हम भारतीय अपनी स्वतंत्रता से प्यार करते हैं। जब भी हमारी स्वतंत्रता को छीनने का प्रयास किया गया है, हमारे सतर्क नागरिकों ने निरंकुश लोगों से सत्ताा वापस लेने में संकोच नहीं किया। ये बातें किसी राजनेता ने नहीं, बल्कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमण ने कही हैं और वह भी नई दिल्ली में सीबीआई की स्थापना दिवस के समारोह के मौके पर।
गौर तलब है कि सीबीआई को लेकर तमाम विपक्षी पार्टियां आए दिन आरोप लगाती रहती हैं कि केंद्र में सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार सीबीआई का उपयोग राजनीतिक मंसूबों को अमलीजामा पहनाने के लिए करती है। ऐसे अनेक आरोप कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दल, फिर चाहे वह लालू प्रसाद की पार्टी राजद हो या ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस या फिर उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना द्वारा लगाए जाते रहे हैं। लेकिन यह पहली बार है जब सीबीआई के राजनीतिक इस्तेमाल किए जाने संबंधी बात परोक्ष रूप से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमण के द्वारा कही गयी है।
हम आपको बताते हैं कि पूरा माजरा क्या है। दरअसल, बीते 1 अप्रैल, 2022 को उन्होंने सीबीआई की स्थापना दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित किया। विषय था– “लोकतंत्र : जांच एजेंसियों की भूमिका और जिम्मेदारी”। चीफ जस्टिस ने कहा कि लोकतंत्र के साथ हमारे अबतक के अनुभव को देखते हुए यह संदेह से परे साबित होता है कि लोकतंत्र हमारे जैसे बहुलवादी समाज के लिए सबसे उपयुक्त है।
नहीं चलेगी तानाशाही
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि तानाशाही शासन के माध्यम से हमारे समृद्ध विविधता को कायम नहीं रखा जा सकता है। लोकतंत्र के माध्यम से ही हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, विविधता और बाहुल्यवाद को कायम और मजबूत रखा जा सकता है। लोकतंत्र को मजबूत करने में हमारा निहित स्वार्थ है क्योंकि हम अनिवार्य रूप से जीने के लोकतांत्रिक तरीके में विश्वास रखते हैं।
सीबीआई को दी नसीहत
उन्होंने कहा कि हम भारतीय अपनी स्वतंत्रता से प्यार करते हैं। जब भी हमारी स्वतंत्रता को छीनने का प्रयास किया गया है, हमारे सतर्क नागरिकों ने निरंकुश लोगों से सत्ताा वापस लेने में संकोच नहीं किया। इसीलिए यह आवश्यक है कि पुलिस और जांच निकायों सहित सभी संस्थान लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखें और उन्हें मजबूत करें। उन्हें किसी भी सत्तावादी प्रवृत्ति को पनपने नहीं देना चाहिए। उन्हें संविधान के तहत निर्धारित लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर काम करने की जरूरत है। कोई भी विचलन संस्थानों को नुकसान पहुंचाएगा और हमारे लोकतंत्र को कमजोर करेगा।
अब सवाल यह है कि आखिर मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमण को ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है? क्या उन्हें भी यही लगता है कि सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों का उपयोग हमारे देश की हुकूमत अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए कर रही है और इससे लोकतंत्र रोज-ब-रोज कमजोर हो रहा है?
ठीक चार साल पहले आज के दिन ही देश भर के दलितों और आदिवासियों ने भारत बंद किया था। यह एक नायाब एकजुटता थी, जिसमें सभी बहुजनों ने स्वत: स्फूर्त तरीके से भाग लिया था। यह ऐतिहासिक एकजुटता के पीछे उनका आक्रोश था, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में संशोधन किये जाने के बाद उत्पन्न हुआ था। इस संशोधन से देशभर के दलित और आदिवासी आ्रकोशत हो गए थे और सड़कों पर ‘ हम अंबेडकरवादी हैं संघर्षों के आदि हैं’ नारे के साथ उतर पड़े थे। इस संघर्ष का सकारात्मक परिणाम परिणाम भी सामने आया सरकार को संशोधन विधेयक के जरिए सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप को खत्म किया गया।
बताते चलें कि एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा पारित किया गया था। एससी/एसटी एक्ट की धारा- 3(2)(v) के तहत जब कोई व्यक्ति किसी एससी या एसटी समुदाय के सदस्य के खिलाफ अपराध करता है तो उस अपराधी को आईपीसी के तहत 10 साल या उससे अधिक की जेल की सजा के साथ दंडित किया जाता है। साथ् ही, यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जुर्माने के साथ सजा को आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार एक मजबूत कानून बनाया गया था ताकि देश के दलित और आदिवासियों पर अत्याचार करनेवालों को सजा मिल सके।
हालांकि इसके पहले 1955 में ‘प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट’ में कुछ इसी तरह के प्रावधान किए गए थे। लेकिन इसमें दलित और आदिवासी का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं था। इसके कारण दलितों और आदिवासियों की रक्षा नहीं हाे सकती थी।
लेकिन 1989 में जो कानून बनाया गया, उसमें सख्त प्रावधान किये गये। इसके तहत दर्ज मामलों में सीधे कार्रवाई किये जाने की बात थी। परंतु, सुप्रीम कोर्ट ने इसमें नया प्रावधान यह किया था कि एससी-एसटी के खिलाफ जातिसूचक टिप्पणी या कोई और शिकायत मिलने पर तुरंत मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा और ना ही तुरंत गिरफ्तारी होगी। डीएसपी रैंक के अधिकारी पहले मामले की जांच करंगे, इसमें ये देखा जाएगा कि कोई मामला बनता है या फिर झूठा आरोप है। मामला सही पाए जाने पर ही मुकदमा दर्ज होगा और आरोपी की गिरफ्तारी होगी।
खैर, एससी–एसटी एक्ट को कमजोर किये जाने के प्रयासों को वापस लेना पड़ा। यह दलित-बहुजन संघर्ष के कारण ही संभव हुआ। यह विशुद्ध रूप से गैर राजनीतिक आंदोलन था और लोगों ने खुद इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। इस तरह इस आंदोलन ने साबित कर दिया था कि इस देश के दलित-बहुजन अत्याचार सहने को तैयार नहीं हैं।
मानव जीवन के हर काल में सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, आमजन को इन कुरीतियों के प्रति जागृत करने का बीड़ा जिस भी शख्स ने उठाया आज उनकी गिनती महान व्यक्तित्व के रूप में होती है| संत कबीर दास, संत रविदास, बिरसा मुंडा, शियाजी राव गायकवाड, ज्योति राव फूले, सावित्रीबाई फूले, बीबी फातिमा शेख, डॉ. भीमराव अंबेडकर, मान्यवर कांशीराम आदि ऐसे ही व्यक्ति हुए जिन्होंने समाज में शोषित, दलित, पीड़ित जनता की आवाज उठाई एवं स्वयं के जीवन को भी इनके उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। समय-समय पर देश के कोने-कोने में ऐसे अन्य व्यक्ति भी जन्म लेते रहे जिन्होंने भले ही समाज को जागृत करने की कोई नई बात नहीं बताई हो, केवल ऊपर वर्णित महान लोगों के विचारों का ही प्रचार प्रसार किया।
हरियाणा के झज्जर जिले के छोटे से गांव सिलाणा में 14 अप्रैल, 1922 को एक ऐसे ही महान व्यक्ति छज्जूलाल का जन्म हुआ। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज की बुराइयों पर लिखते हुए आमजन के बीच बदलाव की बात करते हुए एवं अंबेडकरवाद का प्रचार-प्रसार करते हुए व्यतीत किया। छज्जूलाल जी के पिता का नाम महंत रिछपाल और माता का नाम दाखां देवी था। इनके पिता हिंदी, संस्कृत व उर्दू भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। समाज में इनके परिवार की गिनती शिक्षित परिवारों में होती थी। इनकी पत्नी का नाम नथिया देवी था। इनके चाचा मान्य धूलाराम उत्कृष्ट सारंगी वादक थे। महाशय जी कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। छज्जू लाल ने मास्टर प्यारेलाल के सहयोग से उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत और हिंदी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। महाशय जी ने 15 वर्ष की अल्पायु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। इनकी कविताओं पर हरियाणा के एकमात्र राष्ट्र कवि महाशय दयाचंद मायना की शब्दावली का भी प्रभाव पड़ा। छज्जूलाल जी ने महाशय दयाचंद जी को अपना गुरु माना।
वह 1942 तक ब्रिटिश आर्मी में रहे हैं किंतु इनका ध्यान संगीत की तरफ था, इन्होंने आर्मी से त्यागपत्र देकर घर पर ही अपनी संगीत मंडली तैयार कर ली और निकृष्टतम जीवन जीने वाले समाज को जागृत करने के काम में लग गए। उन्होंने ऐसी लोक रागणियों की रचना की जो व्यवस्था परिवर्तन और समाज सुधार की बात करती हो। महाशय जी 1988 के दौरान आकाशवाणी रोहतक के ग्रुप ‘ए‘ के गायक रहे यहां पर उन्होंने लगातार 12 वर्ष गायन कार्य किया। महाशय जी का देहांत 16 दिसम्बर 2005 को हुआ। महाशय छज्जू लाल सिलाणा एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी लोक कवि थे। उन्होंने अपने जीवन काल में 21 किस्सों और एक सौ से अधिक फुटकल रागणियों की रचना की। इनके किस्सों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर, वेदवती-रतन सिंह, धर्मपाल-शांति, राजा हरिश्चंद्र, ध्रुव भगत, नौटंकी, सरवर-नीर, बालावंती, विद्यावती, बणदेवी चंद्रकिरण, राजा कर्ण, रैदास भक्त शीला-हीरालाल जुलाहा, शहीद भूप सिंह, एकलव्य आदि किस्सों की रचना की। महाशय जी ने सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, जनसंख्या, अशिक्षा, महिला-उत्पीड़न, जाति-प्रथा, नशाखोरी, भ्रूण हत्या आदि पर भी रागणियों की रचना की।
महाशय जी को जिस ऐतिहासिक किस्से के लिए याद किया जाता है वह डॉ. भीमराव अंबेडकर का किस्सा है। इस किस्से के द्वारा इन्होंने हरियाणा के उस जनमानस तक अपनी बात पहुंचाई जो देश-दुनिया की चकाचौंध से दूर था और जिसके पास जानकारी का एकमात्र साधन आपसी चर्चा और रागणियां ही थी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आजीवन संघर्ष किया जिस कारण ही करोड़ों भारतीयों के जीवन में खुशियाँ आई। महाशय जी ने बाबा साहेब के जन्म से लेकर उनके अंतिम क्षणों तक को काव्य बद्ध किया। बाबा साहेब के जीवन को इन्होंने 31 रागनियों में समाहित किया। इन रागणियों को ये समाज को जागृत करने के लिए गाया करते थे। वे रागनीयांबहुत अधिक ह्रदय स्पर्शी हैं, जिनमें बाबा साहेब के बचपन में जातिगत उत्पीड़न को दर्शाया गया है। जब इन रागणियों को सांग के माध्यम से दिखाया जाता है तब दर्शक की आंखों से आंसू बहने लगते हैं।
भीमराव के बचपन की घटना को महाशय जी लिखते हैं जब महारों के बच्चों को स्वयं नल खोल कर पानी पीने की इजाजत नहीं थी तो भीमराव अंबेडकर प्यास से व्याकुल हो उठते हैं, उसका चित्रण महाशय जी अपने शब्दों में करते हैं :-
बहोत दे लिए बोल मनै कौए पाणी ना प्याता
घणा हो लिया कायल इब ना और सह्या जाता।
म्हारै संग पशुवां ते बुरा व्यवहार गरीब की ना सुणता कौए पुकार
ढएं कितने अत्याचार सुणेगा कद म्हारी दाता।
विद्यालय में जिस समय भीमराव पढ़ते थे तो अध्यापक उनकी कॉपी नहीं जांचता था, अध्यापक भी उनसे जातिगत भेदभाव करता था। इस वाकये को सिलाणा जी लिखते हैं :-
हो मास्टर जी मेरी तख्ती जरूर देख ले
लिख राखे सै साफ सबक पढ़के भरपूर देख ले…..
एक बार भीमराव बाल कटाने नाई के पास जाता है तो नाई उसके बाल काटने से मना कर देता है और कहता है :-
एक बात पूछता हूं अरे ओ नादान अछूत
मेरे पास बाल कटाने आया कहां से ऊत
चला जा बदमाश बता क्यूं रोजी मारे नाई की
करें जात ते बाहर सजा मिले तेरे बाल कटाई की|
इस घटना में नाई भी इसीलिए बाल काटने से मना करता है क्योंकि उसे समाज की अन्य जातियों का डर है।
भीमराव अपने साथ घटित इस घटना को अपनी बहन तुलसी को बताते हैं :-
इस वर्ण व्यवस्था के चक्कर में मुलजिम बिना कसूर हुए
बेरा ना कद लिकड़ा ज्यागा सब तरिया मजबूर हुए|
एक बार भीम सार्वजनिक कुएं से स्वयं पानी खींचकर पी लेता है स्वर्ण हिंदू इससे नाराज होकर भीम को सजा देते हैं उसका चित्रण महाशय जी करते हैं:-
लिखी थी या मार भीम के भाग म्ह
भीड़ भरी थी घणी आग म्ह
ज्यूं कुम्हलावे जहर नाग म्ह ना गौण कुएं पै…..
करा ना बालक का भी ख्याल पीट-पीटकर करया बुरा हाल|
बाबा साहेब के जीवन के अंतिम दिनों की दो महत्पूर्ण घटनाओं का उन्होंने बड़े सुंदर ढंग से वर्णन किया है। 14 अक्तूबर 1956 को जब बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उस समय दलित जनता जिस प्रकार के जोश से लबालब होकर नागपुर की ओर बढ़ रही थी, उसका चित्रण महाशय जी करते हैं-
लाखों की तादाद चली बन भीमराव की अनुगामी
बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि
संघम शरणम गच्छामि…..
जो बतलाया भीमराव ने सबने उसपे गौर किया
बुद्ध धर्म ग्रहण करेंगे संकल्प कठोर किया
कूच नागपुर की ओर किया निश्चय लेकर आयामी
बुद्धं शरणम्……
6 दिसम्बर 1956 जिस दिन महामानव भीमराव अम्बेडकर की मृत्यु हुई। उसदिन बाबा साहेब के निजि सचिव नानक चंद रत्तू जी रोते-रोते जो कुछ कहते हैं उसको सिलाणा जी लिखते हैं –
आशाओं के दीप जला, आज बाबा हमको छोड़ चले
दीन दुखी का करके भला, आज बाबा हमको छोड़ चले…
पीड़ित और पतित जनों के तुम ही एक सहारे थे
च्यारूं कूट म्ह मातम छा गया, दलितों के घने प्यारे थे
नम आखों से अश्रु ढला, आज बाबा हमको छोड़ चले|
इस प्रकार महाशय छज्जूलाल सिलाणा ने बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के पूरे जीवन को हरियाणवी लोक साहित्य की विधा रागनी में काव्य बद्ध किया। जिससे आमजन को भी बाबा साहब के विचारों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। महाशयजी का हरियाणवी लोक साहित्य के लिए भी ये अतुलनीय योगदान है। अंत में कहा जा सकता है कि महाशय छज्जूलाल सिलाणा हरियाणवी लोक साहित्य में अम्बेडकरवाद के प्रवर्तक हैं।
संदर्भित पुस्तक:- महाशय छज्जूलाल सिलाणा ग्रन्थावली (2013), सं. डॉ. राजेन्द्र बड़गूजर,गौतम बुक सैंटर दिल्ली।
सवाल यह है कि बसपा क्यों हार गई?इससे भी बड़ा सवाल यह है कि बसपा इतनी बुरी तरह से क्यों हार गई?नतीजे बता रहे हैं कि बसपा पार्टियों में सबसे नीचे खड़ी है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी, अनुप्रिया पटेल की पार्टी, कांग्रेस पार्टी, जयंत चौधरी की लोकदल पार्टी और यहां तक की निषाद पार्टी तक बहुजन समाज पार्टी से आगे हैं। बसपा सिर्फ एक सीट जीत सकी है। और जो लोग बलिया की राजनीति को जानते हैं, उन्हें पता है कि जिस रसड़ा सीट से बसपा के टिकट पर उमाशंकर सिंह जीते हैं, वह उनकी अपनी निजी लोकप्रियता की जीत है, बहुजन समाज पार्टी की नहीं। यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुंचने का रिकार्ड बना चुकी बसपा 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी कमोबेश उसी स्थिति में खड़ी है।
लेकिन बसपा की हार की वजह क्या है? क्या सिर्फ बहनजी?
