जातिवार जनगणना भारत के विकास के लिय़े क्यों जरूरी है

अच्छी बात है, कांग्रेस जैसी प्रमुख विपक्षी पार्टी जातिवार जनगणना का वादा ‘रिपीट’ कर रही है. इस बार कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे और राहुल गांधी जैसे पार्टी के शीर्ष नेताओं की तरफ से इसकी घोषणा हुई है, इसलिए पहले की तरह अब कांग्रेस अपने वादे से पीछे नहीं हट पायेगी. जातिवार जनगणना के पूरे प्रसंग पर हमारा कुछ महीने पहले का एक लेख: लोगों की सूचना और जानकारी के लिए यहां पेश कर रहा हूं

जानिए, जनगणना में जाति की गणना शामिल करना क्यों समाज और विकास के हक में है! इस रूप में यह लेख 9 जनवरी को Before the Print नामक वेबसाइट ने छापा था.

जनगणना में जाति की गणना शामिल करना क्यों समाज और विकास के हक में है? इस सवाल‌ को‌ रेखांकित करता यह आलेख देश के जानेमाने पत्रकार Urmilesh ने लिखा है।

वर्ग और वर्ण आधारित भीषण गैरबराबरी, जटिल और असहज वर्गीय रिश्तों में पिचकते भारतीय समाज में जब कभी वर्गीय और वर्णीय(जातिगत)रिश्तों में सुधार की बात या कोशिश होती है, समाज और राजनीति में सक्रिय कुछ खास श्रेणियों और विचारों के लोग असहज होकर ऐसे प्रयासों का विरोध करने लगते हैं. हर क्षेत्र में जातियों की चर्चा की जाती है. चुनावी राजनीति में जोरों से होती और हर दल करते हैं. मीडिया के समाचार विश्लेषण में तमाम जातियों के आंकड़े पेश किए जाते हैं. उनकी सटीक प्रतिशत संख्या बताने का दावा किया जाता है. एकेडमिक जगत हो या कार्यपालिका का क्षेत्र, हर जगह जाति पर बात होती है. न्यायालयों और आयोगों के फैसलों और सिफारिशों में भी इनकी चर्चा होती है. अभी हाल ही में एक बहुचर्चित और सुप्रीम न्यायिक फैसले में समाज में जातियों के ठोस आंकड़े की उपलब्धता अनुपलब्धता का जिक्र आया था. एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आयोग की कुल चालीस सिफारिशों में जातिवार राष्ट्रीय जनगणना कराने की भी सिफारिश शामिल थी.

देश में सन् 1941 से ही जातिवार जनगणना नहीं हो रही है, क्या जातिवाद हमारे खत्म हो गया? पर अपने देश के किसी हिस्से में जनगणना का जब भी मसला आता है, कुुछेेक दल, कुछ सरकारें, कुछ कुलीन बुद्धिजीवी-संपादक और खास श्रेणियों के लोग जनगणना में कुछ जातियों की गिनती न कराने पर जोर देने लगते हैं. उनके पास तर्क तो नहीं पर कुतर्क बहुत होते हैं. मसलन, कभी वे कहते हैं कि सभी जातियों की गणना कराने से जातिवाद बढ़ जायेगा और कभी कहते हैं कि ऐसी गणना की जरूरत ही क्या है? ऐसे में कोई हमें बताए कि अपने देश में सन् 1941 से ही जातिवार जनगणना नहीं हो रही है, क्या जातिवाद हमारे खत्म हो गया या कम हो गया? इस सवाल के जवाब में जातिवार जनगणना के विरोधियों या आलोचकों के कुतर्क की असलियत सामने आ जाती है. फिर भी वे कुतर्क से बाज नहीं आते. मैं समझता हूं कि राष्ट्रीय जनगणना या किसी प्रदेश की जनगणना में जो लोग जातियों की गणना के विचार, प्रस्ताव या पहल का विरोध करते हैं, वे न सिर्फ वर्ण-व्यवस्था के पोषक हैं, अपितु समुदायों में बहुस्तरीय गैरबराबरी बनाये रखने के हिमायती भी हैं. ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, इसे जानने के लिए इन ठोस तथ्यों से रूबरू होना जरूरी है.

भारत में जनगणना का इतिहास बताता है कि सन् 1872 में जब इसकी शुरुआत हुई तो लोगों की धार्मिक और जातिगत पृष्ठभूमि, दोनों की गणना की गई. सन् 1931 तक यह सिलसिला चला. लेकिन 1941 में कुछ प्रशासनिक और विश्वयुद्ध से जुड़ी समस्याओं के नाम पर जनगणना के दौरान जाति की गणना नहीं कराई गयी. आजाद भारत में लोगों की धार्मिक पृष्ठभूमि की गणना तो होती रही पर जातियों की गणना बंद कर दी गयी. फिर संवैधानिक जरुरतों के मद्देनज़र कुछ जातियों की गणना का सिलसिला शुरू हुआ. तबसे सिर्फ एससी-एसटी समुदायों(SC/ST) की गणना कराई जाती है.

*धार्मिक आधार गणना अच्छी है तो जाति गिनती गलत कैसे?

कोई हमें ये समझा दे कि देश में जब धार्मिक आधार पर गणना कराने में कोई समस्या नहीं है और कुछ जाति-समूहों की गिनती कराने में किसी तरह की दिक्कत नहीं है तो समाज की शेष जातियों(हिन्दू अपर काॅस्ट और पिछड़ी जातियों(OBC)) की गणना से परहेज क्यों? क्या समस्या है? क्या इनकी गणना एक संवैधानिक जरूरत नहीं है? ईडब्ल्यूएस(EWS) आरक्षण की सुप्रीम कोर्ट में चली लंबी सुनवाई के दौरान क्या इसकी जरूरत रेखांकित नहीं हुई थी? क्या मंडल आयोग की रिपोर्ट के लिए काम करते समय आयोग के माननीय सदस्यों ने जातिवार गणना के आंकडों की अनुपलब्धता का सवाल नहीं उठाया था? यही नहीं, मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भी जातिवार जनगणना कराने का राष्ट्रपति को सुझाव दिया था. आयोग के अध्यक्ष बी पी मंडल ने तत्कालीन राष्ट्रपति को सौंपे अपने ज्ञापन के पैरा-10 में इसका खासतौर पर उल्लेख किया. पर आयोग की 40 सूत्री सिफारिशों में तत्कालीन सरकार ने अभी एक ही सिफारिश को मंजूरी देकर उसका क्रियान्वयन कराना चाहा कि सन् 1990-91 में कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने समूचे उत्तर भारत में इस कदर बावेला मचवाया कि सरकार मंडल आयोग की अन्य मांगों पर विचार करने का साहस ही नहीं कर सकी. दुर्भाग्यवश, देश की दोनों प्रमुख पार्टियों-कांग्रेस और भाजपा की तरफ से मंडल आयोग की आरक्षण सम्बन्धी सिफारिश का उस समय विरोध हो रहा था. ऐसे में जातिवार जनगणना की बात भला कौन सोचता!

अगर भारत में राष्ट्रीय जनगणना का इतिहास देखें तो जातिवार जनगणना न कराना ‘परम्परा से विच्छेद’ था. बाद में कुछ जातियों को राष्ट्रीय जनगणना की जातिवार गणना में शामिल करना और कुछ को छोड़ देना बिल्कुल अटपटा फैसला था. पर यही हुआ. आज की परिस्थिति और प्रशासनिक जरूरतों को देखें तो राष्ट्रीय जनगणना या किसी प्रदेश की अपनी ‘खास जनगणना’ में हिन्दू उच्चवर्णीय जाति समूह और ओबीसी के तहत आने वाली जातियों की गणना न कराने का कोई औचित्य ही नहीं है. इसलिए मैं समझता हूं, बिहार सरकार का जातिवार जनगणना कराने का मौजूदा फैसला पूरी तरह वाजिब, संवैधानिक और तर्कसंगत है. जहां तक मेरी जानकारी है, इस तरह की जनगणना का फैसला सर्वदलीय सहमति के साथ नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार ने कैबिनेट बैठक में लिया था. उस समय सरकार में जद-यू के साथ भाजपा प्रमुख घटक के रूप में शामिल थी..बिहार एनडीए की उस सरकार में मुख्यमंत्री नीतीश(जद-यू) के साथ भाजपा के दो नेताओं को उपमुख्य मंत्री बनाया गया था. यानी गठबंधन और अन्य दलों का यह सर्वसम्मत फैसला था. मजे की बात है कि जातिवार जनगणना कराने की मांग को लेकर बिहार का एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल उससे पहले दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री मोदी से भी मिला था.

लेकिन प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय जनगणना में सभी जातियों की गणना कराने में असमर्थता जताई. उसके बाद ही बिहार ने राज्यस्तरीय जातिवार जनगणना का कदम उठाया. केंद्र ने बिहार सहित कई राज्यों को स्पष्ट किया कि कोई राज्य अपने स्तर पर ऐसी गणना कराता है तो केंद्र को कोई गुरेज नहीं होगा. बिहार में अभी कराई जा रही जनगणना की इस पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. बिहार के नेताओं और दलों की तरफ से ‘राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना’ की मांग बहुत पहले से की जाती रही है. बिहार और कुछ अन्य प्रदेशों के नेताओं के भारी दबाव के चलते ही तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना में जातियों की गणना का काॅलम रखने का वादा किया था. कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने सिर्फ कागज पर या किसी सभा के मंच पर ही नहीं, बाकायदा भारतीय संसद में इसका ऐलान किया. उस समय के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की तरफ से सदन में इस आशय का बयान आया. स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी ओबीसी सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को इसका आश्वासन दिया था. पर यूपीए सरकार ने अपना वादा नहीं निभाया.

दिखावे के लिए और ओबीसी समुदाय के सांसदों की नाराजगी कुछ कम करने के लिए अलग से एक ‘सामाजिक आर्थिक व जातिवार गणना का सर्वेक्षण'(SECC-2011) कराने का फैसला किया गया. सरकार के अंदर बैठी ‘कुलीनों’ की मजबूत लाॅबी ने लगभग 4890 करोड की सरकारी खर्च कराकर यह फूहड ‘खेला’ किया, जो न सिर्फ फालतू अपितु बेमानी भी था. जो काम ‘भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त’ के कार्यालय के तत्वावधान मे कराई जाने वाली आधिकारिक राष्ट्रीय जनगणना में बहुत तरीके और सहजता से कराया जा सकता था, उसे न कराकर अलग सर्वेक्षण कराया गया. उसके आधे-अधूरे आंकडे आज तक सार्वजनिक भी नहीं किये गये. मेरी याददाश्त में भाजपा की मौजूदा मोदी सरकार 2014 से अब तक 9-10 बार वादा कर चुकी है कि SECC-11 के जातियों की संख्या वाले आंकडे जल्दी ही सार्वजनिक किये जायेंगे. पर जिस तरह वे ‘अच्छे दिन’ अब तक नहीं आये, वैसे ही SECC के वे आंकड़े भी कहीं नहीं नजर आए! यह कम विस्मयकारी नहीं कि इस मामले में यूपीए(कांग्रेस) और एनडीए(भाजपा) की सरकारों का रवैया समान रहा है! वैसे भारतीय समाज, राजनीति और नौकरशाही में वर्चस्व और सत्ता के अंदर की वास्तविक सत्ता-संरचना को देखें तो दोनों सरकारों के समान रवैये की ठोस वजह समझना ज्यादा कठिन नहीं है.

*2018 में राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना का समर्थन कर बाद मुकर गयी थी भाजपा

इधर, एक अच्छी प्रगति ये है कि कांग्रेस ने ‘जातिवार जनगणना’ को सैद्धांतिक रूप से भी सही मान लिया है. स्वयं राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान तेलंगाना में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जातिवार जनगणना की मांग का समर्थन किया. देश के अन्य सभी प्रमुख दलों-एसपी, बीएसपी, एनसीपी. राजद, जद-यू, सीपीएम, सीपीआई, सीपीआई-एमएल, बीजेडी, टीआरएस, शिवसेना, वाईआरएस कांग्रेस और टीडीपी आदि ने इसका पहले से ही पुरजोर समर्थन कर रखा है. यानी भाजपा-आरएसएस छोड़कर देेश के हर राजनीतिक दल और संगठन की इस पर सहमति है. एक समय(2018) भाजपा ने भी समर्थन किया था. पर अब वह समर्थन से पीछे हट गयी. इसकी बड़ी वजह है-आर एस एस. बताया जाता है कि आर एस एस नेतृत्व के निर्देश के बाद ही भाजपा ने सन् 2018 में जाहिर किये अपने विचार को पलटने का फैसला किया. तत्कालीन गृह मंत्री(राष्ट्रीय जनगणना का कार्यालय उन्हीं के मंत्रालय के अधीन था) राजनाथ सिंह ने आधिकारिक स्तर पर 2021 की राष्ट्रीय जनगणना में जातिवार गणना का काॅलम शामिल करने का ऐलान किया था. पर बाद में भाजपा और मोदी सरकार का फैसला पलट गया.

*आर एस एस की सैद्धांतिकी और बिहारी समाज की संरचना के दबाव में है भाजपा

बिहार में जातिवार जनगणना के सवाल पर आज भाजपा ऊहापोह में नजर आ रही है तो यह उसकी सियासी और सामाजिक मजबूरी है. एक तरफ आर एस एस से मिली ‘सैद्धांतिकी’ है तो दूसरी तरफ बिहारी समाज की संरचना और चुनावी राजनीति की मजबूरियां. संभवत: इसीलिए भाजपा का एक खेमा जाति जनगणना का विरोध कर रहा है और दूसरा खेमा इस पर अपनी सशर्त सहमति जताने की बात कर रहा है. कुुछ मीडिया खबरों में मैने देखा कि पार्टी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी कुछ असंगतियों को दूर करके जाति जनगणना कराने की बात कह रहे हैं.

बहरहाल, बिहार में जनगणना के पहले चरण का काम 7 जनवरी को शुरू हो गया..यह कैसे बेहतर ढंग से संपन्न हो; इस पर बिहार सरकार निश्चय ही विचार कर रही होगी. सरकार को सभी पक्ष के सकारात्मक सुझावों पर भी गौर करना चाहिए ताकि जातिवार जनगणना का सिलसिला सुसंगत ढंग से आगे बढ़े और बिहार के इस जनगणना माॅडल को राष्ट्रीय स्वीकार्यता भी मिले. निश्चय ही अगर यह जनगणना अच्छे ढंग से संपन्न हो गयी तो इसके सही नतीजों से प्रशासनिक-कामकाज और योजनाओं के क्रियान्वयन में राज्य और केंद्र की शासकीय एजेंसियों को आसानी होगी. देश और प्रदेश के बुद्धिजीवियों, मीडिया और शोध संस्थानों को भी हिन्दू अपर काॅस्ट और ओबीसी को लेकर मनगढंत या अंदाजिया आंकड़े परोसने की जरूरत नहीं होगी. इसलिए इसे जरूरी और प्रामाणिक आंकड़े हासिल करने के शासकीय अभियान के तौर पर देखा जाना चाहिए.

लेखक परिचय : पत्रकार-लेखक उर्मिलेश नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान और राज्यसभा टीवी में निर्णायक पदों पर काम कर चुके हैं। आपकी लिखी किताबें – योद्धा महापंडित राहुल सांकृत्यायन, कश्मीर विरासत और सियासत,क्रिस्टेनिया मेरी जान, गाजीपुर में क्रिस्टोफर काडवेल, मेम की गली गोडसे का गांव काफी चर्चित हुईं हैं। मेम की गली गोडसे का गांव का पंजाबी में भी अनुवाद हुआ है।

तेलंगाना में 125 फीट की अंबेडकर मूर्ति के मायने क्या हैं?

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तेलंगाना में 14 अप्रैल को 125 फीट की बाबासाहेब अंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। तेलंगाना सरकार की ओर से यह शानदार प्रतिमा बनाई गई है। इसके उद्घाटन के मौके पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने बाबासाहेब के पोते प्रकाश आंबेडकर को आमंत्रित किया था। जो तस्वीरें आई है, उसमें साफ दिख रहा है कि प्रकाश आंबेडकर फीता काट कर इसका उद्घाटन कर रहे हैं। बगल में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव खड़े हैं।

 के. चंद्रशेखर राव के इस कदम से तमाम अंबेडकरवादी गदगद हैं। लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठा रहे हैं कि आखिर मुख्यमंत्री राव के इस अंबेडकर प्रेम के पीछे की वजह क्या है? दरअसल तेलंगाना में इसी साल चुनाव होने हैं, ऐसे में साफ है कि मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के इस कदम के पीछे सिर्फ अंबेडकर प्रेम नहीं है, बल्कि उससे ज्यादा सत्ता में दुबारा आने की छटपटाहट हैं।

इसी से जुड़ा दूसरा सवाल भी आता है। क्या आंध्रप्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य बनवाने के लिए आंदोलन करने वाले और अलग राज्य बनने पर उसकी कमान संभालने वाले के. चंद्रशेखर राव को दलित वोटों के खुद से छिटक जाने का डर सता रहा है? अगर ऐसा है, तो क्यों है?

