सवाल यह है कि बसपा क्यों हार गई? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि बसपा इतनी बुरी तरह से क्यों हार गई? नतीजे बता रहे हैं कि बसपा पार्टियों में सबसे नीचे खड़ी है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी, अनुप्रिया पटेल की पार्टी, कांग्रेस पार्टी, जयंत चौधरी की लोकदल पार्टी और यहां तक की निषाद पार्टी तक बहुजन समाज पार्टी से आगे हैं। बसपा सिर्फ एक सीट जीत सकी है। और जो लोग बलिया की राजनीति को जानते हैं, उन्हें पता है कि जिस रसड़ा सीट से बसपा के टिकट पर उमाशंकर सिंह जीते हैं, वह उनकी अपनी निजी लोकप्रियता की जीत है, बहुजन समाज पार्टी की नहीं। यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुंचने का रिकार्ड बना चुकी बसपा 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी कमोबेश उसी स्थिति में खड़ी है।
लेकिन बसपा की हार की वजह क्या है? क्या सिर्फ बहनजी?
जी नहीं। बसपा की हार की वजह इस पार्टी के नेता हैं, जो इतने रीढ़विहीन हैं कि पार्टी से निकाले जाने के डर से अपनी आवाज तक को गिरवी रख चुके हैं। बसपा की हार की वजह उसके समर्थक भी हैं, जो पार्टी की कमियों पर बात नहीं करना चाहते, जो अपनी नेता की कमियों पर बात नहीं करना चाहते। यही नहीं, कमियों को सुनना भी नहीं चाहते। बल्कि जो लोग उन कमियों को सामने लाते हैं, उस पर बात करते हैं, उनको गालियां तक देने को तैयार रहते हैं। छूटते ही उन्हें किसी दूसरे दल का एजेंट, दलाल या बिका हुआ बता दिया जाता है। दूसरे मीडिया हाउस को मनुवादी और गोदी मीडिया बताने वाले यही लोग अपने समाज के लेखकों और पत्रकारों से जमीनी हकीकत सुनने की बजाय सिर्फ बसपा की जय-जयकार सुनने की उम्मीद करते हैं।
और शायद बसपा का शीर्ष नेतृत्व भी यही चाहता है। वह नहीं चाहता कि उससे सवाल पूछे जाएं। वह सवाल पूछने और उठाने वालों को बेइज्जत कर बाहर का रास्ता दिखा देता है। और उसके ज्यादातर समर्थक बिना सच्चाई जाने आवाज उठाने वालों की फजीहत करने पर उतारु हो जाते हैं। कुल मिलाकर बसपा का शीर्ष नेतृत्व पार्टी के साथ ही अपने समर्थकों का भी हुक्मरान बना बैठा है। बसपा के समर्थक शीर्ष नेतृत्व के आगे समर्पण की मुद्रा में दिख रहे हैं। और जब समर्थक समर्पण कर देता है तो नेतृत्व करने वाले को अपनी मनमर्जी करने का हक मिल जाता है। उसी मनमर्जी की वजह से बसपा इस हाल में पहुंच गई है।
उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे बसपा की राजनैतिक हार भर नहीं है। यह एक बड़े समाज का सपना टूट कर चकनाचूर हो जाने जैसा है। वह एक बड़े विजनरी मसीहा मान्यवर कांशीराम के संघर्ष के खत्म हो जाने जैसा है। वह दलितों के उस हुजूम के साथ धोखा है, जो हर हार के बाद भी रैलियों में इस उम्मीद के साथ उमड़ती है कि शायद इस बार कुछ बेहतर होगा। वह समाज के आखिरी छोड़ पर खड़े उस व्यक्ति के साथ बड़ा छल है, जिसने अपनी झोपड़ी पर इस उम्मीद में नीला झंडा टांग रखा है कि एक दिन हुकुमत के शीर्ष पर उसके समाज का नेता बैठेगा, जो उसे उसका हक दिलाएगा।