जी नहीं। बसपा की हार की वजह इस पार्टी के नेता हैं, जो इतने रीढ़विहीन हैं कि पार्टी से निकाले जाने के डर से अपनी आवाज तक को गिरवी रख चुके हैं। बसपा की हार की वजह उसके समर्थक भी हैं, जो पार्टी की कमियों पर बात नहीं करना चाहते, जो अपनी नेता की कमियों पर बात नहीं करना चाहते। यही नहीं, कमियों को सुनना भी नहीं चाहते। बल्कि जो लोग उन कमियों को सामने लाते हैं, उस पर बात करते हैं, उनको गालियां तक देने को तैयार रहते हैं। छूटते ही उन्हें किसी दूसरे दल का एजेंट, दलाल या बिका हुआ बता दिया जाता है। दूसरे मीडिया हाउस को मनुवादी और गोदी मीडिया बताने वाले यही लोग अपने समाज के लेखकों और पत्रकारों से जमीनी हकीकत सुनने की बजाय सिर्फ बसपा की जय-जयकार सुनने की उम्मीद करते हैं।
और शायद बसपा का शीर्ष नेतृत्व भी यही चाहता है। वह नहीं चाहता कि उससे सवाल पूछे जाएं। वह सवाल पूछने और उठाने वालों को बेइज्जत कर बाहर का रास्ता दिखा देता है। और उसके ज्यादातर समर्थक बिना सच्चाई जाने आवाज उठाने वालों की फजीहत करने पर उतारु हो जाते हैं। कुल मिलाकर बसपा का शीर्ष नेतृत्व पार्टी के साथ ही अपने समर्थकों का भी हुक्मरान बना बैठा है। बसपा के समर्थक शीर्ष नेतृत्व के आगे समर्पण की मुद्रा में दिख रहे हैं। और जब समर्थक समर्पण कर देता है तो नेतृत्व करने वाले को अपनी मनमर्जी करने का हक मिल जाता है। उसी मनमर्जी की वजह से बसपा इस हाल में पहुंच गई है।
उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे बसपा की राजनैतिक हार भर नहीं है। यह एक बड़े समाज का सपना टूट कर चकनाचूर हो जाने जैसा है। वह एक बड़े विजनरी मसीहा मान्यवर कांशीराम के संघर्ष के खत्म हो जाने जैसा है।वह दलितों के उस हुजूम के साथ धोखा है, जो हर हार के बाद भी रैलियों में इस उम्मीद के साथ उमड़ती हैकि शायद इस बार कुछ बेहतर होगा। वह समाज के आखिरी छोड़ पर खड़े उस व्यक्ति के साथ बड़ा छल है, जिसने अपनी झोपड़ी पर इस उम्मीद में नीला झंडा टांग रखा हैकि एक दिन हुकुमत के शीर्ष पर उसके समाज का नेता बैठेगा, जो उसे उसका हक दिलाएगा।
लेकिन ईमानदारी से देखें तो बसपा का चुनाव पिछले कुछ सालों से हार और जीत से इतर कहीं न कहीं समझौते और राजनीतिक दबाव का चुनाव दिखने लगा है। वह पार्टी की बजाय एक व्यक्ति का अपना अकेले का चुनाव दिखने लगा है। ऐसी नेत्री का चुनाव जिसने अपने जीवन में बहुत कुछ कुर्बान कर बहुजन समाज की नेत्री से बढ़कर देवी तक का दर्जा हासिल किया, जिसे बहुजन समाज ने सर माथे पर बैठाया, लेकिन जो अब हठी और आत्म केंद्रित हो गई हैं। इतनी आत्म केंद्रित कि बहुजन नायकों का सपना उनके अपने एजेंडे पर भारी हो चुका है।
अक्सर कहा जाता है कि बहुजन समाज पार्टी राजनीतिक दल के साथ साथ सामाजिक आंदोलन भी है। शायद इसीलिए यूपी में बसपा की इस हार का मातम देश ही नहीं दुनिया भर के अंबेडकरवादियों द्वारा मनाया जा रहा है। इसीलिए सोशल मीडिया से लेकर दलित बस्तियों में चौपाल तक से प्रतिक्रियाएं आ रही है। बसपा को बनाना किसी एक आदमी के बूते की बात नहीं थी। मान्यवर कांशीराम ने सपना जरूर देखा लेकिन उस सपने को साकार किया अधनंगे, आधे पेट खाकर नीला झंडा ढोने वाले दलित-पिछड़े समाज के लोगों ने। उस सपने को साकार बनाया चंद हजार रुपये कमाने वाले उन हजारों सरकारी कर्मचारियों ने; जो सालों तक अपने तनख्वाह के पैसे का एक हिस्सा निकाल कर इस आंदोलन के नाम पर मान्यवर कांशीराम के हाथ पर धड़ते रहें।
गरीब समाज के आंखों में सपना था कि बसपा के टिकट पर उसका आदमी विधायक और सांसद बनकर उसके हित की बात करेगा। उसका आदमी मुख्यमंत्री बनेगा, फिर प्रधानमंत्री बनेगा और ऐसी नीति बनाएगा जिससे उसका जीवन बदलेगा। बसपा ने वह सपना दिखाया भी और सत्ता में आने पर उसे पूरा भी किया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश से यह सपना शुरू हुआ था, उसी प्रदेश की जमीन पर यह सपना सिमटता दिख रहा है। चुनावी नतीजों के बाद जिस कदर दलित और अति पिछड़े समाज में बेचैनी थी, उसकी बातों से वह छटपटाहट साफ दिख रही थी। यहां तक की दलित-पिछड़े समाज के ऐसे नेता जो कभी बसपा में रहे थे, वह भी बसपा की इस हार से परेशान है। लेकिन दुख इस बात का है कि बसपा समर्थक और नेता आपस में तो बात कर रहे हैं, लेकिन कोई बदलाव के लिए आगे नहीं आ रहा। न पार्टी दफ्तर के बाहर कार्यकर्ताओं और समर्थकों का प्रदर्शन होता दिखा, न ही शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ किसी बड़े नेता ने आवाज उठाई और न ही पार्टी की कार्यप्रणाली के खिलाफ नेताओं के इस्तीफे का दौर चला।
कहीं न कहीं इसी बात का फायदा बहुजन समाज पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उठा रहा है। दिकक्त यह भी है कि जैसे ही आप सवाल उठाना शुरू करते हैं, लोग भड़क जाते हैं। मेरा सवाल है कि आखिर क्यों उस पार्टी की मुखिया के खिलाफ सवाल नहीं उठाना चाहिए, जिनकी निजी महत्वकांक्षा और बिना सिर पैर के फैसलों से एक बड़ा आंदोलन जमींदोज होता दिख रहा है। मैंने छोटी सी गलती पर या कहें कि गलतफहमी पर सालों तक पार्टी को जीवन देने वाले नेताओं को एक झटके में बसपा से बाहर होते देखा है। किसी दूसरी पार्टी का दामन थामते हुए अपनी गाड़ी से नीला झंडा उतारते हुए, उसे रोते हुए देखा है। ऐसा दर्जनों नेताओं के साथ हुआ है। यह ठीक नहीं है।
बहुजन समाज का हर एक व्यक्ति बहनजी के त्याग और समर्पण को स्वीकार करता है। उन्होंने मान्यवर कांशीरामजी के साथ मिलकर जो क्रांतिकारी काम किया, निश्चित तौर पर वह उतने कम वक्त में कोई दूसरा नहीं कर सकता था। सबने उसकी सराहना की, पूरा समाज इसीलिए उनको आज भी तमाम खामियों के बावजूद आदर देता है। लेकिन जब बहनजी अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का इकलौता राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना देती हैं, जो मंच से एक भाषण तक नहीं दे सकते, न ही उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि वह लोगों को खिंच सके, तो इस पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए। अपना घर बार छोड़कर सालों तक बसपा के मिशन को अपना खून पसीना देने वाले बड़े-बड़े अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर बहनजी जब एक कम अनुभवी भतीजे आकाश आनंद को पार्टी का इकलौता नेशनल को-आर्डिनेटर घोषित करती हैं, तो उस पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए? बात भाई-भतीजावाद की नहीं है। बात योग्यता की है। क्या आनंद कुमार के अलावा भारत के किसी भी राजनीतिक दल का कोई राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ऐसा है, जिसने सार्वजनिक मंच से एक भाषण तक न दिया हो?
क्या किसी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की हमेशा के लिए इसीलिए सराहना करती रहनी चाहिए कि उसने एक वक्त में बहुत महान काम कर दिया है। क्या इस वजह से उसे भविष्य में हर तरह के फैसले लेने की आजादी होनी चाहिए? आलोचना और सवाल उठाने पर भड़कने वाले लोग खुद से पूछें कि क्या बसपा में 10-20 ऐसे राष्ट्रीय नेता नहीं होने चाहिए, जिनको देखने और सुनने के लिए भीड़ उमड़े। क्या बसपा के भीतर 10 ऐसे प्रवक्ता नहीं होने चाहिए जो विषयों के विशेषज्ञ हों और देश-दुनिया के मुद्दों पर खुल कर अपनी पार्टी और अपने समाज की बात रख सकें? क्या बसपा के भीतर हर राज्य में ऐसे दर्जनों नेता नहीं होने चाहिए, जिसमें वहां के स्थानीय कार्यकर्ता और जनता भावी मुख्यमंत्री देखें? क्या हर राज्य की कमान वहां के स्थानीय लोगों के पास नहीं होनी चाहिए? क्या बसपा के भीतर दूसरे दलों की तरह यूथ विंग, महिला मोर्चा और किसान मोर्चा नहीं होने चाहिए? क्या बसपा को ऐसा मीडिया नहीं खड़ा चाहिए, जो उसके विचारों को प्रचारित-प्रसारित करे? अगर ऐसा होना चाहिए तो आखिर बसपा का शीर्ष नेतृत्व ऐसा क्यों नहीं कर रहा है? बस, इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ना है। इसी सवाल के जवाब में पूरी कहानी छुपी है। शीर्ष नेता जो कहेगा, वही सच है, शीर्ष नेतृत्व जो करेगा, वही ठीक है, इस धारणा से निकलना होगा। एक वक्त विशेष में किसी व्यक्ति ने बहुत महान काम किया है, लेकिन अगर बाद में वह रास्ते से भटक जाता है, तो उससे सवाल पूछा जाना चाहिए। उस पर सवाल उठाया जाना चाहिए। महानता की कसौटी यह है कि व्यक्ति आजीवन अपने सिद्धांतों से न डिगे। अंबेडकरवादी समाज को यह समझना होगा।
आखिर में जिस मार्च महीने में यूपी चुनाव के नतीजे आए हैं, वह महीना मान्यवर कांशीराम की जयंती का महीना होता है। बसपा का शीर्ष नेतृत्व पार्टी के संस्थापक मान्यर कांशीराम की जयंती पर उन्हें उपहार तो न दे सका, अच्छा हो कम से कम वह शपथ ले कि मान्यवर के देश का हुक्मरान बनने के सपने को वह मरने नहीं देगा।
ये पांच किताबें, जो आरएसएस की विचारधारा ( हिंदूवादी) के महल को पूरी तरह ध्वस्त कर सकती हैं-
1- गुलामगिरी- जोतिराव फुले
2- जाति का विनाश- डॉ. आंबेडकर
3- सच्ची रामायण- ई. वी. रामासामी पेरियार
4- हिंदू धर्म की पहेलियां- डॉ. आंबेडकर
5- हिंदू संस्कृति और स्त्री- आ. हा. सालुंखे
आरएसएस की विचारधारा को पूरी तरह ध्वस्त किए बिना समता, स्वतंत्रता और भाईचारे पर आधारित भारत को न बचाया ( जिनता भी है, जैसा भी है) जा सकता है और न बनाया जा सकता है।
आरएसएस की विचारधारा हिंदू धर्म- दर्शन ( वेद, पुराण, स्मृतियां, वाल्मीकि रामायण और गीता जिसका आधार हैं), ईश्वर के विभिन्न अवतारों और हिंदू धर्म के धार्मिक सांस्कृतिक नायकों ( मूलत: दशरथ पुत्र राम), वर्ण-जाति व्यवस्था और जातिवादी पितृसत्ता के आदर्शों-मूल्यों पर टिकी हुई है।
ये पांच किताबें आरएसएस की विचाराधारा की धज्जियां उड़ा देती हैं और आसएसएस को पराजित करने के लिए सबसे कारगर हथियार हैं।
जहां जोतिराव फुले की गुलामगिरी विष्णु के विभिन्न अवतारों के निकृष्ट और ब्राह्मणवादी चरित्र को विस्तार से उजागर करती है। इसमें विष्णु के एक अवतार परशुराम का हिंसक और घिनौना चरित्र भी शामिल हैं।
दशरथ पुत्र राम आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सबसे बड़े महानायक हैं। उनके नाम पर चलाए गए राम मंदिर आंदोलन ने आरएसएस-भाजपा को भारतीय समाज और राजसत्ता पर वर्चस्व कायम करने का अवसर मुहैया कराया। आज जै श्रीराम नारा का हिंदुत्व की राजनीति का सबसे मुख्य नारा है।
पेरियार की सच्ची रामायण और आंबेडकर की किताब हिंदू धर्म की पहेलियां दशरथ पुत्र राम का चरित्र कितना निकृष्ट था, इसको वाल्मीकि रामायण के तथ्यों के आधार ही उजागर कर देती हैं। राम किसी तरह से आदर्श और अनुकरणीय चरित्र नहीं हैं पेरियार ने सच्ची रामायण में और आंबेडकर ने हिंदू धर्म की पहेलियां ( राम की पहेली) में तथ्यों और तर्कों के साथ यह साबित कर दिया है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश ( त्रिदेव) हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति हैं। इन्हीं पर हिंदू धर्म टिका हुआ है। आंबेडकर ने हिंदू धर्म की पहेलियां ( त्रिमूर्ति की पहेली) में इनके असली चरित्र को हिंदू पौराणिक ग्रंथों के आधार पर चित्रित किया। जिसमें इन्हें सती अनसूया के साथ सामूहिक बलात्कार का अपराधी भी ठहराया गया है।
हिंदू धर्म की देवियों की असली चरित्र को भी डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म की पहेलियों में उजागर किया है।
वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण और गीता हिंदू धर्म के आधार ग्रंथ हैं। इनकी इन ग्रंथो की असल हकीकत क्या है? डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म की पहेलियों में उजागर किया है।
वर्ण-जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का प्राण है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब जाति के विनाश में वर्ण-जाति व्यवस्था के पक्ष में वेदों से लेकर आधुनिक युग में दयाननंद सरस्वती और गांधी द्वारा दिए तर्कों की धज्जियां उड़ा दी है और बताया है कि वर्ण-जाति व्यवस्था मानव इतिहास की सबसे निकृष्ट व्यवस्था थी और है। इसी किताब में डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्मग्रंथों के मनुष्य विरोधी चरित्र को भी उजागर किया है और हिंदू धर्म ग्रंथों को डायनामाइट से उड़ा देने जोरदार पैरवी की है।
हिंदू धर्म महिलाओं को भी शूद्रों की श्रेणी में रखता है। वेदों- स्मृतियो से लेकर महाभारत और वाल्मीकि रामायण तक हिंदू धर्म महिलाओं के प्रति कितनी घिनौनी राय रखता है और कितना क्रूर है। और महिलाओं पुरूषों की दासी बनाए रखने के लिए क्या-क्या प्रावधान करता है। इसको विस्तार से उजागर आ. ह. सालुंखे ने अपनी किताब हिंदू संस्कृति और स्त्री में किया है।
इन पांच किताबों में से चार किताबों को अन्तर्वस्तु और साज-सज्जा दोनों मामलों में सबसे बेहतर तरीके से फारवर्ड प्रेस ने हिंदी प्रकाशित किया है। पांचवी किताब संवाद प्रकाशन ( आलोक श्रीवास्तव) ने प्रकाशित की है।
इन किताबों को आरएसएस-भाजपा को चुनौती देने की चाहत रखने वाले उदारवादी, वामपंथी और बहुजन-दलित आंदोलन के लोग क्यों कारगर तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। इस विषय पर फिर कभी।
एक बार फिर उत्तर प्रदेश में परीक्षा के पेपर लीक हुए हैं। 30 मार्च को यूपी बोर्ड द्वारा इंटर की परीक्षा के दौरान अंग्रेजी विषय का पेपर लीक हो गया। इसके बाद यूपी बोर्ड को सूबे के 24 जिलों में परीक्षा रद्द करनी पड़ी है। इस मामले में राज्य के दो बड़े नेताओं बसपा प्रमुख मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा किया है।
बताते चलें कि यह पहला मौका नहीं है जब सूबे में परीक्षाओं के पेपर लीक हुए हैं। इन परीक्षाओं में यूपी बोर्ड के द्वारा ली जानेवाली परीक्षाओं के अलावा यूपीपपीएससी की परीक्षाएं भी शामिल हैं। पेपर लीक होने के कारण परीक्षार्थियों को परेशानी झेलनी पड़ती है।
इस मामले में बुधवार को बसपा प्रमुख मायावती ने अपने बयान में कहा है कि “यूपी बोर्ड परीक्षाओं में पेपर लीक होने का मामला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आज दोपहर इण्टर की अंग्रेजी विषय की परीक्षा होने से पहले पेपर लीक होने के बाद गोरखपुर व वाराणसी सहित प्रदेश के 24 जिलों में परीक्षा रद्द करनी पड़ी है। छात्रों के जीवन से बार-बार ऐसा खिलवाड़ क्या उचित?”
बसपा प्रमुख ने आगे कहा कि “उत्तर प्रदेश में बार-बार पेपर लीक होने से ऐसा लगता है कि नकल माफिया सरकार की पकड़ व सख्ती से बाहर हैं, किन्तु इस प्रकार की गंभीर घटनाओं से प्रदेश की पूरे देश में होने वाली बदनामी आदि के लिए असली कसूरवार व जवाबदेह कौन?”
बसपा प्रमुख ने दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की माँग की है। वहीं सपा प्रमुख और विपक्ष के नेता अखिलेश यादव ने योगी सरकार पर वार करते हुए कहा है कि “उप्र भाजपा सरकार की दूसरी पारी में भी पेपर लीक करवाने का व्यवसाय बदस्तूर जारी है। युवा कह रहे हैं कि रोज़गार देने में नाकाम भाजपा सरकार जानबूझकर किसी परीक्षा को पूर्ण नहीं होने देना चाहती है।”
अखिलेश यादव ने योगी सरकार पर तंज कसते हुए कहा है कि भाजपा सरकार अपने इन पेपर माफ़ियाओं पर दिखाने के लिए सही, काग़ज़ का ही बुलडोज़र चलवा दे।
उत्तर प्रदेश में जब से 2022 के विधानसभा चुनावों का परिणाम आया है तब से मुख्यधारा का मीडिया, यूट्यूब मीडिया, और उसमें बैठे हुए तथाकथित बुद्धिजीवी- सोशलिस्ट बुद्धिजीवी, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, और यहां तक अमेरिका में बैठे बुद्धिजीवी (जिन्होंने तो भारत की जमी पर कदम तक नहीं रखा और केवल फोन से वार्ता कर अपनी मन:स्थिति को निर्मित किया) एक सुर में कहते हुए जरा भी लज्जित नहीं होते की बहुजन समाज पार्टी ने अपना वोट बीजेपी को ट्रांसफर करा दिया और इसलिए भाजपा की जीत हुई है। कुछ तथाकथित राजनैतिक जानकर यहां तक कह रहे हैं कि बसपा ने जानबूझकर ऐसे प्रत्याशी खड़े किए जिससे कि समाजवादी पार्टी को नुकसान हुआ अन्यथा वह पूर्ण बहुमत में आ जाती। यद्यपि यही बात गोवा में ममता बनर्जी के लिए नहीं कही जा रही है जबकि ममता बनर्जी के खिलाफ हमारे पास तथ्यात्मक आंकड़े हैं, जिनसे यह बात प्रमाणित होती है कि उनकी वजह से कांग्रेस सीधे-सीधे हारी है और भाजपा ने अपनी सरकार बना ली है।
सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी ने गोवा में पहली बार चुनाव लड़ कर 5.2 प्रतिशत वोट लिया था। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 4 सीटों- बिनौलिम, नवेलिम, पोरवोरिम और तिविम सीटों पर कांग्रेस को सीधे-सीधे नुकसान पहुंचा कर बीजेपी की सरकार बनवा दी। लेकिन उससे कोई भी प्रश्न नहीं पूछ रहा है कि आपने गोवा जा कर चुनाव क्यों नहीं लड़ा? ना ही कोई अनर्गल प्रलाप कर रहा है कि ममता बनर्जी भाजपा की ‘बी टीम’ है? यह जाति पक्षपात का रवैय्या है। चूँकि ममता बनर्जी सवर्ण/ब्राह्मण है उस पर कोई नकारात्मक आरोप नहीं लगाया जायेगा।
अब हम आते हैं कि बसपा का वोट वास्तविकता में किस पार्टी को गया। भारतीय चुनाव आयोग नई दिल्ली द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के 2022 के विधान सभा के चुनावों में भाजपा को 3 करोड़ 80 लाख 51721 वोट मिले अर्थात 2017 में हुए विधान सभा चुनावों की तुलना में उसके 36 लाख, 48 हजार, 242 वोट बढे। परंतु कांग्रेस को 2022 में केवल 21 लाख 51 हजार 234 वोट मिले हैं। यद्यपि उसे 2017 में 54 लाख 16 हजार 2 सौ चालीस वोट मिले थे। इसका मतलब यह हुआ कि 2017 की तुलना में कांग्रेस को 32 लाख 65 हजार 306 वोट कम मिले। इसी कड़ी में शिवसेना ने 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव लड़े थे और उसे 88,595 वोट मिले थे। परंतु शिवसेना ने 2022 में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा। अब आप ही कल्पना कीजिए कि कांग्रेस और शिवसेना का वोट कहां स्थानांतरित हुआ होगा? मेरा आंकलन है कि यह वोट सीधे-सीधे भाजपा तरफ गया है, क्योंकि सवर्ण समाज बीजेपी का प्राकृतिक सहयोगी माना जाता है, और शिवसेना ने तो उसके साथ हमेशा गठबंधन किया है। इसलिए यह तोहमत/ आरोप लगाना कि बहुजन समाज पार्टी का वोट और वह भी दलित वोट भाजपा की तरफ चला गया है झूठ एवं मिथ्या से ज्यादा और कुछ नहीं है।
तालिका-1 : उत्तरप्रदेशविधानसभाचुनावमें 2017 एवं 2022 विभिन्नदलोंकोप्राप्तवोटोंकातुलनात्मकअध्ययन
स्रोत: भारतीय चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित आंकड़े
1
राजनैतिकदल / नोटा
2022 वोटोकीसंख्या
2017 वोटोकीसंख्या
वोटोकीसंख्या 22और 17 में अंतर
2
भारतीयजनतापार्टी
38051721
34403299
+3648422
3
समाजवादीपार्टी
29543934
18923769
+10262594
4
बहुजनसमाजपार्टी
11873137
19281340
– 7408202
5
कांग्रेसपार्टी
2151234
5416540
– 3265306
6
आर एल डी
2630168
1545811
+ 1084357
7
AIMIM
450929
204142
+ 246777
8
शिवसेना
चुनावनहींलड़ा
88595
यहवोटसीधे–सीधेभाजपाकोहीगयाहोगाऐसा
8
निर्दलीयउम्मीदवार
6213262
2229453
+ 4083809
9
नोटा
637304
757643
+ 120339
“बसपा ने अपना वोट भाजपा को स्थानांतरित करा दिया और इसकी वजह से भाजपा की जीत हुई” एक बार फिर यह नकारात्मक कथानक बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ गढ़ना सवर्ण मानसिकता के तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक सोची-समझी रणनीति लगती है। यह जातिवादी मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं लगती। क्योंकि वंचित, शोषित, गरीबी रेखा के नीचे ग्रामीण अंचल में रहने वालों के राजनीतिक दल को बिना ठोस प्रमाण के आधार पर लांछित करना जातिवाद नहीं तो और क्या कहलायेगा? दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि दलित समाज के लोग 5 किलो आनाज पर बिक गए और उन्होंने अपना वोट भाजपा को दे दिया। इस तथ्य में विरोधाभास निहित है। एक ओर तो कह रहे हैं कि बसपा की सुप्रीमो ने बसपा का वोट ट्रांसफर करा दिया और दूसरी तरफ वे ही लोग कह रहे हैं कि बसपा के गरीब और दलित समाज के लोगों ने 5 किलो अन्न की लालच में अपना वोट भाजापा को दे दिया। अगर दलितों ने 5 किलो आनाज की लालच में अपना वोट दे दिया तो फिर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो ने अपने वोट को भाजपा की तरफ कैसे ट्रांसफर कर दिया? यह बात कैसे प्रमाणित की जाएगी। दूसरी तरफ यह बात भी सत्य है कि दलितों को यह कहते सुना गया कि उनके पास अभी तक कोई भी सरकारी योजना का लाभ नहीं पहुंचा। साथ ही साथ उन्हें यह भी कहते हुए सुना गया कि मोदी और योगी जो राशन दे रहे हैं वह हमारे ऊपर एहसान नहीं कर रहे हैं। लेकिन हां अगर उनको कुछ मिला भी है तो मिलने के बाद भी वोट अपना बसपा को ही देंगे। इससे यह बात प्रमाणित हो जाती है कि बहुजन समाज पार्टी का वोट जो कि एक वैचारिक वोट है, वह किसी भी लालच में भाजपा में नहीं गया है। क्योंकि बसपा का कैडर वोट, एक विचारधारा के साथ भी जुड़ा है, और विचारधारा… खासकर अंबेडकरी विचारधारा से जुड़ा कोई व्यक्ति भाजपा को वोट बिल्कुल नहीं कर सकता, इसके कई प्रमाण सामने आ चुके हैं।
अब आते हैं कि अगर बसपा का वोट भाजपा में नहीं गया तो क्या वह वोट सपा और रालोद के गठबंधन को गया है? 2022 में समाजवादी पार्टी को 29543934 (दो करोड़ पंचानवे लाख तैतालिस हजार नौ सौ चौतीस) वोट मिले यद्यपि उसे 2017 में मात्र 18923769 (एक करोड़ नवासी लाख तेईस हजार सात सौ उनहत्तर) वोट ही मिले थे । इसका मतलब यह हुआ कि सपा को 2017 की तुलना में 2022 में 10262594 (एक करोड़ छब्बीस लाख दो हजार पांच सौ चौरान्नवे) वोट ज्यादा मिले। इसी कड़ी में रालोद जिसका सपा से गठबंधन था उसको 2022 में 2630168 (छब्बीस लाख तीस हजार एक सौ अठसठ ) वोट मिले जबकि उसे 2017 में मात्र 1545811 (पंद्रह लाख पैतालीस हजार आठ सौ ग्यारह) वोट मिले थे जोकि 2017 की तुलना में 1084357 (दस लाख चौरासी हजार तीन सौ सत्तावन) वोट ज्यादा है। इसी प्रकार एआईएमआईएम (AIMIM) को 2022 में 450929 वोट मिले जबकि उसे 2017 में केवल 204142 वोट मिले थे। इसका मतलब यह हुआ कि उसे भी 2022 में 2017 की तुलना में उसे 246777 वोटों का फायदा हुआ। अब प्रश्न उठता है कि सपा, आरएलडी, एवं एआईएमआईएम के वोटों में इजाफा/ बढ़ोत्तरी कहां से हुई।
इसी संदर्भ में यहां यह तथ्य रेखांकित करना अति आवश्यक है कि बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश के 2022 के चुनाव में केवल 11873117 (एक करोड़ अट्ठारह लाख तिहत्तर हजार एक सौ सैंतीस) वोट मिले जबकि 2017 में उसे 19281340 (एक करोड़ बानववे लाख इक्क्यासी हजार तीन सौ चालीस) मिले थे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 2017 की तुलना में 2022 में उसके वोटों में 7406203 (चौहत्तर लाख आठ हजार दो सौ तीन) वोटों की कमी आई। प्रश्न उठता है कि यह वोट किस पार्टी को गए होंगे? एक तथ्य जो सामने आया है वह यह है कि 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज ने एकमुश्त संगठित होकर केवल और केवल समाजवादी पार्टी और रालोद के गठबंधन को वोट किया। इसका मतलब यह हुआ कि बहुजन समाज पार्टी के जितने भी मुस्लिम मतदाता थे उन्होंने सपा और रालोद के गठबंधन को अपना वोट शिफ्ट करा दिया। बहुत से रिजर्व सीट के अंदर दलितों को यह कहते सुना गया है कि क्योंकि बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है और रिजर्व सीट पर केवल और केवल दलित समाज भाजपा के विरुद्ध जीत नहीं पाएगा इसलिए वह इस बार सपा एवं रालोद के गठबंधन को सपोर्ट करेंगे। और इस कारण भी मुस्लिमों के साथ दलितों ने भी कई सीटों पर अपना वोट सपा और रालोद के गठबंधन को ट्रांसफर कर दिया। बसपा से छिटके और सपा से नाराज मुस्लिम समाज ने अपना वोट बसपा के बजाय एआईएमआईएम को भी दे दिया। क्योंकि साफ है कि एआईएमआईएम को इस चुनाव में गैर मुस्लिमों का वोट तो नहीं ही मिला होगा।
एक दूसरा प्रश्न उठता है कि ओबीसी और सवर्ण समाज का वोट बहुजन समाज पार्टी को क्यों नहीं मिला? इसका उत्तर भी साफ है कि जब मीडिया ने उत्तर प्रदेश में इस भ्रांति को फैला दिया कि मुकाबला केवल भारतीय जनता पार्टी एवं समाजवादी पार्टी में है तो उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया। मीडिया ने इतना अधिक प्रचार कर दिया कि जैसे अब सपा जितने ही वाली हैं क्योंकि मुस्लिम उसकी तरफ एकमुश्त होकर वोट कर रहे हैं। इससे प्रेरित होकर भाजपा की नीतियों से सहमति नहीं रखने वाले सवर्ण समाज एवं ओबीसी ने सोचा कि बसपा अब तो जीतने वाली है नहीं, इसलिए क्यों ना हम भाजपा को हराने के लिए सपा को ही वोट डाल दें। और इसलिए बहुजन समाज पार्टी का सवर्ण एवं ओबीसी वोट भी सपा को ट्रांसफर हो गया।
अब बसपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि क्या 2024 में वह अपने खोए हुए आधार को प्राप्त कर सकती है या नहीं? बसपा का इन चुनौतियों से उबरना केवल दलित, ओबीसी, एवं अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं आवश्यक है बल्कि यह पूरे लोकतंत्र के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। याद कीजिए जब 2007 में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी तो लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थी और उसने केंद्र में सरकार बनाई थी। परंतु जब सपा की सरकार 2012 में आई तो 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 74 सीटें प्राप्त कर केंद्र में सरकार बना ली, इसका मतलब यह हुआ कि बसपा की सरकार भाजपा की प्रगति की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। जितनी जल्दी यह तथ्य समझ ले उतना ही अच्छा।
हाल ही मे नेशनल कमिशन फॉर शैडयूल्ड caste ने ओएनजीसी की अंतरिम सीएमडी अल्का मित्तल को समन भेजा है। ओएनजीसी की सीएमडी अल्का मित्तल को यह समन एससी-एसटी अधिकारियों के कॉर्पोरेट प्रमोशन में नियमों के उल्लंघन के मामले में मिला है।
ONGC यानि ऑइल अँड नैचुरल गॅस कार्पोरेशन लिमिटेड…. भारत सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है। ओएनजीसी में लगभग 28000 (अठाइस हजार) कर्मचारी काम करते हैं जिसमें लगभग साढ़े सात हजार एससी-एसटी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। आरोप है कि कॉरपोरेट प्रमोशन में इनके साथ भेदभाव किया जाता है। यही मामला एससी-एसटी आयोग पहुंचा है। जहां चार फरवरी को आयोग ने ओएनजीसी के अधिकारियों को तलब किया था। इससे जुड़ी एक खबर petrowatch.com नाम की वेबसाइट पर सामने आ चुकी है।
आयोग ने ओएनजीसी से जो सवाल किए हैं उससे मामले की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस बारे में दलित दस्तक ने ओएनजीसी के कुछ रिटायर्ड कर्मचारियों से बात की, जिन्होंने ओएनजीसी के भीतर जातिवाद की कलई खोलकर रख दी।
ओएनजीसी की Recruitment & Promotion Policy आखिरी बार सन 1997 और 2004 में revise की गयी थी। उसके बाद ओएनजीसी की ऑफिसर्स एसोसिएशन के साथ मैनेजमेंट ने कोई MOU यानी मेमोरेंडम ऑफ अंडर स्टैंडिंग नहीं किया। ओएनजीसी मैनेजमेंट कभी भी तकरीबन 7500 कर्मचारियों का नेतृत्व करने वाले एससी-एसटी असोसिएशन के साथ Recruitment & Promotion Policy के विषय में कोई मशविरा या बातचीत नहीं करता। यह सीधे उनके कैरियर ग्रोथ को affect करता है।
हद तो तब हुआ, जब मैनेजमेंट ने ONGC की Corporate Promotion policy को साल 2014 और फिर 2015 में अपनी मर्जी से बदल डाला। आरोप है कि मैनेजमेंट ने जानबूझ कर ऐसे बदलाव किए जिससे ज़्यादातर जनरल कैटेगरी के जूनियर अधिकारियों को पदोन्नति दी गयी और ज़्यादातर एससी एसटी जो उनसे कई वर्ष सीनियर और काबिल थे उन्हे पीछे छोड़ दिया गया।
इसका नतीजा ये हुआ की हज़ारों की संख्या में सीनियर और काबिल एससी एसटी अधिकारी पीछे रह गए। न सिर्फ पीछे रह गए, बल्कि टॉप मैनेजमेंट में एससी-एसटी की हिस्सेदारी लगभग नहीं के बराबर है। यह सब तब है, जबकि ONGC एक सार्वजनिक क्षेत्र की सरकारी कंपनी है और यहां ओएनजीसी गाइडलाइंस के साथ ही भर्ती और पदोन्नति की प्रक्रिया में डीओपीटी और डीपीई के नियम भी लागू होते हैं। लेकिन ओएनजीसी मैनेजमेंट अपनी मर्जी से नियमों में बदलाव करके सारे सरकारी नियमों को लगातार ताक पर रख रही है। ओएनजीसी के भीतर जातिवाद का आलम यह है कि दलित एवं आदिवासी समाज के जिन अनुभवी और योग्य अधिकारियों को प्रोमोशन तक नहीं दिया जा रहा है, वे अनसूचित जाति एवं जनजाति के अधिकारी भारत के टॉप आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी और अन्य टॉप के संस्थानो से ऑल इंडिया प्रतियोगी परीक्षा से चुनकर ओएनजीसी में आए हैं। इनकी जगह ज्यादातर सवर्ण समाज के जूनियर अधिकारी आगे बढ़ रहे हैं।
यहां ध्यान देना होगा कि ओएनजीसी में काम करन वाले अनसुचित जाति और जनजाति के अधिकारी कोई पदोन्नति में आरक्षण की मांग नहीं कर रहे हैं। उनकी आपत्ति यह है कि ओएनजीसी का मैनेजमेंट उन्हें दरकिनार कर के उनसे चार-पाँच साल जूनियर जनरल कैटेगरी के अधिकारियों को साल दर साल ज्यादा प्रमोशन दे रही है। ये दिन दहाड़े नियमों का उल्लंधन है, चोरी है और जाति पर आधारित भेदभाव है।
दरअसल ओएनजीसी के भीतर एससी-एसटी कर्मचारियों के साथ पहले भी भेदभाव का आरोप लगता रहा है। लेकिन प्रोमोशन को लेकर नियम 2014-2015 में तब बदले गए जब एससी-एसटी की (SPECIAL RECRUITMENT DRIVE) वाली बैच प्रमोशन के लिए eligible हुयी। अगर नियमों का ठीक से पालन होता तो ज़्यादातर एससी-एसटी अधिकारी ओएनजीसी के टॉप पोस्ट पर होते। आरोप है कि उन्हे रोकने के लिए सारा गोलमाल चल रहा है। और यदि दिखावे के लिए कुछ अधिकारियों को प्रोमोशन दिया भी जाता है तो उन्हे जान बूझकर कम महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिया जाता है।
ओएनजीसी के एससी-एसटी एसोसिएशन ने इस मामले में दखल करते हुए ओएनजीसी मैनेजमेंट के साथ उठाया, लेकिन मैनेजमेंट ने उनकी बातों को अनदेखा कर दिया। जिसके बाद एसोसिएशन ने इस मामले को नेशनल कमिशन फॉर शैडयूल्ड caste और शैडयूल्ड tribe के सामने उठाया, जिन्होंने मामले की गंभीरता को देखते हुए ओएनजीसी के CMD को समन भेजकर जवाब तलब किया है। साथ ही ओएनजीसी से नियुक्तियों और प्रमोशन से संबंधित डाटा मांगा है।
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि क्या ONGC या उसकी सहयोगी कंपनी में कोई एससी-एसटी बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर पद पर है? जवाब है, बिलकुल नहीं। बोर्ड की तो छोड़िए, कुल 91 एक्सिक्यूटिव डाइरेक्टर में से सिर्फ एक ST, 6 SC और एक OBC है। लगभग यही स्थिति ग्रुप जनरल मैनेजर यानि E-8 और E-9 लेवेल पर है। आप ONGC की आधिकारिक वेबसाइट पर जाइए और साल दर साल ONGC के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की लिस्ट देखिये। आपको सिर्फ और सिर्फ शर्मा, द्विवेदी, मिश्रा इत्यादि दिखेंगे।
हालिया आंकड़ा देखिए। कुछ महीने पहले ONGC के CMD और डाइरेक्टर (Finance) थे, सुभाष कुमार शर्मा, जबकि ओएनजीसी विदेश लिमिटेड के डाइरेक्टर (Finance) थे विवेकानद शर्मा एवं ओएनजीसी के डाइरेक्टर ऑनशोर हैं अनुराग शर्मा। प्रोजेक्ट हेड की जिम्मेदारियां भी इसी एक खास वर्ग ने पकड़ रखी है। अब हम आपको इससे भी मजेदार बात बताते हैं, ओएनजीसी के ज़्यादातर बोर्ड मेम्बर्स साल दर साल कथित ऊंची जाति से रहे हैं जबकि ओएनजीसी का तेल और गैस उत्पादन साल दर साल तेजी से गिर रहा है। क्या भारत में मेरिट की यही परिभाषा है?