यहीं नाम आता है बहुजन समाज पार्टी का और फिलहाल तेलंगाना प्रदेश में बसपा की कमान संभाल रहे पूर्व आईपीएस अधिकारी आर.एस. प्रवीण का। दरअसल आईपीएस रहने और तेलंगाना सोशल वेलफेयर एंड रेशिडेंशियल स्कूल का सेक्रेट्री रहने के दौरान आर.एस. प्रवीण ने स्वैरो नाम का एक संगठन बनाया था, जिससे हजारों दलित परिवार आर.एस प्रवीण से जुड़े। इस बीच तमाम बच्चे जो उन स्कूलों में पढ़ते थे, आज युवा वोटर बन चुके हैं। आर.एस. प्रवीण फिलहाल 300 दिनों के बहुजन राज्यधिकार यात्रा पर निकले हैं। इस दौरान उनका लक्ष्य 5000 गांवों में जाकर बहुजन समाज के लोगों से मिलने का है। और आर.एस. प्रवीण को दलितों-वंचितों के बीच जिस तरह का समर्थन मिल रहा है, उससे केसीआर परेशान हैं। आऱ.एस प्रवीण की माने तो बाबासाहेब की 125 फीट ऊंची प्रतिमा और दलित बंधु योजना उसी परेशानी के बीच उठाया गया कदम है।

दरअसल तेलंगाना की कुल आबादी 10.03 मिलियन है, जिसमें दलितों की आबादी 1.82 मिलियन है। यह प्रदेश की कुल आबादी का 17.53 प्रतिशत है। प्रदेश के 33 जिलों में से 9 जिलों में दलितों की आबादी 20 प्रतिशत से अधिक है। दलितों की इस बड़ी आबादी को अपने पाले में लाए बिना तेलंगाना में सरकार बनाना संभव नहीं है। के.सी.आर इसी आबादी को लुभाने के लिए ये सभी कदम उठा रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि तेलंगाना की यह आबादी चुनाव में के.सी.आर के लोक लुभावन वादों के साथ खड़ी होती है या फिर लाखों बच्चों की जिंदगी बदल कर अपना काम दिखा चुके आर.एस. प्रवीण के साथ।

झारखंड के बेदिया जनजाति के युवा समाज के लिए पेश कर रहे हैं शानदार मिसाल

बेदिया जनजाती के युवाओं के बीच दलित दस्तक के सुशील स्वतंत्र

कहते हैं कि जज़्बा दमदार हो तो पत्थर का सीना चीर कर भी पानी निकाला जा सकता है। झारखण्ड के हजारीबाग जिले के डाडी प्रखंड अंतर्गत स्थित आदिवासियों के एक गाँव कुरकुट्टा में रहने वाले बेदिया जनजाति के युवा इस कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। दशकों से परती पड़ी पथरीली ज़मीन को उपजाऊ बनाकर वे सफलतापूर्वक जैविक खेती कर रहे हैं। कोयलांचल के इस क्षेत्र में खनिज पदार्थों की प्रचूरता है। यहाँ धरती के गर्भ में कोयला आदि बहुतायत मात्र में भरा पड़ा है। कुरकुट्टा के आस-पास कोयले की खदानें हैं, जहाँ से टनों में कोयले की खुदाई की जाती है। एक समय था जब कुरकुट्टा के निवासी कोयला खदानों में कार्यरत थे परन्तु गाँव के समीपवर्ती खदानों से कोयले की खुदाई (माइनिंग) का कार्य बंद हो जाने के बाद बेदिया जनजाति के लोगों ने गाँव की ज़मीनों पर खेती का कार्य आरम्भ किया।

गाँव में अनेक बंद हुए पत्थर खदान हैं, जहाँ से लाइम स्टोन की कटाई करके इर्द-गिर्द स्थापित सीमेंट फैक्ट्रियों को इसकी आपूर्ति की जाती थी। धीरे–धीरे सीमेंट फैक्ट्री और कोयला खदानों के बंद हो जाने से बेकार पड़े खुले खदानों (ओपन माइंस) में जलभराव होने लगा। गाँव में रहने वाले बेदिया जनजाति के लोगों ने बेकार पड़े खदानों में बरसात के पानी को इकठ्ठा करके जलाशय का रूप दे दिया। इन्हीं जलाशयों से अब खेती-बारी में सिंचाई के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता है। लाइम स्टोन के खदानों में बरसात के एक मौसम इतना पानी जमा हो जाता है कि पूरे साल बेदिया आदिवासी अपने खेतों की सिंचाई कर लेते हैं। खदानों से पानी खींचने के लिए सोलर वाटर पंप लगाया गया है। पथरीली ज़मीन पर आदिवासी युवा किसानों द्वारा जैविक विधि से हरी-हरी सब्जियाँ उगाई जा रहीं है। आसपास की मंडियों में इन सब्जियों को बेचकर आदिवासी कृषकों को अच्छा मुनाफ़ा हो रहा है।

लगभग दो सौ परिवारों के इस गाँव में बेदिया जनजाति के लोगों की बहुलता है। युवा किसान बालदेव बेदिया और इनके गोतिया (परिवार के नजदीकी सदस्य) के लोग मिलकर नौ एकड़ पुश्तैनी ज़मीन पर जैविक खेती, मुर्गी पालन और मछली पालन करते हैं। ‘दलित दस्तक’ से बातचीत में बालदेव बेदिया बताते हैं कि पथरीली पठारी ज़मीन होने के कारण पिछली अनेक पीढ़ियों से उनकी ज़मीनों का कोई महत्त्व नहीं था परन्तु जब से बेदिया जनजातियों ने खेती करना आरम्भ कर दिया है, अब यही परती ज़मीन सोना उगल रही है।बेदिया जनजाति के युवाओं में जैविक खेती का क्रेज बढ़ रहा है वे आगे कहते हैं कि इस कंकड़ीली ज़मीन पर टमाटर, शिमला मिर्च, खीरा, भिन्डी, हरीमिर्च, लौकी और बोदी की फली की अच्छी पैदावार होती है। युवाओं ने कुछ महीनों से लाख की खेती करना भी आरम्भ किया है।

पुर्णतः जैविक खेती

कुरकुट्टा गाँव की ज़मीन में पत्थर-कंकड़ की भरमार है। यही कारण है कि लम्बे समय तक यहाँ से पत्थर की व्यावसायिक खुदाई (कमर्शियल माइनिंग) होती रही। इस गाँव से लाइम स्टोन की आपूर्ति आस-पास के इलाकों में संचालित सीमेंट फैक्ट्रियों के लिए की जाती थी। पथरीली भूमि होने के बावजूद जो बात इस गाँव के कृषि व्यवसाय को महत्वपूर्ण बनाती है, वह है यहाँ के बेदिया युवा किसानों द्वारा की जा रही पुर्णतः जैविक खेती। गाँव में कार्यरत शिक्षक कृष्णा गोप बताते हैं कि कुरकुट्टा के बेदिया जनजाति के किसान अपनी खेती में किसी भी प्रकार के रासायनिक कीटनाशक या उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। खाद के रूप में गोबर से गाँव में ही गौ-अमृत और वर्मीकम्पोस्ट का निर्माण किया जाता है और खेती में उनका ही उपयोग किया जाता है। महिला किसान रिंकी कुमारी कहतीं हैं कि पौधों को कीड़े-मकोड़ों और फफुंदियों से बचाने के लिए नीम और धतूरे के पत्तों को पीसकर गाँव में ही तैयार किया गया जैविक कीटनाशक इस्तेमाल किया जाता है।

आधुनिक कृषि पद्धतियों का इस्तेमाल

ग्रीनहाउस, ड्रिपिंग सिस्टम और सोलर एरिगेशन पम्प लगाकर आधुनिक तरीकों से कई एकड़ बंजर भूमि पर कुरकुट्टा के किसान सफलतापूर्वक अनेक प्रकार की सब्जियाँ उगा रहे हैं। बंद हो चुके पत्थर खदानों में एकत्रित जल को आधुनिक ड्रिपिंग सिस्टम की सहायता से क्यारियों तक ले जाया जाता है। कम पानी का इस्तेमाल करके आधुनिक कृषि पद्धति से अत्यधिक मात्रा में हरी और ताज़ी सब्जियों की भरपूर पैदावार की जा रही है। झारखण्ड कर्क रेखा पर बसा है और इसी वजह से सूर्य की किरणें धरती पर सीधी और तीक्ष्ण पड़ती हैं। सब्जियों को तेज़ धूप और कीट-पतंगों के हमले से बचाने के लिए युवा किसानों ने पॉलीहाउस और ग्रीनहाउस बनाया है। इन ग्रीनहाउसों में खीरा, शिमला मिर्च, भिन्डी, हरीमिर्च, लौकी और बोदी की फली की अच्छी पैदावार होती है।

अक्षय ऊर्जा का बेहतरीन उपयोग

बंद पड़े परित्यज्य पत्थर खदानों में एकत्रित बरसात के पानी को खेतों में मोटर पम्प के माध्यम से पहुँचाया जाता है। युवा किसानों की युवा सोच का ही नतीजा है कि सिंचाई हेतु उन्हें विद्धुत आपूर्ति के भरोसे नहीं रहना पड़ता है बल्कि मोटर पम्प को सौर उर्जा से संचालित किया जाता है। सिंचाई के अलावा खेतों और पोल्ट्री फार्म में रौशनी और पंखा चलाने के लिए भी सौर उर्जा का इस्तेमाल हो रहा है। इसके लिए खदानों के नजदीक ही खुली ज़मीन पर सोलर प्लेट्स लगाए गए हैं। सूर्य की रौशनी से इतनी उर्जा निर्मित कर ली जाती है कि खेती-बाड़ी, पोल्ट्री फार्मिंग और रौशनी के लिए इस्तेमाल होने वाले सभी उपकरण सौर उर्जा से संचालित हो रहे हैं।

मुर्गी पालन का काम युवाओं को खूब भा रहा है, इससे आदिवासी युवा आत्मनिर्भर होने लगे हैंबंद पड़े खदानों में मछली पालन

जिन पत्थर खदानों में अब खुदाई का काम बंद हो चुका है, बरसात का पानी एकत्रित होने के कारण ऐसे खदान छोटे-बड़े जलाशयों में तब्दील हो गये हैं। बेदिया जनजाति के युवा कृषकों ने इन पत्थर खदानों में जमा पानी में मछली पालन करना आरम्भ कर दिया है। रोहू और कतला मछलियों की अच्छी-खासी संख्या इन खदानों में पाली जा रही है। इन मछलियों को भोजन एवं व्यवसाय के लिए उपयोग में लाया जाता है।

मुर्गी पालन से मिल रही है आर्थिक मजबूती

जैविक खेती और मछली पालन के साथ-साथ किसानों द्वारा मुर्गी पालन भी किया जा रहा है। लगभग दो हजार चूजों से शुरू किये गए मुर्गी पालन के कारोबार से प्रतिमाह चालीस-पैंतालिस हजार की कमाई एक यूनिट से हो जाती है। आदिवासी युवकों के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता एवं संबल प्रदान करने का महत्वपूर्ण जरिया बन गया है मुर्गी पालन का कारोबार। मुर्गी पालन की सफलता को देखकर गाँव में कई नए यूनिट आरम्भ किये जा रहे हैं। फिलहाल मुर्गी पालन यूनिट में अण्डों का कारोबार नहीं शुरू किया गया है परन्तु सिर्फ चिकन बेचकर ही किसानों को अच्छी कमाई हो रही है। मुर्गी के मल अथवा विष्ठा को स्थानीय बोलचाल की भाषा में बीट कहा जाता है। मुर्गी पालन और जैविक खेती एक साथ करने का अतिरिक्त लाभ आदिवासी कृषकों को यह मिल रहा है कि मुर्गी की बीट का इस्तेमाल खेती में खाद के रूप में किया जाता है।

मुर्गी पालन में जनजातीय युवा खूब रुचि ले रहे हैं, इससे उन्हें आर्थिक मजबूती मिली हैएक मुर्गी से एक दिन में सामान्यतः 32 से 36 ग्राम बीट मिलता है। इसमें 40 फीसदी नमी होती है। यह जैविक फर्टिलाइजर सब्जियों के लिए अत्यधिक लाभकारी है। हॉर्टिकल्चरिस्ट राकेश कुशवाहा बताते हैं कि इस खाद में फॉस्फोरस की मात्रा अन्य खादों के मुकाबले अधिक होती है और यही फॉस्फोरस सब्जियों के आकार को बढ़ाने का काम करता है। मुर्गी की बीट से बना खाद पूरी तरह जैविक होता है और इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है। पॉल्ट्री बीट में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम एवं मैग्नेशियम पाया जाता है, जो पौधों के अत्यंत लाभदायक है। मुर्गी की बीट का अधिक उत्पादन होने पर किसान बीट की बिक्री करके भी अच्छी कमाई सकते हैं।

मिलती रही है सरकारी और गैर-सरकारी मदद

युवा किसान बालदेव बेदिया ने बताया कि ड्रिपिंग सिस्टम, सोलर प्लेट्स, ग्रीन हाउस और मोटर पम्प के लिए समय-समय पर झारखण्ड सरकार और टाटा ट्रस्ट द्वारा कुरकुट्टा गाँव के बेदिया जनजाति के कृषकों की संस्था जागृति जल उपभोक्ता समिति को आर्थिक मदद मिलती रही है। उन्नत खेती के लिए प्रशिक्षण और तकनिकी मार्गदर्शन भी सरकार के द्वारा दिया जा रहा है।

बाज़ार की चुनौती

उपज को स्थानीय बाज़ारों और सब्जी मंडियों में बेचा जा रहा है। गिद्दी, रेलीगढ़ा, नई सराय, रांची रोड़ और रामगढ़ की सब्जी मंडियों में किसान अपनी सब्जियों को बिक्री के लिए पहुँचाते हैं। जैविक खेती करने वाले किसानों को रासायनिक ज़हर मुक्त सब्जी उगाने के बाद भी सब्जी मंडी में कोई विशेष कीमत नहीं मिल पाती है। रासायनिक खाद डालने से सब्जियों की पैदावार अधिक होती है और सब्जी बाज़ार में बेचने लायक बहुत कम समय में तैयार हो जाती है। इसके विपरीत जैविक विधि से सब्जी उगाने वाले किसानों की पैदावार कम होती है और सब्जियाँ देर से तैयार होतीं हैं। जैविक खेती से उगायी गई सब्जियाँ स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित होती हैं परन्तु सब्जी मंडियों में जैविक सब्जियों के लिए कोई अलग मूल्य नहीं मिल पाता है। जैविक खेती करने वाले किसानों को रासायनिक खाद और कीटनाशक डालने वाले किसानों की सब्जियों के दर पर ही अपना माल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अगर सरकार और समाज द्वारा कोई ऐसी पहल हो जिससे जैविक विधि से उगाई गई रासायनिक ज़हर से मुक्त, सेहत के सुरक्षित और फायदेमंद सब्जियों को थोड़ा उंचा दाम मिल सके तो जैविक खेती को और बढ़ावा मिलेगा।

बेदिया जनजाती के युवा जैविक खेती पर ध्यान दे रहे हैं, जिसकी बाजार में भारी मांग है

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अनुसार और 2000 के अधिनियम 30 द्वारा सम्मिलित झारखंड की प्रमुख जनजातियों में एक है बेदिया जनजाति। कुरकुट्टा गाँव झारखण्ड के उसी इलाके में बसा है, जहाँ बेदिया जनजाति का मूल स्थान बताया जाता है, हालाँकि ये अभी तक अप्रमाणिक तथ्य है। ऐसा माना जाता है कि महूदीगढ़ नामक स्थान में बेदिया जनजाति के लोग आदिम युग से रहते चले आए थे। फिर किसी कारणवश बेदिया जनजाति के लोगों में पलायन शुरू हुआ और इस जनजाति के लोग झारखंड के विभिन्न भागों और बंगाल में फैल गए। पलायन करके पश्चिम बंगाल जाने वाले बेदिया लोग साँप पकड़ने, तमाशा दिखाने और जड़ी-बूटी बेचने का काम करते हैं। जिस महूदीगढ़ को बेदिया जनजाति का मूल स्थान बताया जाता है, वह हजारीबाग जिले के बड़कागाँव के पास ही स्थित है। महूदीगढ़ के पास महूदी पहाड़ है, जिस पर चट्टान को काट-काट कर बनाई गई गुफाएँ और पुरातन काल के मंदिर आज भी हैं। कुरकुट्टा गाँव के किनारे जो पहाड़ी है उसे राँझी और दुसरे को टुट्की नाम से पुकारते हैं। ये पहाड़ियाँ उसी महूदी पहाड़ की श्रृंखला का हिस्सा हैं, जहाँ से पलायन करके बेदिया जनजाति झारखण्ड के अलग-अलग हिस्सों में गए थे।

जब तक कोयला के खदान सुचारू ढंग से संचालित होते थे, कुरकुट्टा गाँव निवासी बेदिया जनजाति के लोग बड़ी संख्या में कोयलाकर्मी के तौर पर कार्य करते रहे। कोयला खदानों और सीमेंट फैक्ट्रियों के बंद होने के बाद बेदिया जनजाति ने अपनी बंजर ज़मीनों को हरा-भरा बनाने का हुनर सीख लिया है और अब कृषि ही उनका मुख्य पेशा है। अन्य सभी आदिवासियों की भाँति ही बेदिया जनजाति के लोग भी स्वभावतः प्रकृति प्रेमी होते हैं। इसीलिए जब वे कृषि को अपने पेशे के तौर पर अपनाते हैं तो पर्यावरण, मवेशी और धरती की फिक्र भी उसमें शामिल होती है। कुरकुट्टा गाँव में जनजातीय युवाओं द्वारा सफलतापूर्वक की जा रहा एकीकृत कृषि एक नायाब उदाहरण है, जिसमें कृषि के विभिन्न घटकों जैसे फसल व साग-सब्जियों का उत्पादन, मवेशी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, अक्षय उर्जा का इस्तेमाल, कृषि उत्पादों को बाज़ार से जोड़ना आदि गतिविधियों को इस प्रकार समेकित किया गया है कि वे एक-दूसरे के पूरक बन गए हैं। भूख के खिलाफ अस्तित्व की जंग पर जीत हासिल कर स्वावलंबन की ओर बढ़ते हुए कुरकुट्टा गाँव के बेदिया जनजाति के युवा किसानों की कहानी प्रेरणा देती है।


