गंगा मुक्ति आंदोलन

बिहार के दो बड़े सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश जी के नेतृत्व में और रामशरण जी की अगुआई में 22 फरवरी 1982 को संगठित रूप से कहलगांव, भागलपुर, बिहार की धरती से गंगा मुक्ति आंदोलन का शुरुआत होता है. आंदोलन का मुख्य मुद्दा था, ‘मछली मारने का हक़ मछुआरों को मिलना चाहिए’ और 80 किलो मीटर तक गंगा, पर जो दो जमींदारों के कब्जों से गंगा को मुक्त कराना. महाशय महेश घोष और मुसर्रफ़ हुसैन मानी ये दो जमींदार थे. जिसके अन्दर सुल्तानगंज से लेकर बरारी फिर बरारी से पीरपैती तक की जमींदारी थी. तीसरा बड़ा मुद्दा जो बाद में आंदोलन के साथ जुड़ा, वो नदी पार करने वाले से जबरन पैसा वसूलने का जो मामला था ये हाल-फिलहाल तक बिहार के विभिन्न भागों में देखने को मिलता रहा है.

इन जमींदार के पास ये जमींदारी देवी-देवता के नाम पर सेवेत (अनुयायी) अधिकार मुग़लकाल से मिला हुआ था. जमींदारी उन्मुलन कानून लागू होने के 32 वर्ष बाद भी ये जमींदारी कायम रहना शोषण का प्रतीक ही था. स्थानीय स्तर पर संघर्ष करने वाले कुछ लोगों द्वारा ये लड़ाई जब कोर्ट में ले जाया गया तो जमीदारों का कोर्ट में कहना था कि हमलोग भैरवनाथ और देवी-देवता आदि-आदि का सेवेत (अनुयायी) है. ये हक़ हमलोगों को मुगलकाल से ही देख-रेख में दिया गया है. हमलोग तब से इसकी देख-रेख करते आ रहे हैं. और इसमें जो भी मछली आदि निकलता है, उस पर मेरा अधिकार है. इसलिए हमलोग इसका कमाई खाते हैं. जमींदार अपने पक्ष से यह तर्क दिया करते थे कि पानी पर मेरा अधिकार है. ये स्टेट नहीं है, परिसंपत्ति नहीं है. महाशय डेयहरी, नाथनगर, भागलपुर, बिहार में कई तरह के देवी-देवता है. जिसके नाम से सेवेत कायम था. उसका अपना नियम था, जो सामंतवाद के नीति की तरह होता था. ये लोग गंगा को पेटी कांटेक्टर के पास बेच देते थे. पेटी कांटेक्टर बड़ी रकम वसूलने के लिए क्षेत्र के आधार पर बोलवाला लोगों के माध्यम से उस इलाके में बड़ी रकम वसूलते थे. पेटी कांटेक्टर उस क्षेत्र के दबंग लोगों के माध्यम से नाव के साइज के हिसाब से टेक्स बसूल किया करते थे. जमींदारों तक तो बड़ी रकम पहुँचती ही नहीं थी. यानी हर जगह लठैत था. बड़े लठैत अपना कुछ हिस्सा लेकर छोटे-छोटे लठैत के बीच वसूली के लिए छोटा-छोटा इलाका दे दिया करता था. ये लोग बड़ी रकम मछुआरों से वसूलते थे. आंदोलन की एक वजह तो यह थी.

