संविधान के मकसद को नाकाम करने में मोदी ही नंबर-1 पीएम है.

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आज 26 नवम्बर है: संविधान दिवस ! 1949 में आज ही के दिन बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्र को वह महान संविधान सौपा था, जिसकी उद्देश्यिका में भारत के लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ कराने की घोषणा की गयी थी.

किन्तु संविधान सौंपने के एक दिन पूर्व अर्थात 25 नवम्बर, 1949 को उन्होंने इसे लेकर संसद के केन्द्रीय कक्ष से राष्ट्र को चेतावनी भी दिया था. उन्होंने कहा था- ’26 जनवरी, 1950 को हम राजनीतिक रूप से समान किन्तु आर्थिक और सामाजिक रूप से असमान होंगे. जितना शीघ्र हो सके हमें यह भेदभाव और पृथकता दूर कर लेनी होगी. यदि ऐसा नहीं किया गया तो जो लोग इस भेदभाव के शिकार हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे, जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.’ हमें यह स्वीकारने में कोई द्विधा नहीं होनी चाहिए कि स्वाधीन भारत के शासकों ने डॉ.आंबेडकर की उस ऐतिहासिक चेतावनी की प्रायः पूरी तरह अनेदखी कर दिया,जिसके फलस्वरूप आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी,जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, का भीषणतम साम्राज्य आज भारत में कायम हो गया है:अल्पजन जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी तबके का धर्म के साथ अर्थ-ज्ञान और राज-सत्ता पर 90 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है,जो इस बात का प्रमाण है कि संविधान अपने उद्देश्यों को पूरा करने में प्रायः पूरी व्यर्थ हो चुका है.

यही कारण है आजकल वंचित वर्गों के असंख्य संगठन और नेता आरक्षण के साथ संविधान बचाने के लिए रैलियां निकाल रहे हैं: भूरि-भूरि सेमीनार आयोजित कर रहे हैं. आज के इस खास दिन संविधान बचाने के नाम पर पूरे देश में सैकड़ों सेमीनार आयोजित किये गए होंगे, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है.

बहरहाल यह सवाल किसी को भी परेशान कर सकता है कि आजाद भारत के शासकों ने भयावह आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे तथा लोगों को तीन न्याय –सामाजिक,आर्थिक ,राजनीतिक- सुलभ कराने के लिए प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाया? इस सवाल का बेहतर जवाब खुद बाबा साहेब आंबेडकर ही दे गए थे. उन्होंने कहा था,’संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो ,अगर इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे तो यह बुरा साबित होगा. अगर संविधान बुरा है,पर उसका इस्तेमाल करने वाले अच्छे होंगे तो बुरा संविधान भी अच्छा साबित होगा.’ जिस बेरहमी से अबतक आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की समस्या तथा तथा तीन न्याय की उपेक्षा हुई है, हमें अब मान लेना चाहिए कि हमारे संविधान का इस्तेमाल करनेवाले लोग अच्छे लोगों में शुमार करने लायक नहीं रहे. अगर ऐसा नहीं होता तो वे आर्थिक और सामाजिक विषमता से देश को उबारने तथा सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक न्याय सुलभ करने के लिए संविधान में उपलब्ध प्रावधानों का सम्यक इस्तेमाल करते,जो नहीं हुआ.

आखिर क्यों नहीं आजाद भारत के शासक अच्छे लोग साबित हो सके,यह सवाल भी लोगों को परेशान कर सकता है.इसका जवाब यह है-‘चूंकि सारी दुनिया में ही आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही होती रही है और इसके खात्मे का उत्तम उपाय सिर्फ लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक,शैक्षिक और धार्मिक- का वाजिब बंटवारा है, इसलिए आजाद भारत के शासक, जो हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न वर्ग से रहे, समग्र –वर्ग की चेतना से दरिद्र होने के कारण इसके खात्मे की दिशा में आगे नहीं बढ़े. क्योंकि इसके लिए उन्हें विविधतामय भारत के विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराना पड़ता और ऐसा करने पर उनका वर्गीय-हित विघ्नित होता, अतः वे स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर डॉ.आंबेडकर की अतिमूल्यवान चेतावनी तथा संविधान की उद्देश्यिका की अनदेखी कर गए और विषमता के खात्मे तथा तीन न्याय सुलभ करने के लायक ठोस नीतियां बनाने की बजाय गरीबी हटाओ,लोकतंत्र बचाओ,राम मंदिर बनाओ,भ्रष्टाचार मिटाओ इत्यादि जैसे लोक लुभावन नारों के जरिये सत्ता अख्तियार करते रहे .

उधर बाबा साहेब की सतर्कतावाणी की अवहेलना के फलस्वरूप गणतंत्र के विस्फोटित होने का सामान धीरे-धीरे तैयार होता रहा.आज पौने दो सौ जिलों तक नक्सलवाद का विस्तार;सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली; महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर हमारा बांग्लादेश,नेपाल और पाकिस्तान जैसे पिछड़े राष्ट्रों से पीछे रहना; तेज विकास के दौर में 84 करोड़ से अधिक लोगों का 20-25 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर और कुछ नहीं, बारूद के वे ढेर हैं जिसे अगर सम्यक तरीके से निष्क्रिय नहीं किया गया तो निकट भविष्य में हमारे लोकतंत्र का विस्फोटित होना तय है. बहरहाल यहां लाख टके का सवाल पैदा होता है, जब संविधान के सदुपयोग के लिहाज से आजाद भारत के तमाम शासक अच्छे लोगों में उत्तीर्ण होने में विफल रहे तो वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी को किस श्रेणी में रखा जाय? क्योंकि वे संविधान और आंबेडकर-प्रेम के मामले में बहुत आगे निकल चुके हैं.

