दलितों का प्रतिरोध अभिव्यक्त करतीं नरेन्द्र वाल्मीकि की कविताएं

  • ज्योति पासवान 

 ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ नरेन्द्र वाल्मीकि की प्रथम काव्य-संग्रह है। जिसका प्रकाशन अभी हाल ही में 2021 में हुआ है। इस काव्य-संग्रह को इन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को समर्पित किया है। यह कविता संग्रह दलितों के जीवन की पीड़ाओं एवं वेदना को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इस कविता-संग्रह में जहाँ एक तरफ इन्होंने दलितों के साथ सदियों से किये गये अत्याचार एवं शोषण का वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सदियों से स्थापित कुव्यवस्था एवं परम्परा के विरूद्ध आक्रोश का स्वर भी विद्यमान है। तथाकथित सवर्ण समाज मात्र अस्पृश्यता को ना अपनाकर वे दावा करते हों कि वे वर्णव्यवस्था का समर्थन नहीं करते हैं। किन्तु यह एक भ्रामक तथ्य है, जिसमें ना केवल वे उलझे हैं , बल्कि दलित भी उसी भ्रमपूर्ण विश्वास में उलझे हुए हैं। दलित और सवर्ण का एक साथ उठना-बैठना, खाना-पीना अस्पृश्यता के अंत की ओर एक अच्छी पहल हो सकती है। लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि जातिगत भेद-भाव की समाप्ति हो चुकी है। वर्तमान समय में वैचारिक असमानता का अंत करने की आवश्यकता है , जिसका अंत शिक्षित समाज भी अभी तक नहीं कर पाया है। कवि ने इस विषय को भी केन्द्र में रखकर लिखा है। इन्होंने दलितों की सदियों से पोषित मानसिकता के विरूद्ध भी लिखा है। एक तरफ भारत देश ने जहाँ आधुनिक एवं वैज्ञानिक प्रगति चरम पर है किन्तु आज भी देश के विशेष वर्ग के लोगों का सीवरों में प्रवेश करना, देश के वैज्ञानिक प्रगति पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। इस काव्य-संग्रह में नरेन्द्र वाल्मीकि ने इन विषयों पर अपने विचार प्रदान किये हैं। 

 “ जहाँ ना पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि” – एक कवि के संदर्भ में यह कथन से हम सभी परिचित हैं। कवि के संदर्भ में यह बातें यूं ही नहीं कही गई। वाकय में एक कवि की नजर वहाँ तक पहुँचती है , जिसका अनुभव अन्य व्यक्ति को होना असम्भव है। अपनी कविता ‘खोखली बातें’ में कवि ने इस कथन को चरितार्थ किया है। इस कविता में भारत देश की यथार्थता की उस छवि को प्रकट किया है , जिससे भारत के आधुनिकता एवं विकास पर एक प्रश्नचिन्ह लग जाता है। 

“आधुनिकता के

वैज्ञानिकता के  

नाम पर मंगल

पर जाने वालों। 

अभी भी 

देश के नागरिक 

अपने उदर के ‘मंगल’ 

के लिए उतरते हैं 

गंदे नालों में”

उपर्युक्त पंक्ति पढ़ने के बाद हम यह सोचने के लिये विवश हो जाते हैं कि जहाँ भारत ने मंगल तक पहुँचने में सफल हो चुका है। किन्तु हमने यह कैसी वैज्ञानिक प्रगति हासिल की है कि इस आधुनिक युग में भी हमने उन आधुनिक उपकरणों का विकास नहीं किया कि सफाईकर्मी सफाई के लिए सीवर में उतरने से बच जायें। अपने पेट के भूख की विवशता के कारण वे उन गंदे नालों में उतरने से मना भी नहीं कर सकते हैं और उनकी यही विवशता का लाभ उठाया जाता रहा है। सफाईकर्मियों की इस वाध्यता ने भारत के आधुनिकता और वैज्ञानिकता पर सवालिया निशान लगाने का कार्य किया है। 

