यह एक ऐतिहासिक तस्वीर है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चरणों में पड़े हैं। जबकि भारतीय लोकतंत्र समतामूलक मूल्यों पर आधारित है। कम से कम संविधान में तो उसे ऐसा ही बनाया गया है ताकि किसी को इस कदर झूकना नहीं पड़े।
दरअसल, भारतीय राजनीति में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। दलित, पिछड़े और तमाम वंचित समुदायों को कमोबेश हिस्सेदारी दी जा रही है। हालांकि पहले भी ऐसा ही होता था जब कांग्रेस का जमाना था। बिहार को ही उदाहरण लें तो हम पाते हैं कि कैसे कांग्रेस ने बिहार में पिछड़े, दलित और मुसलमानों को मुख्यमंत्री तक बनाया था। यह हम बेशक कह सकते हैं कि कांग्रेस ने सबसे अधिक प्रधानता सवर्णों को दी। लेकिन तमाम जातिगत दृष्टिकोणों के बावजूद कांग्रेस की नीति लोकतंत्र को मजबूत करने की रही। इमेजिन करिए कि यदि कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया होता तो क्या होता? क्या कोई अब्दुल गफूर बिहार जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री बनता? क्या भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बन पाते?
लेकिन देश में हाल के वर्षों में एक अलग तरह की सियासत चल रही है। इस सियासत की मंशा लोकतंत्र को पहले कमजोर और फिर इसे खत्म कर देने की है। मैं कोई भविष्यवक्ता नहीं हूं, परंतु यह मैं महसूस कर रहा हूं कि अगले पचास साल के बाद भारत में लोकतंत्र का या तो अस्तित्व ही नहीं रहेगा या फिर रहेगा भी तो केवल औपचारिक तौर पर।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि लोकतंत्र को महत्वहीन बनाने के सारे तिकड़म आरएसएस के द्वारा किये जा रहे हैं। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आरएसएस की मंशा क्या है। वह संविधान के बजाय मनु के विधान के हिसाब से देश चलाना है और सवर्णों को इस देश का शासक अनंत तक बनाए रखना है।
दरअसल, मैं चिंतित इस बात से हूं कि वे लोग, जो चुनाव में पराजित हो जाते हैं, उन्हें भी सत्ता में शामिल किया जा रहा है। अब कल की ही बात देखिए कि केशव प्रसाद मौर्य, जो सिराथु विधानसभा क्षेत्र से पराजित हो गए, उन्हें आरएसएस ने उपमुख्यमंत्री बना दिया। सामान्य तौर पर तो यह ऐसा लगता है जैसे वह केशव प्रसाद मौर्य को कैबिनेट में स्थान देकर मौर्य समुदाय को साधने की कोशिश कर रहा है। वहीं एक और उदाहरण देखिए। उत्तराखंड में पुष्कर सिंह घामी को आरएसएस ने मुख्यमंत्री बना दिया, जबकि वे अपना चुनाव हार गए थे।
दरअसल, यह समझने की आवश्यकता है कि आरएसएस के तिकड़म का विस्तार कितना है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जो कि अपना चुनाव पहले हार गयी थीं, उन्होंने स्वयं को मुख्यमंत्री बना दिया। जबकि नैतिकता यह होनी चाहिए थी कि जबतक वह चुनाव न जीत जातीं, तबतक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपने ही दल के किसी और सदस्य को बैठने देतीं। यदि वह ऐसा कर पातीं तो निस्संदेह लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास और बढ़ता।
तो मामला यही है कि जनादेश का अपमान किया जा रहा है। जनता को यह बताया जा रहा है कि तुम्हारे वोटों का कोई मतलब नहीं है। तुम जिसे पराजित करोगे, हम उसे सत्ता में लाएंगे। जाहिर तौर पर जब ऐसा बार-बार होगा तो इसका परिणाम यही होगा कि जनता भी एक दिन यही मान लेगी कि वोटों का कोई मतलब नहीं है। वैसे भी हमारे देश में कम मतदान एक बड़ी समस्या है। लेकिन राजनीतिक दलों के लिए इस समस्या का कोई महत्व नहीं है।
मैं तो बिहार में 2005 से देख रहा हूं। नीतीश कुमार ने आखिरी बार चुनाव वर्ष 2004 में लड़ा था। तब वे बाढ़ संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार थे। बाढ़ की जनता ने उनके खिलाफ जनादेश दिया था। लेकिन 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने। यह बहुत ही दिलचस्प है कि जनादेश को ठेंगा दिखाने के लिए उन्होंने कैसी धूर्तता की। नीतीश कुमार ने स्वयं को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया। तबसे लेकर आजतक वह यही कर रहे हैं। वे चुनाव नहीं लड़ते हैं।
वर्ष 2020 में तो आरएसएस ने जनादेश का जबरदस्त अपमान तब किया जब बिहार की जनता ने नीतीश कुमार के खिलाफ जनादेश दिया और उनके दल के विजेताओं की संख्या 43 रह गयी। निस्संदेह बिहार की जनता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार को नहीं देखना चाहती थी। लेकिन आरएसएस ने लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार का गठन किया। अब इसका परिणाम क्या हुआ है, यह कल योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में नीतीश कुमार का नरेंद्र मोदी की चरणों में गिर जाने की घटना ने बता दिया है। यह पतित होने की पराकाष्ठा है।
दरअसल, सियासत में ईमानदारी का दौर खत्म किया जा चुका है। कर्पूरी ठाकुर एक उदाहरण हैं। वे बिहार में विधान परिषद को सत्ता का पिछला दरवाजा मानते थे। राज्यसभा भी एक तरह से संसद का पिछला दरवाजा ही है। कर्पूरी ठाकुर विधान परिषद को खत्म कर देना चाहते थे। वे मानते थे कि यदि किसी को सत्ता में आना है तो चुनाव लड़े। चुनाव लड़ने का मतलब जनता का आदेश हासिल करे।
खैर, अब कहां कोई कर्पूरी ठाकुर मुमकिन है। आरएसएस ने भारतीय लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने का काम प्रारंभ कर दिया है। याद रखिए नैतिकता रहेगी तभी लोकतंत्र का महत्व बना रहेगा।
लेखक फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं।