बढती ही जा रही है डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति 

बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की 131 वीं जयंती पर विशेष

आज हम भारतरत्न उस डॉ.बी.आर. आंबेडकर की 131वीं जयंती मनाने रहे है, जिनके विषय में बहुत से नास्तिक बुद्धिजीवियों की राय है कि बहुजनों का यदि कोई भगवान हो सकता है तो वह डॉ. आंबेडकर ही हो सकते हैं एवं जिनकी तुलना अब्राहम लिंकन,  बुकर टी . वाशिंग्टन, मोजेज इत्यादि से की जाती है. मानवता की मुक्ति में अविस्मरणीय योगदान देने वाले ढेरों महापुरुषों का व्यक्तित्व और कृतित्व समय के साथ म्लान पड़ते जा रहा है पर, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर वह महामानव हैं, जिनकी स्वीकृति समय के साथ बढती ही जा रही है. यही कारण है इंग्लैंड की महारानी तथा राष्ट्रमंडल देशों की प्रमुख एलिज़ाबेथ द्वितीय ने पिछले वर्ष:14 अप्रैल,2021 को ‘डॉ.बी.आर.आंबेडकर इक्वेलिटी डे’ के रूप में मनाने का फरमान जारी किया था. रानी एलिज़ाबेथ द्वितीय का यह फरमान इस बात का संकेतक है कि डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति समय के साथ-साथ विश्वमय फैलती जा रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति दिन ब दिन बढती जा रही है इसलिए अब देश देशांतर में उनकी जयंती भी पहले के मुकाबले और ज्यादे धूमधाम से मनाई जा रही है. इस अवसर पर जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किये गए दलित, आदिवासी और पिछड़ों के साथ महिलाओं की मुक्ति ; बौद्धमय भारत निर्माण में उनके योगदान के साथ उनके समाजशास्त्रीय अध्ययन व आर्थिक चिंतन पर भूरि- भूरि चर्चायें आयोजित की जा रहीं हैं. किन्तु इन चर्चाओं में एक विषय को लोग विस्मृत किये जा रहे हैं, वह है मानव जाति कि सबसे बड़ी समस्या का खात्मा.

लोग याद नहीं करते मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या पर उनकी चेतावनी!

वैसे तो मानव जाति तरह-तरह की समस्यायों से घिरी हुई है और आज ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी विकराल समस्या के रूप से सामने है जिसे लेकर एक छोटे-छोटे बच्चे तक खौफजदा है और इससे पार पाने के लिए वे भी अपने स्तर पर कुछ न कुछ उपक्रम चला रहे हैं.  लेकिनं पर्यावरणवादी ग्लोबल वार्निग की तबाही का जितना भी डरावना का खाका खींचे, हंटिंग्टनवादी सभ्यताओं के टकराव को लेकर जितनी भी चिंता जाहिर करें ये  मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के रूप में चिन्हित नहीं हो सकतीं.हजारों सालों से लेकर आज तक निर्विवाद रूप से  ‘आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी’ ही  मानव जाति की समस्या रही है. आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी ही वह सबसे बड़ी समस्या है जिसके गर्व से भूख, कुपोषण, अशिक्षा- अज्ञानता, विच्छिनता और आतंकवाद इत्यादि जैसी ढेरो समस्यायों की सृष्टि होती रही है.यही वह सबसे बड़ी समस्या है जिससे मानव-जाति को निजात दिलाने के लिए  ई.पू.काल में भारत में गौतम बुद्ध,चीन में मो-ती,इरान में मज्दक,तिब्बत में मुने-चुने पां; रेनेसां उत्तरकाल में पश्चिम में हॉब्स-लाक,रूसो,वाल्टेयर,टॉमस स्पेन्स,विलियम गाडविन,सेंट साइमन,फुरिये,प्रूधो, चार्ल्स हॉल,रॉबर्ट आवेन,अब्राहम लिंकन,मार्क्स,लेनिन तथा एशिया में माओत्से तुंग,हो ची मिन्ह,फुले,शाहूजी महाराज,पेरियार,डॉ.आंबेडकर,लोहिया,कांशीराम इत्यादि जैसे ढेरों महामानवों का उदय तथा भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ एवं लाखो-करोड़ो लोगों ने प्राण बलिदान किया.इसे ले कर ही आज भी दुनिया के विभिन्न कोनों में छोटा-बड़ा आन्दोलन/संघर्ष जारी है. मानव जाति इस सबसे बड़ी समस्या को लेकर भारत में जिसने सबसे गहरी चिंता व्यक्त किया तो वह संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ही थे. उन्होंने राष्ट्र को संविधान सौपने के एक दिन पूर्वस्वाधीन  भारत के शासकों को चेताते हुए कहा था,’ 26 जनवरी 1950 से हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे : प्रत्येक नागरिक को एक वोट देने को मिलेगा और उस वोट का सामान मूल्य रहेगा. राजनीति के विपरीत हमें आर्थिक और सामजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता. हमें निकटतम भविष्य के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा, नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढांचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.’

आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रही: शासकों की वर्णवादी सोच!     

किन्तु स्वाधीन भारत हमारे शासक बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर चेतावनी की पूरी तरह अनदेखी कर गए. चूँकि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की उत्पत्ति शक्ति के समस्त स्रोतों(1- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) के विभिन्न सामाजिक सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है, इसलिए इसके खात्मे के लिए हमारे शासकों को विभिन्न सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे की दिशा नीतियाँ बनानी पड़ती. किन्तु हमारे शासक स्व- जाति/वर्ण के स्वार्थ के हाथों विवश होकर शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा न करा सकते, इसलिए विषमता की समस्या साल दर सार नयी-नयी ऊँचाई छूती गयी. शक्ति के स्रोतों का विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य असमान बंटवारे के फलस्वरूप नयी सदी में पहुचते- पहुँचते देश  ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में बंट  गया और देखते ही देखते सैकड़ों जिले माओवाद की चपेट में आ गए.इससे उत्साहित एक माओवादी ग्रुप ने एलान ही कर दिया कि हम 2050 तक बंदूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा जमा लेंगे. बहरहाल एक ओर आर्थिक और सामजिक विषमता जनित समस्या के कारण भारत तरह-तरह की समस्यायों में घिरता और दूसरी ओर सुविधाभोगी वर्ग के नेता और मीडिया ‘विकास’ के शोर में इन समस्यायों को दबाने लगी रही . किन्तु कुछ ईमानदार और दायित्वशील लोग विकास की पोल खोलते रहे. जिस दौर भारत के आर्थिक विकास दर को देखते हुए इसके विश्व आर्थिक शक्ति बनने के दावे जोर-शोर से उछाले जाने लगे, उस दौर में  नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहना शुरू किया था,’गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है. .. मैं उनसे सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है‘. जिस नवउदारी अर्थनीति के कारण आर्थिक और सामाजिक असमानता शिखर छूती गयी है, उस अर्थनीति के शिल्पी डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लगातार चेतावनी देते हुए कहा था,’ देश का विकास जिस तेजी से हो रहा है, उस हिसाब से गरीबी कम नहीं हो रही है. अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है. देश में जो विकास हुआ है ,उस पर नजर डालें तो साफ़ दिखाई देगा कि गैर-बराबरी बढ़ी है.’ उन्होंने आजिज आकर 15 अगस्त 2008 को बढती हुई आर्थिक गैर-बराबरी पर काबू पाने के लिए देश के अर्थशास्त्रियों के समक्ष एक सृजनशील सोच की मांग कर डाली थी. बढती आर्थिक विषमता से पार पाने के लिए तब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बदलाव की एक नयी क्रांति तक का आह्वान कर दिया था. लेकिन साल दर साल नयी-नयी ऊंचाई  छूती मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से हमारे शासक प्रायः आंखे मूंदे रहे और यह समस्या 2014 के बाद एक्सट्रीम को छूने लगी.

मोदी- राज में शिखर को छुई: आर्थिक और सामाजिक विषमता!                  

मोदी- राज में जो आर्थिक विषमता  रॉकेट गति से बढ़नी शुरू हुई, उसका दुखद परिणाम  22 जनवरी, 2018 को प्रकाशित ऑक्सफाम की रिपोर्ट में सामने आया. उस रिपोर्ट से पता चला  है कि टॉप की 1% आबादी अर्थात 1 करोड़ 3o लाख लोगों सृजित धन-दौलत पर 73 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है. इसमें मोदी सरकार के विशेष योगदान का पता इसी बात से चलता है कि सन 2000 में 1% वालों की दौलत 37 प्रतिशत थी, जो बढ़कर 2016 में 58.5 प्रतिशत तक पहुच गयी. अर्थात 16 सालों में टॉप के एक प्रतिशत वालों की दौलत में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. किन्तु उनकी 2016 की 58.5 प्रतिशत दौलत सिर्फ एक साल के अन्तराल में 73% हो गयी अर्थात सिर्फ एक साल में 15% का इजाफा हो गया. इन टॉप के प्रतिशत वालों में 99 प्रतिशत जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के लोग होंगे , यह बात दावे के साथ कही जा सकती है. इसके वैश्विक धन बन्वारे पर अध्ययन करने वाली ‘क्रेडिट सुइसे’ की अक्तूबर 2015 में प्रकशित रिपोर्ट में कहा गया था कि टॉप के एक प्रतिशत लोगों के हाथ में 57 प्रतिशत दौलत है, जबकि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी 4.1 प्रतिशत दौलत पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त है. और दिसंबर 2021 में  लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ प्रकाशित हुई है, उसमे फिर भारत में वह भयावह असमानता सामने आई है, जिससे वर्षों से उबरने की चेतावनी बड़े- बड़े अर्थशास्त्री देते रहे हैं. इस रिपोर्ट से साबित हो गया है कि भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक, जहाँ एक ओर गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर एक समृद्ध अभिजात वर्ग और ऊपर हो रहा है.विश्व असमानता की पिछली रिपोर्ट से दुनिया के अर्थशास्त्री और हम शर्मसार हैं !

