उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने देश की राजनीति और राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के बीच हलचल मचा दी है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर कुल पांच राज्यों में हुए चुनाव में भाजपा चार राज्यों में जीत गई है और सरकार बना चुकी है। पंजाब में आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत मिला है। दलित राजनीति के परिपेक्ष्य में देखें तो यह चुनाव काफी निराशा भरा रहा। दलित समाज के वोटों पर दावा करने वाली बसपा यूपी, पंजाब और उत्तराखंड में औंधे मुंह गिरी है। बसपा की सबसे शर्मनाक हार उसके गढ़ उत्तर प्रदेश में हुई है, जहां सीटों से लेकर वोट प्रतिशत तक में उसका भारी नुकसान हुआ है। उत्तर प्रदेश में बसपा महज बलिया जिले की रसड़ा विधानसभा की सीट ही जीत सकी है। जो लोग उस क्षेत्र की राजनीति को जानते हैं, उन्हें पता है कि यह जीत बसपा की नहीं, बल्कि बसपा के टिकट पर जीते उमाशंकर सिंह की अपनी लोकप्रियता की जीत है। इस तरह देखा जाए तो बसपा अपनी स्थापना के बाद निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।
प्रदेशवार बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन का आंकलन करें तो उत्तर प्रदेश में बसपा को 12.88 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि बसपा को एक करोड़, 18 लाख, 73 हजार 137 वोटरों ने वोट किया है। 2017 में जब माना रहा था कि बसपा अपने सबसे बुरे दौर में है, तब भी उसे 19 सीटें और 22.24 प्रतिशत मिला था। ऐसे में बसपा की इस हार को शर्मनाक माना जा रहा है।
पार्टी | सीटें | फायदा/नुकसान | वोट प्रतिशत | वोट मिले |
भाजपा | 255 | 57 सीटें घटी | 41.29 | तीन करोड़ 80 लाख 51, हजार 721 वोट |
सपा | 111 | 64 सीटें बढ़ी | 32.06 | 2 करोड़ 95 लाख, 43 हजार, 934 वोट |
अपना दल | 12 | 3 सीटें बढ़ी | ||
रालोद | 08 | 7 सीटें बढ़ी | 02.85 | 26 लाख, 30 हजार, 168 वोट |
निषाद पार्टी | 06 | 5 सीटें बढ़ी | ||
सुभासपा | 06 | 2 सीटें बढ़ी | ||
कांग्रेस | 02 | 5 सीटें घटी | 02.33 | 21 लाख, 51 हजार, 234 वोट |
बसपा | 01 | 18 सीटें घटी | 12.88 | एक करोड़, 18 लाख, 73 हजार 137 वोट |
इस तरह देखा जाए तो उत्तर प्रदेश चुनाव में बहुजन समाज पार्टी भले वोट प्रतिशत में कुछ दलों से आगे हो, सीटों के मामले में सबसे आखिर में खड़ी दिखती है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी, अनुप्रिया पटेल की पार्टी, कांग्रेस पार्टी, जयंत चौधरी की लोकदल पार्टी और यहां तक की निषाद पार्टी तक बहुजन समाज पार्टी से आगे हैं।
पंजाब में बसपा को 1.77 प्रतिशत वोट मिला है। कुल मिले वोटों की संख्या की बात करें तो बसपा को यहां सिर्फ 2 लाख 75 हजार 232 वोटरों ने ही वोट दिया है। 117 सीटों में से बसपा ने 20 सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारा था। बसपा को यूपी की तरह ही सिर्फ एक सीट मिली। नवां शहर में बसपा प्रत्याशी डॉ. नक्षत्र सिंह ने बसपा की लाज बचाई। पंजाब में बसपा और अकाली दल के बीच गठबंधन हुआ था। बसपा के साथ गठबंधन में शामिल अकाली दल को 18.38 फीसदी वोट मिले और वह सिर्फ 3 सीटें जीत सकी। उसे 12 सीटों का नुकसान हुआ है। गठबंधन ने 80 सीटों पर जीत का दावा किया था।
