की अच्छाई और बुराई दोनों की समझ बहुत ही अच्छी तरह से करना जानते हैं. यही इस आंदोलन की सफलता है. इस आंदोलन से निकले लोग बिहार-झाड़खंड के विभिन्न हिस्सों में और देश के अन्य हिस्सों में उत्प्रेरक, संगठक और प्रशिक्षक के रूप में कार्य कर रहे हैं. पत्रकारिता, सांस्कृतिक संरचना, कला-साहित्य और अन्य-अन्य क्षेत्रों में इस आंदोलन से निकले लोग अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं. नमामी-गंगे के नाम पर चलाए जा रहे अभियान का मुख्य लक्ष्य गंगा को प्रदुषण मुक्त करना नहीं है. जैसे एक नारा आया ‘जमीन जिसकी जोत उसकी’, ‘गंगा किसकी, जो उस पर जीवन यापन करता है उसकी’. गंगा पर जीने वाले लोगों की गंगा है. किसान, मछुआरे, जो गंगा का पानी पीते है और कृषि के सिंचाई के उपयोग में लाते हैं. वह नहीं होकर गंगा किसकी हो गई जो गंगा की आरती उतारे, उसकी हो गई. आस्था के नाम पर गंगा को बचायेंगे तो नहीं बचेगा. आस्था और आजीविका दोनों जब-तक नहीं जुड़ेगा तब-तक गंगा मुक्ति सही अर्थों में संभव नहीं है.

गंगा मुक्ति आंदोलन जहाँ अपने परम्परागत रोजगार को बचाने के लिए महत्वपूर्ण हुआ वही पत्तिसत्ता से लड़ने का बड़ा हथियार भी बना. भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में सभ्याताओं के विकास के साथ-साथ पनपने वाली समस्या ने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के सांस्कृतियों को जन्म दिया. जिसके परिणाम स्वरूप शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार भी जन्म लिया. उन मान्यताओं को स्थानीय प्रयास से ही समाप्त करना संभव हो पाया है. गंगा मुक्ति आंदोलन उसके उत्कृष्ट उधारण में से एक हैं.

नीरज कुमार, पी-एच.डी, शोधार्थी Read it also-दलित आंदोलन बनाम सवर्ण आंदोलन

भाजपा छोड़ने के बाद बड़े धमाके की तैयारी में सावित्री बाई फुले

नई दिल्ली। भाजपा सांसद सावित्रीबाई फुले ने भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. भाजपा से दो-दो हाथ करने को तैयार फुले ने कहा है कि उनका इस्तीफा भाजपा के ताबूत में आखिरी कील होगा. उन्होंने इसी महीने में एक बड़ी जनसभा कर एक और धमाका करने की बात कही है. फुले उत्तर प्रदेश के बहराइच लोकसभा सीट से सांसद हैं. 6 दिसंबर को बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण दिवस पर उन्होंने भाजपा छोड़ने की घोषणा की. पिछले काफी वक्त से यह माना जा रहा था कि वह भाजपा छोड़ सकती हैं, बावजूद इसके उनके द्वारा लगाए गए गंभीर आरोप से भाजपा तिलमिला गई है. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को भेजे अपने इस्तीफे में सावित्रीबाई फुले ने भाजपा पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया. उनका आरोप है कि दलित होने के कारण पार्टी के भीतर अपनी आवाज को अनसुना किया गया. प्रेस कांफ्रेंस के दौरान उन्होंने भाजपा को दलित, पिछड़ा और मुस्लिम विरोधी कहा और पार्टी पर आरक्षण ख़त्म करने की साज़िश रचने का आरोप लगाया. इस्तीफे के बाद अपनी भविष्य की रणनीति पर सावित्रीबाई फुले ने का कहना है कि वह 16 दिसंबर को एक रैली कर अपनी अगली रणनीति का खुलासा करेंगी. बहरहाल उत्तर प्रदेश में पहले से ही मुसीबत में दिख रही भाजपा को सावित्रीबाई फुले के इस्तीफे से एक और झटका लगा है. फुले जिस तरह से अपनी संस्था नमो बुद्धाय जनसेवा समिति के बैनर तले उत्तर प्रदेश में लगातार सक्रिय हैं, वह भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती हैं.

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हनुमान को दलित कहे जाने पर दलितों को ही आपत्ति क्यों?