आर्थिक और सामाजिक विषमता के चौकाने वाले दो पक्ष   बहरहाल यह तह है भारत में मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के विकराल रूप धारण करने से निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री सहित विविध तरीके शक्ति के समस्त जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथ सौपने पर आमादा  मोदी सरकार  पूरी तरह निर्लिप्त है और गोदी मीडिया विकास की आकर्षक तस्वीर दिखा कर भीषणतम रूप से फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता से ध्यान हटाने में सर्व शक्ति लगा रही है. ऐसे में समता-प्रेमी मार्क्सवादियों, लोहियावादियों और खासकर आंबेडकरवादियों का फर्ज बनता है कि इस समस्या से पार पाने की दिशा में ठोस कदम बढ़ाएं. इसके लिए आर्थिक सामाहिक विषमता की स्थिति का नए सिरे से आंकलन कर सम्यक कदम उठायें. आर्थिक और सामाजिक विषमता की सर्वाधिक शिकार : आधी आबादी   भारत में भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक गैर- बराबरी  के चौकाने वाले दो पक्ष नजर आते हैं. इनमें सबसे बड़ा एक  पक्ष यह है कि इस समस्या की  विकरालता बढ़ाने वाले सकल जनसंख्या के 7.5 प्रतिशत सवर्ण हैं, जो शासकों द्वारा इस समस्या के खात्मे की दिशा में सम्यक प्रयास न किये जाने के कारण लगभग 80 से 85 प्रतिशत शक्ति के स्रोतों का भोग कर रहे हैं. इसका दूसरा और सबसे स्याह पक्ष यह है कि देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं इससे सर्वाधिक पीड़ित है. भारत की आधी आबादी इससे किस कदर पीड़ित है, इसका अनुमान पिछले वर्ष आई ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022  मे बताया गया कि भारत की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल लग जायेंगे. यह आंकड़ा आम भारतीय महिलाओं का है. यदि आम भारतीय महिलाओं को 257 साल लगने हैं तो दलित महिलाओं को 300 साल से अधिक लगना तय  है. भारी अफ़सोस की बात है कि पिछले दिनों हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी ने ‘विश्व असमानता रिपोर्ट – 2022’ और ‘ ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2022 ’ की रिपोर्ट पर एक शब्द भी नहीं बोला. जबकि गोल्बल जेंडर गैप रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि आर्थिक और सामाजिक विषमता- जन्य समस्या का सबसे बड़ा शिकार भारत की आधी आबादी है और उसे आर्थिक समानता पाने में 300 साल से अधिक लगने है, उससे बड़ी समस्या आज विश्व में कोई नहीं. अगर आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है तो आज की तारीख में इस समस्या की सर्वाधिक शिकार भारत की आधी आबादी ही  है. इसलिए भारत में समानता की लड़ाई लड़ने वालों की प्राथमिकता में आधी आबादी के आर्थिक समानता की लड़ाई होनी चाहिए.         अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में लागू हो रिवर्स प्रणाली! वर्तमान में मोदी सरकार द्वारा लैंगिक समानता के मोर्चे पर जो कार्य किया जा रहा है, उससे भारत में लैंगिक समानता अर्जित करना एक सपना ही बना रहेगा. कमसे कम कम आर्थिक और शैक्षिक मोर्चे पर तो दलित, आदिवासी, पिछड़े वंचित वर्गों की महिलाओं को समानता दिलाने में सदियों लग जाना तय है. ऐसे में यदि कुछेक दशकों के मध्य हम इच्छित लक्ष्य पाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे.  सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात में लाना होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त(सरप्लस) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो. दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में घोषित हो आधी आबादी का पहला हक़. चूंकि अति दलित महिलाएं असमानता का सर्वाधिक और अग्रसर सवर्ण महिलाएं न्यूनतम शिकार हैं, इसलिए ऐसा करना होगा कि सवर्णों का छोड़ा 70 प्रतिशत अतिरिक्त अवसर सबसे पहले अतिदलित महिलाओं को मिले. इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा. पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जेनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है. यदि हमें 300 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के  रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा. शक्ति के स्रोतों के बंटवारे में मिले: अनग्रसर समुदायों के  महिलाओं को प्राथमिकता ! हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जेनरल अर्थात सवर्ण – को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों – में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की अनग्रसर महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा. इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अति दलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी; अति पिछड़े और अग्रसर पिछड़े ;  अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा. इस सिलसिले में निम्न क्षेत्रों में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की अनग्रसर अर्थात पिछड़ी महिला आबादी को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी सुलभ कराना सर्वोत्तम उपाय साबित हो सकता है-:1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों; 2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी; 4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; 5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों,  विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन; 6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि; 7- देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ)को दी जानेवाली धनराशि; 8-प्रिंट व् इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों; 9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं 10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधासभा की सीटों;राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि…   यदि हम उपरोक्त क्षेत्रों में क्रमशः अनग्रसर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 300 वर्षों के बजाय 30 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा. तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के चार आयामों में से तीन आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा,  महिलाओं की शिक्षा और तीसरा , राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- में आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें.उपरोक्त तीन आयामों पर सफल होने के बाद वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल में स्वयं सक्षम हो जाएँगी. यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खात्मे में तो सफल हो ही सकते हैं, इसके साथ ही भारत में भ्रष्टाचार को न्यूनतम बिन्दू पर पहुचाने , लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण, नक्सल/ माओवाद के खात्मे, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, आरक्षण से उपजते गृह-युद्ध को टालने , सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, ब्राह्मणशाही के खात्मे और सर्वोपरि विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने जैसे कई अन्य मोर्चों पर भी फतेह्याबी हासिल कर सकते हैं. अवसरों और संसाधनों पर भारत के महिलाओं को प्राथमिकता देने की लड़ाई का मन बाते समय जरा अतीत का सिंहावलोकन कर लेना होगा. तो इसलिए जरुरी है अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में महिलाओं का पहला हक़ ! स्मरण रहे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी यह कहकर राष्ट्र को चौका दिया था कि संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है. वह बयान उन्होंने मुस्लिम समुदाय की बदहाली को उजागर करने वाली सच्चर रिपोर्ट के 30 नवम्बर, 2006 को संसद के पटल पर रखे जाने के कुछ ही दिन बाद 10 दिसंबर,2006 को राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) की बैठक में दिया था. एनडीसी की उस बैठक में उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्गों और विशेषकर मुसलमानों का है. डॉ. सिंह के उस बयान का कांग्रेस ने भी समर्थन किया था। उनका वह बयान उस वक्त आया था, जब कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित थे. लिहाजा उनके उस बयान ने काफी तूल पकड़ लिया। भाजपा ने पूर्व प्रधानमंत्री के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताई थी। उसके बाद एनडीसी का मंच राजनीति का अखाड़ा बन गया था और उसी मंच से भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री के बयान का कड़ा विरोध जताया था. विरोध इतना बढ़ गया था कि बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रवक्ता संजय बारू को मनमोहन सिंह के बयान पर सफाई देनी पड़ गयी थी. उन्हें कहना पड़ा था कि प्रधानमंत्री अल्पसंख्यकों की बात कर रहे थे, केवल मुसलमानों की नहीं। तब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह ने मनमोहन सिंह के बयान को देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बताया था नरेन्द्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह की कड़ी आपत्ति के कुछ अंतराल बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान पर निशाना साधते हुए कहा था कि केंद्र सरकार अपने स्वार्थों के लिए सरकारी खजाने पर अल्पसंख्यकों का हक़ बताकर अलगाववाद और अल्पसंख्यकवाद को हवा दे रही है. लोग सोच सकते हैं बात आई गयी हो गयी होगी. किन्तु नहीं ! 2006 मे पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा कही गयी उस बात को भाजपा के लोग आज भी नहीं भूले हैं: वे मौका माहौल देखकर समय-समय पर कांग्रेस और डॉ. सिंह को निशाने पर लेते रहे हैं. इसी क्रम में अभी 30 जनवरी, 20 19  को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चे के राष्ट्रीय सम्मलेन में कह दिया,’जो लोग दावा करते थे कि संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है, उन्होंने उनके हक़ के लिए कुछ नहीं किया. जबकि हमारा मानना है देश के संसाधनों पर पहला हक़ गरीबों का है.अमित शाह के दो दिन बाद 1 फ़रवरी, 2019 को बजट पेश करते हुए केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने फिर एक बार मनमोहन सिंह पर अप्रत्यक्ष रूप से निशाना साधते एवं भाजपा के रुख से अवगत कराते हुए कह दिया,’संसाधनों पर पहला हक़ गरीबों का है.कहने का मतलब कि अवसरों और संसाधनों पर पहला हक़ किनका हो, यह सवाल उठ चुका है. अब 2021 में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट रिपोर्ट ने यह बताकर कि भारत की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 300 साल से अधिक लगने हैं : इस बहस का अंत कर दिया है कि अवसरों और संसाधनों पर पहला हक़ किनका और क्यों ?    

हिंदुत्व के पक्षधर नहीं थे डॉ. अंबेडकर, पूर्व आईपीएस अधिकारी ने खोली आरएसएस की पोल

