बिहार के सारण जिले की अपनी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान है। वजह हैं लोक कलाकार और रंगकर्मी भिखारी ठाकुर। बिहार के चर्चित मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव का यह राजनीतिक क्षेत्र रहा है। इसी सारण जिले में एक गांव है अफौर। जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर भूमिहार और ब्राह्मण बहुल अफौर गांव में चमारों की भी ठीक-ठाक आबादी है।
चमारों की बस्ती के ठीक सामने से पक्की सड़क गुजरती है। लेकिन उनके दरवाजों तक वो सड़क नहीं जाती, बल्कि उन्हें मुंह चिढ़ाते सीधी निकल जाती है। हम यहां पहुंचे तो सबसे पहले गरजू राम से टकराएं। वह पास के ही नैनी गांव के रहने वाले हैं। उनकी बेटी की शादी इसी टोले के अशर्फी दास के सबसे बड़े बेटे संजीव कुमार दास से हुई है। गरजू राम फौज से रिटायर हैं। अपनी बेटी से मिलने आए थे। हमने उनसे पूछा कि इस इलाके दलितों की जिंदगी कितनी बदली है?
गरजू राम मानते हैं कि हमलोगों की स्थिति बहुत सुधरी है। उनका कहना है कि पिछले 50 सालों में और अब की स्थिति में बहुत फर्क है। बताते हैं कि पहले मिट्टी के घर थे, अब ज्यादातर लोगों के घर ईंट के छतदार बन गए हैं। सड़कें भी कमोबेश पहुंची है। बिजली भी मिल रही है और पानी भी। यानी कुल मिलाकर स्थिति बदल रही है।
हालांकि गरजू राम यह जोड़ना नहीं भूलते की बिजली पानी के अलावा बाकी चीजें लोगों ने अपनी मेहनत से हासिल की है।
इसी बस्ती में किशोर राम भी रहते हैं। लंबे वक्त तक कलकत्ता के जूट मिल में काम करने वाले किशोर राम रिटायर होकर वापस गांव आ चुके हैं। हाथ का इशारा करते हुए बताते हैं कि जब मैं छोटा था तो यहीं पास में ही हमारे बाप-दादा मरे हुए जानवरों की खाल उतारते थे। बहुत गरीबी का वक्त था। कई बार वही मांस बस्ती के हर घर में बनता था, जिससे हमारा पेट भरता था। लेकिन अब चीजें काफी बदल गई हैं। अब हमारी बस्ती में कोई यह काम नहीं करता।
तो आखिर इससे निकले कैसे? उप मुखिया बलदेव दास इसका श्रेय अशर्फी दास को देते हैं। अशर्फी दास के पिता सरयू दास भी कोलकाता के जूट मिल में लंबे समय तक काम करते रहे। सरयू दास के पांच बेटे और दो बेटियां थी। अशर्फी दास भाईयों में चौथे नंबर के बेटे थे। बलदेव दास कहते हैं- अशर्फी दास हमारे टोले के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे। ग्रेजुएट थे। हम साथ ही बड़े हुए। वह जागरूक थे। छपरा शहर में जगदम कॉलेज में पढ़ने जाते थे, तो उनको सही गलत की जानकारी थी। घर-घर में घूमकर सबको समझाते थे। कई बार मरे जानवरों का जो मांस पकता था, वो बर्तन ही फेंक देते थे। उन्होंने बहुत समझाया, उससे बाद में लोगों को समझ में आने लगा कि यह गलत काम है।
हमें यहीं अशर्फी दास के भाई नागेश्वर दास जिसे सभी नगेसर कहते हैं, वह मिले। नागेश्वर दास अपने बड़े भाई को याद करते हुए पहले रुआसे हो जाते हैं। कहते हैं कि भईया अब इस दुनिया में नहीं रहे। हालांकि अगले ही पल खुद को संभालते हुए कहते हैं कि भईया काफी समझदार थे। उनकी कोशिशों से हमारा टोला काफी बदला। उनका एक प्रभाव था। छोटे-बड़े सभी लोग उनका लिहाज करते थे, इसलिए सभी उनकी बात मानते थे।
नागेश्वर दास की छह बेटियां और एक बेटा है। वह खुद मजदूरी किया करते थे। अब शरीर कमजोर है तो मजदूरी नहीं कर पाते। गाय पाल रखी है, उसकी देखभाल में और थोड़ा-बहुत खेती में समय देते हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या गांव के बड़े लोग मजदूरी के पूरे पैसे देते हैं? नागेश्वर कहते हैं, ‘पहले जोर-जबरदस्ती थी, पूरे पैसे नहीं मिलते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।’