कवि के हृदय की आशा और विश्वास ने भावी समाज के विकास में हमेशा से महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ‘अब और नहीं’ कविता में कवि ने अपने इसी आशा और विश्वास का संचार किया है। जहाँ कवि ने यह आशा अभिव्यक्त की है कि अगर हमने सामाजिक बुराईयों का प्रतिरोध किया तो आने वाली पीढ़ी को हम ऐसा संसार दे सकते हैं , जिसमें जाति और धर्म के नाम पर उनके साथ असमानपूर्ण भेदभाव नहीं किया जाएगा। 

समाज के भविष्य के प्रति आशान्वित कवि को इस बात का भान है कि समाज में वह जिस समानतापूर्ण समाज का स्वपन उसने देखा है। वह परिवर्तन लाना इतना आसान नहीं है , इसके लिए शोषित समाज को विरोधी स्वर अपना पड़ेगा। वे अमानवीय काम जा आज तक वे करते आये हैं, जिन बंधनों में वे बंधे हैं। उन्हें तोड़ने की आवश्यकता है। अत: कवि ने लिखा है – 

“तोड़ डालो 

सारे बंधन 

जो- 

बनते हैं बाधक 

तुम्हारी तरक्की के 

मार्ग में।” 

‘बस्स ! बहुत हो चुका’  कविता में कवि ने शोषक वर्ग को इस बात से आगाह किया है कि जहाँ हमारी हाथों में इतनी ताकत है कि हम धरती का सीना चीरकर पूरे भारत का पेट पालने का सामर्थ्य रखते हैं। तो इस बात के प्रति किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता है कि अपने अधिकारों के लिए हमारे ये हाथ उस व्यवस्था को भी उखाड़ देंगी, जिसने तुम्हें स्थापित किया है।  

व्यक्ति ही नहीं, किसी भी देश, समाज, समुदाय के शिक्षा ही वह कड़ी है जो ना केवल अज्ञानता के अंधकार का अंत करती है बल्कि शोषण, अत्याचार से भी मुक्ति प्रदान करने का कार्य करती है। यही कारण है कि बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने शिक्षा को शेरनी का दूध कहा था। ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ कवि ने शिक्षा की इस ताकत की यथार्थता को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि चूंकि अब उनके हाथों में कलम की ताकत है। जिससे वे उन सड़ी-गली व्यवस्थाओं के बारे में लिखेंगे, जिनसे समाज के दो-मुंहे सच को उजागर किया जा सके। वर्णवाद राष्ट्रवाद के नाम पर उनके साथ जो अत्याचार किये गये हैं , उनकी कलम उन असहाय और विवश लोगों के दर्द और पीड़ाओं का बखान करेंगी। 

तत्कालीन समय में किसान की समस्या से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है। कवि का हृदय भी अन्नदाताओं की पुकार को अनसूना करने से दुखी है। ‘हल ही हल है’ कविता में कवि ने लिखा है कि जीवन के लिए जितना उपयोगी जल है , हल भी हमारे लिए उतना ही उपयोगी है।यही कारण है कि ‘हल’ और ‘जल’  को एक-दूसरे के समानार्थी करते हुए कवि ने लिखा है – 

“हल के बिना जल 

किसी काम का नहीं है। 

ये शाश्वत सत्य अटल है….

हल ही हल है।”

किसी भी समाज का विकास शिक्षा के अभाव में असम्भव है। शिक्षा ना केवल अज्ञानता बल्कि संकीर्ण विचारधारा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों से भी हमें मुक्त करने का कार्य करती है। किन्तु भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था इस तरह हावी है कि शिक्षा के सबसे ऊँचे पायदान पर विराजमान शिक्षक भी जातिगत विचारधारा से अछूता नहीं है। ‘योग्यता पर भारी जाति’ कविता में कवि ने हमारे समाज के इसी कटुपूर्ण यथार्थता को अभिव्यक्त किया है कि व्यक्ति की योग्यता का मूल्यांकन उसके ज्ञान से नहीं बल्कि उसकी जाति से किया जाता है। एक दलित आज भी इस भेद-भाव के शिकार हो रहे हैं। 

