दलित आंदोलन बनाम सवर्ण आंदोलन

भारत देश में पद्मावती विवाद जैसे फ़िज़ूल मुद्दे आंदोलन का रूख अख्तियार कर लेते हैं, परंतु दलितों का विरोध प्रदर्शन कभी राष्ट्रव्यापी आंदोलन नहीं बन पाता.

जबकि भारत में दलितों की जनसंख्या, पद्मावती विवाद को लेकर तोड़-फोड़ करके राष्ट्र का नुकसान करने वाले जाति वर्ग की जनसंख्या से कई गुना अधिक है.
कारण क्या है? आइए समझते हैं…

मीडिया की भूमिका

आंदोलन अचानक नहीं खड़ा होता है… आंदोलन को खड़ा करना पड़ता है… पहली क्रिया को देखकर ही दूसरी प्रतिक्रिया होती है. पहले चिंगारी निकलती है, फिर धीरे-धीरे वह आग बनती है. पहले एक आवाज़ उठती है, फ़िर उस आवाज़ को सुनकर ही उसके समर्थन में दूसरी आवाज़ उठती है.

पद्मावती मामले में मीडिया की भूमिका को आपको ठीक से समझना चाहिए.
मीडिया ने शुरू से ही इस विवाद में काफ़ी दिलचस्पी दिखाई है, और पद्मावती का विरोध कर रहे जाति समुदाय को खूब प्रचार दिया है. पद्मावती के विरोध की हर घटना को टी०वी० ने सभी जगह दिखाया है. और यही सब देख-देखकर ही यह विरोध प्रदर्शन अपने पैर पसारता गया. धीरे-धीरे इस विरोध में हर राज्य से संबंधित जाति समुदाय के लोग जुड़ते गए.और यह बड़ा बनता गया. हम यह कह सकते हैं कि मीडिया ने ही इस विरोध प्रदर्शन को अपने कैमरे के जरिए घर-घर तक पहुँचा दिया.

अब ज़रा दलितों के विरोध प्रदर्शन पर आइए…

जो मीडिया का कैमरा अन्य जगह बहुत तीव्र गति से घूमता है, वही कैमरा दलित आंदोलन पर न जाने कहाँ खो जाता है.
उदाहरण-

गुजरात के उना में दलितों को महिन्द्रा ज़ायलो गाड़ी से बाँधकर निर्ममता से लोहे की बेंते मारी गई. जिसके बाद गुजरात भर में दलितों ने संवैधानिक व शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किया जिसमें उन्होने मरी हुई गायों को उठाकर उसकी खाल उतारने की जगह उन मरी हुई गायों को हर जिले के कलेक्ट्रेट कार्यालय में फेंक आए और कहा ‘तुम्हारी माँ, तुम ही सँभालो’. काफ़ी दिनों तक यह विरोध प्रदर्शन चला…परंतु किसी न्यूज़ चैनल नें इस विरोध प्रदर्शन में तनिक भी दिलचस्पी नहीं ली. समाचार पत्रों में भी यह विरोध प्रदर्शन जगह नहीं बना पाया. जिसके कारण यह बड़ा आंदोलन बनने से पहले ही दब गया.

अगर इसे मीडिया ने दिखाया होता, तो निश्चित रूप से गुजरात के विरोध प्रदर्शन का असर इतर राज्यों में भी दिखाई पड़ता, परंतु गुजरात के दलित आंदोलन कि सवर्ण आधिपात्य वाली गोदी मीडिया ने कोख में ही भ्रूण हत्या कर दी.

दूसरा उदाहरण लीजिए-

कुछ दिनो पूर्व भीमा कोरेगाँव में दलित समुदाय अपने महार सैनिकों की जीत का जश्न मनाने एकत्रित हुए. जिन पर अचानक भगवा झंडा लिए हथियारबंद हिंदूवादियों ने हमला कर दिया, व दलितों को दौड़ा दौड़ा कर पीटा व उनकी गाड़ियों के शीशे तोड़ दिए. इस हमले के विरोध में महाराष्ट्र में दलित समुदाय के लोगों ने बहुत भारी विरोध प्रदर्शन किया. परंतु भीमा कोरेगाँव में हुए दलित उत्पीड़न की खबर किसी चैनल (सिवाय एन०डी०टी०वी० के) ने नहीं दिखाई.
इसलिए वह विरोध प्रदर्शन भी महाराष्ट्र में ही दबकर रह गया.