आज के चुनावी माहौल में देशभर में राजनीतिक दलों ने  दलितों\ पिछ्ड़ों और अल्पसंख्यकों के सामने कुछ ऐसे मुद्दों को उछाल दिया जाता है जिनके जाल में फंसकर दलित\ पिछड़े और अल्पसंख्यक अपने मूल मुद्दों को भूलकर फालतू के मुद्दों में उलझकर अनाप-सनाप बहस में उलझकर आपस में ही एक दूसरे के बीच दीवार खींच लेते हैं. राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा तथाकथित भगवान हनुमान को दलित व वंचित बताया जाना, राज्य के बहुत से लोगों को रास नहीं आया है. जहाँ योगी आदित्यनाथ के बयान पर दलितों में रोष देखने को मिल रहा है वहीं ब्राह्मण समाज में योगी आदित्यनाथ के बयान के प्रति रोष है. खबर है कि जयपुर के एक संगठन ‘सर्व ब्राह्मण समाज’ ने तो हनुमान को दलित बताये जाने वाले बयान पर योगी जी को नोटिस भेजकर माफी मांगने को कहा है. ‘सर्व ब्राह्मण समाज’ का कहना है कि बजरंग बली न तो दलित हैं, न वंचित और न ही लोकदेवता है. ‘सर्व ब्राह्मण समाज’ की इस कार्यवाई से तो महज एक  ही बात समझ में आती है कि ये लोग दलितों का समर्थन  हासिल करने के लिए दलित समाज को  इस चुनावी दौर में केवल अपने पाले में खींचने पर का प्रयास कर रहे हैं.
ब्राह्मण समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुरेश मिश्रा ने अपने वकील के जरिए भेजे गए नोटिस में योगी आदित्यनाथ से इस मामले में माफी मांगने को कहा है और तीन दिन में ऐसा नहीं करने पर कानूनी कार्रवाई की धमकी दी है. अब सुरेश मिश्रा जी को यह जान लेना चाहिए कि योगी जी के खिलाफ केस डालना भी इतना आसान नहीं, जितना आसान ये लोग समझ रहे हैं. किसी भी सरकार के मुखिया के खिलाफ केस दायर करने के लिए राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति की अनुमति की आवश्यकता होती है….जो नितांत असंभव है. उल्लेखनीय है कि आजकल ही नहीं हमेशा से, सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की रही हो, राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति की अनुमति मिलना आसान इसलिए नहीं होता क्योंकि राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों पदों पर केन्द्रीय सरकार के द्वारा अपने ही दल के राजनीतिक लोग चुने जाते हैं. जबकि ये लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है. विधान तो ये है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे पदों पर राजनितिक लोग न होकर गैर राजनीतिक बुद्धीजीवी वर्ग के लोग होने चाहिएं जिनकी सोच लोकतांत्रिक और आजाद होनी चाहिए किंतु आज तक भी ऐसा नहीं हुआ है. कहना गलत न होगा कि देश में लोकतंत्र की व्यवस्था राजनीतिक दलों की रखैल होकर रह गई है…और कुछ नहीं. सारी की सारी राजनीतिक पार्टियाँ एक दूसरे को देशद्रोही ठहराने का प्रयत्न करती हैं जबकि पक्ष और विपक्ष दोनों का राजनीतिक चरित्र लगभग एक जैसा ही होता है. आजकल तो सत्ता पक्ष द्वारा राष्ट्रप्रेमी और राष्ट्रद्रोही होने तक के प्रमाण पत्र बांटे जाने लगे हैं. जो सरकार का पक्षधर वो राष्ट्रवादी और जो सरकार से सवाल करे वो राष्ट्रद्रोही. खैर! सुरेश मिश्रा जी की हनुमान के प्रति इस तरफदारी में भी दलितों को अपने खैमें में खींचकर भाजपा में कोई न कोई बेहतर जगह तलाशने की कोशिश माना जा सकता है.