किन्तु एक विचारपूर्ण तथ्य है कि आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग में समाज में ऊँच-नीच के भेद-भाव के अस्तित्व अगर आज भी अपना स्थान बनाये हुए हैं , तो इसके लिए केवल तथाकथित सवर्ण समाज उत्तरदायी नहीं है। कोई भी व्यक्ति तभी श्रेष्ठ है जब अन्य व्यक्ति ने स्वंय को उससे कमतर समझा हो। दलित समाज शिक्षा प्राप्त करने में सफल तो हो रही है। किन्तु यह दुखद है कि भारतीय संस्कृति के संवाहकों ने दलित समाज में जिस हीनताबोध का रोपने का कार्य किया है , उस हीनताबोध से दलितों ने अभी तक स्वंय को मुक्त नहीं किया है। अत: समाज में ऊँच-नीच के भेद-भाव के अस्तित्व को कायम रखने में दलित समाज भी उतना ही उत्तरदायी है कि जितना कि सवर्ण समाज। ‘उनका श्रेष्ठत्व’ कविता में कवि ने इस तथ्य को ही अभिव्यक्त किया है।

हिन्दी साहित्य में जब से आधुनिक दलित साहित्य का उद्भव हुआ है, दलित साहित्य को नकारने का उपक्रम भी साथ-साथ ही चल रहा है। जिसके लिए दलित साहित्य पर कई तरह के आरोप लगाये जाते रहे हैं। जिनमें एक आरोप दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र पर भी लगाया गया। ‘कैसी कविता लिखेगा’ में कवि ने इसी संदर्भ में अपने विचार को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि एक विशेष जाति में मात्र जन्म लेने के कारण जिस व्यक्ति के सभी अधिकार छीन लिये गये हों, वह कदम-कदम पर अपमानित हुआ हो , तो उसके हाथ में कलम आने पर स्वभाविक है कि वह अपने भोगे हुए यथार्थ, अपमान एवं शोषण की गाथा ही लिखेगा।

इस प्रकार देखें तो कवि नरेन्द्र वाल्मीकि ने अपने प्रथम काव्य संग्रह में शोषित वर्ग की सभी समस्याओं एवं पीड़ाओं का वर्णन किया है। साथ ही एक कवि के कर्तव्य का सफल निर्वहन करते हुए इन्होंने शोषित समाज में अत्याचार एवं शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए भी प्रेरित किया है। सच्चा मार्गदर्शक वही होते हैं जो अमुख को उसकी कमी से भी अवगत कराये। कवि ने यह कार्य भी सफलतापूर्वक किया है। 

आरम्भ से ही कवियों ने अपने सकारात्मक संदेशों के माध्यम समाज में सकारात्मक परिवर्तन लानेका महत्वपूर्ण कार्य किया है।‘अंबेडकर’ कविता में इन्होंने अंबेडकर को एक परिधि में ना बाँधने का संदेश दिया है। वे लिखते हैं- 

“अंबेडकर को एक 

परिधि में मत बांधो

उड़ने दो उसे 

समस्त मानव जन 

के लिए।” 

