बढती ही जा रही है डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति 

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बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की 131 वीं जयंती पर विशेष

आज हम भारतरत्न उस डॉ.बी.आर. आंबेडकर की 131वीं जयंती मनाने रहे है, जिनके विषय में बहुत से नास्तिक बुद्धिजीवियों की राय है कि बहुजनों का यदि कोई भगवान हो सकता है तो वह डॉ. आंबेडकर ही हो सकते हैं एवं जिनकी तुलना अब्राहम लिंकन,  बुकर टी . वाशिंग्टन, मोजेज इत्यादि से की जाती है. मानवता की मुक्ति में अविस्मरणीय योगदान देने वाले ढेरों महापुरुषों का व्यक्तित्व और कृतित्व समय के साथ म्लान पड़ते जा रहा है पर, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर वह महामानव हैं, जिनकी स्वीकृति समय के साथ बढती ही जा रही है. यही कारण है इंग्लैंड की महारानी तथा राष्ट्रमंडल देशों की प्रमुख एलिज़ाबेथ द्वितीय ने पिछले वर्ष:14 अप्रैल,2021 को ‘डॉ.बी.आर.आंबेडकर इक्वेलिटी डे’ के रूप में मनाने का फरमान जारी किया था. रानी एलिज़ाबेथ द्वितीय का यह फरमान इस बात का संकेतक है कि डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति समय के साथ-साथ विश्वमय फैलती जा रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति दिन ब दिन बढती जा रही है इसलिए अब देश देशांतर में उनकी जयंती भी पहले के मुकाबले और ज्यादे धूमधाम से मनाई जा रही है. इस अवसर पर जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किये गए दलित, आदिवासी और पिछड़ों के साथ महिलाओं की मुक्ति ; बौद्धमय भारत निर्माण में उनके योगदान के साथ उनके समाजशास्त्रीय अध्ययन व आर्थिक चिंतन पर भूरि- भूरि चर्चायें आयोजित की जा रहीं हैं. किन्तु इन चर्चाओं में एक विषय को लोग विस्मृत किये जा रहे हैं, वह है मानव जाति कि सबसे बड़ी समस्या का खात्मा.

लोग याद नहीं करते मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या पर उनकी चेतावनी!

वैसे तो मानव जाति तरह-तरह की समस्यायों से घिरी हुई है और आज ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी विकराल समस्या के रूप से सामने है जिसे लेकर एक छोटे-छोटे बच्चे तक खौफजदा है और इससे पार पाने के लिए वे भी अपने स्तर पर कुछ न कुछ उपक्रम चला रहे हैं.  लेकिनं पर्यावरणवादी ग्लोबल वार्निग की तबाही का जितना भी डरावना का खाका खींचे, हंटिंग्टनवादी सभ्यताओं के टकराव को लेकर जितनी भी चिंता जाहिर करें ये  मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के रूप में चिन्हित नहीं हो सकतीं.हजारों सालों से लेकर आज तक निर्विवाद रूप से  ‘आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी’ ही  मानव जाति की समस्या रही है. आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी ही वह सबसे बड़ी समस्या है जिसके गर्व से भूख, कुपोषण, अशिक्षा- अज्ञानता, विच्छिनता और आतंकवाद इत्यादि जैसी ढेरो समस्यायों की सृष्टि होती रही है.यही वह सबसे बड़ी समस्या है जिससे मानव-जाति को निजात दिलाने के लिए  ई.पू.काल में भारत में गौतम बुद्ध,चीन में मो-ती,इरान में मज्दक,तिब्बत में मुने-चुने पां; रेनेसां उत्तरकाल में पश्चिम में हॉब्स-लाक,रूसो,वाल्टेयर,टॉमस स्पेन्स,विलियम गाडविन,सेंट साइमन,फुरिये,प्रूधो, चार्ल्स हॉल,रॉबर्ट आवेन,अब्राहम लिंकन,मार्क्स,लेनिन तथा एशिया में माओत्से तुंग,हो ची मिन्ह,फुले,शाहूजी महाराज,पेरियार,डॉ.आंबेडकर,लोहिया,कांशीराम इत्यादि जैसे ढेरों महामानवों का उदय तथा भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ एवं लाखो-करोड़ो लोगों ने प्राण बलिदान किया.इसे ले कर ही आज भी दुनिया के विभिन्न कोनों में छोटा-बड़ा आन्दोलन/संघर्ष जारी है. मानव जाति इस सबसे बड़ी समस्या को लेकर भारत में जिसने सबसे गहरी चिंता व्यक्त किया तो वह संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ही थे. उन्होंने राष्ट्र को संविधान सौपने के एक दिन पूर्वस्वाधीन  भारत के शासकों को चेताते हुए कहा था,’ 26 जनवरी 1950 से हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे : प्रत्येक नागरिक को एक वोट देने को मिलेगा और उस वोट का सामान मूल्य रहेगा. राजनीति के विपरीत हमें आर्थिक और सामजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता. हमें निकटतम भविष्य के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा, नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढांचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.’

आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रही: शासकों की वर्णवादी सोच!     

किन्तु स्वाधीन भारत हमारे शासक बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर चेतावनी की पूरी तरह अनदेखी कर गए. चूँकि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की उत्पत्ति शक्ति के समस्त स्रोतों(1- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) के विभिन्न सामाजिक सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है, इसलिए इसके खात्मे के लिए हमारे शासकों को विभिन्न सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे की दिशा नीतियाँ बनानी पड़ती. किन्तु हमारे शासक स्व- जाति/वर्ण के स्वार्थ के हाथों विवश होकर शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा न करा सकते, इसलिए विषमता की समस्या साल दर सार नयी-नयी ऊँचाई छूती गयी. शक्ति के स्रोतों का विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य असमान बंटवारे के फलस्वरूप नयी सदी में पहुचते- पहुँचते देश  ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में बंट  गया और देखते ही देखते सैकड़ों जिले माओवाद की चपेट में आ गए.इससे उत्साहित एक माओवादी ग्रुप ने एलान ही कर दिया कि हम 2050 तक बंदूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा जमा लेंगे. बहरहाल एक ओर आर्थिक और सामजिक विषमता जनित समस्या के कारण भारत तरह-तरह की समस्यायों में घिरता और दूसरी ओर सुविधाभोगी वर्ग के नेता और मीडिया ‘विकास’ के शोर में इन समस्यायों को दबाने लगी रही . किन्तु कुछ ईमानदार और दायित्वशील लोग विकास की पोल खोलते रहे. जिस दौर भारत के आर्थिक विकास दर को देखते हुए इसके विश्व आर्थिक शक्ति बनने के दावे जोर-शोर से उछाले जाने लगे, उस दौर में  नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहना शुरू किया था,’गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है. .. मैं उनसे सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है‘. जिस नवउदारी अर्थनीति के कारण आर्थिक और सामाजिक असमानता शिखर छूती गयी है, उस अर्थनीति के शिल्पी डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लगातार चेतावनी देते हुए कहा था,’ देश का विकास जिस तेजी से हो रहा है, उस हिसाब से गरीबी कम नहीं हो रही है. अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है. देश में जो विकास हुआ है ,उस पर नजर डालें तो साफ़ दिखाई देगा कि गैर-बराबरी बढ़ी है.’ उन्होंने आजिज आकर 15 अगस्त 2008 को बढती हुई आर्थिक गैर-बराबरी पर काबू पाने के लिए देश के अर्थशास्त्रियों के समक्ष एक सृजनशील सोच की मांग कर डाली थी. बढती आर्थिक विषमता से पार पाने के लिए तब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बदलाव की एक नयी क्रांति तक का आह्वान कर दिया था. लेकिन साल दर साल नयी-नयी ऊंचाई  छूती मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से हमारे शासक प्रायः आंखे मूंदे रहे और यह समस्या 2014 के बाद एक्सट्रीम को छूने लगी.

मोदी- राज में शिखर को छुई: आर्थिक और सामाजिक विषमता!                  

मोदी- राज में जो आर्थिक विषमता  रॉकेट गति से बढ़नी शुरू हुई, उसका दुखद परिणाम  22 जनवरी, 2018 को प्रकाशित ऑक्सफाम की रिपोर्ट में सामने आया. उस रिपोर्ट से पता चला  है कि टॉप की 1% आबादी अर्थात 1 करोड़ 3o लाख लोगों सृजित धन-दौलत पर 73 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है. इसमें मोदी सरकार के विशेष योगदान का पता इसी बात से चलता है कि सन 2000 में 1% वालों की दौलत 37 प्रतिशत थी, जो बढ़कर 2016 में 58.5 प्रतिशत तक पहुच गयी. अर्थात 16 सालों में टॉप के एक प्रतिशत वालों की दौलत में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. किन्तु उनकी 2016 की 58.5 प्रतिशत दौलत सिर्फ एक साल के अन्तराल में 73% हो गयी अर्थात सिर्फ एक साल में 15% का इजाफा हो गया. इन टॉप के प्रतिशत वालों में 99 प्रतिशत जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के लोग होंगे , यह बात दावे के साथ कही जा सकती है. इसके वैश्विक धन बन्वारे पर अध्ययन करने वाली ‘क्रेडिट सुइसे’ की अक्तूबर 2015 में प्रकशित रिपोर्ट में कहा गया था कि टॉप के एक प्रतिशत लोगों के हाथ में 57 प्रतिशत दौलत है, जबकि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी 4.1 प्रतिशत दौलत पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त है. और दिसंबर 2021 में  लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ प्रकाशित हुई है, उसमे फिर भारत में वह भयावह असमानता सामने आई है, जिससे वर्षों से उबरने की चेतावनी बड़े- बड़े अर्थशास्त्री देते रहे हैं. इस रिपोर्ट से साबित हो गया है कि भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक, जहाँ एक ओर गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर एक समृद्ध अभिजात वर्ग और ऊपर हो रहा है.विश्व असमानता की पिछली रिपोर्ट से दुनिया के अर्थशास्त्री और हम शर्मसार हैं !