पंजाब में आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला है। उसने 117 में से 92 सीटें जीत ली है। उसे 72 सीटों का फायदा हुआ है। कांग्रेस को दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने के बावजूद सिर्फ 18 सीटें मिली है, उसे 59 सीटों का नुकसान हुआ है। जबकि उत्तराखंड की 70 सीटों में बहुजन समाज पार्टी दो सीटें जीती है। प्रदेश में बसपा का वोट शेयर 4.82 प्रतिशत रहा है। उसे कुल 2 लाख, 59 हजार, 371 वोट मिला है।
सन् 1984 में अपनी स्थापना के बाद से सबसे निराशाजनक दौर से गुजर रही बहुजन समाज पार्टी की इस हार की वजह को लेकर तमाम समीक्षाएं हो रही है। नतीजों के दूसरे दिन जिस तरह बहनजी ने सामने आकर मुस्लिमों से लेकर दलित समाज पर निशाना साधा लेकिन ब्राह्मणों को लेकर चुप्पी साधे रखीं, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। जाने-माने लेखक कँवल भारती का कहना है, “एक समय था, जब कांशीराम से प्रभावित होकर बहुत से गैर-चमार जातियों के बुद्धिजीवी बसपा से जुड़े थे। इनमें पासी, खटिक, वाल्मिकी समुदाय के कई प्रदेश स्तर के महत्वपूर्ण नेता थे। कुछ को मायावती सरकार में मंत्री भी बनाया गया था। पर बसपा नेतृत्व ने उन सबको निकाल बाहर किया। ऐसा क्यों किया गया? इसके पीछे क्या कारण था? बसपा के भक्त प्रवक्ता इसका यही उत्तर देंगे कि वे पार्टी के खिलाफ काम कर रहे थे। चलो मान लिया, फिर उनकी जगह पर उन समुदायों में नया नेतृत्व क्यों नहीं तैयार किया गया? इसका वे कोई जवाब नहीं देंगे।”
बसपा की हार पर देश के प्रख्यात समाजशास्त्री और जेएनयू में सोशल साइंस विभाग के अध्यक्ष प्रो. विवेक कुमार बसपा की कार्यशैली की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, “भारतीय राजनीति (perception) धारणा का खेल बन गया है, जिसने परसेप्शन बना लिया, रोड शो, इवेंट मैनेजर्स, मीडिया, सोशल मीडिया, तथाकतिथ बुद्धिजीवियों के माध्यम से वह आगे निकल गई। हर बात पर नेता और पार्टी का बाईट/इंटरव्यू जरुरी हो गया है। शोषितों की आवाज़ उन्ही के दरवाज़े से बुलंद करनी होती है।”
चाहे बसपा हो या फिर समाजवादी पार्टी, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उनके राजनीति करने के तरीके पर ही सवाल उठाते हैं। उर्मिलेश कहते हैं, “जिन दिनों अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करते हुए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने फरसा लहराते हुए एक खास मंदिर के निर्माण का अभियान चलाया, एक कार्यक्रम में मैने तब कहा था कि ‘यह क्या, अखिलेश यादव हारने के लिए चुनाव लड़ रहे है!’ मेरी उस टिप्पणी पर बहुतेरे लोग नाराज हुए थे। परंतु मुझे अचरज हुआ था कि अखिलेश जी जरूरी मुद्दों को छोड़कर यह सब क्या कर रहे हैं! कुछ ही समय बाद वह समाज और अवाम के जरूरी मुद्दों पर बात करने लगे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पौने पांच साल की ‘लंबी छुट्टी’ के बाद सिर्फ ‘तीन महीने की सीमित सक्रियता’ से भला पांच साल के लिए कोई नयी सरकार कैसे बनती?