एक ख़ास जाति वर्ग समूह का जो लोग सदियों से गंगा पर ही अपना जीवन यापन किया करते थे. बिहार में जमींदारी उन्मुलन कानून लागू होने के बाद भी गंगा नदी पर 80 किमी तक दो व्यक्ति की जमीनदारी कायम रहना कानूनी रूप से गुलामी का प्रतीक था. जिसे कानूनी रूप से पानीदारी के नाम से जाना जाता है. कहलगांव के स्थानीय मछुआरे इस सवाल को उठाये जिसमें कई संगठन के लोग थे. जब उन लोगों को सफलता नहीं मिली तब वे लोग आंदोलन से वापस भी हो गए थे. मामला हायकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट तक गया. हाईकोर्ट में निषादसंघ केस हार चुके थे. लेकिन छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के स्थापना के तुरंत बाद छात्र- युवा संघर्ष वाहिनी ने बोधगया में मठ के खिलाफ भूमि मुक्ति आंदोलन शुरू किया था. उसकी प्रेरणा से भागलपुर के छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी के साथी ने पहल करके कहलगांव के साथियों को बोधगया मठ के खिलाफ संघर्ष में शामिल किया. भागलपुर के छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी के साथी कार्यकर्ता बोधगया भूमि आंदोलन से प्राप्त अनुभवों को, वहाँ के कामों के तर्ज पर भागलपुर में गंगा पर पानीदारी-जमीनदारी को खत्म करने के लिए आंदोलन करना चाहिए विचार किया. फिर रामशरण जी के अगुआई और अनिल प्रकाश जी के नेतृत्व में छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी से निकला बैनर ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ के बैनर तले लड़ाई की शुरुआत हुई. यहाँ छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी की भूमिका एक उत्प्रेरक की रूप में देखा जा सकता है. बोधगया का एक बड़ा आंदोलन था. पचमोनिया जैसी छोटी जगह पर भूमि के सवाल पर चल रहे आंदोलन वक्त साथी अनिल प्रकाश जो छात्र-यूवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व कर रहे थे ने निर्णय किया कि जब छोटे से गाँव में आंदोलन हो तकता तो कहलगांव में भी कुछ किया जाय.

भग्गू सिंह और रत्नेश सिंह नाम का दो परिवार जो गंगा पार करने वाले से जबरन पैसा वसूला करता था. नाव से पार होने वाले जो पैसा देने से इनकार करता था. उसे घर में बंद कर दिया जाता था, और कुत्ते से कटवाया करता था. उसके खिलाफ लड़ाई शुरू हुई. साथ ही दियारे में कुछ बेनामी जमीन थी. लगभग 513 बीघा जमीन शंकरपुर दियारे में हुआ करती थी. उसके खिलाफ लड़ाई शुरू हुई. परिणाम स्वरूप जमीन दलित, अतिपिछड़े भूमिहीन के बीच बांटी गई. दबंगों-सामंतों के आतंक के खिलाफ ‘दियारा जागरण समिति’ के बैनर तले शुरू किया गया यह लड़ाई भी गंगा मुक्ति आंदोलन इकाई संगठन था. इसके तहत वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा दिया गया ‘जिसकी लड़ाई उसका नेतृत्व’ इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया. इसके कारण मछुआरे व झुग्गी-झोपडी के कम पढ़े लिखे लोगों का नेतृत्व आगे आया. बहुत सारे लोग आज नेतृत्व की भूमिका में है. एक तरह से गंगामुक्ति आंदोलन वह प्रशिक्षण स्कूल हो गया जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं का उस प्रशिक्षण से निकले हुए लोग आज नेतृत्वकारी भूमिका में अलग-अलग जगहों पर स्थापित हैं आज गंगामुक्ति आंदोलन के दरम्यान कई इस तरह के प्रयोग भी हुये हैं. जैसे कई बार मछुआरों का अपराधियों ने जाल छीन लिया. आंदोलन का असर इस कदर था कि लोग यानी मछुआरे सजग हो गए, जाल व नाव छिनने पर मछुआरे 250-300 की संख्या में अपराधियों का घर-घेर लिया करता था. गाँव के लोग और अपराधी के पिता छीने हुए जाल और नाव वापस करवाता था. अपराधियों का घर घेरने का काम महिलाओं द्वारा होता था. ‘घेरावारी उखाड़ेंगे, ऑक्सन नहीं होने देंगे’. ये नारा हुआ करता था. यानी जिस भी अपराधियों का घर घेरा जाता था. उसके पहले इसकी सूचना प्रशासन को दे दिया जाता था. तब कहलगांव के आस-पास जितनी भी शराब की भठ्ठी थी उन सभी को तोड़ डाला गया और अपने शराबी पति के खिलाफ सत्याग्रह शुरू कर दिया. जैसे खाना बंद, चुल्हा बंद, बात-चीत बंद, रिलेशनशिप बंद जैसे सत्याग्रह कर सहारा लेकर भारतीय समाज के जनमानस में वसा पुरुष सत्ता का प्रतिकार कर गंगा मुक्ति आंदोलन को सक्रियता प्रदान किया. ये शांतिमयता का प्रयोग गंगा मुक्ति आंदोलन के दरम्यान अलग-अलग क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा था. इस तरह लड़ाई को मुख्य सफलता मिली की पानी पर का जमींदारी 1991 में पूरी तरीके से समाप्त करने की घोषणा हुई. 80 किमी की जमींदारी खत्म हुई. उस समय बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार बन गई थी. उसने एक कदम आगे जाकर बिहार की तमाम नदियों को उस समय बिहार- झारखण्ड एक हुआ करता था. को कर मुक्त कर दिया. ये कॉपरेटिव अथवा सहकारी समितियों के हाथ में भी नहीं रहेगा. नदी-नाला, कोल-धाव सबको टेक्स फ्री कर दिया गाया. बाद में सचिव स्तर के अधिकारी ने बहुत ही चालाकी से मुख्य करेंट को प्रमुख धार (मैंन कैरेंट) से जुडी हुई यानी जिन्दाधार केवल वही फ्री रहेगा. बांकी जो डीसकनेक्ट होगा, उसका नहीं. उसे निलाम कर देंगे. गंगा के मुख्यधार से कटकर फोहा नाला और जमुनिया धार वो भी फ्री रहेगा. उसे बांधा नहीं जायेगा. लेकिन आज उसे बांधा जाने लगा है, उन माफियाओं-दंबंगों के खिलाफ आज भी आंदोलन चल रहा है. एक तो जमींदारी खत्म हुई, 80 किमी की… दूसरा की बिहार की तमाम नदियों की ट्रेक्स फ्री किया गया. ट्रेक्स फ्री हुआ पारम्पारिक मच्छुआरे के लिए… ये दो प्रमुख काम हुआ इस आंदोलन से… दियारे में 500 बीधा जमीन बांटी गई.

