2 अप्रैल की चौथी वर्षगांठ पर बड़ा सवाल

बात बहुत खास है। ठीक चार साल पहले का दृश्य यही था। पूरे देश में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग सड़कों पर थे। देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया जा चुका था। कइयों के खिलाफ यूएपीए जैसे काले कानून के तहत मुकदमा दर्ज तक कर लिया गया था। वहीं दूसरी ओर द्विजवादी न्यूज चैनलों पर डेली सोप के जैसे चलनेवाली बहसें चलायी जा रही थीं। गोया देश में कहीं कुछ भी नहीं हुआ था। जबकि इस देश के 85 फीसदी लोगों से जुड़ा हुआ था यह मामला।

वैसे यह कोई पहला मौका नहीं था जब द्विजवादी मीडिया का चरित्र सामने आया था। लेकिन 2 अप्रैल, 2018 का वह भारत बंद बेहद खास था। वजह यह कि देश भर में हुए इस आंदोलन को किसी राजनीतिक दल ने खड़ा नहीं किया था। इस आंदोलन के मामले में ऐसा पहली बार हुआ था कि सामाजिक न्याय में विश्वास रखनेवाली पार्टियों ने आम जनता का अनुसरण किया था।

तो मामला यही था कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट में कई अहम बदलाव करने की बात कह दी थी। ये बदलाव ऐसे थे कि यदि लागू हो जाते तो देश भर के दलित-आदिवासी जो कि पहले से ही सामंती ताकतों के अत्याचार के शिकार होते रहते हैं, और अधिक असुरक्षित हो जाते और सामंती ताकतों का मनोबल इतना बढ़ जाता कि वे कहीं भी किसी दलित और आदिवासी को जातिसूचक गाली दे सकते थे, जातिगत भेदभाव की वजह से हिंसा कर सकते थे, दलित-आदिवासी बेटियों के साथ छेड़खानी कर सकते थे और तब भी मामला एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज कराना आसान न होता।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने बदलाव ही ऐसे कर दिए थे कि पहले पुलिस उन मामलों की जांच करती और और जांच करने की जिम्मेदारी डीएसपी रैंक के अधिकारी होती। यदि वह जांच अधिकारी मामले को सही पाता तब कहीं जाकर मामला दर्ज होता। कार्रवाई की बात तो बाद की बात होती।

तो कुल मिलाकर होना यही था कि एससी-एसटी एक्ट का खात्मा कर दिया जाता।

लेकिन इस देश के हुक्मरान भूल गए कि फुले-आंबेडकरवादी चेतना का किस प्रकार पूरे देश में प्रसार हुआ है और अब वे लोग भी लड़ना चुके हैं, जिन्हें हजारों वर्षों से सताकर और पैरों से रौंदकर रखा गया। ज्ञान से दूर रखा गया। जबरदस्ती सिर पर मैला ढोने के लिए, मरे हुए जानवरों की लाश ढोने और ऐसे ही घृणास्पद सारे कामों को करने के लिए मजबूर किया गया।

इस देश के हुक्मरानों को एससी-एसटी वर्ग को लोगों ने करारा जवाब दिया और उनका साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों ने दिया। इसका असर हुआ यह कि केंद्र की आरएसएस की सरकार बैकफुट पर गयी और उसने आनन-फानन में संविधान संशोधन विधेयक लाकर सुप्रीम कोर्ट के संशोधनों को निष्प्रभावी बना दिया।

तो यह दूसरा ऐतिहासिक मौका था जब एससी-एसटी-ओबीसी एक साथ आंदोलनरत थे। इसके पहले 1990 के दशक में जब मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू हुईं और सवर्ण अनुशंसाओं को वापस कराने के लिए अपने देह पर पेट्रोल छिड़ककर जलने-मरने लगे तब एससी-एसटी-ओबीसी वर्ग के लोग एक साथ सड़क पर उतरे थे। कौन भूला सकता है मान्यवर कांशीराम, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद सरीखे नेताओं को, जिन्होंने इस देश की राजनीति ही बदल दी।

खैर, इस देश ने मंडल कमीशन के समय एससी-एसटी-ओबीसी की एकता को देखा और फिर करीब 27 साल के बाद वर्ष 2018 में ऐसा नजारा दिखा था। अब सवाल यह है कि अब ऐसी एकजुटता कब फिर कब होगी? क्या ये वर्ग इस बात का इंतजार करेंगे कि द्विज आरक्षण खत्म कर दें, तब देखा जाएगा?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.