दूसरी ओर विपक्ष की तमाम गोलबंदी के बीच भाजपा की इस जीत और आम जनता के वोट देने के तरीके पर भी चर्चा हो रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर आशुतोष कुमार का कहना है, “बिहार और यूपी के नतीजों के बाद कम से कम एक बात अंतिम रूप से साबित हो गई है। सामाजिक न्याय की अस्मितावादी राजनीति के सहारे हिन्दू राष्ट्रवाद का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। हिन्दू राष्ट्र की अस्मिता ने सामाजिक अस्मिताओं को न केवल अच्छी तरह जज़्ब कर लिया है, बल्कि उन्हें ही अपनी ताक़त बना चुकी है। इस कारण मंडल बनाम कमंडल का फार्मूला बेमानी हो चुका है।”
बसपा का चुनाव दर चुनाव प्रदर्शन
साल | 1993 | 1996 | 2002 | 2007 | 2012 | 2017 | 2022 |
वोट प्रतिशत | 11.12 | 19.64 | 23.06 | 30.43 | 25.98 | 22.24 | 12.88 |
सीटें | 67 | 67 | 98 | 206 | 80 | 19 | 01 |
लेकिन यहां सवाल यह भी है कि उत्तर प्रदेश का विपक्ष, जिसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी प्रमुख रही, आखिर उसने यह कैसे मान लिया कि वह आराम से जीत जाएगी। दिलीप मंडल ने अपने एक लेख में लिखा है कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को इस बात का भरोसा रहा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार अपने कार्यकाल की गलतियों और लोगों की नाराज़गी के बोझ से गिर जाएगी और सत्ता उनके पास आ जाएगी। लेकिन एंटी-इनकंबेंसी यानी सत्तारूढ़ दल से नाराज़गी किसी सरकार को गिराने के लिए हमेशा काफी नहीं होती है। विपक्ष को ये भी बताना होता है कि वह सत्ता में आने के बाद क्या करने वाली है। उसे जनता को सपने दिखाने पड़ते हैं।
तो सवाल है कि क्या विपक्षी दल खासकर बसपा और समाजवादी पार्टी जनता को सपने दिखाने में नाकामयाब रही? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ें तो अखिलेश यादव ने जनता को सपने दिखाए, उन्होंने वादे भी किये, लेकिन काफी देर से। भाजपा के 24X7 चुनावी मोड में रहने का मुकाबला निश्चित तौर पर कुछ महीनों की सक्रियता से नहीं की जा सकती। भाजपा कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रही थी, जबकि विपक्षी दल ऐसा करने से चूक गए। खासतौर पर बहुजन समाज पार्टी का चुनावी प्रचार महज औपचारिकता भर रहा। कोरोना के कारण यह चुनाव डिजिटल लड़ा गया और इस मायने में बसपा की तैयारी बहुत खराब दिखी। बसपा के पास अपना फेसबुक पेज तक नहीं था। बहनजी ने अब तक की सबसे कम रैलियां की। आकाश आनंद, जिनको बसपा ने युवा चेहरे के तौर पर प्रस्तुत किया, उनको पूरे चुनाव में कभी भी चुनाव प्रचार में नहीं उतारा गया। मंच से बहनजी ने अपना कोई खास विजन पेश नहीं किया। समाज के सामने अपना रोडमैप नहीं रखा, जिसका फर्क भी पड़ा। तो वहीं सोशल मीडिया पर भी बसपा का चुनाव प्रचार काफी ढ़ीला रहा। बसपा 2022 का चुनाव 2007 के स्टाइल में ही लड़ रही थी। बसपा ने खुद को न समय के हिसाब से अपडेट किया है और न ऐसा करने की कोशिश करती दिखती है।
चुनावी नतीजे बताते हैं कि बसपा के वोट प्रतिशत में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज हुई है। 2017 में बसपा को मिले 22.24 प्रतिशत वोट से घटकर 2022 में बसपा 12.88 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सवाल है कि बसपा का तकरीबन 10 प्रतिशत का वोट शेयर किसके पास गया? चुनाव के दौरान लोगों से बातचीत करते हुए या फिर जिस तरह से लोगों की प्रतिक्रिया आ रही थी, उसमें साफ महसूस हो रहा था कि दलितों का एक तबका बसपा से उदासीन है। उसमें शहरों में रहने वाला दलित वोटरों की संख्या ज्यादा थी, जो बसपा को जमकर लड़ते हुए देखना चाहते थे। वो दूसरे दलों के आक्रामक चुनाव प्रचार से प्रभावित थे, और उन्हें महसूस हो रहा था कि बसपा उस मजबूती से चुनाव नहीं लड़ रही है, जिस मजबूती से समाजवादी पार्टी या फिर भाजपा लड़ रही है। ऐसे में दलित समाज के जो वोटर सजग थे और भाजपा की साजिशों से परिचित थे, उन्होंने भाजपा को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी को चुना। हालांकि गाँवों की जाटव बस्तियों में आज भी बहनजी का जादू कायम दिखा। गरीब जनता के लिए आज भी मायावती उनकी नायिका हैं और उन्हीं के वोटों के बूते बसपा 10 फीसदी वोट हासिल कर पाई है।