अनिरुद्ध जी जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता भी इस आंदोलन ने दिया जो आज तक कभी स्कूल नहीं गए लेकिन देश-दुनिया की सामाजिक-राजनीतिक समझ एक स्कॉलर की तरह है. विकासनीति की अच्छाई और बुराई दोनों की समझ बहुत ही अच्छी तरह से करना जानते हैं. यही इस आंदोलन की सफलता है. इस आंदोलन से निकले लोग बिहार-झाड़खंड के विभिन्न हिस्सों में और देश के अन्य हिस्सों में उत्प्रेरक, संगठक और प्रशिक्षक के रूप में कार्य कर रहे हैं. पत्रकारिता, सांस्कृतिक संरचना, कला-साहित्य और अन्य-अन्य क्षेत्रों में इस आंदोलन से निकले लोग अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं.
नमामी-गंगे के नाम पर चलाए जा रहे अभियान का मुख्य लक्ष्य गंगा को प्रदुषण मुक्त करना नहीं है. जैसे एक नारा आया ‘जमीन जिसकी जोत उसकी’, ‘गंगा किसकी, जो उस पर जीवन यापन करता है उसकी’. गंगा पर जीने वाले लोगों की गंगा है. किसान, मछुआरे, जो गंगा का पानी पीते है और कृषि के सिंचाई के उपयोग में लाते हैं. वह नहीं होकर गंगा किसकी हो गई जो गंगा की आरती उतारे, उसकी हो गई. आस्था के नाम पर गंगा को बचायेंगे तो नहीं बचेगा. आस्था और आजीविका दोनों जब-तक नहीं जुड़ेगा तब-तक गंगा मुक्ति सही अर्थों में संभव नहीं है.

गंगा मुक्ति आंदोलन जहाँ अपने परम्परागत रोजगार को बचाने के लिए महत्वपूर्ण हुआ वही पत्तिसत्ता से लड़ने का बड़ा हथियार भी बना. भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में सभ्याताओं के विकास के साथ-साथ पनपने वाली समस्या ने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के सांस्कृतियों को जन्म दिया. जिसके परिणाम स्वरूप शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार भी जन्म लिया. उन मान्यताओं को स्थानीय प्रयास से ही समाप्त करना संभव हो पाया है. गंगा मुक्ति आंदोलन उसके उत्कृष्ट उधारण में से एक हैं.

नीरज कुमार, पी-एच.डी, शोधार्थी

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