यह तो रही मीडिया की भूमिका जो बहुत ज़रूरी होती है. परंतु मीडिया में हद से ज्यादा सवर्ण वर्ग के आधिपात्य के चलते मीडिया बहुजनों के मुद्दों को निगल जाता है, और डकार भी नहीं लेता.
(अमेरिका में मीडिया हाउसेज़ अपने न्यूज़ चैनल में अश्वेतों की नियुक्तियों पर खासा ध्यान रखते हैं)

समाज की भूमिका

जब जब दलित अपने हक के लिए खड़ा होगा! तुरंत ही कुछ ऐंटीना धारियों को डर लगने लगता है कि जिस फर्जी हिंदुत्व के नाम पर उन्होने विराट हिंदू एकता स्थापित कर अपना राज स्थापित किया है, वह विराट हिंदू एकता टूट रही है. अब वह आपको वापस अपने फर्जी विराट हिंदू एकता में शामिल करने के लिए जुगत भिड़ाने लगते हैं. इसके तहत तुरंत ही वो किसी एक मुसलमान को उन दलितों के विरूद्ध खड़ा कर देते हैं… ताकि दलितों के सवर्णों के खिलाफ़ उबल रहे गुस्से को हिंदू-मुसलमान ऐंगल देकर अपनी रोटी सेंकी जाए. और दुर्भाग्यवश ऐसा हो भी जाता है. दलित आंदोलन अपने मूल मुद्दे से भटककर हिंदू-मुसलमान विवाद बन जाता है. जिसमें लाठियाँ तो दलित खाता है, परंतु बाद में राज सवर्ण करते हैं.
(वे आप पर राज इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकी वे बुद्धिमान है ! बल्कि इसलिए कर रहें हैं क्योंकी आप बेवकूफ़ है)

राजनीति की भूमिका

दलितों को हमेशा कोर वोट बैंक माना गया है, क्योंकी दलित केवल झंडा और निशान देखकर वोट करता है. जिसका फ़ायदा सभी पार्टियाँ उठाती हैं. जिस पार्टी को दलितों का वोट मिलता आया है, वे इसलिए कुछ नहीं बोलती क्योंकी उन्हे तो दलितों का समर्थन है ही! और जिस पार्टी को दलितों का वोट नहीं मिलता है, वे खुलकर दलितों के मुद्दों को दरकिनार कर दूसरी जातियों को अपनी ओर खींचती है. परंतु सवर्ण वोटर बहुत चालाकी से हर चुनाव में अपना पाला बदलते रहते हैं. वे कभी कांग्रेस में रहे…फिर एक वर्ग सतीश मिश्रा के कारण बसपा में गया, और दूसरा वर्ग रघुराज प्रताप सिंह के कारण सपा में आया! आजकल वे सभी भाजपा में हैं. वे कभी किसी एक के नहीं रहे, और इस बात का उन्हे लाभ भी खूब मिला. वे किसी के कोर वोटर नहीं बनते, जिसके कारण हर पार्टी उन्हे अपनी तरफ़ खींचने की जुगत में रहती है. इसी कारण पार्टियाँ दलित मुद्दों पर ध्यान नहीं देती क्योंकी उन्हे पता है कि दलितों का वोट तो वहीं जाएगा, जहाँ हमेशा से जाता रहा है. इसी कारण दलितों के आंदोलनों को राजनैतिक साथ भी नहीं मिल पाता. इन्ही सब सम्मिलित कारणों से दलितों का आंदोलन कभी राष्ट्रव्यापी नहीं बन पाता.

बहुत लंबा झोल-झाल है…
हर किसी को समझना चाहिए.

प्रतीक सत्यार्थ

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