पुन: उल्लिखित है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों के समर्थन में राजस्थान में ताबड़तोड़ जनसभाएं कर रहे योगी आदित्यनाथ ने मंगलवार को मालाखेड़ा अलवर में कहा था कि ‘बजरंग बली’ ऐसे लोकदेवता हैं जो स्वयं वनवासी हैं, गिरवासी हैं दलित हैं वंचित हैं…. यहाँ सवाल ये उठता है कि योगी आदित्य के दिमाग में केवल  हनुमान् की जाति का ध्यान ही क्यों आया, हनुमान की सेना में तो अनेक बानर शामिल थे. योगी आदित्य नाथ उनकी जाति के बारे में उल्लेख करने में क्यों चूक गए? …शायद इसलिए कि तथाकथित भगवान राम उनके सेनापति थे…और हनुमान केवल एक सेवक की भूमिका निभा रहे थे. यदि अन्य सेना की जाति पर चर्चा की गई होती तो फिर सेनापति राम की जाति पर सवाल उठाना उनकी मजबूरी हो गई होती… कि नहीं?  जबकि भाजपा की पैत्रिक संस्था सारे चुनाव भगवान राम और उनका मन्दिर बनाने के नाम पर लड़ रही है फिर भगवान हनुमान कहाँ से और किस लिए राजनीतिक क्षेत्र में लाकर खड़े कर दिए गए? रामायण के और भी इतने कितने ही पात्र हैं जिनकी जाति पर योगी जी ने कोई सवाल नहीं किया, केवल हनुमान जी पर ही किया….. आखिर क्यों? …. शायद इसका कारण यह है कि हनुमान और उनके सहयोगियों को बानर माना जाता रहा है और अब क्योंकि योगी जी का मानना है कि भारतीय समाज का दलित वर्ग हनुमान को अपना भगवान मानता है. इसलिए योगी जी ने दलितों को भाजपा के हक में करके केवल और केवल राजनीतिक रोटिया सेकने के लिए के लिए ये दाव खेला होगा. जाहिर है बाकी देवताओं को सब ब्राह्मण ही बताते हैं किंतु आज वो सब जातियां भाजपा से किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई हैं, जाहिर है उनकी जातियां गिनाने से इन्हें को कोई अतिरिक्त लाभ नहीं होने वाला है .
उल्लेखनीय है कि योगी जी की इस टिप्पणी से नाराज ब्राह्मण समाज ने नोटिस में कहा है कि हनुमान भगवान हैं. उन्हें वंचित और लोकदेवता बताना न केवल उनका बल्कि लाखों हनुमान भक्तों का अपमान है. कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य प्रमोद तिवारी ने भी योगी के इस बयान पर आपत्ति जताते हुए कहा, ‘भाजपा अभी तक इंसान को बांटने का काम कर रही थी,  लेकिन अब यह भगवान को भी जाति में बांट रहे हैं.’ उनके कहने का साफ साफ मतलब है कि भाजपा ने कभी भी देश और समाज को जोड़ने का काम नहीं किया.
यह कहना अतिश्योक्ति न होगा किदेश की राजनीति में इन दिनों जो चल रहा है, उसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे. जो राजनेता और संगठन अब तक इंसानों की जाति पर राजनीति कर रहे थे, वे अब भगवान की जाति को भी राजनीति में लपेट रहे हैं. इससे पहले एक सवाल है कि क्या आप भगवान राम के परम भक्त हनुमान जी किसी जाति के बारे में कुछ जानते थे…. योगी जी के इस बयान के बाद अनेक राजनीतिक दलों के नेता और सामाजिक/धार्मिक संगठन के सदस्य भी हनुमान जी की जाति खोज लाए. ….आलम ये हो गया  है कि कोई हनुमान को दलित, तो कोई आदिवासी, तो कोई ब्राह्मन मान रहा है….. यहाँ तक कि कोई उन्हे आर्य मानने का तर्क तक दे रहा है. ऐसे में योगी के सामने इन सबका कोई उत्तर नहीं है.
योगी के इस बयान से राजस्थान के दलितों को ही नहीं अन्य राज्यों के दलितों को भी  अत्याधिक हैरान किया हैं… सुना है कि  ब्राह्मण सभा के एक राष्ट्रीय अध्यक्ष सुरेश मिश्रा ने भी कानूनी नोटिस भेज कर योगी से अपने बयान पर माफी मांगने को कहा है…. इस तरह योगी का बयान एक राजनीतिक मुद्दा बन सा गया है. … यहाँ कहना न होगा कि योगी के  बयान पर सबसे ज्यादा आपत्ति भारत के द्लित समाज को हुई है. अफसोस तो ये है पी एम मोदी की इस ओर पूर्ण चुप्पी साध्रक योगी जे के बयान का समर्थन ही किया है.