लेकिन ईमानदारी से देखें तो बसपा का चुनाव पिछले कुछ सालों से हार और जीत से इतर कहीं न कहीं समझौते और राजनीतिक दबाव का चुनाव दिखने लगा है। वह पार्टी की बजाय एक व्यक्ति का अपना अकेले का चुनाव दिखने लगा है। ऐसी नेत्री का चुनाव जिसने अपने जीवन में बहुत कुछ कुर्बान कर बहुजन समाज की नेत्री से बढ़कर देवी तक का दर्जा हासिल किया, जिसे बहुजन समाज ने सर माथे पर बैठाया, लेकिन जो अब हठी और आत्म केंद्रित हो गई हैं। इतनी आत्म केंद्रित कि बहुजन नायकों का सपना उनके अपने एजेंडे पर भारी हो चुका है।
अक्सर कहा जाता है कि बहुजन समाज पार्टी राजनीतिक दल के साथ साथ सामाजिक आंदोलन भी है। शायद इसीलिए यूपी में बसपा की इस हार का मातम देश ही नहीं दुनिया भर के अंबेडकरवादियों द्वारा मनाया जा रहा है। इसीलिए सोशल मीडिया से लेकर दलित बस्तियों में चौपाल तक से प्रतिक्रियाएं आ रही है। बसपा को बनाना किसी एक आदमी के बूते की बात नहीं थी। मान्यवर कांशीराम ने सपना जरूर देखा लेकिन उस सपने को साकार किया अधनंगे, आधे पेट खाकर नीला झंडा ढोने वाले दलित-पिछड़े समाज के लोगों ने। उस सपने को साकार बनाया चंद हजार रुपये कमाने वाले उन हजारों सरकारी कर्मचारियों ने; जो सालों तक अपने तनख्वाह के पैसे का एक हिस्सा निकाल कर इस आंदोलन के नाम पर मान्यवर कांशीराम के हाथ पर धड़ते रहें।
गरीब समाज के आंखों में सपना था कि बसपा के टिकट पर उसका आदमी विधायक और सांसद बनकर उसके हित की बात करेगा। उसका आदमी मुख्यमंत्री बनेगा, फिर प्रधानमंत्री बनेगा और ऐसी नीति बनाएगा जिससे उसका जीवन बदलेगा। बसपा ने वह सपना दिखाया भी और सत्ता में आने पर उसे पूरा भी किया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश से यह सपना शुरू हुआ था, उसी प्रदेश की जमीन पर यह सपना सिमटता दिख रहा है। चुनावी नतीजों के बाद जिस कदर दलित और अति पिछड़े समाज में बेचैनी थी, उसकी बातों से वह छटपटाहट साफ दिख रही थी। यहां तक की दलित-पिछड़े समाज के ऐसे नेता जो कभी बसपा में रहे थे, वह भी बसपा की इस हार से परेशान है। लेकिन दुख इस बात का है कि बसपा समर्थक और नेता आपस में तो बात कर रहे हैं, लेकिन कोई बदलाव के लिए आगे नहीं आ रहा। न पार्टी दफ्तर के बाहर कार्यकर्ताओं और समर्थकों का प्रदर्शन होता दिखा, न ही शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ किसी बड़े नेता ने आवाज उठाई और न ही पार्टी की कार्यप्रणाली के खिलाफ नेताओं के इस्तीफे का दौर चला।
कहीं न कहीं इसी बात का फायदा बहुजन समाज पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उठा रहा है। दिकक्त यह भी है कि जैसे ही आप सवाल उठाना शुरू करते हैं, लोग भड़क जाते हैं। मेरा सवाल है कि आखिर क्यों उस पार्टी की मुखिया के खिलाफ सवाल नहीं उठाना चाहिए, जिनकी निजी महत्वकांक्षा और बिना सिर पैर के फैसलों से एक बड़ा आंदोलन जमींदोज होता दिख रहा है। मैंने छोटी सी गलती पर या कहें कि गलतफहमी पर सालों तक पार्टी को जीवन देने वाले नेताओं को एक झटके में बसपा से बाहर होते देखा है। किसी दूसरी पार्टी का दामन थामते हुए अपनी गाड़ी से नीला झंडा उतारते हुए, उसे रोते हुए देखा है। ऐसा दर्जनों नेताओं के साथ हुआ है। यह ठीक नहीं है।