आर्थिक और सामाजिक विषमता के चौकाने वाले दो पक्ष  

बहरहाल यह तह है भारत में मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के विकराल रूप धारण करने से निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री सहित विविध तरीके शक्ति के समस्त जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथ सौपने पर आमादा  मोदी सरकार  पूरी तरह निर्लिप्त है और गोदी मीडिया विकास की आकर्षक तस्वीर दिखा कर भीषणतम रूप से फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता से ध्यान हटाने में सर्व शक्ति लगा रही है. ऐसे में समता-प्रेमी मार्क्सवादियों, लोहियावादियों और खासकर आंबेडकरवादियों का फर्ज बनता है कि इस समस्या से पार पाने की दिशा में ठोस कदम बढ़ाएं. इसके लिए आर्थिक सामाहिक विषमता की स्थिति का नए सिरे से आंकलन कर सम्यक कदम उठायें.

आर्थिक और सामाजिक विषमता की सर्वाधिक शिकार : आधी आबादी  

भारत में भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक गैर- बराबरी  के चौकाने वाले दो पक्ष नजर आते हैं. इनमें सबसे बड़ा एक  पक्ष यह है कि इस समस्या की  विकरालता बढ़ाने वाले सकल जनसंख्या के 7.5 प्रतिशत सवर्ण हैं, जो शासकों द्वारा इस समस्या के खात्मे की दिशा में सम्यक प्रयास न किये जाने के कारण लगभग 80 से 85 प्रतिशत शक्ति के स्रोतों का भोग कर रहे हैं. इसका दूसरा और सबसे स्याह पक्ष यह है कि देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं इससे सर्वाधिक पीड़ित है. भारत की आधी आबादी इससे किस कदर पीड़ित है, इसका अनुमान पिछले वर्ष आई ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022  मे बताया गया कि भारत की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल लग जायेंगे. यह आंकड़ा आम भारतीय महिलाओं का है. यदि आम भारतीय महिलाओं को 257 साल लगने हैं तो दलित महिलाओं को 300 साल से अधिक लगना तय  है. भारी अफ़सोस की बात है कि पिछले दिनों हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी ने ‘विश्व असमानता रिपोर्ट – 2022’ और ‘ ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2022 ’ की रिपोर्ट पर एक शब्द भी नहीं बोला. जबकि गोल्बल जेंडर गैप रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि आर्थिक और सामाजिक विषमता- जन्य समस्या का सबसे बड़ा शिकार भारत की आधी आबादी है और उसे आर्थिक समानता पाने में 300 साल से अधिक लगने है, उससे बड़ी समस्या आज विश्व में कोई नहीं. अगर आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है तो आज की तारीख में इस समस्या की सर्वाधिक शिकार भारत की आधी आबादी ही  है. इसलिए भारत में समानता की लड़ाई लड़ने वालों की प्राथमिकता में आधी आबादी के आर्थिक समानता की लड़ाई होनी चाहिए.        

अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में लागू हो रिवर्स प्रणाली!

वर्तमान में मोदी सरकार द्वारा लैंगिक समानता के मोर्चे पर जो कार्य किया जा रहा है, उससे भारत में लैंगिक समानता अर्जित करना एक सपना ही बना रहेगा. कमसे कम कम आर्थिक और शैक्षिक मोर्चे पर तो दलित, आदिवासी, पिछड़े वंचित वर्गों की महिलाओं को समानता दिलाने में सदियों लग जाना तय है. ऐसे में यदि कुछेक दशकों के मध्य हम इच्छित लक्ष्य पाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे.  सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात में लाना होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त(सरप्लस) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो. दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में घोषित हो आधी आबादी का पहला हक़. चूंकि अति दलित महिलाएं असमानता का सर्वाधिक और अग्रसर सवर्ण महिलाएं न्यूनतम शिकार हैं, इसलिए ऐसा करना होगा कि सवर्णों का छोड़ा 70 प्रतिशत अतिरिक्त अवसर सबसे पहले अतिदलित महिलाओं को मिले. इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा. पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जेनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है. यदि हमें 300 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के  रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा.

शक्ति के स्रोतों के बंटवारे में मिले: अनग्रसर समुदायों के  महिलाओं को प्राथमिकता !

हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जेनरल अर्थात सवर्ण – को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों – में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की अनग्रसर महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा. इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अति दलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी; अति पिछड़े और अग्रसर पिछड़े ;  अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा. इस सिलसिले में निम्न क्षेत्रों में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की अनग्रसर अर्थात पिछड़ी महिला आबादी को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी सुलभ कराना सर्वोत्तम उपाय साबित हो सकता है-:1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों; 2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी; 4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; 5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों,  विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन; 6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि; 7- देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ)को दी जानेवाली धनराशि; 8-प्रिंट व् इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों; 9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं 10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधासभा की सीटों;राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि…  

यदि हम उपरोक्त क्षेत्रों में क्रमशः अनग्रसर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 300 वर्षों के बजाय 30 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा. तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के चार आयामों में से तीन आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा,  महिलाओं की शिक्षा और तीसरा , राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- में आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें.उपरोक्त तीन आयामों पर सफल होने के बाद वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल में स्वयं सक्षम हो जाएँगी. यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खात्मे में तो सफल हो ही सकते हैं, इसके साथ ही भारत में भ्रष्टाचार को न्यूनतम बिन्दू पर पहुचाने , लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण, नक्सल/ माओवाद के खात्मे, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, आरक्षण से उपजते गृह-युद्ध को टालने , सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, ब्राह्मणशाही के खात्मे और सर्वोपरि विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने जैसे कई अन्य मोर्चों पर भी फतेह्याबी हासिल कर सकते हैं. अवसरों और संसाधनों पर भारत के महिलाओं को प्राथमिकता देने की लड़ाई का मन बाते समय जरा अतीत का सिंहावलोकन कर लेना होगा.

तो इसलिए जरुरी है अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में महिलाओं का पहला हक़ !

स्मरण रहे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी यह कहकर राष्ट्र को चौका दिया था कि संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है. वह बयान उन्होंने मुस्लिम समुदाय की बदहाली को उजागर करने वाली सच्चर रिपोर्ट के 30 नवम्बर, 2006 को संसद के पटल पर रखे जाने के कुछ ही दिन बाद 10 दिसंबर,2006 को राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) की बैठक में दिया था. एनडीसी की उस बैठक में उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्गों और विशेषकर मुसलमानों का है. डॉ. सिंह के उस बयान का कांग्रेस ने भी समर्थन किया था। उनका वह बयान उस वक्त आया था, जब कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित थे. लिहाजा उनके उस बयान ने काफी तूल पकड़ लिया। भाजपा ने पूर्व प्रधानमंत्री के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताई थी। उसके बाद एनडीसी का मंच राजनीति का अखाड़ा बन गया था और उसी मंच से भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री के बयान का कड़ा विरोध जताया था. विरोध इतना बढ़ गया था कि बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रवक्ता संजय बारू को मनमोहन सिंह के बयान पर सफाई देनी पड़ गयी थी. उन्हें कहना पड़ा था कि प्रधानमंत्री अल्पसंख्यकों की बात कर रहे थे, केवल मुसलमानों की नहीं। तब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह ने मनमोहन सिंह के बयान को देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बताया था

नरेन्द्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह की कड़ी आपत्ति के कुछ अंतराल बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान पर निशाना साधते हुए कहा था कि केंद्र सरकार अपने स्वार्थों के लिए सरकारी खजाने पर अल्पसंख्यकों का हक़ बताकर अलगाववाद और अल्पसंख्यकवाद को हवा दे रही है. लोग सोच सकते हैं बात आई गयी हो गयी होगी. किन्तु नहीं ! 2006 मे पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा कही गयी उस बात को भाजपा के लोग आज भी नहीं भूले हैं: वे मौका माहौल देखकर समय-समय पर कांग्रेस और डॉ. सिंह को निशाने पर लेते रहे हैं. इसी क्रम में अभी 30 जनवरी, 20 19  को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चे के राष्ट्रीय सम्मलेन में कह दिया,’जो लोग दावा करते थे कि संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है, उन्होंने उनके हक़ के लिए कुछ नहीं किया. जबकि हमारा मानना है देश के संसाधनों पर पहला हक़ गरीबों का है.अमित शाह के दो दिन बाद 1 फ़रवरी, 2019 को बजट पेश करते हुए केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने फिर एक बार मनमोहन सिंह पर अप्रत्यक्ष रूप से निशाना साधते एवं भाजपा के रुख से अवगत कराते हुए कह दिया,’संसाधनों पर पहला हक़ गरीबों का है.कहने का मतलब कि अवसरों और संसाधनों पर पहला हक़ किनका हो, यह सवाल उठ चुका है. अब 2021 में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट रिपोर्ट ने यह बताकर कि भारत की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 300 साल से अधिक लगने हैं : इस बहस का अंत कर दिया है कि अवसरों और संसाधनों पर पहला हक़ किनका और क्यों ?    

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