लेखक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। इनकी दिलचस्पी खासकर ग्राउंड रिपोर्ट और वंचित-शोषित समाज से जुड़े मुद्दों में है। दलित दस्तक की शुरुआत से ही इससे जुड़े हैं।

ये मुसहर टोली है, यहां न सीएम योजना पहुंची, न ही पीएम योजना

भारत में दलितों की स्थिति देश के कई हिस्सों में आज भी बदतर है। आज भी वो मूल अधिकारों और जीवन जीने की जरूरी चीजों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दलितों की एक बड़ी आबादी तक आज तक न तो शिक्षा पहुंच पाई है और न ही सरकारी संसाधन। दलितों में भी दलित कही जाने वाली एक जाति होती है- मुसहर। इनकी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति इतनी खराब है कि बमुश्किल मुसहर समाज का कोई व्यक्ति ऐसा मिलेगा जिसका जीवन बेहतर हो। गरीबी में सनी इस समाज की बड़ी आबादी तक आज तक सरकारी मदद के नाम पर मुट्ठी भर अनाज के अलावा बाकी चीजें कम ही पहुंची है। प्रधानमंत्री आवासीय योजना, मुख्यमंत्री नल-जल योजना और ऐसे ही तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद आज तक न इनके सर पर पक्की छत पहुंची है, और न ही दरवाजे पर नल।

दलित दस्तक के रिपोर्टर गुड्डू कश्यप ने बिहार के सारण जिले के नगरा प्रखंड के एक मुसहर बस्ती की जमीनी हकीकत की पड़ताल की। और जो नतीजें सामने आएं हैं, वो चौंकाने वाले थे। देखिए यह रिपोर्ट-

जयंती विशेषः ज्योतिबा राव फुले और गुलामगिरी

 1 जून, 1873 को ज्योतिराव फुले (11अप्रैल 1827 – 28 नवम्बर 1890) की रचना ‘गुलामगिरी’ का प्रकाशन हुआ था। यह किताब मराठी में लिखी गयी। इसकी प्रस्तावना फुले ने अंग्रेजी में और भूमिका मराठी में लिखी है। इस किताब को लिखने का मूल उद्देश्य बताते हुए फुले ने लिखा है कि ‘इस किताब को लिखने का एकमात्र उद्देश्य सभी उत्पीड़ित लोगों को उनकी गुलामी का अहसास दिलाना, उनको इस योग्य बनाना कि वे अपनी इस हालात के कारणों को पूरी तरह समझ सकें और अपने आप को ब्राह्मणों की गुलामी, उत्पीड़न एवं अन्याय से मुक्त करने के लिए सक्षम बना सकें (गुलामगिरी की भूमिका)। फुले ने करीब 12 किताबें लिखी हैं। इन सभी किताबों में उन्होंने ऐसी शैली और भाषा का प्रयोग किया है, जिससे ये किताबें व्यापक दलित-बहुनजों और मेहनतकशों स्त्री-पुरुषों को समझ में आ जाएं। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए फुले ने गुलामगिरी भी संवाद शैली में लिखा और उसे विभिन्न छोटे-छोटे परिच्छेदों में विभाजित किया। गुलामगिरी में कुल सोलह परिच्छेद हैं। इसके अलावा उन्होंने इसमें एक लंबा पंवाड़ा और बहुजन संत तुकाराम की शैली पर लिखित तीन अभंग भी समाहित किया है।

फुले ने इस किताब को यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका) के उन लोगों को समर्पित किया है, जो नीग्रो गुलामों की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्हें समर्पित करते हुए फुले ने लिखा है कि “यूनाइटेड स्टेट्स के उन महान लोगों के सम्मान में, जिन्होंने नीग्रो लोगों को गुलामी से मुक्त कराने के कार्य में उदारता और निष्पक्षता के साथ सहयोग किया और उनके लिए कुर्बानी दी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे देशवासी उनके इस सराहनीय कार्य का अनुकरण करें और अपने शूद्र भाइयों को ब्राह्मणी जाल से मुक्त कराने में अपना सहयोग करें” (गुलामगिरी, समर्पण पृष्ठ)।

यह किताब सोलह परिच्छेदों में विभाजित है। इन सोलह परिच्छेदों में प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में ब्राह्मणों और शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच चले संघर्षों की कथा कही गई है। यहां एक तथ्य रेखांकित कर लेना जरूरी है कि फुले पश्चिमोत्तर भारत, विशेषकर आज के महाराष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना के संदर्भ में यह किताब लिख रहे हैं। जहां मूलत: शू्द्रों-अतिशूद्रों पर वर्चस्व कायम करने और उन्हें अपना गुलाम बनाने वाली जाति ब्राह्मण रही है। वहां द्विज क्षत्रिय जैसी जाति नहीं रही है। समाज का विभाजन मूलत: शोषक-उत्पीड़क ब्राह्मण और शोषित-उत्पीड़ित शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच था।

 

फुले अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में बताते हैं कि इस क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन और बाद में उनके द्वारा वर्चस्व स्थापित करने से पहले यहां वर्ण या जाति का विभाजन नहीं था। यहां एक समता आधारित राज्य था। जिसके प्रतीक बलि का राज्य या बलि राजा हैं। यह एक आर्थिक तौर पर समृद्ध इलाका था। जहां सभी खेती-किसानी करते थे और जरूरत पड़ने पर बाहरी दुश्मनों से युद्ध करते थे। इसके चलते सभी क्षत्रिय थे। फुले ने सबको क्षत्रिय के रूप में संबोधित भी किया है। परिच्छेद छह में बलि राजा और उनके राज्य का वर्णन करते हुए फुले ने लिखा है कि “इस देश का एक बड़ा भाग बलिराज के अधिकार में था।…दक्षिण में बलि के अधिकार में दूसरा एक प्रदेश था, उसको महाराष्ट्र कहा जाता है। वहां के मूल निवासियों को महाराष्ट्रियन कहा जाता था। बाद में अपभ्रंश रूप हो गया मराठे।” फुले गुलामगिरी में यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणों के वर्चस्व के पहले मराठों में कोई वर्ण-जाति विभाजन नहीं था। मराठों की संख्या ब्राह्मणों से दस गुनी अधिक थी। मराठों को हमेशा-हमेशा के लिए अपने अधीन बनाने के लिए ब्राह्मणों ने शिक्षा का अधिकार छीन लिया और उन्हें हजारों जातियों में विभाजित कर दिया।

गुलामगिरी की भूमिका में स्वयं फुले ने यह सवाल उठाया है कि शूद्रों-अतिशूद्रों की संख्या तकरीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रों- अतिशूद्रों को कैसे मटियामेट कर दिया? स्वंय फुले इसका जवाब देते हैं। वे लिखते हैं ‘सबसे पहले ब्राह्मणों ने शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच नफरत की भावना फैलाने के लिए योजना तैयार की। उन्होंने प्रेम की बजाय नफरत के बीज बोये। इसके पीछे उनकी चाल यह थी कि शुद्र-अतिशूद्र समाज आपस में लड़ते रहेंगे, तभी ब्राह्मणों का वर्चस्व मजबूत होगा और स्थायित्व ग्रहण करेगा। उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बना लेंगे और बिना मेहनत किए उनकी (शूद्रों-अतिशूद्रों) कमाई पर बिना किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ा पायेंगे। अपनी इसी विचारधारा और चाल को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ब्राह्मणों ने जाति-भेद की फौलादी-जहरीली दीवारें खड़ी की। जाति-भेद की इस विचारधारा को शूद्र-अतिशूद्र भीतर से स्वीकार कर लें, इसके लिए जाति-भेद को ईश्वर की रचना बताने के लिए ब्राह्मणों ने बहुत सारे ग्रंथ रचे।

 

इस सबका परिणाम यह हुआ कि कभी एक ही समाज के लोग अब एक दूसरे को नीच समझने लगे, एक दूसरे से नफरत करने लगे और आपस में लड़ने लगे। शूद्र-अतिशूद्र समाज की आपस की फूट का ब्राह्मणों ने कैसे फायदा उठाया। इस पूरी स्थिति पर ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ’ कहावत बहुत सटीक बैठती है। इसका मतलब समझाते हुए फुले कहते हैं कि ब्राह्मण-पंडा पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के बीच आपस में नफरत का बीज (जाति) बो दिया और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशो-आराम कर रहे हैं। सोलह परिच्छेदों में विभाजित गुलामी के पहले परिच्छेद में फुले ब्रह्मा की उत्पत्ति और आर्यों के आगमन की विस्तार से चर्चा करते हैं। कैसे ब्राह्मणों ने स्वयं को भूदेव या धरती का देवता बनाया, इस पर विस्तार से रोशनी डालते हैं। इस परिच्छेद में ब्राह्मण जाति की धूर्तता और उसके बर्बर चरित्र की चर्चा की गई है। फुले लिखते हैं कि ‘सबसे पहले उन आर्य लोगों ने बड़ी-बड़ी टोलियां बनाकर इस देश में आकर कई बर्बर हमले किए और यहां के मूल निवासी राजाओं के प्रदेशों पर बार-बार हमले करके आतंक फैलाया। (गुलामगिरी, पहला परिच्छेद)। परिच्छेद दो में ब्राह्मणों के अगुवा मत्स्य और उसके हमले की चर्चा की गई। परिच्छेद तीन में कच्छ, भूदेव, भूपति, द्विज, कश्यप और क्षत्रिय आदि का वर्णन किया गया है। इसमें आर्य-ब्राह्मणों के अगुवा कच्छप के नेतृत्व में मूल निवासियों पर होने वाले हमले का वर्णन है। परिच्छेद चार-पांच में आर्यों-ब्राह्मणों के नेता वराह द्वारा मूल निवासियों के राजा हिरण्यकश्यप और हिरण्यगर्भ की छल से हत्या की कहानी की हकीकत को फुले ने उजागर किया है। इसी में हिरण्यकश्यप के बेटे प्रहलाद को अपने जाल में फंसाने की ब्राह्मणों की चाल को दिखाया गया है। इस युद्ध में वराह और नरसिंह आर्यों के अगुवा थे। परिच्छेद छह बलिराजा और उनके राज्य पर केंद्रित है। कैसे ब्राह्मणों के अगुवा वामन ने उनकी हत्या किया, इसका वर्णन किया गया है। महाराष्ट्र के समाज में बलिराजा को लोग कितना प्यार एवं सम्मान देते हैं और उनके राज्य की वापसी की आज भी चाह रखते हैं। इस तथ्य को फुले ने महाराष्ट्र के लोक में व्यापक तौर पर स्वीकृत “अला बला जावे और बलि का राज्य आवे” के माध्यम से प्रकट किया है।

ये सभी परिच्छेद इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि आर्य-ब्राह्मणों ने मूल निवासियों के राज्य पर कई बार हमले बोले। उनके बीच युद्ध हुआ। अंततः मूल निवासियों की पराजय और ब्राह्मणों की विजय हुई। आर्य-ब्राह्मणों में सबसे कूर, नृशंस और बेरहम परशुराम था। फुले के अनुसार परशुराम के द्वारा 21 बार जिन क्षत्रियों के विनाश की कथा पुराणों में कही गई है, वे क्षत्रिय कोई और नहीं, बल्कि यहां के मूल निवासी शूद्र-अतिशूद्र थे। परशुराम ने किस नृशंसता से उनका कत्ल किया, इसका विस्तार से वर्णन परिच्छेद आठ में किया गया है। परिच्छेद नौ, दस, ग्यारह, बारह में ब्राह्मणों के पूर्ण वर्चस्व की स्थापना की कथा कही गई है। परिच्छेद तेरह से लेकर पंद्रह तक, आधुनिक युग में अंग्रेजों के आगमन, शूद्रों-अतिशूद्रों की स्थिति में थोड़ा सुधार एवं परिवर्तन, अंग्रेजों के राज्य में भी कैसे ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व कायम किया, इसका वर्णन किया गया है। इन परिच्छेदों में अंग्रेजी राज कैसे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए थोड़ी राहत लेकर आया? कैसे इन समुदायों को थोड़ी आजादी और सांस लेने का मौका मिला और इस अवसर का फायदा शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा पाने के लिए उठाया इसका भी वर्णन किया है। गुलामगिरी के एक भाग में फुले लिखते हैं- मनु जलकर खाक हो गया, जब अंग्रेज आया। ज्ञान रूपी मां ने हमको दूध पिलाया।।

इन्हीं परिच्छेदों में ब्राह्मणवादी पेशवाई की पराजय और अंग्रेजों की विजय के परिणामों की भी चर्चा है। सब कुछ के बावजूद भी अंग्रेजी शिक्षा का फायदा उठाकर ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के राज्य में कैसे अपना वर्चस्व कायम रखा फुले इसके कारणों की भी विस्तार से चर्चा करते हैं। परिच्छेद सोलह में ब्राह्मणों के चुंगल से शूद्रों-अतिशूद्रों की कैसे मुक्ति हो, इस विषय पर केंद्रित है। इसमें वे शूद्रों-अतिशूद्रों के प्रतिनिधि के रूप में तीन प्रतिज्ञा लेते हैं- ब्राह्मणों ने जिन तीन प्रमुख धर्मग्रंथों के आधार पर शूद्र-अतिशूद्र लोग ब्राह्मण के गुलाम हैं और उनके जिन ग्रंथों में हमारी गुलामी के समर्थन में लिखा गया है, हम उन सभी धर्मग्रंथों को खारिज करते हैं। जो कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नीचा समझने का आचरण करता है। हम उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देंगे। जो गुलाम ( शूद्र, दास, दस्यु) के अपने रचयिता को मानकर नीति के अनुसार चलने और जीविकोपार्जन का उचित साधन अपनाने का निर्णय करते और उसके अनुसार अपना आचरण करते हैं। उनको हम अपने परिवार के भाई की तरह मानेंगे, उन्हें प्यार करेंगे और उनके साथ खाना-पीना करेंगे। चाहे वे लोग किसी भी देश के रहने वाले क्यों न हों। (गुलामगिरी परिच्छेद: सोलह) इस किताब का अंत अभंग की इन निम्न पंक्तियों से होता है- हम शिक्षा पाते ही, पाएंगे वह सुख। पढ़ लो मेरा लेख, ज्योतिराव कहे।।

विदेशी धरती पर अंबेडकर जयंती की धूम, भारतीय मीडिया में चुप्पी

खबर चलाने वाले खबर खा ले रहे हैं और डकार भी नहीं ले रहे। भारतीय मीडिया टीवी में दिनभर बैठ कर यह बात करता है कि अमेरिका जैसा एक दिन भारत होगा। लेकिन वही मीडिया, भारत के सबसे बड़े राष्ट्रनिर्माता के गौरव को छिपा रहा है। अमेरिका के वॉशिंगटन स्टेट ने Dalit History Month की घोषणा की है, तो अमेरिका के ही मिशिगन स्टेट में Social Eqyity Week की घोषणा की गई है, जो की 9– 15 अप्रैल के बीच में मनाया जाएगा। ये मीडिया डॉ. आंबेडकर की बात सिर्फ नाम भर के लिए लेती है, बाकी उनसे जुड़ी खबरें पचा जाती है।

 वहीं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गौतम बुद्ध का नाम पुरी दुनिया भर में जपते हैं “कि मैं बुद्ध के देश से आया हूं”, पर जब भारत आते हैं; तब उनके लिए इस देश के मायने कुछ और हो जाते हैं। सिंपल भाषा में कहें तो ये देश बुद्ध का देश नहीं रहता, भगवान चेंज हो जाते हैं। यह बात साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे देशों से संबंध बनाने के लिए भगवान बुद्ध को इस्तेमाल करते हैं। कई बार इसमें उनका स्वार्थ और मौका परस्ती भी झलक जाती है। जब विदेश में कुछ बड़ा होता है, तब यही मीडिया  पीछे–पीछे तक विदेश चला जाएगा। वहां से जाकर रिपोर्टिंग करेगा। रशिया और यूक्रेन की लड़ाई में यूक्रेन तक चला जाएगा, जिसमें उसका टीआरपी छोड़ कोई राष्ट्र परस्त भाव दिखता नहीं है। लेकिन जब देश के सबसे बड़े राष्ट्र निर्माता को दुनिया भर में तवज्जो दी जा रही है, तब भारतीय मीडिया गूंगी हो गई है। क्यों गूंगी हो गई है, यह बड़ा सवाल है?

क्या यह देश के लिए गर्व का विषय नहीं है कि वॉशिंगटन शहर में दलित हिस्ट्री मंथ घोषित किया गया? यह खबर भारत राष्ट्र के संविधान निर्माता से जुड़ी है। भारत से जुड़ी है। तो क्या देश के लोगों को इस बात पर गर्व नहीं होना चाहिए? पीएम मोदी को भी इससे सीख लेकर भारत में दलित हिस्ट्री मंथ घोषित नहीं करनी चाहिए। आश्चर्य तो यह है कि भारतीय मीडिया में यह खबर गायब है। दरअसल यही भारतीय मीडिया का असली चेहरा है। वो ना जाने ऐसी कितनी ख़बरों को हर रोज अनदेखा करते या दबा देते हैं, जो दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं। उसे इससे ज्यादा दो हजार के नोट में चिप की झूठी खबर महत्वपूर्ण लगती है। इससे यह भी पता चलता है कि भारतीय मीडिया आंबेडकर विरोधी है, दलित विरोधी है और मनुवादी है, जिसे बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा रचा गया इतिहास फूटे आंख नहीं सुहाता।

Canada में होगा Ambedkar Jayanti का सबसे खास प्रोग्राम, दुनिया भर से जुटेंगे ये दिग्गज

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अंबेडकर जयंती की तैयारियों जोर पकड़ चुकी हैं। चाहे भारत हो, चाहे अमेरिका, चाहे इंग्लैंड या फिर कनाडा, दुनिया भर के अंबेडकरवादियों में अंबेडकर जयंती का खासा उत्साह है।

कनाडा के वैंकुअर के अंबेडकरवादी इसे Dr. Ambedkar International Symposium for Emancipation and Equality Day के तौर पर मना रहे हैं। यानी इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी को मुक्ति और समानता दिवस के रूप में आयोजित किया जा रहा है। कार्यक्रम 21 अप्रैल से 26 अप्रैल तक चलेगा। कार्यक्रम का आयोजन चेतना एसोसिएशन ऑफ कनाडा और अंबेडकराइट इंटरनेशनल को-ऑर्डिनेशन सोसाइटी (AICS) संगठन मिलकर कर रहे हैं।

इस अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से शामिल होने के लिए अंबेडकरवादी पहुंच रहे हैं। इस दौरान बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा दिये गए तमाम सिद्धांतों पर लगातार छह दिनों तक कार्यक्रमों का आयोजन होगा। इसमें बुद्धिज्म से लेकर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के द्वारा दिये गए समानता के सिद्धांत सहित तमाम महत्वपूर्ण विषय शामिल हैं।

इस कार्यक्रम में विशेष आमंत्रित सदस्यों में जज नीतू बधान स्मिथ, एमएलए लीला अहिर, ग्लोबल रेडियो से मीरा इस्त्रादा, भंते सरनपाला, दलित दस्तक के संपादक अशोक दास और राज रतन अंबेडकर शामिल होंगे।

इस कार्यक्रम को करने के लिए कई सदस्यों की अलग-अलग कमेटी बनी है।  इसकी स्टेयरिंग कमेटी के सदस्यों में जय बिरदी, परम कैंथ, सुजीत बैंस, हरमेश चंदर, आनंद बाली, हरजिंदर मॉल शामिल हैं। जबकि इसके एकेडमिक एडवाइजर में जेएनयू के प्रो. विवेक कुमार, डॉ. के.पी. सिंह, डॉ. सूरज येंगड़े, डॉ. सुजाता, डॉ. युवराज नरानवारे शामिल हैं।

21 अप्रैल से 26 अप्रैल तक चलने वाले इस आयोजन में 23 अप्रैल को बाबासाहेब की जयंती समानता दिवस के रूप में मनाई जाएगी। जबकि 24 अप्रैल को कनाडा के बर्नाबी शहर में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पन किया जाएगा।

कनाडा का बर्नाबी वह ऐतिहासिक शहर है, जहां की सिटी काउंसिल ने 2020 में बाबासाहेब की जयंती 14 अप्रैल को ‘डॉ. अंबेडकर डे ऑफ इक्वालिटी’ के तौर पर मनाने का ऐलान किया था। बीते साल 2022 में कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रोविंस ने अप्रैल महीने को ‘दलित हिस्ट्री मंथ’ के तौर पर मनाने की घोषणा की थी। इन दोनों बड़ी घोषणाओं में कनाडा के अंबेडकरवादी संगठनों चेतना एसोसिएशन ऑफ कनाडा और अंबेडकराइट इंटरनेशनल को-ऑर्डिनेशन सोसाइटी (AICS) की अहम भूमिका थी।

इस कार्यक्रम में मुझे भी आमंत्रित किया गया है। और मैं 18 अप्रैल से 8 मई तक कनाडा में इस आयोजन सहित तमाम अन्य आयोजनों में शामिल होऊंगा। वहां कॉस्ट एंड मीडिया विषय पर अपनी बात रखूंगा। निश्चित तौर पर इस तरह के कार्यक्रम दुनिया भर के अंबेडकरवादियों को एक साथ लाने और एक नए विचार को दुनिया भर में ले जाने में अहम भूमिका निभाएंगे। इस तरह के आयोजन होते रहने चाहिए।

भारत के सवर्णों के लिए क्यों अछूत हैं “सम्राट अशोक”

इस बार आज 29 मार्च 2023 को सम्राट अशोक की जयंती मनाई गई। ऐसे लोगों द्वारा जो अशोक की महानता को, भारत के लिए उनके योगदान को और बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में उनके योगदान को भूले नहीं है। लेकिन भारत की सरकारों ने उस सम्राट अशोक को अनदेखा कर दिया, जिसके राज्य का चिन्ह आज भी इस्तेमाल होता है। जिसका दिया चक्र, जिसे अशोक चक्र कहा जाता है, भारत के तिरंगे में है। चाहे कांग्रेस की सरकार हो, जनता दल की सरकार हो, गठबंधन की सरकारें रही हों, या अब भाजपा की सरकार हो, भारत की तमाम सरकारों ने अगर सम्राट अशोक को नजरअंदाज कर दिया, तो सवाल उठता है ऐसा क्यों?

पहले बात सम्राट अशोक की। ताकि आप सम्राट अशोक की महानता समझ सकें।

सम्राट अशोक, जिनका जिक्र ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232 को याद करते हुए होता है, भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। उनका पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक था। उनका राज्य काल ईसा पूर्व 269 से, 232 प्राचीन भारत में था। तमाम स्रोतों के मुताबिक मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक का साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल पाटलीपुत्र से पश्चिम में अफ़गानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान तक पहुँच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है।

इसी वजह से सम्राट अशोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है- ‘सम्राटों के सम्राट’। यह स्थान भारत में केवल सम्राट अशोक को मिला है। सम्राट अशोक को बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी जाना जाता है। इस वजह से आज के बौद्ध समाज में सम्राट अशोक को काफी अहम दर्जा दिया जाता है।

सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़गानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। सम्राट अशोक अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा।

बावजूद इसके सम्राट अशोक भारत के सत्ताधारियों के बीच अनदेखे हैं। उनकी महानता का जिक्र सत्ता में बैठे लोग नहीं करते। दरअसल भारत की सत्ता में बैठे लोग सम्राट अशोक को एक चक्रवर्ती राजा के तौर पर तो याद करना चाहते हैं, लेकिन वो सम्राट अशोक को ऐसे महान राजा के रूप में याद नहीं करना चाहते, जिसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और जिनकी वजह से न सिर्फ भारत बल्कि एशिया के कई हिस्से बौद्धमय हो गए। क्योंकि ऐसा करना उनको सूट नहीं करता।

दरअसल सम्राट अशोक और बौद्ध धर्म से उनके जुड़ाव की कहानी ऐतिहासिक कलिंग युद्ध के बाद परवान चढ़ी। हालांकि वो पहले से ही कुछ बौद्ध भिक्खुओं के संपर्क में थे। लेकिन कलिंग युद्ध में जब लाखों लोग मारे गए तो सम्राट अशोक परेशान हो गए। उनका मन मानवता के प्रति दया और करुणा से भर गया। और उन्होंने फिर कभी युद्ध न करने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से अशोक के आध्यात्मिक और धम्म जीवन का युग शुरू हुआ। और महान चक्रवर्ती सम्राट ने महान बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।

 अशोक की यही पहचान भारत की सत्ता में एक के बाद एक आने वाले नेताओं और राजनैतिक दलों को रास नहीं आती है। क्योंकि अगर वो सम्राट अशोक का जिक्र करेंगे तो उन्हें अशोक की महानता का जिक्र करना पड़ेगा। उनके शासनकाल में हुए तमाम ऐतिहासिक कामों को याद करना पड़ेगा।

उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक के ही समय में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई थीl जिसमें विश्वविख्यात तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, कंधार, आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। …. उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक के शासन काल को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार भारतीय इतिहास का सबसे “स्वर्णिम काल” मानते थे। उन्हें बताना पड़ेगा कि वह सम्राट अशोक का ही शासनकाल था, जिसमें भारत “विश्व गुरु” था और सोने की चिड़िया कहलाया। जनता खुशहाल थी, लोगों के बीच कोई भेदभाव नहीं था।

आज की सरकारों को बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक के ही शासनकाल में सबसे प्रख्यात महामार्ग “ग्रांड ट्रंक रोड” जैसे कई हाईवे बने। लोगों के ठहरने के लिए सरायें बनायीं गईं थी। मानव तो मानव सम्राट अशोक के शासन में पशुओं के लिए भी पहली बार “चिकित्सालय” (हॉस्पिटल) खोले गएl पशुओं को मारना बंद करा दिया गया।

लेकिन मैंने जैसा कहा कि यह भारत की सत्ता में बैठे लोगों को सूट नहीं करता। क्योंकि जब वो अशोक का जिक्र करते हुए उनकी महानताओं का जिक्र करेंगे तो सवाल उठेगा कि अब अशोक जैसा शासन क्यों नहीं है? सवाल उठेगा कि फिर जब सम्राट अशोक के समय भारत बौद्धमय था, तो फिर बौद्ध धर्म कैसे खत्म हो गया। और इस सवाल का जवाब देने में कई लोगों के नकाब उतर जाएंगे। कई ऐसे लोगों का नाम आएगा, इतिहास कुरेदा जाएगा। भारत की सरकारें उस इतिहास को दबाए रखना चाहती है।

तब बात बौद्ध धर्म की भी आएगी। भारत के सत्ताधारियों को बताना पड़ेगा कि  मगध साम्राज्य जिसके सम्राट अशोक थे, का इतिहास, भारत का इतिहास रहा है। उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य के हर कोने में शिलालेखों, स्तंभलेखों सहित अन्य अभिलेखों के जरिये आम लोगों को नैतिक के अलावे जीवन की बेहतरी की शिक्षा दी। बताना पड़ेगा कि अशोक के दो लघु शिलालेख, 14 वृहद शिलालेख, 07 स्तंभ लेख, तीन गुफा लेख, चार लघु सतंभ लेख, दो स्मारक स्तंभ लेख मिले हैं। इन अभिलेखों के कई संस्करण अलग-अलग जगहों पर उत्कीर्ण करवाए गए हैं।

उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए 84 हजार बौद्ध स्तूप बनवाएं। बस बात यहीं आकर रूक जाती है। क्योंकि हिन्दू राष्ट्र बनाने की होड़ में अशोक का बौद्ध प्रेम एक बड़ी बाधा है।

इसलिए भारत की सत्ता में बैठे लोग अशोक काल में उकेरे गए प्रतीतात्मक चिह्न, जिसे हम ‘अशोक चिह्न’ के नाम से जानते हैं और जो आज भारत का राष्ट्रीय चिह्न है, उसका तो इस्तेमाल करेंगे। वो सम्राट अशोक के राज चिन्ह “अशोक चक्र” को अपने भारतीय ध्वज में तो लगाएंगे। वो सम्राट अशोक के राज चिन्ह “चारमुखी शेर” को भारतीय “राष्ट्रीय प्रतीक” तो मानेंगे, देश में सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान, सम्राट अशोक के नाम पर “अशोक चक्र” तो देंगे, लेकिन भारत के सम्राट अशोक को याद नहीं करेंगे।

यह हैरान करने वाली बात है कि जिस सम्राट अशोक से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट नहीं हुआ जिसने “अखंड भारत” पर एक-छत्र राज किया हो। और जिसके नाम के साथ दुनिया भर के इतिहासकार “महान” शब्द लगाते हैं। उन्हीं के देश में उनकी जयंती नहीं मनाई जाती और ना ही कोई सार्वजानिक अवकाश रहता है।

जरा सोचिए, अगर सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म नहीं अपनाया होता तो भी क्या भारत की सरकार और आजादी के बाद से अब तक सत्ता में बैठे लोग उन्हें इस तरह अनदेखा करते? शायद नहीं। सरकारें भले सम्राट अशोक को भुला देना चाहती हों, लेकिन भारत का अंबेडकरवादी समाज अपने उस सम्राट को आज भी आदर देता है, वही है जो अशोक जयंती पर कार्यक्रम करता है, सम्राट अशोक को याद करता है। भारत को, भारत की सरकार को भी अपने इस महान सम्राट को वह सम्मान देना होगा, जिसके वह हकदार हैं। इसके लिए आवाज उठाने का वक्त आ गया है।

मध्यप्रदेश में जमीन पट्टा न मिलने से परेशान आदिवासी समाज

मध्यप्रदेश का मण्डला जिला एक आदिवासी बाहुल्य है। जो पांचवी अनुसूची क्षेत्र में आता है। इस जिले में बसे आदिवासी समुदाय की आजीविका का प्रमुख साधन खेती है। लेकिन, सहजता से खेती कर पाना इतना सरल नहीं है, यह हमें मण्डला जिले का मोहगांव ब्लॉक बताता है। इस ब्लॉक के 12 गाँव में आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी लोग पीढ़ियों से राजस्व और वन भूमि पर खेती करते आ रहे हैं, लेकिन इन ग्रामीणों को आजतक भू-अधिकार पत्र (पट्टा) प्रदान नहीं किये गये हैं। भूमि के पट्टे ना मिलने से आदिवासी और अन्य परंपरागत निवासी सरकार की किसान सम्मान निधि, कृषि क्षतिपूर्ति जैसी अन्य योजनाओं से वंचित रह जाते है। वहीं, पट्टा न मिलने से लोग जमीन पर आधिकारिक हक भी नहीं जता पाते।

ऐसे में यहां के निवासियों ने दखल रहित भूमि अधिनियम 1970 के प्रावधान के तहत एक अभियान चलाकर कलेक्टर के नाम 300 व्यक्तिगत ज्ञापन सौंपा है। किसानों के इन ज्ञापनों को जब हम देखते और अध्ययन करते हैं, तब ज्ञापन में उल्लेखित जानकारी का अंश कुछ इस प्रकार उल्लिखित मिलता है:-

मैं सियाराम झारिया पिता राम कृपाल, ब्लॉक मोहगांव, जिला मंडला मध्यप्रदेश का मूल निवासी हूं। मैं राजस्व भूमि विगत 50 वर्षो, पीढ़ियों से काबिज होकर मकान बनाकर रहा हूं। मेरे पास अजीविका का यही मात्र एक साधन है। …. श्रीमान जी से प्रार्थना है कि, हमारी अर्जी को संज्ञान में लेते हुए, मध्यप्रदेश सरकार की मंशा अनुसार उचित जांच कराकर (भू-अधिकार पत्र) दिलाने का कष्ट करें। जिससे हम अपने परिवार का भरण-पोषण अच्छे से कर सकें। जगह काबिज अनुमानित रकबा 1 एकड़ है।

ऐसा ही, वर्णन 300 किसानों ने अपने ज्ञापनों में किया है। कलेक्टर के नाम पट्टा प्राप्ति का ज्ञापन सौपने वाले कुछ किसानों से हमने बात की। जिनमें से एक किसान सहदेव कुमार भवेदी भी है। इनका कहना है कि,‘जब मैं पैदा नहीं हुआ था, तब से हमारी इस जमीन पर हम खेती करते आ रहे हैं। हमें इस गैर पट्टा वाली जमीन पर किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिलता है। हमारी सरकार से मांग है कि हमारी जमीन का पट्टा बनाये। पट्टा ना होने से गांव वाले कहते हैं पट्टा है नहीं, जमीन पर कब्जा किये हो। ऐसे में लड़ाई के हालात बन जाते हैं। यहां सवाल यह है कि क्या इस स्थिति में सहदेव कुमार भवेदी सहित अन्य किसानों के स्वतंत्रता और बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य प्रभावित नहीं होते?

किसानों की काबिज भूमि के पट्टे प्राप्ति का अभियान चलाने में अहम भूमिका निभाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा का कहना है कि, ‘यह कहानी मंडला जिले के मोहगांव ब्लॉक के 12 गाँवों की है। जहां पीढ़ियों से लोग काबिज भूमि पर खेती करते आ रहे हैं। लेकिन उन्हें अब तक पट्टा नहीं मिला। जिससे किसानों को कृषि योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिलता। सिन्हा आगे कहते हैं, ‘मेरे ख्याल से मध्यप्रदेश में अगर सर्वे किया जाए, तो ऐसे हजारों परिवार मिलेगें। जो कि पीढ़ियों से खेती करते आ रहे हैं। लेकिन उन्हें पट्टे नहीं मिले।

इस पूरे मामले में सरकार का रुख सरकार पर कई सवाल खड़े करता है। मध्य प्रदेश सरकार जो शहरों में बसाहट है; उसकी नजूल भूमि का पट्टा देने की तो बात कर रही है, लेकिन ग्रामीण इलाको में जो लोग खेती करते आ रहे हैं, उनके पट्टे के बारें में अभी तक सरकार का कोई जवाब नहीं आया। प्रभावित परिवारों का सवाल है कि क्या पीढ़ियों से खेती कर रहे लोगों को पट्टा ना मिलना और उनका जवाब ना आना लोगों के विश्वास और न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों पर संकट पैदा नहीं करता?