एक समाचार-पत्र के अनुसार इस बार आरएसएस दलितों को जोड़ने के लिए एक बड़ा कार्यक्रम करने जा रहा है। इसके अनुसार पहली बार अंबेडकर जयंती पर देशभर की शाखाओं में फोटो पर पुष्प अर्पित किए जाएंगे। अंबेडकर जयंती यानी 14 अप्रैल को शाखाओं में खासतौर पर डॉ. भीमराव अंबेडकर के उन बयानों के बारे में बताया जाएगा, जिसमें राष्ट्र भक्ति के साथ हिंदुत्व को बल मिलता है। संघ 11 बिंदुओं से अंबेडकर के हिंदुत्व को समझाएगा। अतः संघ द्वारा डा. अंबेडकर के प्रचारित/प्रसारित किए जाने वाले विचारों/बिंदुओं के सही अथवा गलत होने का विश्लेषण किया जाना जरूरी है। इसी दृष्टि से  संघ द्वारा अंबेडकर के हिन्दुत्व को समझाने हेतु चुने गए 11 बिन्दुओं पर टिप्पणी जरूरी है, जो निम्नवत हैं:
  1. धार्मिक आधार पर बंटवारे को लेकर अंबेडकर ने अपनी किताब थॉट्स ऑन पाकिस्तान में कांग्रेस को मुस्लिम परस्त बताते हुए आलोचना की थी।
टिप्पणी:  यह कथन  गलत है। अंबेडकर ने संदर्भित पुस्तक में कांग्रेस के मुस्लिम परस्त होने की जगह कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग के साथ प्रथम चुनाव में चुनाव पूर्व वादे के अनुसार सत्ता में हिस्सेदारी न दे कर तथा अकेले सरकार बना कर मुस्लिम लीग को अलगाव में डालने की बात कही है जिससे कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दूरी और अविश्वास बढ़ा और वह पाकिस्तान की मांग की ओर दृढ़ता से बढ़ने लगी।    
  1. समान नागरिक संहिता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने स्पष्ट किया था कि मैं समझ नहीं पा रहा हूं, समान नागरिक संहिता का इतना विरोध क्यों हो रहा है।
टिप्पणी:  यह बात सही है कि डा. अंबेडकर समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे परंतु इसका व्यापक विरोध होने के कारण वे इस बारे में कुछ कर नहीं पाए। उस समय यह आम राय बनी थी कि इसमें जबरदस्ती करने की बजाए आम सहमति, जब भी संभव हो, बनाई जाए। क्या आरएसएस इस बात को भी बताएगी कि जब डा. अंबेडकर हिन्दू महिलाओं को अधिकार दिलाने वाला हिन्दू कोडबिल लेकर आए थे तो उन्होंने तथा हिन्दू महासभा ने इस बिल का कितना कड़ा विरोध किया था? उन्होंने डा. अंबेडकर को हिन्दू विरोधी तथा अछूत के रूप में हिन्दू परिवारों को तोड़ने वाला कहा था तथा उन्हें जान से मारने की धमकी तक दी गई थी। संविधान सभा में सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा कांग्रेस के हिन्दू सदस्यों के व्यापक विरोध तथा नेहरू द्वारा 1952 के चुनाव के आसन्न होने के कारण इसको पास नहीं कराया गया जिस पर डा. अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। क्या देश में ऐसी कोई उदाहरण है जब किसी मंत्री ने महिलाओं के अधिकारों के लिए इस्तीफा दिया हो? आरएसएस को अपने विरोध के इतिहास को भूल कर केवल मुसलमानों के विरोध की बात नहीं करनी चाहिए। इस संबंध में व्यापक सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। इस बारे में मुस्लिम समाज को भी खुले दिमाग से विचार करना चाहिए।     
  1. जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 का उन्होंने जबरदस्त विरोध किया था। राष्ट्रवाद की अवधारणा में अखंड राष्ट्रवाद के पक्षधर थे।
टिप्पणी:  यह बात सही है कि डा. अंबेडकर जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के पक्षधर नहीं थे। अतः उन्होंने संविधान में इस धारा को ड्राफ्ट नहीं किया था। परंतु डा. अंबेडकर हिंदुवादी अखंड राष्ट्रवाद के पक्षधर नहीं थे बल्कि भारत के विभाजन के खिलाफ थे। उनका यह दृढ़ मत था कि हमें प्रयास करके मुस्लिम लीग को स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव होने के डर को निकाल कर पाकिस्तान की मांग छोड़ देने के लिए मनाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए। आज आरएसएस मुसलमानों/ईसाइयों एवं अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव एवं उत्पीड़न की जो नीति अपना रही है क्या यह देश की एकता एवं अखंडता के लिए सही है?  
  1. राष्ट्रवाद की अवधारणा का हमेशा समर्थन किया, उन्होंने संपूर्ण वांग्मय के खंड-5 में लिखा है कि मैं जिऊंगा और मरूंगा हिंदुस्तान के लिए।
टिप्पणी:  डा. अंबेडकर ने कभी भी आरएसएस ब्रांड हिंदुवादी राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया था। उनका राष्ट्रवाद सभी नागरिकों की स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की अवधारणा पर आधारित था परंतु आरएसएस की विचारधारा इसके बिल्कुल विपरीत है। वे किसी भी प्रकार के नस्लीय एवं धार्मिक भेदभाव पर आधारित राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। उन्होंने कहा था, “कुछ लोग कहते हैं कि वे पहले हिन्दू, मुसलमान या  सिख हैं और बाद में भारतीय हैं। परंतु मैं शुरू से लेकर आखिर तक भारतीय हूँ।“
  1. 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने वामपंथी विचारधारा का जबरदस्त विरोध किया था।
टिप्पणी:  यह कथन एक दम असत्य है। उन्होंने अपने भाषण में कहीं भी वामपंथ का विरोध नहीं किया था। उन्होंने अपने भाषण में सभी प्रकार के अधिनायकवाद का विरोध किया था चाहे वह सर्वहारा का अधिनायकवाद ही क्यों न हो। डा. अंबेडकर अपने राजनीतिक चिंतन में सोशलिस्ट (समाजवादी) थे। डा. अंबेडकर वास्तव में लिबरल डेमोक्रेट (उदारवादी लोकतांतन्त्रिक) थे। वे स्टेट सोशलिस्म (राजकीय समाजवाद) के प्रबल पक्षधर थे। उनके राजकीय समाजवाद की पक्षधरता की सबसे बड़ी उदाहरण उनके अपने संविधान के मसौदे जो “राज्य एवं अल्पसंख्यक” पुस्तिका के रूप में छपी है, में मिलती है। इसमें उन्होंने सारी कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर सामूहिक खेती की मांग की थी। इसके अतिरिक्त वे बीमा के राष्ट्रीयकरण तथा सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य बीमा के भी पक्षधर थे जबकि आज आरएसएस चालित भाजपा सरकार इन  सबके निजीकरण में जुटी हुई है।        
  1. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने पंथ निरपेक्ष राष्ट्र पर RSS के समान विचार रखे थे।
टिप्पणी:  डा. अंबेडकर पंथ निरपेक्ष नहीं बल्कि धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के पक्षधर थे। डा. अंबेडकर धर्म के राजनीति में प्रवेश के विरोधी थे। वे धर्म को एक निजी विश्वास मानते थे और राज्य के कार्यों से इसे दूर रखने के पक्षधर थे। आरएसएस डा. अंबेडकर को पंथ निरपेक्ष राष्ट्र का पक्षधर बता कर अपनी हिन्दुत्व की राजनीति एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना को उचित ठहराना चाहती है।   
  1. हिंदू एकता का प्रबल समर्थन करते हुए बाबा साहब ने अपनी जीवनी में लिखा है कि मुझमें और सावरकर में एक केवल सहमति ही नहीं, बल्कि सहयोग भी है। हिंदू समाज को एकजुट और संगठित किया जाए।
टिप्पणी:  यह कथन बिल्कुल असत्य है। बाबासाहेब ने अपनी जीवनी में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है। यह भ्रम बाबासाहेब द्वारा सावरकर के निमंत्रण पत्र के उत्तर में लिखे पत्र को गलत ढंग से पेश करके पैदा किया जा रहा है। अतः पत्र पूरी तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि पाठकों को सावरकरियों की बौद्धिक बेईमानी का पता चल सके। इसमें लिखा था: “अछूतों के लिए रत्नागिरी किले पर मंदिर खोलने के लिए मुझे आमंत्रित करने के लिए आपके पत्र के लिए बहुत धन्यवाद। मुझे बहुत खेद है कि पूर्व व्यस्तता के कारण, मैं आपका निमंत्रण स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं, हालांकि, सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में आप जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के इस अवसर पर मैं आपको अवगत कराना चाहता हूं। जब मैं अछूतों की समस्या को देखता हूं, तो मुझे लगता है कि यह हिंदू समाज के पुनर्गठन के सवाल से गहराई से जुड़ा हुआ है। यदि अछूतों को हिन्दू समाज का अंग होना है तो अस्पृश्यता को दूर करना ही काफी नहीं है, उसके लिए आपको चतुर्वर्ण्य को नष्ट करना होगा। यदि उन्हें अभिन्न अंग नहीं बनना है, यदि उन्हें केवल हिंदू समाज का परिशिष्ट होना है, तो जहां तक मंदिर का संबंध है, अस्पृश्यता बनी रह सकती है। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि आप उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने इसे महसूस किया है। यह कि आप अभी भी चतुर्वर्ण्य के शब्दजाल का उपयोग करते हैं, हालांकि आप इसे योग्यता के आधार पर उचित बताते हैं, दुर्भाग्यपूर्ण है। हालाँकि, मुझे आशा है कि समय के साथ आपमें इस अनावश्यक और शरारती शब्दजाल को छोड़ने का पर्याप्त साहस होगा।“ इससे स्पष्ट है कि इस पत्र में डा. अंबेडकर चतुर्वर्ण को समाप्त करने के बाद ही अछूतों के हिन्दू समाज में समावेश की संभावना व्यक्त करते हैं जबकि सावरकार छुआछूत समाप्त करने हेतु केवल मंदिर प्रवेश की बात करते हैं। इससे स्पष्ट है कि अछूत समस्या के बारे में दोनों के नजरिए एवं कार्यनीति में जमीन आसमान का अंतर है।     
  1. जातिगत भेदभाव मिटाने के मसले पर संघ और अंबेडकर के विचार पूरी तरह से एक है।
टिप्पणी:  यह कथन बिल्कुल गलत है क्योंकि जातिगत भेदभाव मिटाने के मसले पर संघ और अंबेडकर के विचार पूरी तरह से भिन्न हैं। बाबासाहेब जाति विनाश के पक्षधर थे जबकि संघ जातियों को नष्ट नहीं बल्कि जाति समरसता (यथास्थिति ) का पक्षधर है। संघ मनुस्मृति को हिंदुओं का पवित्र ग्रंथ मानता है जबकि बाबासाहेब इसे घोर दलित विरोधी ग्रंथ मानते थे। इसी लिए उन्होंने 25 दिसंबर, 1927 को इसका सार्वजनिक दहन भी किया था। संघ जातिव्यवस्था को कायम रखते हुए हिन्दुत्व (हिन्दू राजनीतिक विचारधारा) के माध्यम से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में जी जान से लगा हुआ है जबकि बाबासाहेब हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कट्टर विरोधी थे। वास्तव में, डॉ. अम्बेडकर 1940 में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि “यदि हिंदू राज एक सच्चाई बन जाता है, तो निस्संदेह, यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी… [यह] स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है। इस हिसाब से यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।“
  1. बाबा साहब भारतीय संस्कृति पर पूरा विश्वास रखते थे।
टिप्पणी:  इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबासाहेब भारतीय संस्कृति पर पूरा विश्वास रखते थे परंतु वह संस्कृति आरएसएस द्वारा परिभाषित संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। आरएसएस भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में परिभाषित करता है जबकि भारतीय संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। इससे में हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, पारसी आदि संस्कृतियों का समुच्चय है। आरएसएस हिन्दू संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से श्रेष्ठ मानता है।
  1. बाबा साहब इस्लाम और ईसाइयत को हमेशा विदेशी धर्म मानते रहे।
टिप्पणी:  यह सही है कि बाबासाहेब इस्लाम और इसाइयत को विदेशी धर्म मानते थे परंतु उन्होंने इन धर्मों को कभी भी हेय दृष्टि से नहीं देखा। यह अलग बात है कि उन्होंने भारत में इन धर्मों में व्याप्त बुराइयों जैसे जातिभेद आदि की आलोचना की, उसे हिन्दू धर्म की  छूत माना और उन्हें उन धर्मों को मूल भवना के अनुसार सुधार करने के लिए भी कहा। बौद्ध धर्म को अपनाने में भी उन्होंने राष्ट्रहित को ही ऊपर रखा था।
  1. बाबा साहब आर्यों को भारतीय मूल का होने पर एकमत थे।
टिप्पणी:   यह बात सही है कि बाबासाहेब ने “शूद्र कौन और कैसे” पुस्तक में कहा है कि आर्य लोग भारतीय मूल के थे। उनका यह अध्ययन उस समय तक उपलब्ध जानकारी पर आधारित था। परंतु इसके बाद विभिन्न नस्लों के डीएनए के अध्ययन से पाया गया है कि आर्य जाति का डीएनए ईरान और अन्य यूरपीय नस्लों से मिलता है जो निश्चित तौर पर मध्य एशिया से आए थे। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आरएसएस द्वारा 14 अप्रैल से चलाया जाने वाला बौद्धिक कार्यक्रम डा. अंबेडकर के विचारों को गलत ढंग से अपने पक्ष में दिखा कर उन्हें हिन्दुत्व के पक्षधर के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास है जबकि डा. अंबेडकर और संघ की विचारधारा में जमीन आसमान का अंतर है।  

इस दलित उद्यमी को खास तरह के जूते के लिए मिला इंटरनेशनल पेटेंट

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विषम परिस्थितियों में भी दलित उद्यमी अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ने में सफल हो रहे हैं। ऐसे ही एक युवा हैं उपेंद्र रविदास, जो कि मूलत: बिहार के रहनेवाले हैं लेकिन देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में अपना कारोबार करते हैं। इनकी कंपनी का नाम है रविदास इंडस्ट्रीज लिमिटेड। हाल ही में उपेंद्र रविदास ने एक नये तरह के जूते का अंतरराष्ट्रीय पेटेंट हासिल किया है। यह जूता खास तौर पर किसानों और उन मजदूरों के लिए है जो पानी में काम करते हैं। 

यह पूछने पर कि इस तरह के जूते बनाने की प्रेरणा कहां से मिली, उपेंद्र रविदास बताते हैं कि उनकी कंपनी मुख्य रूप से सेफ्टी जूते ही बनाती है। इसी क्षेत्र में हमारी विशेषज्ञता भी है। वह कहते हैं कि फैशनेबुल जूते व चप्पल बनाने के काम में तो सभी लगे हैं, लेकिन हम तो मिहनतकश लोगों के लिए काम करते हैं।

नये तरह के जूतों के बारे में उन्होंने बताया कि यह एक खास तरह का जूता है जो है तो गम बूट के जैसा ही, लेकिन यह रबर का है और इसके अंदर पाइप की व्यवस्था की गयी है ताकि उसके अंदर हवा रहे। यह जूता उनके लिए है जो लंबे समय तक पानी में काम करते हैं। ऐसे लोगों को सांप व अन्य विषैले जंतुओं का खतरा रहता है। इसके अलावा गांवों में जोंक आदि का डर भी रहता है। यह जूता उन सफाईकर्मियों के लिए भी है जो सीवर वगैरह में उतर कर काम करते हैं। अभी तक जो जूते इस्तेमाल में लाए जाते हैं, उनमें खामी यह है कि वे उपर से खुले होते हैं और उनके अंदर पानी घुस जाता है। लेकिन जिस जूते के डिजायन का हमें पेटेंट मिला है, और जिसका उत्पादन हमलोगों ने शुरू कर दिया है, उसमें व्यवस्था है कि पानी जूते के अंदर ना जाय। 

बताते चलें कि महज आठवीं पास उपेंद्र रविदास ने कोलकाता में अपने पिता के साथ मिलकर जूते गांठने का काम शुरू किया और बाद में मुंबई चले गए। वहां उन्होंने सेफ्टी जूतों के कारोबार में हाथ आजमाया और खुद को सफल साबित किया। अपने पारंपरिक पेशे को अपनाने के संबंध में उपेंद्र कहते हैं कि यदि हमारे पास हुनर है तो हम इसका उपयोग क्यों ना करें। हमें अपने पारंपरिक हुनर को आज के बाजार के अनुसार विकसित करना चाहिए और इसमें कोई बुराई नहीं है।

जाति के सवाल पर डॉ. अंबेडकर के विचार और आज के हालात

– उदित राज, पूर्व सदस्य, लोकसभा

बाबासाहब डॉ. बी. आर. अंबेडकर की  131वीं जयंती मनाई जा रही है। जाति व्यवस्था पर उनके नजरिए को देखना जरूरी पड़ जाता है जब हम देखते हैं कि हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जाति की भूमिका किस तरह निर्णायक रही है। बाबासाहब चाहते थे कि भारत जाति मुक्त बने। लेकिन हो रहा है इसके विपरित। जाति के सवाल पर जितना उन्होंने विमर्श किया उतना किसी और ने नहीं किया। देश में बड़े आंदोलन हुए और चल भी रहे हैं, लेकिन जाति के सवाल पर सब चुप रहते हैं या टाल जाते हैं।

डॉ. अंबेडकर ने 1936 में “जाति प्रथा का विनाश” पुस्तक लिखी। सन् 1936 में उन्हें जात पात तोड़क मंडल के लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता करने का आमंत्रण मिला और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। दुर्भाग्य से जात पात तोड़क मंडल ने सम्मलेन को निरस्त कर दिया। उन्हें पता लग गया था कि जाति के विमर्श पर डा अंबेडकर पूर्ण बौद्धिक ईमानदारी से बात रखने वाले हैं। वे हिंदू धर्म की कुरीतियां को नष्ट करने के लिए बोलेंगे। जिस आधार पर जाति का निर्माण हुआ, उसके विनाश की बात करेंगे। 

इस डर से ही आयोजकों ने सम्मलेन को निरस्त कर दिया। इससे बाबासाहब बहुत दुखी हुए और जो वहां बोलने वाले थे, उसको उन्होंने किताब का रूप दिया जो “जाति का विनाश” के रूप में प्रकाशित किया। यह एक अति चर्चित दस्तावेज है।

स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े-बड़े नेता इस सवाल को टाल गए । बाबासाहेब की चिंता थी कि देश आजाद हो भी गया तब भी  दलित, पिछड़े और महिलाएं मनुवादियों के गुलाम रहेंगे। जातियों में बटे होने से भारत बार-बार युद्ध हारा और गुलाम होता रहा। इसके अतरिक्त उनका मानना था कि प्रत्येक जाति अपने आप में एक राष्ट्र है और इसके रहते भारत में कभी भी मज़बूत जनतंत्र स्थापित नही हो सकेगा, जो कि आज सच है। जब तक जाति भक्ति है, राष्ट्रभक्ति की बात करना बेइमानी है। बिना जाति के क्या मूलभूत समस्याओं पर  कभी चुनाव हुआ है या होने वाला है? उत्तर है, कदापि नही!

कांग्रेस पार्टी की स्थापना के समय सामाजिक विषय को तो लिया लेकिन समयांतराल राजनैतिक  विमर्श पर पूरा जोर दे दिया। कम्युनिस्ट भी इस विषय पर गौर नही दे सके। इनका मानना था की शिक्षा और औद्योगिककरण से अपने आप जाति ख़त्म हो जाएगी। दोहरे चरित्र वाला मध्यम वर्ग तो बेशर्मी से वकालत करता रहा है  कि जाति तो गुजरे जमाने की बात हो गई जबकि वो खुद  शादी-विवाह और खान-पान स्वयं की जाति में करता हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया या जिन अखबारों में वैवाहिक विज्ञापन ज्यादा छपते हैं, उसे कोई देखे तो 90% की मांग जाति में ही रिश्ते का होता है। 

इसके बावजूद यह कहना कि जाति बीते दिनों की बात है, इससे अधिक मानसिक बेइमानी और क्या हो सकती है। मानसिक बेइमानी आर्थिक भ्रष्टाचार से कहीं ज्यादा घातक होता है। शिक्षा, पत्रकारिता , लेखन, कला एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जाति के विनाश में कोई भूमिका नहीं रही और कोई आशा भी नही की जा सकती। यूरोप , अमेरिका आदि समाजों को मध्यम वर्ग प्रगतिशील रहा है और हमारे यहां यथास्थितिवादी है और प्रतिक्रिया भी।

डा. अंबेडकर की चिंता जाति पर प्रहार करने का मात्र दलितों को आजाद कराना ही नहीं था, बल्कि आर्थिक, राजनैतिक और राष्ट्रीयता आदि  के सवालों पर बराबर  सरोकार। हज़ारों वर्ष से उत्पादन , उद्योग, व्यापार में क्यों पीछे रहे, उसके जड़ में सामाजिक व्यवस्था रही है। श्रम करने वालो को नीच और पिछड़ा माना गया और जुबान चलाने और भाषण देने वाले  हुकुमरान रहें है। चमड़ा, लोहा, हथियार , कृषि आदि के  क्षेत्रों जिन्होने पसीने बहाए, उन्हें ही नीच और पिछड़ा माना गया। जिस काम का पारितोषिक ही न मिले तो क्यों कोई उसमे रुचि लेगा या अनुसंधान करेगा।

जितने व्यापक स्तर पर डॉ अंबेडकर की जयंती देश में मनाई जाती है, उतना शायद किसी महापुरुष की होती हो। 10 अप्रैल से न केवल 30 अप्रैल तक  जयंती के कार्यक्रम चलते रहते हैं। यहां तक कि  जून और जुलाई तक कुछ जगहों पर मनाया जाता रहता है। उत्तर भारत में डॉ.अंबेडकर को सबसे ज्यादा कांशीराम जी ने प्रचारित किया।  बीएसपी की स्थापना ही डॉ. अंबेडकर की जयंती के दिन पर किया था। दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों को हुक्मरान बनने की बात कही। कांशीराम जी के मामले दुखद यह रहा कि उन्होंने अपनी सुविधाओं के अनुसार डॉ, अंबेडकर के कुछ विचारों को उद्धृत किया, लेकिन मूल दर्शन को कभी भी नही छुआ। मूल दर्शन था जाति निषेध लेकिन यहां तो जातियों को की गोलबंदी की बात कही। शोषक को सामने रखकर दलितों और पिछड़ों को संगठित किया। भाजपा ने मुसलमानों को दिखाकर हिंदुओं को इकट्ठा किया। बीएसपी ने  सत्ता प्राप्ति की बात की और सारे रोजमर्रा, संवैधानिक , आरक्षण, शिक्षा, जमीन और न्यायपालिका में भागीदारी  आदि के सवाल को छुआ तक नही।  निजीकरण जैसे सवाल पर चर्चा तक नहीं। माना जाता है कि कांशीराम जी से ज्यादा जाति को जितना समझा और समीकरण बनाया उतना इनसे पहले कोई और न कर सका। यह भी कहा कि जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी संख्या भारी। जाति निषेध की बात न तो सिद्धांत में दिखी और न ही व्यवहार में । इसी को लोगों ने बाबा साहेब का मिशन समझ लिया।

2017 में उप्र के चुनाव में जाति की गणित  जितना सटीक बैठाया उसके सामने सब फेल हो गए। एसपी से गैर यादव और बीएसपी से गैर जाटव को खिसका लिया। त्रासदी कहें कि ज्यादा छोटे दल बीएसपी से टूट कर बने थे और वो बीजेपी के लिए  वरदान साबित हुआ। एसपी और बीएसपी ने कुछ ऐसे काम किए कि गैर यादव और गैर जाटव  अपने को ठगा महसूस करने लगे। बीजेपी की समझदारी के सभी जातियों के नेताओं को कुछ न कुछ पकड़ा दिया और क्रीम अपने पास रख लिया। सपा व बीएसपी से निकले लोगों कुछ न कुछ दे  दिया  और सत्ता अपने पास।किसी को विधायक, किसी को सांसद और किसी को और कुछ और शासन – प्रशासन अपने नियंत्रण में।

इससे बड़ा झूठ कोई हो नही सकता जो ये कहे कि जाति खत्म हो गई है । हो सकता है कि कुछ लोग जानबूझकर ऐसा न कर रहे हों  लेकिन एक षड्यंत्र के तहत आज भी जाति पर विमर्श नही हो रहा है। शासक वर्ग इरादतन इस सवाल को झुठलाता है। अब तो दलित  और पिछड़ों के नेता भी विमर्श बात तो दूर की बल्कि जाति व्यवस्था को और मजबूत बनाने में लगे हैं। जाति की गोलबंदी से सांसदी, विधयक और कुछ बन जा रहे हैं। भारत देश का दुर्भाग्य है कि यह कभी खत्म होने वाला नहीं है। जब तक यह सामाजिक व्यवस्था है हमारा अच्छा भविष्य नही है।

जोतिबा फुले की बायोपिक बनाएंगे अनंत महादेवन, फर्स्ट लुक जारी

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दलित-बहुजनों के विमर्श अब भारतीय सिनेमा के केंद्र में शामिल होने लगे हैं। जल्द ही जाेतिबा फुले की जीवनी पर एक फिल्म देखने को मिलेगी। इसके निर्माण की घोषणा फिल्म के निर्देशक अनंत महादेवन ने बीते 11 अप्रैल को जोतिबा फुले की 195वीं जयंती के मौके पर की। इस अवसर पर फिल्म का पोस्टर भी जारी किया गया, जिसमें प्रतीक गांधी और पत्रलेखा हू-ब-हू जोतिबा फुले और सावित्री फुले की तरह ही दिख रहे हैं। 

बताते चलें कि फुले दंपत्ति ने 19वीं सदी के मध्य में साझा तौर पर छुआछूत और जातीय भेदभाव के खिलाफ लम्बे समय तक आंदोलन चलाया। उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना करते हुए शूद्र व अतिशूद्र लोगों के लिए समान अधिकारों के लिए संघर्ष किया था। दोनों का महिलाओं को स्कूली शिक्षा दिलाने के क्षेत्र में भी बहुत योगदान है। दोनों ने मिलकर 1848 में महिलाओं के लिए पहला स्कूल खोला था।

जोतिबा फुले के किरदार को निभाने को लेकर बेहद उत्साहित प्रतीक गांधी कहते हैं, “महात्मा फुले का किरदार निभाना और दुनिया के सामने उनके व्यक्तित्व को पेश करना मेरे लिए गौरव की बात है। यह पहला मौका है जब में किसी बायोग्राफ़ी में एक अहम किरदार निभा रहा हूं। इस किरदार को निभाना मेरे लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है, मगर एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व होने के नाते महात्मा फुले के रोल को निभाने को लेकर मैं बहुत उत्साहित हू।” 

प्रतीक कहते हैं, “मुझे याद है कि फिल्म की कहानी सुनने के बाद मैंने तुरंत इस फिल्म में काम करने के लिए हामी भर दी थी। कुछ किरदारों पर किसी का नाम लिखा होता है और मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है कि अनंत सर ने मुझे इसमें काम करने का ऑफर दिया। मुझे बेहद खुशी है कि इसके निर्माताओं ने महात्मा और सावित्री फुले द्वारा सामाजिक बदलाव के लिए समर्पित किये गये जीवन के बारे में आज की पीढ़ी को अवगत कराने का बीड़ा उठया है।”

वहीं सावित्रीबाई फुले का किरदार निभानेवाली अभिनेत्री पत्रलेखा ने कहा, “मेरी परवरिश मेघालय में हुई है। यह एक ऐसा राज्य है जहां पर महिलाओं के हको और फैसलों को पुरुषों से अधिक अहमियत दी जाती है। ऐसे में नारी-पुरुष समानता का विषय मेरे दिल में एक बेहद अहम स्थान रखता है। सावित्री फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में पूरी तरह से घरेलू सहयोग से लड़कियों के लिए एक स्कूल का निर्माण किया था। महात्मा फुले ने विधवाओं के पुनर्विवाह कराने और गर्भपात को नियंत्रित करने के लिए एक अनाथ आश्रम की भी स्थापना की थी। ये फिल्म मेरे लिए एक बहुत खास फिल्म है।”

नरेंद्र मोदी-नीतीश को नहीं याद आए जोतिबा फुले, बसपा प्रमुख सहित इन दलित-बहुजन नेताओं ने रखा याद

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भारत में जाति की राजनीति का सिक्का खूब चलता है। फिर चाहे दल कोई भी हो, सभी जातियों के आधार पर अपने उम्मीदवार और एजेंडे सेट करते हैं। यहां तक कि 2014 में लोकसभा चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी ने खुद को ओबीसी का बेटा कहा था और इसी जातिगत पहचान के आधार पर उन्होंने केंद्रीय राजनीति की शुरूआत की थी। आज भी भाजपा अगर पिछड़ों का वोट पाने में सफल होती है तो इसका कारण पीएम का ओबीसी ही है। 

वैसे ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जो स्वयं ओबीसी समुदाय से न केवल आते हैं, बल्कि ओबीसी की राजनीति भी खूब करते हैं। ओबीसी में अति पिछड़ा का बंटवारा कर उन्होंने लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय के समीकरण को ध्वस्त किया और पिछले डेढ़ दशक से बिहार के सीएम पद पर काबिज हैं।

लेकिन इन दोनों को जोतिबा फुले से कोई सरोकार नहीं है। इन दोनों का मतलब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। इन दोनों ने अपने सोशल मीडिया मंचों पर जोतिबा फुले का नाम तक नहीं लिया है। जबकि इन दोनों को कल रामनवमी की बड़ी याद आयी और दोनों इससे संबंधित संदेश भी जारी किये।

हालांकि यह पहली बार नहीं है जब दलित-बहुजन समाज के बड़े नेताओं ने फुले जैसे महान सुधारक को याद करने से परहेज किया है। 

आइए, अब हम बताते हैं उन बहुजन नेताओं के बारे में जिन्होंने जोतिबा फुले को याद किया। इनमें बसपा प्रमुख मायावती, सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, बिहार में राजद के नेता तेजस्वी यादव और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी शामिल हैं।

बसपा प्रमुख ने अपने संदेश जोतिबा फुले को स्मरण करते हुए लिखा है– “महान समाज सुधारक व शिक्षा के माध्यम से महिला सशक्तिकरण के लिए आजीवन कड़ा संघर्ष, त्याग व तपस्या करके ऐतिहासिक कार्य करने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले को उनकी जयंती पर शत्-शत् नमन एवं उनके समस्त अनुयाइयों को जन्मदिन की हार्दिक बधाई। ऐसे महापुरुष सदा लोगों के दिलों में रहते हैं।”

वहीं अखिलेश यादव ने अपने पार्टी कार्यालय में आयोजित जोतिबा फुले जयंती समारोह में हिस्सा लिया और अपने संबोधन में उनके योगदानों को लेकर विस्तृत चर्चा की। इसके अलावा अखिलेश यादव ने ट्वीटर और फेसबुक पर लिखा– “महान समाज सुधारक, विचारक, दार्शनिक और लेखक महात्मा ज्योतिबा फुले जी की जयंती पर आत्मिक नमन।”

बिहार में राजद नेता तेजस्वी यादव ने जोतिबा फुले को नमन करते हुए लिखा है– “भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक,अस्पृश्यता, ऊँच-नीच और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था का आजीवन विरोध एवं महिलाओं और उपेक्षित वर्गों के उत्थान के लिए संघर्षरत महान समाज सुधारक व सत्यशोधक समाज के संस्थापक महात्मा ज्योतिबा फुले जी की जयंती पर कोटि-कोटि नमन व श्रद्धांजलि।”

वहीं, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या ने अपनी पोस्ट में लिखा है– “लखनऊ आवास पर शिक्षा व सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, सत्य शोधक समाज की स्थापना एवं समता आधारित भारत निर्माण की नींव रखने वाले महामानव ज्योतिवाराव फूले जी की जयंती पर उन्हें पुष्पांजलि अर्पित कर नमन किया i”

इस कोण से समझें फुले-आंबेडकर के विमर्श को

phule-ambedkar

ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब अम्बेडकर का जीवन और कर्तृत्व बहुत ही बारीकी से समझे जाने योग्य है. आज जिस तरह की परिस्थितियाँ हैं उनमे ये आवश्यकता और अधिक मुखर और बहुरंगी बन पडी है.