ओएनजीसी ने सारे सरकारी नियमों को ताक पर रख कर हज़ारों अनुभवी और काबिल एससीटी एसटी अधिकारियों को प्रमोशन और महत्वपूर्ण पदों से साल दर साल दूर रखा है। क्या इक्कीसवी सदी में जातिवाद का ये नया कॉर्पोरेट मॉडल है। कुल मिलाकर इस मामले के अनुसूचित जाति आयोग में पहुंचने पर ओएनजीसी के एससी-एसटी कर्मचारियों में न्याय की उम्मीद जगी है।
हिंदी फिल्मों की प्रसिद्ध पार्श्व गायिका लता मंगेशकर (28 सितंबर 1929 – 6 फ़रवरी 2022) केनिधन के बाद, जैसा कि हमारी परंपरा है, उन्हें बड़े पैमाने पर श्रद्धांजलि दी गई। श्रद्धांजलियां जितनी जनता की ओर से रहीं, उतनी ही जोर से भारत सरकार की ओर से भी। उनके निधन पर दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। इस दौरान राष्ट्र-ध्वज आधा झुका रहा और देश में कहीं भी सरकारी स्तर पर मनोरंजक कार्यक्रम की मनाही रही।
लता जी ने 92 वर्ष का लंबा जीवन जिया। 1950 के बाद से कई दशकों तक उन्होंने फिल्मी-गायन की दुनिया पर एकछत्र राज किया। संगीत के संस्कार उन्हें पारिवारिक विरासत में मिले थे। उनके पिता का वास्ता भी संगीत की दुनिया से था। लता की सगी बहनें आशा भोंसले और उषा मंगेशकर भी प्रसिद्ध गायिकाएं हैं। लता जी भले ही इंदौर में पैदा हुईं, लेकिन उनकी रगों में गोवा के एक प्रसिद्ध देवदासी परिवार का रक्त था। उनकी दादी देवादासी थीं। मराठी और हिंदी की प्रख्यात दलित लेखिका सुजाता पारमिता ने लता को दलित और देवदासी परिवार से बताया है। पारमिता के अनुसार, लता के पिता भी देवदासी माँ की संतान थे। जबकि कुछ अन्य लोग उन्हें भट्ट ब्राह्मण परिवार का साबित करते हैं। जो भी हो, लेकिन लता जी की आवाज में प्राकृतिक रूप से कुछ ऐसा था, जो बरबस सबको अपनी ओर खींचता था।
आज पलट कर देखने पर हम पाते हैं कि लता जी को 50 वर्षों से अधिक समय तक पार्श्व-गायन के शीर्ष पर बनाए रखने में मुख्य रूप से दो चीजों का योगदान था। इनमें सर्वोपरि थी, उनकी प्राकृतिक आवाज, जो सिर्फ और सिर्फ उनकी थी। प्रकृति ने उन्हें यह अद्भुत नियामत बख्शी थी। जैसा कि गायक बड़े गुलाम अली ने एक बार उनके लिए बहुत प्यार से कहा था- “कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती, वाह-क्या अल्लाह की देन है।”
लेकिन इसके अलावा उन्हें बुलंदी पर बरकरार रखने में भारत के एक राजनीतिक धड़े की भी भूमिका थी। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रिय गायिका थीं। यह एक अजीब विरोधाभास था। वे श्रृंगारिक प्रेम के गीत गाती थीं, लेकिन आजीवन उन ताकतों के साथ खड़ी रहीं, जो अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक प्रेम करने वालों की हत्या कर देने के हिमायती हैं।
वर्ष 2001 में तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न‘ से नवाजा था। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। भाजपा ने ही उन्हें राज्य सभा के लिए भी मनोनीत किया था। लेकिन सदन में उपस्थिति का उनका रिकार्ड बेहद खराब था। सदन नहीं जाने के कारण वे वहां से मिलने वाला वेतन भी नहीं लेती थीं, ताकि कोई उन पर उंगली न उठा सके। इन सबके बरक्स उनके सामाजिक सरोकार किस प्रकार के थे, इसका पता इससे चलता है कि उन्हें भारत रत्न मिलने के कुछ ही समय बाद जब उनके मुंबई स्थित घर के पास एक फ्लाइओवर बनने लगा तो उन्होंने धमकी दी कि अगर उनके घर के पास फ्लाई ओवर बना तो वे देश छोड़ कर चली जाएंगी। उनकी धमकियों के आगे सरकार को झुकना पड़ा और वह फ्लाईओवर नहीं बन सका। यह उनके स्वार्थ की पराकाष्ठा के प्रदर्शन का एक नमूना है। सवाल ये है कि क्या किसी को राजनीतिक दल यूं ही इतना सम्मानित किया करते हैं?
लता के आदर्श राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रेरणा पुरुष विनायक दामोदर सावरकर थे। वे सावरकर की प्रशंसा का कोई भी मौका नहीं छोड़ती थीं। वे हर वर्ष सावरकर जयंती पर ट्वीट कर उन्हें अपने पिता समान और भारत माता का सच्चा सपूत बताया करती थीं। सावरकर की ही भांति लता की निजी आस्था न तो स्त्री की आजादी में थी, न ही उन्हें भारत की धर्मनिरपेक्षता से लगाव था।
हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अशरफ़ अज़ीज़ के लेख “द फिमेल वॉयस ऑफ हिंदुस्तानी फिल्म सांग्स” में लता के अवदान की विस्तृत चर्चा है। इस सुचिंतत लेख में अशरफ़ अज़ीज़ की भी स्थापना है कि “लता मंगेशकर की आवाज ने औरतों को आज्ञाकारी और घरेलू बनाने में भरपूर मदद की।” वे भारत की धर्मनिरपेक्षता पर आघात करने वाली सबसे बड़ी घटना, बाबरी मस्जिद के विध्वंस से प्रसन्न थीं। 5 अगस्त, 2020 को जब कोविड महामारी के दौरान भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री ने तोड़ी गई मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर की आधारशिला रखी तो लता जी ने ट्वीट किया था कि “कई राजाओं का, कई पीढ़ियों का और समस्त विश्व के राम भक्तों का सदियों से अधूरा सपना आज साकार हो रहा है”।
राज्य-सत्ता की दमनकारी नीतियों के विरोध में जनता का विरोध भी उन्हें उचित नहीं लगता था। 2021 में जानी-मानी अंतरराष्ट्रीय पॉप गायिका रिहाना ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन के पक्ष में ट्वीट किया तो लता मंगेशकर ने ट्वीट कर रिहाना को लताड़ लगाई। उस समय लता मंगेशकर के साथ-साथ कुछ अन्य सेलिब्रिटीज सचिन तेंदुलकर, अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी ने भी रिहाना को लताड़ने वाले ट्वीट किए। लेकिन एक मजेदार बात यह सामने आई कि इन ट्वीटों के सिर्फ़ भाव ही नहीं बल्कि कई शब्द भी समान थे। बाद में मालूम चला कि लता मंगेशकर समेत इन सभी लोगों ने भाजपा के आईटी सेल द्वारा उपलब्ध करवाई सामग्री ट्विटर पर पोस्ट की थी।
दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा, लता की लोकप्रियता का उपयोग किस तरह किया करते थे, इसका पता 2019 में प्रसारित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ की रिकार्डिंग को सुनने से भी लगता है। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने श्रोताओं को लता मंगेशकर से फोन पर हुई ‘निजी’ बातचीत की रिकार्डिंग सुनाई। प्रधानमंत्री के अनुसार, यह रिकार्डिंग उस समय की है, जब उन्होंने लता मंगेशकर को उनके 90वें जन्म दिन की बधाई देने के लिए औचक फोन किया।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए मोदी कहते हैं कि लता जी से उनकी “यह बातचीत वैसी ही थी, जैसे बहुत दुलारमय छोटा भाई अपनी बड़ी बहन से बात करता है।” वे कहते हैं कि “मैं इस तरह के व्यक्तिगत संवाद के बारे में कभी बताता नहीं, लेकिन आज चाहता हूं कि आप भी लता दीदी की बातें सुनें।” रिकार्डिंग की शुरुआत में मोदी कहते हैं कि “लता दीदी प्रणाम, मैं नरेंद्र मोदी बोल रहा हूं। मैंने फोन इसलिए किया, क्योंकि इस बार आपके जन्मदिन पर मैं हवाई जहाज में ट्रैव्लिंग कर रहा हूं, तो मैंने सोचा जाने से पहले मैं आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई… अग्रिम बधाई दे दूं.. आपको प्रणाम करने के लिए मैंने अमेरिका जाने से पहले आपको फोन किया है।’’
मोदी इस कार्यक्रम में यह जताते हैं कि यह दो व्यक्तियों के बीच सच्चे हृदय से हुई बातचीत है, जिसमें लता सरकार की उपलब्धियों के पुल बांधती हैं। लेकिन उस रिकार्डिंग में ही मालूम चल जाता है कि यह सुनियोजित बातचीत थी, जिसे लता की लोकप्रियता का फायदा उठाने के लिए प्रधानमंत्री की प्रचार टीम ने आयोजित किया था। दरअसल, उसमें लता का यह कहा हुआ भी रिकार्ड है कि “आपका फोन आएगा, यही सुनकर मैं बहुत ये हो गई थी।” लता के मुंह से अनायास निकला यह वाक्य बता देता है कि पूरी बातचीत बनावटी है। लेकिन तमाम मीडिया-संस्थानों ने इससे संबंधित खबर को उस प्रकार से ही प्रसारित किया जैसा कि प्रधानमंत्री की प्रचार टीम चाहती थी। हर जगह इस खबर की धूम रही कि प्रधानमंत्री ने लता मंगेशकर को जन्मदिन की बधाई दी। खबरों में कहा गया कि स्वर कोकिला लता मंगेशकर उनके प्रधानमंत्री बनने को देश के लिए सौभाग्य की बात मानती हैं।
उम्र में नरेंद्र मोदी लता मंगेशकर से 31 वर्ष छोटे हैं। इस रिकार्डिंग में लता उनसे आशीर्वाद मांगती हैं। वे कहती हैं कि जन्मदिन पर अगर “आपका आशीर्वाद मिले तो मेरा सौभाग्य होगा।” प्रधानमंत्री उनकी बात काट कर कहते हैं कि मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति में मीडिया-मैनेजमेंट का जो दौर चल रहा है, उसमें उपरोक्त लता-मोदी प्रहसन कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन जब एक कलाकार के रूप में लता के व्यवहार और एक कलाकार की गरिमा से संबंधित सरोकारों का आकलन करना हो तो इन छोटी लगने वाली बातों को ध्यान में रखना होगा क्योंकि इनके निहितार्थ छोटे नहीं हैं।
लता जी के निधन के बाद मैंने अपने फेसबुक वॉल पर उनके सामाजिक सरोकारों के सवालों को उठाया था। उस पोस्ट को पढ़ने के बाद एक ट्रेड टोली ने मेरी पोस्ट पर गाली-गलौज करने का आह्वान किया। जड़मति लंपट युवाओं की इस टोली के आह्वान के बाद लगभग 700 लोगों ने मेरे फेसबुक वॉल पर आकर गालियां दीं, जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जारी है। मेरी उस पोस्ट को शेयर करने वाले मित्रों को, जिनमें हिमांशु कुमार जैसे प्रसिद्ध कार्यकर्ता भी शामिल थे, को भी गालियां दी गईं। लेकिन ये ट्रोल-सेना क्या लता को उन सवालों से बचा पाएगी, जो सांभा जी भगत जैसे लोकप्रिय मराठी गायक वर्षों से उठाते रहे हैं?
सांभा जी बताते हैं कि किस प्रकार लता मंगेशकर ने डॉ. आंबेडकर से संबंधित गीत गाने से मना कर दिया था। सांभा जी ने इस संबंध में 2015 में रांची स्थित आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले युवा वकीलों के संगठन ‘उलगुलान’ द्वारा आयोजित एक संगीत कार्यक्रम में जो कहा, उसे यहां उन्हीं के शब्दों में पूरा उद्धृत कर देना प्रासंगिक होगा, ताकि हम उस दर्द की तासीर को ठीक से महसूस कर सकें।
सांभा जी भगत ने उपरोक्त कार्यक्रम में कहा कि: “लता बाई, आशा बाई, उषा बाई- तीनों मिलकर गाते हैं।… उनके आगे भी गणपति होते हैं, पीछे भी गणपति होते हैं। लेकिन इस पूरे दृश्य में हम लोग किधर खड़े हैं? लता बाई की आवाज बहुत अच्छी है।… एक बार हमारे लोग गए थे लता बाई के पास में कि हमारे जो बाबा साहब आंबेडकर हैं, उनका एक गाना गाओ आप। लेकिन लता बाई ने इंकार कर दिया। मैं कहता हूं कि यह बहुत महत्वपूर्ण है कि किसको नकारा जाता है। लता बाई ने क्यों इंकार किया? क्योंकि डॉ. आम्बेडकर अछूत हैं। उन्होंने बाकी सब गाया है। हमलोग उनको बोले कि पैसे का प्राब्लम है तो पैसे देते हैं न! लेकिन उन्होंने नहीं गाया।… उनकी बहुत सुंदर आवाज है। ऐसी सुंदर आवाज अगर हमारे बाबा साहब के नाम का स्पर्श होने से अपवित्र होती है तो ऐसी आवाज हमारे लिए कचरा है। कोई जरूरत नहीं है उसकी। हमारी हजारों लता बाई और आशा बाई को उन्होंने गांव-गांव में खत्म किया है। वे उन लोगों को अपना भाई बताती हैं कि जिन्होंने हजारों लोगों का कत्लेआम किया है। एक कलाकार को अपना पक्ष जरूर चुनना चाहिए। अगर कत्लेआम करने वाले उनके भाई हैं तो वे हमारी बहन नहीं हो सकतीं।”(जोर हमारा)
लता किस प्रकार का गायन खुशी से करती थीं, इसे देखना हो तो उस वीडियो को देखना चाहिए, जिसमें वे सावरकर के गीत “हे हिंदू शक्ति संभूत दिप्ततम तेजा” को पूरे मनोयोग से गा रही हैं। शिवा जी का सांप्रदायिकीकरण करने वाले इस गीत की पंक्तियां इस प्रकार है:
“हे हिंदू शक्ति संभूत दिप्ततम तेजा
हे हिंदू तपस्या पूत ईश्वरी ओजा
हे हिंदू श्री सौभाग्य भूतिच्या साजा
हे हिंदू नृसिंहा प्रभो शिवाजीराजा
करि हिंदू राष्ट्र हें तूतें”
इस मराठी गीत को वीडियो में संगीत उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर ने दिया था।
लता और उनके परिवार का जिक्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी ने हाल ही में प्रकाशित हुई अपने भाषणों की पुस्तक ‘विकास के पथ’ में भी किया है। गडकरी बताते हैं कि लता “दीदी ‘कट्टर’ राष्ट्रवादी हैं।… स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के प्रति उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा है।” गडकरी ने किताब में बताया है कि “जिस समय मुंबई के वरली-बांद्रा पुल का भूमि पूजन कार्यक्रम था, उस समय मैंने लता दीदी और उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर के सामने इच्छा रखी कि सावरकर द्वारा रचित गीत या तो स्वयं उनके द्वारा अथवा उनके परिवार के द्वारा गाया जाना चाहिए।… इस कार्यक्रम में हृदयनाथ मंगेशकर आए और इस परिवार की वीर सावरकर के प्रति जो श्रद्धा है उसी के अनुरूप उन्होंने वीर सावरकर रचित चार गानों को बड़ी सुंदरता से पेश किया।” (जोर हमारा)
लता के संगीत पर, उनकी हर-दिल-आवाज पर बहुत सारे लोग बात करेंगे। लेकिन यह तो उनकी आवाज के प्रशंसक भी जानते हैं कि उनकी आवाज में कुछ प्राकृतिक जादू था। जन्मजात थी उनकी आवाज। उस मूल आवाज में लता जी का अपना तो कुछ था नहीं। ऐसे में यह ज्यादा आवश्यक है कि हम देखें कि जो लता का अपना था, वह क्या था?