किन्तु कवि को अपने विचारों के आयाम को और भी विस्तार लाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार इन्होंने तत्कालीन घटनाओं पर अपनी पैनी नजर रखते हुए इन्होंने हाथरस, शालीन बाग, किसान-आंदोलन , एक दलित शोध छात्र की समस्याओं को अपनी कविता का विषय बनाया है। उसी प्रकार जब इन्होंने दलित स्त्री के साथ किये गये अत्याचारों का वर्णन किया है। तब वे अपने विचारों में परिवर्तन लाये। समाज के अत्याचारों एवं शोषण से पीड़ित दलित स्त्री की छवि आंकने के बजाय आवश्यक है कि दलित स्त्री के हाथों में आंदोलन की मशाल को थमाया जाय , उनके हाथों में हथियारस्वरुप संविधान हो। अब दलित कवियों के लिए यह आवश्यक है कि दलित स्त्रियों के समस्याओं को वर्तमान समय के संदर्भ में देखें। दलित रचनाकार दलित स्त्रियों के संदर्भ में कहा करते हैं कि दलित स्त्रियों का दोहरा शोषण किया जाता है। किन्तु तात्कालिक समय में देखें तो दलित स्त्रियों के शोषण का दायरा अब बढ़ चुका है। अत: कवि को शोषण के उस बढ़े हुए दायरे पर भी अपने विचार अभिप्रकट करने की आवश्यकता है। दलित स्त्रियाँ शिक्षित हैं , उनका पदार्पण अब कार्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि बड़े-बड़े स्थानों में हो चुका है। दलित मध्यवर्गीय समाज,  जिन्होंने तथाकथित सवर्ण समाज का अनुसरण करना प्रारम्भ कर दिया है। जिसके कारण अब दलित समाज में भी दहेज एवं  अन्य आडम्बरों ने अपनी जड़ों को जमाना प्रारम्भ कर दिया है। अब दलित कवियों को इन नये विषयों पर लिखने की आवश्यकता है।   

इसी प्रकार कवि ने दलितों को समाज, शिक्षा आदि क्षेत्रों में वाली समस्याओं एवं शोषण का वर्णन तो किया है। परन्तु यह काव्य-संग्रह दलितों के एक विशेष जाति के शोषण की व्यथा पर केंद्रित है। कवि को अन्य दलित जाति की समस्याओं पर भी अपने विचार प्रदान करने की आवश्यकता है। 

शब्दों के चयन की बात करें तो कुछ स्थानों पर कवि को सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ‘छोड़ने’ के स्थान पर कवि ने अगर ‘तजने’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया होता तो वाक्य प्रभावकारी होते। हालांकि कुछ स्थानों पर अपने गम्भीर विचारों को अभिप्रकट करने के लिए प्रभावकारी शब्दों का चयन किया है। ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ कविता की उक्त पंक्तियाँ – 

“ ये खुरदुरे हाथ 

जो चीर सकते हैं 

धरती का सोना तुम्हारे लिए 

अब उखाड़ देंगे 

तुम्हारी ये व्यवस्था 

अपने हक अधिकारों के लिए।”  

उपर्युक्त पंक्ति में ‘खुरदुरे हाथ’ शोषित श्रमिक वर्ग की क्षमता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। 

 इस कविता-संग्रह का शीर्षक ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’  के अनुरुप कविताओं का चयन भी कवि ने किया है। जिन संदर्भों में विचारों के आयाम को बढ़ाने की आवश्यकता है। उन कविताओं में भी कवि ने अपने प्रतिरोध के स्वर को नहीं दबाया है , बस कुछ कविताओं में आक्रोश का अभाव है।

निष्कर्षत: इस कविता संग्रह में कवि समाज की विसंगतियाँ , अंधविश्वास आदि का वर्णन करने के साथ शोषण का विरोध ,जहाँ इन्होंने एक ओर दलितों को परम्परागत कार्य करने से मना किया है , दलित समाज की वेदना एवं पीड़ा का बखान है। वहीं दूसरी ओर दलित समाज की कमियों को भी उजागर करने का कार्य किया है। केवल समाज ही नहीं राजनीति पर भी इन्होंने अपनी कलम चलायी। एक सशक्त कवि की भूमिका का निर्वहन करते हुए तात्कालीन समस्याओं पर भी दृष्टिपात किया है। किसी भी दलित रचना की सार्थकता तभी प्रमाणित होती है जब उनमें दलित चेतना हो। काव्य-संग्रह में विद्यमान कवि का आक्रोशित स्वर उनकी दलित चेतना की पुष्टि करती है। 

(लेखिका पीएचडी शोधार्थी व युवा साहित्य समालोचक हैं)

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