दलित आन्दोलन या दलित अस्मिता को स्थापित करने के विचार में भी एक “क्रोनोलाजिकल” प्रवृत्ति है, समय के क्रम में उसमे एक से दूसरे पायदान तक विकसित होने का एक पैटर्न है और एक सोपान से दूसरे सोपान में प्रवेश करने के अपने कारण हैं. ये कारण सावधानी से समझे और समझाये जा सकते हैं. 

अधिक विस्तार में न जाकर ज्योतिबा फुले और आम्बेडकर के उठाये कदमों को एक साथ रखकर देखें. दोनों में एक जैसी त्वरा और स्पष्टता है. समय और परिस्थिति के अनुकूल दलित समाज के मनोविज्ञान को पढ़ने, गढ़ने और एक सामूहिक शुभ की दिशा में उसे प्रवृत्त करने की दोनों में मजबूत तैयारी दिखती है. और चूंकि कालक्रम में उनकी स्थितियां और उनसे अपेक्षाएं भिन्न है, इसलिए एक ही ध्येय की प्राप्ति के लिए उठाये गए उनके कदमों में समानता होते हुए भी कुछ विशिष्ट अंतर भी नजर आते हैं. 

ज्योतिबा के समय में जब कि शिक्षा दलितों के लिए एक दुर्लभ आकाशकुसुम था, और शोषण के हथियार के रूप में निरक्षरता और अंधविश्वास जैसे “भोले-भाले” कारणों को ही मुख्य कारण माना जा सकता था– ऐसे वातावरण में शिक्षा और कुरीति निवारण –इन दो उपायों पर पूरी ऊर्जा लगा देना आसान था. न केवल आसान था बल्कि यही संभव भी था. और यही ज्योतिबा ने अपने जीवन में किया भी. क्रान्ति-दृष्टाओं की नैदानिक दूरदृष्टि और चिकित्सा कौशल की सफलता का निर्धारण भी समय और परिस्थितियाँ ही करती हैं. 

इस विवशता से इतिहास का कोई क्रांतिकारी या महापुरुष कभी नहीं बच सका है. ज्योतिबा और उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी आम्बेडकर के कर्तृत्व में जो भेद हैं उन्हें भी इस विवशता के आलोक में देखना उपयोगी है. इसलिए नही कि एक बार बन चुके इतिहास में अतीत से भविष्य की ओर चुने गये मार्ग को हम इस भाँति पहचान सकेंगे, बल्कि इसलिए भी कि अभी के जाग्रत वर्तमान से भविष्य की ओर जाने वाले मार्ग के लिए पाथेय भी हमें इसी से मिलेगा. 

ज्योतिबा के समय की “चुनौती” और आंबेडकर के समय के “अवसर” को तत्कालीन दलित समाज की उभर रही चेतना और समसामयिक जगत में उभर रहे अवसरों और चुनौतियों की युति से जोड़कर देखना होगा. जहां ज्योतिबा एक पगडंडी बनाते हैं उसी को आम्बेडकर एक राजमार्ग में बदलकर न केवल यात्रा की दशा बदलते हैं बल्कि गंतव्य की दिशा भी बदल देते हैं. 

नए लक्ष्य के परिभाषण के लिए आम्बेडकर न केवल मार्ग और लक्ष्य की पुनर्रचना करते हैं बल्कि अतीत में खो गए अन्य मार्गों और लक्ष्यों का भी पुनरुद्धार करते चलते हैं. फूले में जो शुरुआती लहर है वो आम्बेडकर में प्रौढ़ सुनामी बनकर सामने आती है, और एक नैतिक आग्रह और सुधार से आरम्भ हुआ सिलसिला, किसी खो गए सुनहरे अतीत को भविष्य में प्रक्षेपित करने लगता है. 

आगे यही प्रक्षेपण अतीत में छीन लिए गए “अधिकार” को फिर से पाने की सामूहिक प्यास में बदल जाता है.  

इस यात्रा में पहला हिस्सा जो शिक्षा, साक्षरता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जन्माने जैसे नितांत निजी गुणों के परिष्कार में ले जाता था, वहीं दूसरा हिस्सा अधिकार, समानता और आत्मसम्मान जैसे कहीं अधिक व्यापक, इतिहास सिद्ध और वैश्विक विचारों के समर्थन में कहीं अधिक निर्णायक जन-संगठन में ले जाता है. इतना ही नहीं बल्कि इसके साधन और परिणाम स्वरूप राजनीतिक उपायों की खोज, निर्माण और पालन भी आरम्भ हो जाता है. 

यह नया विकास स्वतन्त्रता पश्चात की राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति में बहुतेरी नयी प्रवृत्तियों को जन्म देता है. जो समाज हजारों साल से निचली जातियों को अछूत समझता आया था उसकी राजनीतिक रणनीति में जाति का समीकरण सर्वाधिक पवित्र साध्य बन गया. 

ये ज्योतिबा और आम्बेडकर का किया हुआ चमत्कार है, जिसकी भारत जैसे रुढ़िवादी समाज ने कभी कल्पना भी न की थी. यहाँ न केवल एक रेखीय क्रम में अधिकारों की मांग बढ़ती जाती है बल्कि उन्हें अपने दम पर हासिल करने की क्षमता भी बढ़ती जाती है. 

इसके साथ साथ इतिहास और धार्मिक ग्रंथों के अँधेरे और सडांध-भरे तलघरों में घुसकर शोषण और दमन की यांत्रिकी को बेनकाब करने का विज्ञान भी विकसित होता जाता है. ये बहुआयामी प्रवृत्तियाँ जहां एक साथ एक ही समय में इतनी दिशाओं से आक्रमण करती हैं कि शोषक और रुढ़िवादी वर्ग इससे हताश होकर “आत्मरक्षण” की आक्रामक मुद्रा में आ जाता है.

एक विस्मृत और शोषित अतीत की राख से उभरकर भविष्य के लिए सम्मान और समानता का दावा करती हुयी ये दलित चेतना, इस प्रष्ठभूमि में लगातार आगे बढ़ती जाती है.

बसपा प्रमुख का राहुल गांधी को मुंहतोड़ जवाब

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राजीव गांधी ने बसपा को बदनाम व कमजोर करने के लिए मान्यवर कांशीराम जी को सीआईए का एजेंट तक बता दिया था। और अब उनके ही पदचिन्हों पर चलकर उनके बेटे राहुल गांधी भी गलतबयानी कर रहे हैं। ये बातें बसपा प्रमुख मायावती ने अपने बयान में कही हैं।

बसपा प्रमुख का यह बयान कल राहुल गांधी द्वारा लगाए गए आरोपों के जवाब के रूप में सामने आया है। बसपा प्रमुख ने राहुल गांधी के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि आए दिन, बीजेपी के साथ मिलने का यह कहकर गलत आरोप लगाते रहते हैं कि बसपा की मुखिया बीजेपी की सीबीआई, ईडी व इनकम टैक्स आदि से डरती हैं। इसलिए वह बीजेपी के खिलाफ काफी नरम रहती हैं। इसमें रत्ती भर भी सच्चाई नही है ,जबकि इनको यह मालूम होना चाहिये कि इन सब से जुड़े मामले हमने केंद्र में रही किसी भी पार्टी की सरकार की मदद से नही, बल्कि सभी सरकारों के खिलाफ जाकर माननीय सुप्रीम कोर्ट में जीते हैं।

बसपा प्रमुख ने कहा कि राहुल गांधी बयानों से कांग्रेस पार्टी की विशेषकर दलितों व अन्य उपेक्षित वर्गां के साथ-साथ बसपा के प्रति भी हीन व जातिवादी मानसिकता तथा द्वेष की भावना भी साफ झलकती है। उन्होंने कहा कि यूपी विधानसभा आम चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन करने व मुझे सीएम बनाने के ऑफर पर मैंने उन्हें न कोई जवाब दिया और ना ही इस बारे में उनसे कोई बात की, यह बात पूर्णतयाः तथ्यहीन है। राहुल गांधी के बयान में बसपा के प्रति जबरदस्त बौखलाहट व नफरत नज़र आती है।

इतिहास का उल्लेख करते हुए बसपा प्रमुख ने कहा कि कांग्रेस ने बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के साथ भी राजनीतिक षड्यंत्र किया और विश्वासघात किया। अब उनके मार्ग पर चलनेवाली पार्टी बसपा के साथ भी कांग्रेस वही कर रही है। इससे साफ है कि कांग्रेस भरोसे के लायक नहीं है।

आगे बसपा प्रमुख ने कहा है कि बीजेपी के विरूद्ध राजनीतिक लड़ाई लड़ने में कांग्रेस का अपना रिकार्ड हमेशा ही काफी लचर व ढुलमुल ही रहा है। कांग्रेस पार्टी सत्ता में रहते हुए व सत्ता से बाहर हो जाने के लम्बे समय बाद अब तक बीजेपी व आरएसएस एण्ड कम्पनी से जी-जान से लड़ते हुए कहीं भी नहीं दिखती है, जबकि बीजेपी एण्ड कम्पनी साम, दाम, दण्ड, भेद आदि अनेकों हथकण्डे अपनाकर भारत को कांग्रेस-मुक्त ही नहीं बल्कि विपक्ष-विहीन बनाकर पंचायत से संसद तक चीन जैसा ही एक पार्टी का  सिस्टम बनाकर देश के लोकतंत्र व इसके संविधान को ही खत्म करने पर आतुर है।

बसपा प्रमुख ने सवाल पूछते हुए कहा कि कांग्रेस पार्टी ने पिछला यूपी विधान सभा का चुनाव समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ मिलकर लड़ा था तब यह पार्टी यहां बीजेपी को सत्ता में आने से नहीं रोक पाई थी, ऐसा क्यों हुआ था? इसका भी जवाब जनता को इनको ज़रूर देना चाहिये। कांग्रेस हो या अन्य कोई भी पार्टी हो इनको दूसरी पार्टियों पर कुछ भी कहने से पहले खुद भी अपने गिरेबान में ज़रूर झांककर देख लेना चाहिए।