जमीन पट्टों के संबंध में कानून की बात करें तब वन अधिकार अधिनियम 2006 आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को वन संसाधन भूमि अन्य के अधिकारों की मान्यता प्रदान करता है। यह कानून व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों को जमीन और जंगल का हकदार बताता है। मुख्यत: ग्रामसभा को दावों और अधिकारों की प्रक्रिया चलाने के लिए मजबूत करता है। ऐसे ही, पेसा एक्ट जो जल, जंगल और जमीन के अधिकार और आदिवासियों को मजबूत बनाने की बात करता है। इन दोनों अधिनियम के सहारे ही आदिवासी एवं अन्य मूलनिवासी लोग जमीन पट्टों की माँग करते हैं। लेकिन, उनकी यह मांग अक्सर ज्ञापनों और फ़ाइल्स में सिमट कर रह जाती है।

मंडला में जमीन पट्टे की समस्या इतनी व्यापक है कि वन भूमि अधिकार पत्र हासिल करने के लिए आदिवासी वर्ग के लोगों ने कलेक्टर के अलावा अन्य अधिकारियों को व्यक्तिगत के अलावा सामूहिक आवेदन भी लिखे। इन्हीं आवेदनों में से एक आवेदन अनु-विभागीय अधिकारी मंडला को लिखा गया। आवेदन का कुछ अंश इस प्रकार हैं-

यह आवेदन मध्यप्रदेश सरकार की मंशा अनुसार 13 दिसम्बर 2005 के पूर्व से वनभूमि में काबिज लोगों को वन अधिकार पत्र दिलाए जाने के संदर्भ में है। आवेदन में वर्णित है कि हम समस्त आवेदक गण ग्राम सिमैया, ग्राम पंचायत सिंगापुर, जिला मंडला के मूल निवासी हैं। हम पिछली कई पीढ़ियों से गांव में निवास और खेती करते आ रहे हैं। जिससे हमारे परिवार का पालन पोषण होता है।

पत्र में आगे जिक्र है कि, सन् 2006 में वन अधिकार अधिनियम आने से हमने दावा फार्म भरा है। वन अधिकार पत्र हेतु 2010 से निरंतर कार्यवाही चल रही है। जबकि ग्राम सभा से संकल्प पारित करवाकर एवं गांव के बुजुर्गों का कथन एवं सभी साक्ष्य लगाकर दावा पेश कर चुके हैं। इस वन भूमि को कृषि योग्य बनाने में हमारा काफी श्रम व धन लगा हुआ है। पत्र में आगे वर्णित है: काबिज वन भूमि का संबंधित विभाग द्वारा भौतिक निरीक्षण किया जा चुका है।

फिर, पत्र में लिखा गया कि महोदय जी से निवेदन है कि हम सभी दावेदारों की अर्जी को अपने संज्ञान में लेते हुए हमें वन अधिकार पत्र दिलाने की कृप्या करें। इन वन अधिकार दावेदारों में बलमत, इमरत, चरणलाल और मनीराम सहित 12 लोगों के नाम शामिल है। वन अधिकार पत्र की मांग को लेकर इसी तरह चुभावल ग्राम पंचायत के आदिवासी लोगों ने सामूहिक आवेदन कलेक्टर (मंडला) को लिखा। इस आवेदन पत्र में राजकुमार, लल्लु, सुखदेव और बुधियाबाई सहित 11 लोगों के नाम दर्ज हैं।

अब सवाल यह है कि इतनी कार्यवाही करने और भूमि के भौतिक निरीक्षण के बावजूद पट्टा ना दिया जाना, क्या किसानों की विधि के समक्ष समता (अनुच्छेद 14) को नजर अंदाज नहीं करता?

वहीं, मंडला से करीब 50 किमी दूर एक गाँव है ओढ़ारी। यहाँ बसनिया बांध (अनुमानित लागत 2700 करोड़ रुपए) प्रस्तावित है। बांध में 31 गाँव डूब क्षेत्र में आएंगे। इसमें ग्राम ओढ़ारी भी शामिल है। इस गाँव (ओढ़ारी) के भूतपूर्व सरपंच लम्मू सिंह माराबी सहित कुछ आदिवासी लोगों का दावा है कि, ‘गाँव में लगभग 60 प्रतिशत लोग 80-90 वर्षों (दादा-परदादा) के समय से वन और राजस्व भूमि पर खेती करते आ रहें हैं। लेकिन हमलोगों को अब तक भू-अधिकार पत्र (पट्टा) नहीं मिला। हमने कई बार पट्टे की मांग की, पर पट्टा नहीं मिला।’

जमीन पट्टे से जुड़े इस मामले में ‘दलित दस्तक’ ने वन विभाग का पक्ष जानना चाहा। वन विभाग का रवैया टाल-मटोल वाला रहा। विभाग का कहना था कि ‘अभी उन लोगों को कोई यहां से भगा नहीं रहा है। जब भगायेगा तो देखा जायेगा।’ लेकिन श्याम सिंह टेकाम सहित अन्य आदिवासियों का इस मामले में अलग मत है। वर्तमान स्थिति का जिक्र करते हुए वो कहते हैं कि, ‘आज की स्थिति यह है कि बसनियाँ बांध ओढ़ारी ग्राम में प्रस्तावित किये जाने से हमारा पट्टा भी गया और जमीन (जीविका का एक मात्र साधन) भी जा रही ऐसे में हमारी जीविका पर सीधा संकट पैदा हो जायेगा।

ओढ़ारी ग्रामवासियों ने यह भी कहा कि,‘पटटे की समस्या केवल हमारे गांव की ही नहीं, बल्कि हमारे आस-पास धनगांव, चिमकाटोला, रम्पुरा, बिलगड़ा जैसे अन्य आदिवासी गांव की भी है। ओढ़ारी या अन्य ग्रामवासियों की जमीन यदि बसनिया बांध डूबती है और उन्हें पट्टा ना होने से मुआवजा नहीं मिलता। तब क्या इन ग्रामवासियों के आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का हनन नहीं होगा?

मध्य प्रदेश में जमीन पट्टों के इन मामलों को विधानसभा में मंडला के क्षेत्रीय (निवास विधानसभा) विधायक डॉ. अशोक मर्सकोले ने उठाया था। लेकिन, समाधान योग्य कोई जवाब नहीं आया। विधायक अशोक मर्सकोले द्वारा विधानसभा में यह सवाल उठाया गया था। उन्होंने पूछा था कि, क्या राजस्व मंत्री महोदय यह बताने की कृप्या करेंगे कि शासकीय राजस्व भूमि पर विगत कई वर्षो से खेती करते आ रहे काश्तकारों को पट्टा देने की क्या कार्य योजना और प्रावधान है? उन्होंने राज्य सरकार से भूमि काबिज गरीब किसानो को पट्टा देने के आदेशों की जानकारी भी मांगी थी।

तब इस सवाल को लेकर राजस्व मंत्री गोविन्द सिंह राजपूत का जो जवाब आया; उसे देखना भी जरूरी है। उनका कहना था कि मध्यप्रदेश नजूलनिर्वर्तन नियम 2020 के अध्याय-7 कंडिका 128 से 136 में प्रावधान किये गये हैं। म.प्र. नजूल निर्वर्तन नियम 2020 के प्रभावी होने से पूर्व में जारी सभी निर्देश निरस्त हो गये है। इसी तरह पट्टों की समस्या को लेकर पहले भी अन्य विधायक भी विधानसभा में सवाल पूछ चुके। भू-अधिकार समस्या बरकरार है।

जब हमने विधायक डॉ. अशोक मर्सकोले से जमीन पट्टों के बारें में बातचीत की। तब विधायक मर्सकोले का कहना था कि ‘राजस्व के वो पट्टे राजस्व विभाग के अंतर्गत आते हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में कई सालों से लोगों ने कब्जा किया है, जिनका निराकरण होना है। मगर शासन स्तर पर कार्यवाही या फाइल आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसलिए वो पट्टे नहीं मिल रहे। और ऐसा ही प्रकरण वन अधिकार के पट्टों जैसा है।’ विधायक अशोक मर्सकोले आगे कहते हैं कि, ‘…पिछली बार मैंने (पट्टा समस्या को लेकर) विधानसभा में प्रश्न लगाया था, तब उसके उत्तर में नजूल भूमि का ही जिक्र किया गया। जमीन पट्टों के ये प्रकरण यहीं तक सीमित नहीं, ये बहुत बड़े स्तर पर हैं।’

वास्तव में आदिवासी वर्ग को पट्टे ना मिल पाने की यह कहानी केवल मंडला जिले तक सीमित नहीं है, बल्कि मध्यप्रदेश के गुना और विदिशा जिले में भी आदिवासी समूह ऐसी ही मुश्किल से जूझ रहा है। गुना जिले के सहरिया आदिवासियों को वन भूमि पट्टों की प्राप्ति हेतु देश व्यापी संगठन एकता परिषद के गुना केंद्र ने मई 2022 को एक ज्ञापन पत्र कलेक्टर के नाम लिखा। पत्र में बताया गया कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत 13 दिसम्बर 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज हितग्राहियों ने (भूमि) अधिकार पाने के लिए आनलाईन आवेदन किये हैं। यह आवेदन वर्तमान में ब्लॉक स्तरीय कमेटी व जिला स्तरीय कमेटी के पास लंबित हैं। इस पत्र में आगे पट्टों सहित आदिवासियों की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं के समाधान की मांग की गयी।

एक परिषद के जिला संयोजक सूरज सहरिया ने हमें एक सूची भी सौंपी। सूची में दावा किया गया कि गुना जिले की बम्हौरी तहसील में ही आदिवासी वर्ग के 2822 वन अधिकार दावे निरस्त किये गये। वहीं, अन्य परंपरागत दावों की निरस्ती का आंकड़ा 4679 (बम्हौरी तहसील) है। वहीं; एमपी वन मित्र पोर्टल कि रिपोर्ट मार्च 2022 के अनुसार गुना जिले की पांच तहसीलों क्रमशः आरोन, गुना, चाचैड़ा, बम्हौरी और राघौगढ़ में आदिवासी वर्ग के 6202 वन अधिकार दावे निरस्त किये गये।

जब हमने विदिशा जिले में आदिवासी लोगों से जमीन पट्टों की समस्या को लेकर मुलाकात की। तब गंजबासौदा तहसील के रातन सिंह सहरिया सहित कई आदिवासी लोगों ने बताया कि हम सालों से वन भूमि पर खेती करते आ रहें हैं, मगर अबतक किसी भी कृषि योजना का फायदा नहीं मिला। वन भूमि की खेती के नाम पर कुछ साल पहले हम लोगों को एक सरकारी पत्र बस दिए गए थे। क्या इन लोगों के साथ संविधान की प्रस्तावना में, आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का पालन हुआ? शायद उतना नहीं जितना जरूरी था।

जब आदिवसियों को दिए इन पत्रों को हम देखते और अध्ययन करते है, तब हमें पत्रों में ऊपरी भाग पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, मध्यप्रदेश शासन और प्रति (प्राप्तकर्ता) का नाम लिखा मिलता है। पत्र में आगे वर्णित किया गया कुछ अंश ऐसे है- आप विगत कई वर्षों से वनभूमि का उपयोग करते रहें है, परंतु आपको उस पर कोई हक नहीं मिल सका। पहली बार मेरी सरकार ने आपके दावे को स्वीकार कर वन भूमि पर आपको अधिकार पत्र दिया है। अब आप अपनी भूमि को बिना किसी रुकावट के उपयोग कर सकते हैं। भूमि पर आपका अधिकार सुरक्षित रहेगा और आने वाली पीढ़ियां भी इसका लाभ लें सकेगीं। यह पत्र, अक्टूबर, 2009 का लिखा है। लेकिन, पत्र में यह नहीं लिखा है की प्राप्तकर्ता को कितनी जमीन दी गई है।

मध्यप्रदेश में जमीन पट्टे की मांग सिवनी (पांचवीं अनुसूची क्षेत्र) जिले से भी उठ रही है। जिले की जनपद पंचायत घंसौर, ग्राम पंचायत बखारी माल और धूमामाल के बरगी बांध विस्थापितों ने एक पत्र, दिनांक 22-02-2023 मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के नाम लिखा है। पत्र में कहा गया कि, वन अधिकार कानून 2006 के तहत पूर्व से काबिज दावेदारों को जांच उपरांत भू-अधिकार पत्र प्रदान किये जाएंगे। इस पत्र के जरिए प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री किसान सम्मान निधि ना मिलने जैसी कई मूलभूत समस्याओं के समाधान की मांग की गयी।

मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय के जमीन पट्टों की समस्या इतनी विकट है कि बड़वानी (पांचवी अनुसूची क्षेत्र) जैसे जिले में जायस (जय आदिवासी युवा शक्ति) संगठन करीब तीन सप्ताह तक जमीन पट्टों को लेकर धरना प्रदर्शन कर चुका है। लेकिन, बड़वानी की हालत यह है कि जिले की जनपद पंचायत निवाली के वन अधिकार अधिनियम अंतर्गत 683 भू-अधिकार पत्र दावों को वर्ष 2019 में निरस्त किया गया। वहीं, पिछले साल 2022 में निवाली के 690 भू-अधिकार दावे निरस्त हुए।

जब हम मध्यप्रदेश स्तर पर वनाधिकार दावों की निरस्ती देखते हैं, तब हमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का जून 2020 में दिया वह बयान याद आता है, जिसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि, ‘प्रदेश में 3 लाख 58 हजार 339 वन अधिकार दावों को निरस्त किया जाना दर्शाता है कि अधिकारियों ने काम को गंभीरता से नहीं लिया। अधिकारी माइंडसेट बना ले, गरीब के अधिकारों को वो छीनने नहीं देंगे।’

सीएम ने कलेक्टर और वन मण्डल अधिकारियों से यह भी कहा था कि ‘कोई भी आदिवासी जो 31 दिसम्बर 2005 को या उससे पहले से भूमि पर काबिज है उसे अनिवार्य रूप से भूमि का पट्टा मिल जाए। कोई पात्र आदिवासी पट्टे से वंचित न रहे। काम मे थोड़ी भी लापरवाही हुई तो सख्त कार्यवाही होगी। सीएम का कहना था कि आदिवासी समाज का ऐसा वर्ग है जो अपनी बात ढंग से बता भी नहीं पाता ऐसे में उन से पट्टों के साक्ष्य मांगना और उसके आधार पर पट्टों को निरस्त करना गलत है।’

वहीं, हम राष्ट्रीय स्तर पर भू-अधिकार दावे निरस्ती का जब रिकार्ड देखते हैं। तब हमें ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट से पता चलता है कि, मई 2015 तक सरकार को 44 लाख वन अधिकार दावे प्राप्त हुए, लेकिन, इसमें 17 लाख लोगों को ही अधिकार पत्र प्राप्त हुआ। ऐसे में, जब हम देश में दायर किए गए वन अधिकार दावों की स्थिति देखते हैं तो जनजातीय मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, नवम्बर 2022 तक, वनाधिकार कानून 2006 के अंतर्गत 42,97,245 व्यक्तिगत दावे प्राप्त हुए। जिनमें 21,46,782 (करीब 50%) दावों को भूमि अधिकार प्राप्त हुआ। वहीं, 1,69,372 सामुदायिक दावें प्राप्त हुए, जिसमें 1,02,889 (करीब61%) दावों को भू-अधिकार मिला। आगे, 14 दिसम्बर 2022 को जनजातीय मंत्रालय की तरफ से पेश किए गए डेटा से पता चला कि, जून 2022 तक दायर दावों में से करीब 50 फीसदी दावों का ही निपटारा हुआ है।

विचारणीय है कि एक तरफ आदिवासी वर्ग सालों से जमीन पट्टों की मांग करता आ रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ लाखों भू-अधिकार दावें निरस्त हो रहें हैं और दावों का निपटारा भी नहीं हो पा रहा है। ऐसी स्थति में, आदिवासी वर्ग के गरिमा पूर्ण जीवन जीने की आजादी, न्याय, विश्वास, समता जैसे संवैधानिक मूल्यों पर संकट बरकरार है। आदिवासी वर्ग को लेकर हमें बार-बार सुनने मिलता हैं कि,‘‘जल, जंगल और जमीन, ये हैं आदिवासी के अधीन, लेकिन हकीकत बिल्कुल इससे उलट है। आदिवासी वर्ग आज भी भूमि जैसे अन्य संसाधनिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है।

अमेरिका और कनाडा का अंबेडकर जयंती को लेकर बड़ा फैसला

अमेरिका के दो राज्यों ने एक ऐसा बड़ा फैसला किया है, जो दुनिया भर में मौजूद अंबेडकरवादियों के लिए बड़ी खबर है। बहुजन समाज की मुक्ति के लिए काम करने वाले दो महानायकों बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और महात्मा ज्योतिराव फुले की जयंती को देखते हुए अमेरिकी राज्य वाशिंगटन ने जहां अप्रैल महीने को दलित हिस्ट्री मंथ घोषित किया है, तो मिशिगन राज्य ने 9 अप्रैल से 15 अप्रैल के सप्ताह को सोशल इक्विटी वीक घोषित किया है। इन दोनों राज्यों के गवर्नर ने इस बारे में एक आदेश जारी किया है। इस आदेश में जो लिखा गया है, औऱ जिस तरह से बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा जोतिराव फुले को याद किया गया है, वह काफी अहम है। वहीं दूसरी ओर कनाडा के Burnaby City में बाबासाहेब अम्बेडकर की जयंती का दिन (14 अप्रैल) Dr. B.R Ambedkar Day Of Equality के रूप में मनाया जाएगा। 

 वाशिंगटन स्टेट के गर्वनर जे. इंसली ने अप्रैल महीने को Dalit History Month घोषित किया है। 27 मार्च को इस संबंध में आदेश जारी करते हुए डॉ. आंबेडकर और ज्योतिबाराव फुले के योगदान को जिस तरह रेखांकित किया गया है, वह काफी अहम है। बाबासाहेब आंबेडकर और ज्योतिबा फुले का जिस तरह गुणगान किया गया है, वह बहुजन समाज के लिए गर्व की बात है।

अपने आदेश में गर्वनर जे. इंसली ने कहा है कि- वाशिंगटन राज्य एक ऐसा घर है, जहां डायवर्सिटी है। और अमेरिका का संविधान और वाशिंगटन स्टेट इस बात को सुनिश्चित करता है कि यहां रहने वाले हर व्यक्ति को समान अधिकार, सम्मान और बराबरी का दर्जा मिले।

अप्रैल में महत्वपूर्ण दलित लीडर और सोशल रिफार्मर डॉ. बी. आर. अंबेडकर और महात्मा ज्योतिराव फुले की जयंती है, जिन्होंने भारत में सिस्टेमेटिक डिस्क्रिमीनेशन के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया। इस वजह से यह दलितों के लिए एक महत्वपू्र्ण महीना है। …. चूंकि महात्मा ज्योतिराव फुले और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने जो आंदोलन किया उसने वंचित शोषित समाज के लाखों लोगों को, जिसमें हर समाज की महिलाएं भी शामिल हैं, उनके जीवन को बेहतर बनाया। और इससे करोड़ों वंचितों को सम्मान के साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक बराबरी मिली, जिससे उन्हें न केवल भारत में बल्कि अमेरिका में भी सम्मान के साथ जीने का मौका मिल पाया।

इस आदेश में गवर्नर ने जो आगे कहा है उसे मैं हू-ब-हू अंग्रेजी में ही बता रहा हूं, ताकि उस भाव को आप बेहतर महसूस कर सकें। इन दोनों महानायकों के बारे में गवर्नर ने लिखा है कि- The work of these great social reformers is recognized for the revival of democretic principals in modern india to embrace the principles in modern india to embrace the principles of compassion and non violence for a society that leads to equality, liberty, justice and fraternity.