लेकिन बसपा के लिए चिंता की बात यह है कि कल तक उसके पाले में खड़े लोग आखिर उससे दूर क्यों होते जा रहे हैं? चुनावी नतीजों के बाद दलित दस्तक को पाठकों की मिली तमाम प्रतिक्रियाओं में उसका जवाब ढूंढ़ा जा सकता है। मान्यवर कांशीराम के समय से ही बसपा के आंदोलन से जुड़े इस सरकारी कर्मी का कहना है, “बहनजी या तो बीमारी को पकड़ नहीं पा रही हैं, या फिर जानबूझ कर अनदेखा कर रही हैं। बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा की ओर इशारा करते हुए पाठक का कहना है कि कैंसर पेट में है और बहनजी हाथ-पैर काट कर फेंक रही हैं। पाठक इस बात पर नाराजगी जताता है कि बहनजी ने दलित-पिछड़े वर्ग के जनाधार वाले तमाम नेताओं को एक-एक कर पार्टी से निकाल दिया। अगर उनकी थोड़ी-बहुत गलती थी भी तो उन्हें फटकार लगाई जा सकती थी, धमकाया जा सकता था, लेकिन बहनजी ने उन्हें सफाई पेश करने तक का मौका नहीं दिया। वह सवाल उठाता है कि आप इतिहास को उठाकर देख लिजिए जितनी बेदर्दी से बहनजी अपने साथ काम करने वाले सालों पुराने नेताओं को एक झटके में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देती हैं, उतना किसी पार्टी ने अपने नेता को बाहर नहीं किया। बहनजी बहुजन से सर्वजन हो गईं ऐसे में उन्होंने बहुजनों को भी खो दिया है।
इस चुनाव में इसका बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश का अंबेडकरनगर जिला बना है। अंबेडकरनगर बहुजन समाज पार्टी का गढ़ रहा है। बसपा प्रमुख मायावती ने ही मुख्यमंत्री रहते सन् 1995 में इसे जिला बनाया था, और बाबासाहेब के नाम पर जिले का नाम अंबेडकर नगर रखा गया था। मायावती यहां से जीतकर लोकसभा में भी पहुंची थी। 2017 में भाजपा की आंधी के बावजूद बसपा के यहां से तीन विधायक जीते। इसमें मायावती के नजदीकी और बसपा के यूपी प्रदेश अध्यक्ष और बसपा सरकार में मंत्री रह चुके रामअचल राजभर ने अकबरपुर से जीत हासिल की। कटेहरी से बसपा के लालजी वर्मा जीते जबकि जलालपुर से रितेश पांडे ने जीत दर्ज की। लेकिन यूपी के पंचायत चुनाव के दौरान बसपा के एक नेता ने बहनजी का कान भर दिया और मायावती ने रामअचल राजभर और लालजी वर्मा को पार्टी से बाहर कर दिया। इन दोनों नेताओं की तमाम कोशिशों के बावजूद इनका पक्ष नहीं सुना गया। चुनाव से पहले ये दोनों समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए और नतीजा यह हुआ कि जिस अंबेडकरनगर में समाजवादी पार्टी का कोई वजूद नहीं था, वहां सभी पांचों सीटों पर समाजवादी पार्टी भारी मतों से जीती। इस तरह बसपा प्रमुख के एक फैसले ने बसपा के गढ़ को नेस्तनाबूत कर दिया।
चुनावी नतीजों के बाद बहुजनों, खासकर दलितों के बीच सोशल मीडिया पर आपसी संघर्ष छिड़ गया। नतीजों के बाद बसपा की कमियों पर बात करने वालों को बसपा के कार्यकर्ता और कोर समर्थक पचा नहीं पा रहे हैं। और उन्हें ही भला बुरा कह रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे पोस्ट की भरमार है, जिसमें सवाल उठाने वाले बहुजन पत्रकारों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को गालियां मिल रही है। बसपा समर्थकों की ऐसी प्रतिक्रिया से लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे प्रो. कालीचरण स्नेही नाराज दिखते हैं। प्रो. स्नेही का कहना है, “बीएसपी इस देश के बहुजनों की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है, इसे हर हाल में बचाए रखना बहुजनों की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है। इस समय जो लोग भी बीएसपी की हार पर अपना नजरिया प्रस्तुत कर रहे हैं, वे बीएसपी के हितचिंतक और समर्थक हैं, उनकी बात पर गौर करने की जरूरत है, उन्हें खारिज करने की नहीं। पार्टी को अब “सर्वजन हिताय” की जगह “बहुजन हिताय” के नारे के साथ अपने पुराने फार्मूले पर तुरंत लौटने की जरूरत है।