सवाल यह नहीं है कि उन्होंने बाबा साहब आंबेडकर के गानों को क्यों नहीं गाया। इन थोथे प्रतीकों का खूब दुरूपयोग होता है। कोई उनके बाबा साहब आंबेडकर पर कहे औपचारिक शब्दों को सामने रख सकता है तो कोई उनकी नेहरू अथवा किसी कम्युनिस्ट, बहुजन नेता के साथ की तस्वीरों को। इसलिए मेरा सवाल यह है कि लता मंगेशकर के सामाजिक सरोकार क्या थे, वे धार्मिक पोंगापंथ के पक्ष में थीं या वैज्ञानिक-चेतना के प्रसार के पक्ष में? स्त्रियों को प्रेम करने की आजादी, दलित-पिछड़ों द्वारा सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए संघर्ष आदि के प्रति उनके विचार क्या थे? और, यह जो कुछ उनका अपना था, उसके आधार पर उन्हें इतिहास में किस प्रकार याद किया जाएगा? वे किस ओर खड़ीं हैं?
दरअसल लता जी की वैचारिक बुनावट प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी थी। मुझे नहीं पता कि उन्होंने अपने-अपने प्रतिगामी समाजिक सरोकारों का उस प्रकार सचेत चुनाव किया था या नहीं, जिस प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े उच्च वर्णीय लोग करते हैं।
लेकिन, उपरोक्त प्रसंगों से इतना तो स्पष्ट है कि दुनिया कैसी होनी चाहिए, कौन-सी ताकतें दुनिया के सुर को बिगाड़ती हैं और कौन इसे संवारने के लिए संघर्षरत हैं, इस बारे में उनका कोई विचार ही नहीं था। किसी विचारहीन कलाकार का इतिहास में स्थान नहीं बना पाना कठिन है, चाहे वह अपने जीवन-काल में कितना भी महान क्यों न लगता रहा हो। लता के गीत भले ही कुछ अरसे तक जीवित रहें, लेकिन शायद एक कलाकार के रूप में वे इतिहास के कूड़ेदान में वैसे ही जाएंगी, जैसे कोई टूटा हुआ सितार जाता है, चाहे उसने अपने अच्छे दिनों में कितने भी सुंदर राग क्यों न निकाले हों।
उनकी दिलकश आवाज का जादू देश के करोड़ों लोगों की तरह मुझे भी प्रभावित करता है। मैं भी चाहूंगा कि किसी को भी मिली ऐसी प्रकृति प्रदत्त नियामत का सम्मान हो, लेकिन यह भी अवश्य देखा जाना चाहिए कि उसने जाने-अनजाने इस नियामत को किन ताकतों के पक्ष में बरता तथा उन ताकतों ने उसका किस प्रकार का सामाजिक-राजनीतिक उपयोग किया।
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने देश की राजनीति और राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के बीच हलचल मचा दी है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर कुल पांच राज्यों में हुए चुनाव में भाजपा चार राज्यों में जीत गई है और सरकार बना चुकी है। पंजाब में आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत मिला है। दलित राजनीति के परिपेक्ष्य में देखें तो यह चुनाव काफी निराशा भरा रहा। दलित समाज के वोटों पर दावा करने वाली बसपा यूपी, पंजाब और उत्तराखंड में औंधे मुंह गिरी है। बसपा की सबसे शर्मनाक हार उसके गढ़ उत्तर प्रदेश में हुई है, जहां सीटों से लेकर वोट प्रतिशत तक में उसका भारी नुकसान हुआ है। उत्तर प्रदेश में बसपा महज बलिया जिले की रसड़ा विधानसभा की सीट ही जीत सकी है। जो लोग उस क्षेत्र की राजनीति को जानते हैं, उन्हें पता है कि यह जीत बसपा की नहीं, बल्कि बसपा के टिकट पर जीते उमाशंकर सिंह की अपनी लोकप्रियता की जीत है। इस तरह देखा जाए तो बसपा अपनी स्थापना के बाद निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।
प्रदेशवार बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन का आंकलन करें तो उत्तर प्रदेश में बसपा को 12.88 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि बसपा को एक करोड़,18 लाख, 73 हजार 137 वोटरों ने वोट किया है। 2017 में जब माना रहा था कि बसपा अपने सबसे बुरे दौर में है, तब भी उसे 19 सीटें और 22.24 प्रतिशत मिला था। ऐसे में बसपा की इस हार को शर्मनाक माना जा रहा है।
पार्टी
सीटें
फायदा/नुकसान
वोट प्रतिशत
वोट मिले
भाजपा
255
57 सीटें घटी
41.29
तीन करोड़ 80 लाख 51, हजार 721 वोट
सपा
111
64 सीटें बढ़ी
32.06
2 करोड़ 95 लाख, 43 हजार, 934 वोट
अपना दल
12
3 सीटें बढ़ी
रालोद
08
7 सीटें बढ़ी
02.85
26 लाख, 30 हजार, 168 वोट
निषाद पार्टी
06
5 सीटें बढ़ी
सुभासपा
06
2 सीटें बढ़ी
कांग्रेस
02
5 सीटें घटी
02.33
21 लाख, 51 हजार, 234 वोट
बसपा
01
18 सीटें घटी
12.88
एक करोड़,18 लाख, 73 हजार 137 वोट
इस तरह देखा जाए तो उत्तर प्रदेश चुनाव में बहुजन समाज पार्टी भले वोट प्रतिशत में कुछ दलों से आगे हो, सीटों के मामले में सबसे आखिर में खड़ी दिखती है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी, अनुप्रिया पटेल की पार्टी, कांग्रेस पार्टी, जयंत चौधरी की लोकदल पार्टी और यहां तक की निषाद पार्टी तक बहुजन समाज पार्टी से आगे हैं।
पंजाब में बसपा को 1.77 प्रतिशत वोट मिला है। कुल मिले वोटों की संख्या की बात करें तो बसपा को यहां सिर्फ 2 लाख 75 हजार 232 वोटरों ने ही वोट दिया है।117 सीटों में से बसपा ने 20 सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारा था। बसपा को यूपी की तरह ही सिर्फ एक सीट मिली। नवां शहर में बसपा प्रत्याशी डॉ. नक्षत्र सिंह ने बसपा की लाज बचाई। पंजाब में बसपा और अकाली दल के बीच गठबंधन हुआ था। बसपा के साथ गठबंधन में शामिल अकाली दल को 18.38 फीसदी वोट मिले और वह सिर्फ 3 सीटें जीत सकी। उसे 12 सीटों का नुकसानहुआ है। गठबंधन ने 80 सीटों पर जीत का दावा किया था।
पंजाब में आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला है। उसने 117 में से 92 सीटें जीत ली है। उसे 72 सीटों का फायदा हुआ है।कांग्रेस को दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने के बावजूद सिर्फ 18 सीटें मिली है, उसे 59 सीटों का नुकसान हुआ है। जबकि उत्तराखंड की 70 सीटों मेंबहुजन समाज पार्टी दो सीटें जीती है। प्रदेश मेंबसपा का वोट शेयर 4.82 प्रतिशत रहा है।उसे कुल 2 लाख, 59 हजार, 371 वोट मिला है।
सन् 1984 में अपनी स्थापना के बाद से सबसे निराशाजनक दौर से गुजर रही बहुजन समाज पार्टी की इस हार की वजह को लेकर तमाम समीक्षाएं हो रही है। नतीजों के दूसरे दिन जिस तरह बहनजी ने सामने आकर मुस्लिमों से लेकर दलित समाज पर निशाना साधा लेकिन ब्राह्मणों को लेकर चुप्पी साधे रखीं, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। जाने-माने लेखक कँवल भारती का कहना है, “एक समय था, जब कांशीराम से प्रभावित होकर बहुत से गैर-चमार जातियों के बुद्धिजीवी बसपा से जुड़े थे। इनमें पासी, खटिक, वाल्मिकी समुदाय के कई प्रदेश स्तर के महत्वपूर्ण नेता थे। कुछ को मायावती सरकार में मंत्री भी बनाया गया था। पर बसपा नेतृत्व ने उन सबको निकाल बाहर किया। ऐसा क्यों किया गया? इसके पीछे क्या कारण था? बसपा के भक्त प्रवक्ता इसका यही उत्तर देंगे कि वे पार्टी के खिलाफ काम कर रहे थे। चलो मान लिया, फिर उनकी जगह पर उन समुदायों में नया नेतृत्व क्यों नहीं तैयार किया गया? इसका वे कोई जवाब नहीं देंगे।”
बसपा की हार पर देश के प्रख्यात समाजशास्त्री और जेएनयू में सोशल साइंस विभाग के अध्यक्ष प्रो. विवेक कुमार बसपा की कार्यशैली की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, “भारतीय राजनीति (perception) धारणा का खेल बन गया है, जिसने परसेप्शन बना लिया, रोड शो, इवेंट मैनेजर्स, मीडिया, सोशल मीडिया, तथाकतिथ बुद्धिजीवियों के माध्यम से वह आगे निकल गई। हर बात पर नेता और पार्टी का बाईट/इंटरव्यू जरुरी हो गया है। शोषितों की आवाज़ उन्ही के दरवाज़े से बुलंद करनी होती है।”
चाहे बसपा हो या फिर समाजवादी पार्टी, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उनके राजनीति करने के तरीके पर ही सवाल उठाते हैं। उर्मिलेश कहते हैं, “जिन दिनों अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करते हुए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने फरसा लहराते हुए एक खास मंदिर के निर्माण का अभियान चलाया, एक कार्यक्रम में मैने तब कहा था कि ‘यह क्या, अखिलेश यादव हारने के लिए चुनाव लड़ रहे है!’ मेरी उस टिप्पणी पर बहुतेरे लोग नाराज हुए थे। परंतु मुझे अचरज हुआ था कि अखिलेश जी जरूरी मुद्दों को छोड़कर यह सब क्या कर रहे हैं! कुछ ही समय बाद वह समाज और अवाम के जरूरी मुद्दों पर बात करने लगे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पौने पांच साल की ‘लंबी छुट्टी’ के बाद सिर्फ ‘तीन महीने की सीमित सक्रियता’ से भला पांच साल के लिए कोई नयी सरकार कैसे बनती?