इसमें आगे कहा गया है कि यह महीना इक्विटी, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और गरिमा के प्रति समर्पण की विरासत को याद रखने और सम्मान देने का एक अवसर है, जो वाशिंगटन और दुनिया भर के लोगों को प्रेरित करता है। ऐसे में वाशिंगटन राज्य भारत के लाखों वंचित लोगों की मुक्ति का जश्न मनाने के  लिए वाशिंगटन में रहने वाले लोगों को इस जश्न में शामिल होने की अनुमति देता है।

निश्चित तौर पर वाशिंगटन के गवर्नर ने जिस तरह से बाबासाहेब आंबेडकर और राष्ट्रपिता जोतिराव फुले को याद किया है, वह शानदार है। लेकिन रुकिये वाशिंगटन की तरह ही मिशिगन स्टेट की गवर्नर ग्रेचन व्हिटमर ने भी एक आदेश जारी किया है। जिसमें  9 अप्रैल से 15 अप्रैल को “सोशल इक्विटी वीक” के तौर पर मनाए जाने की घोषणा की है।

दरअसल पिछले कुछ सालों में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और जोतिबाराव फुले सरीखे वंचित समाज में जन्में महानयकों के योगदान को दुनिया याद कर रही है। साल 2021 में ब्रिटिश कोलंबिया कनाडा ने बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को “Dr. B. R. Ambedkar Equality Day” के तौर पर मनाने की घोषणा की थी। साल 2022 में भी बरनबी सिटी के मेयर ने भी बाबासाहेब की जयंती को “Dr. Ambedkar day of Equality” के तौर पर डिक्लेयर किया था।

तो वहीं दूसरी ओर कनाडा के Burnaby City में बाबासाहेब अम्बेडकर की जयंती का दिन (14 अप्रैल) Dr. B.R Ambedkar Day Of Equality के रूप में मनाया जाएगा। कनाडा में रहने वाले अंबेडकरवादियों के प्रयास से यहां अंबेडकरी आंदोलन जोर पकड़ चुका है।

इस पूरी खबर में सबसे बड़ी बात यह है कि जब दुनिया में बाबासाहेब आंबेडकर को याद किया जा रहा है, उनकी जयंती की तैयारियां हो रही है, भारतीय मीडिया इस बारे में चुप है। जब अमेरिका जैसे देश में वाशिंगटन जैसे राज्य बाबासाहेब आंबेडकर और जोतिबा फुले की जयंती को Dalit History Month घोषित कर रहे हैं। भारत की मनुवादी मीडिया आंख मूदे हैं।

अब हार्वर्ड युनिवर्सिटी में जातिवाद बैन, अंबेडकरवादियों की बड़ी जीत

अमेरिका के सिएटल शहर में जाति आधारित भेदभाव बैन होने के बाद अब दूसरी खबर हार्वर्ड युनिवर्सिटी से आई है। अमेरिका के बोस्टन में स्थित दुनिया की शानदार युनिवर्सिटी में से एक हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने भी अपने नॉन डिस्क्रीमिनेशन पॉलिसी में जाति को भी शामिल कर लिया है। यह एक सितंबर 2023 से लागू होगा। जब दुनिया भर में फैले अंबेडकरवादी बाबासाहेब अंबडेकर की जयंती की तैयारियों में जुटे हैं, उसके ठीक पहले आई इस खबर से अंबेडकरवादियों में खासा उत्साह है।

इसकी घोषणा करते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने कहा है कि हार्वर्ड युनिवर्सिटी शिक्षा और रोजगार में सभी को समान मौका देने के लिए कमिटेड है। इसके साथ ही पहले से ही 14 तरह के भेदभाव को अपनी नॉन डिस्क्रीमिनेशन पॉलिसी में शामिल करने वाली हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने इसमें कॉस्ट यानी जाति को भी जोड़ लिया है। इस लड़ाई को लड़ने वाले तमाम संस्थाओं में से एक अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर ने इस जानकारी को साझा किया। इस घोषणा के बाद दुनिया भर के अंबेडकरवादियों में खुशी की लहर है। जिस तरह से जाति आधारित भेदभाव को अब दुनिया भर में समझा जाने लगा है, वह सालों से इसके लिए लड़ रहे अंबेडकरवादियों की जीत है।

खासकर अमेरिका में 23 युनिवर्सिटी में जाति को लेकर कानून बन चुका है। आज ही के दिन अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद आयशा वहाब ने सीनेट में कास्ट डिसक्रिमिनेशन को अवैध घोषित करने का विधेयक पेश किया है। यदि यह कानून पारित हो जाता है तो कैलिफोर्निया कॉस्ट डिस्क्रिमिनेशन के खिलाफ कानून बनाने वाला पहला राज्य बन जाएगा।

दरअसल भारत से बाहर पहले सवर्ण समाज के लोग पहुंचे। लेकिन दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचने के बाद भी उन्होंने न तो अपना जातीय दंभ छोड़ा और न ही अपनी स्वघोषित श्रेष्ठता को किनारे रखा। हालांकि विदेशी धरती पर उनकी स्वघोषित श्रेष्ठता को किसी ने भी भाव नहीं दिया। लेकिन सालों बाद जब वंचित तबके के लोग विदेशों का रुख करने लगें, भारत के जातिवादियों को विदेशी धरती पर भी खुद को श्रेष्ठ समझने की सोई हुई चाह दुबारा जाग उठी।

जाहिर है, वो पहले से वहां मौजूद थे, और शोषित-वंचित तबके के लोग अपनी जमीन तलाशने को संघर्ष कर रहे थे। ऐसे में विदेशी धरती पर पहुंचे शोषित समाज के लोगों को विदेशी धरती पर अपने भारतीय भाई नहीं बल्कि श्रेष्ठता बोध में सने ज्यादातर वही लोग मिले, जो ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर होने के दंभ से भरे थे और जिन्होंने भारत में शोषित तबको के शोषण का कोई मौका नहीं छोड़ा था। दलितों को लग गया कि विदेशी धरती पर जब भी वो भारतीय जातिवादियों से टकराएंगे, उन्हें समान मौका नहीं मिलेगा।

सालों तक इसके खिलाफ संघर्ष करने और वंचित समाज के स्कॉलर्स द्वारा लगातार तमाम विदेशी मंचों पर इसका जिक्र करने के बाद आखिर दुनिया भी भारत की जाति संरचना को समझने लगी। उन्हें समझ में आ गया कि भारत में किस तरह जाति के आधार पर शोषितों के साथ भेदभाव होता है। आखिरकार अंबेडकरवादियों का संघर्ष रंग लाया और अमेरिकी शहर सिएटल के बाद हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने भी जातिवाद की सच्चाई को समझते हुए जाति को नॉन डिस्क्रीमिनेशन पॉलिसी में शामिल कर लिया है। हालांकि जातिवाद के खिलाफ यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होती। लड़ाई जारी रहेगी, जब तक दुनिया भर में जातिवाद को अपराध नहीं मान लिया जाता। या दुनिया भर से जातिवाद खत्म नहीं हो जाता।

दलितों को लेकर आरएसएस का नया पैंतरा

भारतीय जनता पार्टी के पिता संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस ने दलितों के ऊपर नया जाल फेंका है। खास तौर पर उस दलितों पर जो बेहद गरीब हैं और अपनी हर परेशानी का हल पत्थर की मूर्तियों में ढूंढ़ते हैं। आरएसएस का कहना है कि गांव में किसी भी दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठने से न रोका जाए। शिव मंदिरों में जल चढ़ाने से न रोका जाए और न ही दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी भरने से ही रोका जाए।

खबर है कि आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में यह एजेंडा तय किया गया है। इस एजेंडे को खासकर पू्र्वी और पश्चिमी क्षेत्र में जमीन पर उतारने की कवायद शुरू कर दी गई है। खास बात यह है कि इसके लिए वाल्मीकि जयंती, अंबेकर जयंती और सतगुरु रविदास जयंती जैसे मौकों को भुनाया जाएगा।

दरअसल दलित समाज में लगातार बढ़ रही जागरूकता और जातीय अत्याचार को लेकर गरीब से गरीब आदमी के विरोधी तेवर ने आरएसएस और सवर्ण हिन्दुओं को चिंता में डाल दिया है। जो लोग पहले बिना विरोध के सवर्णों की हाजिरी बजाते थे, उनके तमाम अत्याचारों को सहते थे, उनके विरोध ने संघ और हिन्दु राष्ट्र की वकालत करने वाले लोगों को चिंता में डाल दिया है।

दलित समाज का ज्यादातर हिस्सा जातीय अत्याचार और हिन्दू धर्म में मौजूद जातीय सड़ांध की खुलकर खिलाफत भी करने लगा है। साथ ही हिन्दु धर्म से उसका मोहभंग भी हो रहा है। अब यह आग गांवों तक में फैल गई है, जो आरएसएस के लिए चिंता की बात है। साफ है कि बहुजनों ने जिस तरह हिन्दु धर्म में फैले जातीय सड़ांध की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी है, उससे संघ और सवर्ण समाज डरा हुआ है। बहुजनों की तमाम जातियों के भीतर अंबेडकरवादी विचारधारा तेजी से फैल रही है। संघ को उसकी काट सिर्फ हिन्दुत्व की राजनीति में दिख रही है। संघ, भाजपा सहित जाति के समर्थकों को डर है कि कहीं दलित समाज के लोग उनके खिलाफ बगावत न कर दें। इसलिए वो दलितों को अधिकार देने की बात करने लगे हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब संघ को दलितों से इतनी फिक्र है तो वह जाति मुक्त भारत की बात क्यों नहीं करते। आजादी का अमृत महोत्सव जैसे वक्त में जाति को सबसे बड़ा मुद्दा घोषित क्यों नहीं करते? यही बात संघ की असलियत को जाहिर करता है।

पिछले दिनों अमेरिका के सिएटल शहर में जिस तरह जाति के खिलाफ कानून बन गया और जिस तरह जातीय भेदभाव दुनिया भर में अब एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है, उसने भी संघ की नींद उड़ा दी है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैले अंबेडकरवादी भारत के जातिवाद की कलई खोल रहे हैं।

इन तमाम बातों से डरे हिन्दु राष्ट्र के समर्थकों और संघ ने दलितों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए मंदिर प्रवेश का चारा फेंका है। संघ और हिन्दु राष्ट्र के समर्थकों को पता है कि उनका हिन्दु राष्ट्र का सपना बिना दलितों-पिछड़ों के संभव नहीं है, सवाल यह है कि देश का बहुजन अपनी ताकत को कब समझेगा? दलितों को पिछड़ों को यह समझना होगा कि उनका उद्धार मंदिर में नहीं, बल्कि किताबों में है। उस रास्ते पर चलने से है, जिसे बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने दिखाया था। संघ और हिन्दुवादी अब दलितों से डरने लगे हैं। दलितों को बस अपनी ताकत समझने की जरूरत है।

2024 के चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता है, सर्वे रिपोर्ट से उड़ी मोदी की नींद

 चुनावों पर करीब से नजर रखने वाली संस्था सीएसडीएस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने का फार्मूला दिया है। सीएसडीएस का दावा है कि अगर इस फार्मूले पर काम किया जाए तो अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को आसानी से सत्ता से बाहर किया जा सकता है। दरअसल सीएसडीएस ने 2024 चुनावों को लेकर जो सर्वे किया है, उसके मुताबिक अगर भाजपा को छोड़कर सारा विपक्ष साथ मिलकर चुनाव लड़े तो आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को दुबारा सत्ता में आने से आसानी से रोका जा सकता है। सर्वे करने वाली संस्था का कहना है कि ऐसा होने पर विपक्ष को आसानी से बहुमत मिल जाएगा। दरअसल सीएसडीएस के इस दावे के पीछे पिछले चुनावों में तमाम दलों को मिली सीटें और वोट प्रतिशत है।

 

अपनी रिपोर्ट में सीएसडीएस ने दावा किया है कि अगर सभी पार्टियां भाजपा के खिलाफ मिलकर चुनाव लड़ती है तो भाजपा 235-240 सीटों पर सिमट सकती है। 2019 में भाजपा को मिली सीटों में सहयोगी दलों का भी बड़ा हाथ था। आंकड़े बताते हैं कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले एक फीसदी वोट भी कम मिलते हैं तो भाजपा 225-230 सीटों पर सिमट जाएगी, जबकि विपक्ष 310-325 सीटों तक पहुंच जाएगा। ऐसे ही अगर भाजपा 2024 के चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले अगर दो प्रतिशत वोट कम पाती है तो उसके सीटों की संख्या 210-215 तक पहुंच जाएगा। इस पड़ताल में एक और दिलचस्प बात सामने आई है, जिसने भाजपा की नींद उड़ा दी है। रिपोर्ट कहती है कि अगर विपक्ष का पांच प्रतिशत वोट किसी भी दूसरी पार्टी को चला जाए तो भाजपा 242-247 सीटों तक ही पहुंच पाएगी। जबकि विपक्ष को 290-295 सीटें मिल जाएगी।

यानी साफ है कि 2024 के चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता है। लेकिन तब, जब विपक्षी दल ऐसा चाहें। क्योंकि विपक्षी दलों की आपसी खिंचतान ही अभी भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है। भाजपा ने भी अपने खेमे में तमाम विपक्षी दलों को साध रखा है, जिसका उसे फायदा मिल रहा है। सहयोगी दलों को अपने साथ रखने के लिए भाजपा जहां कोई मौका नहीं चूकती है, वहीं भाजपा को हराने का दावा करने वाले विपक्षी दल आपसी मनमुटाव से आगे नहीं बढ़ पाते। इस रिपोर्ट के आने के बाद यह देखना है कि क्या विपक्ष सचमुच में भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को रोकने के लिए साथ आएंगे, या फिर महज मोदी और भाजपा के खिलाफ बातें कर के अपने वोट बैंक को बचाने की कवायद में जुटे रहेंगे और एक बार फिर से आपसी झगड़े और इगो में भाजपा को जीत जाने देगा।

जीत गई बसपा, आर.एस प्रवीण कुमार से डरे तेलंगाना के मुख्यमंत्री

एक सच्चा अंबेडकरवादी जब हुंकार भरता है, तो बड़ी-बड़ी तानाशाह सरकार घुटने टेकने पर मजबूर हो जाती है। यह तस्वीर तेलंगाना के बसपा प्रमुख आर.एस प्रवीण कुमार की है, जो जीत के बाद अपना आमरण अनशन तोड़ रहे हैं। दरअसल तेलंगाना में भर्ती परीक्षा का पेपर लीक होने के बाद तेलंगाना के तमाम विपक्षी दलों और छात्र संगठनों ने मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। लेकिन आईपीएस की नौकरी छोड़कर बहुजन समाज पार्टी का दामन थामने वाले चर्चित अंबेडकरवादी आर.एस. प्रवीण ने सरकार के खिलाफ आमरण अनशन का ऐलान कर दिया था। उन्होंने 16 मार्च को घोषणा की थी कि जब तक ग्रुप-वन की प्रारंभिक परीक्षा रद्द नहीं होती, वह आमरण अनशन पर रहेंगे। उन्होंने 17 मार्च से बसपा मुख्यालय पर आमरण अनशन भी शुरू कर दिया। बाद में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर घर पर छोड़ दिया। उन्होंने वहां भी अनशन जारी रखा। इस बीच मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव पर दबाव बढ़ता गया, जिसके बाद आखिरकार 24 घंटे के भीतर सरकार को बसपा और छात्र संगठनों की मांग माननी पड़ी। तेलंगाना राज्य लोक सेवा आयोग ने ग्रुप वन की प्रारंभिक परीक्षा सहित दो अन्य परीक्षाएं रद्द कर दी। जिसके बाद आर.एस प्रवीण ने अनशन वापस ले लिया। इस बीच आर.एस प्रवीण की बेटी का भी एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह पिता के आमरण अनशन की घोषणा के बाद रोती हुई नजर आई थी।