जहां तक संविधान के प्रति श्रद्धा का सवाल है, इस मामले में 26 नवम्बर, 2015 एक खास दिन बन चुका है है. उस दिन मोदी ने बाबा साहेब डॉ.भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष को स्मरणीय बनाने के लिए 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करने के बाद 27 नवम्बर को लोकसभा में राष्ट्र के समक्ष एक मार्मिक अपील करते हुए कहा था –‘26 नवम्बर इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है. इसे उजागर करने के पीछे 26 जनवरी को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है. 26 जनवरी की जो ताकत है, वह 26 नवम्बर में निहित है, यह उजागर करने की आवश्यकता है. भारत जैसा देश जो विविधताओं से भरा हुआ देश है, हम सबको बांधने की ताकत संविधान में है, हम सबको बढाने की ताकत संविधान में है और इसलिए समय की मांग है कि हम संविधान की सैंक्टिटी,संविधान की शक्ति और संविधान में निहित बातों से जन-जन को परिचित कराने का एक निरंतर प्रयास करें. हमें इस प्रक्रिया को एक पूरे रिलीजियस भाव से, एक पूरे समर्पित भाव से करना चाहिये. बाबा साहेब आंबेडकर की 125 वीं जयंती जब देश मना रहा है तो उसके कारण संसद के साथ जोड़कर इस कार्यक्रम(संविधान दिवस ) की रचना हुई. लेकिन भविष्य में इसको लोकसभा तक सीमित नहीं रखना है. इसको जन-सभा तक ले जाना है. इस पर व्यापक रूप से सेमिनार हो, डिबेट हो, कम्पटीशन हो, हर पीढ़ी के लोग संविधान के संबंध में सोचें, समझें और चर्चा करें. इस संबंध में एक निरंतर मंथन चलते रहना चाहिए और इसलिए एक छोटे से प्रयास का आरंभ हो रहा है.’

इतना ही नहीं उस अवसर पर संविधान निर्माण में डॉ.आंबेडकर की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने यहां तक कह डाला था -‘ अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता, तो कोई बताये कि मेरे दलित, पीड़ित, शोषित समाज की हालत क्या होती? परमात्मा ने उसे वह सब दिया है, जो मुझे और आपको दिया है, लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है. उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है-‘ उनके उस भावुक आह्वान को देखते हुए ढेरों लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे आने वाले दिनों में कुछ ऐसे ठोस विधाई एजेंडे पेश करेंगे जिससे संविधान के उद्देश्यिका की अबतक हुयी उपेक्षा की भरपाई होगी: समता तथा सामाजिक न्याय की डॉ.आंबेडकर की संकल्पना को आगे बढाने में मदद मिलेगी.

किन्तु जिस तरह सत्ता में आने के पहले प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख रूपये जमा कराने का उनका वादा जुमला साबित हुआ, उसी तरह उनका डॉ.आंबेडकर और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता दिखाना भी जुमला साबित हुआ.

उनके कार्यकाल में 1 प्रतिशत टॉप की आबादी जो दौलत सन 2000 में 37 प्रतिशत बढ़कर 2016 में 58.5 प्रतिशत तक पहुंची थी, वह सिर्फ एक साल , 2017 में 73 प्रतिशत पहुँच गयी. आज टॉप की 10 प्रतिशत आबादी का 90 प्रतिशत से ज्यादा धन-दौलत पर कब्ज़ा हो चुका है.जो सरकारी नौकरियां अरक्षित वर्गों , विशेषकर दलितों के बचे रहने का एकमात्र स्रोत थी, वह ख़त्म हो चुकी है, इसका खुलासा खुद मोदी सरकार के वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी 5 अगत , 2018 को कर दिया. उन्होंने उस दिन कहा कि सरकारी नौकरिया ख़त्म हो चुकी हैं , इसलिए अब आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह गया है. जाहिर है मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों के कारण ही आरक्षण लगभग कागजों की शोभा बनकर रह गया है. मोदी ने न सिर्फ अल्पजन विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के हित में रेलवे स्टेशनों, हॉस्पिटलों आदि को निजीक्षेत्र में देने में सर्वशक्ति लगाया है, बल्कि देश की पांच दर्जन टॉप की यूनिवर्सिटियों को स्वायत्तता प्रदान कर उन्हें निजी हाथों में देने का भी उपक्रम चलाया है. धर्म-सत्ता पर विशेशाधिकार युक्त वर्ग का पहले से शतप्रतिशत कब्ज़ा था ही, आज उनकी सवर्णपरस्त नीतियों के चलते इस वर्ग का अर्थ-सत्ता, राज सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर भी 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो चुका.

ऐसे में अल्पजन सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर औसतन 90 प्रतिशत से ज्यादे कब्जे के फलस्वरूप संविधान की उद्देश्यिका में वर्णित तीन न्याय- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक- पूरी तरह सपना बन चुका जो इस बात संकेतक है कि संविधान अपने मूल उद्देश्य में विफल हो चुका है. और आज की तारीख में इस विफलता में मोदी की भूमिका का आंकलन करते हुए यह खुली घोषणा की जा सकती है कि संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने वालों में प्रधानमंत्री मोदी ही टॉप पर रहेंगे.

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