दूसरी ओर विपक्ष की तमाम गोलबंदी के बीच भाजपा की इस जीत और आम जनता के वोट देने के तरीके पर भी चर्चा हो रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर आशुतोष कुमार का कहना है, “बिहार और यूपी के नतीजों के बाद कम से कम एक बात अंतिम रूप से साबित हो गई है। सामाजिक न्याय की अस्मितावादी राजनीति के सहारे हिन्दू राष्ट्रवाद का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। हिन्दू राष्ट्र की अस्मिता ने सामाजिक अस्मिताओं को न केवल अच्छी तरह जज़्ब कर लिया है, बल्कि उन्हें ही अपनी ताक़त बना चुकी है। इस कारण मंडल बनाम कमंडल का फार्मूला बेमानी हो चुका है।”
बसपा का चुनाव दर चुनाव प्रदर्शन
साल
1993
1996
2002
2007
2012
2017
2022
वोट प्रतिशत
11.12
19.64
23.06
30.43
25.98
22.24
12.88
सीटें
67
67
98
206
80
19
01
लेकिन यहां सवाल यह भी है कि उत्तर प्रदेश का विपक्ष, जिसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी प्रमुख रही, आखिर उसने यह कैसे मान लिया कि वह आराम से जीत जाएगी। दिलीप मंडल ने अपने एक लेख में लिखा है कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को इस बात का भरोसा रहा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार अपने कार्यकाल की गलतियों और लोगों की नाराज़गी के बोझ से गिर जाएगी और सत्ता उनके पास आ जाएगी। लेकिन एंटी-इनकंबेंसी यानी सत्तारूढ़ दल से नाराज़गी किसी सरकार को गिराने के लिए हमेशा काफी नहीं होती है। विपक्ष को ये भी बताना होता है कि वह सत्ता में आने के बाद क्या करने वाली है। उसे जनता को सपने दिखाने पड़ते हैं।
तो सवाल है कि क्या विपक्षी दल खासकर बसपा और समाजवादी पार्टी जनता को सपने दिखाने में नाकामयाब रही? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ें तो अखिलेश यादव ने जनता को सपने दिखाए, उन्होंने वादे भी किये, लेकिन काफी देर से। भाजपा के 24X7चुनावी मोड में रहने का मुकाबला निश्चित तौर पर कुछ महीनों की सक्रियता से नहीं की जा सकती। भाजपा कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रही थी, जबकि विपक्षी दल ऐसा करने से चूक गए। खासतौर पर बहुजन समाज पार्टी का चुनावी प्रचार महज औपचारिकता भर रहा। कोरोना के कारण यह चुनाव डिजिटल लड़ा गया और इस मायने में बसपा की तैयारी बहुत खराब दिखी। बसपा के पास अपना फेसबुक पेज तक नहीं था। बहनजी ने अब तक की सबसे कम रैलियां की। आकाश आनंद, जिनको बसपा ने युवा चेहरे के तौर पर प्रस्तुत किया, उनको पूरे चुनाव में कभी भी चुनाव प्रचार में नहीं उतारा गया। मंच से बहनजी ने अपना कोई खास विजन पेश नहीं किया। समाज के सामने अपना रोडमैप नहीं रखा, जिसका फर्क भी पड़ा। तो वहीं सोशल मीडिया पर भी बसपा का चुनाव प्रचार काफी ढ़ीला रहा। बसपा 2022 का चुनाव 2007 के स्टाइल में ही लड़ रही थी। बसपा ने खुद को न समय के हिसाब से अपडेट किया है और न ऐसा करने की कोशिश करती दिखती है।
चुनावी नतीजे बताते हैं कि बसपा के वोट प्रतिशत में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज हुई है। 2017 में बसपा को मिले 22.24 प्रतिशत वोट से घटकर 2022 में बसपा 12.88 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सवाल है कि बसपा का तकरीबन 10 प्रतिशत का वोट शेयर किसके पास गया? चुनाव के दौरान लोगों से बातचीत करते हुए या फिर जिस तरह से लोगों की प्रतिक्रिया आ रही थी, उसमें साफ महसूस हो रहा था कि दलितों का एक तबका बसपा से उदासीन है। उसमें शहरों में रहने वाला दलित वोटरों की संख्या ज्यादा थी, जो बसपा को जमकर लड़ते हुए देखना चाहते थे। वो दूसरे दलों के आक्रामक चुनाव प्रचार से प्रभावित थे, और उन्हें महसूस हो रहा था कि बसपा उस मजबूती से चुनाव नहीं लड़ रही है, जिस मजबूती से समाजवादी पार्टी या फिर भाजपा लड़ रही है। ऐसे में दलित समाज के जो वोटर सजग थे और भाजपा की साजिशों से परिचित थे, उन्होंने भाजपा को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी को चुना। हालांकि गाँवों की जाटव बस्तियों में आज भी बहनजी का जादू कायम दिखा। गरीब जनता के लिए आज भी मायावती उनकी नायिका हैं और उन्हीं के वोटों के बूते बसपा 10 फीसदी वोट हासिल कर पाई है।
लेकिन बसपा के लिए चिंता की बात यह है कि कल तक उसके पाले में खड़े लोग आखिर उससे दूर क्यों होते जा रहे हैं? चुनावी नतीजों के बाद दलित दस्तक को पाठकों की मिली तमाम प्रतिक्रियाओं में उसका जवाब ढूंढ़ा जा सकता है। मान्यवर कांशीराम के समय से ही बसपा के आंदोलन से जुड़े इस सरकारी कर्मी का कहना है, “बहनजी या तो बीमारी को पकड़ नहीं पा रही हैं, या फिर जानबूझ कर अनदेखा कर रही हैं। बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा की ओर इशारा करते हुए पाठक का कहना है कि कैंसर पेट में है और बहनजी हाथ-पैर काट कर फेंक रही हैं। पाठक इस बात पर नाराजगी जताता है कि बहनजी ने दलित-पिछड़े वर्ग के जनाधार वाले तमाम नेताओं को एक-एक कर पार्टी से निकाल दिया। अगर उनकी थोड़ी-बहुत गलती थी भी तो उन्हें फटकार लगाई जा सकती थी, धमकाया जा सकता था, लेकिन बहनजी ने उन्हें सफाई पेश करने तक का मौका नहीं दिया। वह सवाल उठाता है कि आप इतिहास को उठाकर देख लिजिए जितनी बेदर्दी से बहनजी अपने साथ काम करने वाले सालों पुराने नेताओं को एक झटके में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देती हैं, उतना किसी पार्टी ने अपने नेता को बाहर नहीं किया। बहनजी बहुजन से सर्वजन हो गईं ऐसे में उन्होंने बहुजनों को भी खो दिया है।
इस चुनाव में इसका बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश का अंबेडकरनगर जिला बना है। अंबेडकरनगर बहुजन समाज पार्टी का गढ़ रहा है। बसपा प्रमुख मायावती ने ही मुख्यमंत्री रहते सन् 1995 में इसे जिला बनाया था, और बाबासाहेब के नाम पर जिले का नाम अंबेडकर नगर रखा गया था। मायावती यहां से जीतकर लोकसभा में भी पहुंची थी। 2017 में भाजपा की आंधी के बावजूद बसपा के यहां से तीन विधायक जीते। इसमें मायावती के नजदीकी और बसपा के यूपी प्रदेश अध्यक्ष और बसपा सरकार में मंत्री रह चुके रामअचल राजभर ने अकबरपुर से जीत हासिल की। कटेहरी से बसपा के लालजी वर्मा जीते जबकि जलालपुर से रितेश पांडे ने जीत दर्ज की। लेकिन यूपी के पंचायत चुनाव के दौरान बसपा के एक नेता ने बहनजी का कान भर दिया और मायावती ने रामअचल राजभर और लालजी वर्मा को पार्टी से बाहर कर दिया। इन दोनों नेताओं की तमाम कोशिशों के बावजूद इनका पक्ष नहीं सुना गया। चुनाव से पहले ये दोनों समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए और नतीजा यह हुआ कि जिस अंबेडकरनगर में समाजवादी पार्टी का कोई वजूद नहीं था, वहां सभी पांचों सीटों पर समाजवादी पार्टी भारी मतों से जीती। इस तरह बसपा प्रमुख के एक फैसले ने बसपा के गढ़ को नेस्तनाबूत कर दिया।
चुनावी नतीजों के बाद बहुजनों, खासकर दलितों के बीच सोशल मीडिया पर आपसी संघर्ष छिड़ गया। नतीजों के बाद बसपा की कमियों पर बात करने वालों को बसपा के कार्यकर्ता और कोर समर्थक पचा नहीं पा रहे हैं। और उन्हें ही भला बुरा कह रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे पोस्ट की भरमार है, जिसमें सवाल उठाने वाले बहुजन पत्रकारों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को गालियां मिल रही है। बसपा समर्थकों की ऐसी प्रतिक्रिया से लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे प्रो. कालीचरण स्नेही नाराज दिखते हैं। प्रो. स्नेही का कहना है, “बीएसपी इस देश के बहुजनों की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है, इसे हर हाल में बचाए रखना बहुजनों की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है। इस समय जो लोग भी बीएसपी की हार पर अपना नजरिया प्रस्तुत कर रहे हैं, वे बीएसपी के हितचिंतक और समर्थक हैं, उनकी बात पर गौर करने की जरूरत है, उन्हें खारिज करने की नहीं। पार्टी को अब “सर्वजन हिताय” की जगह “बहुजन हिताय” के नारे के साथ अपने पुराने फार्मूले पर तुरंत लौटने की जरूरत है।
अब बड़ा सवाल यह है कि इस चुनावी नतीजे के बाद बसपा कहां खड़ी है और क्या अब भी उसकी राजनैतिक वापसी संभव है? सामाजिक कार्यकर्ता और दलितों के संगठन नैक्डोर के अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं, “बहुजन समाज पार्टी एक ऐतिहासिक जरूरत थी। 2007 में जब वो सत्ता में आ गई और उसने जो काम किये, उन कामों से उसने अपनी ऐतिहासिक जरूरत को पूरा कर लिया। बहुजन महापुरुषों को बसपा ने पहचान दी, उनको स्थापित किया। लेकिन वह पहचान की राजनीति से आगे नही बढ़ सकी। बसपा ने पूरे देश में दलितों की उम्मीदे तो जगाई लेकिन जब उन उम्मीदों को पूरा करने का वक्त आया तो बसपा आगे का रोडमैप नहीं बना सकी। तब तक बसपा के संस्थापक और नीति निर्माता मा. कांशीराम के परिनिर्वाण हो जाने से भी काफी नुकसान हुआ।
अशोक भारती कहते हैं कि बसपा समाज का रुपांतरण करने के लिए सत्ता में आई थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद वो सैद्धांतिक विचलन में फंस गई। उसने बहुजन का सर्वजन कर दिया। बसपा ने मिशन आउटसोर्स कर दिया। पार्टी की वापसी पर उनका कहना है कि पार्टी ऐसी स्थिति में पहुंच गई है, जहां से उसकी वापसी तब तक संभव नहीं दिखती, जब तक कोई बहुत बड़ा और क्रांतिकारी परिवर्तन न हो। बसपा को सतीश चंद्र मिश्रा पर भी बड़ा फैसला लेना पड़ेगा।
गौर करने लायक एक बात यह भी है कि बसपा से छिटके वोट आखिर किसे मिले। तमाम एजेंसियां इसकी अपनी तरह से व्याख्या कर रही हैं। लेकिन दलित बस्तियों में घूमने और दलित समाज के मतदाताओं से बात करने पर साफ पता चलता है कि वो वोट समाजवादी पार्टी को गए हैं। जो एजेंसियां भी यह भ्रम फैला रही हैं कि बसपा से छिटके वोट भाजपा को गए हैं, कहीं न कहीं वो 2024 के लिए भाजपा का एजेंडा सेट करने में लगे हैं। जो लोग बहुजन राजनीति और अंबेडकरी आंदोलन की समझ रखते हैं उनको पता है कि बसपा का कैडर वोट भाजपा में नहीं जा सकता। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत इस बार पर मुहर भी लगाता है। यानी दलितों का बसपा के नेताओं (बसपा से नहीं) और उसकी कार्यप्रणाली से जो मोहभंग हुआ है, उसमें उसने दूसरे विकल्प के रूप में समाजवादी पार्टी की ओर देखना शुरू कर दिया है।
संभवतः ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ा उससे अखिलेश यादव एक विक्टिम की तरह सामने आएं। बहनजी के गठबंधन तोड़ने को लोगों अवसरवादिता माना, क्योंकि बहुजन समाज इस गठबंधन के जरिए देश में बड़े बदलाव का सपना पाले हुए था। और जब अखिलेश यादव ने बसपा सुप्रीमों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला, तो यह समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया।
बसपा अब उस स्थिति में पहुंच गई है, जहां उसके पास खोने को कुछ नहीं है। क्योंकि वह कुछ फीसदी वोटों के अलावा सबकुछ खो चुकी है। ऐसे में वापसी के लिए भी बसपा के पास आखिरी मौका है। जिसके लिए उसे नब्बे के दशक की राजनीति से निकल कर वर्तमान समय की राजनीति करनी होगी। जिसमें मंच पर नेताओं का हुजूम होना चाहिए, पार्टी के पास दर्जनों चेहरे होने चाहिए। उनको खुल कर बोलने की आजादी होनी चाहिए। जनता के मुद्दों पर सड़क पर उतरना होगा। देश से जुड़े हर मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी। युवाओं और महिलाओं के साथ ही हर वर्ग का सेल बनाना होगा। उसमें हर वर्ग के युवाओं को कमान देनी होगी और बहुजन विचारधारा पर अडिग होकर आक्रामक होकर काम करना होगा। दलित, पिछड़े, मुस्लिम समाज के सक्षण नेताओं और कार्यकर्ताओं हुजूम ही बसपा को बचा सकता है। बसपा अब भी खड़ी हो सकती है, क्योंकि लोगों की नाराजगी बसपा के नेताओं और उसके काम करने के तरीके को लेकर है, बहुजन समाज पार्टी को बहुजन समाज आज भी उतना ही समर्थन और प्यार करता है।
सात साल पहले 2015 की यूपीएससी परीक्षा में टॉप कर चर्चा में आई चर्चित आईएएस अधिकारी टीना डाबी फिर से सुर्खियों में हैं। वजह यह है कि टीना डाबी दुबारा शादी करने जा रही हैं। टीना डाबी ने खुद अपने इंस्टाग्राम पर इसका खुलासा किया है। इससे पहले साल 2018 में टीना डाबी ने यूपीएससी परीक्षा में दूसरे रैंक पर रहे आईएएस अतहर खान से शादी की थी। हालांकि दो साल बाद 2020 में दोनों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया था। टीना डाबी से तलाक के बाद अतहर खान जम्मू कश्मीर कैडर लेकर अपने राज्य चले गए थे।
इस बीच दो सालों तक अकेले रहने के बाद टीना डाबी की जिंदगी में एक नया शख्स आ गया है। और टीना डाबी ने उन्हें अपना फियांसे बताया है। टीना डाबी की जिंदगी में आए इस नए शख्स का नाम है- प्रदीप गवांडे।
टीना डाबी की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल होने लगी है, लोग उन्हें नई जिंदगी की शुरुआत के लिए शुभकामनाएं दे रहें हैं। वहीं दूसरी तरफ लोग उनके मंगेतर के बारे में जानने के लिए काफी उत्साहित हैं। तो हम आपको बताते हैं कि कौन हैं प्रदीप गवांडे।
प्रदीप गवांडे साल 2013 बैच के IAS अफसर हैं। प्रदीप फिलहाल राजस्थान आर्कियोलॉजी एण्ड म्यूजियम डिपार्टमेंट में डायरेक्टर हैं। प्रदीप का जन्म 9 दिसंबर 1980 को हुआ था और वह टीना से उम्र में 13 साल बड़े हैं। प्रदीप और टीना डाबी दोनों की यह दूसरी शादी है।
प्रदीप ने नासिक के सरकारी मेडिकल कॉलेज से MBBS किया है। बाद में उन्होंने यूपीएससी एग्जाम क्रैक कर लिया। ट्रेनिंग के बाद उन्हें राजस्थान कैडर मिला। एबीपी न्यूज की खबर के मुताबिक प्रदीप गवांडे करीब 7 महीने पहले राजस्थान कौशल एवं आजीविका विकास निगम के मुख्य प्रबंधक थे। उस वक्त रिश्वत मामले वे जांच के दायरे में थे। उन्हें एसीबी की टीम ने 5 लाख रुपए के रिश्वत मामले में गिरफ्तार किया था।
टीना डाबी सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती है और उनकी दूसरी शादी की खबर ने सोशल मीडिया पर बवाल मचा रखा है। टीना डॉबी के फालोअर्स की ओर उनकी शादी पर मिली जुली प्रतिक्रिया आ रही है। कुछ फैंस टीना डॉबी के इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं, जबकि कई फैंस ऐसे भी हैं, जो उनके नए दूल्हे के लुक्स, उनके ज्यादा उम्र के होने और रिश्वत के मामले में नाम आने से खुश नजर नहीं आ रहे हैं।
हाल के दिनों में कांग्रेस शासित राजस्थान में दलितों के उपर अत्याचार की घटनाओं में अत्याधिक वृद्धि देखी गई है। गत 15 मार्च को ही पाली जिले में स्वास्थ्यकर्मी रहे जितेंद्र मेघवाल की हत्या उनके ही गांव के दबंगों ने केवल इसलिए कर दी थी, क्योंकि दबंगों को जितेंद्र का अच्छे से रहना-सहना पसंद नहीं था। दलितों के खिलाफ अत्याचार का मामला राजस्थान में किस कदर बढ़ रहा है, इसकी ओर बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने आवाज उठाई है। उन्होंने भारत सरकार से राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है।
ट्वीटर पर जारी अपने संदेश में उन्होंने कहा है कि “राजस्थान कांग्रेस सरकार में दलितों व आदिवासियों पर अत्याचार की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हाल ही में डीडवाना व धोलपुर में दलित युवतियों के साथ बलात्कार व अलवर में दलित युवक की ट्रैक्टर से कुचलकर हत्या व जोधपुर के पाली में दलित युवक की हत्या ने दलित समाज को झकझोर दिया है।”
आगे उन्होंने कहा कि “इससे यह स्पष्ट है कि राजस्थान में खासकर दलितों व आदिवासियों की सुरक्षा करने में वहां की कांग्रेसी सरकार पूरी तरह से विफल रही है। अतः यह उचित होगा कि इस सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए।”
बहरहाल, राजस्थान में दलितों के खिलाफ अत्याचार की बढ़ती घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि राजस्थान सरकार में सामंती ताकतों के मंसूबे कितने बढ़े हैं। इस संबंध में बसपा प्रमुख मायावती ने स्पष्ट कहा है कि यह केवल इस कारण से हो रहा है क्योंकि एक तरफ तो राजस्थान की गहलोत सरकार दलितों की रक्षा करने में नाकाम है और दूसरी तरफ वह कार्रवाई न कर सामंती ताकतों का मनोबल बढ़ा रही है।
कहते है हिम्मत और हौसला बुलंद हो तो हर मुकाम हासिल किया जा सकता है। कुछ ऐसी ही कहानी है बहुजन नौजवान सतेंद्र सिंह की। मध्य प्रदेश के ग्वालियर के सतेंद्र सिंह लोहिया ने 21वीं राष्ट्रीय पैरा तैराकी चैंपियनशिप में 100 मीटर बैक स्ट्रोक प्रतिस्पर्धा में मध्यप्रदेश के लिए रजत पदक हासिल किया। यह प्रतियोगिता बीते 24 मार्च से 27 मार्च तक आयोजित हुई, जिसमें देश के 25 राज्यों के लगभग 400 तैराकों ने भाग लिया।
रजत पदक जीत सतेंद्र सिंह लोहिया लाखों दिव्यांगो के प्रेरणास्रोत बन गए हैं। इनके संघर्ष की कहानी किसी को भी रोमांचित कर देने की क्षमता रखती है। करीब 34 वर्षीय सतेंद्र सिंह लोहिया का जन्म ग्वालियर वेसली नदी के किनारे एक गाता गाँव जिला भिंड में हुआ। बचपन में वे दोनों पैरों से बामुश्किल चल पाते थे। स्कूल ख़त्म होने के बाद घंटो तक वेसली नदी में तैरते रहते। गाँव वाले उनकी दिव्यांगता पर ताने मारते थे, लेकिन निराश होने के बजाय उन्होंने निश्चय किया कि वह दिव्यांगता को कभी अपने राह का रोड़ा नहीं बनने नहीं देंगे।
धुन के पक्के सतेंद्र ने ऐसा ही किया। सन् 2007 में डॉ. वी. के. डबास के संपर्क में आए तो उन्होंने सतेंद्र सिंह लोहिया को पैरा तैराकी के लिए प्रेरित किया। इसने सतेंद्र के जीवन को नई दिशा मिली। फिर वर्ष 2009 में कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय पैरालंपिक स्विमिंग चैंपियनशिप में पहली बार उन्होंने कांस्य पदक जीता। इस जीत ने उन्हें इतना अधिक प्रोत्साहित किया कि वह राष्ट्रीय पैरालम्पिक में एक के बाद एक 24 स्वर्ण पदक जीते। उन्होंने जून 2018 में अपनी पैरा रिले टीम के माध्यम से इंग्लिश चैनल को तैरकर पार किया।
इतना ही नहीं, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पैरालंपकि तैराकी चैंपियनशिप में एक स्वर्ण पदक के साथ तीन पदक हासिल किये। उनकी बेहतरीन उपलब्धि के लिए वर्ष 2014 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें विक्रम अवार्ड से नवाज़ा। इसके अलावा वर्ष 2019 में सतेंद्र को विश्व दिव्यांगता दिवस के अवसर पर को सर्वश्रेष्ठ दिव्यांग खिलाड़ी के पुरुस्कार से उपराष्ट्रपति ने सम्मानित किया। फिर आया साल 2020 जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सतेंद्र को तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार प्रदान किया।
बताते चलें कि यह पुरस्कार पहली बार किसी दिव्यांग पैरा तैराक खिलाडी को दिया गया। सतेंद्र सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सराहा है। वर्तमान में वे इंदौर में कमर्शियल टैक्स विभाग में कार्यरत हैं।
प्रसिद्ध दलित चिंतक व लेखक कंवल भारती ने भाजपा के एससी, एसटी और ओबीसी विधायकों, सांसदों और मंत्रियों से सवाल पूछा है। उनका सवाल है कि उनके रहते जब सरकारी नौकरियों में भागीदारी खत्म की जा रही है तो वे किस काम के हैं।
दरअसल, यह सवाल कंवल भारती ने अकारण नहीं पूछा है। जिस तरीके से केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर संविधा के आधार पर बहालियां की जा रही हैं तथा निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके कारण आरक्षित वर्गों का हित प्रभावित हो रहा है।
इसी के मद्देनजर कंवल भारती ने अपना आक्रोश व्यक्त किया है। अपने फेसबुक पर उन्होंने टिप्पणी की है कि “क्या भाजपा के एससी, एसटी और ओबीसी विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की अपने समुदाय के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या वे बस अपने ही उत्थान और भोग-विलास के लिए सत्ता में आए हैं? अगर उनके रहते नौकरियों में उनकी भागीदारी खत्म की जा रही है, उन पर अत्याचार किए जा रहे हैं, उनके विकास को रोका जा रहा है, तो मतलब साफ़ है, कि उन्हें उनके समाज की बर्बादी की क़ीमत पर सत्ता-सुख दिया गया है।”
कंवल भारती ने अपनी चिंता दलितों के खिलाफ बढ़ते अत्याचार की घटनाआं को लेकर भी व्यक्त की है। बीते 15 मार्च को राजस्थान के पाली जिले में जितेंद्र मेघवाल की हत्या का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है कि “मूंछें रखने पर किसी दलित की हत्या का क्या मतलब है? वही जो डा. आंबेडकर ने कहा था कि भारत के गाँव गणतांत्रिक नहीं हैं, वे दलितों के लिए घेटो हैं. घेटो यहूदियों को यातनाएं देने के लिए ईसाईयों ने बनाए थे. जिनमें लाखों यहूदियों को यातनाएं देकर इसलिए मार दिया गया था, क्योंकि वे ईसाईयों के साथ मिश्रित होकर रहना नहीं चाहते थे. लेकिन भारत में सवर्णों ने लाखों दलितों को इसलिए मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि वे सवर्णों के साथ समान स्तर पर मिश्रित होकर रहना चाहते हैं. इसका क्या अर्थ है? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि दलित हिंदू नहीं हैं? राष्ट्रवादी हरामखोरों क्यों कहते हो कि हम राष्ट्रवादी बनें? क्या यही तुम्हारा राष्ट्रवाद है? क्या ऐसा ही होगा हिंदू राष्ट्र?”
हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में सेना में भर्ती का मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया। अब एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख बहन मायावती ने केंद्र सरकार से इस दिशा में जल्द ही ठोस कदम उठाने की मांग की है।
बताते चलें कि वर्ष 2020 से सेना में नये रंगरूटों की भर्ती पर सरकार ने रोक लगा रखी है। इसके कारण यूपी और बिहार जैसे प्रदेशों के हजारों नौजवानों का भविष्य दांव पर लगा है। उनकी समस्या यह है कि उम्र संबंधी शर्तों के कारण वे बिना परीक्षा दिए ही अयोग्य होते जा रहे हैं।
ट्वीटर पर जारी अपने संदेश में बसपा प्रमुख ने सोमवार को यह मामला उठाया। अपने संदेश में उन्होंने कहा कि “कोरोना के कारण सेना में भर्ती रैलियों के आयोजन पर पिछले दो साल से लगी हुई रोक अभी आगे लगातार जारी रहेगी। संसद में दी गई यह जानकारी निश्चय ही देश के नौजवानों, बेरोजगार परिवारों व खासकर सेना में भर्ती का जज़्बा रखने वाले परिश्रमी युवाओं के लिए अच्छी ख़बर नहीं है।”
दरअसल, यह बात केंद्रीय रक्षा मंत्रालय के द्वारा संसद में दिये गए एक जवाब के बाद साफ हो गई है कि अभी भी केंद्र सरकार की मंशा सेना रूकी पड़ी भर्तियों को शुरू करने की नहीं है। इसके आलोक में बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि “मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक इसको लेकर सैन्य अफसर भी चिन्तित हैं, क्योंकि उनके अनुसार इस आर्मी रिक्रूटमेन्ट रैलियों पर अनवरत पाबन्दी का बुरा प्रभाव सेना की तैयारियों पर नीचे तक पड़ेगा। अब जबकि कोरोना के हालात नार्मल हैं, केन्द्र सरकार दोनों पहलुओं पर यथासमय पुनर्विचार करे।”
बहरहाल, अभी भी यह मामला साफ नहीं किया जा रहा है कि भारत सरकार सेना में जवानों की भर्ती क्यों नहीं करना चाह रही है। जबकि देश के लगभग सभी सरकारी विभागों में कामकाज सामान्य तरीके से चल रहा है। यहां तक कि शादी-विवाह जैसे आयोजनों में भी संख्या संबंधी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं।
सिनेमा जगत में भी दलित-बहुजन से जुड़े विषयों को प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है। रजनीकांत की फिल्म ‘काला’ और सुपरहिट रही फिल्म ‘जय भीम’ के बाद एक और फिल्म ने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। आदिवासी नायकों को जबरदस्त तरीके से प्रदर्शित करनेवाली इस फिल्म का नाम है ‘आरआरआर’ और इसके निर्देशक हैं एस एस राजमौली।
इस फिल्म ने कश्मीरी ब्राह्मणों के प्रोपगेंडा पर आधारित विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को भी पीछे छोड़ दिया है। इसकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि ‘आरआरआर’ ने दो दिनों में ही साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए का कारोबार किया है। यह 2डी, 3डी; दोनों रूपों में उपलब्ध है।
फिल्म के बारे में युवा सामाजिक कार्यकर्ता राजन कुमार लिखते हैं कि “इस फिल्म में जल जंगल जमीन और मावा नाटे मावा राज (हमारी जमीन पर हमारी सरकार) का नारा देने वाले और आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों तथा हैदराबाद निजाम के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने वाले क्रांतिकारी आदिवासी योद्धा कुमराम भीम और मनयम में आदिवासियों को एकजुट कर बगावत का बिगुल फूंकने वाले मनयम के नायक अल्लूरी सीताराम राजू के दोस्ती की कहानी गढ़कर अंग्रेजी शासन से जबरदस्त संग्राम को दिखाया गया है।”
राजन के मुताबिक, “हालांकि वास्तविक रूप से दोनों दोस्त नहीं थे, लेकिन दोनों समकालीन थे, और दोनों ने आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों और हैदराबाद निजाम के विरुद्ध संग्राम किया। फिल्म की कहानी वास्तविक कहानी से पूर्णतः अलग है, लेकिन आदिवासियों के बीच जिस तरह कुमराम भीम और अल्लूरी सीताराम राजू समझे और पूजे जाते हैं, उसको ध्यान में रखकर ईश्वरीय रूप देने के लिहाज से फिल्म बनाने की कोशिश की गई है।
इस फिल्म में जबरदस्त एक्शन है, यह दर्शकों को बांधे रखती है, फिल्म की कहानी भी जबरदस्त है, हालांकि अंत में अल्लूरी सीताराम राजू को राम के रूप में लड़ते हुए दिखाया गया है, जो थोड़ा अजीब सा लगता है। एक तरह से आदिवासियों को राम से जोड़ने का प्रयास भी किया गया है।
यह फिल्म भारत में अंग्रेजी हुकूमत के सर्वोच्च अधिकारी द्वारा एक गोंड आदिवासी छोटी बच्ची को जबरन उठा लेने, उसे कैदी की तरह रखकर अपनी सेवा करवाने उसके उत्पीड़न से शुरू होती है, जो फिल्म के नायक कुमराम भीम से परिचय कराती है, जो उस छोटी बच्ची को वापस लाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत से टकराता है। एक दूसरी कहानी अल्लूरी सीताराम राजू के गांव से जुड़ी है, जहां उसका पूरा परिवार मारा जाता है, और बदले की आग में जलता हुआ वह अपने गांव के लोगों के लिए अधिक से अधिक हथियार जुटाने की फिराक में अंग्रेजी सेना के सर्वोच्च रैंक तक पहुंचता है।
फिर कुमराम भीम और अल्लूरी सीताराम राजू के बीच दोस्ती और संघर्ष भी होता है, और अंत में दोनों के बीच फिर से दोस्ती और अपने लोगों के लिए मिलकर संघर्ष। जिसके बाद अंग्रेजी सत्ता को जबरदस्त मात मिलती है।
निस्संदेह यह ऐसी पहली फिल्म है जो किसी आदिवासी महानायक को इतने गौरवपूर्ण ढंग से पर्दे पर दिखाया है।”
‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ नरेन्द्र वाल्मीकि की प्रथम काव्य-संग्रह है। जिसका प्रकाशन अभी हाल ही में 2021 में हुआ है। इस काव्य-संग्रह को इन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को समर्पित किया है। यह कविता संग्रह दलितों के जीवन की पीड़ाओं एवं वेदना को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इस कविता-संग्रह में जहाँ एक तरफ इन्होंने दलितों के साथ सदियों से किये गये अत्याचार एवं शोषण का वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सदियों से स्थापित कुव्यवस्था एवं परम्परा के विरूद्ध आक्रोश का स्वर भी विद्यमान है। तथाकथित सवर्ण समाज मात्र अस्पृश्यता को ना अपनाकर वे दावा करते हों कि वे वर्णव्यवस्था का समर्थन नहीं करते हैं। किन्तु यह एक भ्रामक तथ्य है, जिसमें ना केवल वे उलझे हैं , बल्कि दलित भी उसी भ्रमपूर्ण विश्वास में उलझे हुए हैं। दलित और सवर्ण का एक साथ उठना-बैठना, खाना-पीना अस्पृश्यता के अंत की ओर एक अच्छी पहल हो सकती है। लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि जातिगत भेद-भाव की समाप्ति हो चुकी है। वर्तमान समय में वैचारिक असमानता का अंत करने की आवश्यकता है , जिसका अंत शिक्षित समाज भी अभी तक नहीं कर पाया है। कवि ने इस विषय को भी केन्द्र में रखकर लिखा है। इन्होंने दलितों की सदियों से पोषित मानसिकता के विरूद्ध भी लिखा है। एक तरफ भारत देश ने जहाँ आधुनिक एवं वैज्ञानिक प्रगति चरम पर है किन्तु आज भी देश के विशेष वर्ग के लोगों का सीवरों में प्रवेश करना, देश के वैज्ञानिक प्रगति पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। इस काव्य-संग्रह में नरेन्द्र वाल्मीकि ने इन विषयों पर अपने विचार प्रदान किये हैं। “ जहाँ ना पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि” – एक कवि के संदर्भ में यह कथन से हम सभी परिचित हैं। कवि के संदर्भ में यह बातें यूं ही नहीं कही गई। वाकय में एक कवि की नजर वहाँ तक पहुँचती है , जिसका अनुभव अन्य व्यक्ति को होना असम्भव है। अपनी कविता ‘खोखली बातें’ में कवि ने इस कथन को चरितार्थ किया है। इस कविता में भारत देश की यथार्थता की उस छवि को प्रकट किया है , जिससे भारत के आधुनिकता एवं विकास पर एक प्रश्नचिन्ह लग जाता है। “आधुनिकता केवैज्ञानिकता के नाम पर मंगलपर जाने वालों। अभी भी देश के नागरिक अपने उदर के ‘मंगल’ के लिए उतरते हैं गंदे नालों में”उपर्युक्त पंक्ति पढ़ने के बाद हम यह सोचने के लिये विवश हो जाते हैं कि जहाँ भारत ने मंगल तक पहुँचने में सफल हो चुका है। किन्तु हमने यह कैसी वैज्ञानिक प्रगति हासिल की है कि इस आधुनिक युग में भी हमने उन आधुनिक उपकरणों का विकास नहीं किया कि सफाईकर्मी सफाई के लिए सीवर में उतरने से बच जायें। अपने पेट के भूख की विवशता के कारण वे उन गंदे नालों में उतरने से मना भी नहीं कर सकते हैं और उनकी यही विवशता का लाभ उठाया जाता रहा है। सफाईकर्मियों की इस वाध्यता ने भारत के आधुनिकता और वैज्ञानिकता पर सवालिया निशान लगाने का कार्य किया है। कवि के हृदय की आशा और विश्वास ने भावी समाज के विकास में हमेशा से महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ‘अब और नहीं’ कविता में कवि ने अपने इसी आशा और विश्वास का संचार किया है। जहाँ कवि ने यह आशा अभिव्यक्त की है कि अगर हमने सामाजिक बुराईयों का प्रतिरोध किया तो आने वाली पीढ़ी को हम ऐसा संसार दे सकते हैं , जिसमें जाति और धर्म के नाम पर उनके साथ असमानपूर्ण भेदभाव नहीं किया जाएगा। समाज के भविष्य के प्रति आशान्वित कवि को इस बात का भान है कि समाज में वह जिस समानतापूर्ण समाज का स्वपन उसने देखा है। वह परिवर्तन लाना इतना आसान नहीं है , इसके लिए शोषित समाज को विरोधी स्वर अपना पड़ेगा। वे अमानवीय काम जा आज तक वे करते आये हैं, जिन बंधनों में वे बंधे हैं। उन्हें तोड़ने की आवश्यकता है। अत: कवि ने लिखा है – “तोड़ डालो सारे बंधन जो- बनते हैं बाधक तुम्हारी तरक्की के मार्ग में।” ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ कविता में कवि ने शोषक वर्ग को इस बात से आगाह किया है कि जहाँ हमारी हाथों में इतनी ताकत है कि हम धरती का सीना चीरकर पूरे भारत का पेट पालने का सामर्थ्य रखते हैं। तो इस बात के प्रति किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता है कि अपने अधिकारों के लिए हमारे ये हाथ उस व्यवस्था को भी उखाड़ देंगी, जिसने तुम्हें स्थापित किया है। व्यक्ति ही नहीं, किसी भी देश, समाज, समुदाय के शिक्षा ही वह कड़ी है जो ना केवल अज्ञानता के अंधकार का अंत करती है बल्कि शोषण, अत्याचार से भी मुक्ति प्रदान करने का कार्य करती है। यही कारण है कि बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने शिक्षा को शेरनी का दूध कहा था। ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ कवि ने शिक्षा की इस ताकत की यथार्थता को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि चूंकि अब उनके हाथों में कलम की ताकत है। जिससे वे उन सड़ी-गली व्यवस्थाओं के बारे में लिखेंगे, जिनसे समाज के दो-मुंहे सच को उजागर किया जा सके। वर्णवाद राष्ट्रवाद के नाम पर उनके साथ जो अत्याचार किये गये हैं , उनकी कलम उन असहाय और विवश लोगों के दर्द और पीड़ाओं का बखान करेंगी। तत्कालीन समय में किसान की समस्या से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है। कवि का हृदय भी अन्नदाताओं की पुकार को अनसूना करने से दुखी है। ‘हल ही हल है’ कविता में कवि ने लिखा है कि जीवन के लिए जितना उपयोगी जल है , हल भी हमारे लिए उतना ही उपयोगी है।यही कारण है कि ‘हल’ और ‘जल’ को एक-दूसरे के समानार्थी करते हुए कवि ने लिखा है – “हल के बिना जल किसी काम का नहीं है। ये शाश्वत सत्य अटल है….हल ही हल है।”किसी भी समाज का विकास शिक्षा के अभाव में असम्भव है। शिक्षा ना केवल अज्ञानता बल्कि संकीर्ण विचारधारा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों से भी हमें मुक्त करने का कार्य करती है। किन्तु भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था इस तरह हावी है कि शिक्षा के सबसे ऊँचे पायदान पर विराजमान शिक्षक भी जातिगत विचारधारा से अछूता नहीं है। ‘योग्यता पर भारी जाति’ कविता में कवि ने हमारे समाज के इसी कटुपूर्ण यथार्थता को अभिव्यक्त किया है कि व्यक्ति की योग्यता का मूल्यांकन उसके ज्ञान से नहीं बल्कि उसकी जाति से किया जाता है। एक दलित आज भी इस भेद-भाव के शिकार हो रहे हैं। किन्तु एक विचारपूर्ण तथ्य है कि आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग में समाज में ऊँच-नीच के भेद-भाव के अस्तित्व अगर आज भी अपना स्थान बनाये हुए हैं , तो इसके लिए केवल तथाकथित सवर्ण समाज उत्तरदायी नहीं है। कोई भी व्यक्ति तभी श्रेष्ठ है जब अन्य व्यक्ति ने स्वंय को उससे कमतर समझा हो। दलित समाज शिक्षा प्राप्त करने में सफल तो हो रही है। किन्तु यह दुखद है कि भारतीय संस्कृति के संवाहकों ने दलित समाज में जिस हीनताबोध का रोपने का कार्य किया है , उस हीनताबोध से दलितों ने अभी तक स्वंय को मुक्त नहीं किया है। अत: समाज में ऊँच-नीच के भेद-भाव के अस्तित्व को कायम रखने में दलित समाज भी उतना ही उत्तरदायी है कि जितना कि सवर्ण समाज। ‘उनका श्रेष्ठत्व’ कविता में कवि ने इस तथ्य को ही अभिव्यक्त किया है।हिन्दी साहित्य में जब से आधुनिक दलित साहित्य का उद्भव हुआ है, दलित साहित्य को नकारने का उपक्रम भी साथ-साथ ही चल रहा है। जिसके लिए दलित साहित्य पर कई तरह के आरोप लगाये जाते रहे हैं। जिनमें एक आरोप दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र पर भी लगाया गया। ‘कैसी कविता लिखेगा’ में कवि ने इसी संदर्भ में अपने विचार को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि एक विशेष जाति में मात्र जन्म लेने के कारण जिस व्यक्ति के सभी अधिकार छीन लिये गये हों, वह कदम-कदम पर अपमानित हुआ हो , तो उसके हाथ में कलम आने पर स्वभाविक है कि वह अपने भोगे हुए यथार्थ, अपमान एवं शोषण की गाथा ही लिखेगा।इस प्रकार देखें तो कवि नरेन्द्र वाल्मीकि ने अपने प्रथम काव्य संग्रह में शोषित वर्ग की सभी समस्याओं एवं पीड़ाओं का वर्णन किया है। साथ ही एक कवि के कर्तव्य का सफल निर्वहन करते हुए इन्होंने शोषित समाज में अत्याचार एवं शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए भी प्रेरित किया है। सच्चा मार्गदर्शक वही होते हैं जो अमुख को उसकी कमी से भी अवगत कराये। कवि ने यह कार्य भी सफलतापूर्वक किया है। आरम्भ से ही कवियों ने अपने सकारात्मक संदेशों के माध्यम समाज में सकारात्मक परिवर्तन लानेका महत्वपूर्ण कार्य किया है।