मोदी सरकार की नजर में डॉ. आंबेडकर की अहमियत गांधी से कम

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मामला अहमियत का है। यह सभी जानते हैं कि नये भारत के निर्माण में बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की भूमिका कितनी अहम है। लेकिन नरेंद्र मोदी हुकूमत की नजर में गांधी अहम हैं। यही वजह है कि भारत सरकार ने एक बार फिर डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर घोषित राष्ट्रीय अवकाश की सूची से अलग इसे क्लोज्ड ‘होली डे’ करार दे दिया है।  इससे संबंधित एक कार्यालय ज्ञापांक बीते 4 अप्रैल, 2022 को भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय (डीओपीटी) द्वारा जारी किया गया। इस ज्ञापांक में कहा गया है कि मंत्रालय ने निगोशिएबुल इंस्ट्रूमेंट एक्ट-1881 के तहत निहित प्रावधानों के अनुसार यह निर्णय लिया है कि अब डॉ. आंबेडकर जयंती के मौके पर अवकाश राष्ट्रीय महत्व का अवकाश न होकर ‘क्लोज्ड होली डे’ होगा।
बताते चलें कि भारत सरकार का कार्मिक मंत्रालय तीन तरह के अवकाशों को मान्यता देता है। इनमें से एक राष्ट्रीय पर्व के अवकाश हैं। इस श्रेणी के तहत स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त), गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) और गांधी जयंती (2 अक्टूबर) के मौके पर घोषित अवकाश हैं। दूसरी श्रेणी के तहत पर्व-त्यौहारों के मौके पर दिये जानेवाले अवकाश शामिल हैं। हालांकि इनमें ही कुछ अन्य महापुरुषों की जयंतियों को भी शामिल किया गया है। तीसरी श्रेणी के तहत ‘क्लोज्ड होली डे’ है। इसी श्रेणी के तहत डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर घोषित किया जानेवाला अवकाश भी है। पहली बार इसकी घोषणा 8 अप्रैल, 2020 को की गई थी। तब से हर साल केंद्र सरकार इसकी समीक्षा करती रही है तथा इसकी घोषणा करती रही है। उल्लेखनीय है कि ‘क्लोज्ड होली डे’ के रूप में डॉ. आंबेडकर की जयंती के अवकाश को शामिल किये जाने संबंधी अधिसूचना सभी केंद्रीय मंत्रालयों व संस्थानों को जारी किया गया है। क्लोज्ड होली डे व राष्ट्रीय पर्व के मौके पर अवकाश के बीच अंतर के सवाल पर वह बताते हैं कि क्लोज्ड होली के मौके पर जिन मंत्रालयों, संस्थाओं में लोगों को काम करना पड़ता है, उनके अलग से भत्ता नहीं दिया जाता है, जैसे 15 अगस्त या 26 जनवरी या 2 अक्टूबर के मौके पर दिया जाता है। 

राहुल गांधी के बिगड़े बोल, बसपा प्रमुख को भी कोसा

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कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आज एक बार फिर अपनी अपरिपक्वता का सबूत दिया। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित संविधान ही हिंदुस्तान का हथियार है। साथ ही उन्होंने यह भी कि संस्थाओं के बिना संविधान का कोई मतलब नहीं है। उन्होंने कहा कि हम यहां संविधान लिए घूम रहे हैं, आप और हम कह रहे हैं कि संविधान की रक्षा करनी है, लेकिन संविधान की रक्षा संस्थाओं के जरिए की जाती है। आज सभी संस्थाएं आरएसएस के हाथ में हैं।

दरअसल, राहुल गांधी दिल्ली जवाहर भवन में भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी और कांग्रेस नेता के. राजू की पुस्तक ‘द दलित ट्रूथ: द बैटल्स फॉर रियलाइजिंग आंबेडकर्स विजन’ के विमोचन समारोह को संबोधित कर रहे थे। इस मौके पर उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने दलित समाज के बारे में सोचना शुरू किया और यह भी बताया कैसे वह सत्ता के बीच में पैदा होने के बाद भी राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते। उन्होंने यह भी कहा कि दलितों के साथ भेदभाव का उल्लेख करते हुए कहा, ‘दलित और उनके साथ होने वाले व्यवहार से सबंधित विषय मेरे दिल से जुड़ा हुआ है। यह उस वक्त से है जब मैं राजनीति में नहीं था।’

अपने संबोधन में राहुल गांधी ने बसपा प्रमुख पर आरोप लगाया कि “वह इस बार चुनाव नहीं लड़ीं और भाजपा को खुला मैदान दे दिया। हमने उनसे गठबंधन करने को लेकर बात भी की और कहा कि मुख्यमंत्री बनिए लेकिन उन्होंने बात तक नहीं की। कांशीराम जी थे जिन्होंने दलितों की आवाज उठाई। मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं, भले ही उन्होंने कांग्रेस को उस वक्त नुकसान पहुंचाया लेकिन उन्होंने दलितों की आवाज उठाई। आज उन्हीं के खून पसीने से बनाई पार्टी की मायावती कहती हैं कि मैं चुनाव ही नहीं लड़ूंगी क्यों… क्योंकि इस बार उनके पीछे ईडी, सीबीआई और पेगासस सब थे।”

इसके अलावा राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर भी निशाना साध और।कहा कि संविधान पर यह आक्रमण उस समय शुरू हुआ था जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सीने पर तीन गोलियां मारी गईं थीं।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बीच इलेक्शन बांड को लेकर बसपा प्रमुख ने दिया बड़ा बयान

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देश में चुनाव लड़ना दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा है। इसका सबसे अधिक शिकार वे पार्टियां हो रही हैं, जो गरीबों का प्रतिनिधित्व करती हैं। जबकि वे पार्टियां जिनके पास चुनावी चंदा अकूत मात्रा में प्राप्त होता है, वे अर्थ बल का जमकर उपयोग करती हैं। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट में इलेक्शन बांड को लेकर सुनवाई शुरू हुई है। इस संबंध बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने सुप्रीम कोर्ट से सकारात्मक हस्तक्षेप की अपेक्षा की है।

दरअसल, देश में पार्टियां चंदे से चलती हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज तमाम कारपोरेट जगत देश की लगभग सभी पार्टियेां को इलेक्शन बांड के रूप में करोड़ों रुपए का चंदा देती हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर)  ने अपनी रपट में बताया है कि पिछले पांच वर्षो में इलेक्शन बांड के जरिए जो धन विभिन्न राजनीतिक दलों को प्राप्त हुए हैं, उनमें सबसे पहले नंबर पर भाजपा है, जिसे करीब 85 फीसदी दान प्राप्त हुए हैं। इसकी वैधानिकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी, जिसकी सुनवाई को लेकर उसने अपनी सहमति दे दी है।

इसी संबंध में बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि कारपोरेट जगत व धन्नासेठों के धनबल के प्रभाव ने देश में चुनावी संघर्षों में गहरी अनैतिकता व असमानता की खाई तथा ’लेवल प्लेइंग फील्ड’ खत्म करके यहाँ लोकतंत्र एवं लोगों का बहुत उपहास बनाया हुआ है। गुप्त ’चुनावी बाण्ड स्कीम’ से इस धनबल के खेल को और भी ज्यादा हवा मिल रही है।

उन्होंने यह भी कहा है कि अब काफी समय बाद मा. सुप्रीम कोर्ट चुनावी बाण्ड से सम्बन्धित याचिका पर सुनवाई शुरू करेगी, उम्मीद की जानी चाहिए कि धनबल पर आधारित देश की चुनावी व्यवस्था में आगे चलकर कुछ बेहतरी हो व चुनिन्दा पार्टियों के बजाय गरीब-समर्थक पार्टियों को खर्चीले चुनावों की मार से कुछ राहत मिले।

मध्य प्रदेश में पत्रकारों को रखा 18 घंटे तक हाजत में, अधनंगा कर थाने में घुमाया

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भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले पहले भी होते रहे हैं। खासकर दलित-बहुजन पत्रकारों पर। लेकिन मध्य प्रदेश में एक ऐसी घटना सामने आयी है, जो अलग हटकर है। दरअसल पुलिस महकमे ने एक पत्रकार और उसके अन्य पत्रकार साथियों को न केवल 18 घंटे तक हाजत में बंद रखा, बल्कि उन्हें अधनंगा कर थाना परिसर में घुमाया। बाद में उन्हें इस हिदायत के साथ छोड़ा गया कि यदि अगली बार भाजपा विधायक केदारनाथ शुक्ल के खिलाफ कोई खबर लिखोगे तो पूरे शहर में नंगा करके घुमाया जाएगा।

गौर तलब है कि दलित-बहुजन पत्रकारों के उत्पीड़न की खबरें आए दिन आती रहती हैं। लेकिन जो सवर्ण पत्रकार मोदी के नाम का राग अलापते रहते हैं उनके साथ ऐसे सुलूक से सभी सकते में हैं। इस तरह की घटना को नये परिदृश्य में भी देखा जा रहा है। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि पत्रकार चाहे किसी भी जाति अथवा मजहब का हो, उसकी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखी जानी चाहिए और यदि इसका उल्लंघन हो तो इसका कड़ा प्रतिवाद आवश्यक है।

लेकिन मध्य प्रदेश के लिहाज से देखें तो यह अलग तरह की घटना है। दरअसल, कनिष्क तिवारी मध्य प्रदेश के सीधी जिले में खबरिया यूट्यवूब चैनल चलाते हैं। बीते दिनों उन्होंने एक स्थानीय भाजपा विधायक केदारनाथ शुक्ल के खिलाफ कुछ खबरें अपने यूट्यूब चैनल पर चला दीं। फिर स्थानीय पुलिस थाने के मुखिया ने दल-बल के साथ कनिष्क तिवारी के दफ्तर पर धावा बोला और उन्हें व उनके सभी साथियों को थाना लाकर हाजत में बंद कर दिया।

कनिष्क ने बताया है कि पुलिस ने उनके साथ मारपीट की। इसके अलावा उन्हें अधनंगा कर थाने में घुमाया गया। इतना ही नहीं, पुलिस थाने के प्रमुख ने अपने मोबाइल से सभी द्विज पत्रकारों की अधनंगी फोटो खींची और स्थानीय विधायक को भेज दी। कनिष्क के मुताबिक यह इसलिए किया गया ताकि विधायक को यह विश्वास हो कि उनके कहने पर पुलिस ने अपनी कार्रवाई को अंजाम दिया है। कनिष्क ने यह भी बताया कि उन्हें इस  शर्त के साथ छोड़ा गया है कि अब वे केदारनाथ शुक्ल के खिलाफ कोई रिपोर्टिंग नहीं करेंगे।

गंगा के बहाने अखिलेश ने मोदी पर साधा निशाना, कह दी यह अटपटी बात

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आपने वे तस्वीरें अवश्य देखी होंगी जब काशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गंगा स्थान कर रहे थे। लेकिन क्या आपको पता है कि गंगा के जिस पानी में वह स्नान करते दीख रहे हैं, वह एक खास तरह का शोधित पानी है जो कि खास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए गंगा में केवल उस घाट पर छोड़ा गया था, जहां उन्हें स्नान करना था? अब इसकी पोल खोली है समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने।

उन्होंने जो कुछ अपने ट्वीट में बताया है, उसके मुताबिक बनारस के रविदास घाट पर गंगा का पानी इतना गंदा है है कि यदि कोई व्यक्ति, जिसकी रोगों से लड़ने की क्षमता औसत से कम है तो वह स्किन कैंसर का शिकार हो सकता है।

दरअसल, अखिलेश यादव ने यह संदेश प्रत्यक्ष रूप से जारी नहीं किया है। लेकिन उन्होंने विश्वमभर नाथ मिश्रा जो कि बनारस के ही रहनेवाले हैं और नदियों के जल की गुणवत्ता पर काम करते हैं, के हवाले से कहा है कि बनारस के रविदास घाट पर गंगा के पानी गुणवत्ता बेहद खराब है।

तकनीकी स्तर पर बात करें तो रविदास घाट पर गंगा के पानी में फीकल कोलिफोम की मात्रा दो करोड़ चालीस लाख के करीब दर्ज किया गया है। जल वैज्ञानिकों के मुताबिक पानी में यदि फीकल कोलिफोम की मात्रा 500 रहे तभी स्नान के योग्य है। स्वच्छ पेयजल में इसकी मात्रा 75 से अधिक नहीं होनी चाहिए।

रविदास घाट, बनारस में गंगा के पानी का हाल

बहरहाल, अखिलेश यादव ने गंगा के पानी की गुणवत्ता को सामने लाकर केंद्र सरकार के नमामि गंगे योजना के क्रियान्वयन और खासकर बनारस में गंगा के नाम पर मचायी गयी लूट को सार्वजनिक कर दिया है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि जो लोग इतने अंधविश्वासी हैं कि इतने गंदे पानी में भी स्नान करने को धार्मिक कर्मकांड मानते हैं, वे उन रैदास की बानी को कब समझेंगे कि मन चंगा तो कठौती में गंगा?

संगठन  बिन सब सून

भारतीय राजनीति में हालांकि यह पहली बार नहीं है और ना ही यह अकेले केवल उत्तर प्रदेश का मामला है। चूंकि उत्तर प्रदेश की अहमियत देश में अधिक रही है और यहां हाल ही में चुनाव संपन्न हुए हैं, लिहाजा उदाहरण के लिए यह देखना बेहतर है। मामला है कि आज की राजनीति किस दिशा में जा रही है और किस तरह से इसका विकेंद्रीकरण और गैरलोकतांत्रिकरण हो रहा है। सवाल यह भी है कि आखिर क्या वजह है कि राजनीति में आगे आनेवाले युवा अब पहले के नेताओं की तरह जनता के बीच पहचाने नहीं जाते?