अब बड़ा सवाल यह है कि इस चुनावी नतीजे के बाद बसपा कहां खड़ी है और क्या अब भी उसकी राजनैतिक वापसी संभव है? सामाजिक कार्यकर्ता और दलितों के संगठन नैक्डोर के अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं, “बहुजन समाज पार्टी एक ऐतिहासिक जरूरत थी। 2007 में जब वो सत्ता में आ गई और उसने जो काम किये, उन कामों से उसने अपनी ऐतिहासिक जरूरत को पूरा कर लिया। बहुजन महापुरुषों को बसपा ने पहचान दी, उनको स्थापित किया। लेकिन वह पहचान की राजनीति से आगे नही बढ़ सकी। बसपा ने पूरे देश में दलितों की उम्मीदे तो जगाई लेकिन जब उन उम्मीदों को पूरा करने का वक्त आया तो बसपा आगे का रोडमैप नहीं बना सकी। तब तक बसपा के संस्थापक और नीति निर्माता मा. कांशीराम के परिनिर्वाण हो जाने से भी काफी नुकसान हुआ।
अशोक भारती कहते हैं कि बसपा समाज का रुपांतरण करने के लिए सत्ता में आई थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद वो सैद्धांतिक विचलन में फंस गई। उसने बहुजन का सर्वजन कर दिया। बसपा ने मिशन आउटसोर्स कर दिया। पार्टी की वापसी पर उनका कहना है कि पार्टी ऐसी स्थिति में पहुंच गई है, जहां से उसकी वापसी तब तक संभव नहीं दिखती, जब तक कोई बहुत बड़ा और क्रांतिकारी परिवर्तन न हो। बसपा को सतीश चंद्र मिश्रा पर भी बड़ा फैसला लेना पड़ेगा।
गौर करने लायक एक बात यह भी है कि बसपा से छिटके वोट आखिर किसे मिले। तमाम एजेंसियां इसकी अपनी तरह से व्याख्या कर रही हैं। लेकिन दलित बस्तियों में घूमने और दलित समाज के मतदाताओं से बात करने पर साफ पता चलता है कि वो वोट समाजवादी पार्टी को गए हैं। जो एजेंसियां भी यह भ्रम फैला रही हैं कि बसपा से छिटके वोट भाजपा को गए हैं, कहीं न कहीं वो 2024 के लिए भाजपा का एजेंडा सेट करने में लगे हैं। जो लोग बहुजन राजनीति और अंबेडकरी आंदोलन की समझ रखते हैं उनको पता है कि बसपा का कैडर वोट भाजपा में नहीं जा सकता। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत इस बार पर मुहर भी लगाता है। यानी दलितों का बसपा के नेताओं (बसपा से नहीं) और उसकी कार्यप्रणाली से जो मोहभंग हुआ है, उसमें उसने दूसरे विकल्प के रूप में समाजवादी पार्टी की ओर देखना शुरू कर दिया है।
संभवतः ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ा उससे अखिलेश यादव एक विक्टिम की तरह सामने आएं। बहनजी के गठबंधन तोड़ने को लोगों अवसरवादिता माना, क्योंकि बहुजन समाज इस गठबंधन के जरिए देश में बड़े बदलाव का सपना पाले हुए था। और जब अखिलेश यादव ने बसपा सुप्रीमों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला, तो यह समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया।
बसपा अब उस स्थिति में पहुंच गई है, जहां उसके पास खोने को कुछ नहीं है। क्योंकि वह कुछ फीसदी वोटों के अलावा सबकुछ खो चुकी है। ऐसे में वापसी के लिए भी बसपा के पास आखिरी मौका है। जिसके लिए उसे नब्बे के दशक की राजनीति से निकल कर वर्तमान समय की राजनीति करनी होगी। जिसमें मंच पर नेताओं का हुजूम होना चाहिए, पार्टी के पास दर्जनों चेहरे होने चाहिए। उनको खुल कर बोलने की आजादी होनी चाहिए। जनता के मुद्दों पर सड़क पर उतरना होगा। देश से जुड़े हर मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी। युवाओं और महिलाओं के साथ ही हर वर्ग का सेल बनाना होगा। उसमें हर वर्ग के युवाओं को कमान देनी होगी और बहुजन विचारधारा पर अडिग होकर आक्रामक होकर काम करना होगा। दलित, पिछड़े, मुस्लिम समाज के सक्षण नेताओं और कार्यकर्ताओं हुजूम ही बसपा को बचा सकता है। बसपा अब भी खड़ी हो सकती है, क्योंकि लोगों की नाराजगी बसपा के नेताओं और उसके काम करने के तरीके को लेकर है, बहुजन समाज पार्टी को बहुजन समाज आज भी उतना ही समर्थन और प्यार करता है।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