यह बदलाव क्यों और कैसे आया, इसकी एक झलक टोले के दूसरे लोगों के चेहरे देखकर समझ में आ गया। एक साथ कई युवा बैठे बातें कर रहे थे। साफ-सुथरे कपड़े पहने। दाढ़ी बनी हुई। कईयों के हाथों में घड़ी और एंड्रायड फोन भी थे। पता चला कि वो सब बाहर रहते हैं और कमाते हैं। छठ के त्यौहार में घर आए हैं। इन युवाओं में एक राजेश कुमार दास भी थे, जो पिछले 15 सालों से हैदराबाद की किसी कंपनी में काम करते हैं। मैंने गांव छोड़ने की वजह पूछी।
राजेश बोल पड़े- क्या है यहां? यहां रहते तो गरीबी में पड़े रहते। बाहर जाकर आदमी बन गए। हालांकि उनको गांव-घर छोड़ने का दुख भी है। बोले, घरवाली और बच्चे यहीं रहते हैं। कौन नहीं चाहता अपने परिवार के साथ रहना, अपने बच्चों को बड़ा होते देखना। लेकिन अगर हमें इज्जत से जीना है तो हमारे पास घर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है। यहां जिंदगी भर चमार बने रहतें, बाहर लोग हमें नाम से बुलाते हैं।
लेकिन इसी टोले में किसुन और भगेसर की जिंदगी आज भी नहीं बदली। परिवार की जो हालत तीन दशक पहले थी, वही आज भी है। वजह, यह परिवार न तो बाहर कमाने निकल पाया, न ही बच्चों को पढ़ा पाया। नतीजा यह हुआ कि गांव के कुछ सामंत परिवारों के घर की चाकरी करने में पहले खुद की जिंदगी होम हुई, अब बच्चों की हो रही है। और यह सिर्फ इन दो घरों का मसला नहीं है, बल्कि शिक्षा के मामले में कई घरों की कहानी यही है।
अशर्फी दास जिनको इस टोले से कुछ कुरितियां दूर करने का श्रेय जाता है, वह सिविल कोर्ट की सरकारी नौकरी में चले गए थे। उनके सभी बच्चे पढ़कर आगे बढ़ गए। लेकिन बाकी सब यहीं रह गए। किसी दूसरे परिवार का कोई बच्चा न तो उच्च शिक्षा हासिल कर सका, न ही सरकारी नौकरी में ही जा सका। पढ़ाई के नाम पर टोले के बाकी परिवारों के बच्चे 10वीं तक आते-आते हांफने लगते हैं। 15 साल की उम्र में ही ये अपना ठिकाना दिल्ली, गुजरात या फिर हरियाणा के किसी शहर को बना लेते हैं। फिर उनकी बाकी की जिंदगी वहीं कटती है। गांव बस त्योहार और शादियों में आना होता है।
लेकिन बाहर की दुनिया देखने से अब उनमें चेतना आ रही है। सोशल मीडिया पर वह अपना इतिहास ढूंढ़ रहे हैं। यही वजह है कि अब टोले में सरस्वती पूजा की जगह रविदास जयंती और अंबेडकर जयंती मनाई जाने लगी है। नागेश्वर के बेटे विक्की जो ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं, का कहना है कि- अब हमलोग सही गलत समझने लगे हैं। इसके बावजूद जाति की वजह से हमें कई बार ताने सुनने पड़ते हैं। लेकिन अब गांव का कोई बड़ी जात का आदमी जाति के नाम पर हमें अपमानित करने की कोशिश करता है तो हम मुंहतोड़ जवाब देते हैं। हम समझ गए हैं कि बेहतर शिक्षा के जरिये अच्छे पैसे कमाकर हम इस स्थिति से निकल सकते हैं। मेरी उम्र के सभी बच्चे पढ़ रहे हैं और बेहतर भविष्य के सपने देखते हैं।
विक्की की यह बात एक उम्मीद देती है कि नई पीढ़ी का भविष्य बेहतर होगा। लेकिन यह मजह अफौर के इस टोले की हकीकत है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चमारों की बस्ती की कहानी अलग है। हर टोले को अशर्फी दास जैसे एक नायक की जरूरत है।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.

Salute hai sar aapko 🙏