आमरण अनशन तोड़ने के बाद आर.एस.प्रवीण ने ऐलान किया है कि वह तेलंगाना राज्य लोकसेवा आयोग में फैले भ्रष्टाचार और सरकारी तानाशाही के खिलाफ लड़ते रहेंगे। दरअसल आईपीएस की नौकरी से इस्तीफा देकर राजनीति में आए डॉ. आर.एस प्रवीण लगातार सक्रिय हैं। वह मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के खिलाफ लगातार मोर्चा खोले हैं। लोगों को बसपा से जोड़ने के लिए वह लगातार पूरे प्रदेश की यात्रा कर रहे हैं। खबर है कि अप्रैल महीने में उनकी यात्रा के समापन के मौके पर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो बहन मायावती एक विशाल जनसभा में शामिल होंगी।

Video Link-  https://www.youtube.com/watch?v=BVzXkCBNM0s

यूपी के बुलंदशहर में दलितों ने क्यों बनवा दिया है शहीद स्मारक

बहुजन क्रांति स्तंभ, बुलंदशहर, यूपीबुलंदशहर, यूपी। आपको याद होगा साल 2018 में 20 मार्च दिन। जब एससी-एसटी एक्ट कानून में संशोधन के खिलाफ दलित समाज गुस्से में था। इसके खिलाफ दो अप्रैल को देश के अलग-अलग हिस्सों में दलित समाज सड़क पर उतरा था। इस दौरान हुई हिंसा में दलित समाज के 13 युवा शहीद हो गए। इन्हीं शहीदों की याद में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में 53 फीट ऊंचा ‘बहुजन क्रांति स्तंभ’ बन गया है, जिसका उदघाटन आने वाले 2 अप्रैल 2023 को होने जा रहा है।

भीमा कोरेगांव के स्तंभ की तर्ज पर यह बहुजन क्रांति स्तंभ बुलंदशहर के स्याना क्षेत्र स्थित सराय गांव में बनकर लगभग तैयार है। क्या है इसके बनने की कहानी, इसे कौन बनवा रहा है, यहां और क्या-क्या होगा, इस खबर में जानिये सबकुछ- 20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था। इस फैसले में SC-ST एक्ट में कई तरह का संशोधन किया गया। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि SC-ST एक्ट में पब्लिक सर्वेंट की गिरफ्तारी, एंपॉयटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती।

साथ ही आम लोगों को भी पुलिस कप्तान यानी एसएसपी की मंजूरी के बाद ही गिरफ्तार किया जा सकेगा। जबकि इसके पहले शिकायत के बाद तुरंत गिरफ्तारी का नियम था। दलितों को समझ में आ गया कि उनके संरक्षण के लिए मिले एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किया जा रहा है।

फिर क्या था, इस बदलाव के बाद दलित समाज के विभिन्न संगठनों ने 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद का आह्वान किया। इस दौरान लाखों लोग सड़क पर उतरे थे। खासकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बड़ा प्रदर्शन हुआ। इस दौरान पुलिस के साथ झड़प में 13 लोगों की मौत हो गई, जिसे दलित समाज ने शहीद कहा। उन्हीं की याद में यह बहुजन क्रांति स्तंभ बनाया जा रहा है।

कैसा होगा बहुजन क्रांति स्तंभ

यह स्तंभ 48 फीट ऊंचा होगा। इसके इसके ऊपर 5 फीट व्यास का अशोक चक्र होगा। ये अशोक चक्र स्टील का है। साइंस के नियम के हिसाब से ये दिन के तीन पहरों में तीन बार रंग बदलेगा। यह सुबह के समय नीला, दोपहर में चांदी सरीखा तो सूरज ढलने के समय सोने जैसा दिखेगा। स्तंभ के एक तरफ 2 अप्रैल के आंदोलन में शहीद हुए सभी 13 लोगों की प्रतिमाएं लगाई जाएंगी, तो दूसरी तरफ अंबेडकर और बुद्ध के शिलालेख होंगे। साथ ही बाबासाहेब अंबेडकर का जीवन दर्शन भी पत्थरों पर लिखा होगा।

बी.पी. अशोक आईपीएस

कौन बनवा रहा है यह स्तंभ

इस कवायद के पीछे पीसीएस अधिकारी बी.पी. अशोक हैं, जो हाल ही में प्रोमोट होकर आईपीएस बने हैं। बी.पी. अशोक के पिता डॉ. देवीसिंह अशोक भी आईपीएस रहे हैं। अंबेडकरी आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए बी.पी. अशोक जाना पहचाना नाम हैं। सराय गांव जहां यह स्तंभ बन रहा है, वह बी.पी. अशोक का पैतृक गांव है। एससी-एसटी एक्ट के बाद हुई हिंसा से दुखी होकर उन्होंने राष्ट्रपति को इस्तीफे की भी पेशकश कर दी थी।

बी.पी. अशोक का कहना है कि बहुजन क्रांति स्तंभ राष्ट्रीय एकता और अखंडता का प्रतीक होगा। फिलहाल 2 अप्रैल को इसके उद्घाटन के मौके पर हजारों लोगों के जुटने की खबर है। फिलहाल यह स्तंभ इस पूरे क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ है।

ऑस्कर अवार्ड में क्या मूलनिवासियों की अनदेखी हुई?

13 मार्च की तारीख भारत के लिए बेइंतहा सम्मान लेकर आई। इस दिन हर ओर ऑस्कर अवार्ड की चर्चा हो रही है। भारत की झोली में पहली बार दो ऑस्कर अवार्ड एक साथ आए हैं। भारतीय फिल्म RRR के गीत ‘नाटू-नाटू’ ने जहां बेस्ट ओरिजिनल सांग की श्रेणी में ऑस्कर जीता है। तो दूसरी ओर तमिल भाषा की डॉक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिस्परर्स’ ने ‘डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट’ केटेगरी में भारत के लिए पहला ऑस्कर जीत लिया है।

 डायरेक्टर एसएस राजमौली की फिल्म RRR का गाना इस कैटेगरी में नॉमिनेशन पाने वाली पहली भारतीय फिल्म है। नाटू-नाटू का मतलब होता है नाचना। यह गाना अभिनेता राम चरण और जूनियर एनटीआर पर फिल्माया गया है।

जबकि डाक्यूमेंट्री को कार्तिकी गोंजाल्विस द्वारा निर्देशित किया गया था और इसे OTT प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स ने रिलिज किया था। यह डॉक्यूमेंट्री हाथियों और उनकी देखभाल करने वालों के बीच के बेहद शानदार रिश्ते को लेकर है।

इस तरह भारत के हिस्से में दो ऑस्कर अवार्ड आ गए हैं। 13 मार्च की सुबह जब इन अवार्ड की घोषणा हुई, दुनिया भर में भारत का डंका बज गया। लेकिन कुछ ऐसा था, जिसकी चर्चा होनी चाहिए थी और हुई नहीं। कुछ ऐसा था, जो रह गया।

दरअसल जो दोनों अवार्ड मिले, उससे भारत के मूलनिवासी समाज की कहानी जुड़ी थी। RRR जहां आदिवासी नायक कोमराम भीम को केंद्र में रखकर बनाकर बनाई गई थी, तो वहीं डाक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिस्परर्स’ में हाथी के जो साथी हैं, वो भी आदिवासी समाज के हैं।

ऑस्कर अवार्ड लेते वक्त गोंजाल्विस ने अकादमी पुरस्कार, निर्माता गुनीत मोंगा, उनके परिवार को धन्यवाद दिया और पुरस्कार को अपनी ‘‘मातृभूमि भारत” को समर्पित किया। उन्होंने कहा, ‘‘अकादमी का हमारी फिल्म को सराहने, मूल निवासियों और जानवरों पर ध्यान देने के लिए शुक्रिया… ‘नेटफ्लिक्स’ का हम पर विश्वास करने… मेरी निर्माता गुनीत के साथ अपनी आदिवासी समझ को साझा करने के लिए बोमन और बेली का शुक्रिया…।”

लेकिन कहीं न कहीं यहां उन नामों को कम तवज्जो दी गई, जिनकी वजह से ये फिल्में बन पाईं। जो असल तौर पर इस फिल्म के हीरो कहे जा सकते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने इस मुद्दे को उठाया है। उनका कहना है-

जब स्टेज पर चढ़कर ऑस्कर लेने के बारी आई तो फ़िल्म के दोनों, मदुमलै जंगल के, आदिवासी किरदार, जिनका वास्तविक जीवन ही ये डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म है, सीन से ग़ायब हो गए।

ये उस मंदिर या मूर्ति की तरह है, जिन्हें बनाता कोई है, छेनी और हथौड़ा किसी और का चलता है, पसीना किसी और का गिरता है और प्राण प्रतिष्ठा का प्रपंच करके कोई और उसका स्वामी बन जाता है। बनाने वाले की अक्सर गर्भ गृह में एंट्री बैन हो जाती है।

इतिहास से लेकर वर्तमान तक के सारे निर्माण, सारे नृत्य, डांस, कलाकारी जिनकी है, उनका इतिहास में नाम लेवा नहीं होता। देवदासियों का सादिर अट्टम सौ साल से कम समय में भरत नाट्यम बन गया और इसमें पैसा और नाम आते है देवदासियों को धकेलकर बाहर कर दिया गया। कितना निष्ठुर है ये सब।

दरअसल डाक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिस्परर्स’ के असली हीरो बोमन और बेली, अमु और रघु हैं। साथ ही कट्टुनायकन समाज के वो ट्राइबल, जिन्होंने अपनी मेहनत और समर्पण से और हाथियों को साध कर इस फिल्म की शूटिंग में मदद की।

“गांव में जिंदगी भर चमार बने रहतें, बाहर लोग हमें नाम से बुलाते हैं”

बिहार के सारण जिले की अपनी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान है। वजह हैं लोक कलाकार और रंगकर्मी भिखारी ठाकुर। बिहार के चर्चित मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव का यह राजनीतिक क्षेत्र रहा है। इसी सारण जिले में एक गांव है अफौर। जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर भूमिहार और ब्राह्मण बहुल अफौर गांव में चमारों की भी ठीक-ठाक आबादी है।

चमारों की बस्ती के ठीक सामने से पक्की सड़क गुजरती है। लेकिन उनके दरवाजों तक वो सड़क नहीं जाती, बल्कि उन्हें मुंह चिढ़ाते सीधी निकल जाती है। हम यहां पहुंचे तो सबसे पहले गरजू राम से टकराएं। वह पास के ही नैनी गांव के रहने वाले हैं। उनकी बेटी की शादी इसी टोले के अशर्फी दास के सबसे बड़े बेटे संजीव कुमार दास से हुई है। गरजू राम फौज से रिटायर हैं। अपनी बेटी से मिलने आए थे। हमने उनसे पूछा कि इस इलाके दलितों की जिंदगी कितनी बदली है?

गरजू राम मानते हैं कि हमलोगों की स्थिति बहुत सुधरी है। उनका कहना है कि पिछले 50 सालों में और अब की स्थिति में बहुत फर्क है। बताते हैं कि पहले मिट्टी के घर थे, अब ज्यादातर लोगों के घर ईंट के छतदार बन गए हैं। सड़कें भी कमोबेश पहुंची है। बिजली भी मिल रही है और पानी भी। यानी कुल मिलाकर स्थिति बदल रही है।

हालांकि गरजू राम यह जोड़ना नहीं भूलते की बिजली पानी के अलावा बाकी चीजें लोगों ने अपनी मेहनत से हासिल की है।

इसी बस्ती में किशोर राम भी रहते हैं। लंबे वक्त तक कलकत्ता के जूट मिल में काम करने वाले किशोर राम रिटायर होकर वापस गांव आ चुके हैं। हाथ का इशारा करते हुए बताते हैं कि जब मैं छोटा था तो यहीं पास में ही हमारे बाप-दादा मरे हुए जानवरों की खाल उतारते थे। बहुत गरीबी का वक्त था। कई बार वही मांस बस्ती के हर घर में बनता था, जिससे हमारा पेट भरता था। लेकिन अब चीजें काफी बदल गई हैं। अब हमारी बस्ती में कोई यह काम नहीं करता।

 तो आखिर इससे निकले कैसे? उप मुखिया बलदेव दास इसका श्रेय अशर्फी दास को देते हैं। अशर्फी दास के पिता सरयू दास भी कोलकाता के जूट मिल में लंबे समय तक काम करते रहे। सरयू दास के पांच बेटे और दो बेटियां थी। अशर्फी दास भाईयों में चौथे नंबर के बेटे थे। बलदेव दास कहते हैं- अशर्फी दास हमारे टोले के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे। ग्रेजुएट थे। हम साथ ही बड़े हुए। वह जागरूक थे। छपरा शहर में जगदम कॉलेज में पढ़ने जाते थे, तो उनको सही गलत की जानकारी थी। घर-घर में घूमकर सबको समझाते थे। कई बार मरे जानवरों का जो मांस पकता था, वो बर्तन ही फेंक देते थे। उन्होंने बहुत समझाया, उससे बाद में लोगों को समझ में आने लगा कि यह गलत काम है।

 

हमें यहीं अशर्फी दास के भाई नागेश्वर दास जिसे सभी नगेसर कहते हैं, वह मिले। नागेश्वर दास अपने बड़े भाई को याद करते हुए पहले रुआसे हो जाते हैं। कहते हैं कि भईया अब इस दुनिया में नहीं रहे। हालांकि अगले ही पल खुद को संभालते हुए कहते हैं कि भईया काफी समझदार थे। उनकी कोशिशों से हमारा टोला काफी बदला। उनका एक प्रभाव था। छोटे-बड़े सभी लोग उनका लिहाज करते थे, इसलिए सभी उनकी बात मानते थे।

 नागेश्वर दास की छह बेटियां और एक बेटा है। वह खुद मजदूरी किया करते थे। अब शरीर कमजोर है तो मजदूरी नहीं कर पाते। गाय पाल रखी है, उसकी देखभाल में और थोड़ा-बहुत खेती में समय देते हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या गांव के बड़े लोग मजदूरी के पूरे पैसे देते हैं? नागेश्वर कहते हैं, ‘पहले जोर-जबरदस्ती थी, पूरे पैसे नहीं मिलते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।’

यह बदलाव क्यों और कैसे आया, इसकी एक झलक टोले के दूसरे लोगों के चेहरे देखकर समझ में आ गया। एक साथ कई युवा बैठे बातें कर रहे थे। साफ-सुथरे कपड़े पहने। दाढ़ी बनी हुई। कईयों के हाथों में घड़ी और एंड्रायड  फोन भी थे। पता चला कि वो सब बाहर रहते हैं और कमाते हैं। छठ के त्यौहार में घर आए हैं। इन युवाओं में एक राजेश कुमार दास भी थे, जो पिछले 15 सालों से हैदराबाद की किसी कंपनी में काम करते हैं। मैंने गांव छोड़ने की वजह पूछी।

 राजेश बोल पड़े- क्या है यहां? यहां रहते तो गरीबी में पड़े रहते। बाहर जाकर आदमी बन गए। हालांकि उनको गांव-घर छोड़ने का दुख भी है। बोले, घरवाली और बच्चे यहीं रहते हैं। कौन नहीं चाहता अपने परिवार के साथ रहना, अपने बच्चों को बड़ा होते देखना। लेकिन अगर हमें इज्जत से जीना है तो हमारे पास घर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है। यहां जिंदगी भर चमार बने रहतें, बाहर लोग हमें नाम से बुलाते हैं।

लेकिन इसी टोले में किसुन और भगेसर की जिंदगी आज भी नहीं बदली। परिवार की जो हालत तीन दशक पहले थी, वही आज भी है। वजह, यह परिवार न तो बाहर कमाने निकल पाया, न ही बच्चों को पढ़ा पाया। नतीजा यह हुआ कि गांव के कुछ सामंत परिवारों के घर की चाकरी करने में पहले खुद की जिंदगी होम हुई, अब बच्चों की हो रही है। और यह सिर्फ इन दो घरों का मसला नहीं है, बल्कि शिक्षा के मामले में कई घरों की कहानी यही है।

 अशर्फी दास जिनको इस टोले से कुछ कुरितियां दूर करने का श्रेय जाता है, वह सिविल कोर्ट की सरकारी नौकरी में चले गए थे। उनके सभी बच्चे पढ़कर आगे बढ़ गए। लेकिन बाकी सब यहीं रह गए। किसी दूसरे परिवार का कोई बच्चा न तो उच्च शिक्षा हासिल कर सका, न ही सरकारी नौकरी में ही जा सका। पढ़ाई के नाम पर टोले के बाकी परिवारों के बच्चे 10वीं तक आते-आते हांफने लगते हैं। 15 साल की उम्र में ही ये अपना ठिकाना दिल्ली, गुजरात या फिर हरियाणा के किसी शहर को बना लेते हैं। फिर उनकी बाकी की जिंदगी वहीं कटती है। गांव बस त्योहार और शादियों में आना होता है।