‘अंबेडकर’ कविता में इन्होंने अंबेडकर को एक परिधि में ना बाँधने का संदेश दिया है। वे लिखते हैं- “अंबेडकर को एक परिधि में मत बांधोउड़ने दो उसे समस्त मानव जन के लिए।” किन्तु कवि को अपने विचारों के आयाम को और भी विस्तार लाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार इन्होंने तत्कालीन घटनाओं पर अपनी पैनी नजर रखते हुए इन्होंने हाथरस, शालीन बाग, किसान-आंदोलन , एक दलित शोध छात्र की समस्याओं को अपनी कविता का विषय बनाया है। उसी प्रकार जब इन्होंने दलित स्त्री के साथ किये गये अत्याचारों का वर्णन किया है। तब वे अपने विचारों में परिवर्तन लाये। समाज के अत्याचारों एवं शोषण से पीड़ित दलित स्त्री की छवि आंकने के बजाय आवश्यक है कि दलित स्त्री के हाथों में आंदोलन की मशाल को थमाया जाय , उनके हाथों में हथियारस्वरुप संविधान हो। अब दलित कवियों के लिए यह आवश्यक है कि दलित स्त्रियों के समस्याओं को वर्तमान समय के संदर्भ में देखें। दलित रचनाकार दलित स्त्रियों के संदर्भ में कहा करते हैं कि दलित स्त्रियों का दोहरा शोषण किया जाता है। किन्तु तात्कालिक समय में देखें तो दलित स्त्रियों के शोषण का दायरा अब बढ़ चुका है। अत: कवि को शोषण के उस बढ़े हुए दायरे पर भी अपने विचार अभिप्रकट करने की आवश्यकता है। दलित स्त्रियाँ शिक्षित हैं , उनका पदार्पण अब कार्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि बड़े-बड़े स्थानों में हो चुका है। दलित मध्यवर्गीय समाज, जिन्होंने तथाकथित सवर्ण समाज का अनुसरण करना प्रारम्भ कर दिया है। जिसके कारण अब दलित समाज में भी दहेज एवं अन्य आडम्बरों ने अपनी जड़ों को जमाना प्रारम्भ कर दिया है। अब दलित कवियों को इन नये विषयों पर लिखने की आवश्यकता है। इसी प्रकार कवि ने दलितों को समाज, शिक्षा आदि क्षेत्रों में वाली समस्याओं एवं शोषण का वर्णन तो किया है। परन्तु यह काव्य-संग्रह दलितों के एक विशेष जाति के शोषण की व्यथा पर केंद्रित है। कवि को अन्य दलित जाति की समस्याओं पर भी अपने विचार प्रदान करने की आवश्यकता है। शब्दों के चयन की बात करें तो कुछ स्थानों पर कवि को सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ‘छोड़ने’ के स्थान पर कवि ने अगर ‘तजने’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया होता तो वाक्य प्रभावकारी होते। हालांकि कुछ स्थानों पर अपने गम्भीर विचारों को अभिप्रकट करने के लिए प्रभावकारी शब्दों का चयन किया है। ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ कविता की उक्त पंक्तियाँ – “ ये खुरदुरे हाथ जो चीर सकते हैं धरती का सोना तुम्हारे लिए अब उखाड़ देंगे तुम्हारी ये व्यवस्था अपने हक अधिकारों के लिए।” उपर्युक्त पंक्ति में ‘खुरदुरे हाथ’ शोषित श्रमिक वर्ग की क्षमता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस कविता-संग्रह का शीर्षक ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ के अनुरुप कविताओं का चयन भी कवि ने किया है। जिन संदर्भों में विचारों के आयाम को बढ़ाने की आवश्यकता है। उन कविताओं में भी कवि ने अपने प्रतिरोध के स्वर को नहीं दबाया है , बस कुछ कविताओं में आक्रोश का अभाव है।निष्कर्षत: इस कविता संग्रह में कवि समाज की विसंगतियाँ , अंधविश्वास आदि का वर्णन करने के साथ शोषण का विरोध ,जहाँ इन्होंने एक ओर दलितों को परम्परागत कार्य करने से मना किया है , दलित समाज की वेदना एवं पीड़ा का बखान है। वहीं दूसरी ओर दलित समाज की कमियों को भी उजागर करने का कार्य किया है। केवल समाज ही नहीं राजनीति पर भी इन्होंने अपनी कलम चलायी। एक सशक्त कवि की भूमिका का निर्वहन करते हुए तात्कालीन समस्याओं पर भी दृष्टिपात किया है। किसी भी दलित रचना की सार्थकता तभी प्रमाणित होती है जब उनमें दलित चेतना हो। काव्य-संग्रह में विद्यमान कवि का आक्रोशित स्वर उनकी दलित चेतना की पुष्टि करती है। (लेखिका पीएचडी शोधार्थी व युवा साहित्य समालोचक हैं)
यह एक ऐतिहासिक तस्वीर है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चरणों में पड़े हैं। जबकि भारतीय लोकतंत्र समतामूलक मूल्यों पर आधारित है। कम से कम संविधान में तो उसे ऐसा ही बनाया गया है ताकि किसी को इस कदर झूकना नहीं पड़े।
दरअसल, भारतीय राजनीति में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। दलित, पिछड़े और तमाम वंचित समुदायों को कमोबेश हिस्सेदारी दी जा रही है। हालांकि पहले भी ऐसा ही होता था जब कांग्रेस का जमाना था। बिहार को ही उदाहरण लें तो हम पाते हैं कि कैसे कांग्रेस ने बिहार में पिछड़े, दलित और मुसलमानों को मुख्यमंत्री तक बनाया था। यह हम बेशक कह सकते हैं कि कांग्रेस ने सबसे अधिक प्रधानता सवर्णों को दी। लेकिन तमाम जातिगत दृष्टिकोणों के बावजूद कांग्रेस की नीति लोकतंत्र को मजबूत करने की रही। इमेजिन करिए कि यदि कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया होता तो क्या होता? क्या कोई अब्दुल गफूर बिहार जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री बनता? क्या भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बन पाते?
लेकिन देश में हाल के वर्षों में एक अलग तरह की सियासत चल रही है। इस सियासत की मंशा लोकतंत्र को पहले कमजोर और फिर इसे खत्म कर देने की है। मैं कोई भविष्यवक्ता नहीं हूं, परंतु यह मैं महसूस कर रहा हूं कि अगले पचास साल के बाद भारत में लोकतंत्र का या तो अस्तित्व ही नहीं रहेगा या फिर रहेगा भी तो केवल औपचारिक तौर पर।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि लोकतंत्र को महत्वहीन बनाने के सारे तिकड़म आरएसएस के द्वारा किये जा रहे हैं। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आरएसएस की मंशा क्या है। वह संविधान के बजाय मनु के विधान के हिसाब से देश चलाना है और सवर्णों को इस देश का शासक अनंत तक बनाए रखना है।
दरअसल, मैं चिंतित इस बात से हूं कि वे लोग, जो चुनाव में पराजित हो जाते हैं, उन्हें भी सत्ता में शामिल किया जा रहा है। अब कल की ही बात देखिए कि केशव प्रसाद मौर्य, जो सिराथु विधानसभा क्षेत्र से पराजित हो गए, उन्हें आरएसएस ने उपमुख्यमंत्री बना दिया। सामान्य तौर पर तो यह ऐसा लगता है जैसे वह केशव प्रसाद मौर्य को कैबिनेट में स्थान देकर मौर्य समुदाय को साधने की कोशिश कर रहा है। वहीं एक और उदाहरण देखिए। उत्तराखंड में पुष्कर सिंह घामी को आरएसएस ने मुख्यमंत्री बना दिया, जबकि वे अपना चुनाव हार गए थे।
दरअसल, यह समझने की आवश्यकता है कि आरएसएस के तिकड़म का विस्तार कितना है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जो कि अपना चुनाव पहले हार गयी थीं, उन्होंने स्वयं को मुख्यमंत्री बना दिया। जबकि नैतिकता यह होनी चाहिए थी कि जबतक वह चुनाव न जीत जातीं, तबतक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपने ही दल के किसी और सदस्य को बैठने देतीं। यदि वह ऐसा कर पातीं तो निस्संदेह लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास और बढ़ता।
तो मामला यही है कि जनादेश का अपमान किया जा रहा है। जनता को यह बताया जा रहा है कि तुम्हारे वोटों का कोई मतलब नहीं है। तुम जिसे पराजित करोगे, हम उसे सत्ता में लाएंगे। जाहिर तौर पर जब ऐसा बार-बार होगा तो इसका परिणाम यही होगा कि जनता भी एक दिन यही मान लेगी कि वोटों का कोई मतलब नहीं है। वैसे भी हमारे देश में कम मतदान एक बड़ी समस्या है। लेकिन राजनीतिक दलों के लिए इस समस्या का कोई महत्व नहीं है।
मैं तो बिहार में 2005 से देख रहा हूं। नीतीश कुमार ने आखिरी बार चुनाव वर्ष 2004 में लड़ा था। तब वे बाढ़ संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार थे। बाढ़ की जनता ने उनके खिलाफ जनादेश दिया था। लेकिन 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने। यह बहुत ही दिलचस्प है कि जनादेश को ठेंगा दिखाने के लिए उन्होंने कैसी धूर्तता की। नीतीश कुमार ने स्वयं को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया। तबसे लेकर आजतक वह यही कर रहे हैं। वे चुनाव नहीं लड़ते हैं।
वर्ष 2020 में तो आरएसएस ने जनादेश का जबरदस्त अपमान तब किया जब बिहार की जनता ने नीतीश कुमार के खिलाफ जनादेश दिया और उनके दल के विजेताओं की संख्या 43 रह गयी। निस्संदेह बिहार की जनता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार को नहीं देखना चाहती थी। लेकिन आरएसएस ने लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार का गठन किया। अब इसका परिणाम क्या हुआ है, यह कल योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में नीतीश कुमार का नरेंद्र मोदी की चरणों में गिर जाने की घटना ने बता दिया है। यह पतित होने की पराकाष्ठा है।
दरअसल, सियासत में ईमानदारी का दौर खत्म किया जा चुका है। कर्पूरी ठाकुर एक उदाहरण हैं। वे बिहार में विधान परिषद को सत्ता का पिछला दरवाजा मानते थे। राज्यसभा भी एक तरह से संसद का पिछला दरवाजा ही है। कर्पूरी ठाकुर विधान परिषद को खत्म कर देना चाहते थे। वे मानते थे कि यदि किसी को सत्ता में आना है तो चुनाव लड़े। चुनाव लड़ने का मतलब जनता का आदेश हासिल करे।
खैर, अब कहां कोई कर्पूरी ठाकुर मुमकिन है। आरएसएस ने भारतीय लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने का काम प्रारंभ कर दिया है। याद रखिए नैतिकता रहेगी तभी लोकतंत्र का महत्व बना रहेगा।
दलित साहित्य वर्तमान में द्विज साहित्य के समानांतर खड़ा हो गया है। जाहिर तौर पर इसके पीछे दलित साहित्यकारों की एक लंबी सूची है, जिनके सृजन से ऐसा संभव हो पाया है। इन साहित्यकारों में प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन का नाम भी अग्रणी साहित्यकारों में शुमार है। यह उनकी उपलब्धियों का ही परिणाम है कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें सीनियर प्रोफेसर के रूप में पदोन्नत किया है।
प्रो. बेचैन के साथ अन्य चार प्रोफेसरों को भी पदोन्नति दी गई है। इनमें प्रो. मोहन, प्रो. पी.सी. टंडन, प्रो. कुमुद शर्मा और प्रो. सुधा सिंह शामिल हैं।
यदि बात प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन की करें तो हम पाते हैं कि हिंदी दलित साहित्य जगत में उनकी रचनाएं मील के पत्थर के समान हैं। उनकी कहानियों के केंद्र में शोषण, गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद और भेदभाव के शिकार दलितों का संघर्ष रहा है। वे नब्बे के दशक से ही अपने लेखन से शोषणकारी शक्तियों की पहचान करते हैं, जिनकी वजह से दलित सामाजिक अधिकारों से वंचित और हाशिये पर चले गये है। जैसे कि उनकी ‘भरोसे की बहन’ (2010) और ‘मेरी प्रिय कहानियां’ (2019), नामक दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन दोनों संग्रह की कहानियों में दलित अधिकारों और हकों के संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
दरअसल, प्रो. बेचैन ने जब लेखन शुरू किया था तब पूरा समाज बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा था। वह दौर था 1990 का। मंडल कमीशन के लागू होने के बाद आरक्षण को लेकर समाज में उथलपुथल मचा था। दलित साहित्य भी तब अंगड़ाइयां लेने लगा था। उसी दौर में प्रो. बेचैन ने पत्रकारिता के अलावा साहित्य सृजन करना प्रारंभ किया। मीडिया में वंचितों की हिस्सेदारी को लेकर उनके द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण आज भी लोग शिद्दत से याद करते हैं। अपनी रपट में उन्होंने मीडिया के दोहरे चरित्र व उसकी वजहों के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
प्रो. बेचैन साहसी साहित्यकार रहे हैं। उनकी एक कहानी ‘शोध प्रबंध’ (हंस, जुलाई 2000) तब खासा चर्चित रही थी। यह उच्च शिक्षा में हो रहे दलित शोषण की बड़ी सघनता से पड़ताल करने वाले कहानी है। इस कहानी में जहां एक तरफ उच्च शिक्षा में शोधरत दलित छात्राओं के शोषण को सामने रखा गया है, वहीं दूसरी ओर सवर्ण प्रोफेसर के नैतिक पतन और निर्लजता की इबारत भी लिखी गई है।
बहरहाल, प्रो. बेचैन को सीनियर प्रोफेसर के रूप में पदोन्नति वास्तव में दलित साहित्य के महत्व को रेखांकित करता है। यह दलित साहित्य के हर अध्येता के लिए गर्व की बात है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर सुर्खियों में हैं। वजह बहुत खास है। कुछ ऐसा जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। लेकिन सियासत के खेल निराले होते हैं। वही नीतीश कुमार जिन्होंने वर्ष 2013 में नरेद्र मोदी को अपने घर पर दावत देने का आमंत्रण वापस ले लिया था, शुक्रवार को योगी आदित्यनाथ की दूसरी ताजपोशी के दौरान नरेंद्र मोदी के चरणों में कुछ ज्यादा ही झुक गए।
सामान्य तौर पर यह लोकाचार है कि जब दो नेता मिलते हैं तो एक-दूसरे का सम्मान करते ही हैं। लेकिन नीतीश कुमार, जिन्हें उनकी पार्टी के नेतागण पीएम उम्मीदवार बताने की कोशिशें करते रहते हैं, लखनऊ के इकाना इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में हजारों की भीड़ के सामने जब नरेंद्र मोदी से मिले तो उन्होंने अपनी ही राजनीतिक मर्यादा को तोड़ दिया।
बताते चलें कि नीतीश कुमार की पहचान एक ऐसे नेता के रूप में रही है, जो राजनीतिक संबंधों को महत्व तो देते ही हैं, अपने स्वाभिमान की रक्षा भी करते हैं। जैसे कि वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जब नीतीश भाजपा से अलग हो गए थे और लालू प्रसाद की शरण में चले गए थे, तब राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में उन्होंने नरेंद्र मोदी की अवहेलना की थी। तब हुआ यह था कि न तो नरेंद्र मोदी ने और ना ही नीतीश कुमार ने एक-दूसरे का सम्मान किया था।
खैर, मौजूदा दौर भाजपा के सितारे आसमान पर हैं। मुकेश सहनी की पार्टी के तीनों विधायकों के भाजपा में चले जाने के बाद बिहार में भाजपा वैसे भी 77 विधायकों के साथ नंबर वन पार्टी बन गयी है। ऐसे में भाजपा की कृपा से नीतीश कुमार का बिहार में मुख्यमंत्री बने रहना भी एक मजबूरी हो सकती है कि योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के दौरान उन्होंने खुद को सबसे अधिक वफादार साबित करने की कोशिश की।