पहले कुछ आंकड़ों को देखते हैं। एडीआर की हालिया रपट कहती है कि इस बार यूपी विधानसभा में जो नये सदस्य निर्वाचित होकर आए हैं, उनमें से पांच ने यह घोषित किया है कि उनके उपर हत्या का मामला विभिन्न मामलों में लंबित है। वहीं हत्या का प्रयास के मामलों को घोषित करनेवाले विधायकों की संख्या 29 है। इसके अलावा महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों की घोषणा 6 नये विधायकों ने की है। इनमें से एक के उपर बलात्कार का आरोप है। तीन के उपर पाक्सो एक्ट के तहत मामला दर्ज है।

दलवार बात करें तो भाजपा के कुल 255 में से 111 नये विधायकों ने यह घोषित किया है कि उनके गंभीर आरोप अदालतों में लंबित हैं। मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नये सदस्यों की कुल संख्या 111 है और इनमें 71 ने खुद के उपर गंभीर मामले होने की घोषणा की है। राष्ट्रीय लोकदल के कुल 8 में से 7 और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी के 6 में से 4 ने भी इसी तरह घोषणा अपने शपथ पत्र में की है। जनसत्ता लोकतांत्रिक दल और कांग्रेस के दो-दो विधायक हैं। इन सभी ने अपने बारे में यही घोषणा की है।

अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि साफ छवि के लोग राजनीति में नहीं आ रहे हैं। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि यूपी में इस बार जो मतदान हुए, वह पहले की तुलना में कम था। इस बार तो औसतन 52-55 फीसदी ही मतदान हुए। मतलब यह कि इस बार जिसे जनादेश कहा जा रहा है, उसमें करीब-करीब आधे मतदाताओं ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। यानी यह जनादेश आधा-अधूरा जनादेश है। चूंकि भारतीय संविधान में वर्णित प्रावधानों के हिसाब से ऐसा होना विधानसभा के गठन में कोई अड़चन पैदा नहीं करता है तो इस लिहाज से कोई समस्या नहीं है। परंतु, सवाल तो यही है कि आखिर क्या वजह है कि लोग मतदान के लिए इच्छुक नहीं दीखते। साथ ही, वे ना तो सियासत में भागीदारी करना चाहते हैं?

दरअसल, इन सब सवालों का जवाब भारतीय राजनीति के अतीत में ही छिपा है। एक समय था जब देश आजाद हुआ था और लगभग सभी पार्टियों के पास एक ऐसा संगठन होता था जो चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर तो भाग नहीं लेता था, लेकिन उसकी भूमिका बहुत खास होती थी। ठीक वैसे ही जैसे आज के समय में आरएसएस को देखा जा सकता है। यह संगठन स्वयं को गैर-राजनीतिक संगठन के रूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भाजपा को मिलनेवाली जीत का श्रेय सबसे अधिक इसी संगठन को जाता है। 

ठीक ऐसे ही कभी कांग्रेस के पास एक संगठन हुआ करता था– कांग्रेस सेवा दल। कागजी तौर पर यह संगठन आज भी है। एक समय यह वह दल था, जिससे अंग्रेजी हुक्मरान डरते थे। तब इसे फ़ौजी अनुशासन और जज़्बे के लिए जाना जाता है था। कभी कांग्रेस में शामिल होने से पहले सेवादल की ट्रेनिंग ज़रूरी होती थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी की कांग्रेस में प्रवेश सेवादल के माध्यम से ही कराई थी। 

ऐसे ही लोहिया ने एक संगठन बनाया था– समजावादी युवजन महासभा। यह संगठन भी एक सेतु और प्रशिक्षक संगठन भूमिका का निर्वाह करता था। और कौन भूल सकता है जयप्रकाश नारायण का संगठन छात्र संघर्ष वाहिनी, जिसने 1974 के आंदोलन में केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार के साथ जमकर लोहा लिया था? और कौन भूल सकता है 1977 का वह चुनाव, जिसमें बड़ी संख्या में युवा पहली बार निर्वाचित होकर संसद और विधानसभाओं में आए थे?

फिर वह समय आया जब मान्यवर कांशीराम ने डीएस-4 और बामसेफ जैसे संगठन बनाए और हिंदी प्रदेशों में दलित राजनीति का नया अध्याय शुरू किया। बहुजन समाज पार्टी का गठन का आधार भी ये संगठन ही थे। इन संगठनों का असर यह हुआ कि बसपा न केवल यूपी में बल्कि पंजाब सहित अनेक राज्यों में सशक्त हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ सकी। लेकिन यह अतीत की बात है। कांशीराम ने ही डीएस-4 और बामसेफ जैसे संगठनों को छोड़ बसपा पर अपना ध्यान केंद्रित किया। नतीजतन बसपा रोज-ब-रोज कमजोर होती चली गयी। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि आज विधानसभा में बसपा की भागीदारी न्यूनतम हो चुकी है। 

दरअसल, 20वीं सदी में पार्टियों के पास एक संविधान होता था, जिसे नियमावली की संज्ञा भी दी जा सकती है। इस नियमावली में पार्टियों ने यह तय कर रखा था कि कोई कैसे पार्टी की सदस्यता पा सकता है और उसे किस तरह पार्टी के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है। यह एक तरह की प्रक्रिया थी जो नये सदस्यों को सियासत के गुर सिखाती थी। इससे एक फायदा यह भी होता था कि युवा बड़े उत्साह से ऐसे संगठनों में भाग लेते थे।

लेकिन अब यह केवल आरएसएस के अंदर ही है, जिसका लाभ भाजपा को बखूबी मिल रहा है। परंतु, विपक्ष के पास ऐसे संगठन केवल कागज पर हैं। यहां तक कि वामपंथी दलों के संगठन मसलन एआईएसएफ और आइसा जैसे भी पहले की तरह सक्रिय नजर नहीं आते हैं। ऐसे में युवाओं को सियासत से जोड़ने वाली प्रक्रिया बाधित की जा रही है और प्रवेश केवल उन्हें मिल रहा है, जिनके पास विरासत और पैसा है। 

बहरहाल, उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में जो चुनाव परिणाम सामने आए हैं, वे न केवल पराजित विपक्षी दलों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक सबक हैं, जो यह बताते हैं कि राजनीति केवल उनके सहारे नहीं छोड़ी जा सकती है जो पहले से इसके मंजे हुए खिलाड़ी रहे हैं। आज देश और पूरा विश्व नये तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसके लिए बेहतर यही है कि सभी राजनीतिक तमाम क्षेत्रों के युवाओं को राजनीति में जोड़ने के लिए पहल करें ताकि राजनीति रचनात्मक हो सके। यदि ऐसा नहीं होता है तो निश्चत तौर पर यह देश के लिए घातक साबित होगा।

यूपी में हिन्दू राष्ट्र की शुरुआत, योगी सरकार का बड़ा फैसला

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उत्तर प्रदेश से हिन्दू राष्ट्र की आधारशिला रखने की शुरुआत हो गई है। इस कड़ी में सबसे पहले शहरों के नाम बदलने की कवायद की जा रही है। शहरों के नए प्रस्तावित नाम ऐसे हैं कि आप खुद को रामायण और महाभारत काल में पाएँगे।

खबर है कि यूपी सरकार करीब 12 जिलों के नाम बदलने की तैयारी में है। शुरुआत फिलहाल 6 जिलों से होने वाली है। जिन छह जिलों के नाम शुरुआत में बदलने की तैयारी हो रही है, उसमें अलीगढ़, फर्रुखाबाद, सुल्तानपुर, बदायूं, फिरोजाबाद और शाहजहांपुर का नाम शामिल है।

अलीगढ़ को हरिगढ़ या आर्यगढ़, फर्रुखाबाद को पांचाल नगर, सुल्तानपुर को कुशभवनपुर, बदायूं को वेद मऊ, फिरोजाबाद चंद्र नगर और शाहजहांपुर को शाजीपुर किये जाने की योजना है।

योगी आदित्यनाथ के दुबारा सीएम बनने के बाद इस मामले में तेजी आ गई है। गोरखपुर का सांसद रहने के दौरान योगी आदित्यनाथ ने शहर के कई इलाकों के नामों को बदलवा दिया था। इसमें उर्दू बाजार को हिंदी बाजार, हुमायूंपुर को हनुमान नगर, मीना बाजार को माया बाजार और अलीनगर को आर्य नगर कर दिया गया था।

योगी के पिछले कार्यकाल में मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम पं. दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर किया गया, तो इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया गया। सूत्रों के मुताबिक करीब 6 जिले ऐसे हैं, जिन पर अंदरखाने सहमति बन चुकी है और मुहर लग चुकी है। साथ ही, और ठोस ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ प्रपोजल आगामी विधानसभा सत्र में पेश करने की तैयारी है।

दूसरे चरण में जिन जिलों के नाम बदलने की सुगबुगाहट हो रही है, उसमें मैनपुरी, संभल, देवबंद, गाजीपुर, कानपुर और आगरा का नाम लिया जा रहा है।

जहां तक शहरों के नाम बदलने की प्रक्रिया है तो कैबिनेट की मंजूरी के बाद प्रस्ताव को विधानसभा के पटल पर रखा जाता है। यहां से प्रस्ताव पारित होने के बाद राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल की मुहर के बाद नोटिफिकेशन के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास भेजा जाता है।

हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास अधिकार है कि वह इसे स्वीकार या खारिज कर सकता है। लेकिन फिलहाल प्रदेश से लेकर केंद्र तक में तमाम पदों पर भाजपा के लोग बैठे हैं, उसमें इन नामों का बदलना तय माना जा रहा है।

यूपी में चुनाव बाद हिंसा, प्रयागराज में ओबीसी समुदाय के दारोगा पुत्र की दिनदहाड़े हत्या, जौनपुर के दलित बस्ती में गांजा पीने से रोकने पर चला दी गोलियां

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उत्तर प्रदेश में चुनाव खत्म होने के बाद योगी आदित्यनाथ की सरकार की वापसी के साथ ही अपराधियों के हौसले बुलंद हो गए हैं। चुनाव बाद की हिंसाओं में सबसे अधिक शिकार दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हो रहे हैं। बीते 3 अप्रैल को इसी तरह की एक घटना सामने आयी, जिसमें अपराधियों ने प्रयागराज में एक नौजवान की दिनदहाड़े हत्या कर दी। मृतक का नाम आशीष यादव है और उसके पिता बाबूचंद यादव लखनऊ के एक थाने में दारोगा के पद पर कार्यरत हैं।

स्थानीय सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार करीब 22 साल का आशीष सामाजिक कार्यों में दिलचस्पी लेता था और समाजवादी पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था। उसकी हत्या के पीछे चुनावी रंजिश बतायी जा रही है।

वहीं स्थानीय पुलिस के मुताबिक आशीष के उपर तमंचे से जानवेला हमला तब हुआ जब वह इनायरसराय इलाके के पालीकरनपुर चौराहे पर खड़ा था। वह स्वयं भी पालीकरनपुर गांव का रहनेवाला था। मोटरसाइकिल पर सवार दो अज्ञात अपराधियों ने तमंचे से गोलियां चला दी। गोली लगते ही आशीष गिर पड़ा और उसे मरा समझ अपराधी मोटरसाइकिल से भाग निकले। वहीं स्थानीय लोगों ने आशीष को अस्पताल पहुंचाया, जहां चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

इस संबंध में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा है कि भाजपा के दूसरे कार्यकाल में अपराध की रफ़्तार दुगुनी हो गयी है। बैंक लूट, लॉकर चोरी, बलात्कार, गोली कांड और हत्या की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं और अपराधियों की दबंगई चरम पर है। उन्होंने यह भी कहा है कि सूबे में अपराध की बुलेट ट्रेन दौड़ रही है।

बहरहाल, उत्तर प्रदेश में सामंती लोगों का हौसला किस कदर बढ़ गया है, इसकी पुष्टि जौनपुर में परसों हुई एक घटना से भी होती है। मिली जानकारी के अनुसार जौनपुर के एक दलित बहुल गांव के मंदिर में बैठकर गांजा पी रहे दबंगों को जब लोगों ने टोका, दबंगों ने लोगों पर गोलियां चला दी। इस घटना में आधा दर्जन लोग घायल हो गए। उनका इलाज स्थानीय अस्पताल में चल रहा है। इनमें चार की हालत गंभीर बतायी जा रही है।

अनुसूचित जाति अधिकारी कर्मचारियों ने दिखाया बड़ा दिल, जितेंद्र कुमार मेघवाल के परिजनों को दिया सवा तीन लाख का सहयोग