बहुजन समाज का हर एक व्यक्ति बहनजी के त्याग और समर्पण को स्वीकार करता है। उन्होंने मान्यवर कांशीरामजी के साथ मिलकर जो क्रांतिकारी काम किया, निश्चित तौर पर वह उतने कम वक्त में कोई दूसरा नहीं कर सकता था। सबने उसकी सराहना की, पूरा समाज इसीलिए उनको आज भी तमाम खामियों के बावजूद आदर देता है। लेकिन जब बहनजी अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का इकलौता राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना देती हैं, जो मंच से एक भाषण तक नहीं दे सकते, न ही उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि वह लोगों को खिंच सके, तो इस पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए। अपना घर बार छोड़कर सालों तक बसपा के मिशन को अपना खून पसीना देने वाले बड़े-बड़े अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर बहनजी जब एक कम अनुभवी भतीजे आकाश आनंद को पार्टी का इकलौता नेशनल को-आर्डिनेटर घोषित करती हैं, तो उस पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए? बात भाई-भतीजावाद की नहीं है। बात योग्यता की है। क्या आनंद कुमार के अलावा भारत के किसी भी राजनीतिक दल का कोई राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ऐसा है, जिसने सार्वजनिक मंच से एक भाषण तक न दिया हो?
क्या किसी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की हमेशा के लिए इसीलिए सराहना करती रहनी चाहिए कि उसने एक वक्त में बहुत महान काम कर दिया है। क्या इस वजह से उसे भविष्य में हर तरह के फैसले लेने की आजादी होनी चाहिए? आलोचना और सवाल उठाने पर भड़कने वाले लोग खुद से पूछें कि क्या बसपा में 10-20 ऐसे राष्ट्रीय नेता नहीं होने चाहिए, जिनको देखने और सुनने के लिए भीड़ उमड़े। क्या बसपा के भीतर 10 ऐसे प्रवक्ता नहीं होने चाहिए जो विषयों के विशेषज्ञ हों और देश-दुनिया के मुद्दों पर खुल कर अपनी पार्टी और अपने समाज की बात रख सकें? क्या बसपा के भीतर हर राज्य में ऐसे दर्जनों नेता नहीं होने चाहिए, जिसमें वहां के स्थानीय कार्यकर्ता और जनता भावी मुख्यमंत्री देखें? क्या हर राज्य की कमान वहां के स्थानीय लोगों के पास नहीं होनी चाहिए? क्या बसपा के भीतर दूसरे दलों की तरह यूथ विंग, महिला मोर्चा और किसान मोर्चा नहीं होने चाहिए? क्या बसपा को ऐसा मीडिया नहीं खड़ा चाहिए, जो उसके विचारों को प्रचारित-प्रसारित करे? अगर ऐसा होना चाहिए तो आखिर बसपा का शीर्ष नेतृत्व ऐसा क्यों नहीं कर रहा है? बस, इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ना है। इसी सवाल के जवाब में पूरी कहानी छुपी है। शीर्ष नेता जो कहेगा, वही सच है, शीर्ष नेतृत्व जो करेगा, वही ठीक है, इस धारणा से निकलना होगा। एक वक्त विशेष में किसी व्यक्ति ने बहुत महान काम किया है, लेकिन अगर बाद में वह रास्ते से भटक जाता है, तो उससे सवाल पूछा जाना चाहिए। उस पर सवाल उठाया जाना चाहिए। महानता की कसौटी यह है कि व्यक्ति आजीवन अपने सिद्धांतों से न डिगे। अंबेडकरवादी समाज को यह समझना होगा।
आखिर में जिस मार्च महीने में यूपी चुनाव के नतीजे आए हैं, वह महीना मान्यवर कांशीराम की जयंती का महीना होता है। बसपा का शीर्ष नेतृत्व पार्टी के संस्थापक मान्यर कांशीराम की जयंती पर उन्हें उपहार तो न दे सका, अच्छा हो कम से कम वह शपथ ले कि मान्यवर के देश का हुक्मरान बनने के सपने को वह मरने नहीं देगा।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