मेरी नजर में दलितों की यही सबसे बड़ी नाकामयाबी है कि वो गैर-दलितों के इस प्रकार के बयानों के दूरगामी उद्देशयों का मतलब/ हकीकत को समझे बिना ही अपना खूंटा गाड़ने लगते हैं जबकि ऐसे बयान केवल और केवल दलितों को असली मुद्दों से भटकाने की कोशिश होती है. ऐसे बयानों से दलितों का कुछ भला नहीं होने बाला, बल्कि उन्हें अपने मूल मक्सद से भटकाने का प्रयास होता है. प्रयास होता है कि दलितों को भावनात्मक विषयों में उलझाकार उन्हें रोजी-रोटी, रोजगार जैसे मुद्दों, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बरकारारी, एस. सी./एस. टी. एक्ट की बात करने के मौंको से दूर ही रखा जाय. और सच ये है कि दलितों के कुछ छ्दम नेता जो इन वर्चस्वशाली राजनीततिक दलों के चमचे योगी के जैसे बयानों को तूल देने के लिए धरने/ मिथ्या आन्दोलनों पर उतारू होकर दलित समाज को भ्रमित करने का काम करके दो रोटी की बासी रोटी का जुगाड़ करते है किंतु ऐसी हरकतों से समूचे समाज का निहायत ही नुकसान है. मुझे तो दुख ये भी है कि हनुमान जी चाहे जिस भी जाति के थे, दलित अथवा बहुजन  समाज को इससे क्या फर्क पडता है. अब हनुमान दलित थे अथवा नहीं, इसका आज के दलितों पर क्या प्रभाव पड़ता है, पता नहीं? फिर दलितों ने इस मुद्दे पर किसलिए चिल्लपौं लगा रखी है. किंतु योगी जैसे एक मुख्य मंत्री के द्वारा  छोड़े गए सुगूफे  को दलितों द्वारा गहरे से लेना सीधे- सीधे बाबा साहेव अम्बेडकर के विचारों से असहमति रखना है. जाहिर है कि ऐसे बयानों का केवल और आम दलित शिकार नहीं है अपितु वो दलित भी है जो राजनीतिक दलों के दलाल बने हुए हैं. कहने को आज के दलित अपने आप को अम्बेडकरवादी कहते हैं किंतु अम्बेडकरवाद को समझना शायद उनके बूते से परे रहा है. दरअसल अम्बेडकरवा बाबा साहेब अम्बेडकर की विचारधारा और दर्शन है. स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, बौद्ध धम्म, विज्ञानवाद, मानवतावाद, सत्य, अहिंसा आदि के विषय आम्बेडकरवाद के सिद्धान्त हैं. छुआछूत को नष्ट करना,  दलितों में सामाजिक सुधार, भारत में बौद्ध धम्म का प्रचार एवं प्रचार, भारतीय संविधान में निहीत अधिकारों तथा मौलिक हकों की रक्षा करना, एक नैतिक तथा जातिमुक्त समाज की रचना और भारत देश प्रगति….यह प्रमुख उद्देश शामिल हैं. आम्बेडकरवाद सामाजिक, राजनितीक तथा धार्मिक विचारधारा है.
आज (05.12.2018) की ही खबर है कि कुछ दलित कनाट प्लेस के हनुमान मन्दिर पर कब्जा करने के लिए गए तो कुछ लोग मुज्जफरनगर के हनुमान मन्दिर पर कब्जा करके अपने अधिकारों का दिखावा करने से पीछे नहीं थे. किंतु दुख की बात ये है कि इस प्रकार की कोशिश किसी अम्बेडकरवादी संगठन के बुलावे पर नहीं अपितु वर्चस्वशाली राजनीतिक दलों के बेनर तले काम कर रहे कुछ लोगों का उपक्रम थी. हैरत तो तब हुई कि जब भीम आर्मी के चन्द्रशेखर ने हनुमान मन्दिरों पर कब्जा करने की कवायद करने को बढ़ावा दिया. मैं आर्मी चीफ से ये पूछना चाहता हूँ कि क्या उनका ये आन्दोलन बाबा साहेब की बाईस प्रतिज्ञाओं का उलंघन नहीं तो और क्या है? सच तो ये है कि मुझे यह ही समझ में नहीं आ रहा कि  हनुमान को दलित कहे जाने पर दलितों को ही आपत्ति क्यों है? इन घटनाओं से मुझे तो यही लगता है कि योगी जी अपने मकसद में सफल हो गए हैं. क्योंकि दलित समाज के तथाकथित बोद्ध बाबा साहेब द्वारा दिलाई गई बाइस प्रतिज्ञायों को दरकिनार करके हनुमान मन्दिरों के दरवाजे पर भजन-कीर्तन करने में जुट गए हैं. ऐसे लोग बाबा साहेब के इन बोलों को भी भूल गए कि दलितों अर्थात गरीबों और निरीहों की उन्नति का मार्ग मन्दिरों से नहीं स्कूलों और पुस्तकालयों से होकर निकलता है.