लेकिन बाहर की दुनिया देखने से अब उनमें चेतना आ रही है। सोशल मीडिया पर वह अपना इतिहास ढूंढ़ रहे हैं। यही वजह है कि अब टोले में सरस्वती पूजा की जगह रविदास जयंती और अंबेडकर जयंती मनाई जाने लगी है। नागेश्वर के बेटे विक्की जो ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं, का कहना है कि- अब हमलोग सही गलत समझने लगे हैं। इसके बावजूद जाति की वजह से हमें कई बार ताने सुनने पड़ते हैं। लेकिन अब गांव का कोई बड़ी जात का आदमी जाति के नाम पर हमें अपमानित करने की कोशिश करता है तो हम मुंहतोड़ जवाब देते हैं। हम समझ गए हैं कि बेहतर शिक्षा के जरिये अच्छे पैसे कमाकर हम इस स्थिति से निकल सकते हैं। मेरी उम्र के सभी बच्चे पढ़ रहे हैं और बेहतर भविष्य के सपने देखते हैं।

विक्की की यह बात एक उम्मीद देती है कि नई पीढ़ी का भविष्य बेहतर होगा। लेकिन यह मजह अफौर के इस टोले की हकीकत है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चमारों की बस्ती की कहानी अलग है। हर टोले को अशर्फी दास जैसे एक नायक की जरूरत है।

स्मृति दिवस विशेषः महाराष्ट्र में पुनर्जागरण की अगुवाई करने वाली महानायिका हैं सावित्रीबाई फुले

 आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के दो केंद्र रहे हैं- बंगाल और महाराष्ट्र। बंगाली पुनर्जागरण मूलत: हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं के भीतर सुधार चाहता था और इसके अगुवा उच्च जातियों और उच्च वर्गों के लोग थे। इसके विपरीत महाराष्ट्र के पुनर्जागरण ने हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं को चुनौती दी। वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के लिए संघर्ष किया। महाराष्ट्र के पुनर्जागरण की अगुवाई शूद्र और महिलाएं कर रही थीं। इस पुनर्जागरण के दो स्तंभ थे- सावित्री बाई फुले और उनके पति जोतिराव फुले।
 हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों और महिलाओं को एक समान माना गया है। ग्रंथों में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि स्त्री और शूद्र एक समान होते हैं। हिंदू धर्मशास्त्र ये भी कहते हैं कि स्त्री और शूद्र अध्ययन न करें। ये स्थापित मान्यताएं थीं और सभी वर्णों के लोग इनका पालन करते आए थे।
हिंदू धर्म, समाज व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए तय स्थान को आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने संगठित रूप से चुनौती दी, उनका नाम सावित्री बाई फुले है। वे आजीवन शूद्रों-अति शूद्रों की मुक्ति और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करती रहीं।
ईसाई मिशनरियों से मिली पढ़ने की सीख
उनका जन्म नायगांव नाम के गांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले में है, जो पुणे के नजदीक है। वे खंडोजी नेवसे पाटिल की बड़ी बेटी थीं, जो वर्णव्यस्था के अनुसार शूद्र जाति के थे। वे जन्म से शूद्र और स्त्री दोनों एक साथ थीं, जिसके चलते उन्हें दोनों के दंड जन्मजात मिले थे।
ऐसे समय में जब शूद्र जाति के किसी लड़के के लिए भी शिक्षा लेने की मनाही थी, उस समय शूद्र जाति में पैदा किसी लड़की के लिए शिक्षा पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वे घर के काम करती थीं और पिता के साथ खेती के काम में सहयोग करती थीं। पहली किताब उन्होंने तब देखी, जब वे गांव के अन्य लोगों के साथ बाजार शिरवाल गईं। उन्होंने देखा कि कुछ विदेशी महिला और पुरुष एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना करते हुए गाना गा रहे थे। वे जिज्ञासावश वहां रुक गईं, उन महिला-पुरुषों में किसी ने उनके हाथ में एक पुस्तिका थमायी। सावित्रा बाई पुस्तिका लेने में हिचक रही थीं। देने वाले ने कहा कि यदि तुम्हे पढ़ना नहीं आता, तब भी इस पुस्तिका को ले जाओ। इसमें छपे चित्रों को देखो, तुम्हें मजा आयेगा. वह पुस्तिका सावित्री बाई अपने साथ लेकर आईं। जब 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय जोतिराव फुले के साथ हुई और वे अपने घर से जोतिराव फुले के घर आईं, तब वह पुस्तिका भी वे अपने साथ लेकर आई थीं।
फातिमा शेख और सावित्री बाई बनी शिक्षिका: 1 जनवरी को खोला स्कूल जोतिराव फुले सावित्री बाई फुले के जीवनसाथी होने के साथ ही उनके शिक्षक भी बने। जोतिराव फुले और सगुणा बाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करन के बाद सावित्री बाई फुले ने औपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण स्कूल में उनके साथ फातिमा शेख ने भी अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। यहीं उनकी गहरी मित्रता कायम हुई। फातिमा शेख उस्मान शेख की बहन थीं, जो जोतिराव फुले के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। बाद में इन दोनों ने एक साथ ही अध्यापन का कार्य भी किया।
फुले दंपत्ति ने 1 जनवरी 1848 को लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला। जब 15 मई 1848 को पुणे के भीड़वाडा में जोतिराव फुले ने स्कूल खोला, तो वहां सावित्री बाई फुले मुख्य अध्यापिका बनीं। इन स्कूलों के दरवाजे सभी जातियों के लिए खुले थे। जोतिराव फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले जा रहे स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इनकी संख्या चार वर्षों में 18 तक पहुंच गई। फुले दंपत्ति के ये कदम सीधे ब्राह्मणवाद को चुनौती थे। इससे उनके एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी, जो समाज पर उनके वर्चस्व को तोड़ रहा था। पुरोहितों ने जोतिराव फुले के पिता गोविंदराव पर कड़ा दबाव बनाया। गोविंदराव पुरोहितों और समाज के सामने कमजोर पड़ गए। उन्होंने जोतिराव फुले से कहा कि या तो अपनी पत्नी के साथ स्कूल में पढ़ाना छोड़ें या घर। एक इतिहास निर्माता नायक की तरह दुखी और भारी दिल से जोतिराव फुले और सावित्री बाई फुले ने शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए घर छोड़ने का निर्णय लिया। जब सावित्री बाई पर फेंका गया गोबर और पत्थर परिवार से निकाले जाने बाद ब्राह्मणवादी शक्तियों ने सावित्री बाई फुले का पीछा नहीं छोड़ा। जब सावित्री बाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गांव वाले पत्थर और गोबर फेंकते। सावित्री बाई रुक जातीं और उनसे विनम्रतापूर्वक कहतीं, ‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आप के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसे लगता है जैसे आप फूल बरसा रहे हों। मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवा करती रहूंगी। मैं प्रार्थना करूंगी की भगवान आप को बरकत दें।’ गोबर से सावित्री बाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं। स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं।
शिक्षा के साथ ही फुले दंपत्ति ने समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना शुरू किया। सबसे बदतर हालत विधवाओं की थी। ये ज्यादातर उच्च जातियों की थीं। इसमें अधिकांश ब्राह्मण परिवारों की। अक्सर गर्भवती होने पर ये विधवाएं या तो आत्महत्या कर लेतीं या जिस बच्चे को जन्म देती, उसे फेंक देतीं। 1863 में फुले दंपत्ति ने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था। इस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह का पोस्टर जगह-जगह लगाया गया। इन पोस्टरों पर लिखा था कि ‘विधवाओं! यहां अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए। अपना बच्चा साथ ले जाएं या यहीं रखें, यह आपकी मर्जी पर निर्भर रहेगा।’ सावित्री बाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देखरेख खुद करती थीं। इसी तरह की एक ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के बच्चे को फुले दंपत्ति ने अपने बच्चे की तरह पाला। जिनका नाम यशवंत था। सत्यशोधक समाज का नेतृत्व सामाजिक परिवर्तन के लिए जोतिराव फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। उनकी मृत्यु के बाद सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्री बाई फुले के हाथों में सौंपी गई। 1891 से लेकर 1897 उन्होंने इसका नेतृत्व किया। सत्यशोधक विवाह पद्धति को भी अमलीजामा पहनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सावित्री बाई फुले आधुनिक मराठी की महत्वपूर्ण कवयित्री भी थीं। उनका पहला काव्य संकलन 1854 में काव्य फुले के रूप में प्रकाशित हुआ, जब उनकी उम्र 23 वर्ष थी। 1892 में उनकी कविताओं के दूसरा संग्रह ‘बावन काशी सुबोध रतनाकर’ प्रकाशित हुआ। यह बावन कविताओं का संग्रह है। इसे उन्होंने जोतिराव फुले की याद में लिखा है और उन्हीं को समर्पित किया है। सावित्री बाई फुले के भाषण भी 1892 में प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे पत्र भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये पत्र उस समय की परिस्थितियों, लोगों की मानसिकता, फुले के प्रति सावित्री बाई की सोच और उनके विचारों को सामने लाते हैं। 1896 में एक एक बार फिर पुणे और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। सावित्री बाई फुले ने दिन-रात अकाल पीड़ितों को मदद पहुंचाने लिए एक कर दिया। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए। शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की शिक्षिका और पथप्रदर्शक मां सावित्री बाई का जीवन अनवरत अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते और न्याय की स्थापना के लिए बीता। उनकी मृत्यु भी समाज सेवा करते ही हुई। 1897 में प्लेग की वजह से पुणे में महामारी फैल गई। वे लोगों की चिकित्सा और सेवा में जुट गईं। स्वंय भी इस बीमारी का शिकार हो गईं। 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके कार्य और विचार मशाल की तरह देश को रास्ता दिखा रहे हैं।

दिल्ली में वर्ल्ड बुक फेयर में लगा है विचारों का मेला, 5 मार्च है अंतिम तारीख

दिल्ली के प्रगति मैदान में इन दिनों किताबों का मेला लगा है। विचारों का मेला लगा है। यह मेला 5 मार्च तक चलेगा। विश्व पुस्तक मेले का यह 50वां साल है। इस लिहाज से यह महत्पूर्ण है। भांति-भांति के प्रकाशक, भांति-भांति की पुस्तकों के साथ मौजूद हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित इस विश्व पुस्तक मेले में कहा जा रहा है कि यहां तकरीबन 2000 प्रकाशक स्टॉल लगे हैं। कोविड के कारण यह पुस्तक मेला तीन सालों बाद आयोजित हो रहा है। पुस्तक मेले में हर दिन कोई न कोई ख्याति प्राप्त लेखक पहुंचता है और उनको सुनने जुटती है भारी भीड़।

पुस्तक मेले में हर विचारधारा की पुस्तकें और लेखकों को आसानी से टहलते देखा जा सकता है। अंबेडकरी-फुले आंदोलन के प्रकाशकों की बात करें तो इस साल बहुजन वैचारिकी वाले छह बुक स्टॉल लगे हुए हैं। उसमें दलित दस्तक के स्टॉल के साथ-साथ जयपुर के प्रकाशक एम.एल. परिहार की बुद्धम पब्लिकेशन, फारवर्ड प्रेस सहित जाने माने प्रकाशक सम्यक प्रकाशन और गौतम बुक सेंटर का स्टॉल लगा हुआ है। ये सभी स्टॉल हाल नंबर 2 में आस-पास ही मौजूद हैं। हॉल नंबर दो में दलित दस्तक का स्टॉल नंबर- 378 है। इसके आस-पास ही बाकी सभी प्रकाशकों के स्टॉल भी मौजूद हैं। इसके अलावा आदिवासी साहित्य के साथ इस बार वंदना थेटे भी अपने प्रकाशन के साथ मौजूद हैं।विश्व पुस्तक मेला

खास बात यह भी है कि बीते दिनों में दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर तमाम बड़े-बड़े प्रकाशक भी पुस्तकें प्रकाशित करने लगे हैं। चाहे राजकमल हो, वाणी प्रकाशन हो या फिर पेंग्विन और अन्य प्रकाशन संस्थान, प्रकाशकों में बाबासाहेब के साहित्य को प्रकाशित करने की होड़ मची है। इस बारे में दलित दस्तक के संपादक अशोक दास का कहना है कि भले ही तमाम प्रकाशक दलित साहित्य प्रकाशित कर रहे हों, कोई भी पुस्तक खरीदने से पहले पाठकों को यह भी देखना होगा कि उसको लिखा किसने है। क्योंकि लिखने वाला अगर अंबेडकरी विचारधारा की बजाय किसी अन्य विचारधारा से प्रेरित है तो फिर वह दलित साहित्य के साथ न्याय नहीं कर पाएगा, बल्कि वह पाठको को और भ्रम में ही डालेगा।

फिलहाल पुस्तक मेला अपने अंतिम चरण में है। साहित्य प्रेमियों का आना लगातार जारी है। खास बात यह भी है कि इस मेले में स्कूली छात्र भी खूब पहुंच रहे हैं। तो तमाम पुस्तक प्रेमी अपने बच्चों के साथ पुस्तक मेले में शिरकत कर रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि न्यू मीडिया और ट्विटर और इंस्टा के इस दौर में उनके बच्चे किताबों से भी जुड़े रहें और बेहतर इंसान बन सकें। इस दौरान पाठकों में अपने प्रिय लेखकों के साथ तस्वीरें लेने की होड़ भी देखी जा रही है।

 

अमेरिका में अंबेडकरवादियों की बड़ी जीत, सिएटल शहर में जातिगत भेदभाव पर लगा बैन

अमेरिका के सिएटल शहर में अब जाति को लेकर भेदभाव करने वालों की खैर नहीं होगी। सिएटल में जाति आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया है। मंगलवार को एक बड़े फैसले में सिएटल सिटी काउंसिल ने शहर के भेदभाव विरोधी कानून में जाति को भी शामिल कर लिया। यानी अब इस शहर में अगर कोई किसी से जाति के आधार पर भेदभाव करता है, तो उस पर कार्रवाई होगी। पहले भेदभाव विरोधी कानून में रंग और नस्ल आधारित भेदभाव ही शामिल था। सिएटल सिटी काउंसिल ने इस अध्यादेश को 6-1 से पारित कर दिया।

सिटी काउंसिल में इस प्रस्ताव को सिटी काउंसिल मेंबर क्षमा सावंत लेकर आई थीं। क्षमा सावंत खुद ऊंची जाति की भारतीय हिन्दू हैं, लेकिन सामाजिक न्याय की पक्षधर हैं।  क्षमा सावंत का कहना है कि “हमें यह समझने की जरूरत है कि भले ही अमेरिका में दलितों के खिलाफ भेदभाव उस तरह नहीं दिखता जैसा कि दक्षिण एशिया में हर जगह दिखता है, लेकिन यहां भी भेदभाव एक सच्चाई है।”

अमेरिका की नगर परिषद में पेश हुआ ये अपनी तरह का पहला प्रस्ताव है। इसको लेकर लंबे समय से मांग की जा रही थी। इसके समर्थक इसे सामाजिक और समानता के लिए अहम कदम मान रहे हैं। हालांकि दक्षिण एशिया और खासकर भारत के लोग इसका विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि इस प्रस्ताव का मकसद दक्षिण एशिया के लोगों खासकर भारतीय अमेरिकियों को निशाना बनाना है। बता दें कि अमेरिका में भारतीय मूल के अप्रवासियों की संख्या दूसरे नंबर पर है। अमेरिकन कम्यूनिटी सर्वे के 2018 के आंकड़े के मुताबिक अमेरिका में भारतीय मूल के 42 लाख लोग रहते हैं। भारत में जाति आधारित भेदभाव पर 1948 से ही प्रतिबंध है।

इस कानून को बनाने के लिए अमेरिका में एक लंबी मुहिम चली थी। इसमें वशिंगटन युनिवर्सिटी के 8000 से ज्यादा लोगों एकेडमिक वर्कर्स ने अपना समर्थन दिया था। इस बिल को काउंसिल में रखने वाली काउंसिल मेंबर क्षमा सावंत को 50 विभिन्न संगठनों ने समर्थन दिया था, जिसमें अमेरिकी संगठन भी शामिल थे। इस बिल को 21 फरवरी को मंजूरी मिल गई। यह इस मायने में काफी अहम है कि अमेरिका में पहली बार किसी शहर में कास्ट डिस्क्रीमिनेशन को बैन किया गया है।

हालांकि बाद के दिनों में जब भारत से तमाम जातियों के लोग अमेरिका पहुंचे तो वहां वह अपने साथ जाति लेकर गए। जिससे जातिवाद की घटनाएं सामने आने लगी। पिछले दिनों अमेरिका में ही सिसको कंपनी में एक दलित के साथ भेदभाव का मामला सुर्खियों में रहा था, जिसके बाद से ही अमेरिका में भेदभाव विरोधी कानून में जाति को भी शामिल करने की मांग हो रही थी। सिएटल में जातिवाद को अपराध मानने का प्रस्ताव पेश होने के बाद अब अमेरिका के दूसरे शहरों में भी ऐसा होने की संभावना बढ़ गई है।