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राजस्थान में दलित कर्मचारियों ने बड़ी एकजुटता दिखायी है। अनुसूचित जाति अधिकारी कर्मचारी एसोसियेशन ( अजाक) की ओर से पाली जिले में बीते 23 मार्च, 2022 को मारे गए जितेंद्र मेघवाल के परिजनों को तीन लाख, 31 हजार रुपए की राशि दी गयी। जाहिर तौर पर यह सहायता मृतक के परिजनों के लिए बड़ी सहायता है और यह इस बात का परिचायक है कि वे पीड़ित परिवार के साथ हैं।

दरअसल, जितेंद्र मेघवाल की हत्या उसके बारवां गांव के ही दो पुरोहित समुदाय के लोगों ने केवल इसी कारण से कर दी कि वह दलित था और उनके सामने झुकने को तैयार नहीं था। यह घटना बीते 23 मार्च, 2022 को तब घटित हुई थी जब वह अपने घर जा रहा था। हत्यारों ने उसे चाकू से गोद-गोदकर उसकी हत्या कर दी थी।

हालांकि राजस्थान सरकार की ओर से भी जितेंद्र कुमार मेघवाल के परिजनों को पांच लाख रुपए दिए जाने की सूचना है। लेकिन राजस्थान के दलित संगठन राज्य सरकार से मांग कर रहे हैं कि जितेंद्र मेघवाल के परिजनों को कम से कम एक करोड़ रुपए और एक आश्रित को सरकारी नौकरी दी जाय।

इसी आशय की मांग अनुसूचित जाति अधिकारी कर्मचारी एसोसियेशन ( अजाक) ने भी की है। इसके साथ ही इस संगठन ने अपनी ओर से आर्थिक सहायता दी। इसके लिए संगठन के सदस्यों ने 3,31,000 रुपए का चेक चेक जितेंद्र के भाई ओमप्रकाश जी मेघवाल तथा चाचाजी भला राम जी मेघवाल को सौंपा। इस मौक़े पर अजाक पाली के पदाधिकारीगण लच्छा राम जी वाघेला,अविनाश जी पंवार, बसंत कुमार जी रॉयल, दौला राम जी मेघवाल , बाबू लाल जी चौहान, मोहन जी कुर्डिया, सुख देव जी देपन, राजेश्वर जी पुनड,प्रदीप जी वर्मा, खीमा राम जी पारगी आदि उपस्थित थे।

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आरएसएस की बड़ी तैयारी, हिमांशु कुमार ने किया खुलासा

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mohan bhagwat

यूपी सहित देश के पांच राज्यों में हुए एक पंजाब को छोड़कर शेष में सरकार बनाने वाली भाजपा इन दिनों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हो गई है। इसमें उसका आरएसएस खुलेआम दे रहा है। यह सब इसलिए है क्योंकि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार है। ये दोनों ओबीसी वर्ग से आते हैं।

बताते चलें कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अगले साल के दिसंबर में चुनाव होने हैं और आरएसएस ने अभी से दोनों राज्यों में अपनी गतिविधियां तेज कर दी है। इस आशय की जानकारी प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने फेसबुक पर जारी अपने एक पोस्ट में दी है।

वे लिखते हैं कि उन्हें राजस्थान से सामाजिक कार्यकर्ताओं ने फोन किया है। उन्हें बताया गया है कि करौली दंगे की तैयारी हिंदुत्ववादी संगठन लंबे समय से कर रहे थे। इन संगठनों के पीछे आरएसएस और बीजेपी का हाथ है। इन लोगों का मकसद राजस्थान में सांप्रदायिकता को भड़का कर हिंदुओं के वोटों को एक साथ लाना है।

हिमांश कुमार बताते हैं कि आरएसएस का लक्ष्य आने वाले विधानसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस की सरकार हटाकर भाजपा की सरकार बनाना है। दंगा उसी मकसद से किया गया है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी आरएसएस के बड़े पदाधिकारी बस्तर और अन्य इलाकों में लगातार दौरे कर रहे हैं और सांप्रदायिकता भड़का रहे हैं।

हिमांशु कुमार मानते हैं कि वहां भी कांग्रेस की सरकार को हटाकर भाजपा अपनी सरकार बनाने की फिराक में है। उन्होंने आरोप लगाया है कि भाजपा को दंगे करा कर सत्ता में पहुंचने का रास्ता ही मालूम है। इनसे और किसी अच्छे तरीके की उम्मीद नहीं की जा सकती।

भिक्षु चंदिमा के नेतृत्व में बौद्ध धर्मावलंबियों ने योगी सरकार से जीती बड़ी लड़ाई

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क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी हिंदू को किसी मंदिर में जाने के लिए सरकार से लिखित अनुमति लेनी पड़ी हो? या फिर कभी आपने सुना है कि किसी इस्लाम धर्मावलंबी को किसी मस्जिद में नमाज अदा करने के लिए सरकार से लिखित लेने के लिए कहा गया हो?

यकीनन आपने न तो ऐसा सुना होगा और ना ही कहीं पढ़ा होगा। क्योंकि भारतीय संविधान में हर किसी को अपने-अपने धर्म के हिसाब से संबंधित पूजा स्थलों व तीर्थ स्थानों पर पूजा करने का अधिकार है। लेकिन यह पहली बार हुआ कि बौद्ध धर्मावलंबियों सारनाथ में पूजा करने से न केवल रोका गया, बल्कि 15 दिन पहले लिखित रूप से अनुमति लेने की बात कही गयी।

सनद रहे कि सारनाथ, बनारस से करीब 10 किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था, जिसे “धर्म चक्र प्रवर्तन” भी कहा जाता है। इसे बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का आरंभ कहा जाता है। इसी स्थल पर योगी सरकार के राज में बौद्ध धर्मावलंबियों को पूजा करने से रोका गया।

आपको जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि ऐसा असंवैधानिक आदेश योगी सरकार के राज में सरकारी अधिकारियों ने दिया। लेकिन यह लड़ाई बौद्ध धर्मावलंबियों ने केवल दस दिनों के भीतर ही जीत ली और परिणाम यह कि बहुमत के नशे में चूर सरकार को झूकना पड़ा।

मामला 23 मार्च, 2022 की है। धम्म शिक्षण संस्थान के संस्थापक भिक्षु चंदिमा हैदराबाद के संदीप कामले, वर्षा कामले, इंदू  भिक्षु धर्म रश्मि, आनंद मौर्य और भैयालाल पाल के साथ सारनाथ के धमेख स्तूप पहुंचे। लेकिन उन्हें स्तूप के दरवाजे पर ही रोक दिया गया। जब उन्होंने सवाल उठाया तो मौके पर मौजूद अधिकारियों ने कहा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारी के अनुसार स्तूप स्थल पर पूजा-अर्चना की अनुमति नहीं है। इस संबंध में भिक्षु चंदिमा ने प्रतिवाद किया और सवाल पूछा कि यह कहां लिखा है कि बौद्ध धर्मावलंबी धमेख स्तूप स्थल पर पूजा नहीं कर सकते।

उनके सवाल का जवाब देने के बजाय प्रशासनिक अधिकारियों ने उन्हें कहा कि यदि वे पूजा करना चाहते हैं तो उन्हें 15 दिन पहले आवेदन करना होगा और अनुमति भी तभी मिलेगी जब उनका आवेदन स्वीकार किया जाएगा।

इस घटना के विरोध में भिक्षु चंदिमा और उनके साथी वहीं स्तूप के मुख्य द्वार के बाहर धरने पर बैठ गए। बाद में उन्होंने इसके खिलाफ और धमेख स्तूप स्थल पर पूजा अर्चना का अधिकार हासिल करने के लिए अभियान चलाया। इस क्रम में उन्होंने बिहार के बोधगया के भिक्षु संघ से मुलाकात की तथा उन्हें यूपी सरकार के द्वारा किये गये दुर्व्यवहार व अवैधानिक आदेश के बारे में जानकारी दी। इसके अलावा भिक्षु चंदिमा ने सोशल मीडिया के जरिए लोगों को संदेश दिया कि इस तरह के असंवैधानिक आदेशों की वापसी के लिए सहयोग करें।

फिर क्या था, उनका अभियान रंग लाने लगा और बीते 3 अप्रैल, 2022 को भिक्षु चंदिमा के नेतृत्व में हजारों की संख्या में बौद्ध धर्मावलंबियों ने धमेख स्तूप स्थल पर जाकर पूजा अर्चना की। इसके पहले एक रैली भी निकाली गयी।

2 अप्रैल की चौथी वर्षगांठ पर बड़ा सवाल

बात बहुत खास है। ठीक चार साल पहले का दृश्य यही था। पूरे देश में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग सड़कों पर थे। देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया जा चुका था। कइयों के खिलाफ यूएपीए जैसे काले कानून के तहत मुकदमा दर्ज तक कर लिया गया था। वहीं दूसरी ओर द्विजवादी न्यूज चैनलों पर डेली सोप के जैसे चलनेवाली बहसें चलायी जा रही थीं। गोया देश में कहीं कुछ भी नहीं हुआ था। जबकि इस देश के 85 फीसदी लोगों से जुड़ा हुआ था यह मामला।

वैसे यह कोई पहला मौका नहीं था जब द्विजवादी मीडिया का चरित्र सामने आया था। लेकिन 2 अप्रैल, 2018 का वह भारत बंद बेहद खास था। वजह यह कि देश भर में हुए इस आंदोलन को किसी राजनीतिक दल ने खड़ा नहीं किया था। इस आंदोलन के मामले में ऐसा पहली बार हुआ था कि सामाजिक न्याय में विश्वास रखनेवाली पार्टियों ने आम जनता का अनुसरण किया था।

तो मामला यही था कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट में कई अहम बदलाव करने की बात कह दी थी। ये बदलाव ऐसे थे कि यदि लागू हो जाते तो देश भर के दलित-आदिवासी जो कि पहले से ही सामंती ताकतों के अत्याचार के शिकार होते रहते हैं, और अधिक असुरक्षित हो जाते और सामंती ताकतों का मनोबल इतना बढ़ जाता कि वे कहीं भी किसी दलित और आदिवासी को जातिसूचक गाली दे सकते थे, जातिगत भेदभाव की वजह से हिंसा कर सकते थे, दलित-आदिवासी बेटियों के साथ छेड़खानी कर सकते थे और तब भी मामला एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज कराना आसान न होता।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने बदलाव ही ऐसे कर दिए थे कि पहले पुलिस उन मामलों की जांच करती और और जांच करने की जिम्मेदारी डीएसपी रैंक के अधिकारी होती। यदि वह जांच अधिकारी मामले को सही पाता तब कहीं जाकर मामला दर्ज होता। कार्रवाई की बात तो बाद की बात होती।

तो कुल मिलाकर होना यही था कि एससी-एसटी एक्ट का खात्मा कर दिया जाता।

लेकिन इस देश के हुक्मरान भूल गए कि फुले-आंबेडकरवादी चेतना का किस प्रकार पूरे देश में प्रसार हुआ है और अब वे लोग भी लड़ना चुके हैं, जिन्हें हजारों वर्षों से सताकर और पैरों से रौंदकर रखा गया। ज्ञान से दूर रखा गया। जबरदस्ती सिर पर मैला ढोने के लिए, मरे हुए जानवरों की लाश ढोने और ऐसे ही घृणास्पद सारे कामों को करने के लिए मजबूर किया गया।

इस देश के हुक्मरानों को एससी-एसटी वर्ग को लोगों ने करारा जवाब दिया और उनका साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों ने दिया। इसका असर हुआ यह कि केंद्र की आरएसएस की सरकार बैकफुट पर गयी और उसने आनन-फानन में संविधान संशोधन विधेयक लाकर सुप्रीम कोर्ट के संशोधनों को निष्प्रभावी बना दिया।

तो यह दूसरा ऐतिहासिक मौका था जब एससी-एसटी-ओबीसी एक साथ आंदोलनरत थे। इसके पहले 1990 के दशक में जब मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू हुईं और सवर्ण अनुशंसाओं को वापस कराने के लिए अपने देह पर पेट्रोल छिड़ककर जलने-मरने लगे तब एससी-एसटी-ओबीसी वर्ग के लोग एक साथ सड़क पर उतरे थे। कौन भूला सकता है मान्यवर कांशीराम, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद सरीखे नेताओं को, जिन्होंने इस देश की राजनीति ही बदल दी।

खैर, इस देश ने मंडल कमीशन के समय एससी-एसटी-ओबीसी की एकता को देखा और फिर करीब 27 साल के बाद वर्ष 2018 में ऐसा नजारा दिखा था। अब सवाल यह है कि अब ऐसी एकजुटता कब फिर कब होगी? क्या ये वर्ग इस बात का इंतजार करेंगे कि द्विज आरक्षण खत्म कर दें, तब देखा जाएगा?